Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसूत्र (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-पाटीटाष्ट युक्त) www.iranibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं मिनागन-मण्यमाला : अन्याङ्क 26 जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क 26 परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्य-स्मृति में प्रायोजित ] स्थविरप्रणीत षष्ठ उपाङ्ग जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त) ] স / उपप्रवर्तक शासनसेवी स्व० स्वामी श्रीब्रजलालजी महाराज आद्यसंयोजक--प्रधानसम्पादक - (स्व०) युवाचार्य श्रीमिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक-सम्पादक डॉ. छगनलाल शास्त्री एम.ए., पी-एच. डी. मुख्य सम्पादक 0 पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक. श्री प्रागमप्रकाशन-समिति, ज्यावर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-प्रन्थमाला : पन्थाङ्क 26 / सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल 0 प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' - सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' 0 अर्थसहयोगी श्रीमान् पद्मश्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया 1) प्रकाशन तिथि वीरनिर्वाण संवत् 2512 वि. सं. 2043 ई. सन् 1986 0 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन-समिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ 0 मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ - " - D मूल्य : हरिखम्येत मूला 57) / Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj Sixth Upanga JAMBUDDIVAPANNNATTISUTTAM (Original Text, Hindi Version, Notes, Annotations and Appendices etc.) Inspiring Soul Up-pravartaka Shasansevi (Late) Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj "Madhukar' Trabslator & Annotator Dr. Chha gaplal Shastri M.A., Ph. D. Chief Editor Pt. Shobhachandra Bharill Publisbers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 26 Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiya lal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharill Managing Editor Srichand Surana 'Saras O Promotor Munisri Vinayakumar Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar' Financial Assistance Padmashri Seth Mohanmalji Choradia Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2512 Vikram Samvat 2043; July, 1986 Publisher Sri Agam Prakashan Samiti, Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) (India) Pin 305 901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer Price": 437457. p<<7 5612 ) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण श्रुतोक्त आचार्य-सम्पदाओं से समन्वित, पंजाब-अंचल के श्रमणसंघ के प्रभावशालो नायक, जिनशासनप्रभावक, आगमवेत्ता, परम यशस्वी, स्वर्गीय पूज्य आचार्य श्री काशीरामजी म. को श्रद्धा एवं भक्ति के साथ समर्पित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आगमप्रेमी पाठकों के करकमलों में ग्रन्थमाला के 26 वें अंक के रूप में जम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र प्रस्तुत किया जा रहा है। इस पागम का प्रधान प्रतिपाद्य विषय इसके नाम से ही स्पष्ट है। इसमें जम्बूद्वीप आदि से सम्बद्ध भौगोलिक वर्णन विस्तारपूर्वक दिया गया है। साथ ही इस क्षेत्र से सम्बद्ध अन्यान्य विषयों पर भी विशद प्रकाश डाला गया है। भरत चक्रवर्ती के भरतक्षेत्र के विजय अभियान का जैसा विशद वर्णन प्रस्तुत प्रागम में चित्रित किया गया है, वह असाधारण है और जिज्ञासु जनों को अवश्य पठनीय है। संक्षेप में प्रस्तुत आगम अनेकानेक विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण विषयों का बोध कराने वाला है। इस आगम का सम्पादन और अनुवाद प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. छगनलालजी शास्त्री, एम. ए., पी-एच.डी. ने किया है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (चतुर्थ खण्ड) की भाँति प्रस्तुत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र भी आगमप्रकाशन-समिति के पूर्व अध्यक्ष स्वर्गीय समाजनायक, धर्मनिष्ठ, श्रेष्ठिवर्य माननीय श्री मोहनमलजी सा. चोरडिया, मद्रास के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित किया जा रहा है। अतिशय खेद का विषय है कि हम अापकी मौजूदगी में ही आपके सहयोग से इन प्रागमों को प्रकाशित न कर पाए, तथापि आशा करते हैं कि इन प्रकाशनों से उनकी स्वर्गस्थ आत्मा को अवश्य परितोष प्राप्त होगा। प्रस्तुत आगम के अनुवाद का परमविदुषी अध्यात्मसाधिका महासती श्री उमरावकुवरजी म. ने अवलोकन करके जो अमूल्य सहकार प्रदान किया है, उसके लिए हम अत्यन्त आभारी हैं। स्वास्थ्य अनुकूल न होते हुए भी और अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को वहन करते हए भी आपने अवलोकन के लिए समय दिया है, यह आपकी महती श्रुतभक्ति का जीता-जागता निदर्शन है। साहित्यवाचस्पति विद्वद्वर्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. शास्त्री का प्रस्तावना-लेखन के रूप में प्रारंभ से ही हमें अतिशय महत्त्वपूर्ण सहयोग प्राप्त रहा है। जैसा कि हम पहले भी निवेदन कर चुके हैं, आपका यह सहयोग विना अन्तराल-लगातार द्रुत गति से आगमप्रकाशन के इस पावन कार्य में सहायक रहा है। मुनिश्री गहरी रुचि के साथ विस्तारपूर्वक जो प्रस्तावनाएँ लिख रहे हैं, उनसे इस प्रकाशन के गौरव में वृद्धि हुई है / आपका आभार मानने के लिए शब्द पर्याप्त नहीं हैं। भविष्य में भी आपका ऐसा सहयोग प्राप्त होता रहेगा, ऐसा पूर्ण विश्वास है। अन्त में हम उन सभी अर्थसहायक महानुभावों और विद्वज्जनों के प्रति कृतज्ञता प्रकाशित करना अपना कर्तव्य मानते हैं, जिनसे विभिन्न रूपों में समिति को सहयोग प्राप्त हो रहा है। रतनचंद मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष निवेदक सायरमल चोरडिया चांदमल विनायकिया प्रधानमंत्री मंत्री श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय प्ररणा के अमृत-निर्भर : स्व. युवाचार्यश्री ___ परमाराध्य, प्रातःस्मरणीय, पण्डितरत्न प्रबुद्ध ज्ञानयोगी स्व. युवाचार्यप्रवर श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' द्वारा अपने परम श्रद्धास्पद गुरुदेव परम पूज्य श्री जोरावरमलजी म. सा. की पुण्यस्मृति में आयोजित जैन आगमों के सम्पादन, अनुवाद, विवेचन के साथ प्रकाशन का उपक्रम निश्चय ही उनकी श्रुतसेवा का एक ऐसा अनुपम उदाहरण है, जो उन्हें युग-युग पर्यन्त जनजगत् में, अध्यात्मजगत् में सादर, सश्रद्ध स्मरणीय बनाये रखेगा। युवाचार्यश्री मधुकर मुनिजी संस्कृत, प्राकृत, जन प्रागम, दर्शन, साहित्य तथा भारतीय वाङमय के प्रगाढ़ विद्वान् थे, अद्भुत विद्याव्यासंगी थे, अनुपम गुणग्राही थे, विद्वानों के अनन्य अनुरागी थे। अध्ययन, चिन्तन एवं मनन उनके जीवन के चिरसहचर थे। केवल प्रेरणा या निर्देशन देने तक ही उनका यह आगमिक कार्य परिसीमित नहीं था। इस नीत साहित्यिक कार्य का संयोजन तथा आगमों के प्रधान सम्पादक का दायित्व उन्होंने स्वीकार किया। वे केवल शोभा या सज्जा के प्रधान सम्पादक नहीं थे, सही माने में वे प्रधान सम्पादक थे। जो भी आगम प्रकाशनार्थ तैयार होता, उसका वे आद्योपान्त समीक्षणपूर्वक अध्ययन करते। जो ज्ञापनीय होता, ज्ञापित करते। प्रागम : अंग-उपांग जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति छठा उपांग है। जैन आगमों का अंग, उपांग मादि के रूप में जो विभाजन हुया है, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है विद्वानों द्वारा श्रुतपुरुष की कल्पना की गई। जैसे किसी पुरुष का शरीर अनेक अंगों का समवाय है, उसी की ज्यों श्रुतपुरुष के भी अंग कल्पित किये गये / कहा गया-श्रुतपुरुष के दो चरण, दो जंघाए, दो उरू, दो गात्रार्धशरीर के आगे का भाग, शरीर के पीछे का भाग, दो भुजाएं, गर्दन एवं मस्तक, यों कुल मिलाकर 2+2+2+2+2+1+1=12 अंग होते हैं। इनमें श्रुतपुरुष के अंगों में जो प्रविष्ट हैं, सन्निविष्ट हैं, अंगत्वेन विद्यमान हैं, वे आगम श्रुतपुरुष-अंग रूप में अभिहित हैं, अंग पागम हैं। इस परिभाषा के अनुसार निम्नांकित द्वादश आगम श्रुतपुरुष के अंग हैं 1. प्राचार, 2. सूत्रकृत, 3. स्थान, 4. समवाय, 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति, 6. ज्ञातृधर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृद्दशा, 9. अनुत्तरोपपातिकदशा, 10, प्रश्नव्याकरण, 11. विपाक तथा 12. दृष्टिवाद / ये वे आगम हैं जिनके विषय में ऐसी मान्यता है कि अर्थरूप में ये तीर्थंकर-प्ररूपित हैं, शब्दरूप में गणधर-ग्रथित हैं, यों इनका स्रोत तत्त्वतः सीधा तीर्थकर-संबद्ध है। जैसा पहले इंगित किया गया है, जिन प्रागमों के सन्दर्भ में श्रोताओं का, पाठकों का तीर्थकर-प्ररूपित के साथ गणधर-ग्रथित शाब्दिक माध्यम द्वारा सीधा सम्बन्ध बनता है, वे अंगप्रविष्ट कहे जाते हैं, उनके अतिरिक्त [8] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अंगबाह्य कहे जाते हैं। यद्यपि अंगबाहों के कथ्य अंगों के अनुरूप होते हैं विरुद्ध नहीं होते, किन्तु प्रवाहपरम्परय वे तीर्थकर-भाषित से सीधे सम्बद्ध नहीं हैं, स्थविररचित हैं। इन अंगबाह्यों में बारह ऐसे हैं, जिनकी उपांग संज्ञा है / वे इस प्रकार है 1. औपपातिक, 2. राजप्रश्नीय, 3. जीवाभिगम, 4. प्रज्ञापना, 5. सूर्यप्रज्ञप्ति, 6. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 7. चन्द्रप्रज्ञप्ति, 8. निरयावलिका अथवा कल्पिका, 9. कल्पावतंसिका, 10. पुठिपका, 11. पूष्पचला तथा 12. वृष्णिदशा / प्रत्येक अंग का एक उपांग होता है। अंग और उपांग में प्रानुरूप्य हो, यह वांछनीय है। इसके अनुसार अंग-प्रागमों तथा उपांग-आगमों में विषय-सादृश्य होना चाहिए। उपांग एक प्रकार से अंगों के पूरक होने चाहिए, किन्तु अंगों एवं उपांगों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर प्रतीत होता है, ऐसी स्थिति नहीं है। उनमें विषयवस्तु, विवेचन, विश्लेषण प्रादि की पारस्परिक संगति नहीं है। उदाहरणार्थ आचारांग प्रथम अंग है, औपपातिक प्रथम उपांग है। अंगोपांगात्मक दृष्टि से यह अपेक्षित है, विषयाकलन, प्रतिपादन आदि के रूप में उनमें साम्य हो, औपपातिक आचारांम का पूरक हो, किन्तु ऐसा नहीं है। यही स्थिति लगभग प्रत्येक अंग एवं उपांग के बीच है। यों उपांग-परिकल्पना में तत्त्वतः वैसा कोई प्राधार प्राप्त नहीं होता, जिससे इसका सार्थक्य फलित हो / वेद : अंग-उपांग वेदों के रहस्य, प्राशय, तद्गत तत्त्व-दर्शन सम्यक स्वायत्तता करने–अभिज्ञात करने की दृष्टि से वहां अंगों एवं उपांगों का उपपादन है। बेद-पुरुष की कल्पना की गई है। कहा गया है छन्द-वेद के पाद-चरण या पैर हैं, कल्प---याज्ञिक विधि-विधानों, प्रयोगों के प्रतिपादक ग्रन्थ उसके हाथ हैं, ज्योतिष---नेत्र हैं, निरुक्त-व्युत्पत्ति शास्त्र कान हैं, शिक्षा वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण, उदात्त-अनुदात्त स्वरित के रूप में स्वर प्रयोग, सन्धि प्रयोग आदि के निरूपक ग्रन्थ घ्राण-नासिका हैं, व्याकरण--उसका मुख है। अंग सहित वेदों का अध्ययन करने से अध्येता ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है। कहने का अभिप्राय है, इन विषयों के सम्यक अध्ययन के बिना वेद का अर्थ, रहस्य, प्राशय अधिगत नहीं हो सकता। वेदों के प्राशय को विशेष स्पष्ट और सुगम करने हेतु अंगों के साथ-साथ वेद के उपांगों की भी कल्पना की गई। पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्रों का वेदों के उपांगों के रूप में स्वीकरण हा है। वदा उपवेद . वैदिक वाङ्मय में ऐसा उपलब्ध है, वहाँ ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के समकक्ष चार उपवेद भी स्वीकार किये गये हैं। वे क्रमशः आयुर्वेद, गान्धर्ववेद - संगीतशास्त्र, धनुर्वेद-आयुधविद्या तथा अर्थशास्त्र-राजनीतिविज्ञान के रूप में हैं। विषय-साम्य की दृष्टि से वेदों एवं उपवेदों पर यदि चिन्तन किया जाए तो सामवेद के साथ गान्धर्ववेद का तो यत्किंचित् सांगत्य सिद्ध होता है, किन्तु ऋग्वेद के साथ आयुर्वेद, यजुर्वेद के साथ धनुर्वेद तथा अथर्ववेद के साथ अर्थशास्त्र की कोई ऐसी संगति प्रतीत नहीं होती, जिससे इनका "उप' उपसर्ग से गम्यमान सामीप्य सिद्ध हो सके / दूरान्वित सायुज्य-स्थापना का प्रयास, जो यत्र-तत्र किया जाता रहा है, केवल कष्ट-कल्पना है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पना के लिए केवल इतना ही अवकाश है, आयुर्वेद, धनुर्वेद तथा अर्थशास्त्र का वेद से सम्बन्ध जोड़ने में महिमांकन मानते हुए ऐसा किया गया हो, ताकि बेद-संपृक्त समादर के ये भी कुछ भागी हो सके। जन मनीषियों का भी स्यात् कुछ ऐसा ही झकाव बना हो, जिससे वेदों के साथ उपवेदों की ज्यों उनको अंगों के साथ उपांगों की परिकल्पना सूझी हो। कल्पना-सौष्ठव, सज्जा-सौष्ठव से अधिक इसमें विशेष सारवत्ता परिदृष्ट नहीं होती। हाँ, स्थविर कृत अंगबाहों में से इन बारह को उपांग-श्रेणी में ले लिये जाने से औरों की अपेक्षा इनका महत्त्व समझा जाता है, सामान्यत: इनका अंगों से अन्य अंगबाह्यों की अपेक्षा कुछ अधिक सामीप्य मान लिया जाता है पर वस्तुतः वैसी स्थिति है नहीं। क्योंकि सभी अंग-बाह्यों का प्रामाण्य उनके अंगानुगत होने से है अतः अंगानुगति की दृष्टि से अंगबाह्यों में बहुत तारतम्य नहीं पाता। अनुसंधित्सुओं के लिए निश्चय ही यह गवेषणा का विषय है। अनुयोग अनुयोग शब्द व्याख्याक्रम, विषयगत भेद तथा विश्लेषण-विवेचन आदि की दृष्टि से विभाग या वर्गीकरण के अर्थ में है / आर्यरक्षितसूरि ने इस अपेक्षा से आगमों का चार भागों या अनुयोगों में विभाजन किया, जो इस प्रकार है 1. चरणकरणानुयोग-इसमें आत्मा के मूलगुण-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, संयम, आचार, व्रत, ब्रह्मचर्य, कषाय-निग्रह, तप, वैयावृत्त्य प्रादि तथा उत्तरगुण—पिण्डविशुद्धि, समिति, गुप्ति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रिय-निग्रह, अभिग्रह, प्रतिलेखन आदि का वर्णन है / . बत्तीस प्रागमों (अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य) में से प्राचारांग, प्रश्नव्याकरण-ये दो अंगसूत्र; दशवकालिकयह एक मूलसूत्र, निशीथ, व्यवहार, वृहत्कल्प तया दशाश्रुतस्कन्ध-ये चार छेदसूत्र तथा प्रावश्यक–यों कुल आठ सूत्रों का इस अनुयोग में समावेश होता है। 2. धर्मकथानुयोग-इसमें दया, अनुकम्पा, दान, शील, शान्ति, ऋजुता, मृदुता प्रादि धर्म के अंगों का विश्लेषण है, जिसके माध्यम मुख्य रूप से छोटे, बड़े कथानक हैं / धर्मकथानुयोग में ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्त कृद्दशा, अनुतरोपपातिकदशा एवं विपाक-ये पांच अंगसूत्र, औपपातिक, राजप्रश्नीय, निरयावली, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका एवं वृष्णिदशा-ये सात उपांगसूत्र तथा उत्तराध्ययन~एक मूलसूत्र-यों कुल तेरह सूत्र समाविष्ट हैं। 3. गणितानुयोग-इसमें मुख्यतया गणित-सम्बद्ध, गणिताधृत वर्णन हैं। इस अनुयोग में सूर्य प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति-इन तीन उपांगसूत्रों का समावेश है। 4. द्रव्यानुयोग-इसमें जीव, अजीव, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, प्रास्रव, संव, निर्जरा, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष प्रादि का सूक्ष्म, गहन विवेचन है। द्रव्यानुग में सूत्रकृत, स्थान, समवाय तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती)-ये चार अंगसूत्र, जीवाभिगम, प्रज्ञापना-ये दो उपांग सूत्र तथा नन्दी एवं अनुयोग---ये दो मूलसूत्र-कुल पाठ सूत्र समाविष्ट हैं / ___ बारहवें अंग दृष्टिवाद में द्रव्यानुयोग का अत्यन्त गहन, सूक्ष्म, विस्तृत विवेचन है, जो आज प्राप्य नहीं है। [10] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस विवेचन से स्पष्ट है कि छठा अंग ज्ञातृधर्मकथा धर्मकथानुयोग में प्राता है, जबकि छठा उपांग जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति गणितानुयोग में प्राता है। विषय की दृष्टि से इनमें कोई संगति नहीं है। किन्तु परम्परया दोनों को समकक्ष अंगोपांग के रूप में स्वीकार किया जाता है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र सात वक्षस्कारों में विभक्त है, जिनमें कुल 181 सूत्र हैं। वक्षस्कार यहाँ प्रकरण है। वास्तव में इस शब्द का अर्थ प्रकरण नहीं है। जम्बूद्वीप में इस नाम के प्रमुख पर्वत हैं, जो वहाँ के वर्णनक्रम के केन्द्रवर्ती हैं। जैन भूगोल के अन्तर्गत उनका अनेक दृष्टियों से बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है / अतएव वे यहाँ प्रकरण के अर्थ में उद्दिष्ट हैं / प्रस्तुत प्रागम में जम्बूद्वीप का स्वरूप, विस्तार, प्राकार, जैन कालचक्र--अवसर्पिणी-सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दुःषमा, दुःषमदुःषमा, उत्सर्पिणी-दुःषमदुःषमा, दुःषमा, दुःषमसुषमा, सुषमदुःषमा, सुषमा, सुषमसुषमा, चौदह कुलकर, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ, बहत्तर कलाएं नारियों के लिए विशेषतः चौसठ कलाएं, बहविधशिल्प, प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत, षट्खण्डविजय, चल्लहिमवान, महाहिमवान्, वैताढ्य, निषध, गन्धमादन यमक, कंचनगिरि, माल्यवन्त मेरु, नीलवन्त, रुक्मी, शिखरी आदि पर्वत, भरत, हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह, उत्तरकरु, रम्यक, हैरण्यवत, ऐरवत आदि क्षेत्र, बत्तीस विजय', गंगा, सिन्ध, शीता, शीतोदा, रूप्यकला, सूवर्णकला, रक्तवती, रक्ता आदि नदियां, पर्वतों, क्षेत्रों आदि के अधिष्ठातृदेव, तीर्थकराभिषेक, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे आदि ज्योतिष्क देव, अयन, संवत्सर, मास, पक्ष, दिवस आदि एतत्सम्बद्ध अनेक विषयों का बड़ा विशद वर्णन हुमा है। चक्रवर्ती भरत द्वारा षदखण्डविजय आदि के अन्तर्गत अनेक प्रसंग ऐसे हैं, जहाँ प्राकृत के भाषात्मक लालित्य की सुन्दर अभिव्यंजना है। कई प्रसंग तो ऐसे हैं, जहाँ उत्कृष्ट गद्य की काव्यात्मक छटा का अच्छा निखार परिदृश्यमान है / बड़े-बड़े लम्बे वाक्य हैं, किन्तु परिश्रान्तिकर नहीं हैं, प्रोत्साहक हैं। जैसी कि प्राचीन शास्त्रों की, विशेषत: श्रमण-संस्कृतिपरक वाङमय की पद्धति है, पुनरावृत्ति बहुत होती है। यहाँ ज्ञातव्य है, काव्यात्मक सजन में पुनरावृत्ति निःसन्देह जो आपातत: बड़ी दुःसह लगती है, अनुपादेय है, परित्याज्य है, किन्तु जन-जन को उपदिष्ट करने हेतु प्रवृत्त शास्त्रीय वाड्.मय में वह इसलिए प्रयुक्त है कि एक ही बात बार बार कहने से, दुहराने से श्रोताओं को उसे हृदयंगम कर पाने में अनुकलता, सुविधा होती है। संपादन : अनुवाद : विवेचन शुद्धतम पाठ संकलित एवं प्रस्तुत किया जा सके, एतदर्थ मैंने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र की तीन प्रतियाँ प्राप्त की, जो निम्नांकित हैं 1. प्रागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित, संस्कृतवृत्ति सहित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति / 2. परम पूज्य श्री अमोलकऋषिजी म. द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद सहित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति / 3. जैनसिद्धान्ताचार्य मुनिश्री घासीलालजी म. द्वारा प्रणीत टीका सहित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तीनों भाग / पाठ-संपादन हेतु तीनों प्रतियों को प्राद्योपान्त मिलाना आवश्यक था, जो किशनगढ़-मदनगंज में चालू किया गया। तीनों प्रतियाँ मिलाने हेतु इस कार्य में कम से कम तीन व्यक्ति अपेक्षित होते / जब स्मरण करता हूँ [11] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो हृदय श्रद्धा-विभोर हो उठता है, परम पूज्य स्व. युवाचार्यप्रवर श्री मधुकरमुनिजी म. कभी-कभी स्वयं पाठ मिलाने हेतु फर्श पर प्रासन बिछाकर विराज जाते। हमारे साथ पाठ-मेलन में लग जाते / समस्त भारतवर्ष के श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के युवाचार्य के महिमामय पद पर संप्रतिष्ठ होते हुए भी कल्पनातीत निरभिमानिता, सरलता एवं सौम्यता संबलित जीवन का संवहन निःसन्देह उनकी अनुपम ऊर्ध्वमुखी चेतना का परिज्ञापक था। प्रागमिक कार्य परम श्रद्धय युवाचार्यप्रवर को अत्यन्त प्रिय था। यह कहना अतिरंजित नहीं होगा, यह उन्हें प्राणप्रिय था। उनकी रग-रग में ग्राममों के प्रति अगाध निष्ठा थी.। वे चाहते थे, यह महान् कार्य अत्यन्त सुन्दर तथा उत्कृष्ट रूप में संपन्न हो। स्मरण पाते ही हृदय शोकाकूल हो जाता है, प्रागम-कार्य की सम्यक् निष्पद्यमान सम्पन्नता को देखने वे हमारे बीच नहीं रहे। कराल काल ने असमय में ही उन्हें हमसे इस प्रकार छीन लिया, जिसकी तिलमात्र भी कल्पना नहीं थी। काश ! आज वे विद्यमान होते, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का सुसंपन्न कार्य देखते, उनके हर्ष का पार नहीं रहता, किन्तु बड़ा दुःख है, हमारे लिए वह सब अब मात्र स्मृतिशेष रह गया है। अपने यहाँ भारतवर्ष में मुद्रण-शुद्धि को बहुत महत्त्व नहीं दिया जाता। जर्मनी, इंग्लण्ड, फ्रान्स प्रादि पाश्चात्य देशों में ऐसा नहीं है। वहाँ मुद्रण सर्वथा शुद्ध हो, इस ओर बहुत ध्यान दिया जाता है। परिणामस्वरूप यूरोप में छपी पुस्तके, चाहे इण्डोलोजी पर ही क्यों न हों, अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध होती हैं / हमारे यहाँ छपी पुस्तकों में मुद्रण सम्बन्धी अशुद्धियाँ बहुत रह जाती हैं। पाठ-मेलनार्थ परिगृहीत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की उक्त तीनों ही प्रतियाँ इसका अपवाद नहीं हैं। हाँ, आगमोदय समिति की प्रति अन्य दो प्रतियां की अपेक्षा अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध मुद्रित है। इन तीनों प्रतियों के आधार पर पाठ संपादित किया। पाठ सर्वथा शुद्ध रूप में उपस्थापित किया जा सके, इसका पूरा ध्यान रखा / पाठ-संपादन में 'जाव' का प्रसंग बड़ा जटिल होता है। 'जाव' दो प्रकार की सूचनाएं देता है। कहीं वह 'तक' का द्योतक होता है, कहीं अपने स्थान पर जोड़े जाने योग्य पाठ की मांग करता है / 'जाव' द्वारा वांछित, अपेक्षित पाठ श्रमपूर्वक खोज खोजकर यथावत् रूप में यथास्थान सन्निविष्ट करने का प्रयत्न किया। पाठ संपादित हो जाने पर अनुवाद-विवेचन का कार्य हाथ में लिया। ऐसे वर्णन-प्रधान, गणित-प्रधान आगम का अधुनातन प्रवाहपूर्ण शैली में अनुवाद एक कठिन कार्य है, किन्तु मैं उत्साहपूर्वक लगा रहा / मुझे यह प्रकट करते प्रात्मपरितोष है कि महान मनीषी, विद्वद्वरेण्य युवाचार्यप्रवर के अनुग्रह एवं पाशीर्वाद से आज वह सम्यक सम्पन्न है। अनुवाद इस प्रकार सरल, प्रांजल एवं सुबोध्य शैली में किया गया है, जिससे पाठक को पढ़ते समय जरा भी विच्छिन्नता या व्यवधान की प्रतीति न हो, वह धारानुबद्ध रूप में पढ़ता रह सके / साथ ही साथ मल प्राकृत के माध्यम से प्रागम पढने वाले छात्रों को दृष्टि में रख अनुवाद करते समय यह ध्यान रखा गया है कि मूल का कोई भी शब्द अनुदित होने से छुट न पाए / इससे विद्यार्थियों को मूलानुग्राही अध्ययन में सुविधा होगी। शाब्दिक दृष्ट्या अस्पष्ट' प्रतीत होने वाले प्राशय को स्पष्ट करने का अनुवाद में पूरा प्रयत्न रहा है / जहाँ अपेक्षित लगा, उन प्रसंगों का विशद विवेचन किया है। यों संपादन, अनुवाद एवं विवेचन तीनों अपेक्षानों से विनम्र प्रयास रहा है कि यह पागम पाठकों के लिए, विद्यार्थियों के लिए अतीव उपयोगी सिद्ध हो। [12] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादन, अनुवाद एवं विवेचन में जिन प्राचार्यों, विद्वानों तथा लेखकों की कृतियों से प्रेरणा मिली, साहाय्य प्राप्त हुआ, उन सबका मैं सादर आभारी हूँ। परम श्रद्धास्पद, प्रातःस्मरणीय, विद्वद्वरेण्य स्व. युवाचार्यप्रवर श्री मिश्रीमलजी म. 'मधकर' की प्रेरणा एवं पुण्य-प्रतापस्वरूप आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा स्वीकृत, संचालित, निष्पादित श्रुत-संस्कृति का यह महान यज्ञ जन-जन के लिए कल्याणकारी, मंगलकारी सिद्ध हो, मेरी यही अन्तर्भावना है। सरदारशहर डॉ.छगनलाल शास्त्री (राजस्थान)-३३१४०३ [13] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रागम-प्रकाशन के विशिष्ट अर्थसहयोगी श्रेष्ठिप्रवर, श्रावकवर्य / पद्मश्री मोहनमलजी सा. चोरड़िया [संक्षिप्त जीवन-परिचय] 'मानव जन्म से नहीं अपितु अपने कर्म से महान बनता है।' यह उक्ति स्व. महामना सेठ श्रीमान् मोहनमलजी सा. चोरडिया के सम्बन्ध में एकदम खरी उतरती है। आपने तन, मन और धन से देश, समाज व धर्म की सेवा में जो महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, वह जैन समाज के ही नहीं, बल्कि मानव-समाज के इतिहास में एक स्वर्णपृष्ठ के रूप में अमर रहेगा। मद्रास शहर की प्रत्येक धार्मिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक गतिविधि से प्राप गहराई से जुड़े हुए थे और प्रत्येक क्षेत्र में पाप हर सम्भव सहयोग देते थे। आपका मार्गदर्शन एवं सहयोग प्राप्त करने के लिए आपके सम्पर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति संतुष्ट होकर ही लौटता था। आपका जन्म 28 अगस्त 1902 में नोखा ग्राम (राजस्थान) में सेठ श्रीमान सिरेमलजी चोरडिया के पुत्र रूप में हमा / सन् 1917 में आप श्रीमान सोहनलालजी के गोद आये और उसी वर्ष अापका विवाह हरसोलाव निवासी श्रीमान् बादलचन्दजी बाफणा की सुपुत्री सदगुणसम्पन्ना श्रीमती नैनीकवरबाई के साथ हुआ। तदनन्तर आप मद्रास पधारे। श्रीमान रतनचन्दजी, पारसमलजी; सरदारमलजी, रणजीतमलजी एवं सम्पतमलजी आपके सुपुत्र हैं। अनेक पौत्र-पौत्री एवं प्रपौत्र-प्रपोत्रियों से भरे-पूरे सूखी परिवार से प्राप सम्पन्न थे। बचपन में ही आपके माता-पिता द्वारा प्रदत्त धार्मिक संस्कारों के फलस्वरूप आपमें सरलता, सहजता, सौम्यता, उदारता, सहिष्णुता, नम्रता, विनयशीलता आदि अनेक मानवोचित सदगुण स्वाभाविक रूप से विद्यमान थे। आपका हृदय सागर-सा विशाल था, जिसमें मानवमात्र के लिये ही नहीं, अपितु प्राणीमात्र के कल्याण की भावना निहित थी। आपकी प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं सुयोग्य नेतृत्व में जनकल्याण एवं समाजकल्याण के अनेकों कार्य सम्पन्न हुए, जिनमें आपने तन, मन, धन से पूर्ण सहयोग दिया / उनकी एक झलक यहाँ प्रस्तुत है। 1. योगदान : शिक्षा के क्षेत्र में समाज में व्याप्त शैक्षणिक प्रभाव को दूर करने एवं समाज में धार्मिक और व्यावहारिक शिक्षण का प्रचार-प्रसार करने की आपकी तीव्र अभिलाषा थी। परिणामस्वरूप सन् 1926 में श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन पाठशाला का शुभारम्भ हुआ। तदुपरान्त व्यावहारिक शिक्षण के प्रचार हेतु जहाँ श्री जैन हिन्दी प्राईमरी स्कल, अमोलकचन्द गेलड़ा जैन हाई स्कूल, ताराचन्द गेलडा जैन हाई स्कल, श्री गणेशीबाई गेलड़ा जैन गर्ल्स. हाई स्कूल, मांगीचन्द भण्डारी जैन हाई स्कूल, बोडिंग होम एवं जैन महिला विद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं की स्थापना हुई, वहाँ आध्यात्मिक एवं धार्मिक ज्ञान के प्रसार हेतु श्री दक्षिण भारत जैन स्वाध्याय संघ का शुभारम्भ [ 14 ] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगरचन्द मानमल जैन कॉलेज की स्थापना द्वारा शिक्षाक्षेत्र में आपने जो अनुपम एवं महान् योगदान दिया है, वह सदैव चिरस्मरणीय रहेगा। इसके अलावा कुछ ही माह पूर्व मद्रास विश्वविद्यालय में जैन सिद्धांतों पर विशेष शोध हेतु स्वतन्त्र विभाग की स्थापना कराने में भी आपने अपना सक्रिय योगदान दिया। इस तरह अापने व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान-ज्योति जलाकर, शिक्षा के प्रभाव को दूर करने की अपनी भावना को साकार/मूर्त रूप दिया / 2. योगदान : चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्साक्षेत्र में भी आप अपनी अमूल्य सेवाएं अर्पित करने में कभी पीछे नहीं रहे। सन् 1927 में आपने नोखा एवं कुचेरा में निःशुल्क प्रायुर्वेदिक औषधालय की स्थापना की। सन 1940 में कचेरा प्रौषधाल को विशाल धनराशि के साथ राजस्थान सरकार को समर्पित कर दिया, जो वर्तमान में 'सेठ सोहनलाल चोरड़िया सरकारी औषधालय' के नाम से जनसेवा का उल्लेखनीय कार्य कर रहा है। इस सेवाकार्य के उपलक्ष में राजस्थान सरकार ने प्रापको 'पालकी शिरोमोर' की पदवी से अलंकृत किया। अल्प व्यय में चिकित्सा की सुविधा उपलब्ध कराने हेतु मद्रास में श्री जैन मेडीकल रिलीफ सोसायटी की स्थापना में सक्रिय योगदान दिया। इसके तत्त्वावधान में सम्प्रति 18 औषधालय, प्रसूतिगृह प्रादि सुचारु रूप से कार्य कर रहे हैं। कुछ समय पूर्व ही प्रापने अपनी धर्मपत्नी के नाम से प्रसूतिगह एवं शिशूकल्याणगह की स्थापना हेतु पाँच लाख रुपये की राशि दान की। समय-समय पर मापने नेत्रचिकित्सा-शिविर आदि प्रायोजित करवाकर सराहनीय कार्य किया। इस तरह चिकित्साक्षेत्र में और भी अनेक कार्य करके आपने जनता को दु:खमुक्ति हेतु यथाशक्ति प्रयास किया / 3. योगदान : जीवदया के क्षेत्र में आपके हृदय में मानवजगत के साथ ही पशुजगत् के प्रति भी करुणा का अजस्र स्रोत बहता रहता था / पशुओं के दुःख को भी आपने सदैव अपना दुःख समझा / अतः उनके दुःख और उन पर होने वाले अत्याचारनिवारण में सहयोग देने हेतु 'भगवान् महावीर अहिंसा प्रचार संघ' की स्थापना कर एक व्यवस्थित कार्य शुरू किया। इस संस्था के माध्यम से जीवों को अभयदान देने एवं अहिंसा-प्रचार का कार्य बड़े सुन्दर ढंग से चल रहा है। आपकी उल्लिखित सेवाओं को देखते हुए यदि आपको 'प्राणीमात्र के हितचिन्तक' कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 4. योगदान : धार्मिक क्षेत्र में आपके रोम-रोम में धार्मिकता व्याप्त थी। आप प्रत्येक धार्मिक एवं सामाजिक गतिविधि में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करते थे। जीवन के अन्तिम समय तक आपने जैन श्रीसंघ मद्रास के संघपति के रूप में अविस्मरणीय सेवाएं दीं। कई वर्षों तक अ. भा. श्वे. स्था. जैन कॉन्फ्रेस के अध्यक्ष पद पर रहकर उसके कार्यभार को बड़ी दक्षता के साथ संभाला। आप अखिल भारतीय जैन समाज के सुप्रतिष्ठित अग्रगण्य नेताओं में से एक थे। आप निष्पक्ष एवं Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रदायवाद से परे एक निराले व्यक्तित्व के धनी थे। इसीलिए समग्र सन्त एवं श्रावकसमाज आपको एक हदधर्मी श्रावक के रूप में जानता व आदर देता था। आप जैन शास्त्रों एवं तत्त्वों/सिद्धांतों के ज्ञाता थे। आप सन्त सतियों का चातुर्मास कराने में सदैव अग्रणी रहते थे और उनकी सेवा का लाभ बराबर लेते रहते थे। इस तरह धार्मिक क्षेत्र में आपका अपूर्व योगदान रहा। इसी तरह नेत्रहीन, अपंग, रोगग्रस्त, क्षुधापीड़ित, आर्थिक स्थिति से कमजोर बन्धुओं को समय-समय पर जाति-पांति के भेदभाव से रहित होकर अर्थ सहयोग प्रदान किया। इस प्रकार शिक्षणक्षेत्र में, चिकित्साक्षेत्र में, जीवदया के क्षेत्र में, धार्मिकक्षेत्र में एवं मानव-सहायता प्रादि हर सेवा के कार्य में तन-मन-धन से आपने यथासम्भव सहयोग दिया। ऐसे महान् समाजसेवी, मानवता के प्रतीक को खोकर भारत का सम्पूर्ण मानवसमाज दुःख की अनुभूति कर रहा है। प्राय चिरस्मरणीय बनें, जन-जन आपके आदर्श जीवन से प्रेरणा प्राप्त करे, आपकी आत्मा चिरशांति को प्राप्त करे; हम यही कामना करते हैं / * --मन्त्री * श्रीमान् भँवरलालजी सा, गोठी, मद्रास के सौजन्य से। [16] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जम्बूव्दीपप्रज्ञप्ति : एक समीक्षात्मक अध्ययन भारतीय दर्शन में जैनदर्शन का एक विशिष्ट और मौलिक स्थान है। इस दर्शन में प्रात्मा, परमात्मा, जीव-जगत्, बन्ध-मुक्ति, लोक-परलोक प्रति विषयों पर बहुत गहराई से चिन्तन हुआ है। विषय की तलछट तक पहुँच कर जो तथ्य उजागर किये गए हैं, वे आधुनिक युग में भी मानव के लिये पथप्रदर्शक हैं। पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भौतिक जगत में नित्य नये अनुसन्धान कर विश्व को चमत्कृत किया है। साथ ही जन-जन के अन्तर्मानस में भय का सञ्चार भी किया है। भले ही विनाश की दिशा में भारतीय चिन्तकों का चिन्तन पाश्चात्य चिन्तकों की प्रतिस्पर्धा में पीछे रहा हो पर जीवन निर्माणकारी तथ्यों की अन्वेषणा में उनका चिन्तन बहुत आगे है / जैनदर्शन के पुरस्कर्ता तीर्थकर रहे हैं / उन्होंने उग्र साधना कर कर्म-मल को नष्ट किया, रागद्वेष से मुक्त बने, केवलज्ञान-केवलदर्शन के दिव्य आलोक से उनका जीवन जगमगाने लगा। तब उन्होंने देखा कि जन-जीवन दुख से आक्रान्त है, भय की विभीषिका से संत्रस्त है, प्रतः जन-जन के कल्याण के लिये पावन प्रवचन प्रदान किया। उस पावन प्रवचन का शाब्दिक दृष्टि से संकलन उनके प्रधान शिष्य गणधरों ने किया और फिर उसको आधारभूत मानकर स्थविरों ने भी संकलन किया। वह संकलन जैन पारिभाषिक शब्दावली में आगम के रूप में विश्रुत है। प्रागम जैनविद्या का अक्षय कोष है। पागम की प्राचीन संज्ञा 'श्रुत' भी रही है। प्राकृतभाषा में श्रुत को 'सुत्त' कहा है। मूर्धन्य मनीषियों ने 'सुत्त' शब्द के तीन अर्थ किये हैं सुत्त-सुप्त अर्थात् सोया हुआ / सुत्त-सूत्र अर्थात डोरा या परस्पर अनुबन्धक / सुत्त-श्रुत अर्थात् सुना हुआ। हम लाक्षणिक दृष्टि से चिन्तन करें तो प्रथम और द्वितीय अर्थ श्रुत के विषय में पूर्ण रूप से घटित होते हैं, पर तृतीय अर्थ तो अमिधा से ही स्पष्ट है, सहज बुद्धिगम्य है / हम पूर्व ही बता चुके हैं कि श्रुतज्ञान रूपी महागंगा का निर्मल प्रवाह तीथंकरों की विमल-वाणी के रूप में प्रवाहित हुमा और गणधर व स्थविरों ने सूत्रबद्ध कर उस प्रवाह को स्थिरत्व प्रदान किया। इस महासत्य को वैदिक दृष्टि से कहना चाहें तो इस रूप में कह सकते हैं-परम कल्याणकारी तीर्थकर रूपी शिव के जटा-जट रूप ज्ञानकेन्द्र से आगम की विराट गंगा का प्रवाह प्रवाहित हुआ और गणधर रूपी भगीरथ ने उस श्रत-गंगा को अनेक प्रवाहों में प्रवाहित किया। श्रुति, स्मृति और श्रुत इन शब्दों पर जब हम गहराई से अनुचिन्तन करते हैं तो ज्ञात होता है कि अतीत काल में ज्ञान का निर्मल प्रवाह गुरु और शिष्य की मौखिक ज्ञान-धारा के रूप में प्रवाहित था। लेखन [17] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला का पूर्ण विकास भगवान ऋषभदेव के युग में हो चुका था पर श्रुत-ज्ञान का लेखन नहीं हमा। चिरकाल तक वह ज्ञानधारा मौखिक रूप में ही चलती रही। यही कारण है कि आगम साहित्य की उत्थानिका में 'सुयं में आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खाय' अर्थात् प्रायुष्मन् ! मैंने सुना है, भगवान् ने ऐसा कहा है, शब्दावली उटैंकित की गई है। इसी प्रकार 'तस्स गं अयम? पण्णत्त' अर्थात् भगवान् ने इसका यह अर्थ कहा है, शब्दावली का प्रयोग है। मागमसाहित्य में यत्र-तत्र इस प्रकार की शब्दावलियां प्रयुक्त हुई हैं, इससे यह स्पष्ट है कि आगम के अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर हैं, पर सूत्र की रचना या अभिव्यक्ति की जो शैली है, वह गणधरों की या स्थविरों की है। गणधर या स्थविर अपनी कमनीय कल्पना का सम्मिश्रण उसमें नहीं करते, वे तो केवल भाव को भाषा के परिधान से समलंकृत करते हैं। नन्दीसूत्र में कहा गया है कि जैनागम तीर्थकर-प्रणीत हैं, इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि अर्थात्मक आगम के प्रणेता तीर्थकर हैं। तीर्थंकर की वीतरागता और सर्वार्थसाक्षात्कारिता के कारण ही मागम प्रमाण माने गये हैं। प्राचार्य देववाचक ने आगमसाहित्य को अंग और अंगबाह्य, इन दो भागों में विभक्त किया है। अंगों की सूत्ररचना करने वाले गणधर हैं तो अंगबाह्य की सूत्ररचना स्थविर भगवन्तों के द्वारा की गई है। स्थविर सम्पूर्ण श्रुत-ज्ञानी चतुर्दशपूर्वी या दशपूर्वी- दो प्रकार के होते हैं / अंग स्वतः प्रमाण रूप हैं, पर अंगबाह्य परतः प्रमाण रूप होते हैं / दश पूर्वधर नियमतः सम्यग्दर्शी होते हैं / उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में अंगविरोधी तथ्य नहीं होते, अतः वे प्रागम प्रमारए रूप माने जाते हैं / अंगबाह्य भागमों की सूची में जम्बूद्वीपप्रशप्ति का कालिक श्रत की सूची में आठवां स्थान है। जब प्रागमसाहित्य का अंग, उपांग, मूल और छेद रूप में वर्गीकरण हुआ तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का उपांग में पांच स्थान रहा और इसे भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र का उपांग माना गया है। भगवतीसूत्र के साथ प्रस्तुत उपांग का क्या सम्बन्ध है ? इसे किस कारण भगवती का उपांग कहा गया है ? यह शोधाथियों के लिये चिन्तनीय प्रश्न है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में एक अध्ययन है और सात वक्षस्कार हैं। यह पागम पूर्वाद और उत्तरार्द्ध इन दो भागों में विभक्त है / पूर्वाद वक्षस्कार हैं तो उत्तरार्द्ध में तीन वक्षस्कार हैं। वक्षस्कार शब्द यहां पर प्रकरण के अर्थ में व्यवहत हुमा है, पर वस्तुत: जम्बूद्वीप में इस नाम के प्रमुख पर्वत हैं, जिनका जैन भूगोल में अनेक दृष्टियों से महत्त्व प्रतिपादित है। जम्बूद्वीप से सम्बद्ध विवेचन के सन्दर्भ में ग्रन्थकार प्रकरण का अवबोध कराने के लिए ही वक्षस्कार शब्द का प्रयोग करते हैं। जम्बूद्वीपप्राप्ति के मूल पाठ का श्लोक-प्रमाण 4146 है। 178 गद्य सूत्र हैं और 52 पद्य सूत्र हैं। जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग दूसरे में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को 6 ठा उपांग लिखा है। जब भागमों का वर्गीकरण अनुयोग की दृष्टि से किया गया तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को गणितानुयोग में सम्मिलित किया गया, पर गणितानुयोग के साथ ही उसमें धर्मकथानुयोग प्रादि भी हैं। मिथिला : एक परिचय जम्बूद्वीपप्राप्ति का प्रारम्भ मिथिला नगरी के बर्णन से हुया है, जहां पर श्रमण भगवान महावीर अपने अन्तेवासियों के साथ पधारे हुए हैं। उस समय वहाँ का अधिपति राजा जितशत्रु था। बृहत्कल्पभाष्य' में साढे पच्चीस मार्य क्षेत्रों का वर्णन है। उसमें मिथिला का भी वर्णन है। मिथिला विदेह जनपद की राजधानी थी। विदेह राज्य की सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गंडकी और पूर्व में महीनदी तक 1. बृहत्कल्पभाष्य 1. 3275-89 2. (क) महाभारत वनपर्व 254 (ख) महावस्तु III, 172 (ग) दिव्यावदान पृ. 424 [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी। जातक की दृष्टि से इस राष्ट्र का विस्तार 300 योजन था उसमें सोलह सहस्र गांव थे / यह देश और राजधानी दोनों का ही नाम था। आधुनिक शोध के अनुसार यह नेपाल की सीमा पर स्थित था। वर्तमान में जो जनकपुर नामक एक कस्बा है, वही प्राचीन युग की मिथिला होनी चाहिए। इसके उत्तर में मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिला मिलते हैं। बील ने विव्यान डी. सेंट माटिन को उद्धत किया है, जिन्होंने चैन-सु-ना नाम (Chen-su-na) को जनकपुरी से सम्बन्धित माना है। रामायण के अनुसार राजा जनक के समय राजर्षि विश्वामित्र को अयोध्या से मिथिला पहुँचने में चार दिन का समय लगा था। वे विश्राम के के लिए विशाला में रुके थे। रीज डेविड्स के अभिमतानुसार मिथिला वैशाली से लगभग 35 मील पश्चिमोत्तर में अवस्थित थी, वह सात लीग और विदेह राज्य 300 लोग विस्तृत था। जातक के अनुसार यह अंग को बम्पा से 60 योजन की दूरी पर थी। विदेह का नामकरण विदेष माधव के नाम पर हया है जिसने शतपथब्राह्मण 10 के अनुसार यहाँ उपनिवेश स्थापित किया था। पपञ्चसूदनी, धम्मपद अट्ठकथा के अनुसार विदेह का नाम सिनेरु पर्वत के पूर्व में स्थित एशिया के पूर्वी उपमहाद्वीप पूम्बविदेह के प्राचीन आप्रवासियों या प्रागन्तुकों से ग्रहण किया है। महाभारतकार' ने इस क्षेत्र को भद्राश्ववर्ष कहा है। भविष्यपुराण की दृष्टि से निमि के पुत्र मिथि ने मिथिला नगर का निर्माण कराया था। प्रस्तुत नगर के संस्थापक होने से वे जनक के नाम से विश्रुत हुए।४ मिथि के अाधार पर मिथिला का नामकरण हुआ और वहां के राजाओं को मैथिल कहा गया।'५ जातक के अनुसार मिथिला के चार द्वार थे और प्रत्येक द्वार पर एक-एक बाजार था। इन बाजारों में पशुधन के साथ हीरे-पन्ने, माणिक-मोती. सोना-चांदी 3. सुरुचि जातक (सं. 489) भाग 4, पृ. 521-522 4. जातक (सं. 406) भाग 4, पृष्ठ 27 5. (क) लाहा, ज्याँग्रेफी ऑव अर्ली बुद्धिज्म, पृ. 31 (ख) कनिंघम, ऐंश्येंट ज्यॉग्रेफी प्रॉव इंडिया, एस. एन. मजुमदार संस्करण पृ. 718 (ग) कनिंघम, आालॉजिकल सर्वे रिपोर्ट,XVI, 34 6. बील, बुद्धिस्ट रिकार्डस ऑव द वेस्टर्न वल्डं, II, प्र. 78, टिप्पणी 7. रामायण, वंगवासी संस्करण, 1-3 8. (क) जातक III. 365 (ख) जातक, IV, पृ.३१६ 9. जातक VI. पृ. 32 10. शतपथब्राह्मण I, IV, 1 11. पपञ्चसूदनी, सिंहली संस्करण, I. पृ. 484 12. धम्मपद अकया, सिंहलो संस्करण, II. पृ. 482 13. महाभारत, भीष्मपर्व, 6, 12, 13, 7, 13, 6, 31 14. भागवतपुराण, IX. 13313 15. (क) वायुपुराण 89 / 6 / 23 (ख) ब्रह्माण्डपुराण, III. 64 / 6 / 24 (ग) विष्णुपुराण, IV. 5 // 14 16. जातक VI. पृ. 330 [19] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभृति बहुमूल्य वस्तुओं का भी प्रधानता से विक्रय किया जाता था / वास्तुकला की दृष्टि से यह नगर बहुत ही भव्य बसा हुआ था। प्राकारों, फाटकों, कंगूरेदार दुर्ग और प्राचीरों सहित शिल्पियों ने कमनीय कल्पना से इसे अभिकल्पित किया था। चारों ओर इसमें पारगामी सड़कें थीं। यह नगर सुन्दर सरोवर और उद्यानप्रधान या। यहां के निवासी सुखी और समृद्ध थे। रामायण की दृष्टि से मिथिला बहुत ही स्वच्छ और मनोरम नगर था। इसके सन्निकट एक निर्जन जंगल था। महाभारत की दृष्टि से यह नगर बहुत ही सुरक्षित था। यहां के निवासी पूर्ण स्वस्थ थे तथा प्रतिदिन उत्सवों में भाग लिया करते थे। जातक की दृष्टि से विदेह राजाओं में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित थी।" वाराणसी के राजा ने यह निर्णय लिया था कि वह अपनी पुत्री का विवाह ऐसे राजकुमार से करेगा जो एकपत्नीव्रत का पालन करेगा। मिथिला के राजकुमार सुरुचि के साथ वार्ता चल रही थी। एकपत्नीव्रत की बात सुनकर वहाँ के मन्त्रियों ने कहा कि मिथिला का विस्तार सात योजन है, समूचे राष्ट्र का विस्तार 300 योजन है, हमारा राज्य बहुत बड़ा है / ऐसे राज्य के राजा के अन्तःपुर में 16,000 रानियां अवश्य होनी चाहिये / 22 महाभारत के अनुसार मिथिला का राजा जनक वस्तुतः विदेह था। वह मिथिला नगरी को प्राग से जलते हुए तथा अपने राजप्रासादों को झुलसते हुए देखकर भी कह रहा था कि मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है। रामायण में मिथिला को जनकपुरी कहा है। विविधतीर्थकल्प में इस देश को तिरहुत्ति कहा है।४ और मिथिला को जगती (प्राकृत में जगयी) कहा है / 5 इसके सन्निकट ही महाराजा जनक के भ्राता कनक थे, उनके नाम से कनकपुर बसा था।२६ कल्पसूत्र के अनुसार मिथिला से जैन श्रमणों की एक शाखा मैथिलिया निकली / 27 श्रमण भगवान महावीर ने मिथिला में छह चातुर्मास बिताये थे और अनेक बार उनके चरणारविन्दों से बह धरती पावन हुई थी / 26 पाठवें गणधर अकम्पित की यह जन्मभूमि थी।२६ प्रत्येकबुद्ध 17 बील, रोमांटिक लीजेंड ऑव शाक्य बुद्ध, पृ. 30 18. (क) जातक VI. 46 (ख) महाभारत, III. 206, 6-1 19. ग्रिफिथ द्वारा अनुदित रामायण, अध्याय XLIII, पृ. 68 20. महाभारत, वनपर्व 206, 6-9 21. जातक IV. 316 एवं आगे 22. जातक IV. 489, पृ. 521-522 23. महाभारत XII, 17, 18-19, 219, 50 तुलना कीजिए-उत्तराध्ययन के 9 वें अध्ययन से, देखिए- उत्तराध्ययन की प्रस्तावना / (आ. प्र. समिति, व्यावर) 24. संपइकाले तिरहुत्ति देसोत्ति भण्णई। ---विविधतीर्थकल्प, प. 32 25. विविधतीर्थकल्प, पृ. 32 26. विविधतीर्थकल्प, पृ. 32 27. कल्पसूत्र 213, पृ. 198 -श्रीदेवेन्द्र मुनि द्वारा सम्पादित 28. कल्पसूत्र 121, पृ 178 29. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 644 [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमि को कंकण की ध्वनि सुनकर यहीं पर वैराग्य उबुद्ध हुआ था।३० चतुर्थ निह्नव अश्वमित्र ने वीरनिर्वाण के 220 वर्ष पश्चात् सामुच्छेदिकवाद का यहीं से प्रवर्तन किया था / ' दशपूर्वधारी आर्य महागिरि का मुख्य रूप से विहार क्षेत्र भी मिथिला रहा है। 2 बाणगंगा और गंडक दो नदियाँ प्राचीन काल में इस नगर के बाहर बहती थीं / 33 स्थानांगसूत्र में दस राजधानियों का जो उल्लेख है, उसमें मिथिला भी एक है। * जातक के अनुसार मिथिला के राजा मखादेव ने अपने सर पर एक पके बाल को देखा तो उसे संसार की नश्वरता का अनुभव हुआ / वे संसार को छोड़कर त्यागी बने और आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि प्राप्त की / 34 तथागत बुद्ध भी अनेक बार मिथिला पहुँचे थे। उन्होंने वहां मखादेव और ब्रह्मायुसुत्तों का प्रवचन दिया था। 31 थेरथेरीगाथा के अनुसार वासिट्ठी नामक एक थेरी ने तथागत बुद्ध का उपदेश सुना और बौद्ध धर्म में प्रवजित हुए।" बौद्ध युग में मिथिला के राजा सुमित्र ने धर्म के अभ्यास में अपने आपको तल्लीन किया था। मिथिला विज्ञों को जन्मभूमि रही है। मिथिला के तर्कशास्त्री प्रसिद्ध रहे हैं। ईस्वी सन् की नवमी सदी के प्रकाण्ड पण्डित मण्डन मिश्र वहीं के थे। उनकी धर्मपत्नी ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। महान् नैयायिक वाचस्पति मिश्र को यह जन्मभूमि थी। मैथिली कवि विद्यापति यहां के राजदरबार में रहते थे। कितने ही विद्वान् सीतामढ़ी के पास मुहिला नामक स्थान को प्राचीन मिथिला का अपभ्रश मानते हैं / 38 जम्बूद्वीप गणधर गौतम भगवान महावीर के प्रधान अन्तेवासी थे। वे महान् जिज्ञासु थे। उनके अन्तर्मानस में यह प्रश्न उद्बुद्ध हुआ कि जम्बूद्वीप कहाँ है ? कितना बड़ा है ? उसका संस्थान कैसा है ? उसका आकार/ स्वरूप कैसा है ? समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-वह सभी द्वीप-समुद्रों में प्राभ्यन्तर है। वह तिर्यक्लोक के मध्य में स्थित है, सबसे छोटा है, गोल है। अपने गोलाकार में यह एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ प्रहाईस धनुष और साढे तेरह अंगूल से कुछ अधिक है। इसके चारों ओर एक वज्रमय दीवार है। उस दीवार में एक जालीदार गवाक्ष भी है और एक महान् पद्मवरवेदिका है। पद्मवरवेदिका के बाहर एक विशाल वन-खण्ड है। जम्बूद्वीप के विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित-ये चार द्वार हैं। जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र कहाँ है ? उसका स्वरूप क्या है? दक्षिणाद्ध भरत और उत्तरार्द्ध भरत वैताढ्य नामक पर्वत से किस प्रकार विभक्त हुआ है? वैताढ्य पर्वत कहाँ है ? बैताढ्य पर्वत पर विद्याधर श्रेणियाँ किस प्रकार हैं ? वैताढ्य पर्वत के कितने कूट/शिखर हैं ? सिद्धायतन कूट कहाँ है ? दक्षिणाई भरतकूट कहाँ है ? ऋषभकूट पर्वत कहाँ है ? आदि का विस्तृत वर्णन प्रथम वक्षस्कार में किया गया है। जिज्ञासुगण इसका अध्ययन करें तो उन्हें बहुत कुछ अभिनव सामग्री जानने को मिलेगी। 30. उत्तराध्ययन सुखबोधावत्ति, पत्र 136-143 31. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 131 32. आवश्यक नियुक्ति, गाथा 762 . 33. विविधतीर्थकल्प पृ. 32 34. जातक I. 137-138 35. मज्झिमनिकाय II, 74 और आगे 133 36. थेरथेरी माथा, प्रकाशक-पालि टेक्सट्स सोसायटी 136-137 37. बील, रोमांटिक लीजेंड पाव द शाक्य बुद्ध, पृ. 30 38. दी एन्शियण्ट ज्योग्राफी ऑफ इण्डिया, पृ. 718 [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत पागम में जिन प्रश्नों पर चिन्तन किया गया है, उन्हीं पर अंग साहित्य में भी विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। स्थानांग, समवायांग और भगवती में अनेक स्थलों पर विविध दृष्टियों से लिखा गया है। इसी प्रकार परवर्ती श्वेताम्बर साहित्य में भी बहुत ही विस्तार से चर्चा की गई है, तो दिगम्बर परम्परा के तिलोयपण्णत्ति प्रादि ग्रन्थों में भी विस्तार से निरूपण किया गया है। यह वर्णन केवल जैन परम्परा के ग्रन्थों में ही नहीं, भारत की प्राचीन वैदिक परम्परा और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी इस सम्बन्ध में यत्र-तत्र निरूपण किया गया है। भारतीय मनीषियों के अन्तर्मानस में जम्बूद्वीप से प्रति गहरी प्रास्था और अप्रतिम सम्मान रहा है। जिसके कारण ही विवाह, नामकरण, गृहप्रवेश प्रमति मांगलिक कार्यों के प्रारम्भ में मंगल कलश स्थापन के समय यह मन्त्र दोहराया जाता है जम्बूद्वीपे भरतक्षेने आर्यखडे""प्रदेशे "नगरे "संवत्सरे "शुभमासे... वैदिक दृष्टि से जम्बूद्वीप ऋग्वेद में ब्रह्माण्ड के प्राकार, प्रायु प्रादि के सबन्ध में स्फुट वर्णन है पर जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में वहाँ चर्चा नहीं हुई है। यजुर्वेद, अथर्ववेद, सामवेद, प्रारण्यक प्रादि में जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में कुछ उल्लेख मिलते हैं पर जम्बूद्वीप का व्यवस्थित विवेचन वैदिक पुराण-वायुपुराण, विष्णुपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, गरुडपुराण, मत्स्यपुराण, मार्कण्डेयपुराण और अग्निपुराण प्रभृति पुराणों में विस्तार से प्राप्त होता है। श्रीमद्भागवत, रामायण और महाभारत प्रभूति महाकाव्यों में भी जम्बूद्वीप की चर्चा है / वायुपुराण में सम्पूर्ण पृथ्वी को जम्बूद्वीप, भद्राश्व, केतुमाल, उत्तर-कुरु इन चार द्वीपों में विभक्त किया है। योगदर्शन व्यासभाष्य में लोक की संख्या सात बताई गई है। deg लिखा है-प्रथम लोक का नाम भूलोक है। भूलोक भी सात द्वीपों में विभक्त है / भूलोक के मध्य में सुमेरु पर्वत है। सुमेरु पर्वत के दक्षिण-पूर्व में जम्बू नाम का वृक्ष है / जिसके कारण लवणसमुद्र से वेष्टित द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा / मेरु से उत्तर की भोर नील, श्वेत, शृगवान नामक तीन पर्वत हैं / प्रत्येक पर्वत का विस्तार दो दो हजार योजन है / इन पर्वतों के बीच में रमणक, हिरण्यमय और उत्तर कुरु ये तीन क्षेत्र हैं और सभी का अपना-अपना क्षेत्र विस्तार नौ-नौ योजन है। मेरु से दक्षिण में निषध, हेमकूट भोर हिम नामक तीन पर्वत हैं। इन पर्वतों के मध्य में हरिवर्ष, किंपुरुष और भारत ये तीन क्षेत्र हैं। मेरु से पूर्व में माल्यवान पर्वत है। माल्यवान पर्वत से समुद्र पर्यन्त भद्राश्व नामक क्षेत्र है। मेरु से पश्चिम में गंधमादन पर्वत है। गंधमादन पर्वत से समुद्रपर्यन्त केतुमाल नामक क्षेत्र है। मेरु के अधोभाग में इलावृत्त क्षेत्र है। जिसका विस्तार पचास हजार योजन है / इस प्रकार जम्बूद्वीप के नो क्षेत्र हैं / जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है। इसी तरह श्रीमद्भागवत' में भी प्रियव्रत के समय पृथ्वी सात द्वीपों में विभक्त हुई। वे द्वीप थे१. कुशद्वीप 2. क्रोंचद्वीप 3. शाकद्वीप 4. जम्बूद्वीप 5. लक्षद्वीप 6. शाल्मलद्वीप 7. पुष्करद्वीप / कमल पत्र के समान गोलाकार इस जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है। इसमें आठ पर्वतों से विभक्त नौ क्षेत्र हैं। जम्बूद्वीप से सोता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा नामक नदियां चारों दिशाओं से बहती हुई समुद्र में 39. वायुपुराण, अध्याय 34 40. जम्बूदीप परिशीलन, अनुपम जैन, प्र. दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, मेरठ 41. श्रीमद्भागवत 5 // 1 // 32-33 [22] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुँचती हैं। विष्णुपुराण में भी जम्बू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, कोंच, शाक और पुष्कर ये सात द्वीप बतलाये हैं / ये सभी चूड़ी के समान गोलाकार हैं / इन सात द्वीपों के मध्य में जम्बूद्वीप है, जो एक लाख योजन विस्तृत है / इसी तरह गरुडपुराण और अग्निपुराण में भी सात द्वीपों का उल्लेख है और सभी में यह बताया है कि अन्य छह द्वीप इसे वलयाकार में घेरे हुए हैं। 5 इन द्वीपों का विस्तार क्रमशः दुगना-दुगना होता चला गया है। इन सात द्वीपों को सात सागर एकान्तर क्रम से घेरे हुए हैं / लवणसागर, इक्षुसागर, सुरासागर, घृतसागर, दधिसागर, क्षीरसागर और जलसागर-ये इन सात सागरों के क्रमशः नाम हैं। 46 बोबदष्टि से जम्बूद्वीप वैदिक परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा में भी जम्बूद्वीप की चर्चा प्राप्त होती है / प्राचार्य वसुबन्धु ने अभिधर्मकोष में इस पर चर्चा करते हुए लिखा है कि जम्बूद्वीप, पूर्व विदेह, गोदानीय और उत्तर कुरु ये चार महाद्वीप हैं। मेरु पर्वत के दक्षिण की पोर जम्बूद्वीप स्थित है / इसका प्राकार शकट के सदृश है। इसके तीन पार्श्व दो हजार योजन के हैं। इस द्वीप में उत्तर की ओर जाकर कीड़े की प्राकृति के तीन कोटाद्रि पर्वत हैं। उनके उत्तर में पुनः तीन कीटाद्रि हैं / अन्त में हिमपर्वत है। इस पर्वत के उत्तर में अनवतप्त सरोवर है जिससे गंगा, सिन्धु, वक्षु और सीता ये चार नदियां निकली। यह सरोवर पचास योजन चौड़ा है। इसके सन्निकट जम्बू पक्ष है, जिसके नाम से यह जम्बूद्वीप कहलाता है। जम्बूद्वीप के मानवों का प्रमाण 33 या 4 हाथ है। उनकी प्रायु दस वर्ष से लेकर अमित आयु कल्पानुसार घटती या बढ़ती रहती है। मैन दृष्टि से जम्बूद्वीप प्रस्तुत आगम में जम्बूद्वीप का प्राकार गोल बताया है और उसके लिए कहा गया है कि तेल में तले हुए पूर जैसा गोल, रथ के पहिये जैसा गोल, कमल की कणिका जसा गोल और प्रतिपूर्ण चन्द्र जैसा गोल है। भगवती, जीवाजीवाभिगम,४६ ज्ञानार्णव,५० विषष्टिशलाका पुरुषचरित, लोकप्रकाश,५२ माराधना४२. विष्णुपुराण 2 / 215 43. गरुडपुराण 115414 44. अग्निपुराण 108 / 1 45. (क) अग्निपुराण 108 // 3,2 (ख) विष्णुपुराण 2 / 217,6 (ग) गरुडपुराण 115403 (घ) श्रीमद्भागवत // 1 // 32-33 46. (क) गरुडपुराण 115415 (ख) विष्णुपुराण 2216 (ग) अग्निपुराण 108 / 2 47. अभिधर्मकोष 3, 45-87 48. भगवतीसूत्र 11110 49, खरकांडे किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! झल्लरीसंठिए पण्णत्ते / -जीवाजीवाभिगम सू. 3 / 1674 50. मध्ये स्याज्झल्लरीनिभः / -ज्ञानार्णव 33 // 51. मध्येतो झल्लरी निभः। -त्रिषष्टिशलाका पु. च. 2131479 52 एतावान्मध्यलोक: स्यादाकृत्या झल्लरीनिभः। --लोकप्रकाश 12045 [23] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुच्चय,५3 आदिपुराण५४ में पृथ्वी का आकार झल्लरी (झालर या चूड़ी) के आकार के समान गोल बताया गया है। प्रशमरतिप्रकरण५५ प्रादि में पृथ्वी का प्राकार स्थाली के सदश भी बताया गया है / पृथ्वी की परिधि भी वृत्ताकार है, इसलिए जीवाजीवाभिगम में परिवेष्टित करने वाले घनोदधि प्रभृति वायुमों को वलयाकार माना है।५६ तिलोयपत्ति ग्रन्थ में पृथ्वी (जम्बूद्वीप) की उपमा खड़े हुए मृदंग के ऊर्ध्व भाग (सपाट गोल) से दी गई है।५७ दिगम्बर परम्परा के जम्बूद्दीवपण्णत्ति५६ ग्रंथ में जम्बूद्वीप के आकार का वर्णन करते हुए उसे सूर्य मण्डल की तरह वृत्त बताया है। उपयक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैन साहित्य में पृथ्वी नारंगी के समान गोल न होकर चपटी प्रतिपादित है / जैन परम्परा ने ही नहीं वायुपुराण, पद्मपुराण, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, भागवतपुराण प्रभृति पुराण भी पृथ्वी को समतल प्राकार, पुष्कर पत्र समाकार चित्रित किया है। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से पृथ्वी नारंगी की तरह गोल है। भारतीय मनीषियों द्वारा निरूपित पृथ्वी का आकार और वैज्ञानिकसम्मत पृथ्वी के प्राकार में अन्तर है। इस अन्तर को मिटाने के लिए अनेक मनीषीगण प्रयत्न कर रहे हैं। यह प्रयत्न दो प्रकार से चल रहा है। कुछ चिन्तकों का यह अभिमत है कि प्राचीन वाङ्मय में आये हुए इन शब्दों को व्याख्या इस प्रकार की जाये जिससे आधुनिक विज्ञान के हम सन्निकट हो सकें तो दूसरे मनीषियों का अभिमत है कि विज्ञान का जो मत है वह सदोष है, निर्बल है। प्राचीन महामनीषियों का कथन ही पूर्ण सही है। प्रथम वर्ग के चिन्तकों का कथन है कि पृथ्वी के लिये आगम-साहित्य में झल्लरी या स्थाली की उपमा दी गई है / वर्तमान में हमने झल्लरी शब्द को झालर मानकर और स्थाली शब्द को थाली मानकर पृथ्वी को वृत्त अथवा चपटी माना है। झल्लरी का एक अर्थ झांझ नामक वाद्य भी है और स्थाली का अर्थ भोजन पकाने वाली हँडिया भी है। पर आधुनिक युग में यह अर्थ प्रचलित नहीं है / यदि हम झांझ और हंडिया अर्थ मान लें तो पृथ्वी का प्राकार गोल सिद्ध हो जाता है।५६ जो आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से भी संगत है। स्थानांगसूत्र में झल्लरी शब्द झांझ नामक वाद्य के अर्थ में व्यवहृत हुअा है। दूसरी मान्यता वाले चिन्तकों का अभिमत है कि विज्ञान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सतत अनुसन्धान और गवेषणा होती रहती है। विज्ञान ने जो पहले सिद्धान्त संस्थापित किये थे आज वे सिद्धान्त नवीन प्रयोगों और अनुसन्धानों से खण्डित हो चुके हैं। कुछ अाधुनिक वैज्ञानिकों ने 'पृथ्वी गोल है' इस मान्यता का खण्डन किया है। लंदन में 'फ्लेट अर्थ सोसायटी' नामक संस्था इस सम्बन्ध में जागरूकता से इस तथ्य को कि पृथ्वी 53. अाराधनासमुच्चय-५८ 54. प्रादिपुराण-४|४१ 55. स्थालमिव तिर्यग्लोकम् / प्रशमरति, 211 56. घनोदहिवलए-वटै वलयागारसंठाणसंठिए / -जीवाजीवाभिमम 3 / 1176 57. मज्झिमलोयायारो उभिय-मुरप्रद्धसारिच्छो। --तिलोयपण्णत्ति 1 / 137 58. जम्बुद्दीवपण्णत्ति 1020 59. तुलसीप्रज्ञा, लाडनूं, अप्रेल-जून 1975, पृ. 106, ले. युवाचार्य महाप्रज्ञजी 60. मज्झिम पुण झल्लरी। -स्थानांग 7 / 42 61. Research Article-A criticism upon modern views of our earth by Sri Gyan Chand Jain (Appeared in Pt. Sri Kailash Chandra Shastri Felicitation Volume PP. 446-450) [24] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चपटी है, उजागर करने का प्रयास कर रही है, तो भारत में श्री अभयसागर जी महाराज व प्रायिका ज्ञानमती जी दत्तचित्त होकर उसे चपटी सिद्ध करने में संलग्न हैं। उन्होंने अनेक पुस्तकें भी इस सम्बन्ध में प्रकाशित की हैं / अतः जिज्ञासु वर्ग उनके अध्ययन से बहुत कुछ नये तथ्य ज्ञात कर सकेगा। द्वितीय वक्षस्कार : एक चिन्तन द्वितीय वक्षस्कार में मणधर गौतम की जिज्ञासा पर भगवान महावीर ने कहा कि भरत क्षेत्र में काल दो प्रकार का है और वह अवसर्पिणी और उत्सपिणी नाम से विश्रत है। दोनों का कालमान बीस कोडाकोडी सागरोपम है / सागर या सागरोपम मानव को ज्ञात समस्त संख्याओं से अधिक काल वाले कालखण्ड का उपमा द्वारा प्रशित परिमाण है। वैदिक दष्टि से चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों का एक कल्प होता है / इस कल्प में एक हजार चतुर्युग होते हैं। पुराणों में इतना काल ब्रह्मा के एक दिन या रात्रि के बराबर माना है / जैन दृष्टि से प्रवसर्पिणी और उत्सपिणी के छह-छह उपविभाग होते हैं। वे इस प्रकार हैं अवसर्पिणी क्रम काल विस्तार 1. सुषमा-सुषमा चार कोटाकोटि सागर 2. सुषमा तीन कोटाकोटि सागर 3. सुषमा-दुःषमा दो कोटाकोटि सागर 4. दुःषमा-सुषमा एक कोटाकोटि सागर में 42000 वर्ष न्यून दुःषमा 21000 बर्ष 6. दुःषमा-दुःषमा 21000 वर्ष - उत्सर्पिणी काल विस्तार दुःषमा-दुःषमा 21000 वर्ष 2. दुःषमा 21000 वर्ष 3. दुःषमा सुषमा एक कोटाकोटि सागर में 42000 वर्ष न्यून 4. सुषमा-दुःषमा दो कोटाकोटि सागर 5. सुषमा तीन कोटाकोटि सागर 6. सुषमा-सुषमा चार कोटाकोटि सागर अवसपिणी और उत्सर्पिणी नामक इन दोनों का काल बीस कोडाकोडी सागरोपम है। यह भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र में रहट-घट न्याय 2 से अथवा शुक्ल-कृष्ण पक्ष के समान एकान्तर क्रम से सदा चलता रहता है / आगमकार ने प्रवसर्पिणी काल के सुषमा-सुषमा नामक प्रथम आरे का विस्तार से निरूपण किया है। उस काल में मानव का जीवन अत्यन्त सुखी था। उस पर प्रकृति देवी की अपार कृपा थी। उसकी इच्छाएं स्वल्प थीं और वे स्वल्प इच्छाएं कल्पवृक्षों के माध्यम से पूर्ण हो जाती थीं। चारों ओर सुख का सागर ठाठे मार रहा था। वे मानव पूर्ण स्वस्थ मोर प्रसन्न थे। उस युग में पृथ्वी सर्वरसा थी। 62. अवसप्पणि उस्सप्पणि कालच्चिय रहटघटियणाए। ' होति प्रण ताणता भरहेरावद खिदिम्मि पुढं / / -तिलोयपण्णति 411614 63. यथा शुक्लं च कृष्णं च पक्षद्वयमनन्तरम् / उत्सपिण्यवपिण्योरेवं क्रम समुद्भवः / / ---पद्मपुराण 3173 [25] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव तीन दिन में एक बार प्रहार करता था और वह प्राहार उन्हें उन वक्षों से ही प्राप्त होता था। मानव वृक्षों के नीचे निवास करता था। वे घटादार और छायादार वक्ष भव्य भवन के सदृश ही प्रतीत होते थे। न तो उस युग में प्रसि थी, न मसि और न ही कृषि थी। मानव पादचारी था, स्वेच्छा से इधर-उधर परिभ्रमण कर प्राकृतिक सौन्दर्य-सुषमा के अपार प्रानन्द को पाकर पालादित था। उस युग के मानवों की आयु तीन पल्योपम की थी। जीवन की सांध्यवेला में छह माह अवशेष रहने पर एक पुत्र भौर पुत्री समुत्पन्न होते थे। उनपचास दिन वे उसको सार-सम्भाल करते और अन्त में छींक और उबासी / जम्हाई के साथ आयु पूर्ण करते। इसी तरह से द्वितीय आरक और तृतीय प्रारक के दो भागों तक भोगभूमि---अकर्म भूमि काल कहलाता है। क्योंकि इन कालखण्डों में समुत्पन्न होने वाले मानव प्रादि प्राणियों का जीवन भोगप्रधान रहता है। केवल प्रकृतिप्रदत्त पदार्थों का उपभोग करना ही इनका लक्ष्य होता है। कषाय मन्द होने से उनके जीवन में संक्लेश नहीं होता। भोमभूमि काल को प्राधुनिक शब्दावली में कहा जाय तो वह 'स्टेट ऑफ नेचर' अर्थात् प्राकृतिक दशा के नाम से पुकारा जायेगा। भोगभूमि के लोग समस्त संस्कारों से शून्य होने पर भी स्वाभाविक रूप से ही सुसंस्कृत होते हैं। घर-द्वार, ग्राम-नगर, राज्य और परिवार नहीं होता और न उनके द्वारा निर्मित नियम ही होते हैं। प्रकृति ही उनकी नियामक होती है। छह ऋतुओं का चक्र भी उस समय नहीं होता / केवल एक ऋतु ही होती है / उस युग के मानवों का वर्ण स्वर्ण सदृश होता है। अन्य रंग वाले मानवों का पूर्ण अभाव होता है / प्रथम प्रारक से द्वितीय प्रारक में पूर्वापेक्षया वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि प्राकृतिक गुणों में शनैः शनैः हीनता आती चली जाती है। द्वितीय प्रारक में मानव की आयु तीन पल्योपम से कम होती-होती दो पल्योपम की हो जाती है। उसी तरह से तृतीय पारे में भी ह्रास होता चला जाता है। धीरे-धीरे यह ह्रासोन्मुख अवस्था अधिक प्रबल हो जाती है, तब मानव के जीवन में अशान्ति का प्रादुर्भाव होता है / आवश्यकताएं बढ़ती हैं। उन प्रावश्यकताओं की पूर्ति प्रकृति से पूर्णतया नहीं हो पा युगान्तरकारी प्राकृतिक एवं जैविक परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन से अनभिज्ञ मानव भयभीत बन जाता है। उन मानवों को पथ प्रदर्शित करने के लिये ऐसे व्यक्ति प्राते हैं जो जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'कुलकर' को अभिधा से अभिहित किये जाते हैं और वैदिकपरम्परा में वे 'मनु' की संज्ञा से पुकारे गये हैं। अवसर्पिणी और उत्सपिणी शब्द का प्रयोग जैसा जनसाहित्य में हुआ है वैसा ही प्रयोग विष्णपुराण में भी हआ है। वहाँ लिखा है-हे द्विज! जम्बूद्वीपस्थ अन्य सात क्षेत्रों में भारतवर्ष के समान न काल की अवसर्पिणी अवस्था है और न उत्सर्पिणी अवस्था ही है। इसी तरह विष्णुपुराण, अग्निपुराण और मार्कण्डेयपुराण में कर्मभूमि और भोगभूमि का उल्लेख हुअा है। विष्णुपुराण में लिखा है कि समुद्र के उत्तर और हिमाद्रि के दक्षिण में भारतवर्ष है। इसका विस्तार नौ हजार योजन विस्तृत है। यह स्वर्ग और मोक्ष जाने वाले पुरुषों की कर्मभूमि है। इसी स्थान से मानव स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करता है। यहीं से नरक और तिर्यञ्च गति में भी जाते हैं। भारतभूमि के अतिरिक्त अन्य भूमियाँ भोगभूमि हैं।६ प्रग्निपुराण में भारतवर्ष को कर्मभूमि कहा है। मार्कण्डेयपुराण में भी भोगभूमि और कर्मभूमि की चर्चा है।