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________________ ३२४ जयघवलास हिदे कसा पाहुडे त्ति; तत्तो परमइच्छावणाविसये णिक्खवासंभवादो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसन्भावो । एवमेत्तिएण पबंधे हुमसां पराइय-पढमसमए दिज्जमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं समाणिय संपहि इममेंवत्थमुवसंहरेमाणसुत्तमुत्तरं भणइ * पढमसमयसुहुमसां पराइयस्स जमोकडिज्जदि पदेसग्गं तमेदीए सेढीए णिक्खिवदि । ६ ८१०. गद्यत्यमेदं सुत्तं । संपहि विदिवादिसमयेसु वि एसो चेव ओकडिज्जमानपदेसग्गस्स णि सेगविण्णासवकमो अणुगंतव्यो त्ति जाणावणट्ठमुवरिमं पबंधमाह * विदियसमए वि एवं चैव । तदियसमये वि एवं चैव । एस कमो ओक ड्डिदूण णिसिंचमाणगस्स पदेसग्गस्स ताव जाव सुहुमसांपराइयस्स पढमडिदिखंडयं जिल्लेविदं ति । ६८११. तं जहा - विदियसमये ताव पढमसमयोकडिददव्वादो असंखेज्जगुणं पर्देसग्गमोड्डियूण निसिचमाणो उदये थोवं देदि, तत्तो विदियाए द्विदीए असंखेज्जगुणं, एवं ताव असंखेज्जगुणं जाव पढमसमयगुण से ढिसोसयादो उवरिमाणंतरहिदि ति । कुदो ? एदम्मि विसये मोहणीयस्साव द्विगुण से ढिणिक्खेवदंसणादो । तदो गुणसेढिसोसयादो उवरिमाणंतरद्विदीए वि किस्से द्विदीए गुणसेढिपयत्तेण विणा वि दव्वमाहप्पेणासंखेज्जगुणं पदेसग्गं णिक्खिवदि । तत्तो विसेसहीणं जाव भूदपुवणयविसईकदा अंतरच रिमट्ठिदिति । तत्तो विदियट्ठिदीए आदिट्ठिदिम्मि नीचे सरककर स्थित हुई वहाँ की स्थिति के प्राप्त होनेतक जाता है, क्योंकि उससे आगे अतिस्थापनारूप स्थितियों में निक्षेप होना असम्भव है यह इस सूत्रका यहाँपर समोचीन अर्थ है । इस प्रकार इस प्रबन्ध द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक के प्रथम समय में दिये जानेवाले प्रदेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा सम्पन्न करके अब इसी अर्थका उपसंहार करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं सूक्ष्मसाम्परायिकसे प्रथम समय में जिस प्रदेशपुंजका अपकर्षण करता है उसका इस श्रेणिके क्रमसे निक्षेप करता है । ९८१० यह सूत्र गतार्थ है । अब द्वितीय आदि समयों में भी अपकर्षित किये जानेवाले प्रदेशपुंजके निषेक विन्यासका यही क्रम जानना चाहिए इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगे के प्रबन्धको कहते हैं * दूसरे समय में भी इसी क्रमसे निक्षेप करता है । तीसरे समय में भी इसी क्रमसे निक्षेप करता है । इसी प्रकार अपकर्षण करके सोंचे जानेवाले प्रदेशपुंजका सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम स्थितिकाण्डक के निर्लेपित होनेतक यही क्रम चलता रहता है। $ ८११. वह जैसे - सर्वप्रथम दूसरे समय में प्रथम समय के अपकर्षित द्रव्यसे असंख्यातगुणे प्रदेश पंजका अपकर्षण करके सिंचन करता हुआ उदयमें स्तोक प्रदेशपुंजको देता है, उससे आगे दूसरी स्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है, इस प्रकार प्रथम समयसम्बन्धी गुण णि शीर्षसे उपरि अनन्तर स्थिति के प्राप्त होनेतक असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है, क्योंकि इस स्थानपर अवस्थित गुणश्रेणिनिक्षेप देखा जाता है । उसके आगे गुणणशीर्ष से उपरिम अन्तरस्थितिसम्बन्धी भी एक स्थिति में गुणश्रेणिके प्रवृत्त होने के बिना भी द्रव्य के माहात्म्यवश असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका निक्षेप करता है। उससे आगे भूतपूर्वनय के विषयभूत अन्तरकी अन्तिम स्थिति के
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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