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________________ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे * णामागोदवेदणीयाणं डिदिबंधो संखेजाणि वस्ससहस्साणि । * द्विदिसंतकम्ममसंखेजाणि वस्ससहस्साणि । ६१०९. एवाणि सुत्ताणि सुगमाणि। संपहि एवम्हि चेव समए संजलणाणमणुभागसंतकम्मं केरिसं होदि ति आसंकाए णिण्णयविहाण?मत्तरसुत्तपबंधो * अनुभागसंतकम्म कोहसंजलणस्स जं संतकम्मं समयूणाए उदयावलियाए च्छद्विदल्लिगाए तं सव्वघादी। ११०. कोहसंजलणस्स जमणुभागसंतकम्म समयूणाए उदयावलियाए उच्छिट्ठावलियभावेण च्छट्टिवाए सेसं तं सव्वघादि चेवेत्ति वढव्वं । किं कारणं ? उदयावलियम्भंतरे सव्वघादि. सरूवेणावटिदपुव्वाणुभागसंतकम्मस्सेव संभवदंसणादो। * संजलणाणं जे दोआवलियबंधा दुसमयूणा ते देसघादी । तं पुण फद्दयगदं । १११ चदुण्हं संजलणाणं जे णवकबंधसमयपबद्धा दुसमयूणदोआवलियमेत्ता तेसिमणुभागो णियमा देसघाडी, एयटाणियसरूवत्तादो। होतो वि सो फद्दयसरूवो चेव बटुग्यो। कि कारणं ? किट्टीकरणद्धाए फद्दयगदस्सेवाणुभागस्स बंधवंसणादों। * सेसं किट्टीगदं। * नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण है। * तथा इन तीन कर्मोका स्थितिसत्कर्म असंख्यात हजार वर्ष प्रमाण है। ६१०९. ये सूत्र सुगम हैं। अब इसी समय संज्वलनोंका अनुभागसत्कर्म किस प्रकारका होता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * क्रोषसंज्वलनका जो अनुभाग सत्कर्म एक समयकम उदयावलिमें निक्षिप्त है वह सर्वघाति है। ६११०. क्रोध संज्वलनका जो अनुभाग सत्कर्म एक समय कम उदयावलिमें उच्छिष्टावलि रूपसे निक्षिप्त होकर शेष रहा है वह सर्वघाति ही है ऐसा जानना चाहिए। शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि उदयावलिके भीतर सर्वघातिरूपसे अवस्थित पहलेका अनुभागसत्कर्म ही सम्भव देखा जाता है। तात्पर्य यह है कि उदयावलिके भीतर जो अनुभाग सत्कर्म शेष रहा है वह पहलेका होनेसे सर्वघाति ही है ऐसा यहां जानना चाहिए। * संज्वलनोंके जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध हैं वे देशघाति हैं। परन्तु वे स्पर्धकस्वरूप हैं। ६१११. चारों संज्वलनोंके जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध समयप्रबद्ध हैं उनका अनुभाग नियमसे देशघाति है, क्योंकि वे एक स्थानीयस्वरूप हैं। ऐसा होते हुए भी वह अनुभाग स्पर्धकस्वरूप ही जानना चाहिए। शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि कृष्टिकरणके कालमें स्पर्धक स्वरूप ही अनुभागका बन्ध देखा जाता है। विशेषार्थ-जबतक यह जीव पूर्व और अपूर्व स्पधंकोंमेंसे कृष्टियोंको निष्पन्न करता है तबतक चारों संज्वलनोंका बन्ध स्पर्धकस्वरूप ही होता रहता है ऐसा नियम है । के चारों संज्वलनोंका शेष सब अनुभावसत्त्व कृष्टिस्वरूप है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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