६८ 64. अपसपिणी न तेषां वैन चोत्सापिणी द्विज! / मत्वेवाऽस्ति युगावस्था तेषु स्थानेषु सप्तसु // -विष्णुपुराण द्वि. प्र. अ. 4, श्लोक 13 65. विष्णुपुराण, द्वितीयांश, तृतीय अध्याय, श्लोक 1 से 5 66. अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने ! / यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोऽन्या भोगभूमयः / / 67. अग्निपुराण, अध्याय 118, श्लोक 2 69, मार्कण्डेयपुराण, अध्याय 55, श्लोक 20-21 [26] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलकर : एक चिन्तन __ भोगभूमि के अन्तिम चरण में घोर प्राकृतिक परिवर्तन होता है। इससे पूर्व भोगभूमि में मानव को जीवन प्रशान्त था पर जब प्रकृति में परिवर्तन हुआ तो भोले-भाले मानव विस्मित हो उठे। उन्होंने सर्वप्रथम सूर्य का चमचमाता पालोक देखा और चन्द्रमा की चारु चन्द्रिका को छिटकते हुए निहारा / वे सोचने लगे कि ये ज्योतिपिण्ड क्या हैं ? इसके पूर्व भी सूर्य और चन्द्र थे पर कल्पवक्षों के दिव्य पालोक के कारण मानवों का ध्यान उधर मया नहीं था। अब कल्पवक्षों का पालोक क्षीण हो गया तो सूर्य और चन्द्र की प्रभा प्रकट हो गई / उससे प्रातंकित मानवों को प्रतिश्रुति कुलकर ने कहा कि इन ज्योतियों से भयभीत होने की प्रावश्यकता नहीं है। ये ज्योतिपिण्ड तुम्हारा कुछ भी बाल बांका नहीं करेंगे। ये ज्योतियाँ ही दिन और रात की अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं। प्रतिश्रुति के इन प्राश्वासन-वचनों से जनमानस प्रतिश्रुत (पाश्वस्त) हुमा और उन्होंने प्रतिश्रुति का अभिवादन किया। काल के प्रवाह से तेजांग नामक कल्पवृक्षों का तेज प्रतिपल-प्रतिक्षण क्षीण हो रहा था, जिससे अनन्त आकाश में तारागण टिमटिमाते हुए दिखलाई देने लगे। सर्वप्रथम मानवों ने अन्धकार को निहारा। अन्धकार को निहार कर वे भयभीत हुए। उस समय सन्मति नामक कुलकर ने उन मानवों को आश्वस्त किया कि आप न घबरायें। तेजांग कल्पवक्ष के तेज के कारण प्रापको पहले तारागण दिखालाई नहीं देते थे / प्राज उनका प्रकाश क्षीण हो गया है जिससे टिमटिमाते हुए तारागण दिखलाई दे रहे हैं। प्राप घबराइये नहीं, ये आपको कुछ भी क्षति नहीं पहुँचाएंगे। अतः उन मानवों ने सन्मति का अभिनन्दन किया। कल्पवृक्षों की शक्ति धीरे-धीरे मन्द और मन्दतर होती जा रही थी जिससे मानवों की प्रावश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही थी। अतः वे उन कल्पवक्षों पर अधिकार करने लगे थे। कल्पवृक्षों की संख्या भी पहले से बहुत अधिक कम हो गई थी, जिससे परस्पर विवाद और संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई थी / क्षेमंकर और क्षेमन्धर कुलकरों ने कल्पवक्षों की सीमा निर्धारित कर इस बढ़ते हुए विवाद को उपशान्त किया था। प्रावश्यकनियुक्ति के अनुसार एक युगल वन में परिभ्रमण कर रहा था, सामने से एक हाथी, जिसका रंग श्वेत था, जो बहुत ही बलिष्ठ था, वह पा रहा था। हाथी ने उस युगल को निहारा तो उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उस ज्ञान से उसने यह जाना कि हम पूर्व भव में पश्चिम महाविदेह में मानव थे। हम दोनों मित्र थे। यह सरल था पर मैं बहुत ही कुटिल था। कुटिलता के कारण मैं मरकर हाथी बना और यह मानव बना / सनिकट पहुँचने पर उसने सूड उठाकर उसका आलिंगन किया और उसे उठाकर अपनी पीठ पर बिठा लिया। जब अन्य युगलों ने यह चीज देखी तो उन्हें भी पाश्चर्य हुा / उन्होंने सोचा-यह व्यक्ति हम से अधिक शक्तिशाली है, अतः इसे हमें अपना मुखिया बना लेना चाहिए / विमल कान्ति वाले हाथी पर भारूढ होने के कारण उसका नाम विमलबाहन विश्रुत हमा। नीतिज्ञ विमलवाहन कुलकर ने देखा कि यौगलिकों में कल्पवृक्षों को लेकर परस्पर संघर्ष है। उस संघर्ष को मिटाने के लिए कल्पवृक्षों का विभाजन किया। तिलोयपण्णत्ति७२ के अनुसार उस युग में हिमतुषार का प्रकोप हुआ था। प्रकृति के परिवर्तन के कारण सूर्य का आलोक मन्द था. जिसके कारण वाष्पावरण चारों ओर हो गया। सूर्य की तप्त किरणें उस वाष्प का भेदन न कर सकीं मौर 69. तिलोयपण्णत्ति, 4/425 से 429 70. तिलोयपण्णत्ति, 4/439 से 456 71. (क) प्रावश्यकनियुक्ति, पृ. 153 (ख) त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र, 1/2/142-147 72. तिलोयपण्णत्ति, 4/475-481 [27] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह वाष्प हिम और तुषार के रूप में बदल गया / चन्द्राभ नामक कुलकर ने मानवों को आश्वस्त करते हुएं कहा कि सूर्य की किरणे ही इस हिम की भौषध हैं।७३ हिमवाष्प अन्त में बादलों के रूप में परिणत होकर बरसने लगा। भोगभूमि के मानवों ने प्रथम बार वर्षा देखी। वर्षा से ही कल-कल, छल-छल करते नदीनाले प्रवाहित होने लगे। यह भोगभूमि और कर्मभूमि के सन्धिकाल की बात है। इन महान् प्राकृतिक परिवर्तनों का प्रवाह प्राकृतिक पर्यावरण में रहने वाले जीवों पर आत्यंतिक रूप से हुआ। इन प्रवाहों के फलस्वरूप बाह्य रहन-सहन में भी अन्तर पाया। तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में लिखा है कि सातवें कुलकर तक माता-पिता अपनी संतान का मुख-दर्शन किये बिना ही मृत्यु को वरण कर लेते थे।७४ किन्तु आठवें कुलकर के समय शिशु-युग्म के जन्म लेने के पश्चात् उनके माता-पिता की मृत्यु नहीं हुई। वे सन्तति का मुख देखना मृत्यु का वरण मानते थे। प्राठवें कुलकर ने बताया कि यह तम्हारी ही सन्तान है। भयभीत होने की आवश्यकता नहीं. सन्तान का पोर उसके बाद जब भी मृत्यु प्राये, हर्ष से उसे स्वीकार करो। लोग बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने कुलकर का अभिवादन किया। यशस्वी नामक कुलकर ने शिशुओं के नामकरण की प्रथा प्रारम्भ की और प्रभिचन्द्र नामक दसर्वे कुलकर ने बालकों के मनोरंजनार्थ खेल-खिलौनों का आविष्कार किया। 5 तेरहवें कुलकर ने जरायु को पृथक् करने का उपदेश दिया और कहा कि जन्मजात शिशु का जरायु हटा दो जिससे शिशु को किसी प्रकार का कोई खतरा नहीं होगा। चौदहवें कुलकर ते सन्तान की नाभि-नाल को पृथक करने का सन्देश दिया। इस प्रकार इन कुलकरों ने समय-समय पर मानवों को योग्य मार्गदर्शन देकर उनके जीवन को व्यवस्थित किया। प्रस्तुत आगम में तो कुलकरों के नाम और उनके द्वारा की गई दण्डनीति, हकारनीति, मकारनीति और धिक्कारनीति का ही निरूपण है। उपर्युक्त जो विवरण हमने दिया है, वह दिगम्बरपरम्परा के तिलोयपण्णत्ति, जिनसेन रचित महापुराण तथा हरिवंशपुराण प्रभृति ग्रन्थों में आया है। . स्थानांगसूत्र की वृत्ति में प्राचार्य अभयदेव ने लिखा है कि कुल की व्यवस्था का सञ्चालन करने वाला जो प्रकृष्ट प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति होता था, वह कुलकर कहलाता था। आचार्य जिनसेन ने कुलकर की परिभाषा करते हुए लिखा है कि प्रजा के जीवन-उपायों के ज्ञाता मनु और प्रार्य मनुष्यों को कुल की तरह एक रहने का जिन्होंने उपदेश दिया; वे कुलकर कहलाये। युग की प्रादि में होने से वे युगादि पुरुष भी कहलाये। तृतीय पारे के एक पल्योपम का माठवा भाग जब अवशेष रहता है, उस समय भरतक्षेत्र में कुलकर पैदा होते हैं। पउमचरियं,७८ हरिवंशपुराण और सिद्धान्तसंग्रह० में चौदह कुलकरों के नाम मिलते हैं१. सुमति 2. प्रतिश्रुति 3. सीमङ्कर 4. सीमन्धर 5. क्षेमंकर 6. क्षेमंधर 7. विमलवाहन 8. चक्षुष्मान् --तिलोयपणत्ति 4/375-376 73. तिलोयपण्णत्ति 4 / 475-481 74, गब्भादो जुगलेसुं णिक्कतेसु मरंति तत्कालं / / 75. तिलोयपण्णत्ति, 4/465-473 76. स्थानांगवृत्ति, 767 / 51861 77. महापुराण, आदिपुराण, 6211212 78. पउमचरियं, 3 / 50-55 79. हरिवंशपुराण, सर्ग 7, श्लोक 124-170 80. सिद्धान्तसंग्रह, पृष्ठ 18 [2] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. यशस्वी 10. अभिचन्द्र 11. चन्द्राभ 12. प्रसेनजित् 13. मरुदेव 14. नाभि / आचार्य जिनसेन ने संख्या की दृष्टि से चौदह कुलकर माने हैं, किन्तु पहले प्रतिश्रुति, दूसरे सन्मति, तीसरे क्षेमंकृत, चौथे क्षेमंधर, पांचवें सीमकर और छठे सीमंधर, इस प्रकार कुछ व्युत्क्रम से संख्या दी है। विमलवाहन से आगे के नाम दोनों ग्रन्थों में (पउमचरियं और महापुराण में) समान मिलते हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' में इन चौदह नामों के साथ ऋषभ को जोड़कर पन्द्रह कुलकर बताये हैं। इस तरह अपेक्षादृष्टि से कुलकरों की संख्या में मतभेद हुअा है। चौदह कुलकरों में पहले के छह और ग्यारहवा चन्द्राभ के अतिरिक्त सात कुलकरों के नाम स्थानांग आदि के अनुसार ही हैं। जिन ग्रन्थों में छह कुलकरों के नाम नहीं दिये गये हैं, उसके पीछे हमारी दृष्टि से वे केवल पथ-प्रदर्शक रहे होंगे, उन्होंने दण्डव्यवस्था का निर्माण नहीं किया था, इसलिये उन्हें गौण मानकर केवल सात ही कुलकरों का उल्लेख किया गया है। भगवान् ऋषभदेव प्रथम सम्राट् हुए और उन्होंने यौगलिक स्थिति को समाप्त कर कर्मभूमि का प्रारम्भ किया था। इसलिये उन्हें कुलकर न माना हो। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में उन्हें कुलकर लिखा है / सम्भव है मानव समूह के मार्गदर्शक नेता अर्थ में कुलकर शब्द व्यवहुत हुआ हो। कितने ही प्राचार्य इस संख्याभेद को वाचनाभेद मानते हैं। कुलकर के स्थान पर वैदिकपरम्परा के प्रन्थों में मनु का उल्लेख हमा है। पादिपुराण और महापुराण में कुलकरों के स्थान पर मनु शब्द आया है। स्थानांग आदि की भांति मनुस्मृति 65 में भी सात महातेजस्वी मनुओं का उल्लेख है। उनके नाम इस प्रकार हैं--१. स्वयंभू 2. स्वारोचिष् 3. उत्तम 4. तामस 5. रेवत 6. चाक्षुष 7. वैवस्वत / / अन्यत्र चौदह मनुओं के भी नाम प्राप्त होते हैं।८६ वे इस प्रकार हैं--१. स्वायम्भव 2. स्वारोचिष 3. प्रोत्तम 4. तापस 5. रेवत 6. चाक्षुष 7. वैवस्वत 8. सावणि 9. दक्षसावणि 10. ब्रह्मसावणि 11. धर्मसावणि 12. रुद्रसावणि 13. रोच्यदेवसावणि 14. इन्द्रसावणि। मत्स्यपुराण,७ मार्कण्डेयपुराण, देवी भागवत और विष्णु पुराण प्रभति अन्यों में भी स्वायम्भुव आदि चौदह मनुओं के नाम प्राप्त हैं। वे इस प्रकार हैं-१. स्वायम्भुव 2. स्वारोचिष् 3. प्रोत्तमि 4. तापस 5. रंवत 6. चाक्षुष 7. वैवस्वत 8. सावणि 9. रोच्य 10. भौत्य 11. मेहसावणि 12. ऋभु 13. ऋतुधामा _ 14. विश्वसेन / __ मार्कण्डेयपुराण८८ में वैवस्वत के पश्चात् पांचवां सावणि, रोच्य और भौत्य आदि सात मनु और माने हैं। 81. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, व. 2, सत्र 29 52. ऋषभदेव : एक परिशीलन, पृष्ठ 120 53. आदिपुराण, 3 / 15 84. महापुराण, 3 / 229, पृष्ठ 66 85. मनुस्मृति, 1 / 61-63 6. (क) मोन्योर-मोन्योर विलियम : संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी, पृ. 784 (ख) रघुवंश१।११ 87. मत्स्यपुराण, अध्याय 9 से 21 68. मार्कण्डेयपुराण [21] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भागवत में उपर्युक्त सात नाम वे ही हैं, पाठवें नाम से प्रागे के नाम पृथक् हैं / वे नाम इस प्रकार हैं.----८. सावणि 9. दक्षसावणि 10. ब्रह्मसावणि 11. धर्मसावणि 12. रुद्रसावणि 13. देवसावर्णि 14. इन्द्रसावणि / मनु को मानव जाति का पिता व पथ-प्रदर्शक व्यक्ति माना है। पुराणों के अनुसार मनु को मानव जाति का गुरु तथा प्रत्येक मन्वन्तर में स्थित कहा है। वह जाति के कर्तव्य का ज्ञाता था। वह मननशील और मेधावी व्यक्ति रहा है। वह व्यक्ति विशेष का नाम नहीं, किन्तु उपाधिवाचक है। यों मनु शब्द का प्रयोग ऋग्वेद,९० अथर्ववेद, तैत्तिरीयसंहिता,९२ शतपथब्राह्मण, 3 जैमिनीय उपनिषद् 94 में हुया है, वहां मनु को ऐतिहासिक व्यक्ति माना गया है। भगवद्गीता में भी मनूनों का उल्लेख है। चतुर्दश मनुप्रों का कालप्रमाण सहस्र युग माना गया है / कुलकरों के समय हकार, मकार और धिक्कार ये तीन नीतियाँ प्रचलित हुई। ज्यों-ज्यों काल व्यतीत होता चला गया त्यों-त्यों मानक के अन्तर्मानस में परिवर्तन होता गया और अधिकाधिक कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई। भगवान् ऋषभदेव जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भगवान ऋषभदेव को पन्द्रहवाँ कुलकर माना है तो साथ ही उन्हें प्रथम तीर्थङ्कर, प्रथम राजा, प्रथम केवली, प्रथम धर्मचक्रवर्ती आदि भी लिखा है। भगवान ऋषभदेव का जाज्वल्यवान व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यन्त प्रेरणादायी है। वे ऐसे विशिष्ट महापुरुष हैं, जिनके चरणों में जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों भारतीय धाराओं ने अपनी अनन्त आस्था के सुमन समर्पित किये हैं। स्वयं मूल प्रागमकार ने उनकी जीवनगाथा बहुत ही संक्षेप में दी है। वे बीस लाख पूर्व तक कुमार अवस्था में रहे / तिरेसठ लाख पूर्व तक उन्होंने राज्य का संचालन किया / एक लाख पूर्व तक उन्होंने संयम-साधना कर तीर्थर जीवन व्यतीत किया। उन्होंने महस्थाश्रम में प्रजा के हित के लिये कलाओं का निर्माण किया। बहत्तर कलाएं पुरुषों के लिये तथा चौंसठ कलाएं स्त्रियों के लिये प्रतिपादित की। साथ ही सौ शिल्प भी बताये। आदिपुराण ग्रन्थ में दिगम्बर प्राचार्य जिनसेन ने ऋषभदेव के समय प्रचलित छह आजीविकाओं का उल्लेख किया है--१. असि-सैनिकवत्ति, 89. श्रीमद्भागवत, 8 / 5 अ 90, ऋग्वेद, 1 / 80, 16, 8 / 63, 1, 10, 100 / 5 91. अथर्ववेद, 14 / 2, 41 92. तैत्तिरीयसंहिता, 1 / 5, 1, 3, 7 / 5, 15, 3, 6, 7, 1, 3,3, 2,1, 5 / 4,10,5,6 / 6, 6,1; का. सं. 815 93. शतपथब्राह्मण, 1 / 1,4 / 14 94. जैमिनीय उपनिषद्, 3 / 15, 2 95. भगवद्गीता, 10 / 6 / 96. (क) भागवत स्क. 8, प्र. 14 (ख) हिन्दी विश्वकोष, 16 वां भाग, पृ. 64-655 97. कल्पसूत्र 195 98. प्रादिपुराण 1 / 178 [30] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. मसि-लिपिविद्या, 3. कृषि-खेती का काम, 4. विद्या-अध्यापन या शास्त्रोपदेश का कार्य, 5. वाणिज्यभ्यापार-व्यवसाय, 6. शिल्प-कलाकौशल / - उस समय के मानवों को 'षट्कर्मजीवानाम्' कहा गया है। महापुराण के अनुसार भाजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिये ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन तीन वर्षों की स्थापना की। ००आवश्यकनियुक्ति,.०१ प्रावश्यकणि,१०२ विषष्टिशलाकापुरुषचरित'.3 के अनुसार ब्राह्मणवर्ण की स्थापना ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत ने की। ऋग्वेदसंहिता'०४ में वर्गों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है। वहां पर ब्राह्मण को मुख, क्षत्रिय को बाहु, वैश्य को उर और शूद्र को पैर बताया है। यह लाक्षणिक वर्णन समाजरूप विराट शरीर के रूप में चित्रित किया गया है। श्रीमद्भागवत' 05 प्रादि में भी इस सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत प्रागम में जब भगवान् ऋषभदेव प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं, तब वे चार मुष्ठि लोच करते हैं, जबकि अन्य सभी तीर्थंकरों के वर्णन में पंचमूष्ठि लोच का उल्लेख है। टीकाकार ने विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जिस समय भगवान् ऋषभदेव लोच कर रहे थे, उस समय स्वर्ण के समान चमचमाती हुई केशरामि को निहार कर इन्द्र ने भगवान ऋषभदेव से प्रार्थना की, जिससे भगवान ऋषभदेव ने इन्द्र की प्रार्थना से एक मुष्ठि केश इसी तरह रहने दिये / 10 // केश रखने से वे केशी या केसरियाजी के नाम से विश्रुत हुए। पद्मपुराण 100. हरिवंशपुराण'०८ में ऋष मदेव की जटाओं का उल्लेख है। ऋग्वेद' में ऋषभ की स्तुति केशी के रूप में की गई। वहां बताया है कि केशी अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है और केशी विश्व के समस्त तत्त्वों का दर्शन कराता है और वह प्रकाशमान ज्ञानज्योति है। भगवान् ऋषभदेव ने चार हजार उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय वंश के व्यक्तियों के साथ दीक्षा ग्रहण की। पर उन चार हजार व्यक्तियों को दीक्षा स्वयं भगवान् ने दी, ऐसा उल्लेख नहीं है। प्रावस्यकनियुक्तिकार'१०. ने इस सम्बन्ध में यह स्पष्ट किया है कि उन चार हजार व्यक्तियों ने भगवान ऋषभदेव का अनुसरण किया। भगवान् को देखादेखी उन चार हजार व्यक्तियों ने स्वयं केशलुञ्चन आदि क्रियाएं की थीं। प्रस्तुत प्रागम में यह भी उल्लेख नहीं है कि भगवान ऋषभदेव ने दीक्षा के पश्चात् कब प्राहार ग्रहण किया ? समवायांग में 99. आदिपुराण 39 / 143 100. महापुराण 183 / 16 / 362 101. आवश्यकनियुक्ति पृ. 2351 102. आवश्यकचूणि 212-214 103. त्रिषष्टी. 1 / 6 104, ऋग्वेदसंहिता 10190, 11,12 105. श्रीमद्भागवत 11317113, द्वितीय भाग पृ. 809 106. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 2, सूत्र 30 107. पद्मपुराण 3 / 285 106. हरिवंशपुराण 9 / 204 109. ऋग्वेद 101136 / 1 110. आवश्यकनियुक्ति गाथा 337 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह स्पष्ट उल्लेख है कि 'संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेण / " इससे यह स्पष्ट है कि भगवान ऋषभदेव को दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् एक वर्ष से अधिक समय व्यतीत होने पर भिक्षा मिली थी। किस तिथि को भिक्षा प्राप्त हुई थी, इसका उल्लेख 'वसुदेवहिण्डी""" और हरिवंशपुराण 13 में नहीं हुया है। वहाँ पर केवल संवत्सर का ही उल्लेख है / पर खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली 14, त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित'१४ और महाकवि पुष्पदन्त 16 के महापुराण में यह स्पष्ट उल्लेख है कि अक्षय तृतीया के दिन पारणा हुमा / श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार ऋषभदेव ने बेले का तप धारण किया था और दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार उन्होंने छह महीनों का तप धारण किया था, पर भिक्षा देने की विधि से लोग अपरिचित थे। अतः अपने-माप ही प्राचीर्ण तप उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया और एक वर्ष से अधिक अवधि व्यतीत होने पर उनका पारणा हमा। श्रेयांसकुमार ने उन्हें इक्षुरस प्रदान किया। तृतीय प्रारे के तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष रहने पर भगवान् ऋषभदेव दस हजार श्रमणों के साथ / मष्टापद पर्वत पर आरूढ हुए और उन्होंने अजर-अमर पद को प्राप्त किया, जिसे जैनपरिभाषा में निर्वाण या परिनिर्वाण कहा गया है। शिवपुराण में प्रष्टापद पर्वत के स्थान पर कैलाशपर्वत का उल्लेख है। १६जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति,१६ कल्पसूत्र,१२० त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित'२१ के अनुसार ऋषभदेव की निर्वाणतिथि माघ कृष्णा त्रयोदशी है। तिलोयपणत्ति"एवं महापुराण के अनुसार माघ कृष्णा चतुर्दशी है। विज्ञों का मानना है कि भगवान ऋषभदेव की स्मृति में श्रमणों ने उस दिन उपवास रखा और वे रातभर धर्मजागरण करते रहे / इसलिये वह रात्रि शिवरात्रि के रूप में जानी गई। ईशान संहिता 24 में उल्लेख है कि माघ कृष्णा चतुर्दशी की महानिशा में कोटिसूर्य-प्रभोपम भगवान् प्रादिदेव शिवगति प्राप्त हो जाने से शिव-इस लिंग से प्रकट हुए / जो निर्वाण के पूर्व आदिदेव थे, वे शिवपद प्राप्त हो जाने से शिव कहलाने लगे। 111. समवायांगसूत्र 157 112. भयवं पियामहो निराहारो....पडिलाहेइ सामि खोयरसेणं / 113. हरिवंशपुराण, सर्ग 9, श्लोक 180-191 114. श्री यूगादिदेव पारणकपवित्रितायां वैशाख शुक्लपक्षततीयायां स्वपदे महाविस्तरेण स्थापिताः। 115. विषष्टिशलाका . च. 113 / 301 116. महापुराण, संधि 9, पृ. 148-149 117. प्रावश्यकचूर्णि, 221 118. शिवपुराण, 59 119. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, 48191 120. कल्पसूत्र, 199 / 59 121. त्रिषष्टि श. पु. च. 126 122. माधस्स किण्हि चोदृसि पुठवण्हे णिययजम्मणखत्ते अशावम्मि उसहो अजूदेण समं गओज्जोभि / -तिलोयपण्णत्ति 123. महापुराण 3713 124. माघे कृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। शिवलिगतयोभृतः कोटिसूर्यसमप्रभः। तत्कालव्यापिनी ग्राह्या शिवरात्रिवते तिथिः। -ईशानसंहिता [32] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉ. राधाकृष्णन, डॉ. जीवर, प्रोफेसर विरूपाक्ष प्रादि अनेक विद्वानों ने इस सत्य तथ्य को स्वीकार किया है कि वेदों में भगवान ऋषभदेव का उल्लेख है। वैदिक महर्षिगण भक्ति-भावना से विभोर होकर प्रभ की स्तुति करते हुए कहते हैं-हेप्रात्मदृष्टा प्रभु ! परमसुख को प्राप्त करने के लिये हम आपकी शरण में प्राना चाहते हैं / ऋग्वेद, २५यजुर्वेद 12 और अथर्ववेद' २७में ऋषभदेव के प्रति अनन्त प्रास्था व्यक्त की गई है और विविध प्रतीकों के द्वारा ऋषभदेव की स्तुति की गई है। कहीं पर जाज्वल्यमान अग्नि के रूप में, कहीं पर परमेश्वर' 3 के रूप में, कहीं शिव' 3°के रूप में, कहीं हिरण्यगर्भ 31 के रूप में, कहीं ब्रह्मा ३२के रूप में, कहीं विष्ण' 33के रूप में, कहीं वातरसना श्रमण' 34 के रूप में, कहीं केशी ३५के रूप में स्तुति प्राप्त है। . श्रीमद्भागवत' में ऋषभदेव का बहुत विस्तार से वर्णन है। उनके माता-पिता के नाम, सुपुत्रों का उल्लेख, उनकी ज्ञानसाधना, धार्मिक और सामाजिक नीतियों का प्रवर्तन और भरत के अनासक्त योग को चित्रित किया गया है तथा अन्य पुराणों में भी ऋषभदेव के जीवनप्रसंग अथवा उनके नाम का उल्लेख हुमा है। बौद्धपरम्परा के महनीय ग्रन्थ धम्मपद'3 में भी ऋषभ और महावीर का एक साथ उल्लेख हुआ है। उसमें ऋषभ को सर्वश्रेष्ठ और धीर प्रतिपादित किया है। अन्य मनीषियों ने उन्हें प्रादिपुरुष मानकर उनका वर्णन किया है। 125. ऋग्वेद, 101166 / 1 126. वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् / तमेव विदित्वाति मृत्युमेति, नान्यः पन्था विद्यते ऽयनाय // 127. अथर्ववेद, कारिका, 196424 128, अथर्ववेद, 9 / 4 / 3, 7, 18 129. अथर्ववेद, 9 / 47 130. प्रभासपुराण, 49 131. (क) ऋग्वेद 10 / 12111 . (ख) तैत्तिरीयारण्यक भाष्य सायणाचार्य 2012 (ग) महाभारत, शान्तिपर्व 349 (घ) महापुराण, 12 / 95 132. ऋषभदेवः एक परिशीलन, द्वि. संस्क., पृ. 49 133. सहस्रनाम ब्रह्मशतकम्, श्लोक 100-102 134. (क) ऋग्वेद, 10 / 136 / 2 (ख) तैतिरियारण्यक, 2071, पृ. 137 (ग) बृहदारण्यकोपनिषद्, 413 / 22 (घ) एन्शियण्ट इण्डिया एज डिस्क्राइब्ड बाय मेगस्थनीज एण्ड एरियन, कलकता, 1916, पृ. 97-98 135. (क) पद्मपुराण, 31288 (ख) हरिवंशपुराण 9 / 204 (ग) ऋग्वेद 10113631 136. श्रीमद्भागवत, 123 / 13; 217.10; 2320; 54 / 5; 5 / 48; 5 / 4 / 9-13; 5 / 4 / 20; 5516; 5 // 5 // 19; 5 / 5 / 28; 5 / 14 / 42-44; 5 // 15 // 1 137. उसभं पवरं वीरं महेसि विजिताविनं / अनेज नहातक बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं // -धम्मपद 422 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्तारभय से यह सभी वर्णन यहाँ न देकर जिज्ञासुमों को प्रेरित करते हैं कि वे लेखक का 'ऋषभदेव : एक . परिशीलन' ग्रन्थ तथा धर्मकथानयोग की प्रस्तावना का अवलोकन करें। अन्य प्रारक वर्णन भगवान् ऋषभदेव के पश्चात् दुष्षमसुषमा नामक प्रारक में तेईस अन्य तीर्थकर होते हैं और साथ ही उस काल में ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव और नो वासुदेव प्रादि श्लाघनीय पुरुष भी समुत्पन्न होते हैं। पर उनका वर्णन प्रस्तुत आगम में नहीं पाया है। संक्षेप में ही इन आरकों का वर्णन किया गया है। छठे प्रारक का वर्णन कुछ विस्तार से हुआ है। छठे प्रारक में प्रकृति के प्रकोप से जन-जीवन अत्यन्त दुःखी हो जायेगा / सर्वत्र हाहाकार मच जायेगा / मानव के अन्तर्मानस में स्नेह-सद्भावना के अभाव में छल-छद्म का प्राधान्य होगा / उनका जीवन अमर्यादित होगा तथा उनका शरीर विविध व्याधियों से संत्रस्त होगा। गंगा और सिन्धु जो महानदियाँ हैं, वे नदियों भी सूख जायेंगी। रथचक्रों की दूरी के समान पानी का विस्तार रहेगा तथा रथचक्र की परिधि से केन्द्र की जितनी दूरी होती है, उतनी पानी की गहराई होगी। पानी में मत्स्य और कच्छप जैसे जीव विपुल मात्रा में होंगे / मानव इन नदियों के सन्निकट वैताठ्य पर्वत में रहे हुए बिलों में रहेगा। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय बिलों से निकलकर वे मछलियाँ और कछुए पकड़ेंगे और उनका आहार करेंगे। इस प्रकार इक्कीस हजार वर्ष तक मानव जाति विविध कष्टों को सहन करेगी और वहाँ से मायु पूर्ण कर वे जीव नरक और तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होंगे। अवसर्पिणी काल समाप्त होने पर उत्सर्पिणी काल का प्रारम्भ होगा। उत्सपिणी काल का प्रथम मारक अवसर्पिणी काल के छठे प्रारक के समान ही होगा और द्वितीय प्रारक पंचम मारक के सदृश होगा। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श प्रादि में धीरे-धीरे पुनः सरसता की अभिवृद्धि होगी। क्षीरजल, घतजल और ममतजल की बुष्टि होगी, जिससे प्रकृति में सर्वत्र सुखद परिवर्तन होगा। चारों ओर हरियाली लहलहाने लगेगी। शीतल मन्द सुगन्ध पवन ठुमक-ठुमक कर चलने लगेगा। बिलवासी मानव बिलों से बाहर निकल आयेंगे और प्रसन्न होकर यह प्रतिज्ञा ग्रहण करेंगे कि हम भविष्य में मांसाहार नहीं करेंगे और जो मांसाहार करेगा उनकी छाया से भी हम दूर रहेंगे। उत्सपिणी के तृतीय प्रारक में तेईस तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ वासुदेव, नौ बलदेव आदि उत्पन्न होंगे। चतुर्थ आरक के प्रथम चरण में चौवीसवें तीर्थंकर समुत्पन्न होंगे और एक चक्रवर्ती भी। अवपिणी काल में जहां उत्तरोत्तर हास होता है, वहीं उत्सपिणी काल में उत्तरोत्तर विकास होता है। जीवन में अधिकाधिक सुख-शान्ति का सागर ठाठे मारने लगता है। चतुर्थ मारक के द्वितीय चरण से पुनः योगलिक काल प्रारम्भ हो जाता है। कर्मभूमि से मानव का प्रस्थान भोगभूमि की पोर होता है। इस प्रकार द्वितीय वक्षस्कार में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल का निरूपण हुआ है। यह निरूपण ज्ञानवर्द्धन के साथ ही साधक के अन्तर्मानस में यह भावना भी उत्पन्न करता है कि मैं इस कालचक्र में अनन्त काल से विविध योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। अब मुझे ऐसा उपक्रम करना चाहिये जिससे सदा के लिये इस चक्र से मुक्त हो जाऊं। विनीता जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के तृतीय वक्षस्कार में सर्वप्रथम विनीता नगरी का वर्णन है। उस विनीता नगरी की / अवस्थिति भरतक्षेत्र स्थित वैताढ्य पर्वत के दक्षिण के 11431 योजन तथा लवणसमुद्र के उत्तर में 1141 // योजन की दूरी पर, गंगा महानदी के पश्चिम में और सिन्धु महानदी के पूर्व में दक्षिणार्द्ध भरत के मध्यवर्ती तीसरे भाग के ठीक बीच में है। विनीता का ही अपर नाम अयोध्या है। जनसाहित्य की दृष्टि से यह नगर [34] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबसे प्राचीन है / यहाँ के निवासी विनीत स्वभाव के थे। एतदर्थ भगवान ऋषभदेव ने इस नगरी का नाम विनीता रखा / 38 यहाँ और पांच तीर्थंकरों ने दीक्षा ग्रहण की। - अावश्यकनियुक्ति के अनुसार यहाँ दो तीर्थङ्कर-ऋषभदेव (प्रथम) और अभिनन्दन (चतुर्थ) ने जन्म ग्रहण किया। 36 अन्य ग्रन्थों के अनुसार ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनन्दन, सुमति, अनन्त और अचलभानु की जन्मस्थली और दीक्षास्थली रही है। राम, लक्ष्मण मादि बलदेव-वासुदेवों की भी जन्मभूमि रही है। अचल गणधर ने भी यहाँ जन्म ग्रहण किया था। आवश्यकमलय गिरिवति' 40 के अनुसार अयोध्या के निवासियों ने विविध कलाओं में कुशलता प्राप्त की थी इसलिये अयोध्या को 'कौशला' भी कहते हैं। अयोध्या में जन्म लेने के कारण भगवान् ऋषभदेव कौशलीय कहलाये थे। रामायण काल में अयोध्या बहुत ही समृद्ध नगरी थी। वास्तुकला की दृष्टि से यह महानगरी बहुत ही सुन्दर बसी हई थी। इस नगर में कम्बोजीय अश्व और शक्तिशाली हाथी थे।'४' महाभारत में इस नगरी को पुण्यलक्षणा या शुभलक्षणों वाली चित्रित किया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण'४२ आदि में इसे एक गांव के रूप में चित्रित किया है / आवश्यकनियुक्ति में इस नगरी का दूसरा नाम साकेत और इक्ष्वाकु भूमि भी लिखा है।'४३ विविध तीर्थकरूप में रामपुरी और कौशल ये दो नाम और भी दिये हैं। 144 भागवतपुराण में अयोध्या का उल्लेख एक नगर के रूप में किया है / 45 स्कन्ध पुराण के अनुसार अयोध्या मत्स्याकार बसी हई थी।'४६ उसके अनुसार उसका विस्तार पूर्व-पश्चिम में एक योजन, सरय से दक्षिण में तथा तमसा से उत्तर में एक-एक योजन है। कितने ही विज्ञों का यह अभिमत रहा कि साकेत और अयोध्या-ये दोनों नगर एक ही थे। पर रिज़ डेविड्स ने यह सिद्ध किया कि ये दोनों नगर पथक-पृथक थे और तथागत बुद्ध के समय अयोध्या और साकेत ये दोनों नगर थे। 47 हिन्दुनों के सात तीर्थों में अयोध्या का भी एक नाम है। चीनी यात्री फाह्यान जब अयोध्या पहुंचा तो उसने वहाँ पर बौदों और ब्राह्मणों में सौहार्द्र का प्रभाव 'देखा।'४८ दूसरा चीनी यात्री ह्वेनसांग जो सातवीं शताब्दी ईस्वी में भारत आया था, उसने छह सौ 'ली' से भी अधिक यात्रा की थी। वह अयोध्या पहुंचा था। उसने अयोध्या को ही साकेत लिखा है। उस समय अयोध्या वैभवसम्पन्न थी। फलों से बगीचे लदे हुए थे। वहां के निवासी सभ्य और शिष्ट थे। उस समय वहाँ पर सौ से भी अधिक बौद्ध विहार थे और तीन हजार (3000) से भी अधिक भिषु वहां पर रहते थे। वे भिक्षु 138, प्रावस्सक कामेंट्री, पृ. 244 139. मावश्यकनियुक्ति 382 140. आवश्यकमलयगिरिवृत्ति, पृ. 214 141. रामायण पृष्ठ 309, श्लोक 22 से 24 142. (क) ऐतरेय ब्राह्मण VII, 3 और आगे (ख) सांख्यायनसूत्र XV, 17 से 25 143. आवश्यकनियुक्ति 382 144. विविध तीर्थकल्प पृ. 24 145. भागवतपुराण IX 8 / 19 146. स्कन्धपुराण अ. 1, 64, 64 147. बि. च. लाहा, ज्याँग्रेफी प्रॉव अर्ली बुद्धिज्म, प.५ 148. लेगे, ट्रेवल्स प्राव फाह्यान, प. 54-55 [35] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायान और हीनयान के अनुयायी थे। वहां पर एक प्राचीन विहार था, जहाँ पर वसुबन्धु नामक एक महांमनीषी भिक्ष था। वह बाहर से आने वाले राजकमारों और भिक्षों को बौद्ध धर्म और द कराता था / अनेक ग्रन्थों की रचना भी उन्होंने की थी। वसुबन्धु महायान को मानने वाले थे और उसी के मण्डन में उनके ग्रन्थ लिखे हुए हैं। तिरासी वर्ष की उम्र में उनका देहान्त हा था। 4. अयोध्या में अनेक वरिष्ठ रामा हुए हैं। समय-समय पर राज्यों का परिवर्तन भी होता रहा। यह मर्यादा पुरुषोसम राम और राजा सगर को भी राजधानी रही। 50 कनिंघम के अनुसार इस नगर का विस्तार बारह योजन अथवा सौ मील का था, जो लगभग 24 मील तक बगीचों और उपवनों से घिरा था / '51 कनिंघम के अनुसार प्राचीन अवध आधुनिक फैजाबाद से चार मील की दूरी पर स्थित है। 52 विविधतीर्थकल्प के अनुसार अयोध्या बारह योजन लम्बी और नो योजन चौड़ी थी।'५३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार साक्षात् स्वर्ग के सदश थी। वहाँ के निवासियों का जीवन बहुत ही सुखी/समृद्ध था। भरत चक्रवर्ती सम्राट भरत चक्रवर्ती का जन्म विनीता नगरी में ही हुया था। वे भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनकी बाह्य आकृति जितनी मनमोहक थी, उतना ही उनका प्रान्तरिक जीवन भी चित्ताकर्षक था। स्वभाव से वे करुणाशील थे, मर्यादानों के पालक थे, प्रजावत्सल थे। राज्य-ऋद्धि का उपभोग करते हुए भी वे पुण्डरीक कमल की तरह निर्लेप थे / वे गन्धहस्ती की तरह थे। विरोधी राजारूपी हाथी एक क्षण भी उनके सामने टिक नहीं पाते थे। जो व्यक्ति मर्यादाओं का अतिक्रमण करता उसके लिये वे काल के सदश थे। उनके राज्य में दुभिक्ष और महामारी का अभाव था। एक दिन सम्राट् अपने राजदरवार में बैठा हुमा था। उस समय आयुधशाला के अधिकारी ने आकर सूचना दी कि प्रायुधशाला में चक्ररत्न पैदा हुआ है। आवश्यकनियुक्ति,१५४ आवश्यकचूणि, 145 त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित 156 और चउप्पन्नमहापुरिसचरियं 57 के अनुसार राजसभा में यमक और शमक बहुत ही शीघ्रता से प्रवेश करते हैं। यमक सुभट ने नमस्कार कर निवेदन किया कि भगवान् ऋषभदेव को एक हजार वर्ष की साधना के बाद केवलज्ञान की उपलब्धि हुई है। वे पुरिमताल नगर के बाहर शकटानन्द उद्यान में विराजित हैं। उसी समय शमक नामक सुभट ने कहा-स्वामी ! प्रायुधशाला में चक्ररत्न पैदा हुमा है, वह आपकी दिग्विजय का सूचक है। माप चलकर उसकी अर्चना करें। दिगम्बरपरम्परा के माचार्य जिनसेन ने उपर्युक्त दो सूचनाओं के अतिरिक्त तृतीय, पुत्र की सूचना का भी उल्लेख किया है / 58 ये सभी सूचनाएं एक 149. वाटर्स, नान युवान च्वाङ, I, 354-9 150. हिस्टारिकिल ज्योग्राफी ऑफ ऐंसियण्ट इंडिया, पृ. 76 151. कनिंघम, ऍसियट ज्योग्राफी आफ इंडिया, पृ. 459-460 152. " " " " " . पृ. 341 153. विविधतीर्थकल्प, अध्याय 34 154. आवश्यकनियुक्ति, 342 155. आवश्यकचूर्णि, 181 156. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित 1131511-513 157. चउपन्नमहापुरिसचरियं, शीलाङ्क 158. महापुराण 24121573 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ मिलने से भरत एक क्षण अजमंजस में पड़ गये। 56 वे सोचने लगे कि मुझे प्रथम कौनसा कार्य करना चाहिये ? पहले चक्ररत्न की अर्चना करनी चाहिये या पुत्रोत्सव मनाना चाहिये या प्रभु की उपासना करनी चाहिये ? दूसरे ही क्षण उनकी प्रत्युत्पन्न मेधा ने उत्तर दिया कि केवलज्ञान का उत्पन्न होना धर्मसाधना का फल है, पुत्र उत्पत्र होना काम का फल है और देदीप्यमान चक्र का उत्पन्न होना अर्थ का फल है।५० इन तीन पुरुषार्थों में प्रथम पुरुषार्थ धर्म है, इसलिये मुझे सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव की उपासना करनी चाहिये / चक्ररत्न और पुत्ररत्न तो इसी जीवन को सुखी बनाता है पर भगवान् का दर्शन तो इस लोक और परलोक दोनों को ही सुखी बनाने वाला है / अतः मुझे सर्वप्रथम उन्हीं के दर्शन करना है। प्रस्तुत प्रागम में केवल चक्ररत्न का ही उल्लेख हया है, अन्य दो घटनामों का उल्लेख नहीं है। अतः भरत ने चक्ररत्न का अभिवादन किया और प्रष्ट दिवसीय महोत्सव किया। चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिये चक्ररत्न अनिवार्य साधन है। यह चक्ररत्न देवाधिष्ठित होता है। एक हजार देव इस चक्ररत्न की सेवा करते हैं। यों चक्रवर्ती के पास चौदह रत्न होते हैं। यहां पर रत्न का अर्थ अपनी-अपनी जातियों की सर्वोत्कृष्ट वस्तुएं हैं। चौदह रत्नों में सात रत्न एकेन्द्रिय और सात रत्न पंचेन्द्रिय होते हैं। आचार्य अभयदेव ने स्थानांगवत्ति में लिखा है कि चक्र आदि सात रत्न पृथ्वीकाय के जीवों के शरीर से बने हुए होते हैं, अतः उन्हें एकेन्द्रिय कहा जाता है। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनसारोद्धार ग्रन्थ में इन सात रत्नों का प्रमाण इस प्रकार दिया है। 163 चक्र, छत्र और दण्ड ये तीनों व्याम तुल्य हैं। 164 तिरछे फैलाये हए दोनों हाथों की अंगलियों के अन्तराल जितने बड़े होते हैं। चर्मरत्न दो हाथ लम्बा होता है। सिरत्न बत्तीस मणिरत्न चार अंगुल लम्बा और दो अंगुल चौड़ा होता है। कामिणीरत्न की लम्बाई चार अंगूल होती है। जिस युग में जिस चक्रवर्ती की जितनी अवगाहना होती है, उस चक्रवर्ती के अंगुल का यह प्रमाण है। चक्रवर्ती को आयुधशाला में चक्ररत्न, छत्ररत्न, दण्डरल और असिरत्न उत्पन्न होते हैं। चक्रवर्ती के श्रीघर में चर्मरत्न, मणिरत्न और कागिणीरत्न उत्पन्न होते हैं। चक्रवर्ती की राजधानी विनीता में सेनापति, वर्द्धक और पुरोहित ये चार पुरुषरत्न होते हैं। वैतादयगिरि की उपत्यका में अश्व और हस्ती रत्न उत्पन्न होते हैं। उत्तर दिशा की विद्याधर श्रेणी में स्त्रीरत्न उत्पन्न होता है / 165 प्राचार्य नेमिचन्द्र ने चौदह रत्नों की व्याख्या इस प्रकार की है - 1. सेनापति—यह सेना का नायक होता है। गंगा और सिन्धु नदी के पार वाले देशों को यह अपनी भुजा के बल से जीतता है। 159. (क) त्रिषष्टिशलाकापुरुष च. 1131514 (ख) महापुराण 24121573 160. महापुराण 24 / 6 / 573 161. महापुराण 2419 / 573 162. रत्नानि स्वजातीयमध्ये समुत्कर्षवन्ति वस्तूनीति-समवायाङ्ग वृत्ति, पृ. 27 163. प्रवचनसारोद्धार गाथा 1216-1217 164. चक्रं छत्र....पुंसस्तिर्यगहस्तद्वयांगूलयोरंतरालम् / —प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र 351 165. भरहस्स णं रनो""उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेढीए सम्प्पन्ने / 166. प्रवचनसारोद्धारवत्ति, पत्र 350-351 -आवश्यकचूणि पृ. 208 [ 37 ] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. गृहपति-यह चक्रवर्ती के घर को समुचित व्यवस्था करता है / जितने भी धान्य, फल और शाकसब्जियां हैं, उनका यह निष्पादन करता है। 3. पुरोहित-गृहों को उपशान्ति के लिये उपक्रम करता है। 4. हस्ती---यह बहुत ही पराक्रमी होता है और इसकी गति बहुत वेगवती होती है। 5. अश्व-यह बहत ही शक्तिसम्पन्न और अत्यन्त वेगवान होता है। 6. बकि-यह भवन आदि का निर्माण करता है। जब चक्रवर्ती दिगविजय के लिये तमिस्रा गुफा में से जाते हैं उस समय उन्मग्न जला और निमग्नजला इन दो नदियों को पार करने के लिये सेतु का निर्माण करता है, जिन पर से चक्रवर्ती की सेना नदी पार करती है। 7. स्त्री-यह कामजन्य सुख को देने वाली होती है। 8. चक्र—यह सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों में श्रेष्ठ होता है तथा दुर्दम शत्रु पर भी वियज दिलवाने में पूर्ण समर्थ होता है। 9. छत्र-यह छत्र विशेष प्रकार को धातुपों से अलंकृत और कई तरह के चिह्नों से मंडित होता है, जो चक्रवर्ती के हाथों का स्पर्श पाकर बारह योजन लम्बा-चौड़ा हो जाता है। जिससे धूप, हवा और वर्षा से बचाव होता है। 10. चर्म-बारह योजन लम्बे-चौड़े छत्र के नीचे प्रात:काल शालि आदि जो बीज बोये जाते हैं, वे मध्याह्न में पककर तैयार हो जाते हैं। यह है-चर्मरत्न की विशेषता / दूसरी विशेषता यह है कि दिविजय के समय नदियों को पार कराने के लिए यह रत्न नौका के रूप में बन जाता है और म्लेच्छ नरेशों के द्वारा जलवष्टि कराने पर यह रत्न सेना की सुरक्षा करता है। 11. मणि-यह रत्न वैडूर्य मय तीन कोने और छह अंश वाला होता है / यह छत्र और चर्म इन दो रत्नों के बीच स्थित होता है। चक्रवर्ती की सेना, जो बारह योजन में फैली हुई होती है, उस सम्पूर्ण सेना को इसका दिव्य प्रकाश प्राप्त होता है। जब चक्रवर्ती तमिस्रा गुहा और खण्डप्रपात गुहा में प्रवेश करते हैं तब हस्तीरत्त के सिर के दाहिनी ओर इस मणि को बांध दिया जाता है। तब बारह योजन तक तीनों दिशाओं में, दोनों पायों में इसका प्रकाश फैलता है। इस मणि को हाथ या सिर पर बांधने से देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सबन्धी सभी प्रकार के उपद्रव शान्त हो जाते हैं, रोग मिट जाते हैं। इसको सिर प या किसी अंग-उपांग पर धारण करने से किसी भी प्रकार के शस्त्र प्रस्त्र का प्रभाव नहीं होता। इस रत्न को कलाई . पर बांधने से यौवन स्थिर रहता है, केशऔर नाखून न घटते हैं और न बढ़ते हैं। 12. कामिणी-यह रत्न पाठ सौणिक प्रमाण का होता है। यह चारों ओर से सम और विष नष्ट करने में पूर्ण समर्थ होता है। सूर्य, चन्द्र और अग्नि जिस अंधकार को नष्ट करने में समर्थ नहीं होते, उउ तमिस्र गुहा में यह रन अन्धकार को नष्ट कर देता है / चक्रवर्ती इस रत्न से तमिस्र गुहा में उनपचास मण्डल बनाते हैं। एक-एक मण्डल का प्रकाश एक-एक योजन तक फैलता है। यह रत्त चक्रवर्ती के स्कन्धावार में स्थापित रहता है। इसका दिव्य प्रकाश रात को भी दिन बना देता है। इस रत्न के प्रभाव से ही चक्रवर्ती द्वितीय अर्द्ध भरत को जीतने के लिये अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ तमिन गुहा में प्रवेश करते हैं और इसी रत्न से चक्रवर्ती ऋषभकट पर्वत पर अपना नाम अंकित करते हैं। [38] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. असि (खङ्ग) संग्रामभूमि में इस रत्न को शक्ति अप्रतिहत होती है। अपनी तीक्ष्ण धार से यह रत्न शत्रुओं को नष्ट कर डालता है / 14. दण्ड--यह रत्न-वज्रमय होता है। इसकी पांचों लताएं रत्नमय होती हैं। शत्रुदव को नष्ट करने में समर्थ होता है। यह विषम मार्ग को सम बनाता है। चक्रवर्ती के स्कन्धावार में जहाँ कहीं भी विषमता होती है उसको यह रत्न सम करता है। चक्रवर्ती के सभी मनोरथों को पूर्ण करता है। वैताढय पर्वत की दोनों गुफाओं के द्वार खोलकर उत्तर भरत की ओर चक्रवर्ती को पहुंचाता है। दिगम्बरपरम्परा की दृष्टि से ऋषभाचल पर्वत पर नाम लिखने का कार्य भी यह रत्न करता है। प्रत्येक रत्न के एक-एक हजार देव रक्षक होते हैं / चौदह रत्नों के चौदह हजार देवता रक्षक थे। बौद्ध ग्रन्थ मज्झिमनिकाय 17 में चक्रवर्ती के सात रत्नों का उल्लेख है। वह इस प्रकार हैं 1. चक्ररत्न-यह रत्न सम्पूर्ण आकार से परिपूर्ण हजार प्ररों वाला, सनैमिक और सनाभिक होता है। जब यह रत्न उत्पन्न होता है तब मूर्धाभिषिक्त राजा चक्रवर्ती कहलाने लगता है। जब वह राजा उस चक्ररत्न को कहता है-पवत्ततु भवं चक्करतनं, अभिविजिनातु भवं चक्करतनं ति / तब चक्रवर्ती राजा के आदेश से वह चारों दिशामों में प्रवर्तित होता है। जहाँ पर भी वह चक्ररत्न रुक जाता है, वहीं पर चक्रवर्ती राजा अपनी सेना के साथ पड़ाव डाल देता है / उस दिशा में जितने भी राजागण होते हैं, वे चक्रवर्ती राजा का अनुशासन स्वीकार कर लेते हैं / बह चक्ररत्न चारों दिशाओं में प्रवर्तित होता है और सभी राजा चक्रवर्ती के अनुगामी बन जाते हैं। यह चक्ररत्न समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर विजय-वैजयन्ती फहरा कर पुनः राजधानी लौट आता है और चक्रवर्ती के अन्तःपुर के द्वार के मध्य अवस्थित हो जाता है। 2. हस्तीरत्न-इसका वर्ण श्वेत होता है। इसकी ऊँचाई सात हाथ होती है / यह महान ऋद्धिसम्पन्न होता है / इसका नाम उपोसय होता है। पूर्वाह्न के समय चक्रवर्ती इस पर आरूढ होकर समुद्रपर्यन्त परिभ्रमण कर राजधानी में प्राकर प्रातरास लेते हैं / यह इसकी प्रतिशीघ्रगामिता का निदर्शन है / 3. अश्वरत्न-वर्ण की दृष्टि से यह पूर्ण रूप से श्वेत होता है। इसकी गति पवन-वेग की तरह होती है। इसका नाम बलाहक है। पूर्वाह्न के समय चक्रवर्ती सम्राट् इस पर आरूढ होकर समुद्रपर्यन्त धमकर पुनः राजधानी में आकर कलेवा कर लेता है। 4. मणिरत्न-यह शुभ और गतिमान वैड्र्यमणि और सुपरिमित होता है। चक्रवर्ती इस मणिरत्न को ध्वजा के अग्रभाग में आरोपित करता है और अपनी सेना के साथ रात्रि के गहन अन्धकार में प्रयाण करता है। इस मणि का इतना अधिक प्रकाश फैलता है कि लोगों को रात्रि में भी दिन का भ्रम हो जाता है। 5. स्त्रीरत्न-वह स्त्री बहुत ही सुन्दर, दर्शनीय, प्रासादिक, सुन्दर वर्ण वाली, न अति दीर्घ, न अति ह्रस्व, न अधिक मोटी, न अधिक दुबली, न अत्यन्त काली और न अत्यन्त गोरी प्रपितु स्वर्ण कान्तियुक्त दिव्य वर्ण वाली होती थी। उसका स्पर्श तूस और कपास के स्पर्श के समान प्रतिमृदु होता था। उस स्त्रीरत्न का शरीर शीतकाल में उष्ण और ग्रीष्मकाल में शीतल होता था। उसके शरीर से चन्दन की मधुर-मधुर सुगन्ध फुटती थी। उसके मुंह से उत्पल की गन्ध पाती थी। चक्रवर्ती के सोकर उठने से पूर्व वह उठती थी और चक्रवर्ती के सोने के 167. मज्झिम निकाय III 29/2/14 पृ. 242-246 (नालंदा संस्करण) [ 39] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद सोती थी। वह सदा-सर्वदा चक्रवर्ती के मन के अनुकूल प्रवृत्ति करती थी। मन से भी चक्रवर्ती की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती थी। फिर तन से तो करने का प्रश्न ही नहीं था। 6. गृहपतिरत्न–गृहपति के कर्मविपाकज दिव्य चक्षु उत्पन्न होते थे। वह चक्रवर्ती को निधियों को उनके अधिष्ठातानों के साथ अथवा अधिष्ठातामों से रहित देखता है। चक्रवर्ती उस गहपति रत्न के साथ नौका में आरूढ होकर मध्यगंगा के बीच में जाकर कहता है-हे गहपति ! मुझे हिरण्य-सुवर्ण चाहिये। तब ग्रहपति रत्न दोनों हाथों को मंगा के पानी के प्रवाह में डालकर हिरण्य-सवर्ण से भरे कलश को बाहर निकाल कर चक्रवर्ती के सामने रखता है और चक्रवर्ती सम्राट से पूछता है-इतना ही पर्याप्त है या और ले कर पाऊँ ? 7. परिनायक-रत्न--यह महामनीषी होता है / अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से चक्रवर्ती के समस्त क्रियाकलापों में परामर्श प्रदान करता है। वैदिक साहित्य में भी चक्रवर्ती सम्राट के चौदह रत्न बताये हैं। वे इस प्रकार है-१. हाथी 2. घोड़ा 3. रथ 4. स्त्री 5. बाण 6. भण्डार 7. माला 8. वस्त्र 9. वृक्ष 10. शक्ति 11. पाश 12. मणि 13. छत्र और 14. विमान। गंगा महानदी सम्राट भरत षट्खण्ड पर विजय-वैजयन्ती फहराने के लिये विनीता से प्रस्थित होते हैं और गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होते हुए पूर्व दिशा में मागध दिशा की ओर चलते हैं। गंमा भारतवर्ष की बड़ी नदी है / स्कन्धपुराण,'१६ अमरकोश,१६६ आदि में गंगा को देवताओं की नदी कहा है। जैन साहित्य में गंगा को देवाधिष्ठित नदी माना है। 170 गंगा का विराट रूप भी उसको देवत्व की प्रसिद्धि का कारण रहा है। योगिनीतंत्र ग्रन्थ '75 में मंगा के विष्णुपदी, जाह्नवी: मंदाकिनी और भागीरथी आदि विविध नाम मिलते हैं। महाभारत और भागवतपुराण इसके मलखनन्दा 72 तथा भागवतपुराण में ही दूसरे स्थान पर धुनदी'७३ नाम प्राप्त है। रघुवंश'७४ में भागीरथी और जाह्नवी ये दो नाम गंगा के लिये मिलते हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार गंगा का उद्गमस्थल पद्मह्रद है।' 75 पालिग्रन्थों में अनोतत्त झील के दक्षिणी मुख को गंगा का स्रोत बतलाया गया है।'७६ अाधुनिक भूगोलवेताओं की दृष्टि से भागीरथी सर्वप्रथम गढ़वाल क्षेत्र में गंगोत्री के समीप हमगोचर होती 168. स्कन्धपुराण, काशी खण्ड, गंगा सहस्रनाम, अध्याय 29 169. अमरकोश 1 / 10 / 31 170. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 4 / 171. योगिनीतंत्र 2,3 पृ. 122 और पागे; 2, 7, 8 पृ. 186 और मागे 172. (क) महाभारत, प्रादिपर्व 170122 (ख) श्रीमद्भागवतपुराण 416224; 1229142 173. श्रीमद्भागवतपुराण 3 / 5 / 1; 1075 / 8 174. रघुवंश 7 / 36; 895; 10 / 26 175. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 4 176. प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, लाहा, पृ. 53 [40] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। स्थानांग,१७. समवायांग,१७ जम्बूदीपप्रज्ञप्ति," निशीथ और बृहत्कल्प 81 में गंगा को एक महानदी के रूप में चित्रित किया गया है। स्थानांग,८२ निशीथ'८३ और बृहत्कल्प 84 में मंगा को महार्णव भी लिखा है। प्राचार्य प्रभयदेव ने स्थानांगवति'८५ में महार्णव शब्द को उपमावाचक मानेकर उसका अर्थ किया है कि विशाल जलराशि के कारण वह विराट् समुद्र की तरह थी ! पुराणकाल में भी गंगा को समुद्ररूपिणी कहा है। दैदिक दृष्टि से गंगा में नौ सौ नदियां मिलती हैं। जैन दृष्टि से चौदह हजार नदियां गंगा में मिलती हैं, जिनमें यमुना, सरयू, कोशी, मही प्रादि बड़ी नदियाँ भी हैं। प्राचीन काल में गंगा नदी का प्रवाह बहुत विशाल था। समुद्र में प्रवेश करते समय गंगा का पाट साढ़े बासठ योजन चौड़ा था, और वह पाँच कोस गहरी थी। 10 वर्तमान में गंगा प्राचीन युग की तरह विशाल और महरी नहीं है / गंगा नदी में से और उसकी सहायक नदियों में से अनेक विराटकाय नहरें निकल चुकी हैं, तथापि वह अपनी विराटता के लिये विश्रुत है / वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार गंगा 1557 मोल के लम्बे मार्ग को पार कर बंग सागर में गिरती है। यमुना, गोमती, सरयू, रामगंगा, मंडकी, कोशी और ब्रह्मपुत्र प्रादि अनेक नदियों को अपने में मिलाकर वर्षाकालीन बाढ़ से गंगा महानदी अठारह लाख घन फुट पानी का प्रस्राव प्रति संकण्ड करती है।"' बौद्धों के अनुसार पांच बड़ी नदियों में से गंगा एक महानदी है। दिविजय यात्रा में सम्राट् भरत चक्ररत्न का अनुसरण करते हुए मागध तीर्थ में पहुंचे। वहां से उन्होंने लवणसमुद्र में प्रवेश किया और बाण छोड़ा / नामांकित बाण बारह योजन की दूरी पर मागधतीर्थाधिपति देव के वहाँ पर मिरा / पहले वह क्रुद्ध हुआ पर भरत चक्रवर्ती नाम पढ़कर वह उपहार लेकर पहुंचा। इस तरह चक्ररल के पीछे चलकर वरदाम तीर्थ के कुमार देव को अधीन किया। उसके बाद प्रभासकुमार देव, सिन्धुदेवी, वैताठ्यगिरि कुमार, कृतमालदेव प्रादि को अधीन करते हुए भरत सम्राट ने षट्खण्ड पर विजय-वैजयन्ती फहराई। 177. स्थानाङ्ग 5 / 3 178. समवायाङ्ग 24 वां समवाय 179. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 4 180. निशीथसूत्र 12342 181. बृहत्कल्पसूत्र 4132 152. स्थानाङ्ग 221 183. निशीथ 12142 184. बृहत्कल्प 4 / 32 185. (क) स्थानाङ्गवत्ति 5 / 2 / 1 (ख) बृहत्कल्पभाष्य टीका 5616 186. स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय 29 187. हारीत 17 185. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 4 189. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 4 190. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 4 191. हिन्दी विश्वकोश, नागरी प्रचारिणी सभा, गंगा शब्द [ 41] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवनिधियां सम्राट् भरत के पास चौदह रत्नों के साथ ही नवनिधियां भी थीं, जिनसे उन्हें मनोवांछित वस्तुएं प्राप्त होती थीं। निधि का अर्थ खजाना है / भरत महाराज को ये नवनिधियां, जहाँ गंगा महानदी समुद्र में मिलती है, वहां पर प्राप्त हुई। प्राचार्य अभयदेव 3 के अनुसार चक्रवर्ती को अपने राज्य के लिये उपयोगी सभी वस्तुओं की प्राप्ति इन नौ निधियों से होती है / इसलिये इन्हें नवनिधान के रूप में गिना है। वे नवनिधियां इस प्रकार हैं 1. नैसर्प निधि-यह निधि ग्राम, नगर, द्रोणमुख आदि स्थानों के निर्माण में सहायक होती है। 2. पांडुकनिधि-मान, उन्मान और प्रमाण आदि का ज्ञान कराती है तथा धाग्य और बीजों को उत्पन्न करती है। 3. पिंगलनिधि-यह निधि मानव और तिर्यञ्चों के सभी प्रकार के आभूषणों के निर्माण की विधि का शान कराने वाली है और साथ ही योग्य आभरण भी प्रदान करती है। 4. सर्वरत्ननिधि-इस निधि से वज्र, वैड्र्य, मरकत, माणिक्य, पद्मराग, पुष्पराज प्रभूति बहुमूल्य रत्न प्राप्त होते हैं। 5. महापयनिधि--यह निधि सभी प्रकार की शुद्ध एवं रंगीन वस्तुओं की उत्पादिका है। किन्हीं-किन्हीं प्रन्यों में इसका नाम पद्मनिधि भी मिलता है। 6. कालनिधि-वर्तमान, भूत, भविष्य, कृषिकर्म, कला, व्याकरणशास्त्र प्रभृति का यह निधि ज्ञान कराती है। 7. महाकालनिधि–सोना, चांदी, मुक्ता, प्रवाल, लोहा प्रभृति की खाने उत्पन्न करने में सहायक होती है / 8. माणवकनिधि-कवच, ढाल, तलवार प्रादि विविध प्रकार के दिव्य प्रायुध, युद्धनीति, दण्डनीति प्रादि की जानकारी कराने वाली। 9. शंखनिधि-विविध प्रकार के काव्य, वाद्य, नाटक आदि की विधि का ज्ञान कराने वाली होती है। ये सभी निधियाँ अविनाशी होती हैं। दिगविजय से लौटते हुए मंगा के पश्चिम तट पर अट्ठम तप के पश्चात् चक्रवर्ती सम्राट को यह प्राप्त होती हैं। प्रत्येक निधि एक-एक हजार यक्षों से अधिष्ठित होती है। इनकी न, चौड़ाई नौ योजन तथा लम्बाई दस योजन होती है / इनका प्राकार संदूक के समान होता है। ये सभी निधियाँ स्वर्ण और रत्नों से परिपूर्ण होती हैं। चन्द्र और सूर्य के चिह्नों से चिह्नित होती हैं तथा पल्योपम 192. (क) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र 114 (ख) स्थानांगसूत्रं 9:19 (ग) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, भरतचक्रवर्ती अधिकार, वक्षस्कार 3 (घ) हरिवंशपुराण, सगं 11 (ड) माधनन्दी विरचित शास्त्रसारसमुच्चय, सूत्र 18, पृ. 54 193. स्थानांगवृत्ति, पत्र 226 [ 42] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्रायु वाले नागकुमार जाति के देव इनके अधिष्ठायक होते हैं। हरिवंशपुराण के अनुसार ये नौ निधियां कामवृष्टि नामक गृहपतिरत्न के अधीन थीं और चक्रवर्ती के सभी मनोरथों को पूर्ण करती थीं। 15 . हिन्दुधर्म शास्त्रों में इन नवनिधियों के नाम इस प्रकार मिलते हैं-१. महापद्य, 2. पद्म, 3. शंख, 4. मकर, 5. कच्छप, 6. मुकुन्द, 7. कुन्द,८. नील और 9. खर्व / ये निधियाँ कुबेर का खजाना भी कही जाती हैं। __ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में बहुत ही विस्तार के साथ दिविजय का वर्णन है, जो भरत के महत्त्व को उजागर करता है / भरत चक्रवर्ती के नाम से ही प्रस्तुत देश का नामकरण भारतवर्ष हुआ है। वसुदेवहिण्डी' में भी इसका स्पष्ट उल्लेख हुआ है / वायुपुराण'६७ ब्रह्माण्डपुराण,१६६ आदिपुराण 66 वराहपुराण, 200 वायुपुराण'' लिंगपुराण, 203 स्कन्दपुराण,२०3 मार्कण्डेयपुराण 204 श्रीमद्भागवत पुराण, 205 आग्नेयपुराण,२०६ विष्णुपुराण,२०० कूर्मपुराण,२०८ शिवपुराण, नारदपुराण"० प्रादि ग्रन्थों से भी स्पष्ट है कि प्रस्तुत देश का नामकरण भगवान् ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम से ही हुमा। पाश्चात्य विद्वान् श्री जे० स्टीवेन्सन' तथा प्रसिद्ध इतिहासज गंगाप्रसाद एम० ए०२१२ और रामधारी सिंह दिनकर"३ का भी यही मन्तव्य है / कतिपय विद्वानों ने दुष्यन्त-तनय भरत के नाम के प्राधार पर 'भारत' नाम का होना लिखा है, वह सर्वथा असंगत एवं भ्रमपूर्ण है। ऋषभपुत्र चक्रवर्ती भरत के विराट् कतत्व और व्यक्तित्व की तुलना में दुष्यन्तपुत्र भरत का व्यक्तित्व-कृतित्व नगण्य है। सर्वप्रथम चक्रवर्ती भरत ने ही एकच्छत्र साम्राज्य की स्थापना करके भारत को एकरूपता प्रदान की थी। 194. त्रिषष्टि शलाका पु. च. 1141574-587 195. हरिवंशपुराण-जिनसेन 11 / 123 196. वसुदेवहिण्डी, प्रथमखण्ड पृ० 186 197. वायुपुराण 45575 198. ब्रह्माण्डपुराण, पर्व 2014 199. प्रादिपुराण, पर्व 15 / 158-159 200. वराहपुराण 74149 201. वायुमहापुराण 33 / 12 202. लिंगपुराण 43323 203. स्कन्दपुराण, कौमार खण्ड 37 // 57 204. मार्कण्डेयपुराण 50 // 41 205. श्रीमद्भागवतपुराण 14 206. प्राग्नेयपुराण 107.12 207. विष्णुपुराण, अंश 2, अ. 1528-29 / 32 208, कूर्मपुराण 41138 209. शिवपुराण 52155 290. नारदपुराण 4815 211. Brahmanical Puranas....took to name 'Bharatvarsha'-Kalpasutra Introd. P. XVI 212. प्राचीन भारत पृष्ठ 5 213. संस्कृति के चार अध्याय पृ. 139 [43] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावश्यकनियुक्ति, विषष्टिशलाकापुरुषचरित और महापुराण में सम्राट भरत के अन्य अनेक प्रसंग भी हैं, जिनका उल्लेख जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में नहीं हुमा है। उन ग्रन्थों में पाए हुए कुछ प्रेरक प्रसंग प्रबुश पाठकों की जानकारी हेतु हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रमासक्त भरत सम्राट भरत ने देखा-मेरे ९९भ्राता संयम-साधना के कठोर कंटकाकीर्ण मार्ग पर बढ़ चुके हैं पर मैं अभी भी संसार के दलदल में फंसा है। उनके अन्तर्मानस में वैराग्य का पयोधि उछाले मारने लगा। वे राज्यधी का उपभोग करते हुए भी अनासक्त हो गए / एक बार भगवान ऋषभदेव विनीता नगरी में पधारे / पावन प्रवचन चल रहा था। एक जिज्ञासु ने प्रबचम के बीच ही प्रश्न किया-भगवन् ! भरत चक्रवर्ती मरकर कहां जाएंगे? उत्तर में भगवान ने कहा-मोक्ष में / उत्तर सुनकर प्रश्नकर्ता का स्वर धीरे से फूट पड़ा-भगवान् के मन में पुत्र के प्रति मोह और पक्षपात है। वे शब्द सम्राट भरत के कर्णकुहरों में गिरे / भरत चिन्तन करने लगे कि मेरे कारण इस व्यक्ति ने भगवान् पर आक्षेप किया है। भगवान् के वचनों पर इसे श्रद्धा नहीं है / मुझे ऐसा उपाय करना चाहिये जिससे यह भगवान के वचनों के प्रति श्रद्धालु बने / दूसरे दिन तेल का कटोरा उस प्रश्नकर्ता के हाथ में थमाते हए भरत ने कहा-तुम विनीता के सभी बाजारों में परिभ्रमण करो पर एक बूंद भी नीचे न गिरने पाए। बंद नीचे गिरने पर तुम्हें फांसी के फन्दे पर झलना पड़ेगा। उस दिन विशेष रूप से बाजारों को सजाया गया था। स्थान-स्थान पर नत्य, संगीत और नाटकों का आयोजन था। जब वह पुनः लौटकर भरत के पास पहुँचा तो भरत ने पूछा-तुमने क्या-क्या वस्तुएं देखी हैं ? तुम्हें संगीत की स्वरलहरियां कैसी लगी ? उसने निवेदन किया कि वहाँ मैं नत्य, संगीत, नाटक कैसे देख सकता था ? भरत ने कहा-ग्रांखों के सामने नत्य हो रहे थे पर तुम देख न सके / कानों में स्वरलहरियां गिर रहीं थीं पर तुम सुन न सके / क्योंकि तुम्हारे अन्तर्मानस में मृत्यु का भय लगा हुआ था। वैसे ही मैं राज्यश्री का उपभोग करते हुए भी अनासक्त हूँ। मेरा मन सभी से उपरत है। वह समझ गया कि यह उपक्रम सम्राट् भरत ने क्यों किया? उसे भगवान् ऋषभदेव के वचन पर पूर्ण श्रद्धा हो गई। यह थी भरत के जीवन में अनासक्ति जिससे उन्होंने 'राजेश्वरी सो नरकेश्वरी' की उक्ति को मिथ्या सिद्ध कर दिया। बाहुबली से युद्ध जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में सम्राट् भरत षट्खण्ड पर अपनी विजयश्री लहरा कर विनीता लौटे और वहां वे प्रानन्द से राज्यश्री का उपभोग करने लगे। बाहुबली के साथ युद्ध का वर्णन नहीं है पर आवश्यकनियुक्ति,१४ मावश्यकचणि,१५ त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित 216 प्रति ग्रन्थों में भरत के द्वारा बाहुबली को यह संदेश प्रेषित किया गया कि या तो तुम मेरी अधीनता स्वीकार करो, नहीं तो युद्ध के लिये सन्नद्ध हो जायो / क्योंकि जब तक बाहुबली उनकी अधीनता स्वीकार नहीं करते तब तक पूर्ण विजय नहीं थी / 98 भ्राता तो प्रथम संदेश से ही राज्य छोड़कर प्रवजित हो चुके थे, उन्होंने भरत की अधीनता स्वीकार करने के स्थान पर धर्म की शरण लेना अधिक उचित समझा था। पर बाहुबली भरत के संदेश से तिलमिला उठे और उन्होंने दूत को यह संदेश दिया कि मेरे 98 भ्रातात्रों का राज्य छीन कर भी भरत संतुष्ट नहीं हुए ? वह मेरे राज्य को भी पाने के लिये ललक रहे हैं ! उन्हें 214. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 32-35 215. आवश्यकणि, पृ. 210 216. त्रिषष्टिशलाका पु. च. पवं 1, सर्ग 5, श्लोक 723-724 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी शक्ति का गर्व है। वह सभी को दबाकर अपने अधीन रखना चाहते हैं। यह शक्ति का सदुपयोग नहीं, दुरुपयोग है। हमारे पूज्य पिताश्री ने जो सुव्यवस्था स्थापित की थी, उसका यह स्पष्ट अतिक्रमण है / मैं इस अन्याय को सहन नहीं कर सकता / मैं बता दूंगा कि प्राक्रमण करना कितना अहितकर है। दूत ने जब बाहुबली का संदेश सम्राट् भरत को दिया तो वे असमंजस में पड़ गये, क्योंकि चक्ररत्न नगर में प्रवेश नहीं कर रहा था और जब तक चक्ररत्न नगर में प्रवेश नहीं करता है तब तक चक्रवर्तित्व के लिये जो इतना कठिन श्रम किया था, वह सब निष्फल हो जाता / दूसरी ओर लोकापवाद और भाई का प्रेम भी युद्ध न करने के लिये उत्प्रेरित कर रहा था। चक्रवर्तित्व के लिये मन मार कर भाई से युद्ध करने के लिये भरत प्रस्थित हुए। उन्होंने बहली देश की सीमा पर सेना का पड़ाव डाला। बाहुबली भी अपनी विराट् सेना के साथ रणक्षेत्र में पहुंच गये। कुछ समय तक दोनों सेनाओं में युद्ध होता रहा / युद्ध में जनसंहार होगा, यह सोचकर बाहुबली ने सम्राट् भरत के सामने द्वन्द्वयुद्ध का प्रस्ताव रखा / सम्राट भरत ने उस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया। दृष्टियुद्ध, वाकयुद्ध, मुष्टियुद्ध और दण्ड युद्ध के द्वारा दोनों का बल परीक्षण करने का निर्णय लिया गया। हुप्रा / इस युद्ध में दोनों ही बीर अनिमेष होकर एक दूसरे के सामने खड़े हो गये और अपलक नेत्रों से एक दूसरे को निहारते रहे। अन्त में संध्या के समय भरत के मुख पर सूर्य मा जाने से उनकी पलकें बन्द हो गई। प्रथम दृष्टियुद्ध में बाहुबली विजयी हुए। दुष्टियुद्ध के बाद वागयुद्ध प्रारंभ हुआ। दोनों ही वीरों ने पुनः पुनः सिंहनाद किया। भरत का स्वर धीरे-धीरे मन्द होता चला गया व बाहुबली का स्वर धीरे-धीरे उदात्त बनता चला गया / इस युद्ध में भी भरत बाहुबली से पराजित हो गये। दोनों युद्धों में पराजित होने से भरत खिन्न थे। उन्होंने मुष्टियुद्ध प्रारम्भ किया / भरत ने कुद्ध होकर बाहुबली के वक्षस्थल पर मुष्टिका प्रहार किया, जिससे बाहुबली कुछ क्षणों के लिये मूच्छित हो गए / जब उनकी मूछा दूर हुई तो बाहुबली ने भरत को उठाकर गेंद की तरह आकाश में उछाल दिया / बाहुबली का मन अनुताप से भर गया कि कहीं भाई जमीन पर गिर गया तो मर जायेगा। उन्होंने गिरने से पूर्व ही भरत को भुजामों में पकड़ लिया और भरत के प्राणों की रक्षा की। भरत लज्जित थे। उन्होंने बाहुबली के सिर पर मुष्टिका-प्रहार किया पर बाहुबली पर कोई असर नहीं हुआ। जब बाहुबली ने मुष्टिका-प्रहार किया तो भरत मूच्छित होकर जमीन पर लुढ़क पड़े। मूच्र्छा दूर होने पर भरत ने दंड से बाहुबली के मस्तक पर प्रहार किया। दण्ड-प्रहार से बाहुबली को प्रांखें बन्द हो गई और वे घुटनों तक जमीन में धंस गये। बाहुबली पुनः शक्ति को बटोर कर बाहर निकले / भरत पर उन्होंने प्रहार किया तो भरत गले तक जमीन में धंस गये / सभी युद्धों में भरत पराजित हो गये थे। उनके मन में यह प्रश्न कौंधने लगा कि चक्रकर्ती सम्राट मैं हैं या बाहबली है ?" भरत इस संकल्प-विकल्प में उलझे हुए थे कि उसी समय यक्ष राजाओं ने भरत के हाथ में चक्ररत्न थमा दिया। मर्यादा को विस्मृत कर बाहुबली के शिरोच्छेदन करने हेतु भरत ने अपना अन्तिम शस्त्र बाहुबली पर चला दिया। सारे दर्शक देखते रह गये कि अब बाहुबली नहीं बच पायेंगे / बाहुबली का खून भी बोल उठा, वे उछल कर चक्र | चाहते थे पर चक्ररत्न बाहुबली की प्रदक्षिणा कर पुनः भरत के पास लौट मया / वह बाहुबली का बाल भी बांका नहीं कर सका। भरत अपने कृत्य पर लज्जित थे।५६ 217. (क) प्रावश्यकभाष्य, गाथा 33 (ख) आवश्यकचूणि 210 218, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित 115722-723 219. त्रिषष्टि. 115746 [4] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहुबली का क्रोध चरम सीमा पर पहुँचे गया था। उन्होंने सम्राट् भरत और चक्र को नष्ट करने के मुट्ठी उठाई तो सभी के स्वर फूट पड़े-सम्राट भरत ने भूल की है पर आप न करें। छोटे भाई के द्वारा बड़े भाई की हत्या अनुचित ही नहीं अत्यन्त अनुचित है। आप महान् पिता के पुत्र हैं, अतः क्षमा करें। बाहुबली का क्रोध शान्त हो गया। उनका हाथ भरत पर न पड़कर स्वयं के सिर पर पा गया। वे केशलुञ्चन कर श्रमण बन गये / 220 प्रस्तुत वर्णन कवियों ने बहुत ही विस्तार से चित्रित किया है / इस चित्रण में बाहुबली के व्यक्तित्व की विशेषता का वर्णन हुआ है। पर मूल प्रागम में इस सम्बन्ध में किञ्चिन्मात्र भी संकेत नहीं है और न 99 भ्रातामों के प्रवजित होने का ही उल्लेख है / उन्होंने किस निमित्त से दीक्षा ग्रहण की, इस सम्बन्ध में भी शास्त्रकार मौन हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में वर्णन है कि भरत प्रादर्शघर में जाते हैं। वहाँ अपने दिव्य रूप को निहारते हैं। शुभ अध्यवसायों के कारण उन्हें केवलज्ञान व केवलदर्शन प्राप्त हो गया। उन्होंने केवलज्ञान/केवलदर्शन होने के पश्चात् सभी वस्त्राभूषणों को हटाया और स्वयं पञ्चमुष्टि लोच कर श्रमण बने / 19' परन्तु आवश्यकनियुक्ति प्रादि में यह वर्णन दूसरे रूप में प्राप्त है। एक बार भरत आदर्श भवन में गए। उस समय उनकी अंगुली से अंगठी नीचे गिर पडी। अंगठी रहित अंगली शोभाहीन प्रतीत हई। वे सोचने लगे कि अचेतन पदार्थों से मेरी शोभा है ! मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है ? मैं जड़ पदार्थों की सुन्दरता को अपनी सुन्दरता मान बैठा हैं। इस प्रकार चिन्तन करते हुए उन्होंने मुकुट, कुण्डल आदि समस्त प्राभूषण उतार दिये / सारा शरीर शोभाहीन प्रतीत होने लगा। वे चिन्तन करने लगे कि कृत्रिम सौन्दर्य चिर नहीं है, प्रात्मसौन्दर्य ही स्थायी है। भावना का वेग बढ़ा और वे कर्ममल को नष्ट कर केवलज्ञानी बन गये। दिगम्बर प्राचार्य जिनसेन 223 ने सम्राट् भरत की विरक्ति का कारण अन्य रूप से प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि एक बार सम्राट भरत दर्पण में अपना मुख निहार रहे थे कि सहसा उनकी दृष्टि अपने सिर पर पाए हए प्रवेत केश पर टिक गई। उसे निहारते-निहारते ही संसार से विरक्ति हुई। उन्होंने सं और कुछ समय के पश्चात् ही उनमें मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान प्रकट हुप्रा / श्रीमद्भागवत 534 में सम्राट भरत का जीवन कुछ अन्य रूप से मिलता है। राजर्षि भरत सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य भोगकर वन में चले गये। वहां पर उन्होंने तपस्या कर भगवान् की उपासना की और तीन जन्मों में भगवस्थिति को प्राप्त हुए। पावश्यकणि और महापुराण में यह भी वर्णन है कि क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना भगवान् ऋषभदेव ने की और ब्राह्मण वर्ण की स्थापना सम्राट भरत ने की। आवश्यकचूणि के अनुसार जब 220. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित 1151740-742 221. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 3 222. (क) प्रावश्यकनियुक्ति 436 (ख) प्रावश्यकचूणि पृष्ठ 227 223. महापुराण 47 / 392-393 224. श्रीमद्भागवत 11121181711 [46 ] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट् भरत के 98 लघु भ्राता प्रवजित हो गए तब भरत के अन्तर्मानस में यह विचार उबुद्ध हुआ कि मेरे पास यह विराट वैभव है, यह वैभव अपने स्वजनों के भी काम नहीं आया तो निरर्थक है। भरत ने अपने भाइयों को पहले भोग के लिये निमंत्रण दिया। जब उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया तो पांच सौ गाड़ियों में भोजन की सामग्री लेकर जहां भगवान ऋषभदेव विचर रहे थे वहाँ पहुँचे और वह भोजनसामग्री ग्रहण करने के लिये प्रार्थना की। भगवान ऋषभदेव ने कहा कि श्रमणों के लिये बना हुप्रा आहार श्रमण ग्रहण नहीं कर सकते और साथ ही यह राजपिण्ड है अतः श्रमण ले नहीं सकते। भरत सोचने लगे कि मेरी कोई भी वस्तु काम नहीं आयेगी। उस समय भरत को चिन्तित देखकर शक्रेन्द्र ने कहा कि आप जो आहार प्रादि लाये हैं, यह वृद्ध और गुणाधिक श्रावकों को समर्पित करें। भरत को सुझाव पसन्द आया और वह प्रतिदिन गुणज्ञ श्रावकों को प्राहार देने लगा। भरत ने कहा-पाप अपनी माजीविका की चिन्ता से मुक्त बनें / शास्त्रों का स्वाध्याय करें तथा मुझे 'वर्द्धते भयं, माहण माहण' का उपदेश दें / अर्थात् भय बढ़ रहा है, हिंसा मत करो, हिंसा मत करो। भोजन करने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। जो श्रावक नहीं थे, वे भी प्राने लगे। भरत ने उन श्रावकों की परीक्षा की और कागिणीरत्न से उन्हें चिह्नित किया। 'माहण-माहण' की शिक्षा देने से वे ब्राह्मण (माहण-ब्राह्मण) कहलाए देव, गुरु और धर्म के प्रतीक के रूप में तीन रेखाएं की गई थीं। वे ही रेखाएं आगे चलकर यज्ञोपवीत में परिणत हो गई। 225 ____ महापुराण के अनुसार ब्राह्मणवर्ण की उत्पत्ति इस प्रकार है-सम्राट् भरत षट्खण्ड को जीत कर जब प्राये तो उन्होंने सोचा कि बौद्धिक वर्ग, जो अपनी आजीविका की चिन्ता में लगा हना है, उसे आजीविका की चिन्ता से मुक्त किया जाय तो वह जनजीवन को योग्य मार्गदर्शन प्रदान कर सकता है। उन्होंने योग्य व्यक्तियों के परीक्षण के लिये एक उपाय किया। भरत स्वयं प्रावास में चले गये। मार्ग में हरी घास थी। जिन लोगों में विवेक का प्रभाव था वे हरी घास पर चलकर भरत के पास पहुँच गये पर कुछ लोग, जिनके मानस में जीवों के प्रति मनुकम्पा थी, वे मार्ग में घास होने के कारण भरत के पास उनके आवास पर नहीं गए, प्रतीक्षाघर में ही बैठे रहे। भरत ने जब उनसे पूछा कि भाप मेरे पास क्यों नहीं पाए ? उन्होंने बताया कि जीवों की विराधना कर हम कैसे प्राते ? सम्राट् भरत ने उनका सम्मान किया और 'माहण' अर्थात् ब्राह्मण की संज्ञा से सम्बोधित किया। भरत के जीवन से सम्बन्धित अन्य कई प्रसंग अन्यान्य ग्रन्थों में पाए हैं, पर विस्तार भय से हम उन्हें यहाँ नहीं दे रहे हैं / वस्तुतः सम्राट् भरत का जीवन एक आदर्श जीवन था, जो युग-युम तक मानवसमाज को पावन प्रेरणा प्रदान करता रहेगा। चतुर्थ वक्षस्कार चतुर्थ वक्षस्कार में चुल्ल हिमवन्त पर्वत का वर्णन है / इस पर्वत के ऊपर बीचों-बीच पद्म नाम का एक सरोवर है। इस सरोवर का विस्तार से वर्णन किया गया है / गंगा नदी, सिन्धु नदी, रोहितांशा नदी प्रभति नदियों का भी वर्णन है / प्राचीन साहित्य, चाहे वह वैदिक परम्परा का रहा हो या बौद्ध परम्परा का, उनमें इन नदियों का वर्णन विस्तार के साथ मिलता है। ऋग्वेद में 21 नदियों का वर्णन है। उनमें मं प्रमुखता दी है। ऋग्वेद के नदीसूक्त में मंगा, सिन्धु को देवताओं के समान रथ पर चलती हुई कहा गया है। 226 उनमें देवत्व की प्रतिष्ठा भी की गई है / 227 विसुद्धिमग्ग में गंगा, यमुना, सरयू, सरस्वती, अचिरवती, माही 225. पावश्यकचूणि पृ. 213-214 226. सुखं रथं युयुजे। - ऋग्वेद 10-75-9 227. ऋग्वेद 6,8 [ 47 ] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और महानदी ये सात नाम मिलते हैं। किन्तु सिन्धु का नाम नहीं आया है। जबकि अन्य स्थानों पर सप्त सिन्धव में सिन्धु का नाम प्रमुख है। 528 मेगस्थनीज और अन्य ग्रेकोलटिन लेखकों की दृष्टि से सिन्धु नदी एक अद्वितीय नदी थी। गंगा के अतिरिक्त अन्य कोई नदी उसके समान नहीं थी। ऋग्वेद में कहा है कि सिन्धु नदी का प्रवाह सबसे तेज है / 226 यह पृथ्वी की प्रतापशील चट्टानों पर से प्रवाहित होती थी और गतिशील सरिताओं में सबसे अग्रणी थी। ऋग्वेद के नदीस्तुतिसूक्त में सिन्धु की अनेक सहायक नदियों का वर्णन है।२३. चुल्ल हिमवन्त पर्वत पर ग्यारह शिखर हैं। उन शिखरों का भी विस्तार से निरूपण किया है / हैमवत क्षेत्र का और उसमें शब्दापाती नामक वृत्तवैताढ्य पर्वत का भी वर्णन है। महाहिमवन्त नामक पर्वत का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि उस पर्वत पर एक महापद्म नामक सरोवर है / उस सरोवर का भी निरूपण हुआ है। हरिवर्ष, निषध पर्वत और उस पर्वत पर तिगिछ नामक एक सुन्दर सरोवर है। महाविदेह क्षेत्र का भी वर्णन है। जहाँ पर सदा सर्वदा तीर्थंकर प्रभ विराजते हैं, उनकी पावन प्रवचन धारा सतत प्रवहमान रहती है। महाविदेह क्षेत्र में से हर समय जीव मोक्ष में जा सकता है। इसके बीचों-बीच मेरु पर्वत है। जिससे महाविदेह क्षेत्र के दो विभाग हो गये हैं--एक पूर्व महाविदेह और एक पश्चिम महाविदेह / पूर्व महाविदेह के मध्य में शोता नदी और पश्चिम महाविदेह के मध्य में शीतोदा नदी आ जाने से एक-एक विभाग के दो-दो उपविभाग हो गये हैं / इस प्रकार महाविदेह क्षेत्र के चार विभाग हैं। इन चारों विभागों में आठ-आठ विजय हैं, अतः महाविदेह क्षेत्र में 844 = 32 विजय हैं / गन्धमादन पर्वत, उत्तर कुरु में यमक नामक पर्वत, जम्बूवृक्ष, महाविदेह क्षेत्र में माल्यवन्त पर्वत, कच्छ नामक विजय, चित्रकट नामक अन्य विजय, देवकुरु, मेरुपर्वत, नन्दनवन, सौमनस वन आदि वनों के वर्णनों के साथ नील पर्वत, रम्यक हिरण्यवत और ऐरावत आदि क्षेत्रों का भी इस बक्षस्कार में बहुत विस्तार से वर्णन किया है / यह वक्षस्कार अन्य वक्षस्कारों की अपेक्षा बड़ा है / यह वर्णन मूल पाठ में सविस्तार दिया गया है / अतः प्रबुद्ध पाठक इसका स्वाध्याय कर अपने अनुभवों में वृद्धि करें / जैन दृष्टि से जम्बूद्वीप में नदी, पर्वत और क्षेत्र आदि कहाँ-कहाँ पर हैं इसका दिग्दर्शन इस वक्षस्कार में हुआ है। पांचवां वक्षस्कार पाँच वक्षस्कार में जिनजन्माभिषेक का वर्णन है / तीर्थंकरों का हर एक महत्त्वपूर्ण कार्य कल्याणक कहलाता है। स्थानांग, कल्पसूत्र आदि में तीर्थंकरों के पञ्च कल्याणकों का उल्लेख है। इनमें प्रमुख कल्याणक जन्मकल्याण है। तीर्थ करों का जन्मोत्सव मनाने के लिये 56 महत्तरिका दिशाकुमारियाँ और 64 इन्द्र आते हैं / सर्वप्रथम अधोलोक में अवस्थित भोमंकरा आदि पाठ दिशाकमारियाँ सपरिवार आकर तीर्थकर की माता को नमन करती हैं और यह नम्र निवेदन करती हैं कि हम जन्मोत्सव मनाने के लिये आई हैं / आप भयभीत न बनें / वे धूल और दुरभि गन्ध को दूर कर एक योजन तक सम्पूर्ण वातावरण को परम सुगन्धमय बनाती हैं और गीत गाती हुई तीर्थकर की माँ के चारों ओर खड़ी हो जाती हैं। तत्पश्चात ऊध्र्वलोक में रहने वाली मेघंकरा आदि दिककुमारियाँ सुगन्धित जल की वृष्टि करती हैं और दिव्य धूप से एक योजन के परिमण्डल को देवों के आगमन योग्य बना देती हैं। मंगल गीत गाती हए तीर्थकर की 228. गङ्गा यमुना चैव गोदा चैव सरस्वती / नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेस्मिन् सन्निधि कुरु॥ 229. ऋग्वेद 10, 75 230. वि० च० लाहा, रीवसं प्राव इंडिया, पृ. 9-10 / [4] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मां के सन्निकट खड़ी हो जाती हैं , उसके पश्चात् रुचककूट पर रहने वाली नन्दुत्तरा प्रादि दिक्कमारियाँ हाथों में दर्पण लेकर पाती हैं। दक्षिण के रुचक पर्वत पर रहने वाली समाहारा आदि दिककुमारियां अपने हाथों में झारियां लिये हए, पश्चिम दिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली इला देवी आदि दिक्कुमारियाँ पंखे लिये हुए, उत्तरकुरु पर्वत पर रहने वाली अलम्बूषा आदि दिककुमारियाँ चामर लिये हए मंगलगीत गाती हई तीर्थंकर की माँ के सामने खड़ी हो जाती हैं। विदिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली चित्रा, चित्रकनका, सतेरा और सुदामिनी देवियां चारों दिशाओं में प्रज्वलित दीपक लिये खड़ी होती हैं। उसी प्रकार मध्य रुचक पर्वत पर रहने वाली रूपा, रूपांशा, सुरूपा और रूपकावती ये चारों महतरिका दिशाकुमारियाँ नाभि-नाल को काटती हैं और उसे गड्ढे में गाड़ देती हैं। रत्नों से उस गड्ढे को भरकर उस पर पीठिका निर्माण करती हैं। पूर्व, उत्तर व दक्षिण इन तीन दिशाओं में, तीन कदलीघर और एक-एक चतुःसाल और उसके मध्य भाग में सिंहासन बनाती हैं। मध्य रुचक पर्वत पर रहने वाली रूपा आदि दिककुमारियाँ दक्षिण दिशा के कदली गृह में तीर्थकर को माता के साथ सिंहासन पर लाकर बिठाती हैं / शतपाक, सहस्रपाक तल का मर्दन करती हैं और सुगन्धित द्रव्यों से पीठी करती हैं / वहाँ से उन्हें पूर्व दिशा के कदलीगृह में ले जाती हैं / गन्धोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदक से स्नान कराती हैं। वहाँ से उत्तर दिशा के कदलीगृह के सिंहासन पर बिठाकर गोशीर्ष चन्दन से हवन और भूतिकर्म निष्पन्न कर रक्षा पोटली बांधती हैं और मणिरत्नों से कर्णमूल के पास शब्द करती हुई चिरायु होने का आशीर्वाद देती हैं। वहाँ से तीथंकर की माता को तीर्थंकर के साथ जन्मगृह में ले जाती हैं और उन्हें शय्या पर बिठाकर मंगलगीत गाती हैं। उसके पश्चात आभियोगिक देवों के साथ सौधर्मेन्द्र पाता है और तीर्थंकर की मां को नमस्कार कर उन्हें अवस्वापिनी निद्रा में सुला देता है। तीर्थंकर का दूसरा रूप बनाकर तीर्थंकर की माता के पास आता है और स्वयं वैक्रिय शक्ति से अपने पांच रूप बनाता है। एक रूप से तीर्थंकर को उठाता है, दूसरे रूप से छत्र धारण करता है और दो रूप इधर-उधर दोनों पार्श्व में चामर बींजते हैं / पाँचों शक्ररूप हाथ में वज लिये हुए आगे चलता है। चारों प्रकार के देवगण दिव्य ध्वनियों से वातावरण को मुखरित करते हुए द्रुतगति से मेरु पर्वत के पण्डक बन में पहुँचते हैं और अभिषेक-सिंहासन पर भगवान को बिठाते हैं। 64 इन्द्र तीर्थकर की पर्युपासना करने लगते हैं। अच्युतेन्द्र प्राभियोगिक देवों को आदेश देता है। महर्घ्य महाभिषेक के योग्य 1008 स्वर्ण कलश, रजतमय, मणिमय, स्वर्ण और रूप्यमय, स्वर्ण-मणिमय, स्वर्ण-रजत-मणिमय, मृतिकामय, चन्दन के कलश, लोटे, थाल, सुप्रतिष्ठिका, चित्रक, रत्नकरण्डक, पंखे, एक हजार प्रकार के धूप, सभी प्रकार के फल प्रादि विविध प्रकार की सामग्री लेकर उपस्थित हों। जब वे उपस्थित हो जाते हैं तो उन कलशों में क्षीरोदक, पुष्करोदक, भरत, ऐरवत क्षेत्र के मागधादि तीर्थों के जल, गंगा प्रादि महानदियों के जल से पूर्ण करके उन कलशों पर क्षीरसागर के सहस्रदल कमलों के ढक्कन लगाकर सुदर्शन, भद्रसाल, नन्दन आदि वनों के पुष्प, गोशीर्ष चन्दन और श्रेष्ठतम प्रोषधियाँ लेकर अभिषेक करने को तैयार होते हैं। अच्युतेन्द्र चन्दन-चर्चित कलशों से तीर्थंकर का महाभिषेक करते हैं / चारों ओर पुष्पवृष्टि होती है। अन्य 63 इन्द्र भी अभिषेक करते हैं। शकेन्द्र चारों दिशाओं में चार श्वेत वृषभों की विकूर्वणा कर उनके शृगों से पाठ-पाठ जलधाराएं बहाकर अभिषेक करते हैं / उसके पश्चात् शक्र पुनः तीर्थंकर को माता के पास ले जाता है और माता के सिरहाने क्षोमयुगल तथा कुण्डलयुगल रखकर तीर्थंकर के दूसरे बनावटी रूप को माता के पास से हटाकर माता की निद्रा का संहरण करता है। कुबेर आदि को प्रादेश देकर विराद निधि तीर्थकर के महल में प्रस्थापित करवाते हैं और यह आदेश देते हैं कि तीर्थंकर और उनकी माता का यदि कोई अशुभ चिन्तवन करेगा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो उसे कठोर दण्ड दिया जायेगा। वहां से सभी इन्द्र नन्दीश्वर द्वीप जाकर अष्टाह्निका महोत्सव मनाते हैं और तीर्थंकर के माता-पिता भी जन्मोत्सव मनाते हैं। बौद्ध साहित्य में तीर्थंकर के जन्मोत्सव का वर्णन जैसा जैन प्रागमसाहित्य में प्राया है, उससे कतिपय अंशों में मिलताजुलता बौद्ध परम्परा में भी तथागत बुद्ध के जन्मोत्सव का वर्णन मिलता है।' छठा बक्षस्कार ___ छठे वक्षस्कार में जम्बूद्वीपगत पदार्थ संग्रह का वर्णन है। जम्बूद्वीप के प्रदेशों का लवणसमुद्र से स्पर्श और जीवों का जन्म, जम्बूद्वीप में भरत, ऐरवत, हैमबत, हैरण्यवत, हरिवास, रम्यकवास और महाविदेह इनका प्रमाण, वर्षधर पर्वत, चित्रकूट, विचित्रकूट, यमक पर्वत, कंचन पर्वत, वक्षस्कार पर्वत, दीर्घ वैताढ्य पर्वत, वर्षधरकूट, वक्षस्कारकूट, वैताढ्यकट, मन्दरकूट, मागध तीर्थ, वरदाम तीर्थ, प्रभास तीर्थ, विद्याधर श्रेणिया चक्रवर्ती विजय, राजधानियां, तमिस्रगुफा, खंडप्रपातगुफा, नदियों और महानदियों का विस्तार से मूल आगम में वर्णन प्राप्त है। पाठक गण उसका पारायण कर अपने ज्ञान में अभिवृद्धि करें। सातवां वक्षस्कार सातवें वक्षस्कार में ज्योतिष्कों का वर्णन है / जम्बूद्वीप में दो चन्द्र, दो सूर्य, छप्पन नक्षत्र, 176 महाग्रह प्रकाश करते हैं। उसके पश्चात् सूर्य मण्डलों की संख्या आदि का निरूपण है। सूर्य की गति, दिन और रात्रि का मान, सूर्य के प्रातप का क्षेत्र, पृथ्वी, सूर्य प्रादि की दूरी, सूर्य का ऊर्ध्व और तिर्यक नाप, चन्द्रमण्डलों की संख्या, एक मुहूर्त में चन्द्र की गति, नक्षत्र मण्डल एवं सूर्य के उदय-अस्त विषयों पर प्रकाश डाला गया है। संवत्सर पांच प्रकार के हैं-नक्षत्र, युग, प्रमाण, लक्षण और शनैश्चर / नक्षत्र संवत्सर के बारह भेद बताये हैं / युगसंवत्सर, प्रमाणसंवत्सर और लक्षणसंवत्सर के पांच-पांच भेद हैं। शनैश्चर संवत्सर के 28 भेद हैं / प्रत्येक संवत्सर के 12 महीने होते हैं। उनके लौकिक और लोकोत्तर नाम बताये हैं। एक महीने के दो पक्ष, एक पक्ष के 15 दिन ब 15 रात्रि और 15 तिथियों के नाम, मास, पक्ष, करण, योग, नक्षत्र, पोरुषीप्रमाण आदि का विस्तार से विवेचन किया गया है। चन्द्र का परिवार, मंडल में गति करने वाले नक्षत्र, पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में चन्द्रविमान को वहन करने वाले देव, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा के विमानों को वहन करने वाले देव, ज्योतिष्क देवों की शीघ्र गति, उनमें अल्प और महाऋद्धि वाले देव, जम्बूद्वीप में एक तारे से दूसरे तारे का अन्तर, चन्द्र की चार अग्रमहिषियाँ, परिवार, वैक्रियशक्ति, स्थिति आदि का वर्णन है। जम्बूद्वीप में जघन्य, उत्कृष्ट तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, निधि, निधियों का परिभोग, पंचेन्द्रिय रत्न तथा उनका परिभोग, एकेन्द्रिय रत्न, जम्बूद्वीप का आयाम, विष्कंभ, परिधि, ऊंचाई, पूर्ण परिमाण, शाश्वत अशाश्वत कथन की अपेक्षा, जम्बूद्वीप में पाँच स्थावर कायो में अनन्त बार उत्पत्ति, जम्बूद्वीप नाम का कारण आदि बताया गया है। व्याख्यासाहित्य __जैन भूगोल तथा प्रागैतिहासिककालीन भारत के अध्ययन की दृष्टि से जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का अनूठा महत्त्व है / जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति पर कोई भी नियुक्ति प्राप्त नहीं है और न भाष्य ही लिखा गया है / किन्तु एक चूणि अवश्य 231. पागम और त्रिपिटक एक अनुशीलन, प्र. भा., मुनि नगराज [50 ] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखी गई है। 232 उस चणि के लेखक कौन थे और उसका प्रकाशन कहाँ से हमा, यह मुझे ज्ञात नहीं हो सका है / प्राचार्य मलयगिरि ने भी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति पर एक टीका लिखी थी, वह भी अप्राप्य है / 233 संवत् 1639 में हीरविजयसरि ने इस पर टीका लिखी, उसके पश्चात वि. संवत 1645 में पुण्यसागर ने तथा वि. संवत् 1660 में शान्तिचन्द्रगणी ने प्रमेयरत्नमंजषा नामक टीकाग्रन्थ लिखा। यह टीकाग्रन्ध सन् 1885 में धनपतसिंह कलकत्ता तथा सन् 1920 में देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई से प्रकाशित हुआ। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का हिन्दी अनुवाद विक्रम संवत् 2446 में हैदराबाद से प्रकाशित हुआ था। जिसके अनुवादक प्राचार्य अमोलकऋषि जी म. थे। प्राचार्य घासीलाल जी म. ने भी सरल संस्कृत में टीका लिखी और हिन्दी तथा गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित हुया है। प्रस्तुत संस्करण चिरकाल से प्रस्तुत आगम पर विशुद्ध अनुवाद की अपेक्षा थी। परम प्रसन्नता है कि स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकरमुनि जी महाराज ने पागम प्रकाशन योजना प्रस्तुत की और पागम प्रकाशन समिति ब्यावर ने यह उत्तरदायित्व ग्रहण किया। अनेक मनोषी प्रवरों के सहयोग से स्वल्पावधि में अनेक आगमों का शानदार प्रकाशन हुआ। पर परिताप है कि यूवाचार्य श्रीमधुकर मुनि जी का आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। उनके स्वर्गवास से प्रस्तुत योजना में महान् विक्षेप उपस्थित हुआ है। सम्पादकमण्डल और प्रकाशनसमिति ने यह निर्णय लिया कि युवाचार्यश्री की प्रस्तुत कल्पना को हम मनीषियों के सहयोग से मूर्त रूप देंगे। युवाचार्यश्री के जीवनकाल में ही जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुवाद, विवेचन और सम्पादकत्व का उत्तरदायित्व भारतीय तत्त्वविद्या के गम्भीर अध्येता, भाषाशास्त्री, डा. श्री छगनलाल जी शास्त्री को युवाचार्यश्री के द्वारा सौंपा गया था। डा. छगनलाल जी शास्त्री जिस कार्य को हाथ में लेते हैं, उस कार्य को वे बहुत ही तन्मयता के साथ सम्पन्न करते हैं / विषय की तलछट तक पहुँचकर विषय को बहुत ही सुन्दर, सरस शब्दावली में प्रस्तुत करना उनका अपना स्वभाव है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आगम का मूल पाठ शुद्ध है और अनुवाद इतना सुन्दर हुमा है कि पढ़ते-पढ़ते पाठक को सहज ही हृदयंगम हो जाता है। अनुवाद की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह प्रवाहपूर्ण है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का अनुवाद करना कोई सरल कार्य नहीं किन्तु डा. शास्त्री जी ने इतना बढ़िया अनुवाद कर विज्ञों को यह बता दिया है कि एकनिष्ठा के साथ किये गये कार्य में सफलता देवी स्वयं चरण चमती है। डा. शास्त्रीजी ने विवेचन बहुत ही कम स्थलों पर किया है। लगता है, उनका दार्शनिक मानस प्रागैतिहासिक भूगोल के वर्णन में न रमा। क्योंकि प्रस्तुत प्रागम में जो वर्णन है, वह श्रद्धायुग का वर्णन है / आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से प्राचीन भूगोल को सिद्ध करना जरा टेढ़ी खीर है। क्योंकि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जिन क्षेत्रों का वर्णन आया है, जिन पर्वतों और नदियों का उल्लेख हुआ है, वे वर्तमान में कहाँ है ? उनकी अवस्थिति कहाँ है ? आदि कह पाना सम्भव नहीं है / सम्भव है इसी दृष्टि से शास्त्रीजी ने अपनी लेखनी इस पर नहीं चलाई है। श्वेताम्बर परम्परा अनुसार जम्बूद्वीप, मेरु पर्वत, सूर्य, चन्द्र आदि के सम्बन्ध में आगमतत्त्वदिवाकर, स्नेहमूर्ति श्री अभयसागर जी महाराज दत्तचित्त होकर लगे हुए हैं / उन्होंने इस सम्बन्ध में काफी चिन्तन किया है और अनेक विचारकों से भी इस सम्बन्ध में लिखवाने का प्रयास किया है। इसी तरह दिगम्बर परम्परा में भी प्रायिका ज्ञानमती जी प्रयास कर रही हैं। 232. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग III. पृष्ठ 289 233. वही, भाग III. पृष्ठ 417 [ 51] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम आध्यात्मिक दृष्टि से चिन्तन करें तो यह भौगोलिक वर्णन हमें लोकबोधिभावना के मर्म को समझने में बहुत ही सहायक है, जिसे जानने पर हम उस स्थल को जान लेते हैं, जहाँ हम जन्म-जन्मान्तर से और बहुविध स्खलनों के कारण उस मुख्य केन्द्र पर अपनी पहुँच नहीं बना पा रहे हैं जो हमारा अन्तिम लक्ष्य है / हम अज्ञानवश भटक रहे हैं। यह भटकना अन्तहीन और निरुद्देश्य है, यदि प्रात्मा पुरुषार्थ करता है तो वह इस दुष्चक्र को काट सकता है / भूगोल की यह सबसे बड़ी उपयोगिता है-इसके माध्यम से प्रात्मा इस अन्तहीन व्यूह को समझ सकता है। हम जहाँ पर रहते हैं या जो हमारी अनन्तकाल से जानी-अनजानी यात्राओं का बिन्दु रहा है, उसे हम जानें कि वह कैसा है ? कितना बड़ा है ? उसमें कहाँ पर क्या-क्या है ? कितना हम अपने चर्म-चक्षत्रों से निहारते हैं ? क्या वही सत्य है या उसके अतिरिक्त भी और कुछ ज्ञेय है? इस प्रकार के अनेक प्रश्न हमारे मन और मस्तिष्क में उदबुद्ध होते हैं और वे प्रश्न ऐसा समाधान चाहते हैं जो असंदिग्ध हो, ठोस हो और सत्य पर आधत हो / प्रस्तुत प्रागम में केवल जम्बूद्वीप का ही वर्णन है। जम्बूद्वीप तो इस संसार में जितने द्वीप हैं उन सबसे छोटा द्वीप है। अन्य द्वीप इस द्वीप से कई गुना बड़े हैं। जिसमें यह आत्मा कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर मोह की पट्टी बाँधे धूम रहा है। हमारे मनीषियों ने भूगोल का जो वर्णन किया है उसका यही प्राशय है कि इस मंच पर यह जीव अनवरत अभिनय करता रहा है। अभिनय करने पर भी न उसे मंच का पता है और न नेपथ्य का ही। जब तप से, जप से अन्तर्नेत्र खुलते हैं तब उसे ज्ञान के दर्पण में सारे दृश्य स्पष्ट दिखलाई देने लगते हैं कि हम कहाँ-कहाँ भटकते रहे और जहाँ भटकते रहे उसका स्वरूप यह है। वहाँ क्या हम अकेले ही थे या अन्य भी थे? इस प्रकार के विविध प्रश्न जीवन-दर्शन के सम्बन्ध में उबुद्ध होते हैं। जन भूगोल मानचित्रों का कोई संग्रहालय नहीं है और न वह रंग-रेखाओं, कोणों-भुजाओं का ज्यामितिक दृश्य ही है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी महापुरुषों के द्वारा कथित होने से हम उसे काल्पनिक भी नहीं मान सकते। जो वस्तुस्वरूप को नहीं जानते और वस्तुस्वरूप को जानने के लिये प्रबल पुरुषार्थ भी नहीं करते, उनके लिये भले ही यह वर्णन काल्पनिक हो, किन्तु जो राग-द्वेष, माया-मोह प्रादि से परे होकर आत्मचिन्तन करते हैं, उनके लिये यह विज्ञान मोक्षप्राप्ति के लिये जीवनदर्शन है, एक रास्ता है, पगडंडी है / 234 जैन भूगोल का परिज्ञान इसलिये भावश्यक है कि आत्मा को अपनी विगतमामत/अनागत यात्रा का ज्ञान हो जाये और उसे यह भी परिज्ञान हो जाये कि इस विराट् विश्व में उसका असली स्थान कहाँ है ? उसका अपना गन्तव्य क्या है ? वस्तुत: जैन भूगोल अपने घर की स्थितिबोध का शास्त्र है। उसे भूगोल न कहकर जीवनदर्शन कहना अधिक यथार्थ है। वर्तमान में जो भूगोल पढ़ाया जाता है, वह विद्यार्थी को भौतिकता की ओर ले जाता है। वह केवल ससीम की व्याख्या करता है। बह असीम की व्याख्या करने में असमर्थ है। उसमें स्वरूपबोध का ज्ञान नहीं है जबकि महामनीषियों द्वारा प्रतिपादित भूगोल में अनन्तता रही हुई है, जो हमें बाहर से भीतर की ओर झांकने को उत्प्रेरित करती है। जो भी प्रास्तिक दर्शन हैं जिन्हें आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास है, वे यह मानते हैं कि प्रात्मा कर्म के कारण इस विराट विश्व में परिभ्रमण कर रहा है। हमारी जो यात्रा चल रही है, उसका नियामक तत्त्व कम वह हमें कभी स्वर्गलोक की यात्रा कराता है तो कभी नरकलोक को, कभी तिर्यञ्चलोक की तो कभी मानव लोक की। उस यात्रा का परिज्ञान करना या कराना ही जैन भूगोल का उद्देश्य रहा है। प्रात्मा शाश्वत है, कर्म भी शाश्वत है और धार्मिक भूगोल भी शाश्वत है। क्योंकि प्रात्मा का वह परिभ्रमण स्थान है। जो पात्मा और कर्मसिद्धान्त को नहीं जानता वह धार्मिक भूगोल को भी नहीं जान सकता / आज कहीं पर अतिवृष्टि का प्रकोप है, 234. तीर्थकर, जैन भूगोल विशेषाङ्क-डॉ. नेमीचन्द जैन इन्दौर [ 52 ] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं पर अल्पवृष्टि है, कहीं पर अनावृष्टि है, कहीं पर भूकम्प पा रहे हैं तो कहीं पर समुद्री तूफान और कहीं पर घरती लावा उगल रही है, कहीं दुर्घटनाएं हैं। इन सभी का मूल कारण क्या है, इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है। केबल इन्द्रियगम्य ज्ञान से इन प्रश्नों का समाधान नहीं हो सकता / इन प्रश्नों का समाधान होता हैमहामनीषियों के चिन्तन से, जो हमें धरोहर के रूप में प्राप्त है। जिस पर इन्द्रियगम्य ज्ञान ससीम होने से असीम संबंधी प्रश्नों का समाधान उसके पास नहीं है। इन्द्रियगम्य ज्ञान विश्वसनीय इसलिये माना जाता है कि वह हमें साफ-साफ दिखलाई देता है / आध्यात्मिक ज्ञान असीम होने के कारण उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिये पात्मिक क्षमता का पूर्ण विकास करना होता है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का वर्णन इस दृष्टि से भी बहुत ही उपयोगी है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की प्रस्तावना मैंने बहुत ही संक्षेप में लिखी है। अनेक ऐसे बिन्दु जिनकी विस्तार से चर्चा की जा सकती थी, उन बिन्दुओं पर समयाभाव के कारण चर्चा नहीं कर सका है। मैं सोचता हूं कि मूल पागम में वह चर्चा बहुत ही विस्तार से पाई है अतः जिज्ञासु पाठक मूल आगम का पारायण करें, उनको बहुत कुछ नवीन चिन्तन-सामग्री प्राप्त होगी। पाठक को प्रस्तुत अनुवाद मूल पागम की तरह ही रसप्रद लगेगा / मैं डॉ. शास्त्री महोदय को साधुवाद प्रदान करूगा कि उन्होंने कठिन श्रम कर भारती के भण्डार में अनमोल उपहार समर्पित किया है, वह युग-युग तक जन-जन के जीवन को पालोक प्रदान करेगा / महामहिम विश्वसन्त अध्यात्म यप्रवर पूज्य मुरुदेव श्रीपुष्करमुनि जी महाराज, जो स्वर्गीय युवाचार्य मधुकर मुनि जी के परम स्नेही-साथी रहे हैं, उनके मार्गदर्शन और आशीर्वाद के कारण ही में प्रस्तावना की कुछ पंक्तियां लिख सका है। सुज्ञेषु किं बहुना ! ज्ञानपंचमी/१७-११-८५ जैनस्थानक वीरनगर दिल्ली-७ -देवेन्द्रमुनि [ 53 ] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका प्रथम वक्षस्कार शीर्षक 1. सन्दर्भ 2. जम्बूद्वीप की अवस्थिति 3. जम्बूद्वीप की जगती : प्राचीर 4. वन-खण्ड : भूमिभाग 5. जम्बूद्वीप के द्वार 6. जम्बुद्वीप में भरतक्षेत्र का स्थान : स्वरूप 7. जम्बूद्वीप में दक्षिणार्ध भरत का स्थान : स्वरूप 8. वैताढ्य पर्वत 9. सिद्धायतनकूट 10. दक्षिणार्ध भरतकट 11. जम्बूद्वीप में उत्तरार्ध भरत का स्थान : स्वरूप 12. ऋषभकूट द्वितीय वक्षस्कार 1. भरतक्षेत्र : काल-वर्तन 2. काल का विवेचन : विस्तार 3. अवसर्पिणी : सुषमसुषमा 4. द्रुमगण 5. मनुष्यों का आकार-स्वरूप 6. मनुष्यों का प्राहार 7. मनुष्यों का प्रावास : जीवन-चर्या 8. मनुष्यों की प्रायु 9. अवसर्पिणी : सुषमा प्रारक 10. अवसर्पिणी : सुषमादुःषमा 11. कुलकर-व्यवस्था 12. प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभ : गहवास : प्रव्रज्या 13. साधना : कैवल्य : संघसंपदा 14. परिनिर्वाण : देवकृतमहामहिमा : महोत्सव Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KUMMC 102 111 15. अवसर्पिणी : दुःषमसुषमा 16. अवसर्पिणी : दुःषमा पारक 17. अवसर्पिणी : दुःषमदुःषमा 18. प्रागमिष्यत् उत्सर्पिणी : दुःषमदुःषमा, दुःषमकाल 19. जल-क्षीर-घृत-अमृतरस-वर्षा 20. सुखद परिवर्तन 21. उत्सपिणी : विस्तार तृतीय वक्षस्कार 1. विनीता राजधानी 2. चक्रवर्ती भरत 3. चक्ररत्न की उत्पत्ति: अर्चा : महोत्सव 4. भरत का मागधतीर्थाभिमुख प्रयाण 5. मागधतीर्थ-विजय वरदामतीर्थ-विजय 7. प्रभासतीर्थ-विजय 8. सिन्धुदेवी-साधना 9. वैताढ्य-विजय 10. तमिस्रा-विजय 11. निष्कुट-विजयार्थ सुषेण की तैयारी 12. चर्मरत्न का प्रयोग 13. विशाल विजय 14. तमिस्रा गुफा : दक्षिणद्वारोद्घाटन 15. काकणीरत्न द्वारा मण्डल-पालेखन 16. उन्मग्नजला, निमग्नजला महानदियाँ 17. आपात किरातों से संग्राम 18. आपात किरातों का पलायन 19. मेघमुख देवों द्वारा उपद्रव 20. छत्ररत्न का प्रयोग 21. आपात किरातों की पराजय 22. चुल्लहिमवंत-विजय 23. ऋषभकूट पर नामांकन 24. नमि-विनमि-विजय 25. खण्डप्रपात-विजय 26. नवनिधि-प्राकट्य 27. विनीता-प्रत्यागमन wom 116 118 119 121 124 126 128 130 134 148 151 157 [ 55] Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 176 28. राज्याभिषेक 29. चतुर्दशरत्न : नवनिधि : उत्पत्तिक्रम 30. भरत का राज्य : वैभव : सुख 31. कैवल्योद्भव 32. भरतक्षेत्र : नामाख्यान चतुर्थ वक्षस्कार 1. चुल्लहिमवान् 2. पद्महद 3. मंगा, सिन्धु, रोहितांशा 4. चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत के कूट 5. हैमवत वर्ष 6. शब्दापाती वृत्तवैताढय पर्वत 7. हैमवत वर्ष नामकरण का कारण 8. महाहिमवान् वर्षधर पर्वत 9. महापद्मद्रह 10. महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के कट 11. हरिवर्ष क्षेत्र 12. निषध वर्षधर पर्वत 13. महाविदेह क्षेत्र 14. गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत 15. उत्तर कुरु 16. यमकपर्वत 17. नीलवान्द्रह 18. जम्बूपीठ, जम्बूसुदर्शना 19. माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत 20. हरिस्सहकूट 21. कच्छ विजय 22. चित्रकट वक्षस्कार पर्वत 23. सुकच्छ विजय 24. महाकच्छ विजय 25. पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत 26. कच्छकावती (कच्छावती) विजय 27. आवर्त विजय 28. नलिनकट वक्षस्कार पर्वत 29. मंगलावर्त विजय л л л А G WOGEKHA 000 207 209 211 212 219 220 225 227 الله الله لله س سه [56 ] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 237 238 238 239 240 له 241 243 243 243 244 244 248 له 30. पुष्कलावर्त विजय 31. एकशैल बक्षस्कार पर्वत / 32. पुष्कलावती विजय 33. उत्तरी शीतामुख वन 34. दक्षिणी शीतामुख बन 35. वत्स आदि विजय 36. सौमनस वक्षस्कार पर्वत 37. देवकुरु 38, चित्र-विचित्रकूट पर्वत 39. निषधद्रह 40. कूटशाल्मलीपीठ 41. विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत 42. पक्ष्मादि विजय 43. मन्दर पर्वत 44. नन्दन वन 45. सौमनस वन 46. पण्डक वन 47. अभिषेक-शिलाएँ 48. मन्दर पर्वत के काण्ड 49. मन्दर के नामधेय 50. नीलवान् वर्षधर पर्वत 51. रम्यकवर्ष 52. रुक्मी वर्षधर पर्वत 53. हैरण्यवत वर्ष 54. शिखरी वर्षधर पर्वत 55. ऐरावत वर्ष ل ل ل ل ت "".xxx Nur rrrrrror No Mco GK له له له له 267 268 270 पंचम वक्षस्कार 1. अधोलोकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव 2. ऊर्बलोकवासिनी दिक्कुमारिकामों द्वारा उत्सव 3. रुचकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव 4. शक्रन्द्र द्वारा जन्मोत्सवार्थ तैयारी 5. पालकदेव द्वारा विमानविकुर्वणा 6. शकेन्द्र का उत्सवार्थ प्रयाण 7. ईशान प्रभति इन्द्रों का प्रागमन 8. चमरेन्द्र प्रादि का आगमन 272 276 278 284 291 297 299 [ 57 ] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 301 303 9. अभिषेक-द्रव्य : उपस्थापन 10. अच्युतेन्द्र द्वारा अभिषेक : देवोल्लास 11. अभिषेकोपक्रम 12. अभिषेक-समापन 309 312 312 319 321 m m mmmmm WWWM . ne षष्ठ वक्षस्कार 1. स्पर्श एवं जीवोत्पाद 2. जम्बूद्वीप के खण्ड, योजन, वर्ष, पर्वत, कूट, नदियां आदि सप्तम वक्षस्कार 1. चन्द्रादि संख्या 2. सूर्य-मण्डल-संख्या आदि 3. मेरु से सूर्यमण्डल का अन्तर 4. सूर्यमण्डल का आयाम-विस्तार आदि 5. मुहूर्त-गति 6. दिन-रात्रि-मान 7. ताप-क्षेत्र 8. सूर्य-परिदर्शन 9. क्षेत्र-गमन 10. ऊर्वादि ताप 11. ऊवोपपन्नादि 12. इन्द्रच्यवन : अन्तरिम व्यवस्था 13. चन्द्र-मण्डल : संख्या : अबाधा आदि 14. चन्द्र-मण्डलों का विस्तार 15. चन्द्रमुहूर्त गति 16. नक्षत्र-मण्डलादि 17. सूर्यादि-उद्गम 18. संवत्सर-भेद 19. मास. पक्ष आदि 20. करणाधिकार 21. संवत्सर, अयन, ऋतु प्रादि 22. नक्षत्र 23. नक्षत्र-योग 24. नक्षत्र-देवता 25. नक्षत्र-तारे 26. नक्षत्रों के गोत्र एवं संस्थान 334 337 337 338 340 348 352 355 U. Mmmm 361 [58 ] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 , or mr mmm visor 04 390 27. नक्षत्र चन्द्रसूर्ययोग-काल 28. कुल-उपकुल-कुलोपकुल : पूर्णिमा, अमावस्या 29. मास-समापक नक्षत्र 30. अणुत्वादि-परिवार 31. गतिक्रम 32. विमानवाहक देव 33. ज्योतिष्क देवों की गति : ऋद्धि 34. एक तारे से दूसरे तारे का अन्तर 35. ज्योतिष्क देवों की अग्नमहिषियां 36. गाथाएँ - ग्रह 37. देवों की काल-स्थिति 38. नक्षत्रों के अधिष्ठातृ देवता 39. नक्षत्रों का अल्पबहुत्व 40. तीर्थंकरादि-संख्या 41. जम्बूद्वीप का विस्तार 42. जम्बूद्वीप : शाश्वत : अशाश्वत 43. जम्बूद्वीप का स्वरूप 44. जम्बूद्वीप नाम का कारण 45. उपसंहार : समापन 46. परिशिष्ट : 1. गाथाओं के अक्षरानुक्रमी संकेत 2. स्थलानुक्रम 3. व्यक्तिनामानुक्रम 392 393 393 395 397 397 398 402 408 [59] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबुद्दीवपण्णत्तिसुत्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार सन्दर्भ 1. णमो अरिहंताणं / तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिला णाम णयरी होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्धा, वण्णओ। तोसे णं मिहिलाए णयरीए बहिया उत्तर-पुरस्थिमे विसोभाए एत्थ णं माणिभद्दे णामं चेइए होत्था, वण्णो / जियसत्तू राया, धारिणी देवी, वणनो। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा निग्गया, धम्मो कहियो, परिसा पडिगया। [1] उस काल-वर्तमान अवसर्पिणीकाल के चौथे पारे के अन्त में, उस समय-जब भगवान् महावीर विद्यमान थे, मिथिला नामक नगरी थी। (जैसा कि प्रथम उपांग औपपातिक आदि अन्य आगमों में नगरी का वर्णन पाया है,) वह वैभव, सुरक्षा, समृद्धि आदि विशेषताओं से युक्त थी। मिथिला नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा-भाग में--ईशान कोण में माणिभद्र नामक चैत्ययक्षायतन था (जिसका अन्य आगमों में वर्णन है)। जितशत्र मिथिला का राजा था। धारिणी उसकी पटरानी थी (जिनका औपपातिक आदि आगमों में वर्णन आया है)। तब भगवान् महावीर वहाँ समवसृत हए-पधारे। (भगवान के दर्शन हेतु) लोग अपने-अपने स्थानों से रवाना हुए, जहाँ भगवान् विराजित थे, आये / भगवान् ने धर्म-देशना दी / (धर्म-देशना सुनकर) लोग वापस लौट गये। विवेचन--यहाँ काल और समय-ये दो शब्द आये हैं / साधारणतया ये पर्यायवाची हैं। जैन पारिभाषिक दृष्टि से इनमें अन्तर भी है। काल वर्तना-लक्षण सामान्य समय का वाचक है और समय काल के सूक्ष्मतम - सबसे छोटे भाग का सूचक है। पर, यहाँ इन दोनों का इस भेद-मूलक अर्थ के साथ प्रयोग नहीं हुआ है / जैन आगमों की वर्णन-शैली की यह विशेषता है, वहाँ एक ही बात प्रायः अनेक पर्यायवाची, समानार्थक या मिलते-जुलते अर्थ वाले शब्दों द्वारा कही जाती है / भाव को स्पष्ट रूप में प्रकट करने में इससे सहायता मिलती है। पाठकों के सामने किसी घटना, वत्त या स्थिति का एक बहुत साफ शब्द-चित्र उपस्थित हो जाता है। यहाँ काल का अभिप्राय वर्तमान अवसर्पिणी के चोर्थ प्रारे के अन्त से है तथा समय उस युग या काल का सूचक है,जब भगवान महावीर विद्यमान थे। ___ यहाँ मिथिला नगरी तथा माणिभद्र चैत्य का उल्लेख हया है। दोनों के आगे 'वण्णयो' शब्द आया है / जैन अागमों में नगर, गाँव, उद्यान आदि सामान्य विषयों के वर्णन का एक स्वीकृत रूप Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र है / उदाहरणार्थ नगरी के वर्णन का जो सामान्य-क्रम है, वह सभी नगरियों के लिए काम में प्रा जाता है / उद्यान आदि के साथ भी ऐसा ही है। लिखे जाने से पूर्व जैन आगम मौखिक परम्परा से याद रखे जाते थे। याद रखने में सुविधा की दृष्टि से सम्भवतः यह शैली अपनाई गई हो / वैसे नगर, उद्यान आदि लगभग सदृश होते ही हैं / इस सूत्र में संकेतित चैत्य शब्द कुछ विवादास्पद है / चैत्य शब्द अनेकार्थवादी है। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य पूज्य श्री जयमलजी म. ने चैत्य शब्द के एक सौ बारह अर्थों की गवेषणा की है।' चैत्य शब्द के सन्दर्भ में भाषावैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि किसी मृत व्यक्ति के जलाने के स्थान पर उसकी स्मति में एक वृक्ष लगाने की प्राचीनकाल में परम्परा रही है। भारतवर्ष बाहर भी ऐसा होता रहा है। चिति या चिता के स्थान पर लगाये जाने के कारण वह वृक्ष 'चैत्य' कहा जाने लगा हो। आगे चलकर यह परम्परा कुछ बदल गई। वक्ष के स्थान पर स्मारक के रूप में मकान बनाया जाने लगा। उस मकान में किसी लौकिक देव या यक्ष आदि की प्रतिमा स्थापित की जाने लगी। यों उसने एक देवस्थान या मन्दिर का रूप ले लिया। वह चैत्य कहा जाने लगा। ऐसा होते-होते चैत्य शब्द सामान्य मन्दिरवाची भी हो गया। 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवान महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदमूई णामं अणगारे गोअमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे, सम-चउरंस-संठाण-संठिए, वइर-रिसहणाराय-संघयणे, कणग-पुलगनिघस-पम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, अोराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढ-सरीरे, संखित्त-विउल-तेउ-लेस्से तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, वंदइ, गंमसइ, बंदिता, णमंसित्ता एवं क्यासी। [2] उसी समय की बात है, भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी-शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार--श्रमण, जो गौतम गोत्र में उत्पन्न थे, जिनकी देह की ऊँचाई सात हाथ थी, समचतुरस्र संस्थानसंस्थित–देह के चारों अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचना-युक्त शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन--सुदढ़ अस्थिबंधमय विशिष्ट देह-रचना युक्त थे, कसौटी पर अंकित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौरवर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी-कर्मों को भस्मसात करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्त-तपस्वी—जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक थी, जो महातपस्वी, प्रबल, घोर, घोर-गुण, घोर-तपस्वी, घोर-ब्रह्मचारी, उत्क्षिप्त-शरीर एवं संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्य थे। वे भगवान् के पास आये, तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। बन्दननमस्कार कर यों बोले (जो आगे के सूत्र में द्रष्टव्य है)। जम्बूद्वीप की अवस्थिति 3. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे, 1, केमहालए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे 2, किसंठिए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे 3, किमायारभावपडोयारे णं भंते ! जंबुद्दीवे दोवे 4, पण्णत्ते ? 1. देखें औपपातिक सूत्र-(श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर), पृष्ठ 6-7 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार] गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दोवे सम्वदीवसमुद्दाणं सयभंतराए 1, सव्वखुड्डाए 2, बट्ट, तेल्लापूयसंठाणसंठिए पट्टे, रहचक्कबालसंठाणसंठिए वट्टे, पुक्खरकष्णियासंठाणसंठिए वट्टे, पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए बट्टे 3, एग जोयणसयसहस्सं पायामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साइं सोलस सहस्साइं दोण्णि य सत्ताबीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई प्रद्धगुलं च किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते। [3] भगवन् ! यह जम्बूद्वीप कहाँ है ? कितना बड़ा है ? उसका संस्थान कैसा है ? उसका प्राकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! यह जम्बूद्वीप सब द्वीप समुद्रों में ग्राभ्यन्तर है--समग्र तिर्यक् लोक के मध्य में स्थित है, सबसे छोटा है, गोल है, तेल में तले पूए जैसा गोल है, रथ के पहिए जैसा गोल है, कमल की कणिका जैसा गोल है, प्रतिपूर्ण चन्द्र जैसा गोल है। अपने गोल आकार में यह एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है / इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। जम्बूद्वीप को जगती : प्राचीर 4. से णं एगाए वइरामईए जगईए सव्वनो समंता संपरिक्खित्ते। सा णं जगई अट्ट जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, मूले बारस जोपणाई विक्खंभेणं, मज्झे अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं, उरि चत्तारि जोप्रणाई विक्खंभेणं, मूले वित्थिना, मज्झे संक्खित्ता, उरि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया, सव्ववइरामई, अच्छा, सहा, लण्हा, घट्ठा, मट्ठा, णोरया, णिम्मला, हिप्पंका, णिक्कंकडच्छाया, सप्पभा, समिरीया, सउज्जोया, पासादीया, दरिसणिज्जा, अभिरूवा, पडिरूवा। सा णं जगई एगेणं महंतगवक्खकडएणं सध्वनो समंता संपरिक्खित्ता। से णं गवक्खकडए अद्धजोनणं उड्ढं उच्चत्तणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं, सव्वरयणामए, अच्छे, (सण्हे, लण्हे, घट्टे, मट्ठे, णीरए, णिम्मले, णिप्पंके, णिक्कंकडच्छाए, सप्पभे, समिरीए, सउज्जोए, पासादोए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे,) पडिरूवे / __ तीसे णं जगईए उप्पि बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महई एगा पउमवरवेइया पण्णत्ता-अद्धजोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं, पंच धणुसयाई विक्खंभेणं, जगईसमिया परिक्खेवेणं, सवरयणामई, अच्छा जाव' पडिरूवा। तीसे णं पउमवरवेइयाए अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा- वइरामया णेमा एवं जहा जीवाभिगमे जाव अट्ठो जाव धुवा णियया सासया, (अक्खया, अव्वया, अवट्ठिया,) णिच्चा। [4] वह (जम्बूद्वीप) एक वज्रमय जगती (दीवार) द्वारा सब ओर से वेष्टित है। वह जगती पाठ योजन ऊंची है / मूल में बारह योजन चौड़ी, बीच में पाठ योजन चौड़ी और ऊपर चार योजन चौड़ी है। मूल में विस्तीर्ग, मध्य में संक्षिप्त-संकड़ी तथा ऊपर तनुक—पतली है। उसका प्राकार गाय की पूछ जैसा है / वह सर्व रत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल, चिकनी, घुटी हुई-सी-घिसी हुईसी, तरासी हुई-सी, रज-रहित, मैल-रहित, कर्दम-रहित तथा अव्याहत प्रकाश वाली है। वह प्रभा, 1. देखें सूत्र यही Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र कान्ति तथा उद्योत से युक्त है, चित्त को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय-देखने योग्य, अभिरूपमनोज्ञ-मन को अपने में रमा लेने वाली तथा प्रतिरूप-मन में बस जाने वाली है। __ उस जगती के चारों ओर एक जालीदार गवाक्ष है / वह प्राधा योजन ऊंचा तथा पाँच सौ धनुष चौड़ा है / सर्व-रत्नमय, स्वच्छ, (सुकोमल, चिकना, घुटा हुआ-सा-घिसा हुआ-सा, तरासा हुआ-सा, रज-रहित, मैल-रहित, कर्दम-रहित तथा अव्याहत प्रकाश से युक्त है। वह प्रभा, कान्ति एवं उद्योत युक्त है, चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और) प्रतिरूप है। उस जगती के बीचोंबीच एक महती पद्मवरवेदिका है। वह प्राधा योजन ऊँची और पाँच सौ धनुष चौड़ी है / उसकी परिधि जगती जितनी है / वह स्वच्छ एवं सुन्दर है। पद्मवरवेदिका का वर्णन जैसा जीवाभिगमसूत्र में पाया है, वैसा ही यहाँ समझ लेना चाहिए। वह ध्र व, नियत, शाश्वत (अक्षय, अव्यय, अवस्थित) तथा नित्य है। वन-खण्ड : भूमिभाग 5. तोसे णं जगईए उप्पि बाहि पउमवरवेइयाए एत्थ णं महं एगे वणसंडे पण्णत्ते। देसूणाई दो जोअणाई विक्खंभेणं, जगईसमए परिक्खेवेणं वणसंडवण्णो णेयव्वो। {5] उस जगती के ऊपर तथा पद्मवरवेदिका के बाहर एक विशाल वन-खण्ड है। वह कुछ कम दो योजन चौड़ा है / उसकी परिधि जगती के तुल्य है। उसका वर्णन अन्य आगमों से जान लेना चाहिए। 6. तस्स णं वणसंडस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते। से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा, (मुइंगपुक्खरेइ वा, सरतलेइ वा, करतलेइ वा, चंदमंडलेइ वा, सूरमंडलेइ वा, प्रायंसमंडलेइ वा, उरभचम्मेइ वा, वसहचम्मेइ वा, वराहचम्मेइ वा, सोहचम्मेइ वा, वग्घचम्मेइ वा, छगलचम्मेइ वा, दोवियचम्मेइ वा, अणेगसंकु-कोलगसहस्सवितते आवत्त-पच्चावत्तसेढिपसेढिसोत्थिय-सोवत्थिय- पूसमाण-वद्धमाणग- मच्छंडक-मगरंडक-जारमार-फुल्लावलिपउमपत्त-सागरतरंगवासंती-पउमलयभत्तिचित्तेहि सच्छाएहि, सप्पभेहि, समिरीइएहि, सउज्जोएहि) णाणाविहपंचवणेहि मणीहि, तणेहिं उवसोभिए, तं जहा-किण्हेहिं एवं वण्णो, गंधो, रसो, फासो, सहो, पुषखरिणीप्रो, पव्वयगा, घरगा, मंडवगा, पुढविसिलावट्टया गोयमा! यन्वा / तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीमो य प्रासयंति, सयंति, चिठ्ठति, णिसीअंति, तुअनैति, रमंति, ललंति, कोलंति, मेहंति, पुरापोराणाणं सुपरक्कंताणं, सुभाणं, कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसेसं पच्चणभवमाणा विहरंति। तोसे णं जगईए उम्पि अंतो पउमवरवेइमाए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते, देसूणाई दो जोप्रणाई विखंभेणं, वेदियासमए परिक्खेवेणं, किण्हे, (किण्होभासे, नीले, नीलोभासे, हरिए, हरिप्रोभासे, सीए सोप्रोभासे, गिद्ध, गिद्धोभाते, तिव्वे, तिध्वोभासे, किण्हे, किण्हच्छाए, नीले, नोलच्छाए, हरिए, हरियच्छाए, सीए, सोयच्छाए, गिद्ध, णिद्धच्छाए, तिव्वे, तिब्वच्छाए, घणकडिप्रकउिच्छाए, रम्मे, महामेहणिकुरंबभूए, तणविहूणे णेअव्यो। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार [7 [6] उस वन-खंड में एक अत्यन्त समतल, रमणीय भूमिभाग है / वह आलिंग-पुष्कर—मुरज या ढोलक के ऊपरी भाग-चर्म-पुट (मृदंग का ऊपरी भाग), जलपूर्ण सरोवर के ऊपरी भाग, हथेली, चन्द्र-मंडल, सूर्य-मंडल. दर्पण-मंडल, शंकु सदश बड़े-बड़े कीले ठोक कर, खींचकर चारों ओर से समान किये गये भेड़, बैल, सूअर, शेर, बाघ, बकरे और चीते के चर्म जैसा समतल और सुन्दर है। वह भूमिभाग अनेकविध प्रावर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, पुष्यमाणव, शराव-संपुट, मत्स्य के अंडे, मकर के अंडे, जार, मार, पुष्पावलि, कमल-पत्र, सागर-तरंग, वासन्तीलता, पद्मलता के चित्रांकन से राजित, आभायुक्त, प्रभायुक्त, शोभायुक्त, उद्योतयुक्त, बहुविध पंचरंगी मणियों से, तृणों से सुशोभित है / कृष्ण आदि उनके अपने-अपने विशेष वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा शब्द हैं / वहाँ पुष्करिणी, पर्वत, मंडप, पृथ्वी-शिलापट्ट हैं। वहाँ अनेक वानव्यन्त र देव एवं देवियां प्राश्रय लेते हैं, शयन करते हैं, खड़े होते हैं, बैठते हैं, त्वग्वर्तन करते हैं-देह को दायें-बायें घुमाते हैं मोड़ते हैं, रमण करते हैं, मनोरंजन करते हैं, क्रीडा करते हैं, सुरत-क्रिया करते हैं। यों वे अपने पूर्व प्राचरित शुभ, कल्याणकर-पुण्यात्मक कर्मों के फल-स्वरूप विशेष सुखों का उपभोग करते रहते हैं। __ उस जगती के ऊपर पद्मवरवेदिका-मणिमय पद्मरचित उत्तम वेदिका के भीतर एक विशाल बन-खंड है / वह कुछ कम दो योजन चौड़ा है ! उसकी परिधि वेदिका जितनी है / वह कृष्ण, (कृष्णआभामय, नील, नील-प्राभामय, हरित, हरित-पाभामय, शीतल, शीतल-ग्राभामय, स्निग्ध, स्निग्धप्राभामय, तीव्र, तीव्र-आभामय, कृष्ण, कृष्ण-छायामय, नील, नील-छायामय, हरित, हरित-छायामय, शीतल, शीतल-छायामय, स्निग्ध, स्निग्ध-छायामय, तीव्र, तीव्र-छायामय, वृक्षों की शाखा-प्रशाखाओं के परस्पर मिले होने से सघन छायामय, रम्य एवं विशाल मेघ-समुदाय जैसा भव्य तथा) तृणों के शब्द से रहित है–प्रशान्त है / जम्बूद्वीप के द्वार 7. जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स कइ दारा पण्णता? गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णता, तं जहा–विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। [7] भगवन् ! जम्बूद्वीप के कितने द्वार हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के चार द्वार हैं.---१. विजय, 2. वैजयन्त, 3. जयन्त तथा 4. अपराजित / 8. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई वीइवइत्ता जंबुद्दीवदीवपुरथिमपेरंते लवणसमुद्दपुरथिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीआए महाणईए उप्पि एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते, अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेए वरकणगथूभियाए, जाव दारस्स वगणो जाव रायहाणी / [8] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का विजय नामक द्वार कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप स्थित मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में 45 हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप के पूर्व के अंत में तथा लवणसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम में सीता महानदी पर जम्बूद्वीप का Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र विजय नामक द्वार कहा गया है / वह पाठ योजन ऊँचा तथा चार योजन चौड़ा है। उसका प्रवेशप्रवेशमार्ग भी चौड़ाई जितना ही-चार योजन का है। वह द्वार श्वेत-सफेद वर्ण का है। उसकी स्तुपिका-शिखर, उत्तम स्वर्ण की बनी है। द्वार एवं राजधानी का जीवाभिगम सूत्र में जैसा वर्णन पाया है, वैसा ही यहाँ समझना चाहिए। 6. जंबुद्दोवस्स णं भंते ! दोवस्स दारस्स य दारस्स य केवइए अबाहाए अंतरे पण्णते ? गोयमा! अउणासोई जोअणसहस्साई बावण्णं च जोषणाई देसूणं च अद्धजोअणं दारस्स य 2 अबाहाए अंतरे पण्णत्ते अउणासोइ सहस्सा बावण्णं चेव जोपणा हुंति / ऊणं च अद्धजोअणं दारंतरं जंबुदीवस्स // [9] भगवन् ! जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अबाधित अव्यवहित अन्तर कितना है ? ___ गौतम ! जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अबाधित—अव्यवहित-अन्तर उनासी हजार बावन योजन तथा कुछ कम प्राधे योजन का है। जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र का स्थान : स्वरूप 10. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे जाम बासे पण्णत्ते ? गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपन्चयस्स दाहिणणं, दाहिणलवणसमुदस्स उत्तरेणं, पुरस्थिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चस्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भरहे णाम वासे पण्णते-खाणुबहुले, कंटकबहुले, विसमबहुले, दुग्गबहुले, पञ्चयबहुले, पवायबहुले, उज्झरबहुले, णिन्झरबहुले, खड्डाबहुले, दरीबहुले, णईबहुले, दहबहुले, रुक्खबहुले, गुच्छबहुले, गुम्मबहुले, लयाबहुले, वल्लीबहुले, अडवीबहुले, साक्यबहुले, तणबहुले, तक्करबहुले, डिम्बबहुले, डमरबहुले, दुभिक्खबहुले, दुक्कालबहुले, पासंडबहुले, किवणबहुले, वणीमगबहुले, ईतिबहुले, मारिबहुले, कुवुट्टिबहुले, अणावुट्ठिबहुले, रायबहुले, रोगबहुले, संकिलेसबहुले, अभिक्खणं अभिक्खणं संखोहबहुले। पाईणपडोणायए, उदीणदाहिणविस्थिणे, उत्तरमो पलिअंकसंठाणसंठिए, दाहिणो धणुपिटुसंठिए, तिधा लवणसमुदं पुछे, गंगासिंह महाणईहि वेअड्ढेण य पव्वएण छन्भागपविभत्ते, जंबुद्दीवदीवणउयसयभागे पंचछव्वीसे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं / भरहस्स णं वासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वेड्ढे णामं पव्वए पण्णत्ते, जे णं भरहं वासं दुहा विभयमाणे 2 चिट्ठइ, तं जहा-दाहिणड्डभरहं च उत्तरडभरहं च / [10] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरत नामक वर्ष--क्षेत्र कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! चुल्ल हिमवंत-लघु हिमवंत पर्वत के दक्षिण में, दक्षिणवर्ती लवण समुद्र के उत्तर में, पूर्ववर्ती लवण समुद्र के पश्चिम में, पश्चिमवर्ती लवण समुद्र के पूर्व में यह जम्बूद्वीपान्तर्वर्ती भरत क्षेत्र है। / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार] इसमें स्थाणुओं की-मुखे ठूठों की, काँटों की-बेर, बबूल आदि काँटेदार वृक्षों की, ऊँची-नीची भूमि की, दुर्गम स्थानों को, पर्वतों की, प्रपातों की गिरने के स्थानों की-ऐसे स्थानों की जहाँ से मरणेच्छु व्यक्ति झम्पापात करते हैं, अवझरों को जल-प्रपातों को, निझरों की, गड्ढों की, गुफाओं की, नदियों को, द्रहों की, वृक्षों की, गुच्छों की, गुल्मों की, लताओं की, विस्तीर्ण बेलों की, * वनों की, वनैले हिंसक पशुओं को, तृणों को, तस्करों को-चोरों को, डिम्वों की -स्वदेशोत्थ विप्लवों की, डमरों की--पर-शत्रुराजकृत उपद्रवों की, दुभिक्ष को, दुष्काल को-धान्य आदि की महंगाई की, पाखण्ड की--विविध मत दो जनों द्वारा उत्थापित मिथ्यावादों की, कृपणों की, याचकों की, ईति की फसलों को नष्ट करने वाले चूहों, टिड्डियों आदि की, मारी की, मारक रोगों की, कुवृष्टि की-- किसानों द्वारा अवाञ्छित --हानिप्रद वर्षा की, अनावृष्टि को, प्रजोत्पीडक राजानों को, रोगों की, संक्लेशों की, क्षणक्षणवर्ती संक्षोभों को-चैतसिक अनवस्थितता की बहुलता है—अधिकता हैअधिकांशतः ऐसी स्थितियाँ हैं / वह भरतक्षेत्र पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है / उत्तर में पर्यक-संस्थानसंस्थित है—पलंग के आकार जैसा है, दक्षिण में धनुपृष्ठ-संस्थान-संस्थित है-प्रत्यंचा चढ़ाये धनुष के पिछले भाग जैसा है / यह तीन अोर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है / गंगा महानदी, सिन्धु महानदी तथा वैताढ्य पर्वत से इस भरत क्षेत्र के छह विभाग हो गये हैं, जो छह खंड कहलाते हैं। इस जम्बूद्वीप के 160 भाग करने पर भरत क्षेत्र उसका एक भाग होता है अर्थात् यह जम्बूद्वीप का 190 वां हिस्सा है / इस प्रकार यह 526 योजन चौड़ा है। भरत क्षेत्र के ठीक बीच में वैताढ्य नामक पर्वत बतलाया गया है, जो भरतक्षेत्र को दो भागों में विभक्त करता हुआ स्थित है / वे दो भाग दक्षिणार्ध भरत तथा उत्तरार्ध भरत हैं। जम्बूद्वीप में दक्षिणार्ध भरत का स्थान : स्वरूप 11. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दोवे दाहिणी भरहे णाम वासे पण्णत्ते ? गोयमा ! वेअड्डस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, दाहिणलवणसमुहस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धभरहे णामं वासे पण्णत्ते-पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणविस्थिण्णे, अद्धचंदसंठाणसंठिए, तिहा लवणसमुदं पुछे, गंगासिंह महाणईहि तिभागपविभत्ते। दोणि अटुतोसे जोअणसए तिणि अ एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं / तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुई पुट्ठा, पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा / णव जोयणसहस्साई सत्त य अडयाले जोयणसए दुवालस य एगणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं, तीसे धणुपुछे दाहिणेणं णव जोयणसहस्साई सत्तछावठे जोयणसए इक्कं च एगूणवीसइभागे जोयणस्स किचिविसेसाहि परिक्खेवेणं पण्णत्ते। दाहिणद्धभरहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णते ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव' णाणाविहपञ्चवहि मणीहि तर्णेहि उवसोभिए, तं जहा-कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहि चेव / 1. देखें मूत्र संख्या 6 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाहिणभरहे णं भंते ! वासे मणयाणं केरिसए प्रायारभावपडोयारे पणते ? गोयमा ! ते णं मणुप्रा बहुसंधयणा, बहुसंठाणा, बहुउच्चत्तपज्जवा, बहुअाउपज्जवा, बहूई वासाई पाउं पातेति, पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी, अप्पेगझ्या तिरियगामी, अप्पेगइया मणुयगामी, अप्पेगइया देवगामी, अप्पेगइया सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिन्यायंति सव्वदुवखाणमंतं करेंति / [11] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दक्षिणार्ध भरत नामक क्षेत्र कहाँ कहा गया है ? गौतम ! वैताढ्य पर्वत के दक्षिण में, दक्षिण-लवणसमुद्र के उत्तर में, पूर्व-लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिम-लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बू नामक द्वीप के अन्तर्गत दक्षिणार्ध भरत नामक क्षेत्र कहा गया है। वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है / यह अर्द्ध-चन्द्र-संस्थान-संस्थित है-- आकार में अर्द्ध चन्द्र के सदृश है / वह तीन ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है / गंगा महानदी और सिन्धु महानदी से वह तीन भागों में विभक्त हो गया है / वह 238 योजन चौड़ा है। उसकी जीवा-धनुष की प्रत्यंचा जैसी सीधी सर्वान्तिम-प्रदेश-पंक्ति उत्तर में पूर्व-पश्चिम लम्बी है / वह दो ओर से लवण-समुद्र का स्पर्श किये हुए है / अपनी पश्चिमी कोटि से-किनारे से वह पश्चिम-लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है तथा पूर्वी कोटि से पूर्व-लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है / दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र की जीवा 674814 योजन लम्बी है / उसका धनुष्य-पृष्ठ-पीठिका–दक्षिणार्ध भरत के जीवोपमित भाग का पृष्ठ भाग--पीछे का हिस्सा दक्षिण में 976659 योजन से कुछ अधिक है। यह परिधि की अपेक्षा से वर्णन है। भगवन् ! दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र का प्राकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उसका प्रति समतल रमणीय भूमिभाग है। वह मुरज के ऊपरी भाग आदि की ज्यों समतल है / वह अनेकविध कृत्रिम, अकृत्रिम पंचरंगी मणियों तथा तृणों से सुशोभित है। भगवन् ! दक्षिणार्ध भरत में मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! दक्षिणार्ध भरत में मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊँचाई, आयुष्य बहुत प्रकार का है। वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हैं ! आयुष्य भोगकर उनमें से कई नरकगति में, कई तिर्यञ्चगति में, कई मनुष्यगति में तथा कई देवगति में जाते हैं, कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होते हैं एवं समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। विवेचन-दसवें सूत्र में भरत क्षेत्र की स्थाणु-बहुलता, कंटक-बहुलता, विषमता आदि का जो उल्लेख हुअा है, वह समग्र क्षेत्र के सामान्य वर्णन की दृष्टि से है। यहाँ रमणीय भूमिभाग का जो वर्णन है, वह स्थान-विशेष की दृष्टि से है / शुभाशुभात्मकतामूलक द्विविध स्थितियों को विद्यमानता से एक ही क्षेत्र में स्थान-भेद से द्विविधता हो सकती है, जो विसंगत नहीं है। अप्रिय और अमनोज्ञ स्थानों के अतिरिक्त पुण्यशाली जनों के पुण्यभोगोपयोगी प्रिय और मनोज्ञ स्थानों का अस्तित्व संभावित ही है। प्रस्तुत सूत्र में दक्षिणार्ध भरत के मनुष्यों के नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, देवगति तथा मोक्ष-प्राप्ति का जो वर्णन हुआ है, वह नानाविध जीवों को लेकर पारक-विशेष की अपेक्षा से है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार] [11 वैताढय पर्वत 12. कहि णं भंते ! जंबुद्दोवे 2 भरहे वासे वेयड्ढे णाम पन्चए पण्णत्ते ? गोयमा ! उत्तरद्धभरहवासस्स दाहिणेणं, दाहिणभरहवासस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चस्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेण एत्थ णं जंबुद्दीवे 2 भरहे वासे वेअड्ढे णामं पव्वए पण्णत्ते-पाईणपडीणायए, उदोणदाहिणवित्थिणे, दुहा लवणसमुदं पुठे, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुछे, पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुछे, पणवीसं जोयणाई उड्द उच्चत्तेणं, छत्सकोसाइं जोअणाई उम्वेहेणं, पण्णासं जोपणाई विक्खंभेणं, तस्स बाहा पुरथिमपच्चस्थिमेणं चत्तारि अट्ठासीए जोयणसए सोलस य एगणवीसइभागे जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं पण्णत्ता। तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुदं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चथिमिल्लाए कोडोए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, दस जोयणसहस्साई सत्त य वीसे जोप्रणसए दुवालस य एगूणवीसइभागे जोप्रणस्स प्रायामेणं, तीसे धणुपुढे दाहिणेणं दस जोअणसहस्साई सत्त य तेनाले जोयणसए पण्णरस य एगूणवीसइभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं, रुअगसंठाणसंठिए, सव्वरययामए, अच्छे, सण्हे, लट्टे, घट्टे, मळे, णोरए, णिम्मले, णिप्पंके, णिक्कंकडच्छाए, सप्पभे, समिरीए, पासाईए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे, पडिरूवे / / उभो पासिं दोहि पउमवरवेइयाहि दोहि अवणसहि सम्वनो समंता संपरिक्खित्ते / तामो णं पउमवरवेइयाओ अद्धजोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं, पंचधणुसयाई विक्खंभेणं, पव्वयसमियालो आयामेणं वण्णो भाणियव्यो। ते णं वणसंडा देसूणाई जोषणाई विक्खंभेणं, पउमवरवेइयासमगा आयामेणं, किण्हा, किण्होभासा जाव' वण्णो / [12] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में वैताढ्य नामक पर्वत कहाँ कहा . गया है ? गौतम ! उत्तरार्ध भरतक्षेत्र के दक्षिण में, दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के उत्तर में, पूर्व-लवण समुद्र के पश्चिम में, पश्चिम-लवणससुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत कहा गया है। वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है / वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है / अपने पूर्वी किनारे से पूर्व-लवणसमुद्र का तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिम-लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है। वह पच्चीस योजन ऊंचा है और सवा छह योजन जमीन में गहरा है। वह पचास योजन लम्बा है। इसकी बाहा--दक्षिणोत्तरायत वक्र आकाश-प्रदेशपंक्ति पूर्व-पश्चिम में 48816" योजन की है। उत्तर में वैताढ्य पर्वत की जीवा पूर्व तथा पश्चिम-दो अोर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है। वह पूर्वी किनारे से पूर्व-लवणसमुद्र का तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमलवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है। जीवा 1072011 योजन लम्बी है। दक्षिण में उसकी धनुष्यपीठिका की परिधि 1074364 योजन की है / 1. देखें सूत्र संख्या 6 2. समयक्षेत्रवर्ती जो भी पर्वत हैं, मेरु के अतिरिक्त उन सबकी जमीन में गहराई अपनी ऊंचाई से चतुर्थाश है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [जम्बूदीपप्राप्तिसूत्र वैताढ्य पर्वत रुचक-संस्थान-संस्थित है--उसका आकार रुचक---ग्रीवा के प्राभरण-विशेष जैसा है / वह सर्वथा रजतमय है / वह स्वच्छ, सुकोमल, चिकना, धुटा हुआ-सा-घिसा हुआ-सा, तराशा हुया सा, रज-रहित, मैल-रहित, कर्दम-रहित तथा कंकड़-रहित है। वह प्रभा, कान्ति एवं उद्योत से युक्त है, चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। वह अपने दोनों पार्श्वभागों में--दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं- मणिमय पद्म-रचित उत्तम वेदिकाओं तथा वन-खंडों से सम्पूर्णतः घिरा है / वे पद्मवरवेदिकाएँ आधा योजन ऊंची तथा पाँच सौ धनुष चौड़ी हैं, पर्वत जितनी ही लम्बी हैं। पूर्वोक्त के अनुसार उनका वर्णन समझ लेना चाहिए। वे वन-खंड कुछ कम दो योजन चौड़े हैं, कृष्ण वर्ण तथा कृष्ण आभा से युक्त हैं / इनका वर्णन पूर्ववत् जान लेना चाहिए। 13. वेयड्डस्स णं पच्चयस्स पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं दो गुहाम्रो पण्णत्तानो–उत्तरदाहिणाययाओ, पाईणपडोणवित्थिग्णाओ, पण्णासं जोषणाई आयामेणं, दुवालस जोअणाई विक्खंभेणं, अट्ठ जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, वइरामयकवाडोहाडियारो, जमलजुअलकवाडघणदुप्पवेसाओ, णिच्चंधयारतिमिस्साओ, ववगयगहचंदसूरणवखत्तजोइसपहाओ जाव' पडिरूवानो, तं जहा-तमिसगुहा चेव खंडप्पवायगुहा चेव / तत्थ णं दो देवा महिड्डीया, महज्जुईआ, महाबला, महायसा, महासोवला, महाणुभागा, पलिओवमट्टिईया परिवसंति, तं जहा कयमालए चेव गट्टमालए चेव / तेसि णं वणसंडाणं बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाश्रो। वेअदृस्स पव्वयस्स उभओ पासि दस दस जोप्रणाइं उड्ढं उप्पइत्ता एत्थ णं दुवे विज्जाहरसेढीनो पण्णत्तानो-पाईणपडीणाययाप्रो, उदीणदाहिणवित्थिण्णाओ, दस दस जोप्रणाई विक्खंभेणं, पव्वयसमियाप्रो आयामेणं, उभओ पासि दोहि पउमवरवेइयाहि, दोहि वणसं.हि संपरिक्खिताप्रो, तानो गं पउमवरवेइयाओ अद्धजोअणं उड्ढे उच्चत्तेणं, पञ्च धणुसयाई विक्खंभेणं, पन्वयसमियाओ प्रआयामेणं, वणनो यन्वो, वणसंडावि पउमवरवेइयासमगा पायामेणं, वग्णओ। 13] वैताढ्य पर्वत के पूर्व-पश्चिम में दो गुफाएं कही गई हैं। वे उत्तर-दक्षिण लम्बी हैं तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ी हैं। उनकी लम्बाई पचास योजन, चौड़ाई बारह योजन तथा ऊंचाई पाठ योजन है / उनके वज्ररत्नमय हारकमय कपाट है, दो-दो भागों के रूप में निमित, समस्थित कपाट इतने सघन-निश्छिद्र या निविड हैं, जिससे गुफाओं में प्रवेश करना दुःशक्य है। उन दोनों गुफाओं में सदा अँधेरा रहता है। वे ग्रह, चन्द्र, सूर्य तथा नक्षत्रों के प्रकाश से रहित हैं, अभिरूप एवं प्रतिरूप हैं / उन गुफाओं के नाम तमिस्रगुफा तथा खंडप्रपातगुफा हैं। वहाँ कृतमालक तथा नृत्यमालक-दो देव निवास करते हैं / वे महान ऐश्वर्यशाली, धतिमान, बलवान्, यशस्वी, सुखी तथा भाग्यशाली हैं। पल्योपमस्थितिक हैं-एक पल्योपम की स्थिति या आयुष्य वाले हैं। उन वनखंडों के भूमिभाग बहुत समतल और सुन्दर हैं / वैताढ्य पर्वत के दोनों पार्श्व में--- दोनों ओर दश-दश योजन की ऊंचाई पर दो विद्याधर श्रेणियाँ-पावास-पंक्तियाँ हैं / वे पूर्व-पश्चिम 1. देखें सूत्र संख्या 4 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार] लम्बी तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी हैं। उनकी चौड़ाई दश-दश योजन तथा लम्बाई पर्वत जितनी ही है। वे दोनों पार्श्व में दो-दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो-दो वनखण्डों से परिवेष्टित हैं / वे पद्मवरवेदिकाएं ऊँचाई में प्राधा योजन, चौड़ाई में पांच सौ धनुष तथा लम्बाई में पर्वत-जितनी ही हैं / वनखंड भी लम्बाई में वेदिकाओं जितने ही हैं / उनका वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। 14. विज्जाहरसेढीणं भंते ! भूमीणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? / गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पणत्ते, से जहाणामए आलिंगपुरखरेइ वा जाव' गाणाविहपंचवणेहि मणीहि, तणेहि उवसोभिए, तं जहा-कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहिं चेव / तत्थ णं दाहिणिल्लाए विज्जाहरसेढोए गगणवल्लभपामोक्खा पण्णासं विज्जाहरणगरावासा पणत्ता, उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेढीए रहनेउरचक्कवालपामोक्खा सढि विज्जाहरणगरावासा पणत्ता, एवामेव सपुष्वावरेणं दाहिणिल्लाए, उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेढीए एगं दसुत्तरं विज्जाहरणगरावाससयं भवतीतिमवखायं, ते विज्जाहरणगरा रिसस्थिमियसमिद्धा, पमुइयजणजाणवया, (प्राइणजणमणूसा, हतसयसहस्ससंकिट्ठविकिट्ठलट्ठपण्णत्तसेउसीमा, कुक्कुडसंडेयगामपउरा, उच्छ जवसालिकलिया, गोमहिसगवेलगप्पभूया, आयारवंतचेइयजुवइविविहसप्णिविट्ठबहुला, उक्कोडियगायगंठिमेयगभउत्तवकरखंडरवखरहिया, खेमा,णिस्वदवा, सुभिक्खा, वीसत्थसुहावासा, अणेगकोडिकुडुबियाइपणियसुहा, गडणट्टगजल्लमल्लमुट्टियवेलंबगकहगपवगलासग-आइवखगमंखलखतूणइल्लतुचवीणिय-प्रणेतालायरा - गुचरिया, पारामुज्जाणअगडतलागदीहियवप्पिणगुणोववेया, नंदणवणसन्निभप्पगासा, उन्विद्धविउलगंभीरखायफलिहा, चक्कगयभुसुढिओरोहसयघिजमलकवाडघणदुप्पवेसा, धणकुडिलवंकपागारपरिविखत्ता, कविसीसगवट्टरइयसंठियविरायमाणा, अट्टालयचरियदारगोपुरतोरणसमुष्णयसुविभत्तरायमग्गा, छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीला, विवणिवणिछित्तसिप्पियाइश्णणिध्वुयसुहा, सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरपणियावविविहवत्थुपरिमंडिया, सुरम्मा, नरवइपविइष्णमहिवइपहा, अणेगवरतुरगमत्तकुजररहपहकरसीयसंदमाणी आइप्णजाणजुग्गा, विमउलणवणलिणिसोभियजला, पंडुरवरभवणसण्णिमहिया, उत्ताणणयणपेच्छणिज्जा, पासादीया, दरिसणिज्जा, अभिरुवा) पडिरूवा। तेसु णं विज्जाहरणगरेसु विज्जाहररायाणो परिवसंति महयाहिमवंतमलयमंदरमहिंदसारा रायवष्णओ भाणिअन्यो। [14] भगवन् ! विद्याधर-श्रेणियों की भूमि का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उनका भूमिभाग बड़ा समतल रमणीय है / वह मुरज के ऊपरी भाग आदि की ज्यों समतल है / वह बहुत प्रकार की कृत्रिम, अकृत्रिम मणियों तथा तृणों से सुशोभित है / दक्षिणवर्ती विद्याधर श्रेणि में गगनवत्लभ आदि पचास विद्याधर-नगर हैं- राजधानियाँ हैं। उत्तरवर्ती विद्याधर श्रेणि में रथनपुर चक्रवाल आदि साठ नगर हैं-राजधानियों हैं। इस प्रकार दक्षिणवर्ती एवं उत्तरवर्ती-दोनों विद्याधर-श्रेणियों के नगरों की-राजधानियों की संख्या एक सौ दश है। वे 1. देखें सूत्र संख्या 6 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [जम्बूद्वीपप्रजप्तिसूत्र विद्याधर-नगर वैभवशाली, सुरक्षित एवं समृद्ध हैं। (वहाँ के निवासी तथा अन्य भागों से आये हुए व्यक्ति वहाँ अमोद-प्रमोद के प्रचुर साधन होने से प्रमुदित रहते हैं / लोगों को वहाँ घनी आवादी है / सैंकड़ों, हजारों हलों से जुती उसकी समीपवर्ती भूमि सहजतया सुन्दर मार्ग-सीमा-सी लगती है। वहाँ मुर्गों और युवा सांडों के बहुत समूह हैं / उसके आसपास की भूमि ईख, जौ और धान के पौधों से लहराती है / वहाँ गायों, भैंसों की प्रचुरता है। वहाँ शिल्पकला युक्त चैत्य और युवतियों के विविध सन्निवेशों-पण्य-तरुणियों के पाड़ों--टोलों का बाहुल्य है / वह रिश्वतखोरों, गिरहकटों, बटमारों, चोरों, खण्डरक्षकों-चुंगी वसूल करने वालों से रहित, सुख-शान्तिमय एवं उपद्रवशून्य है / वहाँ भिक्षुकों को भिक्षा सुखपूर्वक प्राप्त होती है, इसलिए वहाँ निवास करने में सब सुख मानते हैं, आश्वस्त हैं। अनेक श्रेणो के कोटुम्बिक-पारिवारिक लोगों को धनो वस्ती होते हुए भी वह शान्तिमय है / नट-नाटक दिखाने वाले, नर्तक-नाचने वाले, जल्ल-कलाबाज-रस्सी आदि पर चढ़कर कला दिखाने वाले, मल्ल-पहलवान, मौष्टिक-मुक्केबाज, विडम्बक-विदूषक-मसखरे, कथक-कथा कहने वाले, प्लवक-उछलने या नदी आदि में तैरने का प्रदर्शन करने वाले, लासकवीररस की गाथाएं या रास गाने वाले, आख्यायक-शुभ-अशुभ बताने वाले, लंख-जाँस के सिरे पर खेल दिखाने वाले, मंख-चित्रपट दिखाकर आजीविका चलाने वाले, तूणइल्ल-तूण नामक तन्तुवाद्य बजाकर आजीविका कमाने वाले. तबवोणिक-ब-वीणा या गो बजाने वाले, तालाचरताली बजाकर मनोविनोद करने वाले प्रादि अनेक जनों से वह सेवित है / पाराम-क्रीडा वाटिका, उद्यान-बगोचे, कुए, तालाब, बावड़ी, जल के छोटे-छोटे बाँध-इनसे युक्त हैं। नन्दनवन सी लगती है / वह ऊँचो, विस्तीर्ण और गहरी खाई से युक्त है, चक्र, गदा, भुसुडि-पत्थर फेंकने का एक विशेष अस्त्र-गोफिया, अवरोध-अन्तर-प्राकार-शत्रु सेना को रोकने के लिए परकोटे जैसा भीतरी सुदृढ़ पावरक साधन, शतघ्नो-महायष्टि या महाशिला, जिसके गिराये जाने पर सैंकड़ों व्यक्ति दब-कुचल कर मर जाएं ओर द्वार के छिद्र-रहित कपाट-युगल के कारण जहाँ प्रवेश कर पाना दुष्कर हो / धनुष जैसे टेढ़े परकोटे से वह घिरी हुई है / उस परकोटे पर गोल आकार के बने हुए कपिशीर्षकों कंगूरों-भीतर से शत्रु-सैन्य को देखने आदि हेतु निर्मित बन्दर के मस्तक के आकार के छेदों-से वह सुशोभित हैं / उसके राजमार्ग, अट्टालक-परकोटे ऊपर निर्मित आश्रय-स्थानोंगुमटियों, चरिका-परकोटे के मध्य बने हुए आठ हाथ चौड़े मार्गों, परकोटे में बने हुए छोटे द्वारों-बारियों, गोपुरों-नगर-द्वारों, तोरणों से सुशोभित और सुविभक्त है। उसकी अर्गला और इन्द्रकील-गोपुर के किवाड़ों के प्रागे जुड़े हुए नुकीले भाले जैसो कोलें, सुयोग्य शिल्पाचार्यों-निपुण शिल्पियों द्वारा निर्मित हैं / विपणि-हाट-मार्ग, वणिक्-क्षेत्र व्यापारक्षेत्र, बाजार आदि के कारण तथा बहुत से शिल्पियों, कारीगरों के प्रावासित होने के कारण वह सुख-सुविधा पूर्ण है / तिकोने स्थानों, तिराहों, चोराहों, चवरों-जहाँ चार से अधिक रास्ते मिलते हों ऐसे स्थानों, बर्तन आदि की दूकानों तथा अनेक प्रकार की वस्तुओं से परिमंडित-सुशोभित और रमणीय है। राजा की सवारो निकलते रहने के कारण उसके राजमार्गों पर भीड़ लगी रहती है। वहाँ अनेक उत्तम घोड़े, मदोन्मत्त हाथो, रथ-समूह, शिविका-पर्देदार पालखियां, स्यन्दमानिका-पुरुष-प्रमाण पालखियां, यान-गाड़ियां तथा यूग्य-पुरातनकालीन गोल्लदेश में सुप्रसिद्ध दो हाथ लम्बे-चौड़े डोली जैसे यान-इनका जमघट लगा रहता है। वहाँ खिले हुए कमलों से शोभित जल-जलाशय हैं / सफेदी किए हुए उत्तम भवनों से वह सुशोभित, अत्यधिक सुन्दरता के कारण निनिमेष नेत्रों से प्रेक्षणीय, चित्त Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार] को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप--मनोज्ञ-मन को अपने में रमा लेने वाले तथा प्रतिरूप–मन में बस जाने वाले हैं। उन विद्याधरनगरों में विद्याधर राजा निवास करते हैं। वे महाहिमवान् पर्वत के सदृश महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र संज्ञक पर्वतों के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए हैं / 15. विज्जाहरसेढीणं भंते ! मणुआणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! ते णं मणुआ बहुसंघयणा, बहुसंठाणा, बहुउच्चत्तपज्जवा, बहुआउपज्जवा, (बहूई वासाइं आउं पालेति, पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी, अप्पेगइया तिरियगामी, अप्पेगइआ मणुयगामी, अप्पेगहआ देवगामी, अप्पेगइआ सिझंति बुज्झति मुच्चंति परिणिव्वायंति) सम्वदुक्खाणमंतं करेंति / तासि णं विज्जाहरसेढोणं बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ वेअदृस्स पच्चयस्स उभओ पासि दस दस जोअणाई उट्ट उप्पइत्ता एत्थ मं दुवे अभिओगसेढीयो पण्णत्तानो-पाईणपडीणाययाओ, उदीणदाहिणवित्थिपणाओ, दस दस जोप्रणाई विक्खंभेणं, पब्वयसमियामो प्रायामेणं, उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहि दोहि वणहि संपरिक्खित्तानो वष्णो दोहवि पब्वयसमियानो प्रआयामेणं। [15] भगवन् ! विद्याधरश्रेणियों के मनुष्यों का प्राकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! वहाँ के मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊँचाई एवं आयुष्य बहुत प्रकार का है। (वे बहुत वर्षों का प्रायुष्य भोगते हैं / उनमें कई नरकगति में, कई तिर्यञ्चगति में, कई मनुष्यगति में तथा कई देवगति में जाते हैं / कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत होते हैं,) सब दुःखों का अंत करते हैं। उन विद्याधर-श्रेणियों के भूमिभाग से वैताढ्य पर्वत के दोनों ओर दश-दश योजन ऊपर दो आभियोग्य-श्रेणियां--ग्राभियोगिक देवों शक्र, लोकपाल आदि के आज्ञापालक देवों--व्यन्तर देवविशेषों की आवास-पंक्तियां हैं। वे पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी हैं। उनकी चौड़ाई दश-दश योजन तथा लम्बाई पर्वत जितनी है। वे दोनों श्रेणियां अपने दोनों ओर दो-दो प वेदिकाओं एवं दो- दो वनखण्डों से परिवेष्टित हैं / लम्बाई में दोनों पर्वत-जितनी हैं / वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। 16. अभियोगसेढोणं भंते ! केरिसए प्रायारभावपडोयारे पण्णते? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव' तणेहि उवसोभिए वष्णाई जाब तणाणं सहोत्ति। तासि णं अभिप्रोगसेढीणं तत्थ देसे तहि तहिं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीयो अप्रासयंति, सयंति, (चिट्ठति, णीसीअंति, तुअट्टति, रमंति, ललंति, कोलंति, मेहंति पुरापोराणाणं सुपरक्कंताणं, सुभाणं, कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाण-) फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरंति / तासु णं पाभियोगसेढीसु सक्कस देविदस्स देवररणो सोमजमवरुणवेसमणकाइयाणं आभिओगाणं देवाणं बहवे भवणा पष्णता / ते णं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा वण्णओ। तत्थ णं सक्कस्स देविदस्स, देवरण्णो सोमजमवरुणवेसमणकाइमा बहवे प्राभिओगा देवा महिड्डिा, महज्जुईआ, (महाबला, महायसा,) महासोक्खा पलिओवमद्विइया परिवति / 1. देखें सूत्र संख्या 6 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तासि णं आभिओगसेढोणं बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ वेयथस्स पव्वयस्स उभओ पासिं पंच 2 जोयणाई उड्ड उपइत्ता, एत्थ णं वेयड्स्स पध्वयस्स सिहरतले पण्णत्ते--- पाईणपोडयायए, उदोणवाहिशवित्यिण्णे, दस जोअणाई विक्खंमेणं, पव्वयसमगे आयामेणं, से गं इक्काए पउमवरवेइयाए, इक्केणं वणसंडेणं सम्वो समंता संपरिक्खित्ते, पमाणं वणगो दोण्हंपि। [16] भगवन् ! आभियोग्य-श्रेणियों का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उनका बड़ा समतल, रम गोय भूमिभाग है। मणियों एवं तृणों से उपशोभित है / मणियों के वर्ण, तृणों के शब्द आदि अन्यत्र विस्तार से वर्णित हैं / ' वहाँ बहुत से देव, देवियां पाश्रय लेते हैं, शयन करते हैं, (खड़े होते हैं, बैठते हैं, त्वग्वर्तन करते हैं -देह को दायें-बायें घुमाते हैं,---मोड़ते हैं, रमण करते हैं, मनोरंजन करते हैं, क्रीड़ा करते हैं, सुरत-क्रिया करते हैं / यों वे अपने पूर्व-आचरित शुभ, कल्याणकर-पुण्यात्मक कर्मों के फलस्वरूप) विशेष सुखों का उपभोग करते हैं। उन अभियोग्य-श्रेणियों में देवराज, देवेन्द्र शक्र के सोम-पूर्व दिमाल, यम-दक्षिण दिक्पाल, वरुण-पश्चिम दिक्पाल तथा वैश्रमण-उत्तर दिशाल प्रादि पाभियोगिक देवों के बहत से भवन हैं। वे भवन बाहर से गोल तथा भीतर से चोरस हैं / भवनों का वर्णन अन्यत्र द्रष्टव्य है / ___ वहाँ देवराज, देवेन्द्र शक के अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न, द्युतिमान्, (बलवान, यशस्वी) तथा सौख्यसम्पन्न सोम, यम, वरुण एवं वैश्रमण संज्ञक आभियोगिक देव निवास करते हैं। उन प्राभियोग्य-श्रेणियों के प्रति समतल, रमगोय भूमिभाग से वैताढ्य पर्वत के दोनों पार्श्व में दोनों ओर पाँच-पाँच योजन ऊँचे जाने पर वैताढय पर्वत का शिबर-तल है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चोड़ा है / उसको चोड़ाई दश योजन है, लम्बाई पर्वत-जितनी है। वह एक पद्मवरवेदिका से तथा एक वनखंड से चारों ओर परिवेष्टित है। उन दोनों का वर्णन पूर्ववत है। 17. वेयडस्स णं भंते ! पब्बयस्स पिहरतलस्स केरिसए आगारभावपडोआरे पण्णत्ते ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण ते / से जहाणामए आलिंगपुक्ख रेइ वा जाव: णाणाविहपंचवर्णोह मणोहि उदसोभिए (तत्थ तत्थ तहि तहिं देसे) वावोओ, पुक्खरिणोप्रो, (तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे) वाणमंतरा देवा य देवोओ य आसपंति जाव भुजमाणा विहरंति / [17] भगवन् ! वैताढ्य पर्वत के शिखर-तल का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणोय है / वह मृदंग के ऊपर के भाग जैसा 1. देखें राजप्रश्नीय सूत्र 31-40 तथा 138-142 2. प्रज्ञापना सूत्र 2-46 / 3. देखें मूत्र संख्या 6 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार [17 समतल है, बहुविध पंचरंगी मणियों से उपशोभित है। वहाँ स्थान-स्थान पर बावड़ियां एवं सरोवर हैं। वहाँ अनेक वानव्यन्तर देव, देवियां निवास करते हैं, पूर्व-प्राचीर्ण पुण्यों का फलभोग करते हैं / 18. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे वेअड्डपब्वए कइ कूडा पण्णत्ता? गोयमा ! णव कूडा पण्णता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे 1. दाहिणभरहकूडे 2. खंडप्पवायगुहाकूडे 3. मणिभद्दकूडे 4. वेअडकूडे 5. पुण्णभद्दकूडे 6. तिमिसगुहाकूडे 7. उत्तरड्डभरहकूडे 8. वेसमणकूडे है। [18] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत के कितने कूट—शिखर या चोटियाँ हैं ? गौतम ! वैताढ्य पर्वत के नौ कूट हैं / वे इस प्रकार हैं--- 1. सिद्धायतनकूट, 2. दक्षिणार्धभरतकूट, 3. खण्डप्रपातगुहाकूट, 4. मणिभद्रकूट, 5. वैताढ्यकूट, 6. पूर्णभद्रकूट, 7. तमिस्रगुहाकूट, 8. उत्तरार्धभरतकूट, 6. वैश्रमणकूट / सिद्धायतनकट 16. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेअट्टपव्वए सिद्धाययणकडे णामं कूडे पण्णते ? गोयमा ! पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं, दाहिणभरहकूडस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दोवे दीवे भारहे वासे वेअड्डे पश्चए सिद्धाययणकूड़े णामं कूडे पण्णत्ते-छ सक्कोसाइं जोषणाई उड्ड उच्चत्तेणं, मूले छ सक्कोसाई विक्खंभेणं, मज्झे देसूणाई पंच जोअणाई विक्खंभेणं, उरि साइरेगाई तिणि जोअणाई विक्खंभेणं, मूले देसूणाई बावीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, मज्झे देसूणाई पण्णरस जोअणाई परिक्खेवेणं, उरि साइरेगाई णव जोअणाई परिक्खेवेणं, मूले वित्थिण्णे, मझे संखित्ते, उप्पि तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए, सव्वरयणामए, अच्छ, सण्हे जाव' पडिरूवे / से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिखिते, पमाणं वष्णो दोण्हंपि, सिद्धाययणकूडस्स णं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव' याणमंतरा देवा य जाव' विहरति / तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूर्ण कोसं उड्ड उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसनिविट्ठ, अम्भुग्गयसुकयवइरवेइआ-तोरण-वररइअसालभंजिअ-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-लट्ठ-संठिन - पसत्थ - वेरुलिअ - विमलखंभे, णाणामणिरयणखचिअउज्जलबहुसमसुविभत्तभूमिभागे, ईहामिग-उसभ-तुरग-णर-मगरविहग-वालग-किन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुजर-वणलय (णागलय-असोअलय-चंपगलय-चूयलय-वासंतियलय-अइमुत्तयलय-कुदलय-सामलय-) पउमलयभत्तिचित्ते, कंचणमणिरयण-थूभियाए, णाणाविहपंच० 1. देखें सूत्र-संख्या 4 , 2. देखें सूत्र-संख्या 6 3. देखें सूत्र-संख्या 12 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र वण्णओ, घंटापडागपरिमंडिअग्गसिहरे, धवले, मरीइकवयं विणिम्मुभंते, लाउल्लोइअमहिए, (गोसोस-सरसरत्तचंदण-दद्दरदिन्नपंचंगुलितले, उवचियचंदणकलसे, चंदणघड-सुकयतोरणपडिदुवारदेसभागे, आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावे, पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फयुजोक्यारकलिए, कालागुरुपवरकुदरुक्क-तुरुक्क-धूव-मघमघंतगंधुद्ध याभिरामे, सुगंधवरगंधिए, गंधवट्टिभूए)। तस्स णं सिद्धाययणस्स तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता। ते णं दारा पंच धणुसयाई उड्ड उच्चत्तणं, अड्डाइज्जाई धणुसयाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेअवरकणगथूभित्रागा दारवष्णओ जाव वणमाला। तस्स णं सिद्धाययणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव' तस्स णं सिद्धाययणस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे देवच्छंदए पण्णत्ते-पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाइं पंच धणुसयाई उड्ड उच्चत्तेणं, सन्वरयणामए / एत्थ णं अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सहेप्पमाणमित्ताणं संनिक्खित्तं चिट्ठइ, एवं (तासि णं जिणपडिमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-तवणिज्जमया हत्थतलपायतला, अंकामयाइं णक्खाइं अंतोलोहियक्खपडिसेगाई, कणगामया पाया, कणगामया गुप्फा, कणगामईओ जंघाओ, कणगामया जाणू, कणगामया ऊरू, कणगामईनो गायलट्ठीओ रिट्टामए मंसू, तवणिज्जमईओ भाभीहो, रिट्ठामइओ रोमराईनो, तवणिज्जमया चुच्चुत्रा, तवणिज्जमया सिरिवच्छा, कणगमईओ बाहाओ, कणगामईओ गीवाओ, सिलप्पवालमया उट्ठा, फलिहामया दंता, तवणिज्जमईओ जीहाओ, तवणिज्जमईआ तालुआ, कणगमईओ णासिगाओ अंतोलोहिअक्खपडिसेगाओ, अंकामयाइं अच्छोणि अंतोलोहिअक्खपडिसेगाई, पुलगामईओ दिट्ठीओ, रिट्ठामईओ तारगानो, रिटामयाई अच्छिपत्ताई, रिट्ठामईओ भमुहाओ, कणगामया कवोला, कणगामया सवणा, कणगामईओ पिडालपट्टियाओ, वइरामईओ सीसघडीओ, तवणिज्जमईओ केसंतकेसभूमिओ, रिद्वामया उवरिमुद्धया। तासि णं जिमपडिमाणं पिट्ठओ पत्तेयं 2 छत्तधारपडिमा पण्णत्ता। तानो णं छत्तधार. पडिमाओ हिमरययकु दिदुप्पगासाई सकोरंटमल्लदामाई, धवलाई आयवत्ताई सलीलं ओहारेमाणीओ चिट्ठति / तासि णं जिणपडिमाणं उभओ पासि पत्तेअं२ दो दो चामरधारपडिमाओ पण्णत्ताओ। ताओ णं चामरधारपडिमानो चंदप्पहवइरवेरुलियणाणामणिकणगरयणखइअमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंडामो, चिल्लियाओ, संखककुददगरयमयमहिअफेणपुंजसनिकासाओ, सुहमरययदोहवालाओ, धवलामो चामराओ सलोलं धारेमाणीओ चिट्ठति / तासि णं जिणपडिमाणं पुरओ दो दो णागपडिमाओ, दो दो जक्खपडिमाओ, दो दो भूअपडिमाओ, दो दो कुडधारपडिमानो विणओणयाओ, पायवडियाओ, पंजलिउडाओ, सन्निक्खित्ताओ चिट्ठति-सव्वरयणामईओ, अच्छाप्रो, सण्हाओ, लण्हाओ, घट्ठाओ, मट्ठाओ, नीरयाओ, निप्पंकाओ जाव पडिरूवाओ। 1. 'देखें सूत्र संख्या 6 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार] - तत्थ णं जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं, अट्ठसयं चंदणकलसाणं, एवं भिंगाराणं, आयंसगाणं, थालाणं, पाईणं, सुपट्ठगाणं, मणोगुलिआणं, वातकरगाणं, चित्ताणं रयणकरंडगाणं, हयकंठाणं जाव उसभकंठाणं, पुप्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं, पुप्फपडलगाणं जाव लोमहत्थपडलगाणं) धूवकडुच्छुगा। [16] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत पर सिद्धायतनकूट कहाँ है ? गौतम ! पूर्व लवण समुद्र के पश्चिम में, दक्षिणार्ध भरतकट के पूर्व में, जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत पर सिद्धायतन कूट नामक कूट है / वह छह योजन एक कोस ऊँचा, मूल में छह योजन एक कोस चौड़ा, मध्य में कुछ कम पाँच योजन चौड़ा तथा ऊपर कुछ अधिक तीन योजन चौड़ा है / मूल में उसकी परिधि कुछ कम बाईस योजन की, मध्य में कुछ कम पन्द्रह योजन की तथा ऊपर कुछ अधिक नौ योजन की है / वह मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त-संकुचित या संकड़ा तथा ऊपर पतला है। वह गोपुच्छ-संस्थान-संस्थित है-गाय के पूछ के आकार जैसा है / वह सर्व-रत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल तथा सुन्दर है। वह एक पद्मवरवेदिका एव एक वनखंड से सब ओर से परिवेष्टित है / दोनों का परिमाण पूर्ववत् है / सिद्धायतन कट के ऊपर अति समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। वह मृदंग के ऊपरी भाग जैसा समतल है / वहाँ वानव्यन्तर देव और देवियां विहार करते हैं। उस अति समतल, रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक बड़ा सिद्धायतन है / वह एक कोस लम्बा, प्राधा कोस चौड़ा और कुछ कम एक कोस ऊँचा है / वह अभ्युन्नत-ऊँची, सुकृत सुरचित वेदिकाओं, तोरणों तथा सुन्दर पुत्तलिकाओं से सुशोभित है / उसके उज्ज्वल स्तम्भ चिकने, विशिष्ट, सुन्दर प्राकार युक्त उत्तम वैडूर्य मणियों से निर्मित हैं। उसका भूमिभाग विविध प्रकार की मणियों और रत्नों से खचित है, उज्ज्वल है, अत्यन्त समतल तथा सुविभक्त है / उसमें ईहामृग-भेड़िया, वृषभ-बैल, तुरग-घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, कस्तूरी-मृग, शरभ-अष्टापद, चँवर, हाथी, वनलता, (नागलता, अशोकलता, चंपकलता, आम्रलता, वासन्तिकलता, अतिमुक्तकलता, कुदलता, श्यामलता) तथा पद्मलता के चित्र अंकित हैं / उसकी स्तूपिका-शिरोभाग स्वर्ण, मणि और रत्नों से निर्मित है / जैसा कि अन्यत्र वर्णन है, वह सिद्धायतन अनेक प्रकार की पंचरंगी मणियों से विभूषित है / उसके शिखरों पर अनेक प्रकार की पंचरंगी ध्वजाएँ तथा घंटे लगे हैं। वह सफेद रंग का है। वह इतना चमकीला है कि उससे किरणें प्रस्फुटित होती हैं। (वहाँ की भूमि गोबर आदि से लिपी है। उसकी दीवारें खड़िया, कलई आदि से पुती हैं / उसकी दीवारों पर गोशीर्ष चन्दन तथा सरस-आर्द्र लाल चन्दन के पांचों अंगुलियों और हथेली सहित हाथ की छापें लगी हैं। वहाँ चन्दन-कलश-चन्दन से चचित मंगल-घट रखे हैं। उसका प्रत्येक द्वार-भाग चन्दन-कलशों और तोरणों से सजा है / जमीन से ऊपर तक के भाग को छूती हुई बड़ी-बड़ी, गोल तथा लम्बी अनेक पुष्पमालाएँ वहाँ लटकती हैं / पाँचों रंगों के सरस-ताजे फूलों के ढेर के ढेर बहाँ चढ़ाये हुए हैं, जिनसे वह बड़ा सुन्दर प्रतीत होता है। काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथा धूप की गमगमाती महक से वहाँ का वातावरण बड़ा मनोज्ञ है, उत्कृष्ट सौरभमय है। सुगन्धित धुएँ की प्रचुरता से वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले से बन रहे हैं।) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र उस सिद्धायतन की तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं। वे द्वार पांच सौ धनुष ऊँचे और ढाई सौ धनुष चौड़े हैं / उनका उतना ही प्रवेश-परिमाण है। उनकी स्तुपिकाएँ श्वेत-उत्तम-स्वर्णनिर्मित हैं। द्वार' अन्यत्र वर्णित हैं। उस सिद्धायतन के अन्तर्गत बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है, जो मृदंग आदि के ऊपरी भाग के सदृशः समतल है / उस सिद्धायतन के बहुत समतल और सुन्दर भूमिभाग के ठीक बीच में देवच्छन्दक--देवासन-विशेष है। वह पांच सौ धनुष लम्बा, पाँच सौ धनुष चौड़ा और कुछ अधिक पाँच सौ धनुष ऊँचा है, सर्व रत्नमय है। यहाँ जिनोत्सेध परिमाण तीर्थंकरों की दैहिक ऊँचाई जितनी ऊँची एक सौ आठ जिन-प्रतिमाएँ हैं। उन जिन-प्रतिमाओं को हथेलियाँ और पगलियाँ तपनीय-स्वर्ण निर्मित हैं। उनके नख अन्तःखचित लोहिताक्ष-लाल रत्नों से युक्त अंक रत्नों द्वारा बने हैं, उनके चरण, गुल्फ टखने, जंघाएँ, जान-घुटने, उरु तथा उनकी देह-लताएँ कनकमय-स्वर्ण-निर्मित हैं, श्मश्रु रिष्टरत्न निर्मित है, नाभि तपनीयमय है, रोमराजि-केशपंक्ति रिष्ट रत्नमय है, चूचक-स्तन के अग्रभाग एवं श्रीवत्स–वक्षःस्थल पर बने चिह्न-विशेष तपनीयमय हैं, भुजाएँ, ग्रीवाएँ कनकमय हैं, ओष्ठ प्रवाल-मूगे से बने हैं, दाँत स्फटिक निर्मित हैं, जिह्वा और तालु तपनीयमय हैं, नासिका कनकमय है। उनके नेत्र अन्तःखचित लोहिताक्ष रत्नमय अंक-रत्नों से बने हैं, तदनुरूप पलकें हैं, नेत्रों की कनीनिकाएँ, अक्षिपत्र-नेत्रों के पर्दे तथा भौंहें रिष्ट-रत्नमय हैं, कपोल-गाल, श्रवण-कान तथा ललाट कनकमय हैं, शीर्ष-घटी-खोपड़ी वज्ररत्नमय है-हीरकमय है, केशान्त तथा केशभूमि-- मस्तक की चाँद तपनीयमय है, ऊपरी मूर्धा-मस्तक के ऊपरी भाग रिष्ट रत्नमय हैं। जिन-प्रतिमाओं में से प्रत्येक के पीछे दो-दो छत्रधारक प्रतिमाएँ हैं। वे छत्रधारक प्रतिमाएँ हिम-बर्फ, रजत-चाँदी, कुद तथा चन्द्रमा के समान उज्ज्वल, कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त, सफेद छत्र लिए हुए अानन्दोल्लास की मुद्रा में स्थित हैं। उन जिन-प्रतिमाओं के दोनों तरफ दो-दो ओवरधारक प्रतिमाएँ हैं / वे चँवरधारक प्रतिमाएँ चंद्रकांत, हीरक, वैडूर्य तथा नाना प्रकार की मणियों, स्वर्ण एवं रत्नों से खचित, बहुमूल्य तपनीय सदृश उज्ज्वल, चित्रित दंडों सहित हत्थों से युक्त, देदीप्यमान, शंख, अंक-रत्न, कुन्द, जल-कण, रजत, मथित अमृत के झाग की ज्यों श्वेत, चाँदी जैसे उजले, महीन, लम्बे बालों से युक्त धवल चँवरों को सोल्लास धारण करने की मुद्रा में या भावभंगी में स्थित हैं। उन जिन-प्रतिमाओं के आगे दो-दो नाग-प्रतिमाएँ, दो-दो यक्ष-प्रतिमाएँ, दो-दो भूत-प्रतिमाएँ तथा दो-दो आज्ञाधार-प्रतिमाएँ संस्थित हैं, जो विनयावनत, चरणाभिनत-चरणों में झुकी हुई और हाथ जोड़े हुए हैं। वे सर्व रत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल, चिकनी, घुटी हुई-सी-घिसी हुई-सी, तरासी हुई सी, रजरहित, कर्दमरहित तथा सुन्दर हैं / उन जिन-प्रतिमाओं के आगे एक सौ आठ घंटे, एक सौ आठ चन्दन-कलश-मांगल्य-घट, उसी प्रकार एक सौ आठ भूगार-झारियाँ, दर्पण, थाल, पात्रियाँ-छोटे पात्र, सुप्रतिष्ठान, मनोगु ----- -- --- - -- 1. देखें राजप्रश्नीय सूत्र 121-123 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार [21 लिका-विशिष्ट पीठिका, वातकरक, चित्रकरक, रत्न-करंडक, अश्वकंठ, वृषभकंठ, पुष्प-चंगेरिकाफूलों की डलिया, मयूरपिच्छ-चंगेरिका, पुष्प-पटल, मयूरपिच्छ-पटल तथा) धूपदान रखे हैं / दक्षिणार्ध भरतकट 20. कहि णं भते ! वेअड्डे पव्वए दाहिणभरहकडे णामं कूडे पण्णते ? गोयमा ! खंडप्पवायफडस्स पुरथिमेणं, सिद्धाययणकूडस्स पच्चरिथमेणं, एत्थ णं वेअड्डपध्वए दाहिणड्डभरहकूडे णामं कूडे पण्णत्ते-सिद्धाययणकूडप्पमाणसरिसे (छ सक्कोसाइं जोअणाई उड्डू उच्चत्तेणं, मूले छ सक्कोसाइं जोअणाई विक्खंभेणं, मज्झे देसूणाई पंच जोअणाई विक्खंभेणं, उरि साइरेगाई तिणि जोअणाई विक्खंमेणं, मूले देसूणाई बावीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, मझे देसूणाई पण्णरस जोअणाई परिक्खेवेणं, उरि साइरेगाइं गव जोअणाई परिक्खेवेणं, मूले वित्थिष्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए, सव्वरयणामए, अच्छे सण्हे जाव पडिरूवे। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते, पमाणं वण्णओ दोहंपि / दाहिणड्ढभरहकूउस्स णं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव वाणमंतरा देवा य जाव विहरति / ) तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायडिसए पण्णत्ते-कोसं उड्ड उच्चत्तेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसियपहसिए जाव' पासाईए 4 // तस्स णं पासायवडंसगस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिआ पण्णता-पंच धणुसयाई आयाम-विक्खंभेणं, अड्डाइज्जाहिं धणुसयाई बाहल्लेणं, सव्वमणिमई / तीसे णं मणिपेढिआए उपि सिंहासणं पण्णत्तं, सपरिवारं भाणियध्वं / / से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-दाहिणड्डभरहकूडे 2 ? ___गोयमा ! दाहिणड्डभरहकूडे णं दाहिणड्डभरहे णामं देवे महिड्डीए, (महज्जुईए, महब्बले, महायसे, महासोक्खे, महाणुभागे) पलिओवमट्ठिईए परिवसइ / से णं तत्थ चउण्हं सामाणिअसाहस्सोणं चउण्हं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्ताहं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, सोलसण्हं आयारक्खदेवसाहस्सोणं दाहिणड्डभरहकूडस्स दाहिणड्ढाए रायहाणीए अोस बहूणं देवाण य देवीण य जाव विहरइ। कहि णं भते ! दाहिणड्डभरहकूडस्स देवस्स दाहिणड्डा णाम रायहाणी पण्णता? गोयमा ! मंदरस्स पन्वयस्स दक्षिणेणं तिरियमसंखेज्जदीवसमुद्दे वीईवइत्ता, अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे दक्खिणणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ ण दाहिणभरहकूडस्स देवस्स दाहिणड्डभरहा णामं रायहाणी भाणिअव्वा जहा विजयस्स देवस्स, एवं सव्वकूडा णेयव्वा (-सिद्धाययणकूडे, दाहिणट्टभरहकूडे, खंडष्पवायगुहाकूडे, मणिभद्दकडे, वेअड्डकूडे, पुण्णभद्दकडे, 1. देखें सूत्र संख्या 4 2. देखें सूत्र संख्या 12 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र तिमिसगुहाकूडे, उत्तरभरहकूडे,) येसमणकूडे परोप्परं पुरस्थिमपच्चस्थिमेणं, इमेसि वण्णावासे गाहा मझ वेअड्ढस्स उ कणगमया तिण्णि होंति कूडा उ / सेसा पव्वयकूडा सव्वे रयणामया होति // मणिभद्दकूडे 1, वेअडकूडे 2, पुण्णभद्दकूडे ३–एए तिण्णि कूडा कणगामया, सेसा छप्पि रयणमया दोण्हं विसरिसणायमा देवा कयमालए चेव गट्टमालए चेव, सेसाणं छण्हं सरिसणामयाजण्णामया य कूडा तन्नामा खलु हवंति ते देवा। पलिओवमट्टिईया हवंति पत्तेयं पत्तेयं / रायहाणोश्रो जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं तिरिनं असंखेज्जदीवसमुद्दे वोईवइत्ता अण्णमि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोअणसहस्साई ओगाहिता, एत्थ णं रायहाणीयो भाणिअवाओ विजयरायहाणीसरिसयाओ। [20] भगवन् ! वैताढ्य पर्वत का दक्षिणार्ध भरतकूट नामक कूट कहाँ है ? गौतम ! खण्डप्रपातकट के पूर्व में तथा सिद्धायतनकूट के पश्चिम में वैताढ्य पर्वत का दक्षिणार्ध भरतकट है। उसका परिमाण आदि वर्णन सिद्धायतनकट के बराबर है। ( ह योजन एक कोस ऊँचा, मूल में छह योजन एक कोस चौडा, मध्य में कुछ कम पांच योजन चौड़ा तथा ऊपर कुछ अधिक तीन योजन चौड़ा है / मूल में उसकी परिधि कुछ कम बाईस योजन की, मध्य में कुछ कम पन्द्रह योजन की तथा ऊपर कुछ अधिक नौ योजन की है। वह मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्तसंकुचित या संकड़ा तथा ऊपर पतला है। वह गोपुच्छसंस्थानसंस्थित है— गाय के पूछ के आकारजैसा है / वह सर्व रत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल तथा सुन्दर है। वह एक पद्मवरवेदिका एवं एक वनखंड से सब ओर से परिवेष्टित है। दोनों का परिमाण पूर्ववत् है। दक्षिणार्ध भरतकूट के ऊपर अति समतल तथा रमणीय भूमिभाग है / वह मुरज या ढोलक के ऊपरी भाग जैसा समतल है / वहाँ वाणव्यन्तर देव और देवियां विहार करते हैं।) दक्षिणार्ध भरतकूट के प्रति समतल, सुन्दर भूमिभाग में एक उत्तम प्रासाद है। वह एक कोस ऊँचा और प्राधा कोस चौड़ा है / अपने से निकलती प्रभामय किरणों से वह हँसता-सा प्रतीत होता है, बड़ा सुन्दर है / उस प्रासाद के ठीक बीच में एक विशाल मणिपीठिका है। वह पाँच सौ धनुष लम्बीचौड़ी तथा अढाई सी धनुष मोटी है, सर्वरत्नमय है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक सिंहासन है। उसका विस्तृत वर्णन अन्यत्र द्रष्टव्य है। भगवन् ! उसका नाम दक्षिणार्ध भरतकूट किस कारण पड़ा ? गौतम ! दक्षिणार्ध भरतकूट पर अत्यन्त ऋद्धिशाली, (द्युतिमान, बलवान्, यशस्वी, सुखसम्पन्न एवं.सौभाग्यशाली) एक पल्योपमस्थितिक देव रहता है। उसके चार हजार सामानिक देव, अपने परिवार से परिवृत चार अग्रमहिषियाँ, तीन परिषद्, सात सेनाएँ, सात सेनापति तथा सोलह हजार प्रात्मरक्षक देव हैं / दक्षिणार्ध भरतकूट की दक्षिणार्धा नामक राजधानी है, जहाँ वह अपने इस देव-परिवार का तथा बहुत से अन्य देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ सुखपूर्वक निवास करता है, विहार करता है--सुख भोगता है / भगवन ! दक्षिणार्ध भरतकूट नामक देव की दक्षिणार्धा नामक राजधानी कहाँ है ? Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार] [23 गौतम ! मन्दर पर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्यात द्वीप और समुद्र लाँघकर जाने पर अन्य जम्बूद्वीप है। वहाँ दक्षिण दिशा में बारह सौ योजन नीचे जाने पर दक्षिणार्ध भरतकूट देव की दक्षिणार्धभरता नामक राजधानी है। उसका वर्णन विजयदेव की राजधानी के सदृश जानना चाहिए। (दक्षिणार्धभरतकट, खंडप्रपातकट, मणिभद्रकट, वैताढ्यकट, पूर्णभद्रकुट, तिमिसगुहाकूट, उत्तरार्धभरतकट,) वैश्रमणकट तक-इन सबका वर्णन सिद्धायतनकट जैसा है। ये क्रमशः पूर्व से पश्चिम की ओर हैं। इनके वर्णन की एक गाथा है वैताढ्य पर्वत के मध्य में तीन कूट स्वर्णमय हैं, बाकी के सभी पर्वतकूट रत्नमय हैं। मणिभद्रकूट, वैताढ्यकूट एवं पूर्णभद्रकूट-ये तीन कट स्वर्णमय हैं तथा बाकी के छह कूट रत्नमय हैं / दो पर कृत्यमालक तथा नृत्यमालक नामक दो विसदृश नामों वाले देव रहते हैं / बाकी के छह कूटों पर कूटसदृश नाम के देव रहते हैं। कूटों के जो-जो नाम हैं, उन्हीं नामों के देव वहाँ हैं / उनमें से प्रत्येक पल्योपमस्थितिक है / मन्दर पर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्येय द्वीप समुद्रों को लांघते हुए अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन नीचे जाने पर उनकी राजधानियां हैं। उनका वर्णन विजया राजधानी जैसा समझ लेना चाहिए। 21. से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ वेअड्डे पव्वए ? गोयमा ! बेअड्डेणं पव्वए भरहं वासं दुहा विभयमाणे 2 चिट्ठइ, तंजहा–दाहिणड्डभरहं च उत्तरभरहं च / वेअड्डगिरिकुमारे अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव' पलिओवमटिइए परिवसइ / से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-वेअड्डे पव्वए 2 / अदुत्तरं च णं गोयमा! वेअड्डस्स पव्वयस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ ण अस्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुवि च, भवइ अ, भविस्सइ अ, धुवे, णिअए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे। [21] भगवन् ! वैताढ्य पर्वत को 'वैताढ्य पर्वत' क्यों कहते हैं ? गौतम ! वैताढ्य पर्वत भरत क्षेत्र को दक्षिणार्ध भरत तथा उत्तरार्ध भरत नामक दो भागों में विभक्त करता हुआ स्थित है। उस पर वैताढ्यगिरिकुमार नामक परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपमस्थितिक देव निवास करता है / इन कारणों से वह वैताढ्य पर्वत कहा जाता है। . गौतम ! इसके अतिरिक्त वैताढ्य पर्वत का नाम शाश्वत है। यह नाम कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, यह कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है और यह कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है। यह था, यह है, यह होगा, यह ध्रव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं नित्य है। जम्बूद्वीप में उत्तरार्ध भरत का स्थान : स्वरूप 22. कहि णं भते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्डभरहे णामं वासे पण्णत्ते ? गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, वेअट्टस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, पुरस्थिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे उत्तरढभरहे 1. देखें सूत्र संख्या 14 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र णाम वासे पण्णत्ते-पाईणपडीणायए, उदोणदाहिणवित्थिपणे, पलिअंकसंठिए, दुहा लवणसमुदं पुढे, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, पच्चस्थिमिल्लाए (कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुई) पुट्ठ, गंगासिंधूहि महाणहि तिभागपविभत्ते, दोण्णि अतृतीसे जोअणसए तिण्णि श्र एगणवीस इभागे जोअणस्स विक्खंभेणं / तस्स बाहा पुरथिमपच्चत्थिमेणं अट्ठारस बाणउए जोअणसए सत्त य एगूणवीसइभागे जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं / तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुदं पुट्ठा, तहेव (पुरथिमिल्लाए कोडोए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा,) चोद्दस जोअणसहस्साई चत्तारि अ एक्कहत्तरे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स किंचि विसेसूणे आयामेणं पण्णत्ता। तीसे धणुपिट्ठ दाहिणणं चोद्दस जोपणसहस्साई पंच अट्ठावीसे जोअणसए एक्कारस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं / उत्तरड्डभरहस्स णं भंते ! बासस्स केरिसए पायारभावपडोयारे पण्णते ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव' कितिहि चेव अकित्तिमेहि चेव / उत्तरड्डभरहे णं भंते ! वासे मणुप्राणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते? गोयमा ! ते णं मणुप्रा बहुसंघयणा, (बहुसंठाणा, बहुउच्चत्तपज्जवा, बहुआउपज्जवा, बहूई वासाई पाउं पालेंति, पालित्ता अप्पेगइया गिरयगामी, अप्पेगइया तिरियगामी, अप्पेगइया मणुयगामी, अप्पेगइया देवगामी, अप्पेगइया) सिझति (बुझंति मुचंति परिणिव्वायंति) सव्वदुक्खाणमंतं करेंति / [22] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरत नामक क्षेत्र कहाँ है ? गौतम ! चुल्ल हिमवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, वैताढ्य पर्वत के उत्तर में, पूर्व-लवणसमुद्र के पश्विम में, पश्चिम-लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरत नामक क्षेत्र है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा और उत्तर-दक्षिण चौड़ा है, पर्यक-संस्थान-संस्थित है—आकार में पलंग जैसा है / वह दोनों तरफ लवण-समुद्र का स्पर्श किये हुए है / अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का (तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का) स्पर्श किये हुए है। वह गंगा महानदी तथा सिन्धु महानदी द्वारा तीन भागों में विभक्त है / वह २३८योजन चौड़ा है। उसकी बाहा-भुजाकार क्षेत्र विशेष पूर्व-पश्चिम में 18923 // योजन लम्बा है / उसकी जीवा उत्तर में पूर्व-पश्चिम लम्बी है, लवणसमुद्र का दोनों ओर से स्पर्श किये हुए है। 1. देखें सूत्र संख्या 6 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वक्षस्कार] [25 (अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है ) / इसकी लम्बाई कुछ कम 144711 योजन है।। उसकी धनुष्य-पीठिका दक्षिण में 14528, योजन है / यह प्रतिपादन परिक्षेप-परिधि की अपेक्षा से है। भगवन् ! उत्तरार्ध भरतक्षेत्र का प्राकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय है। वह मुरज या ढोलक के ऊपरी भाग जैसा समतल है, कृत्रिम तथा अकृत्रिम मणियों से सुशोभित है। भगवन् ! उत्तरार्ध भरत में मनुष्यों का प्राकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उत्तरार्ध भरत में मनुष्यों का संहनन, (संस्थान, ऊँचाई, आयुष्य बहुत प्रकार का है / वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हैं / आयुष्य भोगकर कई नरकगति में, कई तिर्यचगति में, कई मनुष्यगति में, कई देवगति में जाते हैं, कई) सिद्ध, (बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त) होते हैं, समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। ऋषभकट 23. कहि णं भंते ! जंबुद्दोवे दीवे उत्तरभरहे वासे उसभकूडे णामं पव्वए पण्णत्ते? गोयमा ! गंगाकुडस्स पच्चस्थिमेणं, सिंधुकुडस्स पुरस्थिमेणं, चुल्लहिमवंतस्स वासहरपग्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे, एत्थ णं जंबुद्दीवे दोवे उत्तरढभरहे बासे उसहकूडे णामं पम्वए पण्णत्ते-- अट्ठ जोगणाई उड्ड उच्चत्तेणं, दो जोषणाइं उन्हेणं, मूले अट्ठ जोअणाई विक्खंभेणं, मज्झे छ जोअणाई विक्खंभेणं, उरि चत्तारि जोअणाई विक्खंभेणं, मूले साइरेगाइं पणवीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, मज्झे साइरेगाई अट्ठारस जोअणाई परिक्खेवेणं, उरि साइरेगाइं दुवालस जोषणाई परिक्खेवेणं' / मूले वित्थिण्णे, मज्झे संक्खित्ते, उपि तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए, सव्वजंबूणयामए, अच्छे, सण्हे, जाव पडिलवे। से गं एगाए पउमवरवेइमाए तहेव (एगेण य वणसंडेण सन्चओ समंता संपरिक्खित्ते। उसहफूडस्स णं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते / से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव वाणमंतरा जाव विहरंति / तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे महं एगे भवणे पण्णत्ते) कोसं पायामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसऊणं कोसं उड्ड उच्चत्तेणं, अट्ठो तहेव, उप्पलाणि, पउमाणि (सहस्सपत्ताई, सयसहस्सपत्ताई-उसहकूडप्पभाई, उसहकूडवण्णाई)। उसभे अ एत्थ देवे महिजोए जाव दाहिणणं रायहाणी तहेव मंदरस्स पव्वयस्स जहा विजयस्स अविसेसियं / 1. पाठान्तरम्—मूले बारस जोषणाई विक्खंभेणं, मज्झे अट्ठ जोगणाइं विखंभेणं, उप्पि चत्तारि जोषणाई विक्खंभेणं, मूले साइरेगाई सत्तत्तीसं जोअणाई परिवखेवेणं, मज्झे साइरेगाई पणवीस जोप्रणाई परिक्खेवेणं, उप्पि साइरेगाइं बारस जोषणाई परिक्खेवेणं / 2. देखें सूत्र संख्या 4 3. देखें सूत्र संख्या 14 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र [23] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में ऋषभकूट नामक पर्वत कहाँ है ? गौतम ! हिमवान् पर्वत के जिस स्थान से गंगा महानदी निकलती है, उसके पश्चिम में, जिस स्थान से सिन्धु महानदी निकलती है, उसके पूर्व में, चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिणी नितम्बमेखला-सन्निकटस्थ प्रदेश में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में ऋषभकूट नामक पर्वत है / वह पाठ योजन ऊँचा, दो योजन गहरा, मूल में आठ योजन चौड़ा, बीच में छह योजन चौड़ा तथा ऊपर चार योजन चौड़ा है / मूल में कुछ अधिक पच्चीस योजन परिधियुक्त, मध्य में कुछ अधिक अठारह योजन परिधियुक्त तथा ऊपर कुछ अधिक बारह योजन परिधि युक्त है। मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त संकड़ा तथा ऊपर तनुक–पतला है / वह गोपुच्छ-संस्थान-संस्थित आकार में गाय की पूँछ जैसा है, सम्पूर्णत: जम्बूनद-स्वर्णमय—जम्बूनद जातीय स्वर्ण से निर्मित है, स्वच्छ, सुकोमल एवं सुन्दर है। वह एक पद्मवरवेदिका (तथा एक वनखण्ड द्वारा चारों ओर से परिवेष्टित है। ऋषभकूट के ऊपर एक बहुत समतल रमणीय भूमिभाग है / वह मुरज के ऊपरी भाग जैसा समतल है / वहाँ वाणव्यन्तर देव और देवियाँ विहार करते हैं / उस बहुत समतल तथा रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल भवन है)। वह भवन एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा, कुछ कम एक कोस ऊँचा है / भवन का वर्णन वैसा ही जानना चाहिए जैसा अन्यत्र किया गया है। वहाँ उत्पल,पद्म (सहस्रपत्र, शत-सहस्रपत्र आदि हैं)। ऋषभकूट के अनुरूप उनकी अपनी प्रभा है, उनके वर्ण हैं / वहाँ परम समृद्धिशाली ऋषभ नामक देव का निवास है, उसकी राजधानी है, जिसका वर्णन सामान्यतया मन्दर पर्वत गत विजय-राजधानी जैसा समझना चाहिए। 10 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार भरतक्षेत्र : काल-वर्तन 24. जंबुद्दोवे गं भंते ! दीवे भारहे वासे कतिविहे काले पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे काले पण्णते, तं जहा-ओसप्पिणिकाले अ उस्सप्पिणिकाले प्र। प्रोसप्पिणिकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! छविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुसमसुसमाकाले 1, सुसमाकाले 2, सुसमदुस्समाकाले 3, दुस्समसुसमाकाले 4, दुस्समाकाले 5, दुस्समदुस्समाकाले 6 / उस्सप्पिणिकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! छविहे पण्णत्ते, तंजहा–दुस्समदुस्समाकाले 1, (दुस्समाकाले 2, दुस्समसुसमाकाले 3, सुसमदुस्समाकाले 4, सुसमाकाले 5, सुसमसुसमाकाले 6 / ) एगमेगस्स णं भंते ! मुहुत्तस्स केवइया उस्सासद्धा विआहिआ? गोयमा ! असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलिभत्ति वुच्चा, संखिज्जाश्रो पावलिआओ ऊसासो, संखिज्जालो आवलिआमो नीसासो, हट्ठस्स अणवगल्लस्स, णिस्वकिट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे, एस पाणत्ति वुच्चई // 1 // सत्त पाणूई से थोवे, सत्त थोवाइं से लवे / लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्तेत्ति प्राहिए // 2 // तिणि सहस्सा सत्त य, सयाई तेवरिं च ऊसासा / एस मुत्तो भणिओ, सम्वेहि अणंतनाणोहिं // 3 // एएणं मुहुत्तप्पमाणेणं तीसं मुहुत्ता अहोरत्तो, पण्णरस अहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मासो, दो मासा उऊ, तिणि उऊ अयणे, दो अयणा संवच्छरे, पंचसंवच्छरिए जुगे, वीसं जुगाई वाससए, दस वाससयाई वाससहस्से, सयं वाससहस्साणं वाससयसहस्से, चउरासीइं वाससयसहस्साइं से एगे पुष्वंगे, चउरासीह पुव्वंगसयसहस्साई से एगे पुग्वे, एवं विगुणं विगुणं अव्वं; तुडिअंगे, तुडिए, अडडंगे, अडडे, अववंगे, अववे, हुहुअंगे, हुहुए, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, गलिणंगे, णलिणे, अत्थणिउरंगे, अत्थणिउरे, अजुअंगे, अजुए, नजुअंगे, नजुए, पजुअंगे, पजुए, चूलिअंगे, चूलिए, सीसपहेलिअंगे, सीसपहेलिए, जाव चउरासीई सोसपहेलिअंगसयसहस्साई सा एगा सीसपहेलिया। एताव ताव गणिए, एताव ताव गणिअस्स विसए, तेणं परं ओवमिए / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र [24] भगवन ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में कितने प्रकार का काल कहा गया है ? गौतम ! दो प्रकार का काल कहा गया है—अवसर्पिणी काल तथा उत्सर्पिणी काल / भगवन् ! अवसर्पिणी काल कितने प्रकार का है ? गौतम ! अवसर्पिणी काल छह प्रकार का है-जैसे 1. सुषम-सुषमाकाल, 2. सुषमाकाल, 3. सुषम-दुःषमाकाल, 4. दुःषम-सुषमाकाल, 5. दुःषमाकाल, 6. दुःषम-दुःषमाकाल / भगवन् ! उत्सर्पिणी काल कितने प्रकार का है ? गौतम ! छह प्रकार का है-जैसे 1. दुःषम-दुःषमाकाल, (2. दुःषमाकाल, 3. दुःषमसुषमाकाल, 4. सुषम-दुःषमाकाल, 5. सुषमाकाल, 6. सुषम-सुषमाकाल)।। भगवन् ! एक मुहूर्त में कितने उच्छ्वास-निःश्वास कहे गए हैं ? गौतम ! असंख्यात समयों के समुदाय रूप सम्मिलित काल को आवलिका कहा गया है। संख्यात पावलिकाओं का एक उच्छ्वास तथा संख्यात पावलिकाओं का एक निःश्वास होता है / हृष्ट-पुष्ट, अग्लान, नीरोग प्राणी का-मनुष्य का एक उच्छ्वास-निःश्वास प्राण कहा जाता है। सात प्राणों का एक स्तोक होता है। सात स्तोकों का एक लव होता है / सत्तहत्त तहत्तर लवों का एक मुहूर्त होता है / यो तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छ्वास-नि:श्वास का एक मुहूर्त होता है। ऐसा अनन्त ज्ञानियों ने सर्वज्ञों ने बतलाया है। इस मुहूर्तप्रमाण से तीस मुहूत्तों का एक अहोरात्र--दिन-रात, पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मासों की एक ऋतु, तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयनों का एक संवत्सरवर्ष, पांच वर्षों का एक युग, बीस युगों का एक वर्ष-शतक-शताब्द या शताब्दी, दश वर्षशतकों का एक वर्ष-सहस्र-एक हजार वर्ष, सौ वर्षसहस्रों का एक लाख वर्ष, चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वांग, चौरासी लाख पूर्वागों का एक पूर्व होता हैं अर्थात्-८४०००००४८४००००० - 70560000000000 वर्षों का एक पूर्व होता है। चौरासी लाख पूर्वो का एक त्रुटितांग, चौरासी लाख त्रुटितांगों का एक त्रुटित, चौरासी लाख त्रुटितों का एक अडडांग, चौरासी लाख अडडांगों का एक अडड, चौरासी लाख अडडों का एक अववांग, चौरासी लाख अववांगों का एक अवव, चौरासी लाख अववों का एक हुहुकांग, चौरासी लाख हुहुकांगों का एक हुहुक, चौरासी लाख हुहुकों का एक उत्पलांग, चौरासी लाख उत्पलांगों का एक उत्पल, चौरासी लाख उत्पलों का एक पद्मांग, चौरासी लाख पद्मांगों का एक पद्म, चौरासी लाख पद्मों का एक नलिनांग, चौरासी लाख नलिनांगों का एक नलिन, चौरासी लाख नलिनों का एक अर्थनिपुरांग, चौरासी लाख अर्थनिपुरांगों का एक अर्थनिपुर, चौरासी लाख अर्थनिपुरों का एक अयुतांग, चौरासी लाख अयुतांगों का एक अयुत, चौरासी लाख अयुतों का एक नयुतांग, चौरासी लाख नयुतांगों का एक नयुत, चौरासी लाख नयुतों का एक प्रयुतांग, चौरासी लाख प्रयुतांगों का एक प्रयुत, चौरासी लाख प्रयुतों का एक चूलिकांग, चौरासी लाख चलिकांगों की एक चलिका, चौरासी लाख चलिकाओं का एक शीर्षप्रहेलिक ग तथा चौरासी लाख शीर्षप्रहेलिकांगों की एक शीर्षप्रहेलिका होती है। यहाँ तक अर्थात् समय से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक काल का गणित है / यहाँ तक ही गणित का विषय है। यहाँ से आगे औपमिक-उपमा-आधृत काल है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] काल का विवेचन : विस्तार 25. से कि तं उयमिए ? उवमिए दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पलिओवमे असागरोवमे अ। से कि तं पलिप्रोवमे ? पलिनोवमस्स परूवणं करिस्सामि-परमाणू दुविहे पण्णत्ते, तंजहा–सुहमे अ वावहारिए अ, अणंताणं सुहुमपरमाणुपुग्गलाणं समुदयसमिइसमागमेणं वावहारिए परमाणू णिप्फज्जइ, तत्थ णो सत्थं कमइ सत्येण सुतिक्षणवि, छत्तु भित्तुं च जं किर ण सक्का। तं परमाणु सिद्धा, वयंति आई पमाणाणं // 1 // वावहारिअपरमाणूणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा उस्सहसण्हिआइ वा, सण्हिसहिआइ वा, उद्धरेणूइ वा, तसरेणूइ वा, रहरेणूइ वा, वालग्गेइ वा, लिक्खाइ वा, जूनाइ वा, जवमझेइ वा, उस्सेहंगुले इ वा, अट्ठ उस्सण्हसहिआओ सा एगा सण्हसहिया, अट्ठ सहसहियानो सा एगा उद्धरेणू, अट्ठ उद्धरेणूओ सा एगा तसरेणू, अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, अट्ठ रहरेणूओ से एगे देवकुरुत्तरकुराण मणुस्साणं वालग्गे, अट्ठ देवकुरुत्तरकुराण मणुस्साणं वालग्गा, से एगे हरिवासरम्मयवासाण मणुस्साणं वालग्गे, एवं हेमवयहेरण्णवयाण मणुस्साणं, अट्ठ पुन्वविदेहअवर विदेहाणं मणुस्साणं वालग्गा सा एगा लिक्खा, अट्ट लिक्खायो सा एगा जूआ, अट्ट जूआओ से एगे जवमझे, अट्ठ जवमझा से एगे अंगुले। एएणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पाओ, बारस अंगुलाई विहत्थी, चउवीसं अंगुलाई रयणी, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छो, छण्णउइ अंगुलाई से एगे अक्खेइ वा, दंडेइ वा, धणूइ वा, जुगेइ वा, मुसलेइ वा, णालिआइ वा / एएणं धणुप्पमाणेणं दो घणुसहस्साई गाउअं, चत्तारि गाउआई जोअणं / एएणं जोअणप्पमाणेणं जे पल्ले, जोअणं आयामविक्खंभेणं, जोयणं उडू उच्चत्तणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले एगाहिअबेहियतेहि उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं संभट्ठ, सण्णिचिए, भरिए वालग्गकोडोणं / ते णं वालग्गा णो कुत्थेज्जा, णो परिविद्ध सेज्जा, णो अग्गी डहेज्जा, णो वाए हरेज्जा, जो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा। तओ णं वाससए 2 एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खोणे, गोरए, पिल्लेवे, णिट्ठिए भवइ से तं पलिओवमे / एएस पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिमा / तं सागरोवमस्स उ, एगस्स भवे परीमाणं // 1 // एएणं सागरोवमप्पमाणेणं चत्तारिसागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा 1, तिष्णि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमा 2, दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमदुस्समा 3, एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहि ऊणियो कालो दुस्समसुसमा 4, एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुस्समा 5, एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुस्समदुस्समा 6, पुणरवि Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र उस्सप्पिणीए एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुस्समदुस्समा 1 एवं पडिलोमं णेयव्वं (एकवीसं वाससहस्साई कालो दुस्समदुस्समा 1, एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दुस्समा 2, एगा सागरोक्मकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहि ऊणिओ कालो दुस्समसुसमा 3, दो सागरोबमकोडाकोडीओ कालो सुसमदुस्समा 4, तिणि सागरोवमकोडाकोडीमो कालो सुसमा 5) चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा 6, दससागरोवमकोडाकोडीओ कालो पोसप्पिणी, दससागरोवमकोडाकोडीओ कालो उस्सप्पिणी, वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी-उस्सप्पिणी। [25] भगवन् ! औपमिक काल का क्या स्वरूप है, वह कितने प्रकार का है ? गौतम ! औपमिक काल दो प्रकार का है—पल्योपम तथा सागरोपम / भगवन् ! पल्योपम का क्या स्वरूप है ? गौतम ! पल्योपम की प्ररूपणा करूगा-(इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है-) परमाणु दो प्रकार का है—(१) सूक्ष्म परमाणु तथा (2) व्यावहारिक परमाणु / अनन्त सूक्ष्म परमाणु-पुद्गलों के एकभावापन्न समुदाय से व्यावहारिक परमाणु निष्पन्न होता है / उसे (व्यावहारिक परमाणु को) शस्त्र काट नहीं सकता। कोई भी व्यक्ति उसे तेज शस्त्र द्वारा भी छिन्न-भिन्न नहीं कर सकता। ऐसा सर्वज्ञों ने कहा है / वह (व्यावहारिक परमाणु) सभी प्रमाणों का आदि कारण है / ___ अनन्त व्यावहारिक परमाणुओं के समुदय-संयोग से एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है / पाठ उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणकाओं की एक श्लक्ष्णश्लक्षिणका होती है। पाठ श्लक्ष्णश्लक्षिणकाओं का एक उर्ध्वरेणु होता है। पाठ ऊर्ध्वरेणुओं का एक त्रसरेणु होता है। आठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु (रथ के चलते समय उड़ने वाले रज-कण) होता है / पाठ रथरेणुओं का देवकुरु तथा उत्तरकुरु निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है / इन आठ बालानों का हरिवर्ष तथा रम्यकवर्ष के निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है / इन आठ बालानों का हैमवत तथा हैरण्यवत निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है / इन आठ बालानों का पूर्वविदेह एवं अपरविदेह के निवासी मनुष्यों का एक बालाग्र होता है / इन आठ बालारों की एक लीख होती है। पाठ लीखों की एक जू होती है। पाठ जूओं का एक यवमध्य होता है / आठ यवमध्यों का एक अंगुल होता है। छः अंगुलों का एक पाद-पादमध्य-तल होता है / बारह अंगुलों की एक बितस्ति होती है। चौवीस अंगुलों की एक रनि-हाथ होता है। अड़तालीस अंगुलों की एक कुक्षि होती है / छियानवे अंगुलों का एक प्रक्ष-पाखा-शकट का भागविशेष होता है / इसी तरह छियानवे अंगुलों का एक दंड, धनुष, जुआ, मूसल तथा नलिका--एक प्रकार की यष्टि होती है। दो हजार धनुषों का एक गव्यूत-कोस होता है। चार गव्यूतों का एक योजन होता है। इस योजन-परिमाण से एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा, एक योजन ऊँचा तथा इससे तीन गुनी परिधि युक्त पल्य-धान्य रखने के कोठे जैसा हो। देवकुरु तथा उत्तरकुरु में एक दिन, दो दिन, तीन दिन, अधिकाधिक सात दिन-रात के जन्मे यौगलिक के प्ररूढ बालानों से उस पल्य को इतने सघन, ठोस, निचित, निविड रूप में भरा जाए कि वे बालाग्र न खराब हों, न विध्वस्त हों, न उन्हें Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] [31 अग्नि जला सके, न वायु उड़ा सके, न वे सड़ें-गले.-दुर्गन्धित हों। फिर सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक बालाग्र निकाले जाते रहने पर जब वह पल्य बिल्कुल रीता हो जाए, रजरहित-धूलकण-सदृश बालागों से रहित हो जाए, निलिप्त हो जाए—बालान कहीं जरा भी चिपके न रह जाएं, सर्वथा रिक्त हो जाए, तब तक का समय एक पल्योपम' कहा जाता है। ऐसे कोड़ाकोड़ी पल्योपम का दस गुना एक सागरोपम का परिमाण है। ऐसे सागरोपम परिमाण से सुषमसुषमा का काल चार कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषमा का काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषमदुःषमा का काल दो कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, दु:षमसुषमा का काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, दुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष तथा दुःषमदुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष है / यह अवसर्पिणी काल के छह प्रारों का परिमाण है / उत्सर्पिणी काल का परिमाण इससे प्रतिलोम-उलटा-(दुःषमदुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष, दुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष, दुःषमसुषमा का काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषमदुःषमा का काल दो कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषमा का काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागरोपम तथा) सुषमसुषमा का काल चार कोड़ा-कोड़ी सागरोपम है। इस प्रकार अवसर्पिणी का काल दस सागरोपम कोड़ा-कोड़ी है तथा उत्सर्पिणी का काल भी दस सागरोपम कोड़ा-कोड़ी है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी—दोनों का काल बीस कोड़ा-कोड़ी साग़रोपम है। अवसर्पिणी : सुषमसुषमा 26. जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे भरहे वासे इमोसे ओस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए उत्तमकट्टपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे होत्था ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव' णाणामणिपंचवणेहि तणेहि य मणीहि य उवसोभिए, तंजहा- किण्हेहि, (नोलेहि, लोहिएहि, हलिहि,) सुक्किल्लेहिं / एवं वण्णो, गंधो, रसो, फासो, सद्दो अतणाण य मणीण य भाणिप्रव्यो जाव तत्थ णं बहवे मणुस्सा मणुस्सीनो अप्रासयंति, सयंति, चिट्टति, णिसोअंति, तुअट्टति, हसंति, रमंति, ललंति / तीसे णं समाए भरहे वासे बहवे उद्दाला कुद्दाला मुद्दाला कयमाला गट्टमाला दंतमाला नागमाला सिंगमाला संखमाला सेअमाला णामं दुमगणा पण्णत्ता, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला, मूलमंतो, कंदमंतो, (खंधमंतो, तयामंतो, सालमंतो, पवालमंतो, पत्तमंतो, पुष्फमती, फलमंतो,) बोअमंतो; पत्तेहि भ पुप्फेहि अ फलेहि प्र उच्छण्णपडिच्छण्णा, सिरीए अईव 2 उवसोभेमाणा चिट्ठति। तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ बहवे भेरुतालवणाई हेरुतालवणाई मेरुतालवणाई 1. देखें सूत्र संख्या 6 // Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पभयालवणाई सालवणाई सरलवणाई सत्तिवण्णवणाई पूअफलिवणाई खज्जरीवणाई णालिएरीवणाई कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूलाई जाव' चिट्ठति / तोसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ बहवे सेरिआगुम्मा गोमालिआगुम्मा कोरंटयगुम्मा बंधुजीवगगुम्मा मणोज्जगुम्मा बीअगुम्मा बाणगुम्मा कणइरगुम्मा कुज्जयगुम्मर सिंदुवारगुम्मा मोग्गरगुम्मा जूहिसागुम्मा मल्लियागुम्मा वासंतिआगुम्मा वत्थुलगुम्मा कत्थुलगुम्मा सेवालगुम्मा अगत्थिगुम्मा मगदंतिआगुम्मा चंपक गुम्मा जाइगुम्मा णवणीइआगुम्मा कुदगुम्मा महाजाइगुम्मा रम्मा महामेहणिकुरंबभूमा दसद्धवणं. कुसुमं कुसुमें ति; जे णं भरहे वासे बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं वायविधुअग्गसाला मुक्कपुष्फपुजोवयारकलिग्रं करेंति / तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ तहिं तहिं बहुईओ पउमलयात्रो (णागलयाओ असोअलयानो चंपगलयानो चूयलयानो वणलयानो वासंतियलयानो अइमुत्तयलयाओ कुंदलयाओ) सामलयाओ णिच्चं कुसुमिआओ, (णिच्चं माइयाओ, णिच्चं लवइयानो, णिच्चं थवइयाओ, णिच्चं गुलइयाओ, णिच्चं गोच्छियाप्रो, णिच्चं जमलियाओ, णिच्च जुवलियाओ, णिच्चं विणमियानो, णिच्चं पणमियाओ, णिच्चं कुसुमियमाइयलवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुवलियविणमियपणमिय-सुविभत्तपिंडमंजरिवडिसयधराओ) लयावष्णो / तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तहि तहिं बहुईओ वणराईओ पण्णत्तानो--किण्हाप्रो, किण्होभासाओ जाव' मणोहरायो, रयमत्तगछप्पयकोरंग-भिंगारग-कोंडलग-जीवंजीवग-नंदीमुहकविल-पिंगलक्खग-कारंडव-चक्कवायग-कलहंस-हंस-सारस-अणेगसउणगण-मिहुणविअरिनाओ, सधुणइयमहुरसरणाइयायो, संपिडिप्रदरियभमरमहुयरिपहकरपरि लिंतमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमंतगुजंतदेसभागाओ, अभितरपुष्फ-फलाओ, बाहिरपत्तोच्छण्णाभो, पत्तेहि य पुप्फेहि य अोच्छन्नवलिच्छत्ताओ, साउफलाओ, निरोययानो, अकंटयाओ, णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहियानो, विचित्तसुहकेउभूयाओ, वावी-पुक्खरिणी-दोहियासुनिवेसियरम्मजालहरयाओ, पिडिम-णीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च महयागंधद्धाणि मुयंताओ, सम्वोउयपुप्फफलसमिद्धाओ, सुरम्मानो पासाईयायो, दरिसणिज्जाओ, अभिरूवानो, पडिरूवानो। [26] जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल के सुषमसुषमा नामक प्रथम बारे में, जब वह अपने उत्कर्ष को पराकाष्ठा में था, भरतक्षेत्र का प्राकार-स्वरूप-अवस्थिति--सब किस प्रकार का था ? गौतम ! उसका भूमिभाग बड़ा समतल तथा रमणीय था। मुरज के ऊपरी भाग की ज्यों वह समतल था। नाना प्रकार की काली, (नीली, लाल, हल्दी के रंग की-पीली तथा) सफेद 1. देखें सूत्र यही 2. देखें सूत्र संख्या 6 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार [33 मणियों एवं तृणों से वह उपशोभित था / तृणों एवं मणियों के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा शब्द अन्यत्र वणित के अनुसार कथनीय हैं। वहाँ बहुत से मनुष्य, स्त्रियां आश्रय लेते, शयन करते, खड़े होते, बैठते, त्वग्वर्तन करते-देह को दायें-बायें घुमाते-मोड़ते, हँसते, रमण करते, मनोरंजन करते थे। उस समय भरतक्षेत्र में उद्दाल, कुद्दाल, मुद्दाल, कृत्तमाल, नृत्तमाल, दन्तमाला, नागमाल, शृगमाल, शंखमाल तथा श्वेतमाल नामक वृक्ष थे, ऐसा कहा गया है। उनकी जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध-रहित थीं। वे उत्तम मूल-जड़ों के ऊपरी भाग, कंद-भीतरी भाग,जहाँ से जड़ें फूटती हैं, स्कन्ध तने, त्वचा छाल, शाखा, प्रवाल-अंकुरित होते पत्ते, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज से सम्पन्न थे / वे पत्तों, फूलों और फलों से ढके रहते तथा अतीव कान्ति से सुशोभित थे। उस समय भरतक्षेत्र में जहाँ-तहाँ बहुत से भेरुताल वृक्षों के वन, हेरुताल वृक्षों के वन, मेरुताल वृक्षों के वन, प्रभताल वृक्षों के वन, साल वृक्षों के वन, सरल वृक्षों के वन, सप्तपर्ण वृक्षों के वन, सुपारी के वृक्षों के वन, खजूर के वृक्षों के वन, नारियल के वृक्षों के वन थे। उनकी जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध-रहित थीं। उस समय भरतक्षेत्र में जहाँ-तहाँ अनेक सेरिका-गुल्म, नवमालिका-गुल्म, कोरंटक-गुल्म, बन्धुजीवक-गुल्म, मनोऽवद्य-गुल्म, बीज-गुल्म, बाण-गुल्म, कणिकार-गुल्म, कुब्जक-गुल्म, सिंदुवार-गुल्म, मुद्गर-गुल्म, यूथिका-गुल्म, मल्लिका-गुल्म, वासंतिका-गुल्म, वस्तुल-गुल्म, कस्तुल-गुल्म, शैवाल-गुल्म, अगस्ति-गुल्म, मगदंतिका-गुल्म, चंपक-गुल्म, जाती-गुल्म, नवनीतिका-गुल्म, कुन्द-गुल्म, महाजातीगुल्म.थे / वे रमणीय, बादलों की घटाओं जैसे गहरे, पंचरंगे फूलों से युक्त थे / वायु से प्रकंपित अपनी शाखाओं के अग्रभाग से गिरे हुए फूलों से वे भरतक्षेत्र के प्रति समतल, रमणीय भूमिभाग को सुरभित बना देते थे। भरतक्षेत्र में उस समय जहाँ-तहाँ अनेक पद्मलताएँ, (नागलताएँ, अशोक लताएँ, चंपकलताएँ, अाम्रलताएँ, वनलताएँ, वासंतिकलताएँ, अतिमुक्तकलताएँ, कुन्दलताएँ) तथा श्यामलताएँ थीं। वे लताएँ सब ऋतुओं में फूलती थीं, (मंजरियों, पत्तों, फूलों के गुच्छों, गुल्मों तथा पत्तों के गुच्छों से युक्त रहती थीं। वे सदा समश्रेणिक एवं युगल रूप में अवस्थित थीं / वे पुष्प, फल आदि के भार से सदा विनमित--बहुत झुकी हुई, प्रणमित--विशेष रूप से अभिनत नमी हुई थीं। यों ये विविध प्रकार से अपनी विशेषताएँ लिए हुए अपनी सुन्दर लुम्बियों तथा मंजरियों के रूप में मानो शिरोभूषण–कलंगियाँ धारण किये रहती थीं। उस समय भरतक्षेत्र में जहाँ-तहाँ बहुत सी वनराजियाँ--वनपंक्तियाँ थीं। वे कृष्ण, कृष्ण प्राभायुक्त इत्यादि अनेकविध विशेषताओं से विभूषित थीं, मनोहर थीं / पुष्प-पराग के सौरभ से मत्त भ्रमर, कोरंक, भृगारक, कुंडलक, चकोर, नन्दीमुख, कपिल, पिंगलाक्षक, करंडक, चक्रवाक, बतक, हंस आदि अनेक पक्षियों के जोड़े उनमें विचरण करते थे। वे वनराजियाँ पक्षियों के मधुर शब्दों से सदा प्रतिध्वनित रहती थीं / उन वनराजियों के प्रदेश कुसुमों का पासव पीने को उत्सुक, मधुर गुजन करते हुए भ्रमरियों के समूह से परिवृत, दृप्त, मत्त भ्रमरों की मधुर ध्वनि से मुखरित थे / वे वनराजियाँ भीतर की ओर फलों से तथा बाहर की ओर पुष्पों से प्राच्छन्न थीं। वहाँ के फल स्वादिष्ट होते थे। वहाँ का वातावरण नीरोग था-स्वास्थ्यप्रद था। वे काँटों से रहित थीं / वे तरह-तरह के Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र फूलों के गुच्छों, लतानों के गुल्मों तथा मंडपों से शोभित थीं। मानो वे उनकी अनेक प्रकार की सुन्दर ध्वजाएँ हों / बावड़ियाँ-चतुष्कोण जलाशय, पुष्करिणी-गोलाकार जलाशय, दीपिका-सीधे लम्बे जलाशय-इन सब के ऊपर सुन्दर जालगृह-गवाक्ष-झरोखे बने थे। वे वनराजियाँ ऐसी तृप्तिप्रद सुगन्ध छोड़ती थीं, जो बाहर निकलकर पुजीभूत होकर बहुत दूर फैल जाती थीं, बड़ी मनोहर थीं। उन वनराजियों में सब ऋतुओं में खिलने वाले फूल तथा फलने वाले फल प्रचुर मात्रा में पैदा होते थे / वे सुरम्य, चित्त को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप—मनोज्ञ--मन को अपने में रमा लेने वाली तथा प्रतिरूप—मन में बस जाने वाली थीं। द्रुमगरण 27. तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ तहि तहि मत्तंगा णामं दुमगणा पण्णत्ता, जहा से चंदप्पभा-(मणिसिलाग-वरसीधु-वरवारुणि-सुजायपत्तपुप्फफलचोअणिज्जा, ससारबहुदध्वजुत्तिसंभारकालसंधि-औसवा, महुमेरग-रिट्ठाभदुद्धजातिपसन्नतल्लगसाउ-खज्जूरिमुद्दियासारकाविसायण-सुपषकखोअरसवरसुरा, वण्ण-गंध-रस-फरिस-जुत्ता, बलवीरिअपरिणामा मज्जविही बहुप्पगारा, तहेव ते मत्तंगा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए मज्जविहीए उववेया, फलेहि पुण्णा वीसंदंति कुसविकुस-विसुद्धरुक्खमूला,) छण्णपडिच्छण्णा चिट्ठति, एवं जाव (तीसे णं समाए तत्थ तत्थ बहवे) प्रणिगणा णामं दुमगणा पण्णत्ता। [27] उस समय भरतक्षेत्र में जहाँ-तहाँ मत्तांग नामक कल्पवृक्ष-समूह थे। वे चन्द्रप्रभा, (मणिशिलिका, उत्तम मदिरा, उत्तम वारुणी, उत्तम वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श युक्त, बलवीर्यप्रद सुपरिपक्व पत्तों, फूलों और फलों के रस एवं बहुत से अन्य पुष्टिप्रद पदार्थों के संयोग से निष्पन्न पासव, मधु---मद्यविशेष, मेरक-मद्यविशेष, रिष्टाभारिष्ट रत्न के वर्ण की सुरा या जामुन के फलों से निष्पन्न सुरा, दुग्ध जाति-प्रसन्ना-आस्वाद में दूध के सदृश सुरा-विशेष, तल्लक-सुरा-विशेष, शतायु-सुरा-विशेष, खजूर के सार से निष्पन्न आसवविशेष, द्राक्षा के सार से निष्पन्न पासवविशेष, / कपिशायन—मद्य-विशेष, पकाए हुए गन्ने के रस से निष्पन्न उत्तम सुरा, और भी बहुत प्रकार के मद्य प्रचुर मात्रा में, तथाविध क्षेत्र, सामग्री के अनुरूप प्रस्तुत करने वाले फलों से परिपूर्ण थे। उनसे ये सब मद्य, सुराएँ चूती थीं। उनकी जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध-रहित थीं। वे वृक्ष खूब छाए हुए और फैले हुए रहते थे।) इसी प्रकार यावत् (उस समय सर्वविध भोगोपभोग सामग्रीप्रद अनग्नपर्यन्त दस प्रकार के) अनेक कल्पवृक्ष थे। विवेचन–दस प्रकार के कल्पवृक्षों में से प्रथम मत्तांग और दसवें अनग्न का मूल पाठ में साक्षात् उल्लेख हुआ है। मध्य के पाठ कल्पवृक्ष 'जाव' शब्द से गृहीत किये गये हैं। सब के नामकाम इस प्रकार हैं 1. मत्तांग-मादक रस प्रदान करने वाले, 2. भृत्तांग--विविध प्रकार के भाजन-पात्र-बरतन देने वाले, 3. श्रुटितांग-नानाविध वाद्य देने वाले, 4. दीपशिखा-प्रकाशप्रदायक, Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार [35 5. जोतिषिक-उद्योतकारक, 6. चित्रांग-माला आदि प्रदायक, 7. चित्ररस-विविध प्रकार का रस देने वाले, 8. मण्यंग-आभूषण प्रदान करने वाले, 6. गेहाकार-विविध प्रकार के गृह-निवासस्थानप्रदाता, 10. अनग्न---वस्त्रों की आवश्यकतापूत्ति करने वाले। मनुष्यों का आकार-स्वरूप 28. तोसे णं भंते ! समाए भरहे वासे मणुआण केरिसए पायारभावपडोयारे पण्णते? __ गोयमा ! ते णं मणुआ सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा, (रत्तुप्पलपत्तमउअसुकुमालकोमलतला, णगणगरमगरसागरचक्कंकवरंकलक्खणंकिअचलणा, अणुपुब्वसुसाहयंगुलीया, उष्णयतणुतंबणिद्धणक्खा, संठिअसुसिलिट्ठगूढगुप्फा, एणोकुरुविंदावत्तवट्टाणुपुत्वजंघा, समुग्गनिमगगूढजाणू, गयससण-सुजायसण्णिभोरू, बरवारणमत्ततुल्लविक्कमविलासिअगई, पमुइअवरतुरगसीहवरवट्टिअकडी, वरतुरगसुजायगुज्झदेसा, प्राइण्णयन्वनिरुवलेवा, साहयसोणंदमुसलदप्पण-णिगरिअवरकणगच्छरुसरिसवरवइरबलिअ-मज्झा, झसविगसुजस्य-पीणकुच्छी, झसोअरा, सुइकरणा, गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंगभंगुरविकिरणतरुणबोहिमाकोसायंतपउमगंभीरविअडणाभा, उज्जुअ-समसंहिअजच्च-तणु-कसिण-णिद्धआदेज्ज-लडह-समाल-मउअ-रमणिज्ज-रोमराई, संणयपासा, संगयपासा, सुदरपासा, सुजायपासा, मिअमाइअ-पीणरइअ-पासा, अकरंडुअकणगरुअगणिम्मल-सुजाय-णिरुवय-देहधारी, पसत्थवत्तीसलक्खणधरा, कणगसिलायलुज्जल-पसत्थ-समतल-उवइअ-विच्छि (त्थि) ण्ण-पिहलवच्छा,सिरिवच्छंकियबच्छा, जुअसण्णिभपीणरइअ-पीवरपउनुसंठियसुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-घण-थिरसुबद्धसंधिपुरवर-वरफलिहबट्टिअ-भुजा, भुजगोसर-विउल-भोगआयाणफलिहउच्छू ढ-दोहबाहू, रत्ततलोवइअमउग्रमंसलसुजायपसत्थलक्खणच्छिद्दजालपाणी, पीवरकोमलवरंगुलीमा, आयंब-तलिण-सुइ-रुइल-णिद्धणक्खा, चंदपाणिलेहा, सूरपाणिलेहा, संखपाणिलेहा, चक्कपाणिलेहा, दिसासोवत्थियपाणिलेहा, चंद-सूर-संखचक्क-दिसासोवत्थियपाणिलेहा, अणेग-वर-लक्खणुत्तम-पसत्थ-सुरइअ-पाणिलेहा, वरमहिस-बराहसीहसद्द लउसहणागवर-पडिपुण्णविपुलखंधा, चउरंगुल-सुप्पमाण-कंबुवरसरिस-गोवा, मंसलसंठिन-पसत्थसदूलविपुलहणुआ, प्रवद्विअ-सुविभत्तचित्तमंसू, प्रोअविनसिलप्पवाल-बिबफल-सणिभाधरोदा, पंडुरससि-सगलविमल-मिम्मल-संख-गोखीर-फेणकुददगरय-मुणालिआधवल-दंतसेढी,प्रखंडदंता,प्रफुडिअदंता, अविरलदंता, सुणिद्धदंता, सुजायदंता, एगदंतसेढीव अणेगदंता, हुअवह-णिद्धतधोअतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजोहर, गरुलायत-उज्जु-तुंग-णासा, अवदालिअ-पोंडरीकणयणा, कोआसियधवलपत्तलच्छा, आणामिअ-चाब-रुइलकिण्हाभराइसंठियसंगयआयय-सुजायतणुकसिणणिद्धभुमश्रा, अल्लीणपमाणजुत्तसवणा, सुस्सवणा, पोणमंसलकवोलदेसभागा, णिव्वण-सम-लट्ठमट्ठ-चंदद्धसम-णिलाडा, उडवइपडिपुण्ण-सोमवयणा, घण-णिचिअसुबद्ध-लक्खणुग्णयकूडागारणिपिडिग्गसिरा, छत्तागारुत्तमंगदेसा, दाडिमपुष्फ-पगास-तवाणिज्जसरिस-णिम्मल-सुजाय-केसंतभूमी, सामलिबोंड-घण-णिचिअच्छोडिस Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र मिउविसय-पसत्थसुहमलक्षण-सुगंध-सुदरभुप्रमोअग-भिंग-णीलकज्जल-पहट्ठ-भमरगण-णिद्धिणिकुरंबणिचिअ-पयाहिणावत्तमुद्धसिरया,) पासादीया, (दरिसणिज्जा, अभिरूवा,) पडिरूवा / तीसे णं भंते ! समाए भरहे वासे मणुईणं केरिसए आगारभावपडोआरे पण्णते? गोयमा ! तानो णं मणुईओ सुजायसव्वंग-सुंदरीओ, पहाणमहिलागुणेहि जुत्ता, अइक्कंतविसप्प-माणमउया, सुकुमाल-कुम्मसंठिअविसिट्ठचलणा, उज्जुमउअपीवरसुसाहयंगुलीओ, अन्भुण्णयरइअ-तलिण-तंब-सूइ-णिद्धणक्खा, रोमरहिअ-बट्ट-लट्ठ-संठिअअजहण्ण-पसत्थलक्खणअकोप्पजंघजुअलाओ, सुणिम्मिअसुगूढजाणुमंसलसुबद्धसंधीओ, कयलोखंभाइरेक-संठिन-णिव्वण-सुकुमाल-मउअमंसल-अविरल-समसंहिप-सुजाय-बट्ट-पीवरणिरंतरोरुनो, अट्ठावयवीइयपटुसंठिअपसत्थविच्छिणपिहुलसोणोओ वयणायामप्पमाणदुगुणिअविसाल-मंसलसुबद्धजहणवरधारिणीओ, वज्जविराइअप्पसत्थलक्षण-निरोदरतिवलिअवलिअतणुणयमज्झिमायो, उज्जुअसमसहिअजच्चतणुकसिणणिद्धआइज्जलडहसुजायसुविभत्त-कंतसोभंतरुइलरमणिज्जरोमराईओ, गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणबोहिअआकोसायंतपउमगंभीर-विअडणाभीओ, अणुम्भडपसत्थपीणकुच्छीमो, सण्णयपासाओ, संगयपासाओ, सुजायपासाप्रो, मिअमाइअपीणरइपासाओ, अकरंडुअकणगरुअगणिम्मलसुजायणिरुवहयगायलट्ठीओ, कंचणकलसप्पमाणसमसहिअलट्टचुच्चुआमेलगजमलजुअलवट्टिअअन्भुग्णयपीणरइयपीवरपओहराओ, भुअंगअणुपुब्वतणुगोपुच्छवट्ट-संहिअणमिअआइज्जललिअबाहाओ, तंबणहाओ, मंसलग्गहत्थाओ, पीवरकोमलवरंगुलीआओ, गिद्धपाणिलेहाओ, रविससिसंखचक्कसोत्थियसुधिभत्तसुविरइअपाणिलेहाओ, पीणुग्णयकरकक्खवक्खवस्थिप्पएसानो, पडिपुण्णगल-कपोलायो, चउरंगुलसुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवानो, मंसलसंठिअपसत्थहणुगाओ, दाडिमपुष्फप्पगासपीवर-पलबकुचिअवराधराओ, सुदरुत्तरोढाओ, दहिदगरयचंदकुदवासंतिमउलधवलअच्छिद्दविमलदसणाओ, रत्तुप्पलपत्तमउअसुकुमालतालुजीहाओ, कणवीरमउलाकुडिलअब्भुग्गयउज्जुतुगणासाओ, सारयणवकमलकुमुअकुवलयविमलदलणिअरसरिसलक्खणपसत्थप्रजिम्हकंत-णयणाश्रो, पत्तलधवलायतआतंबलोणाग्रो, प्राणामिन-चावरुइलकिण्हन्भराइसंगयसुजायभुमगाओ, अल्लीणपमाणजुत्तसवणासो, सुसवणाओ, पीणमट्टगंडलेहाओ, चउरंगुलपत्थसमणिडालायो, कोमुईरयणिअरविमलपडिपुष्णसोमवयणाओ, छत्तुण्णयउत्तमंगाओ, अकविलसुसिणिद्धसुगंधदीह सिरयाओ, छत्त 1. ज्झय 2. जूझ 3. थूभ 4. दामणि 5. कमंडलु 6. कलस 7. वावि 8. सोस्थिअ६. पडाग 10. जव 11. मच्छ 12. कुम्म 13. रहवर 14. मगरज्झय 15. अंक 16. थाल 17. अंकुस 18. अद्यावय 16. सुपइट्टग 20. मयूर 21. सिरिअभिसेअ 22. तोरण 23. मेइणि 24. उदहि 25. वरभवण 24, गिरि 27. वरप्रायंस 28. सलीलगय 26. उसभ 30. सीह 31. चामर 32. उत्तमपसत्थबत्तीसलक्खणधराओ, हंससरिसगईओ, कोइलमहरगिरसुस्सराओ, कंताओ, सव्वस्स अणुमयाओ, ववगयवलिपलिअवंगदुव्वग्णवाहिदोहम्गसोगमुक्कामो, उच्चत्तेण य पराण थोवूणमुस्सिआओ, सभावसिंगारचारवेसाप्रो, संगयगयह सियभणिअचिट्ठिअविलाससंलावणिउणजुत्तोवयारकुसलाओ, सुदरथणजहणवयणकर-चलणणयणलावण्णवण्ण Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] रूवजोवणविलासकलिआओ, गंदणवणविवरचारिणीउब्व अच्छराओ, भरहवासमाणुसच्छरानो, अच्छेरगपेच्छणिज्जाओ, पासाईआपो जाव' पडिरूवाओ। 3. ते णं मणुप्रा ओहस्सरा, हंसस्सरा, कोंचस्सरा, णंदिस्सरा, गंदिघोसा, सोहस्सरा, सोहघोसा, सुसरा, सुसरणिग्घोसा, छायायवोज्जोविअंगमंगा, बज्जरिसहनारायसंघयणा, समचउरसंठाण संठिया, छविणिरातका, अणुलोमवाउवेगा, कंकग्गहणी, कवोयपरिणामा, सउणिपोसपिटुतरोरुपरिणया, छद्धणुसहस्समूसिया / तेसि णं मणुआणं वे छप्पण्णा पिट्टकरंडकसया पण्णत्ता समणाउसो! पउमुप्पलगंधसरिसणीसाससुरभिवयणा, ते णं मणुआ पगईउवसंता, पगईपयणुकोहमाणमायालोभा, मिउमद्दवसंपन्ना, अल्लीणा, भद्दगा, विणीमा, अप्पिच्छा, असणिहिसंचया, विडिमंतरपरिवसणा, जहिच्छिअकामकामिणो। [28] उस समय भरतक्षेत्र में मनुष्यों का प्राकार-स्वरूप कैसा था ? गौतम ! उस समय वहाँ के मनुष्य बड़े सुन्दर, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थे। उनके चरण—पैर सुप्रतिष्ठित-सुन्दर रचना युक्त तथा कछए की तरह उठे हुए होने से मनोज्ञ प्रतीत होते थे। उनकी पगलियाँ लाल कमल के पत्ते के समान मृदुल, सुकुमार और कोमल थीं / उनके चरण पर्वत, नगर, मगर, सागर एवं चक्ररूप उत्तम मंगलचिह्नों से अंकित थे। उनके पैरों की अंगुलियां क्रमश: आनुपातिक रूप में छोटी-बड़ी एवं सुसंहत सुन्दर रूप में एक दूसरी से सटी हुई थीं। पैरों के नख उन्नत, पतले, तांबे की तरह कुछ कुछ लाल तथा स्निग्ध-चिकने थे। उनके टखने सुन्दर, सुगठित एवं निगढ थे—मांसलता के कारण बाहर नहीं निकले हुए थे। उनकी पिंडलियां हरिणी की पिंडलियों, कुरुविन्द घास तथा कते हुए सूत की गेडी की तरह क्रमश: उतार सहित गोल थीं / उनके घुटने डिब्बे के ढक्कन की तरह निगूढ थे। हाथी की सूड की तरह जंघाएँ सुगठित थीं। श्रेष्ठ हाथी के तुल्य पराक्रम, गंभीरता और मस्ती लिये उनकी चाल थी। प्रमुदित-रोग, शोक आदि रहित-स्वस्थ, उत्तम घोड़े तथा उत्तम सिंह की कमर के समान उनकी कमर गोल घेराव लिए थी। उत्तम घोड़े के सुनिष्पन्न गुप्तांग की तरह उनके गुह्य भाग थे / उत्तम जाति के घोड़े की तरह उनका शरीर मलमूत्र विसर्जन की अपेक्षा से निर्लेप था। उनकी देह के मध्यभाग त्रिकाष्ठिका, मूसल तथा दर्पण के हत्थे के मध्य भाग के समान, तलवार की श्रेष्ठ स्वर्णमय मूठ के समान तथा उत्तम वज्र के समान गोल और पतले थे। उनके कुक्षिप्रदेश–उदर के नीचे के दोनों पार्श्व मत्स्य और पक्षी के समान सुजात—सुनिष्पन्नसुन्दर रूप में रचित तथा पीन-परिपुष्ट थे / उनके उदर मत्स्य जैसे थे। उनके करण—पान्त्रसमूहांतें शुचि-स्वच्छ-निर्मल थीं। उनकी नाभियाँ कमल की ज्यों गंभीर, विकट-गढ़, गंगा की भंवर की तरह गोल, दाहिनी ओर चक्कर काटती हुई तरंगों की तरह घुमावदार सुन्दर, चमकते हुए सूर्य की किरणों से विकसित होते कमल की तरह खिली हुई थीं। उनके बक्षस्थल और उदर पर सीधे, समान, संहित-एक दूसरे से मिले हुए, उत्कृष्ट, हलके, काले, चिकने, उत्तम लावण्यमय, सुकुमार, कोमल तथा रमणीय बालों की पंक्तियाँ थीं। उनकी देह के पार्श्वभाग—पसवाड़े नीचे की ओर क्रमशः 1. देखें सूत्र यही Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्र संकड़े, देह के प्रमाण के अनुरूप, सुन्दर, सुनिष्पन्न तथा समुचित परिमाण में मांसलता लिए हुए थे, मनोहर थे। उनके शरीर स्वर्ण के समान कांतिमान्, निर्मल, सुन्दर, निरुपहत-रोग-दोष-वजित तथा समीचीन मांसलतामय थे, जिससे उनकी रीढ़ की हड़ी अनुपलक्षित थी। उनमें उत्तम पुरुष के बत्तीस लक्षण पूर्णतया विद्यमान थे। उनके वक्षस्थल सीने स्वर्ण-शिला के तल के समान उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल, उपचित-मांसल, विस्तीर्ण-चौड़े, पृथल-विशाल थे। उन पर श्रीवत्स–स्वस्तिक के चिह्न अंकित थे / उनकी भुजाएँ युग-गाड़ी के जुए, यूप-यज्ञस्तम्भ-यज्ञीय खूटे की तरह गोल, लम्बे, सुदृढ़, देखने में आनन्दप्रद, सुपुष्ट कलाइयों से युक्त, सुश्लिष्ट-सुसंगत, विशिष्ट, घन-ठोस, स्थिर-स्नायुओं से यथावत् रूप में सुबद्ध तथा नगर की अर्गला-पागल के समान गोलाई लिए थीं। इच्छित वस्तु प्राप्त करने हेतु नागराज के फैले हुए विशाल शरीर की तरह उनके दीर्घ बाहु थे। उनके पाणि—कलाई से नीचे के हाथ के भाग उन्नत, कोमल, मांसल तथा सुगठित थे, शुभ लक्षण युक्त थे, अंगुलियाँ मिलाने पर उनमें छिद्र दिखाई नहीं देते थे। उनके तल–हथेलियाँ ललाई लिए हुई थीं। अंगुलियां पुष्ट, सुकोमल और सुन्दर थीं। उनके नख ताँबे की ज्यों कुछ-कुछ ललाई लिए हुए, पतले, उजले. रुचिर देखने में रुचिकर--अच्छे लगने वाले, स्निग्ध-चिकने तथा सकोमल थे / उनकी हथेलियों में चन्द्र. सर्य. शंख, चक्र, दक्षिणावर्त एवं स्वस्तिक की शभ रेखाएँ थीं। उनके कन्धे प्रबल भैसे, सूअर, सिंह, चीते, साँड तथा उत्तम हाथी के कन्धों जैसे परिपूर्ण एवं विस्तीर्ण थे। उनकी ग्रीवाएँ—गर्दनें चार चार अंगुल चौड़ी तथा उत्तम शंख के समान त्रिवलि युक्त एवं उन्नत थीं। उनकी ठुड्डियां मांसल-सुपुष्ट, सुगठित, प्रशस्त तथा चीते की तरह विपुल-विस्तीर्ण थीं। उनके श्मश्रुदाढ़ी व मूछ अवस्थित कभी नहीं बढ़ने वाली, बहुत हलकी सी तथा अद्भुत सुन्दरता लिए हुए थी, उनके होठ संस्कारित या सुघटित मूंगे की पट्टी जैसे, विम्ब फल के सदृश थे। उनके दांतों की श्रेणी निष्कलंक चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल से निर्मल शंख, गाय के दूध, फेन, कुन्द के फूल, जलकण और कमल नाल के समान सफेद थी / दाँत अखंड-परिपूर्ण, अस्फुटित-टूट फूट रहित, सुदृढ, अविरलपरस्पर सटे हुए, सुस्निग्ध-चिकने—ाभामय, सुजात-सुन्दराकार थे, अनेक दांत एक दंत-श्रेणी की ज्यों प्रतीत होते थे। जिह्वा तथा तालु अग्नि में तपाए हुए और जल से धोए हुए स्वर्ण के समान लाल थे। उनकी नासिकाएँ गरुड़ की तरह-गरुड़ की चोंच की ज्यों लम्बी, सीधी और उन्नत थीं। उनके नयन खिले हुए पुडरीक-सफेद कमल के समान थे। उनकी आँखें पद्म को तरह विकसित, धवल, पत्रल-बरौनी युक्त थीं। उनकी भौंहें कुछ खींचे हुए धनुष के समान सुन्दर--टेढ़ी, काले बादल की रेखा के समान कृश पतली, काली एवं स्निग्ध थीं। उनके कान मुख के साथ सुन्दर रूप में संयुक्त और प्रमाणोपेत--समुचित आकृति के थे, इसलिए वे बड़े सुन्दर लगते थे। उनके कपोल मांसल और परिपुष्ट थे / उनके ललाट निर्वण-फोड़े, फुन्सी आदि के घाव के चिह्न से रहित, समतल, सुन्दर एवं निष्कलंक अर्धचन्द्र--अष्टमी के चन्द्रमा के सदृश भव्य थे। उनके मुख पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य थे। अत्यधिक सघन, सुबद्ध स्नायुबंध सहित, उत्तम लक्षण युक्त, पर्वत के शिखर के समान उन्नत उनके मस्तक थे। उनके उत्तमांग--मस्तक के ऊपरी भाग छत्राकार थे। उनकी केशान्तभूमि-त्वचा, जिस पर उनके बाल उगे हुए थे, अनार के फूल तथा सोने के समान दीप्तिमय-लाल, निर्मल और चिकनी के मस्तक के केश बारीक रेशों से भरे सेमल के फल के फटने से निकलते हए रेशों जैसे कोमल, विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण-मुलायम, सुरभित, सुन्दर, भुजमोचक, नीलम, भृग, नील, कज्जल Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] तथा प्रहृष्ट-सुपुष्ट भ्रमरवृन्द जैसे चमकीले, काले, घने, घुघराले, छल्लेदार थे / ) वे मनुष्य सुन्दर, (दर्शनीय, अभिरूप--मनोज्ञ) तथा प्रतिरूप थे--मन को आकृष्ट करने वाले थे / भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र में स्त्रियों का आकार-स्वरूप कैसा था ? गौतम ! वे स्त्रियाँ---उस काल की स्त्रियाँ श्रेष्ठ तथा सर्वांगसुन्दरियाँ थीं। वे उत्तम महिलोचित गुणों से युक्त थीं। उनके पैर अत्यन्त सन्दर, विशिष्ट प्रमाणोपेत, मृदुल, सकुमार तथा कच्छपसंस्थान-संस्थित-कछए के आकार के थे। उनके पैरों की अंगुलियाँ सरल, कोमल, परिपुष्ट-मांसल एवं सुसंगत-परस्पर मिली हुई थीं। अंगुलियों के नख समुन्नत, रतिद–देखने वालों के लिए प्रानन्दप्रद, तलिन-पतले, ताम्र-तांबे के वर्ण के हलके लाल, शुचि-मलरहित, स्निग्ध-चिकने थे। उनके जंघा-युगल रोम रहित, वृत्त–वर्तुल या गोल, रम्य-संस्थान युक्त, उत्कृष्ट, प्रशस्त लक्षण युक्त, अत्यन्त सुभगता के कारण अकोप्य-अद्वेष्य थे / उनके जानु-मंडल सुनिमित-सर्वथा प्रमाणोपेत, सुगूढ तथा मांसलता के कारण अनुपलक्ष्य थे, सुदृढ स्नायु-बंधनों से युक्त थे / उनके ऊरु केले के स्तंभ जैसे आकार से भी अधिक सुन्दर, फोड़े, फुन्सी आदि के घावों के चिह्नों से रहित, सुकुमार, सुकोमल, मांसल, अविरल-परस्पर सटे हुए जैसे, सम, सदृश-परिमाण युक्त, सुगठित, सुजात—सुन्दर रूप में समुत्पन्न, वृत्त वर्तुल-गोल, पीवर-मांसल, निरंतर अंतर रहित थे / उनके श्रोणिप्रदेश धुण आदि कीड़ों के उपद्रवों से रहित-उन द्वारा नहीं खाए हए-अखंडित द्यत-फलक जैसे प्राकार युक्त, प्रशस्त विस्तीर्ण, तथा पृयुथ–स्थूल-मोटे या भारी थे। विशाल, मांसल, सुगठित और अत्यन्त सुन्दर थे / उनकी देह के मध्यभाग वज्ररत्न हीरे जैसे सुहावने, उत्तम लक्षण युक्त, विकृत उदर रहित, त्रिवली-तीन रेखाओं से युक्त, बलित-सशक्त अथवा वलित–गोलाकार एवं पतले थे। उनकी रोमराजियाँ-रोमावलियाँ सरल, सम-बराबर, संहित-परम्पर मिली हुई, उत्तम, पतली, कृष्ण वर्ण युक्त-काली, चिकनी, प्रादेय--स्पृहणीय, लालित्यपूर्ण-सुन्दरता से युक्त तथा सुरचितस्वभावतः सुन्दर, सुविभक्त, कान्त-कमनीय, शोभित और रुचिकर थीं। उनकी नाभि गंगा के भंवर की तरह गोल, दाहिनी ओर चक्कर काटती हुई तरंगों की ज्यों घुमावदार, सुन्दर, उदित होते हुए सूर्य की किरणों से विकसित होते कमलों के समान विकट--गढ़ तथा गंभीर थी। उनके कुक्षिप्रदेशउदर के नीचे के दोनों पार्श्व अनुभट-अस्पष्ट-मांसलता के कारण सा प्रशस्त उत्तम---श्लाघ्य तथा पीन स्थूल थे / उनकी देह के पार्श्वभाग-पसवाड़े सन्नत-क्रमशः संकड़े, संगतदेह के परिमाण के अनुरूप सुन्दर, सुनिष्पन्न, अत्यन्त समुचित परिमाण में मांसलता लिए हुए मनोहर थे। उनकी देहयष्टियां-देहलताएँ ऐसी समुपयुक्त मांसलता लिए थीं, जिससे उनके पीछे की हड्डी नहीं दिखाई देती थीं / वे सोने की ज्यों देदीप्यमान, निर्मल, सुनिर्मित, निरुपहतरोग रहित थीं / उनके स्तन स्वर्ण-घट सदृश थे, परस्पर समान, संहित–परस्पर मिले हुए से, सुन्दर अग्रभाग युक्त, सम श्रेणिक, गोलाकार, अभ्युन्नत-उभार युक्त, कठोर तथा स्थूल थे। उनकी भुजाएँ सर्प की ज्यों क्रमश: नीचे की ओर पतली, गाय की पूंछ की ज्यों गोल, परस्पर समान, नमित-झुकी हई, आदेय तथा सुललित थीं। उनके नख तांबे की ज्यों कुछ-कुछ लाल थे। उनके हाथों के अग्रभाग मांसल थे। अंगुलियाँ पीवर--परिपुष्ट, कोमल तथा उत्तम थीं / उनके हाथों की रेखाएं चिकनी थीं। उनके हाथों में सूर्य, शंख, चक्र तथा स्वस्तिक की सुस्पष्ट, सुविरचित रेखाएँ थीं। उनके कक्षप्रदेश, वक्षस्थल तथा वस्तिप्रदेश-गुह्यप्रदेश पुष्ट एवं उन्नत थे। उनके गले तथा गाल प्रतिपूर्ण-भरे हुए Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र होते थे। उनकी ग्रीवाएँ चार अंगुल प्रमाणोपेत तथा उत्तम शंख सदृश थीं-शंख की ज्यों तीन रेखाओं से युक्त होती थीं। उनकी ठुड्डियां मांसल-सुपुष्ट, सुगठित तथा प्रशस्त थीं। उनके अधरोष्ठ अनार के पुष्प को ज्यों लाल, पूष्ट ल, पुष्ट, ऊपर के होठ की अपेक्षा कुछ कुछ लम्बे, कुचित-नीचे की ओर कुछ मुड़े हुए थे / उनके दांत दही, जलकण, चन्द्र, कुन्द-पुष्प, वासंतिक-कलिका जैसे धवल, अछिद्र---छिद्ररहित-अविरल तथा विमल-मलरहित-उज्ज्वल थे। उनके तालु तथा जिह्वा लाल कमल के पत्ते के समान मृदुल एवं सुकुमार थीं। उनकी नासिकाएँ कनेर की कलिका जैसी अकुटिल, अभ्युद्गतआगे निकली हुई, ऋजु–सीधी, तुग-तीखी या ऊँची थीं। उनके नेत्र शरदऋतु के सूर्यविकासी रक्त कमल, चन्द्रविकासी श्वेत कुमुद तथा कुवलय-नीलोत्पल के स्वच्छ पत्रसमह जैसे प्रशस्त. अजिह्म-सीधे तथा कांत--सुन्दर थे / उनके लोचन सुन्दर पलकों से युक्त, धवल, आयत-विस्तीर्ण-~कर्णान्तपर्यंत तथा प्राताम्र-हलके लाल रंग के थे। उनकी भौंहें कुछ खींचे हुए धनुष के समान सुन्दर—कुछ टेढ़ी, काले बादल की रेखा के समान कृश एवं सुरचित थीं। उनके कान मुख के साथ सुन्दर रूप में संयुक्त और प्रमाणोपेत–ससुचित आकृति के थे, इसलिए वे बड़े सुन्दर लगते थे। उनकी कपोल-पालि परिपुष्ट तथा सुन्दर थीं। उनके ललाट चौकोर, प्रशस्त–उत्तम तथा स उनके मुख शरद् ऋतु की पूर्णिमा के निर्मल, परिपूर्ण चन्द्र जैसे सौम्य थे। उनके मस्तक छत्र की ज्यों उन्नत थे / उनके केश काले, चिकने, सुगन्धित तथा लम्बे थे। छत्र, ध्वजा, यूप-यज्ञ-स्तंभ, स्तूप, दाम-माला, कमंडलु, कलश, वापी-बावड़ी, स्वस्तिक, पताका, यव, मत्स्य, कछुआ, श्रेष्ठ रथ, मकरध्वज, अंक-काले तिल, थाल, अंकुश, अष्टापद-द्यूतपट्ट, सुप्रतिष्ठक, मयूर, लक्ष्मी-अभिषेक, तोरण, पृथ्वी, समुद्र, उत्तम भवन, पर्वत, श्रेष्ठ दर्पण, लीलोत्सुक हाथी, बैल, सिंह तथा चँवर इन उत्तम, श्रेष्ठ बत्तीस लक्षणों से वे युक्त थीं। उनकी गति हंस जैसी थी / उनका स्वर कोयल की बोली सदृश मधुर था। वे कांति युक्त थीं। वे सर्वानुमत थीं-उन्हें सब चाहते थे—कोई उनसे द्वेष नहीं / करता था। न उनकी देह में झुरियाँ पड़ती थीं, न उनके बाल सफेद होते थे। वे व्यंग-विकृत अंगयुक्त या हीनाधिक अंगयुक्त, दुर्वर्ण-दूषित या अप्रशस्त वर्ण युक्त नहीं थीं। वे व्याधिमुक्त-रोग रहित होती थीं, दौर्भाग्य-वैधव्य, दारिद्रय प्रादि-जनित शोक रहित थीं। उनकी ऊँचाई पुरुषों से कुछ कम होती थी। स्वभावतः उनका वेष शृगारानुरूप सुन्दर था। संगत-समुचित गति, हास्य, बोली, स्थिति, चेष्टा, विलास तथा संलाप में वे निपुण एवं उपयुक्त व्यवहार में कुशल थीं। उनके स्तन, जघन, वदन, हाथ, पैर तथा नेत्र सुन्दर होते थे / वे लावण्य युक्त होती थीं / वर्ण, रूप, यौवन, विलासनारीजनोचित नयन-चेष्टाक्रम से उल्लसित थीं / वे नन्दनवन में विचरणशील अप्सराओं जैसी मानो मानुषी अप्सराएँ थीं। उन्हें देखकर-उनका सौंदर्य, शोभा आदि देखकर प्रेक्षकों को आश्चर्य होता था। इस प्रकार वे मनःप्रसादकर-चित्त को प्रसन्न करने वाली तथा प्रतिरूप--मन में बस जाने वाली थीं। भरतक्षेत्र के मनुष्य अोघस्वर-प्रवाहशील स्वर युक्त, हंस की ज्यों मधुर स्वर युक्त, क्रोंच पक्षी की ज्यों दूरदेशव्यापी-बहुत दूर तक पहुँचने वाले स्वर से युक्त तथा नन्दी-द्वादशविध-तूर्यसमवाय-बारह प्रकार के तूर्य-वाद्यविशेषों के सम्मिलित नाद सदृश स्वर युक्त थे। उनका स्वर एवं घोष-अनुनाद-दहाड़ या गर्जना सिंह जैसी जोशीली थी। उनके स्वर तथा घोष में निराली शोभा थी। उनकी देह के अंग-अंग प्रभा से उद्योतित थे। वे बज्रऋषभनाराचसंहनन -सर्वोत्कृष्ट अस्थिबन्ध तथा समचौरस संस्थान सर्वोत्कृष्ट दैहिक प्राकृति वाले थे / उनकी चमड़ी में किसी Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय बक्षस्कार] [41 प्रकार का आतंक-रोग या विकार नहीं था। वे देह के अन्तर्वर्ती पवन के उचित वेग-गतिशीलता संयुक्त, कंक पक्षी की तरह निर्दोष गुदाशय से युक्त एवं कबूतर की तरह प्रबल पाचनशक्ति वाले थे। उनके अपान-स्थान पक्षी की ज्यों निर्लेप थे। उनके पृष्ठभाग-पार्श्वभाग-पसवाड़े तथा ऊरु सुदृढ़ थे / वे छह हजार धनुष ऊँचे होते थे। आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उन मनुष्यों के पसलियों की दो सौ छप्पन हड्डियां होती थीं / उनके सांस पद्म एवं उत्पल की-सी अथवा पद्म तथा कुष्ठ नामक गन्ध-द्रव्यों की-सी सुगन्ध लिए होते थे, जिससे उनके मुह सदा सुवासित रहते थे। वे मनुष्य शान्त प्रकृति के थे। उनके जीवन में क्रोध, मान, माया और लोभ की मात्रा प्रतनु-मन्द या हलकी थी / उनका व्यवहार मृदु-मनोज्ञपरिणाम-सुखावह होता था। वे प्रालीन—गुरुजन के अनुशासन में रहने वाले अथवा सब क्रियाओं में लीन–गुप्त-समुचित चेष्टारत थे। वे भद्र-कल्याणभाक्, विनीत-बड़ों के प्रति विनयशील, अल्पेच्छ-अल्प आकांक्षायुक्त, अपने पास (पर्युषित खाद्य प्रादि का) संग्रह नहीं रखने वाले, भवनों की आकृति के वृक्षों के भीतर वसने वाले और इच्छानुसार काम शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शमय भोग भोगने वाले थे। मनुष्यों का आहार 26. तेसि णं भंते ! मणुपाणं केवइकालस्स आहारट्टे समुष्पज्जइ ? गोयमा ! अट्ठमभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ, पुढवीपुप्फफलाहारा गं ते मणुश्रा पण्णत्ता समणाउसो! तोसे णं भंते ! पुढवीए केरिसए प्रासाए पण्णत्ते ? गोयमा ! से जहाणामए गुलेइ वा, खंडेइ वा, सक्कराइ वा, मच्छंडिभाइ वा, पप्पडमोपएइ वा, भिसेइ वा, पुप्फुत्तराइ वा, पउमुत्तराइ वा, विजयाइ वा, महाविजयाइ बा, प्राकासिमाइ वा, आदंसिप्राइ वा, प्रागासफलोवमाइ वा, उवमाइ वा, अशोकमाइ वा। एयावे? गोयमा ! णो इणठे समठे, सा णं पुढवी इतो इट्टतरित्रा चेव, (पियतरिया चेव, कंततरिया चेव, मणुण्णतरिया चेव,) मणामतरिया चेव आसाएणं पण्णत्ता। तेसि णं भंते ! पुप्फफलाणं केरिसए प्रासाए पण्णते? गोयमा ! से जहाणामए रणो चाउरंतचक्कवट्टिस्स कल्लाणे भोरणजाए सयसहस्सनिष्फन्ने वण्णेणुववेए, (गंधेणं उववेए, रसेणं उववेए,) फासेणं उक्वेए, प्रासायणिज्जे, विसायणिज्जे, दिप्पणिज्जे, टप्पणिज्जे. मयणिज्जे.बिणिज्जे, सविदिअगायपह लायणिज्जे-भवे एश्रारूवे? गोयमा ! जो इणठे समठे, तेसि णं पुप्फफलाणं एत्तो इट्टतराए चेव जाव' प्रासाए पण्णत्ते। [26] भगवन् ! उन मनुष्यों को कितने समय बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ? --- 1. देखें सूत्र यही Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उनको तीन दिन के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है / वे पृथ्वी तथा पुष्प-फल, जो उन्हें कल्पवृक्षों से प्राप्त होते हैं, का आहार करते हैं / भगवन् ! उस पृथ्वी का आस्वाद कैसा होता है ? गौतम ! गुड़, खांड, शक्कर, मत्स्यंडिका-विशेष प्रकार की शक्कर, राब, पर्पट, मोदक-- एक विशेष प्रकार का लड्डु , मृणाल, पुष्पोत्तर (शर्करा विशेष), पद्मोत्तर (एक प्रकार की शक्कर), विजया, महाविजया, आकाशिका, आदर्शिका, आकाशफलोपमा, उपमा तथा अनुपमा–ये उस समय - के विशिष्ट प्रास्वाद्य पदार्थ होते हैं / भगवन् ! क्या उस पृथ्वी का आस्वाद इनके आस्वाद जैसा होता है ? गौतम ! ऐसी बात नहीं है—ऐसा नहीं होता। उस पृथ्वी का आस्वाद इनसे इष्टतर-सब इन्द्रियों के लिए इनसे कहीं अधिक सुखप्रद, (अधिक प्रियकर, अधिक कांत, अधिक मनोज्ञ-मन को भाने वाला) तथा अधिक मनोगम्य-मन को रुचने वाला होता है। भगवन् ! उन पुष्पों और फलों का आस्वाद कैसा होता है ? गौतम ! तीन समुद्र तथा हिमवान् पर्यन्त छः खंड के साम्राज्य के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट का भोजन एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं के व्यय से निष्पन्न होता है / वह कल्याणकर-अति सुखप्रद, प्रशस्त वर्ण, (प्रशस्त गन्ध, प्रशस्त रस तथा) प्रशस्त स्पर्श युक्त होता है, आस्वादनीय--पास्वाद योग्य, विस्वादनीय–विशेष रूप से प्रास्वाद योग्य, दीपनीय-जठराग्नि का दीपन करने वाला, दर्पणीय---- उत्साह तथा स्फूर्ति बढ़ाने वाला, मदनीय-मस्ती देने वाला, वहणीय—शरीर की धातुओं को उपचित-संबधित करने वाला एवं प्रह्लादनीय-सभी इन्द्रियों और शरीर को पालादित करने वाला होता है। भगवन् ! उन पुष्पों तथा फलों का आस्वाद क्या उस भोजन जैसा होता है ? गौतम ! ऐसा नहीं होता / उन पुष्पों एवं फलों का आस्वाद उस भोजन से इष्टतर-अधिक सुखप्रद होता है। मनुष्यों का प्रावास : जीवन-चर्या 30. ते णं भंते ! मणुया तमाहारमाहारेत्ता कहि वसहि उति ? गोयमा! रुक्खगेहालया णं ते मणुमा पण्णत्ता समणाउसो! तेसि णं भंते ! रुक्खाणं केरिसए आयारभावपडोबारे पण्णत्ते ? गोयमा! कडागारसंठिया, पेच्छाच्छत्त-भय-थूभ-तोरण-गोउर-वेइआ-चोप्फालग-अट्टालगपासाय-हम्मिश्र-गवक्ख-वालग्गयोइग्रा-वलभीघरसंठिया। अत्थण्णे इत्थ बहवे वरभवणविसिट्ठसंठाणसंठिया दुमगणा सुहसीलच्छाया पण्णत्ता समणाउसो ! [30] भगवन् ! वे मनुष्य वैसे आहार का सेवन करते हुए कहाँ निवास करते हैं ? आयुष्मन् श्रमण गौतम ! वे मनुष्य वक्ष-रूप घरों में निवास करते हैं / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] भगवन् ! उन वृक्षों का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! वे वृक्ष कूट-शिखर, प्रेक्षागृह-नाटयगृह, छत्र, स्तूप-चबूतरा, तोरण, गोपुरनगरद्वार, वेदिका---उपवेशन योग्य भूमि, चोप्फाल–बरामदा, अट्टालिका, प्रासाद-शिखरबद्ध देवभवन या राजभवन, हर्म्य-शिखर वजित श्रेष्ठिगृह-हवेलियां, गवाक्ष--झरोखे, वालाग्रपोतिका-- जलमहल तथा वलभीगृह सदृश संस्थान-संस्थित हैं वैसे विविध आकार-प्रकार लिये हुए हैं। इस भरतक्षेत्र में और भी बहुत से ऐसे वृक्ष हैं, जिनके आकार उत्तम, विशिष्ट भवनों जैसे हैं, जो सुखप्रद शीतल छाया युक्त हैं। 31. (1) अस्थि णं भंते ! तोसे समाए भरहे वासे गेहाइ वा गेहावणाइ वा ? गोयमा ! णो इणठे समझें, रुक्ख-गेहालया णं ते मणुप्रा पण्णत्ता समणाउसो ! [31] (1) भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र में क्या गेह-घर होते हैं ? क्या गेहायतनउपभोग हेतु घरों में आयतन-अापतन या आगमन होता है ? अथवा क्या गेहापण-गृह युक्त प्रापणदुकानें या बाजार होते हैं ? प्रायुष्मन् श्रमण गौतम ! ऐसा नहीं होता / उन मनुष्यों के वृक्ष ही घर होते हैं / (2) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे गामाइ वा, (आगराइ वा, णयराइ वा, णिगमाइ वा, रायहाणीमो वा, खेडाइ वा, कब्बडाइ वा, मडंबाइ वा, वोणमुहाइ वा, पट्टणाइ वा, आसमाइ वा, संवाहाइ वा,) संणिवेसाइ वा। गोयमा ! णो इणठे समठे, जहिच्छिअ-कामगामिणो णं ते मणुप्रा पण्णत्ता। (2) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में ग्राम-बाड़ों से घिरी बस्तियाँ या करगम्य-जहाँ राज्य का कर लागू हो, ऐसी बस्तियाँ, (आकर-स्वर्ण, रत्न आदि के उत्पत्ति-स्थान, नगर-जिनके चारों ओर द्वार हों, जहाँ राज्य-कर नहीं लगता हो, ऐसी बड़ी बस्तियाँ, निगम-जहाँ वणिक्वर्ग का व्यापारी वर्ग का प्रभूत निवास हो, वैसी बस्तियाँ, राजधानियाँ, खेट-धूल के परकोट से घिरी हुई या कहीं-कहीं नदियों तथा पर्वतों से घिरी हुई बस्तियाँ, कर्बट--छोटी प्राचीर से घिरी हुई या चारों ओर पर्वतों से घिरी हुई बस्तियाँ, मडम्ब-जिनके ढाई कोस इर्द-गिर्द कोई गाँव न हों, ऐसी बस्तियाँ, द्रोणमुख समुद्रतट से सटी हुई वस्तियाँ, पत्तन-जल-स्थल-मार्ग युक्त बस्तियाँ, पाश्रम---तापसों के आश्रम या लोगों की ऐसी बस्तियाँ, जहाँ पहले तापस रहते रहे हों, सम्बाध–पहाड़ों की चोटियों पर अवस्थित बस्तियाँ या यात्रार्थ समागत बहुत से लोगों के ठहरने के स्थान तथा सन्निवेश--सार्थ-व्यापारार्थ यात्राशील सार्थवाह एवं उनके सहवर्ती लोगों के ठहरने के स्थान होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता / वे मनुष्य स्वभावतः यथेच्छ-विचरणशील-स्वेच्छानुरूप विविध स्थानों में गमनशील होते हैं। (3) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे असीइ वा, मसीइ वा, किसीइ वा, वणिएत्ति वा, पणिएत्ति वा, वाणिज्जेइ वा ? Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] {जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र णो इणठे समठे, ववगय-प्रसि-मसि-किसि-वणिप्र-पणिअ-वाणिज्जा गं ते मणुआ पण्णता समणाउसो! (3) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में असितलवार के आधार पर जीविका-युद्धजीविका, युद्धकला, मषि--लेखन या कलम के आधार पर जीविका–लेखन-कार्य, लेखन-कला, कृषि खेती, वणिक-कला-विक्रय के आधार पर चलने वाली जीविका, पण्य-क्रय-विक्रय-कला तथा वाणिज्य-व्यापार-कला होती है ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य असि, मषि, कृषि, वणिक्, पणित तथा वाणिज्य-कला से--तन्मूलक जीविका से विरहित होते हैं। (4) अस्थि णं भंते ! तोसे समाए भरहे वासे हिरण्णेइ वा, सुवण्णेइ वा, कंसेइ वा, दूसेइ वा, मणि-मोतिय-संख-सिलप्पवालरत्तरयणसावइज्जेइ वा? हंता अस्थि, जो चेव णं तेसि मणुप्राणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छइ। (4) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में चांदी, सोना, कांसी, वस्त्र, मणियां, मोती,शंख, शिला-स्फटिक, रक्तरत्न-पद्मराग-पुखराज-ये सब होते हैं ? हाँ, गौतम ! ये सब होते हैं, किन्तु उन मनुष्यों के परिभोग में उपयोग में नहीं आते। (5) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे रायाइ वा, जुवरायाइ वा, ईसर-तलवरमाडंबिअ-कोडुबिन-इन्भ-सेटि-सेणावइ-सस्थवाहाइ वा ? गोयमा ! णो इणठे समझें, ववगयइड्डिसक्कारा णं ते मणुआ पण्णत्ता। (5) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में राजा, युवराज, ईश्वर---ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशाली पुरुष, तलवर--सन्तुष्ट नरपति द्वारा प्रदत्त-स्वर्णपट्ट से अलंकृत-राजसम्मानित विशिष्ट नागरिक, माडंबिक-जागीरदार भूस्वामी, कौटुम्बिक-बड़े परिवारों के प्रमुख, इभ्यजिनकी अधिकृत वैभव-राशि के पीछे हाथी भी छिप जाए, इतने विशाल वैभव के स्वामी, श्रेष्ठीसंपत्ति और सुव्यवहार से प्रतिष्ठा प्राप्त सेठ, सेनापति--राजा की चतुरंगिणी सेना के अधिकारी, सार्थवाह--अनेक छोटे व्यापारियों को साथ लिए देशान्तर में व्यवसाय करने वाले समर्थ व्यापारी होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य ऋद्धि-वैभव तथा सत्कार आदि से निरपेक्ष होते हैं। (6) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे दासेइ वा, पेसेइ वा, सिस्सेइ वा, भयगेइ वा, भाइल्लएइ वा, कम्मयरएइ बा? णो इणठे समठे, ववगयअभिओगा णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो! (6) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में दास—मृत्यु पर्यन्त खरीदे हुए या गह-दासी से उत्पन्न परिचर, प्रेष्य-दौत्यादि कार्य करने वाले सेवक, शिष्य-अनुशासनीय, शिक्षणीय व्यक्ति, भूतक-वृत्ति या वेतन लेकर कार्य करने वाले परिचारक, भागिक-भाग बँटाने वाले, हिस्सेदार तथा कर्मकर-गृह सम्बन्धी कार्य करने वाले नौकर होते हैं ? Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] ___ गौतम ! ऐसा नहीं होता / वे मनुष्य स्वामि-सेवक-भाव, प्राज्ञापक-प्राज्ञाप्य-भाव आदि से अतीत होते हैं। (7) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे मायाइ वा, पियाइ वा, भायाइ वा, भगिणोइ वा, भज्जाइ वा, पुत्ताइ वा, धूआइ वा, सुण्हाइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि मणाणं तिब्वे पेम्मबंधणे समुप्पज्जइ / (7) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्री तथा पुत्र-वधू ये सब होते हैं ? गौतम ! ये सब वहाँ होते हैं, परन्तु उन मनुष्यों का उनमें तीव्र प्रेम-बन्ध उत्पन्न नहीं होता। (8) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे अरीइ वा, वेरिएइ वा, घायएइ वा, वहएइ वा, पडिणीयए वा, पच्चामित्तेइ वा ? गोयमा ! णो इणठे समझें, ववगयवेराणुसया णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो! (8) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में अरि-शत्रु, वैरिक--जाति-निबद्ध वैरोपेत-- जातिप्रसूत शत्रुभावयुक्त, घातक-दूसरे के द्वारा वध करवाने वाले, वधक-स्वयं वध करने वाले आदि द्वारा ताडित करने वाले, प्रत्यनीक--कार्योपघातक-काम बिगाड़ने वाले तथा प्रत्यमित्र-~-पहले मित्र होकर बाद में अमित्र-भाव-शत्रु-भाव रखने वाले होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता / वे मनुष्य वैरानुबन्ध-रहित होते हैं--वैर करना, उसके फल पर पश्चात्ताप करना इत्यादि भाव उनमें नहीं होते। (E) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे मित्ताइ वा, वयंसाइ वा, णायएइ वा, संघाडिएइ वा, सहाइ वा, सुहोइ वा, संगएइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि मणुप्राणं तिब्वे राग-बंधणे समुप्पज्जइ / (6) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में मित्र--स्नेहास्पद व्यक्ति, वयस्य—समवयस्क साथी, ज्ञातक-प्रगाढतर स्नेहयुक्त स्वजातीय जन अथवा सहज परिचित व्यक्ति, संघाटिक-सहचर, सखा-एक साथ खाने-पीने वाले प्रगाढतम स्नेहयुक्त मित्र, सुहृद्-सब समय साथ देने वाले, हित चाहने वाले, हितकर शिक्षा देने वाले साथी, सांगतिक-साथ रहने वाले मित्र होते हैं ? गौतम ! ये सब वहाँ होते हैं, परन्तु उन मनुष्यों का उनमें तीव्र राग-बन्धन उत्पन्न नहीं होता। (10) अस्थि णं भंते ! तोसे समाए भरहे वासे आवाहाइ वा, विवाहाइ वा, जण्णाइ वा, सद्धाइ वा, थालीपागाइ वा, मियपिंड-निवेदणाइवा? णो इण? सम8, बवगय- आवाह-विवाह-जण्ण-सद्ध-थालीपाक-मियपिंड-निवेदणाइ वा णं ते मणुप्रा पण्णत्ता समणाउसो ! (10) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में आवाह-विवाह से पूर्व ताम्बूल-दानोत्सव अथवा वाग्दान रूप उत्सव, विवाह-परिणयोत्सव, यज्ञ-प्रतिदिन अपने-अपने इष्ट-देव की पूजा, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसूत्र श्राद्ध-पितृ-क्रिया, स्थालीपाक–लोकानुगत मृतक-क्रिया-विशेष तथा मृत-पिण्ड-निवेदन-मृत पुरुषों के लिए श्मशानभूमि में तीसरे दिन, नौवें दिन आदि पिंड-समर्पण-ये सब होते हैं ? आयुष्मन् श्रमण गौतम ! ये सब नहीं होते / वे मनुष्य आवाह, विवाह, यज्ञ, श्राद्ध, स्थालीपाक तथा मृत-पिंड-निवेदन से निरपेक्ष होते हैं / (11) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे इंदमहाइ वा, खंदमहाइ वा, णागमहाइ वा, जक्खमहाइ वा, भूअमहाइ वा, अगडमहाइ था, तडागमहाइ वा, दहमहाइ वा, गदीमहाइ वा, रुक्खमहाइ वा, पव्वयमहाइ वा, थूभमहाइ वा, चेइयमहाइ वा ? णो इण8 सम?, ववगय-महिमा णं ते मणुप्रा पण्णत्ता। (11) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में इन्द्रोत्सव, स्कन्दोत्सव कात्तिकेयोत्सव, नागोत्सव, यक्षोत्सव, कूपोत्सव, तडागोत्सव, द्रहोत्सव, नद्युत्सव, वृक्षोत्सव, पर्वतोत्सव, स्तुपोत्सव तथा चैत्योत्सव-ये सब होते हैं ? गौतम ! ये नहीं होते / वे मनुष्य उत्सवों से निरपेक्ष होते हैं। (12) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए गड-पेच्छाइ वा, गट्ट-पेच्छाइ वा, जल्ल-पेच्छाइ वा, मल्ल-पेच्छाइ वा, मुट्ठिअ-पेच्छाइ वा, वेलंबग-पेच्छाइ वा, कहग-पेच्छाइ वा, पवग-पेच्छाइ वा, लासग-पेच्छाइ वा? णो इण? सम?', ववगय-कोउहल्ला णं ते मणुा पण्णत्ता समणाउसो ! (12) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में नट-नाटक दिखाने वालों, नर्तक --नाचने वालों, जल्ल–कलाबाजों-रस्सी आदि पर चढ़कर कला दिखाने वालों, मल्ल-पहलवानों, मौष्टिक-मुक्केबाजों, विडंबक-विदूषकों--मसखरों, कथक --कथा कहने वालों, प्लवक छलांग लगाने या नदी आदि में तैरने का प्रदर्शन करने वालों, लासक-बीर रस की गाथाएँ या रास गाने वालों के कौतुक-तमाशे देखने हेतु लोग एकत्र होते हैं ? आयुष्मन् श्रमण गौतम ! ऐसा नहीं होता / क्योंकि उन मनुष्यों के मन में कौतूहल देखने की उत्सुकता नहीं होती। (13) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे सगडाइ वा, रहाइ वा, जाणाइ वा, जुग्गाइ वा, गिल्लीइ वा, थिल्लोइ वा, सीमाइ वा, संदमाणिमाइ वा? णो इण? सम8, पायचार-विहारा गं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउनो! (13) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में शकट–बैलगाड़ी, रथ, यान दूसरे वाहन, युग्य-पुरातनकालीन गोल्ल देश में सुप्रसिद्ध दो हाथ लम्बे चौड़े डोली जैसे यान, गिल्लि --दो पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली डोली, थिल्लि-दो घोड़ों या खच्चरों द्वारा खींची जाने वाली बग्घी, शिविका–पर्देदार पालखियाँ तथा स्यन्दमानिका-पुरुष-प्रमाण पालखियाँ—ये सब होते हैं ? आयुष्मन् श्रमण गौतम ! ऐसा नहीं होता, क्योंकि वे मनुष्य पादचारविहारी–पैदल चलने की प्रवृत्ति वाले होते हैं। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार [47 (14) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे गावीइ वा, महिसोइ वा, अयाइ वा, एलगाइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि मणुआणं परिभोगत्ताए हब्वमागच्छंति / (14) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में गाय, भैंस, अजा-बकरी, एडका–भेड़-ये सब पशु होते हैं ? गौतम ! ये पशु होते हैं किन्तु उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं आते / (15) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे आसाइ वा, हत्थीइ वा, उट्टाइ वा, गोणाइ वा, गवयाइ वा, अयाइ वा, एलगाइ वा, पसयाइ वा, मिश्राइ वा, वराहाइ वा, रुरुत्ति वा, सरभाइ वा, चमराइ बा, सबराइ वा, कुरंगाइ वा, गोकण्णाइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति / (15) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में घोड़े, हाथी, ऊँट, गाय, गवय बनैली गाय, बकरी, भेड़, प्रश्रय--दो खुरों के जंगली पशु, मृग हरिण, वराह-सूअर, रुरु-मृगविशेष, शरभअष्टापद, चँवर–जंगली गायें, जिनकी पूछों के बालों से चॅवर बनते हैं, शबर—सांभर, जिनके सींगों से अनेक शृगात्मक शाखाएँ निकलती हैं, कुरंग मृग-विशेष तथा गोकर्ण--मृग-विशेष-ये होते हैं ? गौतम ! ये होते हैं, किन्तु उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं पाते। (16) अस्थि णं भंते ! तोसे समाए भरहे वासे सीहाइ वा, वग्याइ वा, विगदी विगअच्छतरच्छसिआलबिडालसुणगकोकंतियकोलसुणगाइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि मणुआणं प्राबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेअं वा उप्पायेति, पगइभया णं ते सावयगणा पण्णत्ता समणाउसो! (16) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में सिंह, व्याघ्र बाघ, वृक-भेड़िया, द्वीपिकचीते, ऋच्छ—भाल, तरक्ष—मगभक्षी व्याघ्र विशेष, शृगाल-गीदड, विडाल----बिलाव, शुनक-कुत्ते, कोकन्तिक-लोमड़ी, कोलशुनक-जंगली कुत्ते या सूअर—ये सब होते हैं ? आयुष्मन् श्रमण गौतम ! ये सब होते हैं, पर वे उन मनुष्यों को आबाधा-ईषद् बाधा, जरा भी बाधा, व्याबाधा-विशेष बाधा नहीं पहुंचाते और न उनका छविच्छेद–न अंग-भंग ही करते हैं अथवा न उनकी चमड़ी नोचकर उन्हें विकृत बना देते हैं। क्योंकि वे श्वापद-जंगली जानवर प्रकृति से भद्र होते हैं। (17) अस्थि णं भंते ! तोसे समाए भरहे वासे सालीइ वा, बीहिगोहूमजवजवजवाइ वा, कलायमसूर-मग्गमासतिलकुलत्यणिप्फावआलिसंदगप्रयसिकुसुभकोदवकंगुवरगरालगसणसरिसवमूलग - बोप्राइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि मणुआणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति / (17) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में शाली-कलम जाति के चावल, व्रीहि ब्रीहि जाति के चावल, गोधूम-गेहूँ, यव---जौ, यवयव-विशेष जाति के जौ, कलाय-गोल चने-मटर, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र मसूर, मूग, उड़द, तिल, कुलथी, निष्पाव-वल्ल, पालिसंदक-चौला, अलसी, कुसुम्भ, कोद्रव-कोदों, कंगु-बड़े पीले चावल, वरक रालक-छोटे पीले चावल, सण-धान्य विशेष, सरसों, मूलक-मूली आदि जमीकंदों के बीज-ये सब होते हैं ? गौतम ! ये होते हैं, पर उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं पाते। (18) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरए वासे गुड्डाइ वा, दरोओवायपवायविसमविज्जलाइ वा? णो इण? सम?, तीसे समाए भरहे वासे बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए लिंगपुक्खरेइ वा० / (18) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में गर्त ---गड्ढे, दरी–कन्दराएँ, अवपात-ऐसे गुप्त खड्डु जहाँ प्रकाश में चलते हुए भी गिरने की आशंका बनी रहती है, प्रपात-ऐसे स्थान, जहाँ से व्यक्ति मन में कोई कामना लिए भृगु-पतन करे---गिरकर प्राण दे दे, विषम-जिन पर चढ़नाउतरना कठिन हो, ऐसे स्थान, विज्जल-चिकने कर्दममय स्थान- ये सब होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता / उस समय भरतक्षेत्र में बहुत समतल तथा रमणीय भूमि होती है / वह मुरज के ऊपरी भाग आदि की ज्यों एक समान होती है / (16) अस्थि गं भंते ! तोसे समाए भरहे वासे खाणूइ वा, कंटगतणयकयवराइ वा, पत्तकयवराइ वा? णो इण8 सम8, वगयखाणुकंटगतणकयवरपत्तकयवरा णं सा समा पण्णत्ता। (19) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में स्थाणु-ऊर्ध्वकाष्ठ-शाखा, पत्र आदि से रहित वृक्ष-ठूठ, कांटे, तृणों का कचरा तथा पत्तों का कचरा-ये होते हैं / गौतम ! ऐसा नहीं होता / वह भूमि स्थाणु, कंकट, तृणों के कचरे तथा पत्तों के कचरे से रहित होती है। (20) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे डंसाइ वा, मसगाइ वा, जूनाइ वा, लिक्खाइ वा, दिकुणाइ वा, पिसुआइ वा ? णो इण8 सम8, ववगयडंसमसगजूअलिढिकुणपिसुभा उवद्दवविरहिआ णं सासमा षण्णत्ता। (20) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में डांस, मच्छर, जू एँ, लीखें, खटमल तथा पिस्सू होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता / वह भूमि डांस, मच्छर, जू, लीख, खटमल तथा पिस्सू-वजित एवं उपद्रव-विरहित होती है। (21) अस्थि णं भंते ! तोसे समाए भरहे वासे अहोइ वा अयगराइ वा ? हंता अत्थि, णो चेव णं तेसि मणुआणं प्राबाहं वा, (वाबाहं वा, छविच्छेअं वा उप्पायेति,) पगइभद्दया णं ते वालगगणा पण्णत्ता। (21) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में साँप और अजगर होते हैं ? Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] गौतम ! होते हैं, पर वे मनुष्यों के लिए पाबाधाजनक, (व्यावाधाजनक तथा दैहिक पीडा व विकृतिजनक) नहीं होते / वे सर्प, अजगर (आदि सरीसृप जातीय--रेंगकर चलने वाले जीव)प्रकृति से भद्र होते हैं। (22) अस्थि मां भंते ! तोसे समाए भरहे वासे डिबाइ वा, उमराइ वा, कलहबोलखारवइरमहाजुद्धाइ वा, महासंगामाइ वा, महासत्थपडणाइ वा, महापुरिसपडणाइ वा, महारुहिरणिवडणाइ वा? गोयमा ! णो इण? सम?, ववगयवेराणुबंधा णं ते मणुआ पण्णत्ता। (22) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में डिम्बभय-भयावह स्थिति, डमर-राष्ट्र में आभ्यन्तर, बाह्य उपद्रव, कलह-वाग्युद्ध, बोल–अनेक प्रार्त व्यक्तियों का चीत्कार, क्षार-खार, पारस्परिक ईर्ष्या, वैर असहनशीलता के कारण हिंस्य-हिंसक भाव, तदुन्मुख अध्यवसाय, महायुद्ध---- व्यूह-रचना तथा व्यवस्थावजित महारण, महासंग्राम-व्यूह-रचना एवं व्यवस्थायुक्त महारण, महाशस्त्र-पतन-नागवाण, तामसबाण, पवनबाण, अग्निबाण प्रादि दिव्य अस्त्रों का प्रयोग तथा महापुरुष-पतन-छत्रपति आदि विशिष्ट पुरुषों का वध, महारुधिर-निपतन-छत्रपति आदि विशिष्ट जनों का रक्त-प्रवाह...खून बहाना-ये सब होते हैं ? गौतम.! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य वैरानुबन्ध—शत्रुत्व के संस्कार से रहित होते हैं / (23) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे दुब्भूआणि वा, कुलरोगाइ वा, गामरोगाइ वा, मंडलरोगाइ वा, पोट्टरोगाइ वा, सीसवेअणाइ वा, कण्णोद्वच्छिणहदंतवेअणाइ वा, कासाइ वा, सासाइ वा, सोसाइ वा, दाहाइ वा, अरिसाइ बा, अजीरगाइ वा, दओदराइ वा, पंडुरोगाइ वा, भगंदराइ वा, एगाहियाइ वा, बेआहियाइ वा, तेत्राहिाइ वा, चउस्थाहियाइ वा, इंदग्गहाइ वा, धणुग्गहाइ वा, खंदग्गहाइ वा, जक्खग्गहाइ वा, भूअग्गहाइ वा, मत्थसूलाइ वा, हिअयसूलाइ वा, पोट्टसूलाइ वा, कुच्छिसूलाइ वा, जोणिसूलाइ वा, गाममारीइ वा, (प्रागरमारीइ वा, गयरमारीइ वा, णिगममारीइ वा, रायहाणीमारीइ वा, खेडमारीइ वा, कब्बडमारीइ वा, मडंबमारीइ वा, दोणमुहमारीइ वा, पट्टणमारीइ वा, आसममारोइ वा, संवाहमारीइ वा,) सण्णिवेसमारीइ वा, पाणिक्खया, जणक्खया, वसणभूप्रमणारिआ? गोयमा ! णो इण? सम?, ववगयरोगायंका णं ते मणुपा पण्णत्ता समणाउसो ! (23) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में दुर्भूत—मनुष्य या धान्य आदि के लिए उपद्रव हेतु, चूहों टिड्डियों आदि द्वारा उत्पादित ईति' संकट, कुल-रोग-कुलक्रम से आये हुए रोग, ग्रामरोग---गाँव भर में व्याप्त रोग, मंडल-रोग-ग्रामसमूहात्मक भूभाग में व्याप्त रोग, पोट्ट-रोग----पेट सम्बन्धी रोग, शीर्ष-वेदना--मस्तक-पीडा, कर्ण-वेदना, प्रोष्ठ-वेदना, नेत्र-वेदना, नव-वेदना, दंतवेदना, खांसी, श्वास-रोग, शोष-क्षय तपेदिक, दाह-जलन, अर्श-गुदांकुर-बवासीर, अजीर्ण, जलोदर, पांडु रोग-पीलिया, भगन्दर, एक दिन से आने वाला ज्वर, दो दिन से आने वाला ज्वर, 1. अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मूषिकाः शलभाः शुकाः / प्रत्यासन्नाशच राजानः पडेता ईतयः स्मृताः // Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तीन दिन से आने वाला ज्वर, चार दिन से आने वाला ज्वर, इन्द्रग्रह, धनुग्रह, स्कन्दग्रह, कुमारग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह आदि उन्मत्तता हेतु व्यन्तरदेव कृत उपद्रव, मस्तक-शूल, हृदय-शूल, कुक्षि-शूल, योनि-शूल, गाँव, (आकर, नगर, निगम, राजधानी, खेट', कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टन, प्राश्रम, सम्बाध,) सन्निवेश----इन में मारि—किसी विशेष रोग द्वारा एक साथ बहुत से लोगों की मृत्यु, जनजन के लिए व्यसनभूत-आपत्तिमय, अनार्य-पापात्मक, प्राणि-क्षय-महामारि आदि द्वारा गाय, बैल आदि प्राणियों का नाश, जन-क्षय—मनुष्यों का नाश, कुल-क्षय-वंश का नाश ये सब होते हैं ? आयुष्मन् गौतम ! वे मनुष्य रोग—कुष्ट आदि चिरस्थायी बीमारियों तथा आतंक-शीघ्र प्राण लेने वाली शूल आदि बीमारियों से रहित होते हैं / मनुष्यों की आयु 32. (1) तोसे णं भंते ! समाए भारहे वासे मणुपाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहण्णणं देसूणाई तिण्णि पलिप्रोवमाइं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओक्माई। [32] (1) भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र में मनुष्यों को स्थिति-आयुष्य कितने काल का होता है ? गौतम ! उस समय उनका प्रायुष्य जघन्य कम से कम कुछ कम तीन पल्योपम का तथा उत्कृष्ट--अधिक से अधिक तीन पल्योपम का होता है। (2) तीसे गं भंते ! समाए भारहे वासे मणुाणं सरोरा केवइ उच्चत्तेणं पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णणं देसूणाई तिण्णि गाउआइं, उक्कोसेणं तिण्णि गाउआई / (2) भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र में मनुष्यों के शरीर कितने ऊँचे होते हैं ? गौतम ! उनके शरीर जघन्यतः कुछ कम तीन कोस तथा उत्कृष्टतः तीन कोस ऊँचे होते हैं। (3) ते णं भंते ! मणुआ किसंघयणी पण्णत्ता ? गोयमा ! वइरोसभणारायसंघयणी पण्णत्ता। (3) भगवन् ! उन मनुष्यों का संहनन कैसा होता है ? गौतम ! वे वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन युक्त होते हैं। (4) तेसि णं भंते ! मणुआणं सरीरा किंसंठिआ पण्णत्ता ? गोयमा ! समचउरससंठाणसंठिया पण्णत्ता। तेसि णं मणुप्राणं बेछप्पण्णा पिटुकरंडयसया पण्णत्ता समणाउसो! (4) भगवन् ! उन मनुष्यों का दैहिक संस्थान कैसा होता है ? आयुष्मन् गौतम ! वे मनुष्य सम-चौरस-संस्थान-संस्थित होते हैं। उनके पसलियों की दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती हैं। (5) ते णं भंते ! मणुमा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छन्ति, कहिं उववज्जति ? गोयमा ! छम्मासावसेसाउ जुअलगं पसवंति, एगणपणं राइंदिआई सारखंति, Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय बक्षस्कार] [51 संगोवेंति; संगोवेत्ता, कासित्ता, छोइत्ता, जंभाइत्ता, अक्किट्ठा, अश्वहिआ, अपरिप्राविआ कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववज्जंति, देवलोअपरिग्गहा णं ते मणुप्रा पण्णत्ता। (5) भगवन् ! वे मनुष्य अपना आयुष्य पूरा कर--मृत्यु प्राप्त कर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जब उनका प्रायुष्य छह मास बाकी रहता है, वे युगल—एक बच्चा, एक बच्ची उत्पन्न करते हैं। उनपचास दिन-रात उनकी सार-सम्हाल करते हैं—पालन-पोषण करते हैं, संगोपनसंरक्षण करते हैं / यों पालन तथा संगोपन कर वे खाँस कर, छींक कर, जम्हाई लेकर शारीरिक कष्ट, व्यथा तथा परिताप का अनुभव नहीं करते हुए काल-धर्म को प्राप्त होकर-मर कर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं / उन मनुष्यों का जन्म स्वर्ग में ही होता है, अन्यत्र नहीं / (6) तीसे णं भंते ! समाए भारहे वासे कइविहा मणुस्सा अणुसज्जित्था ? गोयमा ! छविहा पण्णत्ता, तंजहा-पम्हगंधा 1, मित्रगंधा 2, अममा 3, तेअतली 4, सहा 5, सणिचारी 6 / (6) भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र में कितने प्रकार के मनुष्य होते हैं ? गौतम ! छह प्रकार के मनुष्य कहे गये हैं- 1. पद्मगन्ध-कमल के समान गंध वाले, 2. मृगगंध-कस्तुरी सदृश गंध वाले, 3. अमम-ममत्वरहित, 4. तेजस्वी, 5. सह–सहनशील तथा 6. शनैश्चारी-उत्सुकता न होने से धीरे-धीरे चलने वाले / विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में यौगलिकों की आयु जघन्य—कम से कम कुछ कम तीन पल्योपम तथा उत्कृष्ट अधिक से अधिक तीन पल्योपम जो कही गई है, वहाँ यह ज्ञातव्य है कि जघन्य कुछ कम तीन पल्योपम आयुष्य-परिमाण यौगलिक स्त्रियों से सम्बद्ध है। यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यौगलिक के आगे के भव का आयुष्य-बन्ध उनकी मृत्यु से छः मास पूर्व होता है, जब वे युगल को जन्म देते हैं / अवसर्पिणी : सुषमा प्रारक 33. तीसे णं समाए चहि सागरोवम-कोडाकोडोहिं काले वीइक्कते अणंहि वण्णपज्जवेहि, अणहि गंधपज्जवेहि, अणंतेहिं रसपज्जवेहि, अणंतेहिं फासपज्जवेहि, अणतेहि संघयणपज्जवेहि, अर्णतेहि संठाणपज्जवेहि, अणंतेहि उच्चतपज्जवेहि, अणंतेहिं आउपज्जवेहि, अणंतेहि गुरुलहपज्जवेहि, अणतेहि अगुरुलहपज्जवेहि, अणंतेहि उट्ठाणकम्मबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमपज्जवेहि, अणंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे परिहायमाणे एत्थ णं सुसमा णामं समाकाले पडिज्जिसु समणाउसो! जंबूद्दीवे णं भंते ! दोवे इमीसे प्रोसप्पिणीए सुसमाए समाए उत्तम-कट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे होत्था ? / ___ गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा तं चेव जं सुसमसुसमाए पुव्ववण्णिअं, णवरं णाणत्तं चउधणुसहस्समूसिआ, एगे अट्ठावीसे पिट्टकरंडकसए, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र छट्ठभत्तस्स आहारट्ठ, चउट्टि राइंदिआई सारखंति, दो पलिअोवमाइं पाऊ सेसं तं चेव / तीसे णं समाए चउविवहा मणुस्सा अणुसज्जित्था, तंजहा-एका 1, पउरजंघा 2, कुसुमा 3, सुसमणा 4 / [33] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय का---उस पारक का प्रथम प्रारक का जब चार सागर कोडा-कोडी काल व्यतीत हो जाता है, तब अवसर्पिणी काल का सुषमा नामक द्वितीय प्रारक प्रारम्भ हो जाता है। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय, अनन्त गंध-पर्याय, अनन्त रस-पर्याय, अनन्त स्पर्शपर्याय, अनन्त संहनन-पर्याय, अनन्त संस्थान-पर्याय, अनन्त उच्चत्व-पर्याय, अनन्त आयु-पर्याय, अनन्त गुरु-लघु-पर्याय, अनन्त अगुरु-लघु-पर्याय, अनन्त उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम-पर्यायइनका अनन्तगुण परिहानि-क्रम से ह्रास होता जाता है। - भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत इस अवपिणी के सुषमा नामक मारक में उत्कृष्टता की पराकाष्ठा-प्राप्त समय में भरतक्षेत्र का कैसा आकार स्वरूप होता है ? गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है / मुरज के ऊपरी भाग जैसा समतल होता है / सुषम-सुषमा के वर्णन में जो कथन किया गया है, वैसा ही यहाँ जानना चाहिए। उससे इतना अन्तर है–उस काल के मनुष्य चार हजार धनुष की अवगाहना वाले होते हैं, उनके शरीर की ऊँचाई दो कोस होती है। उनकी पसलियों की हड्डियां एक सौ अट्ठाईस होती हैं। दो दिन बीतने पर उन्हें भोजन की इच्छा होती है। वे अपने यौगलिक बच्चों की चौसठ दिन तक सार-सम्हाल करते हैं-पालन-पोषण करते हैं, सुरक्षा करते हैं / उनकी श्रायु दो पल्योपम की होती है। शेष सब उसी प्रकार है, जैसा पहले वर्णन आया है। उस समय चार प्रकार के मनुष्य होते हैं--१. एक-प्रवरश्रेष्ठ, 2. प्रचुरजंघ-पुष्ट जंघा वाले, 3. कुसुम-पुष्प के सदृश सुकुमार, 4. सुशमन - अत्यन्त शान्त / अवसपिरणी : सुषमा-दुःषमा 34. तीसे णं समाए तिहि सागरोवमकोडाकोडोहि काले वीइक्कते अणतेहि वण्णपज्जवेहि, (अणतेहिं गंधपज्जवेहि, अणंतेहिं रसपज्जवेहि, अणतेहिं फासपज्जवेहि, अणंतेहि संघयणपज्जवेहि, अणंतेहि संठाणपज्जवेहि, अणंतेहिं उच्चत्तपज्जवेहि, अणंतेहि पाउपज्जवेहि, अणंतेहि गुरुलहुपज्जवेहि, अणंतेहि अगुरु-लहु-पज्जवेहि, अणंतेहिं उट्ठाणकम्मबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमपज्जवेहि,) अणंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणो 2, एत्थ णं सुसमदुस्समाणामं समा पडिवज्जिसु / समणाउसो ! सा णं समा तिहा विभज्जइ तंजहा—पढमे तिभाए 1, मज्झिमे तिभाए 2, पच्छिमे तिभाए। जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे, इमोसे प्रोसप्पिणीए सुसमदुस्समाए समाए पढममज्झिमेसु तिभाएसु भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे ? पुच्छा। गोयमा ! बहसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, सो चेव गमो अन्वो णाणत्तं दो घणुसहस्साई उड्ड उच्चत्तेणं / तेसि च मणुप्राणं चउसटिपिटुकरंडगा, चउत्थभत्तस्स आहारत्थे समुप्पज्जइ, ठिई पलिनोवम, एगूणासीइं राइंदिआई सारक्खंति, संगोवेंति, (कासित्ता, छोइत्ता, जंभाइत्ता, अक्किट्ठा, अव्वहिआ, अपरिआविआ कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववजंति) देवलोगपरिग्गहिआ णं ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो ! Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] [53 तीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे तिभाए भरहस्स वासस्स केरिसए पायारभावपडोयारे होत्था ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव' मणोहि उवसोभिए, तंजहा-कित्तमेहि चेव प्रकित्तिमेहि चेव / तीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे तिभागे भरहे वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपडोपारे होत्था ? गोयमा ! तेसि मणुाणं छविहे संधयणे, छविहे संठाणे, बहूणि धणुसयाणि उड्ढं उच्चत्तेणं, जहणणं संखिज्जाणि वासाणि, उक्कोसेणं असंखिज्जाणि वासाणि आउअं पालंति, पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी, अप्पेगइया तिरिअगामी, अप्पेगइया मणुस्सगामी, अप्पेगइया देवगामी, अप्पेगइया सिझंति, (बुझंति, मुच्चंति, परिणिब्वायंति,) सव्वदुक्खाणमंतं करेंति / [34] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय का उस प्रारक का-द्वितीय प्रारक का तीन सागरोपम कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाता है, तब अवसर्पिणी-काल का सुषम-दुःषमा नामक तृतीय प्रारक प्रारम्भ होता है। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय, (अनन्त गंध-पर्याय, अनन्त रस-पर्याय, अनन्त स्पर्श-पर्याय, अनन्त संहनन-पर्याय, अनन्त संस्थान-पर्याय, अनन्त उच्चत्व-पर्याय, अनन्त प्रायू-पर्याय, अनन्त गुरु-लघु-पर्याय, अनन्त अगुरु-लघु-पर्याय, अनन्त उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषकार-पराक्रमपर्याय)-इनका अनन्त गुण परिहानि-क्रम से ह्रास होता जाता है / / उस आरक को तीन भागों में विभक्त किया गया है-१. प्रथम त्रिभाग, 2. मध्यम विभाग, 3. पश्चिम त्रिभाग–अंतिम त्रिभाग। भगवन् ! जम्बूद्वीप में इस अवसर्पिणी के सुषम-दुषमा प्रारक के प्रथम तथा मध्यम त्रिभाग का प्राकार--स्वरूप कैसा है ? आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है। उसका पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए / अन्तर इतना है. उस समय के मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई दो हजार धनूष होती है। उनकी पसलियों की हड़ियाँ चौसठ होती हैं / एक दिन के बाद उन में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। उनका प्रायुष्य एक पल्योपम का होता है, 79 रात-दिन अपने यौगलिक शिशुओं की वे सार-सम्हाल-पालन पोषण करते हैं, सुरक्षा करते हैं / (वे खाँसकर, छींककर, जम्हाई लेकर शारीरिक कष्ट, व्यथा तथा परिताप अनुभव नहीं करते हुए काल-धर्म को प्राप्त होकर-मर कर स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं ) / उन मनुष्यों का जन्म स्वर्ग में ही होता है। भगवन् ! उस ग्रारक के पश्चिम विभाग में आखिरी तीसरे हिस्से में भरतक्षेत्र का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय होता है / वह मुरज के ऊपरी भाग जैसा समतल होता है / वह यावत् कृत्रिम एवं अकृत्रिम मणियों से उपशोभित होता है / भगवन् ! उस पारक के अंतिम तीसरे भाग में भरतक्षेत्र में मनुष्यों का प्राकार-स्वरूप कैसा होता है ? 1. देखें सूत्र संख्या 6 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोतम ! उन मनुष्यों के छहों प्रकार के संहनन होते है, छहों प्रकार के संस्थान होते हैं / उनके शरीर की ऊँचाई सैकड़ों धनुष-परिमाण होती है। उनका प्रायुष्य जघन्यत: संख्यात वर्षों का कृष्टतः असंख्यात वर्षों का होता है। अपना पायूष्य पूर्ण कर उनमें से कई नरक-गति में, कई तिर्यंच-गति में, कई मनुष्य-गति में, कई देव-गति में उत्पन्न होते हैं और सिद्ध होते हैं, (बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिवृत्त होते हैं,) समग्न दुःखों का अन्त करते हैं। कुलकर-व्यवस्था 35. तोसे गं समाए पच्छिमे तिभाए पलिओवमट्टभागावसेसे एत्थ णं इमे पण्णरस कुलगरा सम्प्पज्जित्था, तंजहा-सुमई 1, पडिस्सुई 2, सोमंकरे 3, सीमंधरे 4, खेमंकरे 5, खेमंधरे 6, विमलवाहणे 7, चक्खुमं 8, जसमं 6, अभिचंदे 10, चंदामे 11, पसेणई 12, मरुदेवे 13, णाभी 14, उसमे 15, त्ति। [35] उस प्रारक के अंतिम तीसरे भाग के समाप्त होने में जब एक पल्योपम का आठवां भाग अवशिष्ट रहता है तो ये पन्द्रह कुलकर-विशिष्ट बुद्धिशाली पुरुष उत्पन्न होते हैं-१. सुमति, 2. प्रतिश्रुति, 3. सीमंकर, 4. सीमन्धर, 5. क्षेमंकर, 6. क्षेमंधर, 7. विमलवाहन, 8. चक्षुष्मान्, है. यशस्वान्, 10. अभिचन्द्र, 11. चन्द्राभ, 12. प्रसेनजित्, 13. मरुदेव, 14. नाभि, 15. ऋषभ / 36. तत्थ णं सुमई 1, पडिस्सुई 2, सीमंकरे 3, सोमंधरे 4, खेमंकरे ५–णं एतेसि पंचण्हं कुलगराणं हक्कारे णाम दंडणीई होत्था। तेणं मणुआ हक्कारेणं दंडेणं हया समाणा लज्जिना, विलज्जिया, वेड्डा, भोआ, तुसिणीना, विणओणया चिठ्ठति / तत्थ णं खेमंधर 6, विमलवाहण 7, चक्खुमं 8, जसमं 6, अभिचंदाणं १०–एतेसि पंचण्हं कुलगराणं मक्कारे णाम दंडणीई होत्था। ते णं मणुआ मक्कारेणं दंडेणं हया समाणा (लज्जिा , विलज्जिा , वेड्ढा, भीआ, तुसिणीमा, विणओणया) चिट्ठति। तस्थ णं चंदाभ 11, पसेणइ 12, मरुदेव 13, णाभि 14, उसभाणं १५-एतेसि गं पंचण्हं कुलगराणं धिक्कारे णामं दंडणीई होत्था। ते णं मणुप्रा धिक्कारेणं दंडेणं हया समाणा जाव' चिट्ठति / |36] उन पन्द्रह कुलकरों में से सुमति, प्रतिश्रुति, सीमकर, सीमन्धर तथा क्षेमंकर-इन पांच कुलकरों की हकार नामक दंड-नीति होती है। वे (उस समय के) मनुष्य हकार-"हा, यह क्या किया" इतने कथन मात्र रूप दंड से अभिहत होकर लज्जित, विलज्जित-विशेष रूप से लज्जित, व्यर्द्ध-अतिशय लज्जित, भीतियुक्त, तूष्णीक-नि:शब्द-चुप तथा विनयावनत हो जाते हैं / 1. देखें सूत्र यही Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] [55 __ उनमें से छठे क्षेमंधर, सातवें विमलवाहन, आठवें चक्षुष्मान, नौवें यशस्वान् तथा दशवें अभिचन्द्र-इन पाँच कुलकरों की मकार नामक दण्डनीति होती है। वे (उस समय के) मनुष्य मकार—'मा कुरु'- ऐसा मत करो-इस कथन रूप दण्ड से (लज्जित, विलज्जित, व्यर्द्ध, भीत, तूष्णीक तथा विनयावनत) हो जाते हैं। उनमें से ग्यारहवें चन्द्राभ, बारहवें प्रसेनजित्, तेरहवें मरुदेव, चौदहवें नाभि तथा पन्द्रहवें ऋषभ- इन पाँच कुलकरों की धिक्कार नामक नीति होती है / __वे (उस समय के) मनुष्य 'धिक्कार'---इस कर्म के लिए तुम्हें धिक्कार है, इतने कथनमात्र रूप दण्ड से अभिहत होकर लज्जित हो जाते हैं / विवेचन-हकार, मकार एवं धिक्कार, इन तीन दण्डनीतियों के कथन से स्पष्ट है कि जैसेजैसे काल व्यतीत होता जाता है, वैसे-वैसे मनुष्यों की मनोवृत्ति में परिवर्तन होता जाता है और अधिकाधिक कठोर दण्ड की व्यवस्था करनी पड़ती है। प्रथम तीर्थकर भ० ऋषभ : गृहवास : प्रव्रज्या 37. णाभिस्स णं कुलगरस्स मरुदेवाए भारिआए कुच्छिसि एत्थ णं उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया, पढमजिणे, पढमकेवली, पढमतित्थगरे, पढमधम्मवरचाउरत-चक्कवट्टी समुप्पज्जित्था। तए णं उसमे अरहा कोसलिए बीसं पुव्वसयसहस्साई कुमारवासमझे वसइ, वसित्ता तेवट्ठि पुब्बसयसहस्साई महारायवासमझे वसइ / तेवट्टि पुब्वसयसहस्साई महारायवासमझे वसमाणे लेहाइप्रायो, गणिअप्पहाणाओ, सउणरुपज्जवसाणाओ बावरि कलामो चोट्टि महिलागुणे सिप्पसयं च कम्माणं तिण्णिवि पयाहिआए उवदिसइ / उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचइ / अभिसिचित्ता तेसीई पुव्वसयसहस्साई महारायवासमझे वसइ। वसित्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले, तस्स णं चित्तबहुलस्स णवमीपक्षणं दिवसस्स पच्छिमे भागे चइत्ता हिरण्णं, चइत्ता सुवण्णं, चइत्ता कोसं, कोट्टागारं, चइत्ता बलं, चइत्ता वाहणं, चइत्ता पुरं, चइत्ता अंतेउरं चइत्ता विउलघणकणगरयणमणिमोत्तिप्रसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावइज्जं विच्छड्डियित्ता, विगोवइत्ता दायं दाइमाणं परिभाएत्ता सुदंसणाए सीआए सदेवमणुप्रासुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे संखिन-चक्किअ-णंगलिअ-मुहमंगलिन-पूसमाणव-वद्धमाणग-प्राइवखग-लंख-मंख-घंटिअगणेहिं ताहिं इटाहि, कंताहि, पियाहिं, मणुण्णाहिं, मणामाहि, उरालाहिं, कल्लाणाहि, सिवाहि, धन्नाहि, मंगल्लाहि, सस्सिरिभाहि, हियगमणिज्जाहि, हिययपल्हायणिज्जाहि, कष्णमणणिव्वुइकराहि, अपुणरुत्ताहि, अदुसइआहि वहि अणवरयं अभिणंदता य अभिथुणता य एवं वयासी-जय जय नंदा! जय जय भद्दा ! धम्मेणं अभीए परीसहोवसग्गाणं, खंतिखमे भयभेरवाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ त्ति कटु अभिणदंति अ अभिथुणंति प्र। तए णं उसने अरहा कोसलिए णयणमालासहस्सेहि पिच्छिज्जमाणे 2 एवं (हिययमालासहस्सेहिं अभिणंदिज्जमाणे अभिणंदिज्जमाणे, उन्नइज्जमाणे मणोरहमालासहस्सेहि विच्छिप्पमाणे Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र विच्छिप्पमाणे, वयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्यमाणे अभिथुव्यमाणे, कंति-सोहग्गगुणेहि पत्थिज्जमाणे पत्थिज्जमाणे, बहूणं नरनारिसहस्साणं दाहिणहत्येणं अंजलिमालासहस्साइं पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे, भवणपंतिसहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे,) पाउलबोलबहुलं गभं करते विणीपाए रायहाणीए मज्झमझेणं णिग्गच्छद। प्रासिन-संमज्जिअसित्त-सुइक-पुप्फोवयारकलिअं सिद्धत्थवणविउलरायमगं करेमाणे हय-गय-रह-पहकरेण पाइक्कचडकरेण य मंदं 2 उद्ध' यरेणुयं करेमाणे 2 जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे, जेणेव असोगवरपायवे, तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सोअं ठावेइ, ठावित्ता सीमानो पच्चोरुहइ, पच्चोरहित्ता सयमेवाभरणालंकारं प्रोमुअइ, ओमुइत्ता सयमेव चहि अट्टाहि लोअं करइ, करित्ता छठेणं भत्तेणं अपाणएणं प्रासादाहिं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उग्गाणं, भोगाणं, राइनाणं, खत्तिप्राणं चाहिं सहस्सेहिं सद्धि एगं देवदूसमादाय मुडे भवित्ता आगाराप्रो अणगारियं पव्वइए। [37] नाभि कुलकर के, उनकी भार्या मरुदेवी की कोख से उस समय ऋषभ नामक अर्हत्, कौशलिक-कोशल देश में अवतीर्ण, प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर चतुदिग्व्याप्त अथवा दान, शील, तप एवं भावना द्वारा चार गतियों या चारों कषायों का अन्त करने में सक्षम धर्म-साम्राज्य के प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हुए। कौशलिक अर्हत् ऋषभ ने बीस लाख पूर्व कुमार-अकृताभिषेक राजपुत्र-युवराज-अवस्था में व्यतीत किये / तिरेसठ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहते हुए उन्होंने लेखन से लेकर पक्षियों की बोली की पहचान तक गणित-प्रमुख कलाओं का, जिनमें पुरुषों की बहत्तर कलापों, स्त्रियों के चौसठ गुणों-कलाओं तथा सौ प्रकार के कार्मिक शिल्पविज्ञान का समावेश है, प्रजा के हित के लिए उपदेश किया। कलाएँ आदि उपदिष्ट कर अपने सौ पुत्रों को सौ राज्यों में अभिषिक्त किया उन्हें पृथक्-पृथक् राज्य दिये / उनका राज्याभिषेक कर वे तियासी लाख पूर्व (कुमारकाल के बीस लाख पूर्व तथा महाराज काल के तिरेसठ लाख पूर्व) गृहस्थ-वास में रहे। यों गृहस्थ-वास में रहकर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास-चैत्र मास में प्रथम पक्ष कृष्ण पक्ष में नवमी तिथि के उत्तरार्ध में मध्याह्न के पश्चात् रजत, स्वर्ण, कोश-भाण्डागार, कोष्ठागार-धान्य के प्रागार, बल-चतुरंगिणी सेना, वाहनहाथी, घोड़े, रथ आदि सवारियाँ, पुरनगर, अन्तःपुर-रनवास, विपुल धन, स्वर्ण, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिला स्फटिक, राजपट्ट आदि, प्रवाल-मू गे, रक्त रत्न–पद्मराग आदि लोक के सारभूत पदार्थों का परित्याग कर ये सब पदार्थ अस्थिर हैं, यों उन्हें जुगुप्सनीय या त्याज्य मानकर-- उनसे ममत्व भाव हटाकर अपने दायिक-गोत्रिक—अपने गोत्र या परिवार के जनों में धन का बंटवारा कर वे सुदर्शना नामक शिविका–पालखी में बैठे / देवों, मनुष्यों तथा असुरों की परिषद् उनके साथसाथ चली / शांखिक-शंख बजाने वाले, चाक्रिक-चक्र घुमाने वाले, लांगलिक-स्वर्णादि-निर्मित हल गले से लटकाये रहने वाले, मुखमांगलिक-मुह से मंगलमय शुभ वचन बोलने वाले, पुष्यमाणव-मागध, भाट, चारण आदि स्तुतिगायक, वर्धमानक-औरों के कंधों पर बैठे पुरुष, याख्यायक-शुभाशुभ-कथक, लेख--बांस के सिरे पर खेल दिखाने वाले, मंख-चित्रपट दिखाकर आजीविका चलाने वाले, घाण्टिक---घण्टे बजाने वाले पुरुष उनके पीछे-पीछे चले / वे इष्ट अभीसिप्त, कान्त-कमनीय शब्दमय, प्रिय-प्रिय अर्थ युक्त, मनोज्ञ-मन को सुन्दर लगने वाली, मनोरम–मन को बहुत रुचने वाली, उदार-शब्द एवं अर्थ की दृष्टि से वशद्ययुक्त, कल्याण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] [57 कल्याणाप्तिसचक. शिव-निरुपद्रव. धन्य धन-प्राप्ति कराने वाली, मांगल्य–अनथेनिवारक सश्रीक–अनुप्रासादि अलंकारोपोत होने से शोभित, हृदयगमनीय-हृदय तक पहुँचने वाली, सुबोध, हृदय प्रहलादनीय हृद्गत क्रोध, शोक आदि ग्रन्थियों को मिटाकर प्रसन्न करने वाली, कर्ण-मननिर्वतिकर-कानों को तथा मन को शांति देने वाली, अपुनरुक्त-पुनरुक्ति-दोष वजित, अर्थशतिकसैकड़ों अर्थों से युक्त अथवा सैकड़ों अर्थ~-इष्ट-कार्य निष्पादक-वाणी द्वारा वे निरन्तर उनका इस प्रकार अभिनन्दन तथा अभिस्तवन स्तुति करते थे-वैराग्य के वैभव से आनन्दित ! अथवा जगन्नंद ! –जगत् को आनन्दित करने वाले, भद्र ! --जगत् का कल्याण करने वाले प्रभुवर ! आपकी जय हो, आपकी जय हो / आप धर्म के प्रभाव से परिषहों एवं उपसर्गों से अभीत-निर्भय रहें, आकस्मिक भय-संकट, भैरव-सिंह आदि हिंसक प्राणि-जनित भय अथवा भयंकर भय-धोर भय का सहिष्णुतापूर्वक सामना करने में सक्षम रहें / आप की धर्मसाधना निर्विघ्न हो। उन आकुल पौरजनों के शब्दों से आकाश आपूर्ण था। इस स्थिति में भगवान् ऋषभ राजधानी के बीचों-बीच होते हए निकले। सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार उनके दर्शन कर रहे थे, (सहस्रों नर-नारी अपने हृदय से उनका बार-बार अभिनन्दन कर रहे थे, सहस्रों नर-नारी अपने शुभ मनोरथ हम इनकी सन्निधि में रह पायें इत्यादि उत्सुकतापूर्ण मनोकामनाएँ लिए हुए थे। सहस्रों नर-नारी अपनी वाणी द्वारा उनका बार-बार अभिस्तवन-गुण-संकीर्तन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी उनकी कांति-देह-दीप्ति, उत्तम सौभाग्य प्रादि गुणों के कारण ये स्वामी हमें सदा प्राप्त रहें, बार-बार ऐसी अभिलाषा करते थे / भगवान् ऋषभ सहस्रों नर-नारियों द्वारा अपने हजारों हाथों से उपस्थापित अंजलिमाला-प्रणामांजलियों को अपना दाहिना हाथ ऊंचा उठाकर स्वीकार करते जाते थे, अत्यन्त कोमल वाणी से उनका कुशल-क्षेम पूछते जाते थे / यों वे घरों की हजारों पंक्तियों को लांधते हुए आगे बढ़े / ) सिद्धार्थवन, जहाँ वे गमनोधत थे, की ओर जाने वाले राजमार्ग पर जल का छिड़काव कराया हुआ था / वह झाड़-बुहारकर स्वच्छ कराया हुआ था, सुरभित जल से सिक्त था, शुद्ध था, वह स्थान-स्थान पर पुष्पों से सजाया गया था, घोड़ों, हाथियों तथा रथों के समूह, पदातियोंपैदल चलने वाले सैनिकों के समूह के पदाघात से--चलने से जमीन पर जमी हुई धूल धीरे-धीरे ऊपर की ओर उड़ रही थी। इस प्रकार चलते हुए वे जहाँ सिद्धार्थवन उद्यान था, जहाँ उत्तम अशोक वृक्ष था, वहाँ पाये / आकर उस उत्तम वृक्ष के नीचे शिविका को रखवाया, उससे नीचे उतरे / नीचे उतरकर स्वयं अपने गहने उतारे / गहने उतारकर उन्होंने स्वयं आस्थापूर्वक चार मुष्टियों द्वारा अपने केशों का लोच किया। वैसा कर निर्जल बेला किया / फिर उत्तराषाढा नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर अपने चार हजार उग्र आरक्षक अधिकारी, भोग-विशेष रूप से समादृत राजपुरुष या अपने मंत्रि-मंडल के सदस्य, राजन्य-राजा द्वारा वयस्य रूप में---मित्र रूप में स्वीकृत विशिष्ट जन या राजा के परामर्शक मंडल के सदस्य, क्षत्रिय-क्षत्रिय वंश के राजकर्मचारीवन्द के साथ एक देवदूष्य-दिव्य वस्त्र ग्रहण कर मुडित होकर अगार से---गृहस्थावस्था से अनगारिता-साधुत्व, जहाँ अपना कोई घर नहीं होता, सारा विश्व ही घर होता है, में प्रवजित हो गए। विवेचन–पुरुष को बहत्तर कलाओं का इस सूत्र में उल्लेख हुआ है / कलाओं का राजप्रश्नीय सूत्र आदि में वर्णन आया है / तदनुसार वे निम्नांकित हैं Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 1. लेख–लेखन, 2. गणित, 3. रूप, 4. नाट्य अभिनय युक्त, अभिनय रहित तांडव आदि नृत्य, 5. गीत--गन्धर्व-कला या संगीत-विद्या, 6. वादित-वाद्य बजाने की कला, 7. स्वरगत-संगीत के मूलभूत षड्ज, ऋषभ आदि स्वरों का ज्ञान, 8. पुष्करगत-मृदंग आदि बजाने का ज्ञान, 6. समताल—संगीत में गीत तथा वाद्यों के सुर एवं ताल-समन्वय या संगति का ज्ञान, 10. द्यूत–जुमा खेलना, 11. जनवाद–यत-विशेष, 12. पाशक—पासे खेलना, 13. अष्टापद--चौपड़ द्वारा जूग्रा खेलने की कला, 14. पुर:काव्य-शीघ्रकवित्व-किसी भी विषय पर तत्काल काव्य रचना करना, आशु कविता करना, 15. दकमृतिका-पानी तथा मिट्टी को मिलाकर विविध वस्तुएँ निर्मित करने की कला, अथवा पानी तथा मिट्टी के गुणों का परीक्षण करने की कला, 16. अन्नविधि-भोजन पकाने की कला, 17. पानविधि-पानी पीने आदि विषय में गुण-दोष का विज्ञान, 18. वस्त्रविधि-वस्त्र पहनने आदि का विशिष्ट ज्ञान, 16. विलेपनविधि-देह पर सुरभित, स्निग्ध पदार्थों का, औषधि विशेष का लेप करने की विधि, 20. शयनविधि- पलंग आदि शयन सम्बन्धी वस्तुओं की संयोजना, सुसज्जा आदि का ज्ञान, 21. आर्या-प्रार्या छन्द रचने की कला, 22. प्रहेलिका---गूढाशय वाले पद्य, पहेलियाँ रचना, उनका हल प्रस्तुत करना, 23. मागधिका-मागधिका छन्द में रचना करने की कला, 24. गाथा-संस्कृतभिन्न अन्य भाषा में प्रार्या छन्द में रचना, 25. गीतिका पूर्वार्द्ध के सदृश उत्तरार्द्ध-लक्षणा आर्या में रचना, 26. श्लोक-अनुष्टुप-विशेष में रचना, 27. हिरण्ययक्ति_चाँदी के यथोचित संयोजन की कला. 28. स्वर्णयुक्ति-सोने के यथोचित संयोजन की कला, 26. चूर्णयुक्ति-कोष्ठ आदि सुगन्धित पदार्थों का बुरादा बनाकर उसमें अन्य पदार्थों का मेलन, 30. प्राभरणविधि---आभूषण-अलंकार द्वारा सज्जा, 31. तरुणी-परिकर्म-युवतियों के शृगार, प्रसाधन की कला, 32. स्त्रीलक्षण सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार स्त्रियों के शुभ-अशुभ लक्षणों का ज्ञान, 33. पुरुषलक्षण सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार पुरुषों के शुभ तथा अशुभ लक्षणों का ज्ञान, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार [59 34. ह्यलक्षण शालिहोत्र शास्त्र के अनुसार घोड़े के शुभ-अशुभ लक्षणों का ज्ञान, 35. गजलक्षण -हाथी के शुभ-अशुभ लक्षणों का ज्ञान, 36. गोलक्षण-गोजातीय पशुओं के शुभ-अशुभ लक्षणों का ज्ञान, 37. कुक्कुट लक्षण-मुर्गों के शुभ-अशुभ लक्षणों का ज्ञान, 38. छत्रलक्षण-चक्रवर्ती के छत्र-रत्न आदि का ज्ञान, 36. दण्डलक्षण-छत्र आदि में लगने वाले दंड के सम्बन्ध में ज्ञान. 40. असिलक्षण-तलवार सम्बन्धी ज्ञान, 41. मणिलक्षण-रत्न-परीक्षा, 42. काकणिलक्षण-चक्रवर्ती के काकणि-रत्न का विशेष ज्ञान, 43. वास्तुविद्या ---गृह-भूमि के गुण-दोषों का परिज्ञान, 44. स्कन्धावार मान-सेना के पड़ाव या शिविर के परिमाण या विस्तार के सम्बन्ध में ज्ञान, 45. नगरमान--नगर के परिमाण के सम्बन्ध में जानकार गर बसाने की कला, 46. चार-ग्रह-गणना का विशेष ज्ञान, 47. प्रतिचार-ग्रहों के वक्र-गमन आदि प्रतिकूल चाल का ज्ञान, 48. व्यूह -युद्धोत्सुक सेना को चक्रव्यूह आदि के रूप में जमावट, 49. प्रतिव्यूह-व्यूह को भंग करने में उद्यत सेना की व्यूह के प्रतिकूल स्थापना या जमावट, 50. चक्रव्यूह चक्र के आकार की सैन्य-रचना, 51. गरुड़व्यूह-गरुड़ के आकार की सैन्य-रचना. 52. शकटव्यूह--गाड़ी के आकार की सैन्य-रचना, 53. युद्ध, 54. नियुद्ध-मल्ल-युद्ध, 55. युद्धातियुद्ध -घमासान युद्ध, जहाँ दोनों ओर के मरे हुए सैनिकों के ढेर लग जाएँ, 56. दृष्टियुद्ध योद्धा तथा प्रतियोद्धा का आमने-सामने निनिमेष नेत्रों के साथ अपने प्रति द्वन्द्वी को देखते हुए अवस्थित होना, 57. मुष्टियुद्ध-दो योद्धाओं का परस्पर मुक्कों से लड़ना, 58. बाहुयुद्ध योद्धा-प्रतियोद्धा द्वारा एक दूसरे को अपनी फैलायी हुई भुजाओं में प्रतिबद्ध करना, 59. लतायुद्ध --जिस प्रकार लता मूल से लेकर चोटी तक वृक्ष पर चढ़ जाती है, उसी प्रकार एक योद्धा द्वारा दूसरे योद्धा को प्रावेष्टित करना, उसे प्रगाढ रूप में निष्पीडित करना, 60. इषुशास्त्र-नागबाण आदि दिव्यास्त्रसूचक शास्त्र, 61. त्सरुप्रवाद–खड्ग-शिक्षाशास्त्र तलवार चलाने की कला, 62. धनुर्वेद धनुर्विद्या, 63. हिरण्यपाक-रजतसिद्धि, 64. स्वर्णपाक-स्वर्ण सिद्धि, 65. सूत्र-खेल-सूत्र-क्रीडा, 66. वस्त्र-खेल-वस्त्र-क्रीडा, Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 [जम्मूढोपप्राप्तिसूत्र 67. नालिका-खेल-चूत-विशेष, 68. पत्र-छेद्य-एक सौ पाठ पत्तों के बीच में विवक्षित संख्या के पत्ते के छेदन में हाथ की चतुराई, 66. कट-छेद्य-पर्वत-भूमि छेदन की कला, 70. सजीवकरण-मृत धातुओं को उनके स्वाभाविक स्वरूप में पहुँचाना, 71. निर्जीवकरण--स्वर्ण आदि धातुओं को मारना, पारद को मूच्छित करना, 72. शकुनिरुत--पक्षियों की बोली का ज्ञान, उससे शुभ-अशुभ शकुन की पहचान / स्त्रियों की 64 कलाओं का प्रस्तुत सूत्र में उल्लेख हुआ है / वे निम्नांकित हैं१. नृत्य 2. औचित्य 3. चित्र 4. वादित 5. मन्त्र 6. तन्त्र 7. ज्ञान 8. विज्ञान 6. दम्भ 10. जलस्तम्भ 11. गीत-मान 12. ताल-मान 13. मेघ-वृष्टि 14. जल-वृष्टि 15, पाराम-रोपण 16. आकार-गोपन 17. धर्म-विचार 18. शकुन-विचार 19. क्रिया-कल्प 20. संस्कृत-जल्प 21. प्रासाद-नीति 22. धर्म-रीति 23. वर्णिका-वृद्धि 24. स्वर्ण-सिद्धि 25. सुरभि-तैलकरण 26. लीला-संचरण 27. ह्य-गज-परीक्षण 28. पुरुष-स्त्री-लक्षण 26. हेम-रत्न-भेद 30. अष्टादश-लिपि-परिच्छेद 31. तत्काल-बुद्धि-प्रत्युत्पन्नमति 32. वास्तु-सिद्धि 33. काम-विक्रिया 34. वैद्यक-क्रिया 35. कुभ-भ्रम 36. सारिश्रम 37. अंजन-योग 38. चूर्ण-योग 36. हस्त-लाघव 40. वचन-पाटव 41. भोज्य-विधि 42. बाणिज्य-विधि 43. मुख-मंडन 44. शालि-खंडन 45. कथा-कथन 46. पुष्प-ग्रथन 47. वक्रोक्ति 48. काव्य-शक्ति 46. स्फारविधिवेश 50. सर्व-भाषा-विशेष 51. अभिधान-ज्ञान 52. भूषण-परिधान 53. भृत्योपचार 54. गृहोपचार Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] 55. व्याकरण 56. परनिराकरण 57. रन्धन 58. केश-बन्धन 56. वीणा-नाद 60. वितंडावाद 61. अंक-विचार 62. लोक-व्यवहार 63. अन्त्याक्षरिका 64. प्रश्न-प्रहेलिका। प्रस्तुत सूत्र में सौ शिल्पों का संकेत किया गया है / इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है कि शिल्प के मूलतः 1. कुभकृत्-शिल्प—घट आदि बर्तन बनाने की कला, 2. चित्रकृत्-शिल्प-चित्रकला, 3. लोहकृत्-शिल्प--शस्त्र आदि लोहे की वस्तुएँ बनाने की कला, 4. तन्तुवाय-शिल्प-वस्त्र बुनने की कला तथा 5. नापित-शिल्प-क्षौरकर्म-कला—ये पाँच भेद हैं। प्रत्येक के बीस-बीस भेद माने गये हैं, यो सब मिलकर सौ होते हैं। साधना : केवल्य : संघसंपदा 38. उसमे गं अरहा कोसलिए संवच्छरसाहिअं चोवरधारी होत्था, तेण परं अचेलए। जप्पभिई च णं उसमे अरहा कोसलिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तप्पभिई च गं उसमे अरहा कोसलिए णिच्चं वोसटकाए, चिअत्तदेहे जे केइ उबसग्गा उप्पज्जंति, तंजहा-दिव्या वा, (माणुसा वा, तिरिक्खजोणिआ वा,) पडिलोमा वा, अणुलोमा वा, तत्थ पडिलोमा वित्तण वा, (तयाए वा, छियाए वा, लयाए वा,) कसेण वा काए आउट्टज्जा; अणुलोमा वंदेज्ज वा (णमंसेज्ज वा, सक्कारेज्ज वा, सम्माणज्ज वा, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं) पज्जुवासेज्ज वा, ते सव्वे सम्म सहइ, (खमइ, तितिक्खइ,) अहिनासेइ।। तए णं से भगवं समणे जाए, ईरियासमिए, (भासासमिए, एसणासमिए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए,) पारिट्ठावणिनासमिए, मणसमिए, वयसमिए, कायसमिए, मणगुत्ते, (वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुत्ते, गुत्तिदिए,) गुत्तबंभयारी, अकोहे, (अमाणे, अमाए,) अलोहे, संते, पसंते, उवसंते, परिणिव्वुडे, छिण्णसोए, निरुवलेवे, संखमिव निरंजणे, जच्चकणगं व जायस्वे, प्रादरिसपडिभागे इव पागडभाये, कुम्मो इव गुत्तिदिए, पुक्खरपत्तमिव निरुवलेवे, गगणमिव निरालंबणे, अणिले इव णिरालए, चंदो इव सोमदंसणे, सूरो इव तेअंसी, विहगो इव अपडिबद्धगामी, सागरो इव गंभीरे, मंदरो इव अकंपे, पुढवीविव सव्वफासविसहे, जीवो विव अप्पडिहयगइत्ति। ___णत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे। से पडिबंधे चउन्विहे भवइ, तंजहा-दव्वनो, खित्तो, कालओ, भावो। दवओ इह खलु माया मे, पिया मे, भाया मे, भगिणी मे, (भज्जा मे, पुत्ता मे, धूआ मे, णत्ता मे, सुहा मे, सहिसयणा मे,) संगंथसंथुप्रा मे, हिरण्यं मे, सुवणं मे, (कंसं मे, दूस मे, धणं मे,) उवगरणं मे; अहवा समासओ सच्चित्ते वा, अचित्त बा, मीसए वा, दव्वजाए। सेवं तस्स ण भवइ / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62) [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र खित्तो -गामे वा, णगरे वा, अरणे वा, खेत्ते वा, खले या, गेहे वा, अंगणे वा, एवं तस्स ण भवइ। कालओ-थोवे वा, लवे वा, मुहत्ते वा, अहोरत्ते वा, पक्खे वा, मासे वा, उकए वा, अयणे वा, संवच्छरे वा, अन्नयरे वा दोहकालपडिबंधे, एवं तस्स ण भवइ / __ भावनो-कोहे वा, (माणे वा, माया वा,) लोहे वा, भए वा, हासे या, एवं तस्स ण भवइ / से णं भगवं वासावासबज्ज हेमंतगिम्हासु गामे एगराइए, णगरे पंचराइए, ववगयहाससोग-अरइ-भय-परित्तासे, णिम्ममे, णिरहंकारे, लहुभूए, अगंथे, वासोतच्छणे अदुट्ठ, चंदणाणुलेवणे अरत्ते, लेठ्ठमि कंचणमि अ समे, इह लोए परलोए अ अपडिबद्ध, जीवियमरणे निरवकखे, संसारपारगामी, कम्मसंगणिग्घायणट्टाए अब्भुट्टिए विहरइ। तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहरमाणस्स एगे वाससहस्से विइक्कते समाणे पुरिमतालस्स नगरस्स बहिआ सगडमुहंसि उज्जाणंसि णिग्गोहवरपायवस्स अहे झाणंतरिमाए वट्टमाणस्स फग्गुणबहुलस्स इक्कारसीए पुव्वण्हकालसमयंसि अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं उत्तरासाढाणक्वत्तेणं जोगमुवागएणं अणुत्तरेणं नाणेणं, (दंसणेणं,) चरित्तेणं, अणुत्तरेणं तवेणं बलेणं बोरिएणं आलएणं, विहारेणं, भावणाए, खंतीए, गुत्तीए, मुत्तीए, तुट्ठीए, प्रज्जवेणं, मद्दवेणं, लाघवेणं, सुचरिअसोवचिअफलनिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावमाणस्स अणते, अणुत्तरे, णिव्वाघाए, णिरावरणे, कसिणे, पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे; जिणे जाए केवली, सवन्न, सम्वदरिसी, सणेरइअ-तिरित्रनरामरस्स लोगस्स पज्जवे जाणइ पासइ, तंजहा प्रागई, गई, ठिइं, उववायं, भुत्तं, कडं, पडिसेविनं. आवीकम्म, रहोकम्म, तं कालं मणवयकाये जोगे एवमादी जीवाण वि सव्वभावे, अजीवाण वि सब्वभावे, मोक्खमग्गस्स विसुद्धतराए भावे जाणमाणे पासमाणे, एस खलु मोक्खमग्गे मम अयोस च जीवाणं हियसुहणिस्सेयसकरे, सव्वदुक्खविमोक्खणे, परमसुहसमाणणे भविस्सइ / तए णं से भगवं समणाणं निग्गंथाण य, णिम्गंथीण य पंच महन्वयाई सभावणगाई, छच्च जीवणिकाए धम्म देसमाणे विहरइ; तंजहा-पुढविकाइए भावणागमेणं पंच महव्वयाई सभावणगाई भाणिअव्वाइं इति / उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स चउरासी गणा गणहरा होत्था, उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स उसभसेणपामोक्खाओ चुलसीइं समणसाहस्सीमो उक्कोसिआ समणसंपया होत्था, उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स बंभीसुदरीपामोक्खाओ तिणि अज्जिआसयसाहस्सीओ उक्कोसिमा अज्जिआसंपया होत्था, उसभस्स णं अरहनो कोसलिअस्स सेज्जंसपामोक्खाओ तिण्णि समणोवासगसयसाहस्सीनो पंच य साहस्सीनो उक्कोसिआ समणोवासग-संपया होत्था, उसभस्स णं अरहो कोसलिअस्स सुभद्दापामोक्खाओ पंच समणोवासिआसयसाहस्सीओ चउपण्णं च सहस्सा उक्कोसिया समणोवासिआ-संपया होत्था, उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स अजिणाणं जिणसंकासाणं, सव्वक्खरसन्निवाईणं, जिणो विव अवितहं वागरमाणाणं चत्तारि चउद्दसपुव्वीसहस्सा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] अट्ठमा य सया उक्कोसिआ चउदसपुवी-संपया होत्था, उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स गव ओहिणाणिसहस्सा उक्कोसिमा ओहिणाणि-संपया होत्था, उसभस्स णं अरहनो कोसलिअस्स बीसं जिणसहस्सा, वीसं वेउदिवअसहस्सा छच्च सया उक्कोसिआ जिण-संपया वेउटिवय-संपया य होत्था, अरहओ कोसलिअस्स बारस विउलमइसहस्सा छच्च सया पण्णासा, बारस वाईसहस्सा छच्च सया पण्णासा, उसभस्स णं अरहनो कोसलिअस्स गइकल्लाणाणं, ठिइकल्लाणाणं, आगमेसिभदाणं, बावीसं अगुत्तरोक्वाइआणं सहस्सा णव य सया उक्कोसिआ अणुत्तरोववाइय-संपया होत्था। उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स बीसं समणसहस्सा सिद्धा, चत्तालीसं अज्जिआसहस्सा सिद्धा-सट्ठि अंतेवासीसहस्सा सिद्धा। . अरहओ णं उसभस्स बहवे अंतेवासी अणगारा भगवंतो-अप्पेगइआ मासपरिआया, जहा उववाइए सब्वओ अणगारवण्णओ, जाव (एवं दुमास-तिमास जाव चउमास-पंचमास-छमास-सत्तमासअट्ठमास-नवमास-दसमास-एक्कारस-मास परियाया, अप्पेगहआ वासपरियाया, दुबासपरियाया, तिवासपरियाया, अप्पेगइआ अणेगवासपरियाया,) उद्धजाणू अहोसिरा झाणकोट्टोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति / अरहओ णं उसभस्स दुविहा अंतकरभूमी होत्था, तंजहा--जुगंतकरभूमी अ परिआयंतकरभूमी य, जुगंतकरभूमी जाव असंखेज्जाइं पुरिसजुगाई, परिआयंतकरभूमी अंतोमुत्तपरिआए अंतमकासी। [38] कौशलिक अर्हत् ऋषभ कुछ अधिक एक वर्ष पर्यन्त वस्त्रधारी रहे, तत्पश्चात् निर्वस्त्र / जब से वे (कौशलिक अर्हत् ऋषभ) गृहस्थ से श्रमण-धर्म में प्रवजित हुए, वे व्युत्सृष्टकाय--- कायिक परिकर्म, संस्कार, शृगार, सज्जा आदि रहित, त्यक्त देह-दैहिक ममता से अतीत-- परिषहों को ऐसे उपेक्षा-भाव से सहने वाले, मानो उनके देह हो ही नहीं, देवकृत, (मनुष्यकृत, तिर्यक्-पशुपक्षि-कृत) जो भी प्रतिलोम प्रतिकल, अनुलोम-अनुकूल उपसर्ग पाते, उन्हें वे सम्यक्---निर्भीक भाव से सहते, प्रतिकूल परिषह-जैसे कोई बेंत से, (वृक्ष की छाल से बंटी हुई रस्सी से, लोहे की चिकनी सांकल से–चाबुक से, लता दंड से,) चमड़े के कोड़े से उन्हें पीटता अथवा अनुकूल परिषहजैसे कोई उन्हें वन्दन करता, (नमस्कार करता, उनका सत्कार करता, यह समझकर कि वे कल्याणमय, मंगलमय, दिव्यतामय एवं ज्ञानमय हैं, उनकी पयूपासना करता तो वे यह सब सम्यक-अनासक्त भाव से सहते, क्षमाशील रहते, अविचल रहते। __ भगवान् ऐसे उत्तम श्रमण थे कि वे गमन, हलन-चलन आदि क्रिया, (भाषा, आहार आदि की गवेषणा, याचना, पात्र प्रादि उठाना, इधर-उधर रखना आदि) तथा मल-मूत्र, खंखार, नाक आदि का मैल त्यागना-इन पांच समितियों से युक्त थे। वे मनसमित, वाकसमित तथा कायसमित थे / वे मनोगुप्त, (वचोगुप्त, कायगुप्त-मन, वचन तथा शरीर की क्रियाओं का गोपायन-संयम करने वाले, गुप्त-शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से सम्बद्ध विषयों में रागरहित-अन्तर्मुख गुप्तेन्द्रिय -इन्द्रियों को उनके विषय-व्यापार में लगाने को उत्सुकता से रहित,) गुप्त ब्रह्मचारी---- नियमोपनियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का संरक्षण–परिपालन करने वाले, अक्रोध-क्रोध-रहित (अमान—मान Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र रहित, अमाय--माया रहित,) अलोभ-लोभ रहित,शांत--प्रशांत, उपशांत, परिनिर्वत-परम शांतिमय, छिन्न-स्रोत-लोकप्रवाह में नहीं बहने वाले, निरुपलेप-कर्मबन्धन के लेप से रहित, कांसे के पात्र में जैसे पानी नहीं लगता, उसी प्रकार स्नेह, आसक्ति आदि के लगाव से रहित, शंखवत् निरंजन-शंख जैसे सम्मुखीन रंग से अप्रभावित रहता है, उसी प्रकार सम्मुखीन क्रोध, द्वेष, राग, प्रेम, प्रशंसा, निन्दा आदि से अप्रभावित, राग आदि की रंजकता से शून्य, जात्य-उत्तम जाति के, विशोधित-अन्य कुधातुओं से अमिश्रित शुद्ध स्वर्ण के समान जातरूप--प्राप्त निर्मल चारित्र्य में उत्कृष्ट भाव से स्थित निर्दोष चारित्र्य के प्रतिपालक, दर्पणगत प्रतिबिम्ब की ज्यों प्रकट भाव--- अनिगूहिताभिप्राय, प्रवंचना, छलना व कपट रहित शुद्ध भावयुक्त, कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय--इन्द्रियों को विषयों से खींचकर निवृत्ति-भाव में संस्थित रखने वाले, कमल-पत्र के समान निर्लेप, आकाश के सदृश निरालम्ब-निरपेक्ष, वायु की तरह निरालय—गहरहित, चन्द्र के सदृश सौम्यदर्शन देखने में सौम्यतामय, सूर्य के सदृश तेजस्वी--दैहिक एवं आत्मिक तेज से युक्त, पक्षी की ज्यों अप्रतिबद्धगामी-उन्मुक्त विहरणशील, समुद्र के समान गंभीर, मंदराचल की ज्यों अकंप-अविचल, सुस्थिर, पृथ्वी के समान सभी शीत-उष्ण अनुकूल-प्रतिकूल स्पर्शों को समभाव से सहने में समर्थ, जीव के समान अप्रतिहत-प्रतिघात या निरोध रहित गति से युक्त थे। उन भगवान् ऋषभ के किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध -- रुकावट या आसक्ति का हेतु नहीं था। प्रतिबन्ध चार प्रकार का कहा गया है.---१. द्रव्य की अपेक्षा से, 2. क्षेत्र की अपेक्षा से, 3. काल की अपेक्षा से तथा 4. भाव की अपेक्षा से / द्रव्य की अपेक्षा से जैसे--ये मेरे माता, पिता, भाई, बहिन, (पत्नी, पुत्र, पुत्र-वधू, नातीपोता, पुत्री, सखा, स्वजन–चाचा, ताऊ आदि निकटस्थ पारिवारिक, सग्रन्थ-अपने पारिवारिक के सम्बन्धी जैसे-चाचा का साला, पूत्र का साला आदि चिरपरिचित जन हैं, ये मेरे चाँदी, सोना, (कांसा, वस्त्र, धन,) उपकरण-अन्य सामान हैं, अथवा अन्य प्रकार से संक्षेप में जैसे ये मेरे सचित्त--- द्विपद-दो पैरों वाले प्राणी, अचित्त-स्वर्ण, चांदी आदि निर्जीव पदार्थ, मिश्र-स्वर्णाभरण सहित द्विपद आदि हैं-इस प्रकार इनमें भगवान का प्रतिबन्ध-ममत्वभाव नहीं था-वे इनमें जरा भी बद्ध या आसक्त नहीं थे। क्षेत्र की अपेक्षा से ग्राम, नगर, अरण्य, खेत, खल-धान्य रखने, पकाने आदि का स्थान या खलिहान, घर, प्रांगन इत्यादि में उनका प्रतिबन्ध-प्राशयबंध--- प्रासक्त भाव नहीं था। __ काल की अपेक्षा से स्तोक, लव, मुहर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर या और भी दीर्घकाल सम्बन्धी कोई प्रतिबन्ध उन्हें नहीं था। भाव की अपेक्षा से क्रोध (मान, माया,) लोभ, भय, हास्य से उनका कोई लगाव नहीं था। भगवान् ऋषभ वर्षावास-चातुर्मास के अतिरिक्त हेमन्त-शीतकाल के महीनों तथा ग्रीष्मकाल के महीनों के अन्तर्गत गांव में एक रात, नगर में पांच रात प्रवास करते हुए हास्य, शोक, रति, भय तथा परित्रास--आकस्मिक भय से वजित, ममता रहित, अहंकार रहित, लघुभूत-सतत ऊर्ध्वगामिता के प्रयत्न के कारण हलके, अग्रन्थ-बाह्य तथा आन्तरिक ग्रन्थि से रहित, वसले द्वारा देह की चमडी छीले जाने पर भी वैसा करने वाले के प्रति द्वेष रहित एवं किसी के द्वारा चन्दन का लेप Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] [65 किये जाने पर भी उस ओर अनुराग या प्रासक्ति से रहित, पाषाण और स्वर्ण में एक समान भावयुक्त, इस लोक में और परलोक में अप्रतिबद्ध-इस लोक के और देवभव के सुख में निष्पिपासित-अतृष्ण, जीवन और मरण की आकांक्षा से अतीत, संसार को पार करने में समुद्यत, जीव-प्रदेशों के साथ चले आ रहे कर्म-सम्बन्ध को विच्छिन्न कर डालने में अभ्युत्थित—सप्रयत्न रहते हुए विहरणशील थे। इस प्रकार विहार करते हुए-धर्मयात्रा पर अग्रसर होते हुए एक हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख नामक उद्यान में एक बरगद के वृक्ष के नीचे, ध्यानान्तरिका-आरब्ध ध्यान की समाप्ति तथा अपूर्व ध्यान के अनारंभ की स्थिति में अर्थात् शुक्लध्यान के पृथक्त्ववितर्क-सविचार तथा एकत्ववितर्क-अविचार--इन दो चरणों के स्वायत्त कर लेने एवं सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपति और व्युच्छन्नक्रिय-अनिवर्ति-इन दो चरणों की अप्रतिपन्नावस्था में फाल्गुणमास कृष्णपक्ष एकादशी के दिन पूर्वाह्न के समय, निर्जल तेले की तपस्या की स्थिति में चन्द्र संयोगाप्त उत्तराषाढा नक्षत्र में अनुत्तर--सर्वोत्तम तप, बल, वीर्य, प्रालय-निर्दोष स्थान में श्रावास, बिहार, भावना-महाव्रत-सम्बद्ध उदात्त भावनाएँ, क्षान्ति-क्रोधनिग्रह, क्षमाशीलता, गुप्ति-मानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तियों का गोपन---उनका विवेकपूर्ण उपयोग, मुक्तिकामनाओं से छूटते हुए मुक्तता की ओर प्रयाण समुद्यतता, तुष्टि-आत्म-परितोष, आर्जव-- सरलता, मार्दव-मृदुता, लाघव-आत्मलीनता के कारण सभी प्रकार से निर्भारता-हलकापन, स्फूतिशीलता, सच्चारित्र्य के निर्वाण-मार्ग रूप उत्तम फल से आत्मा को भावित करते हुए उनके अनन्त / अन्त रहित, अविनाशी, अनुत्तर-सर्वोत्तम, निर्याघात–व्याघातरहित, सर्वथा अप्रतिहत, निरावरण-आवरण रहित, कृत्स्न-सम्पूर्ण, सकलार्थग्राहक, प्रतिपूर्ण-अपनी समग्न किरणों से सुशोभित पूर्ण चन्द्रमा की ज्यों सर्वांशतः परिपूर्ण, श्रेष्ठ केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुए। वे जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हुए। वे नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव लोक के पर्यायों के ज्ञाता हो गये। प्रागति नैरयिक गति तथा देवगति से च्यवन कर मनुष्य या तिर्यञ्च गति में आगमन, मनुष्य या तिर्यञ्च गति से मरकर देवगति या नरकगति में गमन, कार्य-स्थिति, भव-स्थिति, मुक्त, कृत, प्रतिसेवित, पाविष्कर्म प्रकट कर्म, रहःकर्म-एकान्त में कृत-गुप्त कर्म, तब तब उद्भूत मानसिक, वाचिक व कायिक योग आदि के, जीवों तथा अजीवों के समस्त भावों के, मोक्ष-मार्ग के प्रति विशुद्ध भाव-यह मोक्ष-मार्ग मेरे लिए एवं दूसरे जीवों के लिए हितकर, सुखकर तथा निःश्रेयसकर है, सब दुःखों से छुड़ाने वाला एवं परम-सुख-समापन्न-परम आनन्द युक्त होगा-इन सब के ज्ञाता, द्रष्टा हो गये। भगवान् ऋषभ निर्ग्रन्थों, निम्रन्थियों-श्रमण-श्रमणियों को पांच महावतों, उनकी भावनाओं तथा जीव-निकायों का उपदेश देते हुए विचरण करते। पृथ्वीकाय आदि जीव-निकाय तथा भावना' युक्त पंच महाव्रतों का विस्तार अन्यत्र ज्ञातव्य है / कौलिक अर्हत् ऋषभ के चौरासी गण, चौरासी गणधर, ऋषभसेन आदि चौरासी हजार श्रमण, ब्राह्मी, सुन्दरी आदि तीन लाख आर्यिकाएँ--श्रमणियाँ, श्रेयांस आदि तीन लाख पांच हजार श्रमणोपासक, सुभद्रा आदि पाँच लाख चौवन हजार श्रमणोपासिकाएँ, जिन नहीं पर जिन-सदृश 1. प्राचारांगसूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध भावनाध्ययन देखें Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र सर्वाक्षर-संयोग-वेत्ता जिनवत् अवितथ-यथार्थ-सत्य-अर्थ-निरूपक चार हजार सात सौ पचास चतुर्दश-पूर्वधर-श्रुतकेवली, नौ हजार अवधिज्ञानी, बीस हजार जिन-सर्वज्ञ, बीस हजार छह सौ वैक्रियलब्धिधर, बारह हजार छह सौ पचास विपुलमति-मन:पर्यवज्ञानी, बारह हजार छह सौ पचास वादी तथा गति-कल्याणक-देवगति में दिव्य सातोदय रूप कल्याणयुक्त, स्थितिकल्याणकदेवायरूप स्थितिगत सख-स्वामित्व यक्त. ग्रागमिष्यदभद्र—अागामीभव में सिद्धत्व प्राप्त करने वाले अनुत्तरौपपातिक–अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले बाईस हजार नौ सौ मुनि थे। कौलिक अर्हत् ऋषभ के बीस हजार श्रमणों तथा चालीस हजार श्रमणियों ने सिद्धत्व प्राप्त किया--यों उनके साठ हजार अंतेवासी सिद्ध हुए। भगवान् ऋषभ के अनेक अंतेवासी अनगार थे—उनकी बड़ी संख्या थी। उनमें कई एक मास, (कई दो मास, तीन मास, चार मास, पाँच मास, छह मास, सात मास, आठ मास, नौ मास, दस मास, ग्यारह मास, कई एक वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष तथा कई अनेक वर्ष) के दीक्षा-पर्याय के थे। औपपातिक सूत्र के अनुरूप अनगारों का विस्तृत वर्णन जानना चाहिए। उनमें अनेक अनगार अपने दोनों घटनों को ऊँचा उठाये, मस्तक को नीचा किये-यों एक विशेष प्रासन में अवस्थित हो ध्यान रूप कोष्ठ में—कोठे में प्रविष्ट थे-ध्यान-रत थे-जैसे कोठे में रखा हुआ धान इधर-उधर बिखरता नहीं, खिडता नहीं, उसी प्रकार ध्यानस्थता के कारण उनकी इन्द्रियाँ विषयों में प्रसृत नहीं होती थीं। इस प्रकार वे अनगार संयम तथा तप से प्रात्मा को भावितअनुप्राणित करते हुए अपनी जीवन-यात्रा में गतिशील थे। भगवान् ऋषभ को दो प्रकार की भूमि थी-युगान्तकर-भूमि तथा पर्यायान्तकर-भूमि / युगान्तकर-भूमि गुरु-शिष्यक्रमानुबद्ध यावत् असंख्यात-पुरुष-परम्परा-परिमित थी तथा पर्यायान्तकर भूमि अन्तर्मुहुर्त थी (क्योंकि भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त होने के अन्तर्मुहर्त पश्चात् मरुदेवी को मुक्ति प्राप्त हो गई थी।) ___ 36. उसभे गं अरहा पंचउत्तरासाढे अभीइछ? होत्था, तंजहा--उत्तरासादाहिं चुए, चइत्ता गम्भं वक्कते, उत्तरासादाहि जाए, उत्तरासाढाहि रायाभिसेयं पत्ते, उत्तरासाढाहि मुडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारिअं पब्वइए, उत्तरासाढहि अणंते (अणुत्तरे निव्वाधाए, णिरावरणे कसिणे, पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे) समुप्पण्णे, अभीइणा परिणिव्वुए। [36] भगवान् ऋषभ के जीवनगत घटनाक्रम पाँच उत्तराषाढा नक्षत्र तथा एक अभिजित् नक्षत्र से सम्बद्ध हैं। __चन्द्रसंयोगप्राप्त उत्तराषाढा नक्षत्र में उनका च्यवन--सर्वार्थसिद्ध-संज्ञक महाविमान से निर्गमन हुआ / च्युत-निर्गत होकर माता मरुदेवी की कोख में अवतरण हुआ / उसी में (चन्द्रसंयोगप्राप्त उत्तराषाढा में ही) जन्म-गर्भावास से निष्क्रमण हुआ। उसी में उनका राज्याभिषेक हुआ। उसी में वे मुंडित होकर, घर छोड़कर अनगार बने---गृहस्थवास से श्रमणधर्म में प्रवजित हुए। उसी में उन्हें अनन्त, (अनुत्तर, नियाघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, उत्तम केवलज्ञान, केवलदर्शन) समुत्पन्न हुग्रा। भगवान् अभिजित् नक्षत्र में परिनिर्वृत्त-सिद्ध, मुक्त हुए। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [67 द्वितीय वक्षस्कार] परिनिर्वाण : देवकृत महामहिमा : महोत्सव 40. उसमे णं अरहा कोसलिए वज्ज-रिसह-नाराय-संघयणे, समचउरंस-संठाण-संठिए, पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था। उसभे गं अरहा बीसं पुश्वसयसहस्साई कुमारवासमझे वसित्ता, तेवढि पुश्वसयसहस्साई महारज्जवासमझे वसित्ता, तेसीई पुव्वसयसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता, मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्बइए। उसमे गं अरहा एगं वाससहस्सं छउमत्थपरिआयं पाउणित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं वाससहस्सूणं केवलिपरिआयं पाउणित्ता, एगं पुवसहस्सं बहुपडिपुण्णं सामण्णपरिआयं पाउणित्ता, चउरासीई पुव्वसयसहस्साइं सवाउनं पालइत्ता जे से हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे माहबहुले, तस्स णं माहबहुलस्स तेरसीपक्खेणं दहि अणगारसहस्सेहिं सद्धि संपरिकुडे अट्ठाक्य-सेलसिहरंसि चोद्दसमेणं भत्तेणं अपाणएणं संपलिअंकणिसण्णे पुज्वण्हकालसमयंसि अभीइणा णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं सुसमदूसमाए समाए एगणणवउईहिं पक्खेहि सेसेहि कालगए वोइक्कते, समुज्जाए छिण्ण-जाइ-जरा-मरण-बंधणे, सिद्ध, बुद्ध, मुत्ते, अंतगडे, परिणिबुड़े सव्वदुक्खप्पहीणे / [40] कौशलिक भगवान् ऋषभ वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन युक्त, सम-चौरस-संस्थानसंस्थित तथा पांच सौ धनुष दैहिक ऊँचाई युक्त थे। वे बीस लाख पूर्व तक कुमारावस्था में तथा तिरेसठ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहे / यों तिरासी लाख पूर्व गृहवास में रहे। तत्पश्चात् मुंडित होकर अगार-वास से अनगार-धर्म में प्रवजित हुए। वे एक हजार वर्ष छद्मस्थ-पर्याय-असर्वज्ञावस्था में रहे / एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व वे केवलि-पर्याय–सर्वज्ञावस्था में रहे। इस प्रकार परिपूर्ण एक लाख पूर्व तक श्रामण्य-पर्याय—साधुत्व का पालन कर—चौरासी लाख पूर्व का परिपूर्ण आयुष्य भोगकर हेमन्त के तीसरे मास में, पाँचवें पक्ष में --माघ मास कृष्ण पक्ष में तेरस के दिन दस हजार साधुओं से संपरिवृत्त अष्टापद पर्वत के शिखर पर छह दिनों के निर्जल उपवास में पूर्वाह ण-काल में पर्यकासन में अवस्थित, चन्द्र योग युक्त अभिजित् नक्षत्र में, जब सुषम-दु:षमा प्रारक के नवासी पक्ष-तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी थे, वे (जन्म, जरा एवं मृत्यु के बन्धन छिन्नकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अंतकृत्, परिनिर्वृत्त,) सर्व-दुःख रहित हुए। 41. जं समयं च णं उसमे अरहा कोसलिए कालगए वीइक्कते, समुज्जाए छिण्णजाइ-जरामरण-बंधणे, सिद्ध, बुद्ध, (मुत्ते, अंतगडे, परिणिन्वुडे,) सव्व-दुक्खप्पहीणे, तं समयं च णं सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो आसणे चलिए। तए णं से सक्के देविदे, देवराया, पासणं चलिनं पासइ, पासित्ता ओहि पउंजइ, पउंजित्ता भयवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता एवं वयासी-परिणिन्वुए खलु जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे उसहे अरहा कोसलिए, तं जोअमेअं तोअपच्चुप्पण्णमणागयाणं सक्काणं देविदाणं, देवराईणं तित्थगराणं परिनिव्वाणमहिमं करेत्तए। तं गच्छामि णं अहंपि भगवतो तित्थगरस्स परिनिव्वाण-महिमं करेमित्ति कटु वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता, णमंसित्ता चउरासीईए सामाणिअ-साहस्सीहि तायत्तीसाए तायत्तीसएहि, चहि लोगपालेहि, (अहिं अग्गमहिसोहि सपरिवाराहि, तिहिं परिसाहि, सतहि अणोएहि.) चहि चउरासीईहिं आयरक्खदेव-साहस्सीहि, Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अण्णेहि अ बहूहि सोहम्म-कप्प-वासोहि वेमाणिएहि देवेहि, देवीहि अ सद्धि संपरिबुडे ताए उक्किट्ठाए, (तुरिआए, चवलाए, चंडाए, जयणाए, उद्घ आए, सिग्घाए, दिव्वाए देवगईए वोईवयमाणे) तिरिअमसंखेज्जाणं दोवसमुद्दाणं मज्झमझेणं जेणेव अट्ठावयपव्वए, जेणेव भगवो तित्थगरस्स सरीरए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विमणे, जिराणंदे, अंसुपुण्ण-णयणे तित्थयर-सरीरयं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता पच्चासण्णे, णाइदूरे सुस्सूसमाणे, (णमंसमाणे, अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे,) पज्जुवासइ। [41] जिस समय कौशलिक, अर्हत् ऋषभ कालगत हुए, जन्म, वृद्धावस्था तथा मृत्यु के बन्धन तोड़कर सिद्ध, बुद्ध, (मुक्त, अन्तकृत्, परिनिर्वृत्त) तथा सर्वदुःख-विरहित हुए, उस समय देवेन्द्र, देवराज शक्र का आसन चलित हुआ / देवेन्द्र, देवराज शक ने अपना पासन चलित देखा, अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर भगवान् तीर्थंकर को देखा / देखकर वह यों बोला-जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में कौशलिक, अर्हत् ऋषभ ने परिनिर्वाण प्राप्त कर लिया है, अत: अतीत, वर्तमान, अनागत-भावी देवराजों, देवेन्द्रों शक्रों का यह जीत--व्यवहार है कि वे तीर्थकरों के परिनिर्वाणमहोत्सव मनाएं। इसलिए मैं भी तीर्थंकर भगवान् का परिनिर्वाण-महोत्सव आयोजित करने हेतु जाऊँ। यों सोचकर देवेन्द्र ने वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर वह अपने चौरासी हजार सामानिक देवों, तेतीस हजार त्रास्त्रिशक-गुरुस्थानीय देवों, परिवारोपेत अपनी पाठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, चारों दिशाओं के चौरासी-चौरासी हजार प्रात्मरक्षक देवों और भी अन्य बहुत से सौधर्मकल्पवासी देवों एवं देवियों से संपरिवृत, उत्कृष्ट-आकाशगति में सर्वोत्तम, त्वरित –मानसिक उत्सुकता के कारण चपल, चंड—क्रोधाविष्ट की ज्यों अपरिश्रान्त, जवन–परमोत्कृष्ट वेग युक्त, उद्ध त-दिगंतव्यापी रज की ज्यों अत्यधिक तीव्र, शीघ्र तथा दिव्य-देवोचित गति से चलता हा तिर्यक-लोकवर्ती असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हा जहाँ अष्टापद पर्वत और जहाँ भगवान् तीर्थकर का शरीर था, वहाँ आया। उसने विमन-उदास, निरानन्द-आनन्द रहित, अश्रुपूर्णनयन आँखों में आँसू भरे, तीर्थंकर के शरीर को तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की। वैसा कर, न अधिक निकट न अधिक दूर स्थित हो, (नमस्कार किया, विनयपूर्वक हाथ जोड़े,) पर्युपासना की। 42. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविदे, देवराया, उत्तरद्धलोगाहिवई, अट्ठावीसविमाणसयसहस्साहिवई, सूलपाणी, वसहवाहणे, सुरिंदे, अयरंबरवरवत्थधरे, (आलइअमालमउडे, णवहेमचारुचित्तचंचलकुडल विलिहिज्जमाणगल्ले, महिड्डीए, महज्जुईए, महाबले, महायसे, महाणुभावे, महासोक्खे, भासुरबोंदी, पलंबवणमालधरे ईसाणकप्पे ईसाणवडेंसए विमाणे सुहम्माए सभाए ईसाणंसि सिंहासणंसि से णं अट्ठावीसाए विमाणावाससयसाहस्सीणं असीईए सामाणिप्रसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, अट्ठण्हं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणीबाणं, सत्तण्हं अणोनाहिबईणं, चउण्हं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, असि च ईसाणकप्पवासोणं देवाणं देवीण य अाहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टित्तं, महत्तरगत्तं, आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयायणट्टगीअवाइअतंतोतलतालतुडिअघणमुइंगपडपडहवाइअरवेणं) विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ / Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार . तस्स ईसाणस्स, देविदस्स, देवरण्णो पासणं चलइ / तए णं से ईसाणे (देविदे,) देवराया आसणं चलिनं पासइ, पासित्ता प्रोहि पउंजइ, पउंजइत्ता भगवं तित्थगरं ओहिणा प्राभोएइ, आभोएइत्ता जहा सक्के निगपरिवारेणं भाणेअन्वो (सद्धि संपरिवुडे ताए उक्किट्ठाए देवगईए तिरिअमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झमझेणं जेणेव अट्ठावयपव्वए, जेणेव भगवओ तित्थगरस्स सरीरए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विमणे, णिराणंदे, अंसुपुण्ण-णयणे तित्थयरसरीरयं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता पच्चासण्णे, पाइदूरे सुस्सूसमाणे) पज्जुवासइ / एवं सब्वे देविदा (सणंकुमारे, माहिदे, बंभे, लंतगे, महासुक्के, सहस्सारे, आणए, पाणए, आरणे,) अच्चुए णिअगपरिवारेणं भाणिअन्वा, एवं जाव' भवणवासोणं इंदा वाणमंतराणं सोलस जोइसिआणं दोणि निअगपरिवारा अन्वा। [42] उस समय उत्तरार्ध लोकाधिपति, अट्ठाईस लाख विमानों के स्वामी, शूलपाणिहाथ में शूल लिए हुए, वृषभवाहन-बैल पर सवार, निर्मल आकाश के रंग जैसा वस्त्र पहने हुए, (यथोचित रूप में माला एवं मुकुट धारण किए हुए, नव-स्वर्ण-निर्मित मनोहर कुंडल पहने हुए, जो कानों से गालों तक लटक रहे थे, अत्यधिक समृद्धि, द्युति, बल, यश, प्रभाव तथा सुखसौभाग्य युक्त, देदीप्यमान शरीर युक्त, सब ऋतुओं के फूलों से बनी माला, जो गले से घुटनों तक लटकती थी, धारण किए हुए, ईशानकल्प में ईशानावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में ईशान-सिंहासन पर स्थित, अट्ठाईस लाख वैमानिक देवों, अस्सी हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिश-गुरुस्थानीय देवों, चार लोकपालों, परिवार सहित आठ पट्टरानियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापतियों, अस्सी-अस्सी हजार चारों दिशाओं के प्रात्मरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से ईशानकल्पवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरपतित्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञेश्वरत्व, सेनापतित्व करता हुआ देवराज ईशानेन्द्र निरवच्छिन्न नाट्य, गीत, निपुण बादकों द्वारा बजाये गये बाजे, वीणा आदि के तन्तुवाद्य, तालवाद्य, त्रुटित, मृदंग आदि के तुमुलघोष के साथ) विपुल भोग भोगता हुआ विहरणशील था-रहता था / ईशान (देवेन्द्र) का आसन चलित हुआ / ईशान देवेन्द्र ने अपना प्रासन चलित देखा। वैसा देखकर अवधि-ज्ञान का प्रयोग किया। प्रयोग कर भगवान् तीर्थकर को अवधिज्ञान द्वारा देखा / देखकर (शकेन्द्र की ज्यों अपने देव-परिवार से संपरिवृत उत्कृष्ट गति द्वारा तिर्यक्-लोकस्थ असंख्य द्वीपसमुद्रों के बीच से चलता हुआ जहाँ अष्टापद पर्वत था, जहाँ भगवान् तीर्थकर का शरीर था, वहाँ पाया / आकर उसने विमन-उदास, निरानन्द--प्रानन्द-रहित, आँखों में आँसू भरे तीर्थंकर के शरीर को तीन बार दक्षिण-प्रदक्षिणा की। वैसा कर न अधिक निकट, न अधिक दर संस्थित हो पर्यपासना की। उसी प्रकार) सभी देवेन्द्र (--सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लांतक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत देव लोकों के अधिपति---इन्द्र) अपने-अपने परिवार के साथ वहाँ आये / उसी प्रकार भवनवासियों के बीस इन्द्र, वानव्यन्तरों के सोलह इन्द्र, ज्योतिष्कों के दो इन्द्र-सूर्य तथा चन्द्रमा अपने-अपने देव-परिवारों के साथ वहाँ अष्टापद पर्वत पर आये। --.----. 1. देखें सूत्र यही Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 43. तए णं सक्के देविदे, देवराया बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिए देवे एवं वयासो-- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! णंदणवणाओ सरसाइं गोसोसवरचंदणकट्ठाई साहरह, साहरेत्ता तो चिइगाओ रएह-एगं भगवो तित्थगरस्स, एगं गणधराणं, एग अवसेसाणं अणगाराणं / तए णं ते भवणवइ ( वाणमंतर-जोइसिन ) वेमाणिवा देवा गंदणवणाओ सरसाइं गोसीसवरचंदणकट्ठाई साहरंति, साहरेत्ता तओ चिइगाओ रएंति, एगं भगवो तित्थगरस्स, एगं गणहराणं, एगं अवसेसाणं अणगाराणं। तए णं से सक्के देविदे, देवराया आभियोगे देवे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! खोरोदगसमुद्दाओ खीरोदगं साहरह / तए णं ते प्राभिप्रोगा देवा खीरोदगसमुद्दामो खोरोदगं साहरंति / तए णं से सक्के देविदे, देवराया पाभिओगे देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! खीरोदगसमुद्दाओ खीरोदगं साहरह / तए णं ते आभिप्रोगा देवा खीरोदगसमुद्दाओ खीरोदगं साहति / तए णं से सक्के देविदे, देवराया तित्थगरसरीरगं खीरोदमेणं ण्हाणेति, ण्हाणेत्ता सरसेणं गोसीसवरचंदणेणं अणुलिपइ, अणुलिपेत्ता हंसलक्खणं पडसाडयं णिअंसेइ, णिअंसेत्ता सव्वालंकारविभूसिनं करेति / तए णं ते भवणवइ जाव' माणिआ गणहरसरीरगाई अणगारसरीरगाईपि खीरोदगेणं व्हावंति, पहावेत्ता सरसेणं गोसीसबरचंदणेणं अणुलिपंति, अणुलिपेत्ता अहयाई दिब्वाइं देवदूसजुअलाई णिअंसंति, णिग्रंसेत्ता सव्वालंकारविभूसिआई करेंति / तए णं से सषके देविदे, देवराया ते बहवे भवणवइ जाव' वेमाणिए देवे एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! ईहामिगउसभतुरग (-णरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुजर-)वणलयभत्तिचित्तानो तओ सिवियाओ विउव्वह, एगं भगवओ तित्थगरस्स, एगं गणहराणं, एग अवसेसाणं अणगाराणं, तए णं ते बहवे भवणवइ जाव बेमाणिआ तो सिविमानो विउव्वंति, एगं भगवओ तित्थगरस्स, एगं गणहराणं, एगं अवसेसाणं अणगाराणं / तए णं से सक्के देविदे, देवराया विमणे, णिराणंदे, अंसुपुण्णणयणे भगवनो तित्थगरस्स विणट्ठजम्मजरामरणस्स सरीरगं सीअं आरुहेति आरुहेत्ता चिइगाइ ठवेइ / तए णं ते बहवे भवणवइ जाव वेमाणिआ देवा गणहराणं अणगाराण य विणट्ठजम्मजरामरणाणं सरीरगाई सीअं पारुहेंति, आरुहेत्ता चिइगाए ठवेंति। 1. देखें सूत्र यही 2. देखें सूत्र यही 3. देखें सूत्र यही 4. देखें सूत्र यही Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] [71 तए णं सक्के देविदे, देवराया अग्गिकुमारे देवे सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! तित्थगरचिइगाए, (गणहरचिहगाए,) अणगारचिइगाए अगणिकायं विउव्वह, विउवित्ता एअमाणत्तिनं पच्चप्पिणह। तए णं ते अग्गिकुमारा देवा विमणा, णिराणंदा, अंसुपुण्णणयणा तित्थगरचिइगाए जाव' अणगारचिइगाए अ अगणिकायं विउव्वंति / तए णं से सक्के देविदे, देवराया वाउकुमारे देवे सदावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! तित्थगरचिइगाए जाव' अणगारचिइगाए अ वाउक्कायं विउव्वह, विउव्वित्ता अगणिकायं उज्जालेह, तित्थगरसरीरगं, गणहरसरोरगाई, अणगारसरीरगाई, च झामेह / तए णं ते वाउकुमारा देवा विमणा, णिराणंदा, अंसुपुण्णणयणा तित्थगरचिइगाए जाव' विउव्वंति, अगणिकायं उज्जालेति, तित्थगरसरीरगं (गणहरसरीरगाणि,) अणगारसरीरगाणि प्र झामेति। तए णं से सक्के देविदे, देवराया ते बहवे भवणवइ जाव: वेमाणिए देवे एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! तित्थगरचिइगाए जाव' अणगारचिइगाए अगुरुतुरुक्कघयमधुच कुभग्गसो अ भारग्गसो अ साहरह। तए णं ते भवणवइ जावई तित्थगर-(चिइगाए, गणहरचिइगाए, अणगारचिइगाए अगुरुतुरुक्कघयमधु च कुभग्गसो अ) भारग्गसो असाहरति / तए णं से सक्के देविदे देवराया मेहकुमारे देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! तिस्थगरचिइगं जाव' अणगारचिइगंच खीरोदगेणं णिव्वावेह। तए णं ते मेहकुमारा देवा तित्थगरचिइगं जाव णिवावेति / तए णं से सक्के देविदे, देवराया भगवो तित्थगरस्स उवरिल्लं दाहिणं सकहं गेण्हइ, ईसाणे देविदे देवराया उवरिल्लं वामं सकहं गेण्हइ, चमरे असुरिंदे, असुरराया हिडिल्लं दाहिणं सकह गेण्हइ, बली वइरोणिदे, वइरोअणराया हिटिल्लं वामं सकहं गेण्हइ, अवसेसा भवणवइ जाव' वेमाणिना देवा जहारिहं अवसेसाई अंगमंगाई, केई जिणभत्तीए केई जोग्नमेअंत्ति कटु केई धम्मोत्तिकटु गेण्हंति / तए णं से सक्के देविदे, देवराया बहवे भवणवइ जाव'' वेमाणिए देवे जहारिहं एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिना ! सत्वरयणामए, महइमहालए तो चेइअथूभे करेह, एगं 1. देखें सूत्र यही 2. देखें सूत्र यही 3. देखें सूत्र यही 4. देखें सूत्र यही 5. देखें सूत्र यही 6. देखें सूत्र यही 7. देखें सूत्र यही 8. देखें सूत्र यही 9. देखें सूत्र यही 10. देखें सूत्र यही Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र भगवनो तित्थगरस्स चिहगाए, एगं गणहरचिइगाए, एगं अव सेसाणं अणगाराणं चिइगाए। तए णं ते बहवे (भवणवइवाणमंतर-जोइसिअ-वेमाणिए देवा) करेंति / तए णं ते बहवे भवणवइ जाव' वेमाणिमा देवा तित्थगरस्स परिणिव्वाणमहिमं करेंति, करेत्ता जेणेवे नंदीसरवरे दीवे तेणेव उवागच्छन्ति / तए णं से सक्के देविदे, देवराया पुरथिमिल्ले अंजणगपव्वए अट्ठाहि महामहिमं करेति / तए णं सक्कस्स देविदस्स देवरायस्स चत्तारि लोगपाला चउसु दहिमुहगपव्वएसु अट्ठाहियं महामहिमं करेंति / ईसाणे देविदे, देवराया उत्तरिल्ले अंजगणे अट्टाहि महामहिमं करेइ, तस्स लोगपाला चउसु दहिमुहगेसु प्रवाहिनं, चमरो अ दाहिणिल्ले अंजगणे, तस्स लोगपाला दहिमुहगपव्वएसु, बली पच्चथिमिल्ले अंजगणे, तस्स लोगपाला दहिमुहगेसु / तए णं ते बहवे भवणवइवाणमंतर (देवा) अट्ठाहित्रानो महामहिमानो करेंति, करित्ता जेणेव साइं 2 विमाणाई, जेणेव साइं 2 भवणाई, जेणेव सानो 2 सभाम्रो सुहम्माओ, जेणेव सगा 2 माणवगा चेइअखंभा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु जिणसकहानो पविखवंति, पक्खिवित्ता अग्गेहि वहिं मल्लेहि अ गंधेहि अ अच्चेति, अच्चत्ता विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणा विहरंति। [43] तब देवराज, देवेन्द्र शक्र ने बहुत से भवनपति, वानव्यन्तर तथा ज्योतिष्क देवों से कहा-देवानुप्रियो ! नन्दनवन से शीघ्र स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन-काष्ठ लाओ। लाकर तीन चितामों की रचना करो--एक भगवान् तीर्थकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक बाकी के अनगारों के लिए / तब वे भवनपति, (वानव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा) वैमानिक देव नन्दनवन से स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन-काष्ठ लाये। लाकर चिताएँ बनाई-एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक बाकी के अनगारों के लिए। तब देवराज शक्रेन्द्र ने पाभियोगिक देवों को पुकारा / पुकार कर उन्हें कहा-देवानुप्रियो !क्षीरोदक समुद्र से शीघ्र क्षीरोदक लायो। वे आभियोगिक देव क्षीरोदक समुद्र से क्षीरोदक लाये / तत्पश्चात देवराज शकेन्द्र ने तीर्थंकर के शरीर को क्षीरोदक से स्नान कराया। स्नान कराकर सरस, उत्तम गोशीर्ष चन्दन से उसे अनुलिप्त किया। अनुलिप्त कर उसे हंस-सदृश श्वेत वस्त्र पहनाये / वस्त्र पहनाकर सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया--सजाया। फिर उन भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने गणधरों के शरीरों को तथा साधुओं के शरीरों को क्षीरोदक से स्नान कराया / स्नान कराकर उन्हें स्निग्ध, उत्तम गोशीर्ष चन्दन से अनुलिप्त किया। अनुलिप्त कर दो दिव्य देवदूष्य--वस्त्र धारण कराये / वैसा कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। तत्पश्चात् देवराज शकेन्द्र ने उन अनेक भवनपति, वैमानिक आदि देवों से कहा- देवानुप्रियो! ईहामृग-भेड़िया, वृषभ-बैल, तुरंग--घोड़ा, (मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, कस्तूरी मृग, शरभ-- अष्टापद, चँवर, हाथी,) वनलता- के चित्रों से अंकित तीन शिविकाओं की विकुर्वणा करो-एक भगवान् तीर्थंकर के लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक अवशेष साधुओं के लिए। इस पर उन बहुत से भवनपति, वैमानिक प्रादि देवों ने तीन शिविकाओं की विकुर्वणा की-एक भगवान् तीर्थकर के 1. देखें सूत्र यही - -- --- Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] लिए, एक गणधरों के लिए तथा एक अवशेष अनगारों के लिए। तब उदास, खिन्न एवं प्रांसू भरे देवराज देवेन्द्र शक ने भगवान् तीर्थकर के, जिन्होंने जन्म, जरा तथा मृत्यु को विनष्ट कर दिया थाइन सबसे जो अतीत हो गये थे, शरीर को शिविका पर आरूढ किया रखा। प्रारूढ कर चिता पर रखा। भवनपति तथा वैमानिक आदि देवों ने जन्म, जरा तथा मरण के पारगामी गणधरों एवं साधुनों के शरीर शिविका पर आरूढ किये / आरूढ कर उन्हें चिता पर रखा। देवराज शकेन्द्र ने तब अग्निकुमार देवों को पुकारा। पुकार कर कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थकर की चिता में, (गणधरों की चिता में) तथा साधुओं की चिता में शीघ्र अग्निकाय की विकुणा करो—अग्नि उत्पन्न करो / ऐसा कर मुझे सूचित करो कि मेरे आदेशानुरूप कर दिया गया है / इस पर उदास, दुःखित तथा अश्रुपूरितनेत्र वाले अग्निकुमार देवों ने तीर्थंकर की चिता, गणधरों की चिता तथा अनगारों की चिता में अग्निकाय की विकुर्व णा की। देवराज शक्र ने फिर वायुकुमार देवों को पुकारा / पुकारकर कहा–तीर्थंकर की चिता, गणधरों की चिता एवं अनगारों की चिता में वायुकाय की विकुर्वणा करो, अग्नि प्रज्वलित करो, तीर्थंकर की देह को, गणधरों तथा अनगारों की देह को ध्मापित करो---अग्निसंयुक्त करो / विमनस्क, शोकान्वित तथा अश्रुपूरितनेत्र वाले वायुकुमार देवों ने चिताओं में वायुकाय की विकुणा की-पवन चलाया, तीर्थकर-शरीर (गणधर-शरीर) तथा अनगार-शरीर ध्मापित किये। देवराज शकेन्द्र ने बहुत से भवनपति तथा वैमानिक प्रादि देवों से कहा-देवानुप्रियो ! तीर्थंकर-चिता, गणधर-चिता तथा अनगार-चिता में विपुल परिमाणमय अगर, तुरुष्क तथा अनेक घटपरिमित घृत एवं मधु डालो। तब उन भवनपति आदि देवों ने तीर्थकर-चिता, (गणधर-चिता तथा अनगार-चिता में विपुल परिमाणमय अगर, तुरुष्क तथा अनेक घट-परिमित) घृत एवं मधु डाला। देवराज शकेन्द्र ने मेघकुमार देवों को पुकारा। पुकार कर कहा-देवानुप्रियो! तीर्थकरचिता, गणधर-चिता तथा अनगार-चिता को क्षीरोदक से निर्वापित करो शान्त करो-बुझाओ। मेघकुमार देवों ने तीर्थंकर-चिता, गणधर-चिता एवं अनगार-चिता को निर्वापित किया। तदनन्तर देवराज शक्रेन्द्र ने भगवान तीर्थंकर के ऊपर की दाहिनी डाढ–डाढ की हड्डी ली। असुराधिपति चमरेन्द्र ने नीचे की दाहिनी डाढ ली। वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बली ने नीचे की बाईं डाढ ली। बाकी के भवनपति, वैमानिक आदि देवों ने यथायोग्य अंग-अंगों की हड्डियाँ ली / कइयों ने जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति से, कइयों ने यह समुचित पुरातन परंपरानुगत व्यवहार है, यह सोचकर तथा कइयों ने इसे अपना धर्म मानकर ऐसा किया। तदनन्तर देवराज, देवेन्द्र शक ने भवनपति एवं वैमानिक आदि देवों को यथायोग्य यों कहादेवानुप्रियो ! तीन सर्व रत्नमय विशाल स्तूपों का निर्माण करो-एक भगवान् तीर्थकर के चितास्थान पर, एक गणधरों के चिता-स्थान पर तथा एक अवशेष अनगारों के चिता-स्थान पर / उन बहुत से (भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक) देवों ने वैसा ही किया। फिर उन अनेक भवनपति, वैमानिक प्रादि देवों ने तीर्थंकर भगवान का परिनिर्वाण महोत्सव मनाया / ऐसा कर वे नन्दीश्वर द्वीप में आ गये। देवराज, देवेन्द्र शक ने पूर्व दिशा में स्थित अंजनक पर्वत पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया। देवराज, देवेन्द्र शक्र के चार लोकपालों ने चारों Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र दधिमुख पर्वतों पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया। देवराज ईशानेन्द्र ने उत्तरदिशावर्ती अंजनक पर्वत पर अष्टदिवसीय परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया। उसके लोकपालों ने चारों दधिमुख पर्वतों पर अष्टाह्निक परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया / चमरेन्द्र ने दक्षिण दिशावर्ती अंजनक पर्वत पर, उसके लोकपालों ने दधिमुख पर्वतों पर परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया / बलि ने पश्चिम दिशावर्ती अंजनक पर्वत पर और उसके लोकपालों ने दधिमख पर्वतों पर परिनिर्वाण-महोत्सव मनाया। इस प्रकार बहत से भवनपति, वानव्यन्तर आदि देवों ने अष्टदिवसीय महोत्सव मनाये / ऐसा कर वे जहाँ-तहाँ अपने विमान, भवन, सुधर्मा सभाएँ तथा अपने माणवक नामक चैत्यस्तंभ थे, वहाँ आये / आकर जिनेश्वर देव की डाढ आदि अस्थियों को वज्रमय-हीरों से निर्मित गोलाकार समुद्गक—भाजन-विशेष-- डिबियानों में रखा / रखकर अभिनव, उत्तम मालाओं तथा सुगन्धित द्रव्यों से अर्चना की। अर्चना कर अपने विपुल सुखोपभोगमय जीवन में घुलमिल गये / अवसर्पिणी : दुःषम-सुषमा 44- तीसे णं समाए दोहि सागरोवमकोडाकोडोहिं काले वीइक्कते अणंतेहि वण्णपज्जवेहि जाव' परिहायमाणे परिहायमाणे एत्थ णं दूसमसुसमा णामं समा काले पडिज्जिसु समणाउसो! तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए प्रागारभावपडोमारे पण्णत्ते ? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते / से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव' मणीहि उवसोभिए, तंजहा—कत्तिमेहि चेव अकत्तिमेहि चेव / तीसे णं भंते ! समाए भरहे मणुआणं केरिसए पायारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! तेसि मणुप्राणं छविहे संघयणे, छविहे संठाणे, बहूई धणूई उद्ध उच्चत्तणं, जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी पाउअं पालेंति / पालित्ता अप्पेगइआ णिरयगामी, (अप्पेगइआ तिरियगामी, अप्पेगइया मणुयगामी, अप्पेगइआ) देवगामी, अप्पेगइया सिझंति, बुज्झंति, (मुच्चंति, परिणिव्वायंति,) सव्वदुक्खाणमंतं करेंति / तीसे णं समाए तओ वंसा समुप्पज्जित्था, तंजहा–अरहंतवंसे, चक्कवट्टिवंसे, दसारवंसे / तोसे णं समाए तेवीसं तित्थयरा, इक्कारस चक्कवट्टी, णव बलदेवा, णव वासुदेवा समुप्पज्जित्था / [44] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय का तीसरे प्रारक का दो सागरोपम कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम-सुषमा नामक चौथा प्रारक प्रारंभ होता है / उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जाता है / भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? गौतम ! उस समय भरतक्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है / मुरज के ऊपरी भाग-चर्मपुट जैसा समतल होता है, कृत्रिम तथा अकृत्रिम मणियों से उपशोभित होता है / भगवन् ! उस समय मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? 1. देखें सूत्र संख्या 28 2. देखें सूत्र संख्या 6 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] [75 - गौतम ! उन मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन होते हैं, छह प्रकार के संस्थान होते हैं। उनकी ऊँचाई अनेक धनुष-प्रमाण होती है। जघन्य अन्तर्महर्त का तथा उत्कृष्ट पर्वकोटि का प्रायष्य भोगकर उनमें से कई नरक-गति में, (कई तिर्यञ्च-गति में, कई मनुष्य-गति में) तथा कई देव-गति में जाते हैं, कई सिद्ध, बुद्ध, (मुक्त एव परिनिर्वृत्त होते हैं,) समस्त दुःखों का अन्त करते हैं / उस काल में तीन वंश उत्पन्न होते हैं-अर्हत् वश, चक्रवति-वंश तथा दशारवंश-बलदेववासुदेव-वंश / उस काल में तेवीस तीर्थकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव तथा नौ वासुदेव उत्पन्न होते हैं / अवसर्पिणी : दुःषमा प्रारक 45. तोसे गं समाए एक्काए सागरोवमकोडाकोडीए बायलोसाए वाससहस्सेहिं ऊणिपाए काले वीइक्कते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहि तहेव जाव' परिहाणीए परिहायमाणे 2 एत्थ णं दूसमाणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोसारे भविस्सइ ? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे भविस्सइ, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा मुइंगयुक्खरेइ वा जाव' णाणामणिपंचवर्णेहि कत्तिमेहि चेव अव त्तमेहि चेव / तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स मणुपाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते? गोअमा ! तेसि मणुप्राणं छविहे संघयणे, छविहे संठाण, बाइओ रयणीमो उद्ध उच्चत्तेणं, जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं आउअं पालेंति, पालेत्ता अप्पेगइआ णिरयगामी, जाव' सव्वदुक्खाणमंतं करेति / / तीसे गं समाए पच्छिमे तिभागे गणधम्मे, पासंडधम्मे, रायधम्मे, जायतेए, धम्मचरणे अ वोच्छिज्जिस्सइ। [45] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय के-चतुर्थ प्रारक के बयालीस हजार वर्ष कम एक गरोपम कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाने पर अवसापणी-काल कादु:षमा नामक पचम प्रारक प्रारंभ होता है। उसमें अनन्त वर्णपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जाता है। भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र का कैसा आकार-स्वरूप होता है ? गौतम ! उस समय भरतक्षेत्र का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय होता है / वह मुरज के, मृदंग के ऊपरी भाग-चर्मपुट जैसा समतल होता है, विविध प्रकार की पाँच वर्षों की कृत्रिम तथा अकृत्रिम मणियों द्वारा उपशोभित होता है। भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र के मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा होता है ? 1. देखें सूत्र संख्या 28 2. देखें सूत्र संख्या 6 3. देखें सूत्र संख्या 12 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्पूटीपप्रज्ञप्तिसूत्र गौतम ! उस समय भरतक्षेत्र के मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एव संस्थान होते हैं। उनकी ऊँचाई अनेक हाथ-सात हाथ की होती है / वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट कुछ– तेतीस वर्ष अधिक सौ वर्ष के आयुष्य का भोग करते हैं। आयुष्य का भोग कर उनमें से कई नरक-गति में, (कई तिर्यञ्च-गति में, कई मनुष्य-गति में, कई देव-गति में जाते हैं, कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिवृत्त होते हैं)। उस काल के अन्तिम तीसरे भाग में गणधर्म-किसी समुदाय या जाति के वैवाहिक आदि स्व-स्व प्रवर्तित व्यवहार, पाखण्ड-धर्म-निर्गन्थ-प्रवचनेतर शाक्य आदि अन्यान्य मत, राजधर्म-निग्रहअनुग्रहादि मूलक राजव्यवस्था, जाततेज-अग्नि तथा चारित्र-धर्म विच्छिन्न हो जाता है। विवेचन-भाषाविज्ञान के अनुसार किसी शब्द का एक समय जो अर्थ होता है, आगे चलकर भिन्न परिस्थितियों में कभी-कभी वह सर्वथा परिवर्तित हो जाता है। यही स्थिति पाषंड या पाखण्ड शब्द के साथ है / आज प्रचलित पाखण्ड या पाखण्डी शब्द के अर्थ में प्राचीन काल में प्रचलित अर्थ से सर्वथा भिन्नता है। भगवान् महावीर के समय में और शताब्दियों तक पाषंडी या पाखण्डी शब्द अन्य मतों के अनुयायियों के लिए प्रयुक्त होता रहा / आज पाखण्ड शब्द निन्दामूलक अर्थ में है / ढोंगी को पाखण्डी कहा जाता है / प्राचीन काल में पाषंड या पाखण्ड के साथ निन्दात्मकता नहीं जुड़ी थी। अशोक के शिलालेखों में भी अनेक स्थानों पर यह आया है। अवपिणी : दुःषम-दुःषमा 46. तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कते अणंतेहि बण्णपज्जवेहि, गंधपज्जवेहि, रसपज्जवेहि, फासपज्जवेहिं जाव' परिहायमाणे 2 एत्थ णं दूसमदूसमाणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउओ ! तीसे णं भंते ! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सह ? गोयमा ! काले भविस्सइ हाहाभूए, भंभाभूए, कोलाहलभूए, समाणुभावेण य खरफरुसधलिमइला, दुम्विसहा, वाउला, भयंकरा य वाया संवट्टगा य वाइंति, इह अभिक्खणं 2 धूमाहिति अ दिसा समंता रउस्सला रेणुकलुसतमपडलणिरालोआ, समयलुक्खयाए णं अहिअं चंदा सोनं मोच्छिहिति, अहि सूरिआ तविस्संति, अदुत्तरं च णं गोयमा! अभिक्खणं अरसमेहा, विरसमेहा, खारमेहा, खत्तमेहा, अग्गिमेहा, विज्जुमेहा, विसमेहा, अजवणिज्जोदगा, वाहिरोगवेदणोदोरणपरिणामसलिला, अमणुष्णपाणिअगा चंडानिलपहततिक्खधाराणिवातपउरं वासं वाििहति, जेणं भरहे वासे गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमगयं जणक्यं, चउप्पयगवेलए, खहयरे, पक्खिसंघे गामारण्णप्पयारणिरए तसे अ पाणे, बहुप्पयारे रुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लिपवालंकुरमादीए तणवणस्सइकाइए ओसहीओ अ विद्ध'सेहिति, पव्वयगिरिडोंगरुत्थलभट्ठिमादीए अ वेअगिरिवज्जे विरावेहिति, सलिलबिलविसमगत्तणिण्णुण्णयाणि अ गंगासिंधुवज्जाई समीकरोहिंति। 1. देखें सूत्र संख्या 28 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] [77 . तोसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स भूमीए केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ ? गोयमा ! भूमी भविस्सइ इंगालभूत्रा, मुम्मुरभूआ, छारिअभूत्रा, तत्तकवेल्लुप्रभूत्रा, तत्तसमजोइभूना, धूलिबहुला, रेणुबहुला, पंकबहुला, पणयबहुला, चलणिबहुला, बहूर्ण धरणिगोधराणं सत्ताणं दुन्निक्कमा यावि भविस्सइ। तोसे णं भंते ! समाए भरहे वासे मणुपाणं केरिसए आयारभावपडोसारे भविस्सइ ? गोयमा ! मणुना भविस्संति दुरूवा, दुव्वण्णा, दुगंधा, दुरसा दुफासा, अणिट्ठा, प्रता, अप्पिआ, असुभा, अमणुन्ना, अमणामा, होणस्सरा, दीणस्सरा, अणिट्ठस्सरा, अकंतस्सरा, अप्पिअस्सरा, अमणामस्सरा, अमणुग्णस्सरा, अणादेज्जवयणपच्चायाता, पिल्लज्जा, कूड-कवड-कलह-बंधवेर-निरया, मज्जायातिक्कमप्पहाणा, अकज्जणिच्चुज्जुया गुरुणिनोगविणयरहिया य, विकलरूवा, परूढणहकेसमंसुरोमा, काला, खरफरुससमावण्णा, फुट्टसिरा, कविलपलिअकेसा, बहुण्हारुणिसंपिणद्धदुईसणिज्जरूवा, संकुडिअ-वलीतरंग-परिवेढिअंगमंगा, जरापरिणयव्वथेरगणरा, पविरलपरिसडिअदंतसेढी, उन्भडघडमुहा, विसमणयणवंकणासा, वंकवलीविगयभेसणमुहा, दद्द -विकिटिभ-सिब्भफुडिअ-फरुसच्छवी, चित्तलंगमंगा, कच्छ खसराभिभूत्रा, खरतिक्खणक्खकंडूइअविकयतणू, टोलगतिविसमसंधिबंधणा, उक्कडुअट्ठिअविभत्तदुम्बलकुसंघयणकुप्पमाणकुसंठिया, कुरूवा, कुट्ठाणासणकुसेज्जकुभोइणो, असुइणो, अणेगवाहिपीलिअंगमंगा, खलंतविन्भलगई, णिरुच्छाहा, सत्तपरिवज्जिया विगयचेट्ठा, नट्टतेया, अभिक्खणं सीउण्हखरफरुसवायविज्झडिअमलिणपंसुरप्रोगुडिअंगमंगा, बहुकोहमाणमायालोभा, बहुमोहा, असुभदुक्खभागी, प्रोसण्णं धम्मसण्णसम्मत्तपरिम्भट्ठा, उक्कोसेणं रयणिप्पमाणमेत्ता, सोलसवीसइवासपरमाउसो, बहुपुत्त-णत्तुपरियालपणयबहुला गंगासिंधूत्रों महाणईनो वेअड्डच पव्वयं नीसाए बावतरि णिगोश्रबीअं बीअमेत्ता बिलवासिणो मणुश्रा भविस्संति / तेणं णं भंते ! मणुआ किमाहारिस्संति ? गोयमा ! ते णं कालेणं ते णं समएणं गंगासिंधूप्रो महाणईनो रहपहमित्तवित्थरानो अक्खसोअप्पमाणमेत्तं जलं वोझिहिति / सेवि अ णं जले बहुमच्छकच्छभाइण्णे, णो चेव णं श्राउबहुले भविस्सइ। तए णं ते मणुप्रा सूरुग्गमणमुहत्तंसि अ सूरथमणमुहुत्तंसि अ बिलेहितो णिद्धाइस्संति, विलेहितो णिद्धाइत्ता मच्छकच्छभे थलाई गाहेहिति, मच्छकच्छभे थलाई गाहेत्ता सीमातवततेहि मच्छकच्छभेहि इक्कवीसं वाससहस्साई वित्ति कप्पेमाणा विहरिस्संति / ते णं भंते ! मणुना णिस्सीला, णिव्वया, णिग्गुणा, णिम्मेरा, हिप्पच्चक्खाणपोसोहववासा, प्रोसण्णं मंसाहारा, मच्छाहारा, खुड्डाहारा, कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहि गच्छिहिति, कहि उववजिहिति ? गोयमा ! प्रोसण्णं णरगतिरिक्खजोणिएसु उववजिहिति। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तीसे णं भंते ! समाए सीहा, बग्घा, विगा, दीवित्रा, अच्छा, तरस्सा, परस्सरा, सरभसियालबिरालसुणगा, कोलसुणगा, ससगा, चित्तगा, चिल्ललगा प्रोसम्णं मंसाहारा, मच्छाहारा, खोद्दाहारा, कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति ? गोयमा ! पोसण्णं णरगतिरिक्खजोणिएसु उववजिहिंति। . ते णं भंते ! ढंका, कंका, पीलगा, मग्गुगा, सिही प्रोसण्णं मंसाहारा, (मच्छाहारा, खोद्दाहारा, कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा) कहिं गछिहिंति कहिं उववजिहिंति ? गोयमा ! प्रोसण्णं णरगतिरिक्खजोणिएसु-(गच्छिहिति) उववजिहिति / / {46] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस समय के-पचम प्रारक के इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर अवसर्पिणी काल का दुःषम-दुःषमा नामक छठा प्रारक प्रारंभ होगा। उसमें अनन्त वर्णपर्याय, गन्धपर्याय, रसपर्याय तथा स्पर्शपर्याय आदि का क्रमशः ह्रास होता जायेगा। भगवन् ! जब वह पारक उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँचा होगा, तो भरतक्षेत्र का प्राकारस्वरूप कैसा होगा? गौतम ! उस समय दुःखार्ततावश लोगों में हाहाकार मच जायेगा, गाय आदि पशुओं में भंभाअत्यन्त दुःखोद्विग्नता से चीत्कार फैल जायेगा अथवा भंभा–भेरी के भीतरी भाग की शून्यता या सर्वथा रिक्तता के सदृश वह समय विपुल जन-क्षय के कारण जन-शून्य हो जायेगा। उस काल का ऐसा ही प्रभाव है। तब अत्यन्त कठोर, धूल से मलिन, दुर्विषह-दुस्सह, व्याकुल-आकुलतापूर्ण भयंकर वायु चलेंगे, संवर्तक-तृण, काष्ठ आदि को उड़ाकर कहीं का कहीं पहुँचा देने वाले वायु-विशेष चलेंगे। उस काल में दिशाएँ अभीक्ष्ण-क्षण क्षण---पुन: पुन: धुआं छोड़ती रहेंगी / वे सर्वथा रज से भरी होंगी, धूल से मलिन होंगी तथा घोर अंधकार के कारण प्रकाशशून्य हो जायेंगी। काल की रूक्षता के कारण चन्द्र अधिक अहित-अपथ्य शीत-हिम छोड़ेंगे / सूर्य अधिक असह्य, जिसे सहा न जा सके, इस रूप में तपेंगे / गौतम ! उसके अनन्तर अरसमेघ---मनोज्ञ रस-वजित जलयुक्त मेघ, विरसमेघविपरीत रसमय जलयुक्त मेघ, क्षारमेघ-खार के समान जलयुक्त मेघ, खात्रमेघ-करीष सदृश रसमय जलयुक्त मेघ, अथवा अम्ल या खट्टे जलयुक्त मेघ, अग्निमेघ–अग्नि सदृश दाहक जलयुक्त मेघ, विद्युन्मेष-विद्युत-बहुल जलवजित मेघ अथवा बिजली गिराने वाले मेघ, विषमेघ-विषमय वर्षक मेघ. अयापनीयोदक-अप्रयोजनीय जलयक्त, व्याधि--कृष्ट आदि लम्बी बीमारी, रोग-शुल आदि सद्योघाती फौरन प्राण ले लेने वाली बीमारी जैसे वेदनोत्पादक जलयुक्त, अप्रिय जलयुक्त मेघ, तूफानजनित तीव्र प्रचुर जलधारा छोड़ने वाले मेघ निरंतर वर्षा करेंगे। भरतक्षेत्र में ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टन, आश्रमगत जनपद-- मनुष्यवन्द, गाय आदि चौपाये प्राणी, खेचर—वैताढ्य पर्वत पर निवास करने वाले गगनचारी विद्याधर, पक्षियों के समूह, गाँवों और वनों में स्थित द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीव, बहुत प्रकार के पाम्र आदि वृक्ष, वृन्ताकी आदि गुच्छ, नवमालिका आदि गुल्म, अशोकलता आदि लताएँ, वालुक्य प्रभृति बेलें, पत्ते, अंकुर इत्यादि बादर वानस्पतिक जीव-तृण आदि वनस्पतियाँ, औषधियाँ--इन सबका वे विध्वस कर देंगे / वैताढ्य प्रादि शाश्वत पर्वतों के अतिरिक्त अन्य पर्वत-उज्जयन्त, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] स्थल, वैभार प्रादि क्रीडापर्वत, गोपाल, चित्रकूट आदि गिरि, डूगर-पथरीले टोले, उन्नत स्थल-ऊँचे बे, भ्राष्ट-धलवजित भमि-पठार, इन सब को तहस-नहस कर डालेंगे। गंगा और सिन्धु महानदी के अतिरिक्त जल के स्रोतों, झरनों, विषमगर्त-ऊबड़-खाबड़ खड्डों, निम्न-उन्नतनीचे-ऊँचे जलीय स्थानों को समान कर देंगे --उनका नाम-निशान मिटा देंगे। __ भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र की भूमि का प्राकार-स्वरूप कैसा होगा? गौतम! भूमि अंगारभूत ज्वालाहीन वह्निपिण्डरूप, मुर्मरभूत--तुषाग्निसदृश विरलअग्निकणमय, क्षारिकभूत-भस्म रूप, तप्तकदेल्लुकभूत--तपे हुए कटाहं सदृश, सर्वत्र एक जैसी तप्त, ज्वालामय होगी। उसमें धूलि, रेणु-वालुका, पंक-कीचड़, प्रतनु-पतले कीचड़, चलते समय जिसमें पैर डूब जाए, ऐसे प्रचुर कीचड़ की बहुलता होगी। पृथ्वी पर चलने-फिरने वाले प्राणियों का उस पर चलना बड़ा कठिन होगा। भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र में मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा होगा? गौतम ! उस समय मनुष्यों का रूप, वर्ण-रंग, गंध, रस तथा स्पर्श अनिष्ट अच्छा नहीं लगने वाला, अकान्त-..-कमनीयता रहित, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ-मन को नहीं भाने वाला तथा अमनोऽम-अमनोगम्य मन को नहीं रुचने वाला होगा। उनका स्वर हीन, दीन, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोगम्य और अमनोज्ञ होगा / उनका वचन, जन्म अनादेय अशोभन होगा। वे निर्लज्जलज्जा-रहित, कूट-भ्रांतिजनक द्रव्य, कपट-छल, दूसरों को ठगने हेतु वेषान्तरकरण आदि, कलहझगड़ा, बन्ध-रज्जु प्रादि द्वारा बन्धन तथा वैर-शत्रुभाव में निरत होंगे। मर्यादाएँ लांघने, तोड़ने में प्रधान, अकार्य करने में सदा उद्यत एवं गुरुजन के प्राज्ञा-पालन और विनय से रहित होंगे / वे विकलरूप-असंपूर्ण देहांगयुक्त–काने, लंगड़े, चतुरंगुलिक आदि, आजन्म संस्कारशून्यता के कारण बढ़े हुए नख, केश तथा दाढ़ी-मूछ युक्त, काले, कठोर स्पर्शयुक्त, गहरी रेखाओं या सलवटों के कारण फूटे हुए से मस्तक युक्त, धुएँ के से वर्ण वाले तथा सफेद केशों से युक्त, अत्यधिक स्नायुओं-नाड़ियों से संपिनद्ध----परिबद्ध या छाये हुए होने से दुर्दर्शनीय रूपयुक्त, देह में पास-पास पड़ी झुरियों की तरंगों से परिव्याप्त अंग युक्त, जरा-जर्जर बूढ़ों के सदृश, प्रविरल-दूर-दूर प्ररूढ तथा परिशटित-परिपतित दन्तश्रेणी युक्त, घड़े के विकृत मुख सदृश मुखयुक्त अथवा भद्दे रूप में उभरे हुए मुख तथा घांटी युक्त, असमान नेत्रयुक्त, वक्र-टेढ़ी नासिकायुक्त झुरियों से विकृत--वीभत्स, भीषण मुखयुक्त, दाद, खाज, सेहरा आदि से विकृत, कठोर चर्मयुक्त, चित्रल-कर्बुर चितकबरे अवयवमय देहयुक्त, पाँव एवं खसरसंज्ञक चर्म रोग से पीड़ित, कठोर, तीक्ष्ण नखों से खाज करने के कारण विकृत-व्रणमय या खरोंची हुई देहयुक्त, टोलगति-ऊँट आदि के समान चालयुक्त या टोलाकृति-अप्रशान्त प्राकारयुक्त, विषमसन्धि-बन्धनयुक्त, अयथावस्थित अस्थियुक्त, पौष्टिक भोजन रहित, शक्तिहीन, कुत्सित संहनन, कुत्सित परिमाण, कुत्सित संस्थान एवं कुत्सित रूप युक्त, कुत्सित पाश्रय, कुत्सित आसन, कुत्सित शय्या तथा कुत्सित भोजनसेवी, अशुचि--अपवित्र अथवा अश्रुति--श्रुत-शास्त्र ज्ञान-वजित, अनेक व्याधियों से पीडित, स्खलित-विहल गतियुक्त लड़खड़ा कर चलने वाले, उत्साह-रहित. सत्त्वहीन, निश्चेष्ट, नष्टतेज-तेजोविहीन, निरन्तर शीत, उष्ण, तीक्ष्ण, कठोर वायु से व्याप्त शरीरयुक्त, मलिन धूलि से आवृत देहयुक्त, बहुत क्रोधी, अहंकारी, मायावी, लोभी तथा मोहमय, अशुभ कार्यों के परिणाम स्वरूप अत्यधिक दुःखी, प्रायः धर्मसंज्ञा-धार्मिक श्रद्धा तथा सम्यक्त्व से परिभ्रष्ट होंगे। उत्कृष्टतः उनका Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र देह-परिमाण–शरीर की ऊँचाई एक हाथ-चौबीस अंगुल की होगी। उनका अधिकतम आयुष्यस्त्रियों का सोलह वर्ष का तथा पुरुषों का बीस वर्ष का होगा। अपने बहुपुत्र-पौत्रमय परिवार में उनका बड़ा प्रणय-प्रेम या मोह रहेगा / वे गंगा महानदी, सिन्धु महानदी के तट तथा वैताढ्य पर्वत के आश्रय में बिलों में रहेंगे। वे बिलवासी मनुष्य संख्या में बहत्तर होंगे। उनसे भविष्य में फिर मानव-जाति का विस्तार होगा।' भगवन् ! वे मनुष्य क्या आहार करेंगे ? गौतम ! उस काल में गंगा महानदी और सिन्धु महानदी-ये दो नदियाँ रहेंगी। रथ चलने के लिए अपेक्षित पथ जितना मात्र उनका विस्तार होगा। उनमें रथ के चक्र के छेद की गहराई जितना गहरा जल रहेगा। उनमें अनेक मत्स्य तथा कच्छप-कछुए रहेंगे। उस जल में सजातीय अप्काय के जीव नहीं होंगे। वे मनुष्य सूर्योदय के समय तथा सूर्यास्त के समय अपने बिलों से तेजी से दौड़ कर निकलेंगे। बिलों से निकल कर मछलियों और कछुओं को पकड़ेंगे, जमीन पर किनारे पर लायेंगे / किनारे पर लाकर रात में शीत द्वारा तथा दिन में प्रातप द्वारा उनको रस रहित बनायेंगे, सुखायेंगे सूखायेंगे। इस प्रकार वे अतिस रस खाद्य को पचाने में असमर्थ अपनी जठराग्नि के अनुरूप उन्हें अाहारयोग्य बना लेंगे / इस पाहार-वृत्ति द्वारा वे इक्कीस हजार वर्ष पर्यन्त अपना निर्वाह करेंगे। ___ भगवन् ! वे मनुष्य, जो निःशील-शीलरहित-प्राचाररहित, निव्रत-महाव्रत-अणुव्रतरहिन, निर्गुण-उत्तरगुणरहित, निर्मर्याद—कुल अादि की मर्यादाओं से रहित, प्रत्याख्यान त्याग, पौषध व उपवासरहित होंगे, प्रायः मांस-भोजी, मत्स्य-भोजी, यत्र-तत्र अवशिष्ट क्षुद्र-तुच्छ धान्यादिकभोजी, कुणिपभोजी-शवरस-वसा या चर्बी प्रादि दुर्गन्धित पदार्थ-भोजी होंगे। अपना आयुष्य समाप्त होने पर मरकर कहाँ जायेंगे, कहाँ उत्पन्न होंगे ? गौतम ! वे प्रायः नरकगति और तिर्यञ्चगति में उत्पन्न होंगे। भगवन् ! तत्कालवर्ती सिंह, बाघ, भेड़िए, चीते, रीछ, तरक्ष–व्याघ्रजातीय हिंसक जन्तुविशेष, गेंडे, शरभ-अष्टापद, शृगाल, बिलाव, कुत्ते, जंगली कुत्ते या सूअर, खरगोश, चीतल तथा चिल्ललक, जो प्रायः मांसाहारी, मत्स्याहारी, क्षुद्राहारी तथा कुणपाहारी होते हैं, मरकर कहाँ जायेंगे ? कहाँ उत्पन्न होंगे? गौतम ! प्रायः नरकगति और तिर्यञ्चगति में उत्पन्न होंगे। 1. छठे आरे के वर्णन में ऐसा भी उल्लेख पाया जाता है 21000 वर्ष 'दुःखमा-दुःखमा' नामक छ8 पारे का आरम्भ होगा, तब भरतक्षेत्राधिष्ठित देव पञ्चम आरे के विनाश पाते हुए पशु मनुष्यों में से बीज रूप कुछ पशु, मनुष्यों को उठाकर वैतादय गिरि के दक्षिण और उत्तर में जो गंगा और सिन्धु नदी हैं, उनके पाठों किनारों में से एक-एक तट में नव-नव बिल हैं एवं सर्व 32 बिल हैं और एक-एक बिल में तीन-तीन मंजिल हैं, उनमें उन पशु व मनुष्यों को रखेंगे। 72 बिलों में से 63 बिलों में मनुष्य, 6 बिलों में स्थलचर-पशु एवं 3 बिलों में खेचर पक्षी रहते हैं। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] [81 भगवन् ! ढंक-काक विशेष, कंक-कठफोड़ा, पीलक, मद्गुक-जल काक, शिखी-मयूर, जो प्रायः मांसाहारी, (मत्स्याहारी, क्षुद्राहारी तथा कुणपाहारी होते हैं, मरकर) कहाँ जायेंगे ? कहाँ जन्मेंगे? गौतम ! वे प्रायः नरकगति और तिर्यञ्चगति में जायेंगे / आगमिष्यत् उतपिणीः दुःषम-दुःषमा-दुषमकाल 47. तोसे णं समाए इक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कंते आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सावणबहुलपडिवए बालवकरणंसि अभीइणक्खत्ते चोहसपढमसमये अणंतेहिं वण्णपज्जवेहि जाव' अणंतगुण-परिविद्धीए परिवद्धमाणे 2 एत्थ णं दूसमसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोसारे भविस्सइ ? गोयमा ! काले भविस्सइ हाहाभूए, भंभाभूए एवं सो चेव दूसमदूसमावेढयो अन्यो। तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कते अगतेहि वण्णपज्जवेहिं जाव' अणंतगुणपरिवुद्धीए परिवद्धमाणे 2 एत्थ णं दूसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो ! [47] आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस काल के अवसर्पिणी काल के छठे आरक के इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर पाने वाले उत्सर्पिणी-काल का श्रावण मास, कृष्ण पक्ष प्रतिपदा के दिन बालब नामक करण में चन्द्रमा के साथ अभिजित् नक्षत्र का योग होने पर चतुर्दशविध काल के प्रथम समय में दुषम-दुषमा आरक प्रारम्भ होगा। उसमें अनन्त वर्णपर्याय आदि अनन्तगुण-परिवृद्धि-क्रम से परिवद्धित होते जायेंगे। भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र का प्राकार-स्वरूप कैसा होगा? आयुष्यन् श्रमण गौतम ! उस समय हाहाकारमय, चीत्कारमय स्थिति होगी, जैसा अवसपिणी-काल के छठे प्रारक के सन्दर्भ में वर्णन किया गया है / उस काल के उत्सपिणी के प्रथम प्रारक दुःषम-दुषमा के इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर उसका दुःषमा नामक द्वितीय प्रारक प्रारम्भ होगा। उसमें अनन्त वर्णपर्याय आदि अनन्तगुण-परिवृद्धि-क्रम से परिवद्धित होते जायेंगे। जल-क्षीर-घृत-अमृतरस-वर्षा 48, तेणं कालेणं तेणं समएणं पुक्खलसंवट्टए णामं महामेहे पाउभविस्सइ भरहप्पमाणमित्ते पायामेणं, तदणुरूवं च णं विक्खंभबाहल्लेणं / तए णं से पुक्खलसंवट्टए महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ, खिप्पामेव पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविज्जुमाइस्सइ, खिप्पामेव पविज्जुमाइत्ता खिप्पामेव 1. देखें सूत्र संख्या 28 / / देखें सूत्र संख्या 35 3. 1. निःश्वास उच्छ्वास, 2. प्राण, 3. स्तोक, 4. लव, 5. मुहूर्त, 6. अहोरात्र, 7. पक्ष, ८.मास, 9. ऋतु, 10. अयन, 11. संवत्सर, 12. युग, 13. करण, 14. नक्षत्र / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जुगमुसलमुट्टिप्पमाणमित्ताहि धाराहि प्रोघमेघ सत्तरतं वासं वासिस्सइ, जेणं भरहस्स वासस्स भूमिभागं इंगाल भूअं, मुम्मरभूअं, छारिप्रभूध, तत्त-कवेल्लुगभूअं, तत्तसमजोइभूअं णिवाविस्सति त्ति। तंसि च णं पुक्खलसंवट्टगंसि महामेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि एत्थ णं खीरमेहे णामं महामेहे पाउभविस्सइ, भरहप्पमाणमेत्ते पायामेणं, तदणुरूवं च णं विवखंभवाहल्लेणं / तए णं से खोरमेहे णामं महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ (खिप्पामेव पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविज्जुप्राइस्सइ, खिप्पामेव पविज्जुमाइता) खिप्पामेव जुगलमुसलमुट्ठि-(प्पमाणमित्ताहि धाराहि श्रोघमेघं) सत्तरत्तं वासं वासिस्सइ, जेणं भरहवासस्स भूमीए वणं गंधं रसं फासं च जणइस्सइ। तंसि च णं खीरमेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि इत्थ णं धयमेहे णामं महामेहे पाउन्भविस्सइ, भरहप्पमाणमेत्ते पायामेणं, तदणुरूवं च णं विक्खंभवाहल्लेणं / तए णं से घयमेहे महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ जाव' वासं वासिस्सइ, जेणं भरहस्स वासस्स भूमीए सिणेहभावं जणइस्सइ। तसि च णं घयमेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि एत्थ णं अमयमेहे णामं महामेहे पाउभविस्सइ, भरहप्पमाणमित्तं पायामेणं, (तदणुरूवं च णं विक्खंभवाहल्लेणं / तए णं से अमयमेहे णामं महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ, खिप्पामेवे पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविज्जुमाइस्सइ, खिप्पामेव पविज्जुआइत्ता खिप्पामेव जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणमित्ताहिं धाराहि प्रोघमेधं सत्तरत्तं) वासं वासिस्सइ जेणं भरहे वासे रुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पव्वग-हरित-प्रोसहि-पवालंकुर-माईए तणवणस्सइकाइए जणइस्सइ। तंसि च णं अमयमेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि एत्थ णं रसमेहे णामं महामेहे पाउन्भविस्सइ, भरहप्पमाणमेत्ते पायामेणं, (तदणुरूवं च विक्खंभवाहल्लेण / तए णं से रसमेहे णामं महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ, खिप्पामेव पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविज्जुमाइस्सइ, खिप्पामेव पविज्जुप्राइत्ता खिप्पामेव जुगमुसलमुट्टिप्पमाणमित्ताहि धाराहि ओघमेघं सत्तरत्तं) वासं वासिस्सइ, जेणं तेसि बहूणं रुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पब्वग-हरित-प्रोसहि-पवालंकुर-मादीणं तित्त-कडुअ-कसायअंबिल-महुरे पंचविहे रसविसेसे जणइस्सइ / . तए णं भरहे वासे भविस्सइ परूढरुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लितणपन्वयगहरिप्रमोसहिए, उचियतय-पत्त-पवालंकुर-पुष्फ-फलसमुइए, सुहोवभोगे प्रावि भविस्सइ / [48] उस उत्सर्पिणी-काल के दु:षमा नामक द्वितीय प्रारक के प्रथम समय में भरतक्षेत्र की अशुभ अनुभावमय रूक्षता, दाहकताअादि का अपने प्रशान्त जल द्वारा शमन करने वाला पुष्कर-संवर्तक नामक महामेघ प्रकट होगा। वह महामेघ लम्बाई, चौड़ाई तथा विस्तार में भरतक्षेत्र प्रमाण भरत क्षेत्र जितना होगा। वह पुष्कर-संवर्तक महामेघ शीघ्र ही गर्जन करेगा, गर्जन कर शीघ्र ही विद्युत् से युक्त होगा--उसमें बिजलियाँ चमकने लगेंगी, विद्युत्-युक्त होकर शीघ्र ही वह युग--रथ के अवयव१. देखें सूत्र यही। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार विशेष (जवा), मूसल और मुष्टि-परिमित-मोटी धाराओं से सात दिन-रात तक सर्वत्र एक जैसी वर्षा करेगा। इस प्रकार वह भरतक्षेत्र के अंगारमय, मुर्मुरमय, क्षारमय, तप्त-कटाह सदृश, सब ओर से परितप्त तथा दहकते भूमिभाग को शीतल करेगा। यो सात दिन-रात तक पुष्कर-संवर्तक महामेघ के बरस जाने पर क्षीरमेघ नामक महामेघ प्रकट होगा / वह लम्बाई, चौड़ाई तथा विस्तार में भरतक्षेत्र जितना होगा। वह क्षीरमेघ नामक विशाल बादल शीघ्र ही गर्जन करेगा, (गर्जन कर शीघ्र हो विद्युत्युक्त होगा, विद्युत्युक्त होकर)शीघ्र ही युग, मूसल और मुष्टि (परिमित धाराओं से सर्वत्र एक सदृश) सात दिन-रात तक वर्षा करेगा। यों वह भरतक्षेत्र की भूमि में शुभ वर्ण, शुभ गन्ध, शुभ रस तथा शुभ स्पर्श उत्पन्न करेगा, जो पूर्वकाल में अशुभ हो चुके थे। उस क्षीरमेघ के सात दिन-रात बरस जाने पर घृतमेघ नामक महामेध प्रकट होगा। वह लम्बाई, चौड़ाई और विस्तार में भरतक्षेत्र जितना होगा। वह घृतमेघ नामक विशाल बादल शीघ्र ही गर्जन करेगा, वर्षा करेगा। इस प्रकार वह भरतक्षेत्र की भूमि में स्नेहभाव-स्निग्धता उत्पन्न करेगा। उस घतमेघ के सात दिन-रात तक बरस जाने पर अमृतमेघ नामक महामेघ प्रकट होगा। वह लम्बाई, (चौड़ाई और विस्तार में भरतक्षेत्र जितना होगा / वह अमृतमेघ नामक विशाल बादल शीघ्र हो गर्जन करेगा, गर्जन कर शीघ्र ही विद्युत्युक्त होगा, युग, मूसल तथा मुष्टि-परिमित धारामों से सर्वत्र एक जैसी सात दिन-रात) वर्षा करेगा / इस प्रकार वह भरतक्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण-घास, पर्वग---गन्न प्रादि, हरित-हरियालो-दूब आदि, औषधि-जड़ी-बूटी, पत्ते तथा कोंपल आदि बादर वानस्पतिक जीवों को-वनस्पतियों को उत्पन्न करेगा / __उस अमृतमेघ के इस प्रकार सात दिन-रात बरस जाने पर रसमेध नामक महामेघ प्रकट होगा / वह लम्बाई, (चौड़ाई और विस्तार में भरतक्षेत्र जितना होगा। फिर वह रसमेघ नामक विशाल बादल शीघ्र ही गर्जन करेगा / गर्जन कर शीघ्र ही विद्युत् युक्त होगा / विद्युत्युक्त होकर शीघ्र ही युग, मूसल तथा मुष्टि-परिमित धाराओं से सर्वत्र एक जैसी सात दिन-रात) वर्षा करेगा। इस प्रकार बहुत से वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि, पत्ते तथा कोंपल आदि में तिक्त-तोता, कटुक--कडुअा, कषाय-कसैला, अम्ल-खट्टा तथा मधुर-मीठा, पाँच प्रकार के रस उत्पन्न करेगा-रस-संचार करेगा। तब भरतक्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि, पत्ते तथा कोंपल आदि उगेंगे। उनकी त्वचा-छाल, पत्र, प्रवाल, पल्लव, अंकुर, पुष्प, फल, ये सब परिपुष्ट होंगे, समुदित-सम्यक्तया उदित या विकसित होंगे, सुखोपभोग्य-सुखपूर्वक सेवन करने योग्य होंगे। सुखद परिवर्तन 46. तए णं से मणुमा भरहं वासं परूढरुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पन्वय-हरिप्रप्रोसही, उवचियतय-पत्त-पवाल-पल्लवंकुर-पुप्फ-फल-समुइअं, सुहोवभोगं जायं 2 चावि पासिहिति, पासित्ता बिलहितो गिद्धाइस्संति, णिद्धाइत्ता हट्ठतुट्ठा अण्णमण्णं सहाविस्संति, सद्दावित्ता एवं Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूब वदिस्संति-जाते णं देवाणुप्पिा ! भरहे वासे परूढरुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पव्यय-हरिय(ोसहीए, उवचिअतय-पत्त-पवाल-पल्लवंकुर-पुण्फ-फलसमुइए,) सुहोवभोगे, तं जे णं देवाणुप्पिा ! अम्हं केइ अज्जप्पभिइ असुभं कुणिमं प्राहारं आहारिस्सइ, से णं अणेगाहिं छायाहि वज्जणिज्जेत्ति कटु संठिई ठवेस्संति, ठवेत्ता भरहे वासे सुहंसुहेणं अभिरममाणा 2 विहरिस्संति / [46] तब वे बिलवासी मनुष्य देखेंगे-भरतक्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि–ये सब उग पाये हैं। छाल, पत्र, प्रवाल, पल्लव, अंकुर, पुष्प तथा फल परिपुष्ट, समुदित एव सुखोपभोग्य हो गये हैं। ऐसा देखकर वे बिलों से निकल आयेंगे। निकलकर हर्षित एवं प्रसन्न होते हुए एक दूसरे को पुकारेंगे, पुकार कर कहेंगे-देवानुप्रियो ! भरतक्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि --ये सब उग आये हैं / (छाल, पत्र, प्रवाल, पल्लव, अंकुर, पुष्प, फल) ये सब परिपुष्ट, समुदित तथा सुखोपभोग्य हैं / इसलिए देवानुप्रियो ! अाज से हम में से जो कोई अशुभ, मांसमूलक आहार करेगा, (उसके शरीर-स्पर्श की तो बात ही दूर), उसकी छाया तक वर्जनीय होगी उसकी छाया तक को नहीं छूएंगे। ऐसा निश्चय कर वे संस्थितिसमीचीन व्यवस्था कायम करेंगे / व्यवस्था कायम कर भरतक्षेत्र में सुखपूर्वक, सोल्लास रहेंगे। उत्सपिणी : विस्तार 50. तीसे गं समाए भरहस्स वासस्स केरिसए पायारभावपडोमारे भविस्सइ ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे भविस्सइ (से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा, मुइंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवर्णोह) कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहि चेव / तोसे णं भंते समाए मणुप्राणं केरिसए पायारभावपडोयारे भविस्सइ ? गोयमा ! तेसि णं मणुआणं छविहे संघयणे, छविहे संठाणे, बहूईओ रयणीग्रो उड्ढं उच्चत्तणं, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं प्राउभं पालेहिति, पालेत्ता अप्पेगइना णिरयगामी, (अप्पेगइमा तिरियगामी, अप्पेगइमा मणुयगामी,) अप्पेगइया देवगामी, ण सिझति / तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कते अणंतेहि वण्णपज्जवेहिं जाव' परिवड्ढेमाणे 2 एत्थ णं दुस्समसुसमा णाम समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो ! तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए पायारभावपडोयारे भविस्सइ ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे (भूमिभागे भविस्सइ, से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा, मुइंगपुक्खरेइ वा जाव जाणामणिपंचवणेहि कित्तिमेहि चेव) अकित्तिमेहि चेव / तेसि णं भंते ! मणुाणं केरिसए आयार-भाव-पडोयारे भविस्सइ ? गोयमा ! तेसि णं मणुाणं छविहे संघयणे, छविहे संठाणे, बहूई धणूइंउद्धउच्चत्तणं, जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडीग्राउनं पालिहिति, पालेता अप्पेगइमा णिरयगामी, (अप्पेगहना तिरियगामी, अप्पेगइया मणुयगामी, अप्पेगइश्रा देवगामी, अप्पेगइमा सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणं) अंतं करेहिति / 1. देखें सूत्र संख्या 28 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वक्षस्कार] [85 तीसे णं समाए तओ वंसा समुप्पज्जिस्संति, तंजहा---तित्थगरवंसे, चक्कवट्टिवंसे, दसारवंसे। तीसे गं समाए तेवीसं तित्थगरा, एक्कारस चक्कवट्टी, णव बलदेवा, णव वासुदेवा समुप्पज्जिस्संति / तीसे णं समाए सागरोवमकोडाकोडीए बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिआए काले वीइक्कते अणतेहि वण्णपज्जवेहि जाव' अणंतगुणपरिवुद्धीए परिवद्ध माणे 2 एत्थ णं सुसमदूसमा णामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो! सा णं समा तिहा विभजिस्सइ-पढमे तिभागे, मज्झिमे तिभागे, पच्छिमे तिभागे / तोसे णं भंते ! समाए पढमे तिभाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सइ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे जाव भविस्सइ। मणुप्राणं जा वेव प्रोसप्पिणीए पच्छिमे तिभागे वत्तल्वया सा भाणिवा, कुलगरवज्जा उसमसामिवज्जा। अण्णे पढंति तंजहा-तोसे णं समाए पढमे तिभाए इमे पण्णरस कुलगरा समुप्पज्जिस्संति तंजहा-सुमई, पडिस्सुई, सीमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, विमलवाहणे, चक्खुमं, जसमं, अभिचंदे, चंदाभे, पसेणई, मरुदेवे, णाभी, उसभे, सेसं तं चेव, दंडणीईओ पडिलोमानो अचानो। तीसे णं समाए पढमे तिभाए रायधम्मे (गणधभ्मे पाखंडधम्मे अग्गिधम्मे) धम्मचरणे प्र वोच्छिज्जिस्सइ। तीसे णं समाए मज्झिमपच्छिमेसु तिभागेसु पढममज्झिमेसु वत्तव्वया प्रोसप्पिणीए सा भाणिअव्वा, सुसमा तहेव, सुसमसुसमावि तहेव जाव छव्विहा मणुस्सा अणुसज्जिस्संति जाव सण्णिचारी। [50] उस काल में उत्सर्पिणी काल के दुःषमा नामक द्वितीय प्रारक में भरतक्षेत्र का प्राकार-स्वरूप कैसा होगा? गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय होगा / (मुरज के तथा मृदंग के ऊपरी भाग-चर्मपुट जैसा समतल होगा, अनेक प्रकार की, पंचरंगी कृत्रिम एवं अकृत्रिम मणियों से उपशोभित होगा) उस समय मनुष्यों का आकार-प्रकार कैसा होगा? गौतम ! उन मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एवं संस्थान होंगे / उनकी ऊँचाई अनेक हाथसात हाथ की होगी। उनका जघन्य अन्तमुहूर्त का तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक-तेतीस वर्ष अधिक सौ वर्ष का आयुष्य होगा / प्रायुष्य को भोगकर उन में से कई नरक-गति में, (कई तिर्यञ्च-गति में, कई मनुष्य-गति में), कई देव-गति में जायेंगे, किन्तु सिद्ध नहीं होंगे। 1. देखें सूत्र संख्या 28 2. देखें सूत्र यही Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्यूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस प्रारक के इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर उत्सपिणीकाल का दुःषम-सुषमा नामक तृतीय प्रारक प्रारंभ होगा / उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय आदि क्रमशः परिवद्धित होते जायेंगे / भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र का प्राकार-स्वरूप कैसा होगा? गौतम ! उसका भूमिभाग बड़ा समतल एवं रमणीय होगा। (वह मुरज के अथवा मृदंग के ऊपरी भाग-चर्मपुट जैसा समतल होगा / वह नानाविध कृत्रिम, अकृत्रिम पंचरंगी मणियों से उपशोभित होगा। भगवन् ! उन मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा होगा? गौतम ! उन मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन तथा संस्थान होंगे। उनके शरीर की ऊँचाई अनेक धनुष-परिमाण होगी / जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट एक पूर्व कोटि तक का उनका आयुष्य होगा / आयुष्य का भोग कर उनमें से कई नरक-गति में. (कई तिर्यञ्च-गति में, कई मनुष्य-गति में, कई देव-गति में जायेंगे, कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होंगे,) समस्त दुःखों का अन्त करेंगे। उस काल में तीन वश उत्पन्न होंगे-१. तीर्थकर-वश, 2. चक्रवति-वश तथा 3. दशारवंश-वलदेव-वासुदेव-वंश / उस काल में तेवीस तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती तथा नौ वासुदेव उत्पन्न होंगे। आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस आरक का बयालीस हजार वर्ष कम एक सागरोपम कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाने पर उत्सर्पिणी-काल का सुषम-दुःषमा नामक चतुर्थ आरक प्रारंभ होगा। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय आदि अनन्तगुण परिवृद्धि क्रम से परिवद्धित होंगे। वह काल तीन भागों में विभक्त होगा-प्रथम तृतीय भाग, मध्यम तृतीय भाग तथा अन्तिम तृतीय भाग। भगवन् ! उस काल के प्रथम विभाग में भरतक्षेत्र का आकार-स्वरूप कैसा होगा? गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय हागा / अवसर्पिणी-काल के सुषमदुःषमा प्रारक के अन्तिम तृतीयांश में जैसे मनुष्य बताये गये हैं, वैसे ही इसमें होंगे। केवल इतना अन्तर होगा, इसमें कुलकर नहीं होंगे, भगवान् ऋषभ नहीं होंगे। इस संदर्भ में अन्य प्राचार्यों का कथन इस प्रकार हैउस काल के प्रथम विभाग में पन्द्रह कुलकर होंगे... 1. सुमति, 2. प्रतिश्रुति, 3. सीमकर, 4. सीमन्धर, 5. क्षेमकर, 6. क्षेमंधर, 7. विमलवाहन, 8. चक्षुष्मान्, 6. यशस्वान्, 10. अभिचन्द्र , 11. चन्द्राभ, 12. प्रसेनजित्, 13. मरुदेव, 14. नाभि, 15. ऋषभ / शेष उसी प्रकार है / दण्डनीतियां प्रतिलोम-विपरीत क्रम से होंगी, ऐसा समझना चाहिए / उस काल के प्रथम विभाग में राज-धर्म (गण-धर्म, पाखण्ड-धर्म, अग्नि-धर्म तथा) चारित्रधर्म विच्छिन्न हो जायेगा। इस काल के मध्यम तथा अन्तिम विभाग की वक्तव्यता अवसर्पिणी के प्रथम-मध्यम विभाग की ज्यों समझनी चाहिए / सुषमा और सुषम-सुषमा काल भी उसी जैसे हैं / छह प्रकार के मनुष्यों ग्रादि का वर्णन उसी के सदृश है / O Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार विनीता राजधानी 51. से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ–भरहे वासे भरहे वासे ? ___ गोयमा ! भरहे णं वासे वेअड्डस्स पव्वयस्स दाहिणणं चोद्दसुत्तरं जोअणसयं एक्कारस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स, अबाहाए लवणसमुद्दस्स उत्तरेणं चोद्दसुत्तरं जोअणसयं एक्कारस य एगणबीसइभाए जोअणस्स, अबाहाए गंगाए महाणईए पच्चस्थिमेणं, सिंधूए महाणईए पुरस्थिमेणं, दाहिणद्धभरहमज्झिल्लतिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं विणीआणामं रायहाणी पण्णत्ता-- पाईणपडोणायया, उदीणदाहिणवित्थिण्णा, दुवालसजोअणायामा, णवजोअणवित्थिण्णा, धणवइमतिणिभ्माया, चामीयरपागार-णाणामणि-पञ्चवण्णकविसीसग-परिमंडिआभिरामा, अलकापुरीसंकासा, पमुइयपक्कीलिया, पच्चक्खं देवलोगभूषा, रिद्धिस्थिमिअसमिद्धा, पमुइमजणजाणवया जाव' पडिरूवा। [51] भगवन् ! भरतक्षेत्र का भरतक्षेत्र' यह नाम किस कारण पड़ा? गौतम ! भरतक्षेत्र-स्थित वैताढ्य पर्वत के दक्षिण के 11411 योजन तथा लवणसमुद्र के उत्तर में 11410 योजन की दरी पर. गंगा महानदी के पश्चिम में और सिन्धु महानदी के पूर्व में दक्षिणार्ध भरत के मध्यवर्ती तीसरे भाग के ठीक बीच में विनीता नामक राजधानी है / __वह पूर्व-पश्चिम लम्बी एवं उत्तर-दक्षिण चौड़ी है। वह लम्बाई में बारह योजन तथा चौड़ाई में नौ योजन है / वह ऐसी है, मानो धनपति-कुबेर ने अपने बुद्धि-कौशल से उसकी रचना को हो / स्वर्णमय प्राकार—परकोटों, तद्गत विविध प्रकार के मणिमय पंचरंगे कपि-शीर्षकों-कंगूरोंभीतर से त्र-सेना को देखने आदि हेतु निर्मित वन्दर के मस्तक के प्राकार के छेदों से सशोभित एव रमणीय है / वह अलकापुरी-सदृश है। वह प्रमोद और प्रक्रीडामय है-वहाँ अनेक प्रकार के आनन्दोत्सव, खेल आदि चलते रहते हैं। मानो प्रत्यक्ष स्वर्ग का ही रूप हो, ऐसी लगती है। वह वैभव, सुरक्षा तथा समृद्धि से युक्त है / वहाँ के नागरिक एवं जनपद के अन्य भागों से आये हुए व्यक्ति आमोद-प्रमोद के प्रचुर साधन होने से बड़े प्रमुदित रहते हैं। वह प्रतिरूप—मन में बस जाने वालीअत्यधिक सुन्दर है। चक्रवर्ती भरत 52. तत्थ णं विणीपाए रायहाणीए भरहे णाम राया चाउरंतचक्कवट्टी समुप्पज्जित्था, महयाहिमवंत-महंतमलय-मंदर-(महिंदसारे, अच्चंत विसुद्धदोहरायकुलवंससुष्पसूए, णिरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे, बहुजणबहुमाणपूइए, सव्वगुणसमिद्ध, खत्तिए, मुइए, मुद्धाहिसित्ते, माउपिउसुजाए, 1. देखें सूत्र संख्या 12 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र दयपत्ते, सोमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, मस्सिदे, जणवयपिया, जणवयपाले, जणवयपुरोहिए, सेउकरे, केउकरे, परपवरे, पुरिसवरे, पुरिससोहे, पुरिसवग्धे, पुरिसासीविसे, पुरिसपुउरीए, पुरिसवरगंधहत्थी, अड्ड, दित्ते, वित्ते, वित्थिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे, बहुधणबहुजायरूवरयए, आओगपभोगसंपउत्ते, विच्छड्डियपउरभत्तपाणे, बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए, पडिपुण्णजंतकोसकोडागाराउधागारे, बलवं, दुब्बलपच्चामित्ते; पोहयकंटयं, निहयकंटयं, मलियकंटयं, उद्धियकंटयं, अकंटयं, अोहयसत्तु, निहयसत्तु, मलियसत्तुं, उद्धियसत्तु, निज्जियसत्तुं पराइयसत्तुं, ववगयदुभिक्खं, मारिभयविप्पमुक्क, खेमं, सिवं, सुभिक्खं, पसंतडिबडमरं) रज्जं पसासेमाणे विहरइ। बिइयो गमो रायवण्णगस्स इमो तत्थ असंखेज्जकालवासंतरेण उप्पज्जए जसंसी, उत्तमे, अभिजाए, सत्तबीरिय-परक्कमगुणे, पसत्थवण्णसरसारसंघयणतणुगबुद्धिधारणमेहासंठाणसीलप्पगई, पहाणगारवच्छायागइए, अणेगवयणप्पहाणे, तेयाउबलवोरियजुत्ते, अझसिरघणणिचियलोहसंकलणारायवइरउसहसंघयणदेहधारी झस 1. जुग 2. भिगार 3. बद्धमाणग 4. भद्दासण 5. संख 6. छत्त 7. वीयणि 8. पडाग 6. चक्क 10. णंगल 11. मूसल 12. रह 13. सोत्थिय 14. अंकुस 15. चंदाइच्च 16-17. अग्गि 18. जूय 16. सागर 20. इंदज्झय 21. पुहवि 22. पउम 23. कुञ्जर 24. सोहासण 25. दंड 26. कुम्म 27. गिरिवर 28. तुरगवर 26. वरमउड 30. कुडल 31. गंदावत्त 32. धणु 33. कोंत 34. गागर 35. भवणविमाण 36. अणेगलक्खणपसत्थसुविभत्तचित्तकरचरणदेसभाए, उड्ढामुहलोमजालसुकुमालणिद्धमउमावत्तपसत्थलोमविरइयसिरिवच्छच्छष्णविउलवच्छे, देसखेत्तसुविभत्तदेहधारी, तरुणरविरस्सिबोहियवरकमलविबुद्धगम्भवणे, हयपोसणकोससण्णिभपसत्थपिटुंतणिरुवलेवे, पउमुप्पलकुन्दजाइजुहियवरचंपगणागपुष्फसारंगतुल्लगंधी, छत्तीसाहियपसत्यपस्थिवगुहि जुत्ते, अन्बोच्छिण्णायवत्ते, पागडउभयजोणी, विसुद्धणियगकुलगयणपुण्णचंदे, चंदे इव सोमयाए गयणमणणिन्वुइकरे, अक्खोभे सागरो व थिमिए, धणवइव्व भोगसमुदयसद्दव्वयाए, समरे अपराइए, परमविक्कमगुणे, अमरवइसमाणसरिसरूवे, मणुयवई भरहचक्कवट्टी भरहं भुजइ पणटुसत्तू / [52] वहाँ विनीता राजधानी में भरत नामक चातुरंत चक्रवर्ती पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिणतीन ओर समुद्र एवं उत्तर में हिमवान्–यों चारों ओर विस्तृत विशाल राज्य का अधिपति राजा उत्पन्न हुअा। वह महाहिमवान् पर्वत के समान महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र (संज्ञक पर्वतों) के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए था। वह अत्यन्त विशुद्ध-दोष रहित, चिरकालीनप्राचीन वश में उत्पन्न हुआ था। उसके अंग पूर्णतः राजोचित लक्षणों से सुशोभित थे। वह बहुत लोगों द्वारा अति सम्मानित और पूजित था, सर्वगुण-समृद्ध–सब गुणों से शोभित क्षत्रिय था—जनता को आक्रमण तथा संकट से बचाने वाला था, वह सदा मुदित'-प्रसन्न रहता था। अपनी पैतृक 1. टीकाकार आचार्य श्री अभयदेवसरि ने 'मुदित' का एक दूसरा अर्थ निर्दोषमातृक भी किया है। उस सन्दर्भ में उन्होंने उल्लेख किया है--'मुइनो जो होइ जोणिसुद्धोत्ति।' -प्रौपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र 11 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार [9 परम्परा द्वारा, अनुशासनवर्ती अन्यान्य राजाओं द्वारा उसका मूर्धाभिषेक-राज्याभिषेक या राजतिलक हुआ था / वह उत्तम माता-पिता से उत्पन्न उत्तम पुत्र था। __ वह स्वभाव से करुणाशील था। वह मर्यादाओं की स्थापना करने वाला तथा उनका पालन करने वाला था / वह क्षेमंकर-सबके लिए अनुकूल स्थितियाँ उत्पन्न करने वाला तथा क्षेमंधर-उन्हें स्थिर बनाये रखने वाला था / वह परम ऐश्वर्य के कारण मनुष्यों में इन्द्र के समान था। वह अपने राष्ट्र के लिए पितृतुल्य, प्रतिपालक, हितकारक, कल्याणकारक, पथदर्शक तथा आदर्श-उपस्थापक था। वह नरप्रवर-वैभव, सेना, शक्ति आदि की अपेक्षा से मनुष्यों में श्रेष्ठ तथा पुरुषवर-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पुरुषार्थों में उद्यमशील पुरुषों में परमार्थ-चिन्तन के कारण श्रेष्ठ था। कठोरता व पराक्रम में वह सिंहतुल्य, रौद्रता में वाघ सदृश तथा अपने क्रोध को सफल बनाने के सामर्थ्य में सर्पतुल्य था। वह पुरुषों में उत्तम पुण्डरीक-सुखार्थी, सेवाशील जनों के लिए श्वेत कमल जैसा सुकुमार था। वह पुरुषों में गन्धहस्ती के समान था—अपने विरोधी राजा रूपी हाथियों का मान-भंजक था / वह समृद्ध, दृप्त-दर्प या प्रभावयुक्त तथा वित्त या वृत्त-सुप्रसिद्ध था / उसके यहाँ बड़े-बड़े विशाल भवन, सोने-बैठने के आसन तथा रथ, घोडे आदि सवारियाँ, वाहन बड़ी मात्रा में थे। उसके पास विपुल सम्पत्ति, सोना तथा चांदी थी। वह आयोग-प्रयोग—अर्थलाभ के उपायों का प्रयोक्ता था-धनवृद्धि के सन्दर्भ में वह अनेक प्रकार से प्रयत्नशील रहता था। उसके यहाँ भोजन कर लिये जाने के बाद बहुत खाद्य-सामग्री बच जाती थी (जो तदपेक्षी जनों में बांट दी जाती थी)। उसके यहाँ अनेक दासियाँ, दास, गायें, भैंसें तथा भेड़ें थीं। उसके यहाँ यन्त्र, कोष-खजाना, कोष्ठागार--अन्न आदि वस्तुओं का भण्डार तथा शस्त्रागार प्रतिपूर्ण-अति समृद्ध था / उसके पास प्रभूत सेना थी। वह ऐसे राज्य का शासन करता था जिसमें अपने राज्य के सीमावर्ती राजाओं या पड़ोसी राजाओं को शक्तिहीन बना दिया गया था। अपने सगोत्र प्रतिस्पद्धियों--प्रतिस्पर्धा व विरोध रखने वालों को विनष्ट कर दिया गया था, उनका धन छीन लिया गया था, उनका मानभंग कर दिया गया था तथा उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया था। यों उसका कोई भी सगोत्र विरोधी नहीं बचा था। अपने (गोत्रभिन्न) शत्रुओं को भी विनष्ट कर दिया गया था, उनकी सम्पत्ति छीन ली गई थी, उनका मानभंग कर दिया गया था और उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया था। अपने प्रभावातिशय से उन्हें जीत लिया गया था, पराजित कर दिया गया / इस प्रकार वह राजा भरत दुर्भिक्ष तथा महामारी के भय से रहित-निरुपद्रव, क्षेममय, कल्याणमय, सुभिक्षयुक्त एवं शत्रुकृत विघ्नरहित राज्य का शासन करता था। राजा के वर्णन का दूसरा गम (पाठ) इस प्रकार हैं: वहाँ (विनीता राजधानी में) असंख्यात वर्ष बाद भरत नामक चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ। वह यशस्वी, उत्तम-अभिजात कुलयुक्त, सत्त्व, वीर्य तथा पराक्रम आदि गुणों से शोभित, प्रशस्त वर्ण, स्वर, सुदृढ देह-संहनन, तीक्ष्ण बुद्धि, धारणा, मेधा, उत्तम शरीर-संस्थान, शील एवं प्रकृति युक्त, उत्कृष्ट गौरव, कान्ति एवं गतियुक्त, अनेकविध प्रभावकर वचन बोलने में निपुण, तेज, आयु-बल / वीर्ययुक्त, निश्छिद्र, सघन, लोह-शृखला की ज्यों सुदृढ वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन युक्त था। उसकी हथेलियों और पगलियों पर मत्स्य, युग, भृगार, वर्धमानक, भद्रासन, शंख, छत्र, चँवर, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पताका, चक्र, लांगल-हल, मूसल, रथ, स्वस्तिक, अंकुश, चन्द्र, सूर्य, अग्नि, यूप-यज्ञ-स्तंभ, समुद्र, इन्द्रध्वज, कमल, पृथ्वी, हाथी, सिंहासन, दण्ड, कच्छप, उत्तम पर्वत, उत्तम अश्व, श्रेष्ठ मुकुट, कुण्डल, नन्दावर्त, धनुष, कुन्त-भाला, गागर--नारी-परिधान-विशेष---घाघरा, भवन, विमान प्रभृति पृथक्-पृथक् स्पष्ट रूप में अंकित अनेक सामुद्रिक शुभ लक्षण विद्यमान थे। उसके विशाल वक्षःस्थल पर ऊर्ध्वमुखी, सुकोमल, स्निग्ध, मृदु एवं प्रशस्त केश थे, जिनसे सहज रूप में श्रीवत्स का चिह्न-आकार निर्मित था। देश एवं क्षेत्र के अनुरूप उसका सुगठित, सुन्दर शरीर था / बाल-सूर्य की किरणों से उद्बोधित-विकसित उत्तम कमल के मध्यभाग के वर्ण जैसा उसका वर्ण था। उसका पृष्ठान्त---गुदा भाग घोड़े के पृष्ठान्त की ज्यों निरुपलिप्त-मल-त्याग के समय पूरीष से अलिप्त रहर था / उसके शरीर से पद्म, उत्पल, चमेली, मालती, जूही, चंपक, केसर तथा कस्तूरी के सदृश सुगंध आती थी। वह छत्तीस से कहीं अधिक प्रशस्त-उत्तम राजगुणों से अथवा प्रशस्त-शुभ राजोचित लक्षणों से युक्त था / वह अखण्डित-छत्र—अविच्छिन्न प्रभुत्व का स्वामी था। उसके मातृवंश तथा पितृवंश—दोनों निर्मल थे। अपने विशुद्ध कूलरूपी आकाश में वह पूर्णिमा के चन्द्र जैसा था। वह चन्द्र-सदृश सौम्य था, मन और प्रांखों के लिए आनन्दप्रद था। वह समुद्र के समान निश्चल-गंभीर तथा सुस्थिर था। वह कुबेर की ज्यों भोगोपभोग में द्रव्य का समुचित, प्रचुर व्यय करता था। वह युद्ध में सदैव अपराजित, परम विक्रमशाली था, उसके शत्रु नष्ट हो गये थे। यों वह सुखपूर्वक भरत क्षेत्र के राज्य का भोग करता था। चक्ररत्न की उत्पत्ति : अर्चा : महोत्सव 53. तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ पाउहघरसालाए दिवे चक्करयणे समुप्पज्जित्था। तए णं से प्राउहधरिए भरहस्स रण्णो आउहधरसालाए दिवं चक्करयणं समुप्पण्णं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठचित्तमाणदिए, णदिए, पीइमणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्पमाणहियए जेणामेव दिन्वे चक्करयणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता करयल-(परिग्गहिप्रदसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि) कटु चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेत्ता प्राउहधरसालानो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणामेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणामेव भरहे राया, तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल-जाव'-जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवाणुप्पियाणं पाउहघरसालाए दिव्वे चक्करयणे समुप्पण्णे, तं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पियट्टयाए पियं णिवेएमि, पियं भे भयउ।" तए णं से भरहे राया तस्स पाउहधरियस्य अंतिए एयमट्ट सोच्चा णिसम्म हट्ठ-(तुट्ठचित्तमाणंदिए, शूदिए, पोइमणे, परम-) सोमणस्सिए, वियसियवरकमलणयणवयणे, पयलिनवरकडगतुडिअकेऊरमउडकुण्डलहारविरायंतरइअवच्छे, पालंबपलंबमाणघोलंतभूसणधरे, ससंभमं, तुरिअं, 1. देखें सूत्र यही Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] चवलं गरिदे सोहासणाश्रो अन्भुटुइ, अन्भुद्वित्ता पायपीढानो पच्चोरहह, पच्चोरुहिता पाउप्रायो अोमुअइ, प्रामुइत्ता एगसाडि उत्तरासंगं करेइ, करेत्ता अंजलिमउलिअग्गहत्थे चक्करयणाभिमुहे सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वामं जाणु अंचेइ, अचित्ता दाहिणं जाणु धरणितलंसि णिहट्ट करयल-जाव'-अंजलि कटु चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेत्ता तस्स पाउहरियस्स प्रहामालियं मउडवज्जं प्रोमोयं दलयइ, दलिइत्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयह, दलइत्ता सक्कारेइ, सम्माइ, सक्कारेत्ता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ, पडिविसज्जेत्ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे। [53] एक दिन राजा भरत की प्रायुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। प्रायुधशाला के अधिकारी ने राजा भरत की आयुधशाला में समुत्पन्न दिव्य चक्ररत्न को देखा / देखकर वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ, चित्त में प्रानन्द तथा प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ अत्यन्त सौम्य मानसिक भाव और हर्षातिरेक से विकसितहृदय हो उठा / जहाँ दिव्य चक्र-रत्न था, वहाँ आया, तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, हाथ जोड़ते हुए (उन्हें मस्तक के चारों ओर घुमाते हुए अंजलि बाँधे) चक्ररत्न को प्रणाम किया, प्रणाम कर प्रायुधशाला से निकला, निकलकर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला में राजा भरत था, आया / आकर उसने हाथ जोड़ते हुए राजा को 'आपकी जय हो, आपकी विजय हो'--इन शब्दों द्वारा वर्धापित किया / वर्धापित कर वह बोला-देवानुप्रिय कीआपकी आयुधशाला में दिव्य चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है, आपकी प्रियतार्थ यह प्रिय संवाद निवेदित करता हूँ। आपका प्रिय-शुभ हो। तब राजा भरत प्रायुधशाला के अधिकारी से यह सुनकर हर्षित हुश्रा, (परितुष्ट हुआ, मन में अानन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव किया,) अत्यन्त सौम्य मनोभाव तथा हर्षातिरेक से उसका हृदय खिल उठा / उसके श्रेष्ठ कमल जैसे नेत्र एवं मुख विकसित हो गये / उसके हाथों में पहने हुए उत्तम कटक, त्रुटित, केयूर, मस्तक पर धारण किया हुआ मुकुट, कानों के कुडल चंचल हो उठे-हिल उठे, हर्षातिरेकवश हिलते हुए हार से उसका वक्षःस्थल अत्यन्त शोभित प्रतीत होने लगा। उसके गले में लटकती हुई लम्बी पुष्पमालाएँ चंचल हो उठीं। राजा उत्कण्ठित होता हुआ बड़ी त्वरा से, शीघ्रता से सिंहासन से उठा, उठकर पादपीठ पर पैर रखकर नीचे उतरा, नीचे उतरकर पादुकाएँ उतारी, एक वस्त्र का उत्तरासंग किया, हाथों को अंजलिबद्ध किये हुए चक्ररत्न के सम्मुख सात-पाठ कदम चला, चलकर बायें घुटने को ऊँचा किया, ऊँचा कर दायें घुटने को भूमि पर टिकाया, हाथ जोड़ते हुए, उन्हें मस्तक के चारों ओर घुमाते हुए अंजलि बाँध चक्ररत्न को प्रणाम किया। वैसा कर आयुधशाला के अधिपति को अपने मुकुट के अतिरिक्त सारे आभूषण दान में दे दिये / उसे जीविकोपयोगी विपुल प्रीतिदान दिया-जीवन पर्यन्त उसके लिए भरण-पोषणानुरूप आजीविका की व्यवस्था बाँधी, उसका सत्कार किया, सम्मान किया। उसे सत्कृत, सम्मानित कर वहाँ से विदा किया। वैसा कर वह राजा पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर बैठा / 54. तए णं से भरहे राया कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासो-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! विणीयं रायहाणि सब्भितरबाहिरियं आसियसंमज्जियसित्तसुइगरत्यंतरवीहियं, मंचाइ 1. देखें सूत्र यही Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र मंचकलियं, गाणाविहरागवसणऊसियझयपड़ागाइपडागमंडियं, लाउल्लोइयमहियं, गोसीससरसरत्तचंदणकलसं, चंदणघडसुकय-(तोरणपडिदुवारदेसभायं, प्रासत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावं, पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुजोवयारकलियं, कालागुरुपवरकुदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंत-) गंधुद्ध याभिरामं, सुगंधवरगंधियं, गंधवट्टिभूयं करेह, कारवेह; करेत्ता, कारवेता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं ते कोडुम्बियपुरिसा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ट० करयल जाव' एवं सामित्ति प्राणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता भरहस्स अंतियानो पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता विणीयं रायहाणि (सभितरबाहिरियं प्रासियसमज्जियसित्तसुइगरत्यंतरवोहियं, मंचाइमंचकलियं, णाणाविहरागवसणऊसियझयपडागाइपडागमंडियं, लाउल्लोइयमहियं, गोसीससरसरत्तचंदणकलसं, चंदणघडसुकय जाव गंधुद्ध याभिरामं, सुगंधवरगंधियं, गंधवट्टिभूयं करेइ, कारवेइ,) करेता, कारवेत्ता य तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति। [54] तत्पश्चात् राजा भरत ने कौटुम्बिक पुरुषों को व्यवस्था से सम्बद्ध अधिकारियों को बुलाया, बुलाकर उन्हें कहा-देवानुप्रियो ! राजधानी विनीता नगरी की भीतर और बाहर से सफाई कराओ, उसे सम्माजित करायो, सुगंधित जल से उसे पासिक्त करायो-सुगंधित जल का छिड़काव करायो, नगरी की सड़कों और गलियों को स्वच्छ कराओ, वहाँ मंच, अतिमंच--विशिष्ट या उच्च मंच-मंचों पर मंच निर्मित कराकर उसे सज्जित कराओ, विविध रंगों में रंगे वस्त्रों से निर्मित ध्वजाओं, पताकाओं-छोटी छोटी झंडियों, अतिपताकाओं-बड़ी बड़ी झंडियों से उसे सुशोभित कराओ, भूमि पर गोबर का लेप कराओ, गोशीर्ष एव सरस-पार्द्र लाल चन्दन से सुरभित करो, उसके प्रत्येक द्वारभाग को चंदनकलशों-चंदनचित मंगलघटों और तोरणों से सजायो, नीचेऊपर बडी-बडी गोल तथा लम्बी पूष्पमालाएँ वहाँ लटकाओ, पांचों वर्ण के सरस, सुरभित फलों के गुलदस्तों से उसे सजायो, काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथा धूप की गमगमाती महक से वहाँ के वातावरण को रमणीय सुरभिमय बनाओ, जिससे) सुगंधित धुएं की प्रचुरता से वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले से बनते दिखाई दें। ऐसा कर आज्ञा पालने की सूचना करो। राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर व्यवस्थाधिकारी बहुत हर्षित एवं प्रसन्न हुए। उन्होंने हाथ जोड़कर 'स्वामी की जैसी आज्ञा' यों कहकर उसे-शिरोधार्य किया, शिरोधार्य कर राजा भरत के पास से रवाना हुए, रवाना होकर विनीता राजधानी को राजा के आदेश के अनुरूप सजाया, सजवाया और राजा के पास उपस्थित होकर उन्होंने आज्ञापालन की सूचना दी। 55. तए णं से भरहे राया जेणेव मज्जणघरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता समुत्तजालाकुलाभिरामे, विचित्तमणिरयणकुट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाणमंडवंसि णाणामणि-रयणभत्तिचित्तंसि पहाणपीढंसि, सुहणिसणे, सुहोदएहि, गंधोदएहि, पुप्फोदएहि, सुद्धोदएहि य पुण्णे कल्लाणगपवरमज्जणविहीए मज्जिए, तत्थ कोउयसएहि बहुविहेहि कल्लाणगपवरमज्जणावसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाइयलूहियंगे, सरससुरहिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते, 1. देखें सूत्र यही Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] अयसुमहग्घदूसरयणसुसंवुडे, सुइमालायण्णगविलेवणे, प्राविद्धमणिसुवण्णे कप्पियहारहारतिसरियपालंबपलबमाणकडिसुत्तमुकयसोहे, पिणद्धगेविज्जगअंगुलिज्जगललिअंगयललियकयाभरणे, णाणामणिकडगतुडियर्थभियभुए, अहियसस्सिरीए, कुण्डल उज्जोइयाणणे, मउडदित्तसिरए, हारोत्थयसुकयवच्छे, पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे, मुद्दियापिंगलंगुलीए, णाणामणिकणगविमलमहरिह-णिउणोयवियमिसिमिसिंत-विरइय-सुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्थ-श्राविद्धवीरबलए / कि वहुणा ? कप्परुक्खए चेव प्रलंकिअविभूसिए, रिदे सकोरंट-(मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं,) चउचामरवालवीइयंगे, मंगलजयजयसद्दकयालोए, अणेगगणणायगदंडणायग - (ईसरतलवरमाडंबिअकोडुबिअमंतिमहामंतिगणगदोवारिअप्रमच्चचेडपीढमद्दणगरणिगमसे ट्ठिसेणावइसत्यवाह-) दूयसंधिवालसद्धि संपरिघुडे, धवल-महामेहणिग्गए इव (गहगण-दिप्पंतरिक्ख-तारागणाण मज्झे) ससिध्ध पियदसणे, परवई धवपुष्फ-गंध-मल्ल-हत्थगए मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव पाउहघरसाला, जेणेव चक्करयणे, तेणामेव पहारेत्थ गमणाए। [55] तत्पश्चात् राजा भरत जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया / उस ओर आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। वह स्नानघर मुक्ताजालयुक्त-मोतियों की अनेकानेक लड़ियों से सजे हुए झरोखों के कारण बड़ा सुन्दर था। उसका प्रांगण विभिन्न मणियों तथा रत्नों से खचित था। उसमें रमणीय स्नान-मंडप था। स्नान-मंडप में अनेक प्रकार से चित्रात्मक रूप में जड़ी गई मणियों एवौं रत्नों से सुशोभित स्नान-पीठ था। राजा सुखपूर्वक उस पर बैठा / राजा ने शुभोदक-न अधिक उष्ण, न अधिक शीतले, सुखप्रद जल, गन्धोदक-चन्दन आदि सुगंधित पदार्थों से मिश्रित जल, पुष्पोदक-पुष्प मिश्रित जल एवं शुद्ध जल द्वारा परिपूर्ण, कल्याणकारी, उत्तम स्नानविधि से स्नान किया। स्नान के अनन्तर राजा ने दृष्टिदोष, नजर आदि के निवारण हेतु रक्षाबन्धन आदि के सैकड़ों विधि-विधान संपादित किये। तत्पश्चात रोएँदार, सकोमल काषायित हरीतकी आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हुए अथवा काषाय-लाल या गेरुए रंग के वस्त्र से शरीर पोंछा। सरस-रसमय–आर्द्र, सुगन्धित गोशीर्ष चन्दन का देह पर लेप किया। अहत-अदूषितचूहों आदि द्वारा नहीं कुतरे हुए बहुमूल्य दूष्यरत्न-उत्तम या प्रधान वस्त्र भली भाँति पहने / पवित्र माला धारण की। केसर आदि का विलेपन किया। मणियों से जड़े सोने के आभूषण पहने / हार--- अठारह लड़ों के हार, अर्धहार–नौ लड़ों के हार तथा तीन लड़ों के हार और लम्बे, लटकते कटि सूत्र-करधनी या कंदोरे से अपने को सुशोभित किया। गले के आभरण धारण किये। अंगुलियों में अंगूठियाँ पहनी / इस प्रकार सुन्दर अंगों को सुन्दर आभूषणों से विभूषित किया / नाना मणिमय कंकणों तथा ऋटितों-तोड़ों---भुजबंधों द्वारा भुजाओं को स्तम्भित किया-कसा / यों राजा की शोभा और अधिक बढ़ गई / कुडलों से मुख उद्योतित था-चमक रहा था / मुकुट से मस्तक दीप्तदेदीप्यमान था। हारों से ढका हुआ उसका वक्षःस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था। राजा ने एक लम्बे, लटकते हुए वस्त्र को उत्तरीय (दुपट्ट) के रूप में धारण किया। मुद्रिकानों सोने की अंगूठियों के कारण राजा की अंगुलियां पीली लग रही थीं। सुयोग्य शिल्पियों द्वारा नानाविध मणि, स्वर्ण, रत्न-- इनके योग से सुरचित विमल-उज्ज्वल, महार्ह-बड़े लोगों द्वारा धारण करने योग्य, सुश्लिष्टसुन्दर जोड़ युक्त, विशिष्ट–उत्कृष्ट, प्रशस्त-प्रशंसनीय प्राकृतियुक्त सुन्दर वीरवलय-विजय कंकण Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94] जिम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र धारण किया। अधिक क्या कहें, इस प्रकार अलंकृत--अलंकारयुक्त, विभूषित वेशभूषा से विशिष्ट सज्जायुक्त राजा ऐसा लगता था, मानो कल्पवृक्ष हो। अपने ऊपर लगाये गये कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र, दोनों ओर डुलाये जाते चार चँवर, देखते ही लोगों द्वारा किये गये मंगलमय जय शब्द के साथ राजा स्नान-गृह से बाहर निकला। स्नानघर से बाहर निकलकर अनेक गणनायकजनसमुदाय के प्रतिनिधि, दण्डनायक--आरक्षि-अधिकारी, राजा-माण्डलिक नरपति, (ईश्वरऐश्वर्यशाली या प्रभावशील पुरुष, तलवर-राज-सम्मानित विशिष्ट नागरिक, माडंबिकजागीरदार, भूस्वामी, कौटुम्बिक-बड़े परिवारों के प्रमुख, मंत्री, महामंत्री-मंत्रीमण्डल के प्रधान, गणक--- गणितज्ञ या भाण्डागारिक, दौवारिक-प्रहरी, अमात्य-मंत्रणा आदि विशिष्ट कार्य-सम्बद्ध उच्च राजपुरुष, चेट--चरणसेवी दास, पीठमर्द-राजसभा में राजा के निकट रहते हए विशिष्ट सेवारत वयस्य, नगर-नागरिकवृन्द, निगम--- नगर के वणिक-प्रावासों के बड़े सेठ, सेनापति तथा सार्थवाहअनेक छोटे व्यापारियों को साथ लिए देशान्तर में व्यापार-व्यवसाय करने वाले), दूत संदेशवाहक, संधिपाल-राज्य के सीमान्त-प्रदेशों के अधिकारी-इन सबसे घिरा हुआ राजा धवल महामेघ--श्वेत, विशाल बादल से निकले, ग्रहगण से देदीप्यमान आकाशस्थित तारागण के मध्यवर्ती चन्द्र के सदृश देखने में बड़ा प्रिय लगता था। वह हाथ में धूप, पुष्प, गन्ध, माला-पूजोपकरण लिए हुए स्नानघर से निकला, निकलकर जहाँ प्रायुधशाला थी, जहाँ चक्ररत्न था, वहाँ के लिए चला। 56 तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बहवे ईसरपभिइयो अप्पेगइना पउमहत्थगया, अप्पेगइया उप्पलहत्थगया, (अप्पेगइया कुमुअहत्थगया, अप्पेगइया नलिणहत्थगया, अप्पेगइमा सोगन्धिअहत्थगया, अप्पेगइया पुंडरीयहत्थगया, अप्पेगइमा सहस्सपत्तहत्थगया,) अप्पेगइमा सयसहस्सपत्तहत्थगया भरहं रायाणं पिट्ठो पिट्ठओ अणुगच्छंति / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बहूईप्रो(गहायो) खुज्जा चिलाइ वामणि वडभीओ बरबरी बउसिपात्रो / जोणिय-पह लवियानो इसिणिय-थारुकिणियानो // 1 // लासिय-लउसिय-दमिली सिंहलि तह प्रारबी पुलिंदी य। पक्कणि बहलि मुरुडी सबरोश्रो पारसीनो य // 2 // अध्पेगइया बंदणकलसहत्थगआयो, भिंगारआदंसथालपातिसुपइट्ठगवायकरगरयणकरंडपुष्फचंगेरीमल्लवण्णचुण्णगंधहत्थगनायो, वत्थआभरणलोमहत्थयचंगेरीपुप्फपडलहत्थगआनो जाव लोमहत्थगाओ, अप्पेगइयाओ सीहासणहत्थगानो, छत्तचामरहत्थगआनो, तिल्लसमुग्गयहत्थगआयो, (गाहा) तेल्ले-कोट्टसमुग्गे, पत्ते चोए अ तगरमेला य / हरिश्माले हिंगुलए, मणोसिला सासवसमुग्गे // 1 // अप्पेगइमाओ तालिअंटहत्थगयाओ, अप्पेगइयाओ धूवकडुच्छुअहत्थगयाओ भरहं रायाणं पिट्टो पिट्ठओ अणुगच्छंति / . तए णं से भरहे राया सव्विड्डीए, सव्वजुईए, सव्वबलेणं, सव्वसमुदयेणं, सव्वायरेणं, सन्धविभूसाए, सव्वविभूईए, सधवत्थपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए, सन्वतुडिअसहसणिणाएणं, महया इड्डीए, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार [95 (महया जुईए, महया बलेणं, महया समुदयेणं, महया आयरेणं, महया विभूसाए, महया विभूईए महया वत्थ-पुप्फ-गंध-मल्लालंकारविभूसाए, महया तुडिअसहसणिणाएणं,) महया वरतुडियजमगसमगपवाइएणं संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिमुरयमुइंगदुदुहिणिग्घोसणाइएणं जेणेव पाउहघरसाला, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आलोए चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेत्ता जेणेव चक्करयणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थयं परामुसइ, परामुसित्ता चक्करयणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिवाए उदगधाराए अन्भुक्खेइ, अन्भुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिपइ, अणुलिपित्ता अग्गेहि, बरेहि, गंधेहि, मल्लेहि अ अच्चिणइ, पुष्फारहणं, मल्ल-गंध-वण्ण-चुण्ण वत्थारुहणं, आभरणारुहणं करेइ, करेत्ता अच्छेहि, सण्हेहि, सेएहि, रययामरहिं, अच्छरसातंडुलेहिं चक्करयणस्स पुरनो अट्ठमंगलए प्रालिहइ, तंजहा-सोत्थिय 1. सिरिवच्छ 2. दिपावत्त 3. बद्धमाणग 4. भद्दासण 5. मच्छ 6. कलस 7. दप्पण 8. अट्टमंगलए आलिहित्ता काऊणं करेइ उवयारंति, कि ते पाडलमल्लिअचंपगअसोगपुण्णागचूप्रमंजरोणवमालिअबकुलतिलगकणवीरकुदकोज्जयकोरंटयपत्तदमणयवरसुरहिसुगंध - गंधिप्रस्स, कयग्गहगहि-करयलपब्भविष्पमुक्कस्स, दसद्धवण्णस्स, कुसुमणिगरस्स तत्थ चित्तं जाणुस्सेहप्पमाणमित्तं ओहिनिगरं करेता चंदप्पभवहरवेरुलिनविमलदंडं, कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं, कालागुरुपवरकुदुरुक्कतुरुक्कधूवगंधुत्तमाणुविद्ध च धूमट्टि विणिम्मुअंतं, वेरुलिअमयं कडच्छुअं पग्गहेत्तु पयते, धूवं दहइ, दहेत्ता सत्तटुपयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्केत्ता वामं जाणु अंचेइ, (दाहिणं जाणुधरणिअलंसि निहट्ट करयलपरिग्गहिनं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु) पणामं करेइ, करेत्ता आउहघरसालानो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमेत्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव सीहासणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसीयइ, सण्णिसित्ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीनो सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! उस्सुक्क, उक्कर, उक्किट्ठ, अदिज्ज, अमिज्जं, अभडप्पवेसं, अदंडकोदंडिम, अधरिम, गणिनावरणाडइज्जकलियं, अणेगतालायराणुचरियं, अणुद्धअमुइंगं, अमिलाय-मल्लदामं, पमुइय-पक्कीलियसपुरजणजाणवयं विजयवेजइयं चक्करयणस्स अट्टाहि महामहिमं करेह, करेत्ता ममेयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह। तए णं ताओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रना एवं वुत्ताश्रो समाणोनो हट्ठालो जाव' विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता भरहस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिषखति, पडिणिवखमित्ता उस्सुक्कं, उक्कर, (उक्किट्ठ, अदिज्जं, अमिज्जं, अभडप्पवेसं, अदंडकोदंडिम, अधरिम, गणिआवरणाडइज्जकलियं, अणेगतालायराणुचरियं, अणुद्धयमुइंगं, अमिलायमल्लदामं, पमुइय-पक्कोलियसपुरजणजाणवयं विजयवेजइयं चक्करयणस्स अट्टाहियं महामहिम) करेंति य कारवेंति य, करेत्ता कारवेत्ता य जेणेव भरहे राया, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जाय तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / 1. देखें सूत्र यही Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र [56] राजा भरत के पीछे-पीछे बहुत से ऐश्वर्यशाली विशिष्ट जन चल रहे थे। उनमें से किन्हीं-किन्हीं के हाथों में पद्म, (कुमुद, नलिन, सौगन्धिक, पुंडरीक, सहस्रपत्र-हजार पंखुड़ियों वाले कमल तथा) शतसहस्रपत्र कमल थे। राजा भरत की बहुत सी दासियां भी साथ थीं। उनमें से अनेक कुबड़ी थीं, अनेक किरात देश की थीं, अनेक बौनी थीं, अनेक ऐसी थीं, जिनकी कमर झकी थी, अनेक बर्बर देश की, बकुश देश की, यूनान देश की, पह्लव देश की, इसिन देश की, थारुकिनिक देश की, लासक देश की, लकुश देश की, सिंहल देश की, द्रविड़ देश की, अरब देश की, पुलिन्द देश की, पक्कण देश की, बहल देश की, मुरुड देश की, शबर देश की, पारस देश की-यों विभिन्न देशों की थीं। ___ उनमें से किन्हीं-किन्हीं के हाथों में मंगलकलश, भृगार-झारियाँ, दर्पण, थाल, रकाबी जैसे छोटे पात्र, सुप्रतिष्ठक, वातकरक-करवे, रत्नकरंडक-रत्न-मंजूषा, फूलों की डलिया, माला, वर्ण, चूर्ण, गन्ध, वस्त्र, आभूषण, मोर-पंखों से बनी फूलों के गुलदस्तों से भरी डलिया, मयूरपिच्छ, सिंहासन, छत्र, चँवर तथा तिलसमुद्गक-तिल के भाजन-विशेष-डिब्बे जैसे पात्र आदि भिन्न-भिन्न वस्तुएँ थीं। इनके अतिरिक्त कतिपय दासियाँ तेल-समुद्गक, कोष्ठ-समुद्गक, पत्र-समुद्गक, चोय (सुगन्धित द्रव्य-विशेष)-समुद्गक, तगर-समुद्गक, हरिताल-समुद्गक, हिंगुल-समुद्गक, मैनसिल-समुद्गक तथा सर्षप (सरसों)-समुद्गक लिये थीं। कतिपय दासियों के हाथों में तालपत्र-पंखे, धूपकडच्छुकधूपदान थे। यों वह राजा भरत सब प्रकार की ऋद्धि, द्युति, बल, समुदय, आदर, विभूषा, वैभव, वस्त्र, पुष्प, गन्ध, अलंकार-इस सबकी शोभा से युक्त (महती ऋद्धि, द्युति, बल, समुदय, आदर, विभूषा, वैभव, वस्त्र, पुष्प, गन्ध, अलंकार सहित) कलापूर्ण शैली में एक साथ बजाये गये शंख, प्रणव, पटह, भेरी, झालर, खरमखी, मरज, मृदंग, दन्दभि के निनाद के साथ जहाँ पायधशाला थी, वहाँ आया। आकर चक्ररत्न की ओर देखते ही, प्रणाम किया, प्रणाम कर जहाँ चक्ररत्न था, वहाँ आया, आकर मयुरपिच्छ द्वारा चक्ररत्न को झाड़ा-पोंछा, झाड़-पोंछकर दिव्य जल-धारा द्वारा उसका सिंचन किया—प्रक्षालन किया, सिंचन कर सरस गोशीर्ष-चन्दन से अनुलेपन किया, अनुलेपन कर अभिनव, उत्तम सुगन्धित द्रव्यों और मालाओं से उसकी अर्चा की, पुष्प चढ़ाये, माला, गन्ध, वर्णक एवं वस्त्र चढ़ाये, आभूषण चढ़ाये। वैसा कर चक्ररत्न के सामने उजले, स्निग्ध, श्वेत, रत्नमय अक्षत चावलों से स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्दावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, मत्स्य, कलश, दर्पण-इन अष्ट मंगलों का पालेखन किया / गुलाब, मल्लिका, चंपक, अशोक, पुन्नाग, आम्रमंजरी, नवमल्लिका, बकुल, तिलक, कणवीर, कुन्द, कुब्जक, कोरटक, पत्र, दमनक-ये सुराभित सगन्धित पूष्प राजा ने हाथ में लिये, चक्ररत्न के आगे चढ़ाये, इतने चढ़ाये कि उन पंचरंगे फूलों का चक्ररत्न के आगे जानुप्रमाण-घुटने तक ऊँचा ढेर लग गया। तदनन्तर राजा ने धूपदान हाथ में लिया जो चन्द्रकान्त, वन-हीरा, वैडूर्य रत्नमय दंडयुक्त, विविध चित्रांकन के रूप में संयोजित स्वर्ण, मणि एवं रत्नयुक्त, काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथाधूप की गमगमाती महक से शोभित, वैडूर्य मणि से निर्मित था आदरपूर्वक धूप जलाया, धूप जलाकर Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] सात-पाठ कदम पीछे हटा, बायें घुटने को ऊँचा किया, वैसा कर (दाहिने घुटने को भूमि पर टिकाया, हाथ जोड़ते हुए, उन्हें मस्तक के चारों ओर घुमाते हुए, अंजलि बांधे, चक्ररत्न को प्रणाम किया / प्रणाम कर पायधशाला से निकला, निकलकर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला--सभाभवन था, जहाँ सिंहासन था, वहाँ अाया, पाकर पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर विधिवत् बैठा / बैठकर अठारह श्रेणिप्रश्रेणि-सभी जाति-उपजाति के प्रजाजनों को बुलाया, बुलाकर उन्हें इस प्रकार कहा देवानुप्रियो ! चक्ररत्न के उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में तुम सब महान् विजय का संसूचक अष्ट दिवसीय महोत्सव प्रायोजित करो। (मैं उद्घोषित करता हूँ) 'इन दिनों राज्य में कोई भी क्रय-विक्रय आदि सम्बन्धी शुल्क, सम्पत्ति आदि पर प्रतिवर्ष लिया जाने वाला राज्य-कर नहीं लिया जायेगा। लभ्य-ग्रहण में किसी से यदि कुछ लेना है, उसमें खिचाव न किया जाए, जोर न दिया जाए, पादान-प्रदान का, नाप-जोख का क्रम बन्द रहे, राज्य के कर्मचारी, अधिकारी किसी के घर में प्रवेश न करें, दण्ड–यथापराध राजग्राह्य द्रव्य–जुर्माना, कुदण्ड–बड़े अपराध के लिए दंड रूप में लिया जाने वाला अल्प द्रव्य-थोड़ा जुर्माना-ये दोनों ही नहीं लिये जायेंगे / ऋण के सन्दर्भ में कोई विवाद न हो—राजकोष से धन लेकर ऋणी का ऋण चुका दिया जाए-ऋणी को ऋण-मुक्त कर दिया जाए। नृत्यांगनाओं के तालवाद्य-समन्वित नाटक, नृत्य आदि आयोजित कर समारोह को सुन्दर बनाया जाए, यथाविधि समुद्भावित मृदंग-निनाद से महोत्सव को गुंजा दिया जाए। नगरसज्जा में लगाई गई या पहनी गई मालाएँ कुम्हलाई हुई न हों, ताजे फूलों से बनी हों / यों प्रत्येक नगरवासी और जनपदवासी प्रमुदित हो पाठ दिन तक महोत्सव मनाएँ। मेरे आदेशानुरूप यह सब संपादित कर लिये जाने के बाद मुझे शीघ्र सूचित करें।' राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि के प्रजा-जन हर्षित हुए, विनयपूर्वक राजा का वचन शिरोधार्य किया। वैसा कर राजा भरत के पास से रवाना हुए, रवाना होकर उन्होंने राजा की आज्ञानुसार अष्ट दिवसीय महोत्सव की व्यवस्था की, करवाई। वैसा कर जहाँ राजा भरत था, वहाँ वापस लौटे, वापस लौटकर उन्हें निवेदित किया कि आपकी आज्ञानुसार सब व्यवस्था की जा चुकी है। भरत का मागध तीर्थाभिमुख प्रयाण 57. तए णं से दिवे चक्करयणे प्रवाहिश्राए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए पाउहघरसालानो पडिणिक्खमइ 2 तर अंतलिक्खपडिवण्णे, जक्खसहस्स-संपरिबुडे, दिव्वतुडिअसहसण्णिणाएणं आपरेते चेव अंबरतलं विणीआए रायहाणीए मज्झमझेणं णिग्गच्छइ 2 ता गंगाए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरथिमं दिसि मागहतित्थाभिमुहे पयाते यावि होत्था। ___ तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं गंगाए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरथिमं दिसि मागहतित्थाभिमुहं पयातं पासइ 2 ता हट्ठतुट्ठ-(चित्तमाणदिए, णदिए, पीइमणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्यमाण-) हियए कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! भाभिसेक्कं हस्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगयरहपवरजोहकलिनं Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र चाउरंगिणि सेण्णं सण्णाहेह, एत्तमाणत्तिअं पच्चप्पिणह / तए णं ते कोडुबिअ-(पुरिसे तमाणत्तियं) पच्चप्पिणंति / तए णं से भरहे राया जेणेव मज्जणघरे, तेणेव उवागच्छइ 2 ता मज्जणघरं अणुपविसइ 2 त्ता समुत्तजालाभिरामे, तहेव विचित्तमणिरयणकुट्टिमतले, रमणिज्जे हाणमंडवंसि, णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि पहाणपोढंसि सुहणिसण्णे सुहोदहि, गंधोदहि पुप्फोदहि, सुद्धोदएहि य पुण्णे कल्लाणगपवर-मज्जणविहीए मज्जिए। तत्थ कोउयसहि बहुविहेहि कल्लाणगपवरमज्जणावसाणे, पम्हल-सुकुमाल-गंधकासाइय-लूहियंगे, सरससुरहिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते, अयसुमहाघदूसरयणसुसंवुडे, सुइमालावण्णगविलेवणे, प्राविद्धमणि-सुवष्णे, कप्पियहारद्धहारतिसरिय-पालंबपलंबमाणकडिसुत्त-सुकयसोहे, पिणद्ध-गेविज्जग-अंगुलिज्जगललिअंगयललियकयाभरणे, गाणामणिकडगतुडियर्थभियभुए, अहियसस्सिरीए, कुण्डल-उज्जोइयाणणे, मउडदित्तसिरए, हारोत्थयसुकयवच्छे, पालंबपलंबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे, मुद्दियापिंगलंगुलीए, णाणामणिकणगविमलमहरिहणिउणोयवियमिसिमिसितविरइयसुसिलिटुधिसिद्ध-लट्ठसंठियपसत्थआविद्धवीरबलए / कि बहुणाकप्परक्खए चेव अलंकिन-विभूसिए रिदे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चउ-चामरवालवीइयंगे, मंगलजयजयसद्दकयालोए, अणेग-गणणायग-दंडणायग-दूय-संधिवालसद्धि संपरिवुडे,) धवलमहामेहणिग्गए इव ससिव्व पियदसणे गरवई मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता हयगयरहपवरवाहणभडचडगरपहकर-संकुलाए सेणाए पहिअकित्ती जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव आभिसेक्के हथिरयणे, तेणेव उवागच्छइ 2 ता अंजणगिरिक डगसग्णिभं गयवई परवई दूरूढे / तए णं से भरहाहिवे परदे हारोत्थए सुकयरइयवच्छे, कुडलउज्जोइआणणे, मउडदित्तसिरए, परसोहे, गरवई, ारदे, परवसहे, मरनरायवसभकप्पे अभहिरायतेअलच्छीए दिप्पमाणे, पसस्थमंगलसएहि संथुव्वमाणे, जयसद्दफयालोए, हत्थिखंधवरगए, सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं, सेप्रवरचामरहिं उद्धव-माणोहिं 2 जक्खसहस्ससंपरिबुडे वेसमणे चेव धणवई, अमरवइसण्णिभाइ इड्डीए पहिअकित्ती, गंगाए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुह-पट्टणासमसंबाहसहस्समंडियं, थिमिअमेइणीनं वसुहं अभिजिणमाणे 2 अग्गाई, वराई रयणाई पडिच्छमाणे 2 तं दिध्वं चक्करयणं अणुगच्छमाणे 2 जोअणंतरिआहि वसहीहि वसमाणे 2 जेणेव मागहतित्थे, तेणेव उवागच्छइ 2 सा मागहतित्थस्स अदूरसामंते दुवालसजोयणायाम, णवजोअणवित्थिण्णं, वरणगरसरिच्छं, विजय-खंधावारनिवेसं करेइ 2 ता बड्डइरयणं सद्दावेइ, सहावइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! ममं आवासं पोसहसालं च करेहि, करेत्ता ममेअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि / तए णं से बड्डइरयणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठचित्तमाणदिए, पीइमणे जाव' अंजलि कटु एवं सामी ! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ 2 ता भरहस्स रण्णो श्रावसह पोसहसालं च करेइ 2 ता एप्रमाणत्तिअं खिप्पामेव पच्चप्पिणंति / 1. देखें सूत्र 44 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बक्षस्कार] .. तए णं से भरहे राया प्राभिसेक्कामो हत्थिरयणाप्रो पच्चोरुहइ 2 ता जेणेव पोसहसाला, तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता पोसहसालं अणुपविसइ 2 त्ता पोसहसालं पमज्जइ २त्ता दम्भसंथारगं संथरइ 2 ता दब्भसंथारगं दुरूहइ 2 ता मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिव्हइ 2 त्ता पोसहसालाए पोसहिए, बंभयारी, उम्मुक्कमणिसुवण्णे, ववगयमालावण्णगविलेवणे, णिक्सित्तसत्थमुसले, दम्भसंथारोवगए, एगे, अबीए अट्टमभत्तं पडिजागरमाणे 2 विहरह। तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला, तेणेव उवागच्छइ 2 ता कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ 2 ता एवं वयासो--- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! हयगयरहपवरजोहकलिअं चाउरंगिण सेणं सण्णाहेह, चाउग्धंटे आसरहं पडिकप्पेहत्ति कटु मज्जणधरं अणुपविसइ 2 ता समुत्त तहेव जाव' धवलमहामेहणिग्गए इव ससिव्व पियदंसणे णरवई मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता हयगयरहपवरवाहण (भडचडगरपहकरसंकुलाए) सेणाए पहिअकित्ती जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे, तेणेब उवागच्छइ 2 त्ता चाउग्घंटे आसरहं दुरूढे / [57] अष्ट दिवसीय महोत्सव के संपन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न प्रायुधगृहशालाशस्त्रागार से निकला / निकलकर आकाश में प्रतिपन्न–अधर स्थित हुआ। वह एक सहस्र यक्षों से '.-घिरा था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि एवं निनाद से आकाश व्याप्त था। वह चक्ररत्न विनीता राजधानी के बीच से निकला। निकलकर गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे से होता हुआ पूर्व दिशा में मागध तीर्थ की ओर चला / राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होते हुए पूर्व दिशा में मागध तीर्थ की ओर बढ़ते हुए देखा, वह हर्षित व परितुष्ट हुआ, (चित्त में आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित हृदय हो उठा।) उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर उनसे कहा-देवानुप्रियो ! ग्राभिषेक्य-अभिषेकयोग्य--प्रधानपद पर अधिष्ठित, राजा की सवारी में प्रयोजनीय हस्तिरत्न-उत्तम हाथी-को शीघ्र ही सुसज्ज करो / घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं--पदातियों से परिगठित चतुरंगिणी सेना को तैयार करो / यथावत् प्राज्ञापालन कर मुझे सूचित करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा के आदेश के अनुरूप सब किया और राजा को अवगत कराया। तत्पश्चात् राजा भरत जहाँ स्नानघर था, वहाँ पाया। उस ओर आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुअा / वह स्नानघर मुक्ताजाल युक्त-मोतियों की अनेकानेक लड़ियों से सजे हुए झरोखों के कारण बड़ा सुन्दर था / (उसका प्रांगण विभिन्न मणियों तथा रत्नों से खचित था / उसमें रमणीय स्नानमंडप था। स्नानमंडप में अनेक प्रकार की चित्रात्मक रूप से जड़ी गई मणियों एवं रत्नों से सुशोभित स्नानपीठ था। राजा सुखपूर्वक उस पर बैठा। राजा ने शुभोदक---न अधिक उष्ण तथा न अधिक 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से प्रत्येक रत्ल एक-एक सहस्र देवों द्वारा अधिष्ठित होता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10.] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र शीतल, सुखप्रद जल, गन्धोदक-चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों से मिश्रित जल, पुष्पोदक-पुष्पमिश्रित जल एवं शुद्ध जल द्वारा परिपूर्ण, कल्याणकारी, उत्तम स्नानविधि से स्नान किया / स्नान के अनन्तर राजा ने दृष्टिदोष, नजर आदि के निवारण हेतु रक्षाबन्धन आदि के सैकड़ों विधि-विधान संपादित किये / तत्पश्चात् रोएँदार, सुकोमल, काषायित - हरीतकी, विभीतक, आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हुए अंथवा काषाय-लाल या गेरुए रंग के वस्त्र से शरीर को पोंछा। सरस-रसमय–आर्द्र, सुगन्धित गोशीर्ष चन्दन का देह पर लेप किया। अहत-अदूषित-चूहों आदि द्वारा नहीं कुतरे हुए, बहुमूल्य, दूष्यरत्न-उत्तम या प्रधान वस्त्र भलीभांति पहने / पवित्र माला धारण की / केसर आदि का विलेपन किया / मणियों से जड़े सोने के आभूषण पहने / हार-अठारह लडों के हार, अर्धहार-नौ लड़ों के हार तथा तीन लडों के हार और लम्बे, लटक टकते कटिसूत्र--- करधनी या कंदोरे से अपने को सुशोभित किया / गले के आभरण धारण किए। अंगुलियों में अंगूठियाँ पहनीं / इस प्रकार अपने सुन्दर अंगों को सुन्दर प्राभूषणों से विभूषित किया। नाना मणिमय कंकणों तथा त्रुटितों-तोड़ों-भुजबंधों द्वारा भुजाओं को स्तम्भित किया-कसा / यों राजा की शोभा और अधिक बढ़ गई / कुडलों से राजा का मुख उद्योतित था--चमक रहा था। मुकुट से मस्तक दीप्त--- देदीप्यमान था / हारों से ढका उसका वक्षःस्थल सुन्दर प्रतीत हो रहा था। राजा ने एक लम्बे, लटकते हुए वस्त्र को उत्तरीय (दुपट्टे) के रूप में धारण किया। मुद्रिकाओं-सोने की अंगठियों के कारण राजा की अंगुलियाँ पीली लग रही थीं। सुयोग्य शिल्पियों द्वारा नानाविध मणि, स्वर्ण, रत्न, इनके योग से सुरचित विमल-उज्ज्वल, महार्ह-बड़े लोगों द्वारा धारण करने योग्य, सुश्लिष्टसुन्दर जोड़ युक्त, विशिष्ट-उत्कृष्ट, प्रशस्त-प्रशंसनीय आकृतियुक्त सुन्दर वीरवलय-विजय, कंकण धारण किया। अधिक क्या कहें, इस प्रकार अलंकृत, विभूषित–वेशभूषा से विशिष्ट सज्जायुक्त राजा ऐसा लगता था, मानो कल्पवक्ष हो / अपने ऊपर लगाये गये कोरंट पुष्पों की मालाओं से यक्त छत्र, दोनों ओर डुलाये जाते चार चँवर, देखते ही लोगों द्वारा किये गये मंगलमय जय शब्द के साथ अनेक गणनायक-जन-समुदाय के प्रतिनिधि, दण्डनायक-आरक्षि-अधिकारी, दूत-संदेशवादक, संधिपालराज्य के सीमान्त-प्रदेशों के अधिकारी-इन सबसे घिरा हुआ, धवल महामेघ---श्वेत, विशाल बादल से निकले चन्द्र की ज्यों प्रियदर्शन देखने में प्रिय लगने वाला वह राजा स्नानघर से निकला।) स्नानघर से निकलकर घोड़े, हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा योद्धाओं के विस्तार से यक्त सेना से सशोभित वह राजा जहाँ बाह्य उपस्थानशाला-बाहरी सभाभवन था, हस्तिरत्न था, वहाँ आया और अंजनगिरि के शिखर के समान विशाल गजपति पर आरूढ हुआ। भरताधिप-भरतक्षेत्र के अधिपति नरेन्द्र राजा भरत का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था। उसका मुख कुडलों से उद्योतित-द्युतिमय था / मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था / नरसिंह-मनुष्यों में सिंहसदृश शौर्यशाली, नरपति—मनुष्यों के स्वामी—परिपालक, नरेन्द्र मनुष्यों के इन्द्र–परम ऐश्वर्यशाली अभिनायक, नरवृषभ मनुष्यों में वृषभ के समान स्वीकृत कार्यभार के निर्वाहक, मरुद्राजवषभकल्प- व्यन्तर आदि देवों के राजाओं इन्द्रों के मध्य वषभ-- मुख्य सौधमेन्द्र के सदृश, राजोचित तेजस्वितारूप लक्ष्मी से अत्यन्त दीप्तिमय, वंदिजनों द्वारा सैकड़ों मंगलसूचक शब्दों से संस्तुत, जयनाद से सुशोभित, गजारूढ राजा' भरत सहस्रों यक्षों से संपरिवृत 1. चक्रवर्ती का शरीर दो हजार व्यन्तर देवों से अधिष्ठित होता है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [101 धनपति यक्षराज कुबेर सदृश लगता था / देवराज इन्द्र के तुल्य उसकी समृद्धि थी, जिससे उसका यश सर्वत्र विश्रुत था / कोरंट के पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था। श्रेष्ठ, श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे। राजा भरत गंगा महानदी के दक्षिणी तट से होता हुआ सहस्रों ग्राम, प्राकर, नगर, खेट, कर्वट, मडंब, द्रोणमुख, पट्टन, पाश्रम तथा संवाध—इनसे सुशोभित, प्रजाजनयुक्त पृथ्वी को वहाँ के शासकों को जीतता हुआ, उत्कृष्ट, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में ग्रहण करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुया-पीछे-पीछे चलता हुआ, एक-एक योजन पर अपने पड़ाव डालता हुआ जहाँ मागध तीर्थ था, वहाँ आया। आकर मागध तीर्थ के न अधिक दूर, न अधिक समीप, बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा उत्तम नगर जैसा विजय स्कन्धावार--सैन्य-शिविर लगाया। फिर राजा ने वर्धकिरन चक्रवर्ती के चौदह रत्नों-विशेषातिशयित साधनों में से एक अति श्रेष्ठ सूत्रधार-- शिल्पकार को बुलाया। बुलाकर कहा–देवानुप्रिय ! शीघ्र ही मेरे लिए आवास-स्थान एवं पोषधशाला का निर्माण करो, प्राज्ञापालन कर मुझे सूचित करो। राजा द्वारा यों कहे जाने पर वह शिल्पकार हर्षित तथा परितुष्ट हुआ / उसने अपने चित्त में प्रानन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव किया। उसने हाथ जोड़कर 'स्वामी ! जो आज्ञा' कहकर विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया। उसने राजा के लिए आवास-स्थान तथा पोषधशाला का निर्माण किया / निर्माण कर राजा को शीघ्र ज्ञापित किया कि उनके आदेशानुरूप कार्य हो गया है। तब राजा भरत आभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे उतरा / नीचे उतरकर जहाँ पोषधशाला थी, वहाँ आया / आकर पोषधशाला में प्रविष्ट हुआ, पोषधशाला का प्रमार्जन किया, सफाई की / प्रमार्जन कर दर्भ-डाभ का बिछौना बिछाया। बिछौना बिछाकर उस पर स्थित हुआ—बैठा / बैठकर उसने मागध तीर्थकुमार देव को उद्दिष्ट कर तत्साधना हेतु तीन दिनों का उपवास-तेले की तपस्या स्वीकार की। तपस्या स्वीकार कर पोषधशाला में पोषध लिया-व्रत स्वीकार किया। मणिस्वर्णमय आभूषण शरीर से उतार दिये / माला, वर्णक-चन्दनादि सुगन्धित पदार्थों के देहगत विलेपन आदि दूर किये, शस्त्र-कटार आदि, मूसल–दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे / यों डाभ के बिछौने पर अवस्थित राजा भरत निर्भीकता-निर्भयभाव से प्रात्मबलपूर्वक तेले की तपस्या में प्रतिजागरित–सावधानी से संलग्न हुअा। तेले की तपस्या परिपूर्ण हो जाने पर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला थी, वहाँ आया। आकर अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उन्हें इस प्रकार कहा–देवानुप्रियो ! घोड़े, हाथी, रथ एवं उत्तम योद्धाओं--पदातियों से सुशोभित चतुरंगिणी सेना को शीघ्र सुसज्ज करो। चातुर्घट-चार घंटाओं से युक्त अश्वरथ तैयार करो। यों कहकर राजा स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर, स्नानादि से निवृत्त होकर राजा से निकला। वह श्वेत, विशाल बादल से निकले, ग्रहगण से देदीप्यमान, आकाश-स्थित तारों के मध्यवर्ती चन्द्र के सदृश देखने में बड़ा प्रिय लगता था। स्नानघर से निकलकर घोड़े, हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा (योद्धाओं के विस्तार से युक्त) सेना से सुशोभित वह राजा जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, चातुर्घट अश्वरथ था, वहाँ आया / आकर रथारूढ हुआ। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] [जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्र मागधतीर्थ-विजय 58. तए णं से भरहे राया चाउग्घंटे प्रासरहं दुरुढे समाणे हय-गय-रहपवर-जोह-कलित्राए सद्धि संपरिबुडे महया-भडचडगरपहगरवंदपरिक्खित्ते चक्क-रयणदेसिअमग्गे अणेगरायवर-सहस्साणुआयमग्गे महया उक्किट्ठ-सोहणायबोल-कलकलरवेणं पक्खुभिअमहासमुद्दरव-भूध पिय करेमाणे 2 पुरस्थिमदिसाभिमुहे मागहतित्थेणं लवणसमुई ओगाहइ जाव से रहवरस्स कुष्परा उल्ला / तए णं से भरहे राया तुरगे निगिण्हइ 2 ता रहं ठवेइ 2 ता धणु परामुसइ, तए णं तं अइरुग्गयबालचन्द-इंदधणुसंकासं वरमहिसदरिअदप्पिदढघणसिंगरइअसारं उरगवरपवरगवलपवरपर अभमरकुलणोलिणिद्ध धंतधोअपटें णिउणोविअमिसिमिसितमणिरयण-घंटिआजालपरिविखत्तं तडित्तरुणकिरणतवणिज्ज-बचिधं ददरमलयगिरिसिहरकेसरचामरवालद्धचंदचिधं काल-हरिमरत्त-पीस-सुक्किल्लबहुण्हारुणिसंपिणद्धजीवं जीवितकरणं चलजीवं धण गहिऊण से परवई उसुच वरवइरकोडिअं वइरसारतोंडं कंचणमणिकणगरयणधाइट्टसुकयपुखं अणेगमणिरयणविविहसुविरइयनाचिधं वइसाहं ठाईऊण ठाणं प्रायतकण्णायतं च काऊण उसुमुदारं इमाई वयणाई तत्थ भाणिन से णरवई हंदि सुणंतु भवंतो, बाहिरो खलु सरस्स जे देवा / णागासुरा सुवण्णा, तेसिं खु णमो पणिवयामि // 1 // हंदि सुगंतु भवतो, अभितरो सरस्स जे देवा / णागासुरा सुवण्णा, सव्वे मे ते विसयवासी // 2 // इतिक? उसु णिसिरइति-- परिगरणिगरिअमझो, वाउद्ध असोभमाणकोसेज्जो। चित्तेण सोभए धणुवरेण इंदोव्व पच्चक्खं // 3 // तं चंचलायमाणं, पंचमिचंदोवमं महाचावं / छज्जइ वामे हत्थे, परवइणो तंमि बिजयंमि // 4 // तए णं से सरे भरहेणं रण्णा णिसठे समाणे खिप्यामेव दुवालस जोअणाई गंता मागहतित्थाधिपतिस्स देवस्स भवणंसि निवइए / तए णं से मागहतित्थाहिवई देवे भवणंसि सरं णिवइअं पासइ 2 त्ता आसुरुत्ते रुठे चंडिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे तिवलि भिडि पिडाले साहरइ 2 ता एवं वयासी केस णं भो एस अपत्थिअपत्थए दुरंतपंतलक्खणे होणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जे णं मम इमाए एमाणुरूवाए दिव्वाए देविद्धीए दिव्वाए देवजुईए दिव्वेणं देवाणुभावेणं लद्धाए पत्ताए अभिसमण्णागयाए उप्पि अप्पुस्सुए भवणंसि सरं णिसिरइत्ति कटु सोहासणाओ अब्भुठेइ 2 ता जेणेव से णामायके सरे तेणेव उवागच्छइ 2 ता तं गामाहाकं सरं गेण्हइ, णामकं अणुप्पवाएइ, णामक अणुप्पवाएमाणस्स इमे एप्रारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था---'उप्पण्णे खलु भो ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे णाम राया चाउरंतचक्कवट्टी, Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार [103 तं जीअमेअं तोअपच्चुप्पण्णमणागयाणं मागहतित्थकुमाराणं देवाणं राईणमुवत्थाणीअं करेत्तए, तं गच्छामि गं अहंपि भरहस्स रगणो उत्थाणीअं करेमित्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता हारं मउडं कुंडलाणि अकडगाणि अतुडिआणि अवत्थाणि अ आभरणाणि असरं च णामाहयंकं मागहतित्थोदगं च गेण्हइ, गिण्हिता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए चवलाए जयणाए सीहाए सिग्घाए उधुपाए दिव्वाए देवगईए वोईवयमाणे 2 जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ 2 ता अंतलिक्खपडिवण्णे सखिखिणीआई पंचवण्णाई वत्थाई पवर-परिहिए करयलपरिग्गहिअं दसणहं सिर जाव' अंजलि कटु भरहं रायं जएणं विजएणं वद्धावेइ 2 त्ता एवं वयासी--'अभिजिए णं देवाणुप्पिएहि केवलकप्पे भरहे वासे पुरस्थिमेणं मागहतित्थमेराए तं अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासी, अहण्णं देवाणुप्पिआणं आणत्तीकिंकरे, अहणं देवाणुपिआणं पुरथिमिल्ले अंतवाले, तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिआ! ममं इमेग्रारूवं पोइदाणं तिकटु हारं मउद्धं कुडणाणि अकडगाणि अ (तुडिआणि अ बत्थाणि अाभरणाणि अ सरं च णामायंक) मागहतित्थोदगं च उवणेइ। तए णं से भरहे राया मागहतित्थकुमारस्स देवस्स इमेयारूवं पोइदाणं पडिच्छइ 2 ता मागहतित्थकुमारं देवं सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता पडिविसज्जेइ। तए णं से भरहे राया रहं परावत्तेइ 2 ता मागहतित्थेणं लवणसमुद्दाओ पच्चुत्तरइ 2 ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ 2 ता तुरए णिगिण्हइ 2 त्ता रहं ठवेइ 2 सा रहाश्रो पच्चोरुहति 2 ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता मज्जणधरं अणुपविसइ 2 ता जाव' ससिव्व पिअसणे परवई मज्जणघरायो पडिणिक्खमइ 2 त्ता जेणेव भोप्रणमंडवे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता भोप्रणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ 2 ता भोगणमंडवाओ पडिणिक्खमइ 2 त्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसोअइ 2 ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीयो सद्दावेइ 2 त्ता एवं वयासी--'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! उस्सुक्कं उक्करं जाव' मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्टाहियं महामहिमं करेइ 2 त्ता मम एअमाणत्तिअं पच्चप्पिण्णह / ', तए णं ताओ अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ भरहेणं रण्णा एवं वुत्तानो समाणीओ हट्ठ जाव करेंति 2 त्ता एप्रमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति / तए णं से दिव्वे चक्करयणे वइरामयतुबे लोहिअक्खामयारए जंबूणयणेमीए णाणामणिखुरप्पथालपरिगए मणिमुत्ताजालभूसिए सणंदिघोसे सखिखिणीए दिव्वे तरुणरविमंडल णि णाणामणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्ते सव्वोउअसुरभिकुसुमबासत्तमल्लदामे अंतलिक्खपडिवणे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअसहसणिणादेणं पूरेते व अंबरतलं गामेण य सुदंसणे गरवइस्स पढमे चक्करयणे मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्टाहिनाए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए प्राउघरसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता दाहिणपच्चस्थिमं दिसि वरदामतित्थाभिमुहे पयाए यावि होत्था / 1. देखें सूत्र संख्या 44 / 2. देखें सूत्र 45 / 3. देखें सूत्र 44 / 4. देखें सूत्र 44 / Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र [58] तत्पश्चात् राजा भरत चातुर्घट–चार घंटे वाले अश्वरथ पर सवार हुा / वह घोड़े, हाथी, रथ तथा पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना से घिरा था। बड़े-बड़े योद्धाओं का समूह उसके साथ चल रहा था / हजारों मुकुटधारी श्रेष्ठ राजा उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। चक्ररत्न द्वारा दिखाये गये मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा था। उस द्वारा किये गये सिंहनाद के कलकल शब्द से ऐसा भान होता था कि मानो वायु द्वारा प्रक्षुभित महासागर गर्जन कर रहा हो। उसने पूर्व दिशा की ओर आगे बढ़ते हुए, मागध तीर्थ होते हुए अपने रथ के पहिये भीगे, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र में प्रवेश किया। फिर राजा भरत ने घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया और अपना धनुष उठाया। वह धनुष अचिरोद्गत बालचन्द्र--शुक्लपक्ष की द्वितीया के चन्द्र जैसा एव इन्द्रधनुष जैसा था / उत्कृष्ट, गर्वोद्धत भैसे के सुदृढ, सघन सींगों की ज्यों निविड-निश्छिद्र-पुद्गलनिष्पन्न था। उस धनुष का पृष्ठ भाग उत्तम नाग, महिषशृग, श्रेष्ठ कोकिल, भ्रमरसमुदाय तथा नील के सदृश उज्ज्वल काली कांति से युक्त, तेज से जाज्वल्यमान एवं निर्मल था / निपुण शिल्पी द्वारा चमकाये गये, देदीप्यमान मणियों और रत्नों की घंटियों के समूह से वह परिवेष्टित था। बिजली की तरह जगमगाती किरणों से युक्त, स्वर्ण से परिबद्ध तथा चिह्नित था। दर्दर एवं मलय पर्वत के शिखर पर रहने वाले सिंह के अयाल तथा चँवरी गाय की पूछ के बालों के उस पर सुन्दर, अर्ध चन्द्राकार बन्ध लगे थे। काले, हरे, लाल, पीले तथा सफेद स्नायुनों नाडी-तन्तुओं से उसकी प्रत्यञ्चा बंधी थी। शत्रुओं के जीवन का विनाश करने में वह सक्षम था। उसकी प्रत्यञ्चा चंचल थी। राजा ने वह धनुष उठाया। उस पर बाण चढ़ाया / बाण की दोनों कोटियां उत्तम वज्र श्रेष्ठ हीरों से बनी थीं। उसका मुख-सिरा वज्र की भांति अभेद्य था। उसका पूख-पीछे का भाग-स्वर्ण में जड़ी हई चन्द्रकांत आदि मणियों तथा रत्नों से सुसज्ज था / उस पर अनेक मणियों और रत्नों द्वारा सुन्दर रूप में राजा भरत का नाम अंकित था। भरत ने वैशाख-धनुष चढ़ाने के समय प्रयुक्त किये जाने वाले विशेष पादन्यास में स्थित होकर उस उत्कृष्ट बाण को कान तक खींचा और वह यों बोला __ मेरे द्वारा प्रयुक्त बाण के बहिर्भाग में तथा आभ्यन्तर भाग में अधिष्ठित नागकुमार, असुर कुमार, सुपर्ण कुमार आदि देवो ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप सुनें--स्वीकार करें। यों कहकर राजा भरत ने बाण छोड़ा / मल्ल जब अखाड़े में उतरता है, तब जैसे वह कमर बांधे होता है, उसी प्रकार भरत युद्धोचित वस्त्र-बन्ध द्वारा अपनी कमर बांधे था / उसका कौशेय-- पहना हुआ वस्त्र-विशेष हवा से हिलता हुआ बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। विचित्र, उत्तम धनुष धारण किये वह साक्षात् इन्द्र की ज्यों सुशोभित हो रहा था, विद्युत की तरह देदीप्यमान था / पञ्चमी के चन्द्र सदृश शोभित वह महाधनुष राजा के विजयोद्यत बायें हाथ में चमक रहा था। राजा भरत द्वारा छोड़े जाते ही वह बाण तुरन्त बारह योजन तक जाकर मागध तीर्थ के अधिपति-अधिष्ठातृ देव के भवन में गिरा / मागध तीर्थाधिपति देव ने ज्योंही बाण को अपने भवन में गिरा हुआ देखा तो वह तत्क्षण क्रोध से लाल हो गया, रोषयुक्त हो गया, कोपाविष्ट हो गया, प्रचण्ड–विकराल हो गया, क्रोधाग्नि से उद्दीप्त हो गया / कोपाधिक्य से उसके ललाट पर तीन रेखाएं उभर आईं। उसकी भृकुटि तन गई / वह बोला--- 'अप्रार्थित—जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाला, दुःखद अन्त तथा अशुभ लक्षण वाला, पुण्य चतुर्दशी जिस दिन हीन-असम्पूर्ण थी-घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [105 अशुभ दिन में जन्मा हुआ, लज्जा तथा श्री-शोभा से परिवजित वह कौन अभागा है, जिसने उत्कृष्ट देवानुभाव से लब्ध प्राप्त स्वायत्त मेरी ऐसी दिव्य देवऋद्धि, देवधुति पर प्रहार करते हुए मौत से न डरते हुए मेरे भवन में बाण गिराया है ?' यों कहकर वह अपने सिंहासन से उठा और जहाँ वह नामांकित बाण पड़ा था, वहाँ पाया / पाकर उस बाण को उठाया, नामांकन देखा / देखकर उसके मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हा---'जम्बूद्वीप के अन्तर्वर्ती भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है / अतः अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती मागधतीर्थ के अधिष्ठातृ देवकुमारों के लिए यह उचित है, परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें / इसलिए मैं भी जाऊँ, राजा को उपहार भेंट करू।' यों विचार कर उसने हार, मुकुट, कुण्डल, कटक –कंकण-कड़े, त्रुटित--- भुजबन्ध, वस्त्र, अन्यान्य विविध अलंकार, भरत के नाम से अंकित बाण और मागध तीर्थ का जल लिया। इन्हें लेकर वह उत्कृष्ट, त्वरित वेगयुक्त, सिंह की गति की ज्यों प्रबल, शीघ्रतायक्त, तीव्रतायक्त, दिव्य देवगति से चलता हुआ जहाँ राजा भरत था, वहाँ पाया / वहाँ पाकर छोटी-छोटी घंटियों से युक्त पंचरंगे उत्तम वस्त्र पहने हुए, अाकाश में संस्थित होते हुए उसने अपने जुड़े हुए दोनों हाथों से मस्तक को छूकर अंजलिपूर्वक राजा भरत को 'जय, विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित किया उसे बधाई दी और कहा—'आपने पूर्व दिशा में मागध तीर्थ पर्यन्त समस्त भरतक्षेत्र भली-भांति जीत लिया है। मैं आप द्वारा जीते हुए देश का निवासी हूँ, आपका अनुज्ञावर्ती सेवक हूँ, आपका पूर्व दिशा का अन्तपाल हूँ-उपद्रव-निवारक हूँ। अतः आप मेरे द्वारा प्रस्तुत यह प्रीतिदान–परितोष एवं हर्षपूर्वक उपहृत भेंट स्वीकार करें।' यों कह कर उसने हार, मुकुट, कुण्डल, कटक (त्रुटित, वस्त्र, आभूषण, भरत के नाम से अंकित बाण) और मागध तीर्थ का जल भेंट किया / राजा भरत ने मागध तीर्थकुमार द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत प्रीतिदान स्वीकार किया। स्वीकार कर मागध तीर्थकुमार देव का सत्कार किया, सम्मान किया / सत्कार सम्मान कर उसे विदा किया। फिर राजा भरत ने अपना रथ वापस मोड़ा / रथ मोड़कर वह मागध तीर्थ से होता हुआ लवणसमुद्र से वापस लौटा / जहाँ उसका सैन्य-शिविर—छावनी भी, तद्गत बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ पाया। वहाँ आकर घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया, रथ से नीचे उतरा, जहाँ स्नानघर था, गया। स्नानघर में प्रविष्ट हुअा। उज्ज्वल महामेघ से निकलते हुए चन्द्रसदृश प्रियदर्शन—सुन्दर दिखाई देने वाला राजा स्नानादि सम्पन्न कर स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ भोजनमण्डप था वहाँ पाया। भोजनमण्डप में प्राकर सुखासन से बैठा, तेले का पारणा किया। तेले का पारणा कर वह भोजनमण्डप से बाहर निकला, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ आया / आकर पूर्व की ओर मुह किये सिंहासन पर ग्रासीन हुआ / सिंहासनासीन होकर उसने अठारह श्रेणीप्रश्रेणी-अधिकृत पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उन्हें कहा--'देवानुप्रियो ! मागधतीर्थकुमार देव को विजित कर लेने के उपलक्ष में अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित करो। उस बीच कोई भी क्रय-विक्रय सम्बन्धी शुल्क, सम्पत्ति पर प्रति वर्ष लिया जाने वाला राज्य-कर आदि न लिये जाएं, यह उद्घोषित करो। राजा भरत द्वारा यों आज्ञप्त होकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक वैसा ही किया। वैसा कर वे राजा के पास आये और उसे यथावत् निवेदित किया। तत्पश्चात् राजा भरत का दिव्य चक्ररत्न मागवतीर्थकुमार देव के विजय के उपलक्ष में प्रायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर शस्त्रागार से प्रतिनिष्क्रान्त हुआ- बाहर निकला। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र उस चक्ररत्न का अरक-निवेश-स्थान-पारों का जोड़ वज्रमय था हीरों से जड़ा था। मारे लाल रत्नों से युक्त थे। उसकी नेमि पीत स्वर्णमय थी / उसका भीतरी परिधिभाग अनेक मणियों से परिगत था / वह चक्रमणियों तथा मोतियों के समूह से विभूषित था। वह मृदंग आदि बारह प्रकार के वाद्यों के घोष से युक्त था / उसमें छोटी-छोटी घण्टियां लगी थीं / वह दिव्य प्रभावयुक्त था, मध्याह्न काल के सूर्य के सदृश तेजयुक्त था, गोलाकार था, अनेक प्रकार की मणियों एवं रत्नों की घण्टियों के समूह से परिव्याप्त था / सब ऋतुओं में खिलने वाले सुगन्धित पुष्पों की मालाओं से युक्त था, अन्तरिक्षप्रतिपन्न था--आकाश में अवस्थित था, गतिमान् था, एक हजार यक्षों से संपरिवृत था----घिरा था। दिव्य वाद्यों के शब्द से गगनतल को मानो भर रहा था। उसका सुदर्शन नाम था। राजा भरत के उस प्रथम प्रधान चक्ररत्न ने यों शस्त्रागार से निकलकर दक्षिण पश्चिम दिशा में-नैऋत्य कोण में वरदाम तीर्थ की अोर प्रयाण किया। वरदामतीर्थ-विजय 56. तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं दाहिणपच्चत्थिमं दिसि वरदामतित्थाभिमुहं पयातं चावि पासइ 2 त्ता हट्टतुट्ठ० कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ 2 त्ता एवं वयासी-- 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! ह्य-गय-रह-पवर चाउरंगिण सेण्णं सण्णाहेह, प्राभिसेक्कं हस्थिरयणं पडिकप्पेह, त्ति कटु मज्जणधरं अणुपविसइ 2 ता तेणेव कमेणं जाव' धवलमहामेहणिग्गए (इव ससिव्व पियदसणे, गरवई मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता हयगयरहपवरवाहणभडचडगरपहकरसंकुलाए सेणाए पहिअकित्ती जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव प्राभिसेक्के हस्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ 2 ता अंजणगिरिकडगसण्णिभं गयवई गरवई दुरुढे / तए णं से भरहाहिवे णरिदे हारोत्थए सुकयरइयवच्छे कुडलउज्जोइआणणे मउडदित्तसिरए परसीहे गरबई रिदे परवसहे मरुग्ररायवसभकप्पे अभहिसरायतेप्रलच्छोए दिपमाणे पसत्थमंगलसहि संथुधमाणे जयसद्दकयालोए हस्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं) सेअवरचामराहि उधुव्वमाणीहिं 2 माइअवरफलयपवरपरिगरखेडयवरवम्मकवयमाढीसहस्सकलिए उक्कडवरमउडतिरीडपडागझयवेजयंतिचामरचलंतछत्तंधयारकलिए प्रसिखेवणिखग्गचावणारायफणयकप्पणिसूललउडभिडिमालधणुहतोणसरपहरणेहि प्र कालणीलरुहिरपीअसुकिल्लप्रणेचिधसयसण्णिविट्ठे अप्फोडिअसीहणायछेलिग्रहयहेसिअहत्थिगुलुगुलाइअअणेगरहसयसहस्सघणघणेतणीहम्ममाणसहसहिएण जमगसमगभंभाहोरंभकिणितखरमुहिमुगुदसंखिअपरिलिवच्चगपरिवाइणिवंसवेणुविपंचिमहतिकच्छभिरिगिसिगिअकलतालंकसतालकरधाणुत्थिदेण महया सहसण्णिणादेण सयलमवि जीवलोगं पूरयंते बलवाहणसमुदएणं एवं जक्खसहस्सपरिवुडे वेसमणे चेव घणवई अमरपतिसणिभाइ इद्धीए पहिअकित्ती गामागरणगरखेडकब्बड तहेव सेसं (मडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसहस्समंडिअॅ थिमिअमेइणीअं वसुहं अभिजिणमाणे 2 अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छमाणे 2 तं दिव्वं चक्करयणं अणुगच्छमाणे 2 जोग्रंणतरिआहिं वसहोहिं वसमाणे 2 जेणेव वरदामतित्थे तेणेव उवागच्छइ 2 ता वरदामतित्थस्स प्रदूरसामन्ते दुवालसजोयणायाम णवजोग्रण 1. देखें सूत्र संख्या 44 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [107 विस्थिण्णं वरणगरसरिच्छं) विजयखंधावारणिवेसं करेइ 2 ता बद्धइरयणं सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिना! मम पावसहं पोसहसालं च करेहि, ममेप्रमाणत्ति पच्चप्पिणाहि। [59] राजा भरत ने दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण-पश्चिम दिशा में वरदामतीर्थ की ओर जाते हुए देखा / देखकर वह बहुत हषित तथा परितुष्ट हुआ। उसने कौटम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर कहा—देवानुप्रियो ! घोड़े, हाथी रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं—पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना को तैयार करो, आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र ही सुसज्ज करो। यों कहकर राजा स्नानघर में प्रविष्ट हुआ / धवल महामेघ से निकलते हुए चन्द्रमा की ज्यों सुन्दर प्रतीत होता वह . राजा स्नानादि सम्पन्न कर स्नानघर से बाहर निकला। (स्नानघर से बाहर निकलकर घोड़े, हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा योद्धाओं के विस्तार से युक्त सेना से सुशोभित वह राजा, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला-बाहरी सभाभवन था, ग्राभिषेक्य हस्तिरत्न था, वहाँ अाया, अं , अंजनगिरि के शिखर के समान उस विशाल गजपति पर वह नरपति प्रारूढ हुआ। भरतक्षेत्र के अधिपति नरेन्द्र भरत का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था। उसका मुख कुण्डलों से द्युतिमय था / मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था / नरसिंह-मनुष्यों में सिंह सदृश शौर्यशाली, मनुष्यों के स्वामी, मनुष्यों के इन्द्र-परम ऐश्वर्यशाली अधिनायक, मनुष्यों में वृषभ के समान स्वीकृत कार्यभार के निर्वाहक, व्यन्तर आदि देवों के राजाओं के बीच विद्यमान प्रमुख सौधमेन्द्र के सदृश प्रभावापन्न, राजोचित तेजोमयी लक्ष्मी से देदीप्यमान वह राजा मंगलसूचक शब्दों से संस्तुत तथा जयनाद से सुशोभित था। कोरंटपुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था / ) उत्तम, श्वेत चँवर उस पर डुलाये जा रहे थे। जिन्होंने अपने-अपने हाथों में उत्तम ढालें ले रखी थीं, श्रेष्ठ कमरबन्धों से अपनी कमर बांध रखी थीं, उत्तम कवच धारण कर रखे थे, ऐसे हजारों योद्धाओं से वह विजय-अभियान परिगत था। उन्नत, उत्तम मुकूट, कुण्डल, पताका-छोटी-छोटी झण्डियां, ध्वजा-बड़े बड़े झण्डे तथा वैजयन्ती---दोनों तरफ दो दो पताकाएं जोड़कर बनाये गये झण्डे, चँवर, सघनता से प्रसत अन्धकार से प्राच्छन्न था। असि-तलवार विशेष. क्षेपणी-गोफिया खड्ग-सामान्य तलवार, चाप–धनुष, नाराच-सम्पूर्णत: लोह-निर्मित बाण, कणक-बाण विशेष, कल्पनी—कृपाण, शूल, लकुट–लट्ठी, भिन्दिपाल-वल्लम या भाले, बांस के बने धनुष, तूणीरतरकश, शर—सामान्य बाण आदि शस्त्रों से, जो कृष्ण, नील, रक्त, पीत तथा श्वेत रंग के सैकड़ों चिह्नों से युक्त थे, व्याप्त था। भुजाओं को ठोकते हुए, सिंहनाद करते हुए योद्धा राजा भरत के साथसाथ चल रहे थे / घोड़े हर्ष से हिनहिना रहे थे, हाथी, चिघाड़ रहे थे, सैकड़ों हजारों-लाखों रथों के चलने को ध्वनि, घोड़ों को ताड़ने हेतु प्रयुक्त चाबुकों की आवाज, भम्भा--- ढोल, कौरम्भ-बड़े ढोल, क्वणिता-वीणा, खरमुखी—काली, मुकुन्द-मृदंग, शंखिका-छोटे शंख, परिली तथा बच्चकघास के तिनकों से निर्मित वाद्य-विशेष, परिवादिनी–सप्त तन्तुमयी वीणा, दंस-अलगोजा, वेणुबांसुरी, विपञ्ची-विशेष प्रकार की वीणा, महती कच्छपी—कछए के आकार की बड़ी वीणा, रिगीसिगिका सारंगी, करताल, कांस्यताल, परस्पर हस्त-ताडन आदि से उत्पन्न विपुल ध्वनि-प्रतिध्वनि से मानो सारा जगत् आपूर्ण हो रहा था। इन सबके बीच राजा भरत अपनी चातुरंगिणी सेना तथा विभिन्न वाहनों से युक्त, सहस्र यक्षों से संपरिवृत कुबेर सदृश वैभवशाली तथा अपनी ऋद्धि से इन्द्र Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] {जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जैसा यशस्वी-ऐश्वर्यशाली प्रतीत होता था। वह ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडम्ब (द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम तथा संबाध). इनसे सुशोभित भूमण्डल की विजय करता हुआ-वहाँ के शासकों को जीतता हुअा, उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में स्वीकार करता हुया, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुअा-उसके पीछे पीछे चलता हुआ, एक-एक योजन पर पड़ाव डालता हुआ जहाँ वरदामतीर्थ था, वहाँ आया। पाकर वरदामतीर्थ से न अधिक दूर, न अधिक समीप कुछ ही दूरी पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा, विशिष्ट नगर के सदृश अपना संन्य-शिविर लगाया। उसने वर्द्धकि-रत्न को बुलाया / उससे कहा-देवानुप्रिय ! शीघ्र ही मेरे लिए प्रावासस्थान तथा पौषधशाला का निर्माण करो। मेरे आदेशानुरूप कार्य सम्पन्न कर मुझे सूचित करो / 60. तए णं से प्रासमदोणमुहगामपट्टणपुरवरखंधावारगिहावणविभागकुसले एगासीतिपदेसु सम्वेसु चेव वत्थूसु गगुणजाणए पंडिए विहिण्णू पणयालीसाए देवयाणं वत्थुपरिच्छाए गेमिपासेसु भत्तसालासु कोट्टणिसु अ वासघरेसु अ विभागकुसले छज्जे वेज्झे प्रदाणकम्मे पहाणबुद्धी जलयाणं भूमियाणं य भायणे जलथलगुहासु जंतेसु परिहासु अ कालनाणे तहेव सद्दे वत्थुप्पएसे पहाणे गम्भिणिकण्णरुवखवल्लिवेढिप्रगुणदोसविआणए गुणड्ड सोलसपासायकरणकुसले चउसाहि-विकप्यवित्थियमई गंदावते य वद्धमाणे सोस्थिअरुप्रग तह सवओभद्दसण्णिवेसे अ बहुविसेसे उइंडिअदेवकोढदारुगिरिखायवाहणविभागकुसले इह तस्स बहुगुणद्ध, थवईरयणे परिदचंदस्स / तव-संजम-निविठे, किं करवाणी तुवट्ठाई // 1 // सो देवकम्मविहिणा, खंधावार परिद-वयणेणं / पावसहभवणकलिअं, करेइ सव्वं मुहुत्तेणं // 2 // करेत्ता पवरपोसहघरं करेइ 2 ता जेणेव भरहे राया (तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता) एतमाणत्तिनं खिप्पामेव पच्चप्पिणइ, सेसं तहेव जाव' मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ / [60] वह शिल्पी (वर्द्धकि रत्न) पाश्रम, द्रोणमुख, ग्राम, पट्टन, नगर, सैन्य शिविर, गह, आपण–पण्यस्थान इत्यादि की समुचित संरचना में कुशल था / इक्यासी प्रकार के वास्तु-क्षेत्र का अच्छा जानकार था। उनके यथाविधि चयन और अंकन में निष्णात था, विधिज्ञ था। शिल्पशास्त्रनिरूपित पैतालीस देवताओं के समुचित स्थान-सन्निवेश के विधिक्रम का विशेषज्ञ था। विविध परम्परानुगत भवनों, भोजनशालाओं, दुर्ग-भित्तियों, वासगृहों-शयनगृहों के यथोचित रूप में निर्माण करने में निपुण था / काठ आदि के छेदन-वेधन में, गैरिक लगे धागे से रेखाएँ अंकित कर नाप-जोख में कुशल था। जलगत तथा स्थलगत सुरंगों के, घटिकायन्त्र आदि के निर्माण में, परिखाओं-खाइयों के खनन में शुभ समय के, इनके निर्माण के प्रशस्त एवं अप्रशस्त रूप के परिज्ञान में प्रवीण था। शब्दशास्त्र में---शुद्ध नामादि चयन, अंकन, लेखन आदि में अपेक्षित व्याकरणज्ञान में, वास्तुप्रदेश में विविध दिशाओं में निर्मेय भवन के देवपूजागृह, भोजनगृह, विश्रामगृह आदि के संयोजन में सुयोग्य था। --- . - - - - ------ 1. देखें सूत्र संख्या 45 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [109 भवन निर्माणोचित भूमि में उत्पन्न गर्भवती–फलाभिमुख बेलों, कन्या - निष्फल अथवा दूरफल बेलों, वृक्षों एवं उन पर छाई हुई बेलों के गुणों तथा दोषों को समझने में सक्षम था। गुणाढच था-प्रज्ञा, हस्तलाघव आदि गुणों से युक्त था / सान्तन, स्वस्तिक आदि सोलह प्रकार के भवनों के निर्माण में कुशल था / शिल्पशास्त्र में प्रसिद्ध चौसठ प्रकार के घरों की रचना में चतुर था / नन्द्यावर्त, वर्धमान, स्वस्तिक, रुचक तथा सर्वतोभद्र आदि विशेष प्रकार के गृहों, ध्वजाओं, इन्द्रादि देवप्रतिमाओं, धान्य के कोठों की रचना में, भवन-निर्माणार्थ अपेक्षित काठ के उपयोग में, दुर्ग प्रादि निर्माण के अन्तर्गत जनावास हेतु अपेक्षित पर्वतीय गृह, सरोवर, यान-वाहन, तदुपयोगी स्थान-इन सबके संचयन और सन्निर्माण में समर्थ था / वह शिल्पकार अनेकानेक गुणयुक्त था। राजा भरत को अपने पूर्वाचरित तप तथा संयम के फलस्वरूप प्राप्त उस शिल्पी ने कहा-स्वामी ! मैं आपके लिए क्या निर्माण करू ? राजा के वचन के अनुरूप उसने देवकर्मविधि से--चिन्तनमात्र से रचना कर देने की अपनी असाधारण, दिव्य क्षमता द्वारा मुहूर्त मात्र में अविलम्ब सैन्यशिविर तथा सुन्दर आवास-भवन की रचना कर दी / वैसा कर उसने फिर उत्तम पौषधशाला का निर्माण किया। तत्पश्चात् वह जहाँ राजा भरत था, वहाँ पाया। आकर शीघ्र ही राजा को निवेदित किया कि आपके आदेशानुरूप निर्माण कार्य सम्पन्न कर दिया है / इससे आगे का वर्णन पूर्ववत् है। -जैसे राजा स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, चातुर्घट अश्वरथ था, पाया / 61. उवागच्छित्ता तते णं तं धरणितलगमणलहुं ततो बहुलक्खणपसत्थं हिमवंतकंदरंतरणिवायसंवद्धिचित्ततिणिसदलिअं जंबूणयसुकयकूबरं कणयदंडियारं पुलयरिंदणीलसासगपवालफलिहवररयणलेठ्ठमणिविदुमविभूसिधे अडयालीसाररइयतवणिज्जपट्टसंगहिअजुत्ततुबं पसिनपसिननिम्मिअनवपट्टपुट्टपरिणिट्ठिअं विसिट्ठलट्ठणवलोहबद्धकम्मं हरिपहरणरयणसरिसचक्कं कक्केयणइंदणीलसासगसुसमाहिअबद्धजालकडगं पसत्थ विच्छिण्णसमधुरं पुरवरं च गुत्तं सुकिरणतवणिज्जजुत्तकलिग्रं कंकटयणिजुत्तकप्पणं पहरणाणुजायं खेडगकणगधणमंडलग्गवरसत्तिकोंततोमरसरसयबत्तीसतोणपरिमंडिअ कणगरयणचित्तं जुत्तं हलीमुहबलागगयदंतचंदमोत्तियतणसोल्लिकुदकुडयवरसिंदुवारकंदलवरफेणणिगरहारकासप्पगासधवलेहिं अमरमणपवणजइणचवलसिग्धगामीहि चहि चामराकणगविभूसियहिं तुरगेहिं सच्छत्तं सज्झयं सघंटे सपडागं सुकयसंधिकम्मं सुसमाहिनसमरकणगगंभीरतुल्लघोसं बरकुप्परं सुचक्कं वरनेमीमंडलं वरधारातोंडं वरवइरबद्धतुबं वरकंचणभूसिवरायरिअणिम्मिअ वरतुरगसंपउत्तं वरसारहिसुसंपग्गहिरं वरपुरिसे वरमहारहं दुरूढे आरूढे, पवररयणपरिमंडिअंकणखिखिणीजालसोभिअं अउज्झं सोप्रामणिकणगतविश्नपंकयजासुअणजलणजलिअसुश्रतोंडरागं गुजद्धबंधुजीवगरहिंगुलणिगरसिंदूररुइलकुकुमपारेवयचलणणयणकोइलदसणावरणरइतातिरेगरत्तासोगकणगकेसुअगयतालुसुरिंदगोवगसमप्पभप्पगासं बिबफलसिलपवालद्धितसूरसरिसं सवोउअसुरहिकुसुमबासत्तमल्लदामं ऊसिअसेअझयं महामेहरसिअगंभीरणिधोसं सत्तुहिप्रयकपणं पभाए Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] লক্ষ্মীসলিম अ सस्सिरीणामेणं पुहविविजयलंभंति विस्सुतं लोगविस्सुतजसोऽहयं चाउग्धंट प्रासरहं पोसहिए णरवई दुरूढे। ___ तए णं से भरहे राया चाउग्घंटं पासरहं दुरुढे समाणे सेसं तहेव दाहिणाभिमुहे वरदामतित्थेणं लवणसमुदं प्रोगाहइ जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला जाव पीइदाणं से, णवरि चूडामणि च दिव्धं उरत्थगेविज्जगं सोणिअसुत्तगं कडगाणि अ तुडिआणि अ (वत्थाणि अ प्राभरणाणि अ) दाहिणिल्ले अंतबाले जाव' अट्ठाहिअं महामहिमं करेइ 2 ता एप्रमाणत्ति पच्चप्पिणंति / ___ तए णं से दिव्वे चक्करयणे वरदामतित्थकुमारस्स देवस्स अट्टाहिआए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता अंतलिक्खपडिवण्णे (जक्खसहस्ससंपरिबुडे दिव्वतुडिअसहसणिणादेणं) पूरते चेव अंबरतलं उत्तरपच्चत्थिमं दिसि पभासतित्थाभिमुहे पयाते यावि होत्था। [61] वह रथ पृथ्वी पर शीघ्र गति से चलने वाला था। अनेक उत्तम लक्षण युक्त था। हिमालय पर्वत की वायुरहित कन्दराओं में संधित विविध प्रकार के तिनिश नामक रथनिर्माणोपयोगी वृक्षों के काठ से वह बना था / उसका जुमा जम्बूनद नामक स्वर्ण से निर्मित था। उसके बारे स्वर्णमयी ताड़ियों के बने थे / वह पुलक, वरेन्द्र, नील, सासक, प्रवाल, स्फटिक, लेष्टु, चन्द्रकांत, विद्रम संज्ञक रत्नों एवं मणियों से विभूषित था। प्रत्येक दिशा में बारह बारह के क्रम से उसके अड़तालीस पारे थे। उसके दोनों तुम्ब स्वर्णमय पट्टों से संगृहीत थे-दृढीकृत थे, उपयुक्त रूप में बंधे थे---न बहुत छोटे थे, न बहुत बड़े थे / उसका पृष्ठ-पूठी विशेष रूप से घिसी हुई, बंधी हुई, सटी हुई, नई पट्टियों से सनिष्पन्न थी। अत्यन्त मनोज्ञ, नतन लोहे की सांकल तथा चमडे के रस्से से उसके अवयव बंधे थे। उसके दोनों पहिए वासुदेव के शस्त्ररत्न–चक्र के सदृश--गोलाकार थे। उसकी जाली चन्द्रकांत, इन्द्रनील तथा शस्यक नामक रत्नों से सुरचित और सुसज्जित थी। उसकी धुरा प्रशस्त, विस्तीर्ण तथा एकसमान थी। श्रेष्ठ नगर की ज्यों वह गुप्त-सुरक्षित-सुदृढ था। उसके घोड़ों के गले में डाली जाने वाली रस्सी कमनीय किरणयुक्त अत्यन्त द्युतियुक्त, लालिमामय स्वर्ण से बनी थी। उसमें स्थान-स्थान पर कवच प्रस्थापित थे। वह (रथ) प्रहरणों-अस्त्र-शस्त्रों से परिपूरित था / ढालों, कणकों विशेष प्रकार के बाणों, धनुषों, मण्डलानों-विशेष प्रकार की तलवारों, त्रिशूलों, भालों, तोमरों तथा सैकड़ों बाणों से युक्त बत्तीस तूणीरों से वह परिमंडित था / उस पर स्वर्ण एवं रत्नों द्वारा चित्र बने थे। उसमें हलीमुख, बगुले, हाथीदांत, चन्द्र, मुक्ता, मल्लिका, कुन्द, कुटज-निर्गुण्डी तथा कन्दल के पुष्प, सुन्दर फेन-राशि, मोतियों के हार और काश के सदृश धवल-श्वेत, अपनी गति द्वारा मन एवं वायु की गति को जीतने वाले, चपल, शीघ्रगामी, चवरों और स्वर्णमय आभूषणों से विभूषित चार घोड़े जुते थे। उस पर छत्र बना था। ध्वजाएँ. घण्टियां तथा पताकाएँ लगी थी। उसका सन्धि-योजन—जोड़ों का मेल सुन्दर रूप में निष्पादित था / यथोचित रूप में सुनियोजित-सुस्थापित समर-कणक—युद्ध में प्रयोजनीय वाद्य-विशेष के गम्भीर घोष जैसा उसका घोष था—उस से वैसी आवाज निकलती थी / उसके कूर्पर-पिजनक-अवयव विशेष उत्तम थे। वह सुन्दर चक्रयुक्त तथा उत्कृष्ट नेमिमंडल युक्त था। उसके जुए के दोनों किनारे बड़े सुन्दर थे। उसके दोनों तुम्ब श्रेष्ठ वज्र 1. देखें सूत्र संख्या 44 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [111 रत्न से हीरों द्वारा बने थे / वह श्रेष्ठ स्वर्ण से-स्वर्णाभरणों से सुशोभित था / वह सुयोग्य शिल्पकारों द्वारा निर्मित था। उसमें उत्तम घोड़े जोते जाते थे। सुयोग्य सारथि द्वारा वह संप्रगृहीतस्वायत्त--सुनियोजित था / वह उत्तमोत्तम रत्नों से परिमंडित था / अपने में लगी हुई छोटी-छोटी सोने की घण्टियों से वह शोभित था। वह अयोध्य-अपराभवनीय था--कोई भी उसका पराभव करने में सक्षम नहीं था। उसका रंग विद्युत, परितप्त स्वर्ण, कमल, जपा-कुसुम, दीप्त अग्नि तथा तोते की चोंच जैसा था। उसकी प्रभा धुंघची के अर्ध भाग----रक्त वर्णमय भाग, बन्धुजीवक पुष्प, सम्मदित हिंगुल-राशि, सिन्दूर, रुचिकर— श्रेष्ठ केसर, कबूतर के पैर, कोयल की आंखें, अधरोष्ठ, , मनोहर रक्ताशोक तरु, स्वर्ण, पलाशपुष्प, हाथी के तालु, इन्द्रगोपक-वर्षा में उत्पन्न होने वाले लाल रंग के छोटे-छोटे जन्तुविशेष जैसी थी। उसकी कांति बिम्बफल, शिलाप्रवाल एवं उदीयमान सूर्य के सदृश थो / सब ऋतुओं में विकसित होने वाले पुष्पों की मालाएँ उस पर लगी थीं। उस पर उन्नत श्वेत ध्वजा फहरा रही थी। उसका घोष महामेघ के गर्जन के सदश अत्यन्त गम्भीर था, शत्रु के हृदय को कंपा देने वाला था / लोकविश्रत यशस्वी राजा भरत प्रातःकाल पौषध पारित अवयवों से युक्त चातुर्घण्ट' 'पृथ्वीविजयलाभ' नामक अश्वरथ पर प्रारुढ हुआ / आगे का भाग पूर्ववत है।"राजा भरत ने पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए वरदाम तीर्थ होते हुए अपने रथ के पहिये भीगें, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र में प्रवेश किया / आगे का प्रसंग वरदाम तीर्थकुमार के साथ वैसा ही बना, जैसा मागध तीर्थकुमार के साथ बना था। वरदाम तीर्थकुमार ने राजा भरत को दिव्य-उत्कृष्ट, सर्व विषापहारी चूडामणि-शिरोभूषण, वक्षःस्थल पर धारण करने का आभूषण, गले में धारण करने का अलंकार, कमर में पहनने की मेखला, कटक, त्रुटित (वस्त्र तथा अन्यान्य आभूषण) भेंट किये और उसने कहा कि मैं आपका दक्षिणदिशा का अन्तपाल-उपद्रवनिवारक, सीमारक्षक हूँ। इस विजय के उपलक्ष्य में राजा की आज्ञा के अनुसार अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित हुआ। उसकी सम्पन्नता पर आयोजक पुरुषों ने राजा को सब जानकारी दी। बरदाम तीर्थकुमार को विजय कर लेने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के परिसम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर वह आकाश में अधर अवस्थित हुा / वह एक हजार यक्षों से परिवत था। दिव्य वाद्यों के शब्द से गगनमण्डल को आपूरित करते हुए उसने उत्तर-पश्चिम दिशा में प्रभास तीर्थ की ओर होते हुए प्रयाण किया। प्रभासतीर्थविजय 62. तए णं से भरहे राया तं दिवं चक्करयणं जाव उत्तरपच्चस्थिमं दिसि तहेव जाव पच्चस्थिमदिसाभिमुहे पभासतित्थेणं लवणसमुदं ओगाहेइ 2 ता जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला जाव पोइदाणं से णवरं मालं मडि मुत्ताजालं हेमजालं कडगाणि प्रतुडिपाणि अ आभरणाणि अ सरं च णामाहयंकं पभासतित्थोदगं च गिण्हइ 2 ता जाव पच्चत्थिमेणं पभासतित्थमेराए अहणं देवाणुप्पियाणं विसयवासी जाव पच्चथिमिल्ले अंतवाले, सेसं तहेव जाव अट्टाहिआ निव्वत्ता। [62] राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करते हुए,उत्तर-पश्चिम दिशा होते हुए, पश्चिम में, प्रभास तीर्थ की ओर जाते हुए, अपने रथ के पहिये भीगें, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र में प्रवेश किया। आगे की घटना पूर्वानुसार है / वरदाम तीर्थकुमार की तरह प्रभास तीर्थकुमार ने राजा को प्रीतिदान के रूप में भेंट करने हेतु रत्नों की माला, मुकुट, दिव्य मुक्ता-राशि, स्वर्ण-राशि, कटक, त्रुटित, वस्त्र, अन्यान्य आभूषण, राजा भरत के नाम से अंकित बाण तथा प्रभासतीर्थ का जल दिया-राजा को उपहृत किया और कहा कि मैं आप द्वारा विजित देश का वासी हूँ, पश्चिम दिशा का अन्तपाल हूँ। आगे का प्रसंग पूर्ववत् है / पहले की ज्यों राजा की आज्ञा से इस विजय के उपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित हुआ, सम्पन्न हुआ / सिन्धुदेवी-साधन 63. तए णं से दिव्वे चक्करयणे पभासतित्थकुमारस्स देवस्स अट्टाहिनाए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए अाउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता (अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअसहसण्णिणादेणं) पूरते चेव अंबरतलं सिंधूए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरच्छिमं दिसि सिंधुदेवीभवणाभिमुहे पयाते यावि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं सिंधए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरथिम सिंधुदेवीभवणाभिमुहं पयातं पासइ 2 ता हट्टतुट्ठचित्त तहेव जाव' जेणेव सिंधए देवीए भवणं तेणेव उवागच्छइ 2 ता सिंधूए देवीए भवणस्स अदूरसामते दुवालसजोप्रणायामं णवजोअणवित्थिष्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवेसं करेइ (करेत्ता बड्डइरयणं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी-- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! ममं आवासं पोसहसालं च करेहि, करेत्ता ममेअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि / तए णं से वड्डइरयणे भरहेणं रण्णा एवं बुत्ते समाणे हद्वतुट्ठचित्तमाणदिए पोइमणे जाव अंजलि कटु एवं सामी तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ 2 ता भरहस्स रण्णो आवसहं पोसहसालं च करेइ 2 ता एप्रमाणत्तिनं खिप्पामेव पच्चप्पिणति / ___तए णं से भरहे राया चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरहइ 2 ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता पोसहसालं अणुपविसइ 2 ता पोसहसाल पमज्जइ 2 ता दम्भसंथारगं संथरइ 2 ता दब्भसंथारगं दुरूहइ 2 ता) सिंधुदेवीए अट्ठमभत्तं पगिण्हइ 2 ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी (उम्मुक्कमणिसुवण्णे ववगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्थमुसले) दब्भसंथारोवगए अट्ठमभत्तिए सिंधुदेवि मणसि करेमाणे चिट्ठइ / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सिंधूए देवीए आसणं चलइ / तए णं सा सिंधुदेवी आसणं चलिअं पासइ 2 ता प्रोहिं पउंजइ 2 ता भरहं रायं ओहिणा प्राभोएइ 2 ता इमे एआरूवे अब्भत्थिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था—उप्पण्णे खलु भो जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी, तं जोअमेअं तोअपच्चुप्पण्णमणागयाणं सिंधूणं देवीणं भरहाणं राईणं उवत्थाणिों करेत्तए / तं गच्छामि णं अहंपि भरहस्स रण्णो उवत्थाणिनं करेमित्ति कटु कुभट्ठसहस्सं रयणचित्तं जाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताणि अ दुवे कणगभद्दासणाणि य कडगाणि अ तुडिआणि प्र (वत्थाणि अ) प्राभरणाणि अ 1. देखें सूत्र संख्या 44 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार / [113 गेण्हइ 2 ता ताए उक्किट्ठाए जाव' एवं वयासी अभिजिए णं देवाणुप्पिएहि केवलकप्पे भरहे वासे, अहणं देवाणुप्पिप्राणं विसयवासिणी, अहण्णं देवाणुप्पियाणं आणतिकिकरी तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! मम इमं एआरूवं पीइदाणंति कट्ट कुभट्टसहस्सं रयणचित्तं जाणामणिकणगकडगाणि अ (तुडिअाणि अ वत्थाणि अाभरणाणि अ) सो चेव गमो (तए णं से भरहे राया सिंधूए देवीए इमेयारूवं पोइदाणं पडिच्छइ 2 ता सिंधु देवि सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता) पडिविसज्जेइ / तए णं से भरहे राया पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ 2 ता हाए कयबलिकम्मे (मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ 2 ता) जेणेव भोषणमंडवे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्टमभत्तं परियादियइ 2 ता (भोप्रणमंडवानो पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव बाहिरिमा उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता) सोहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीआइ 2 ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीयो सद्दावेइ 2 त्ता जाव' अट्टाहिआए महामहिमाए तमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति / [63] प्रभास तीर्थकुमार को विजित कर लेने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के परिसम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला / (आकाश में अधर अवस्थित हुया / वह एक हजार यक्षों से संपरिवृत था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि से गगन-मंडल को आपूरित करते हुए) उसने सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की अोर प्रयाण किया। राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को जब सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर जाते हुए देखा तो वह मन में बहुत हर्षित हुअा, परितुष्ट हुअा। जहाँ सिन्धु देवी का भवन था, उधर आया। आकर, सिन्धु देवी के भवन के न अधिक दूर और न अधिक समीप --थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा, श्रेष्ठ नगर के सदृश सैन्य-शिविर स्थापित किया। (वैसा कर वर्धकिरत्न को अपने निपुण शिल्पकार को बुलाया / बुलाकर उससे कहा- देवानुप्रिय ! मेरे लिए प्रावास-स्थान तथा पौषधशाला का शीघ्र निर्माण करो। निर्माण कार्य सुसम्पन्न कर मुझे ज्ञापित करो। राजा भरत ने जब उस शिल्पकार को ऐसा कहा तो वह अपने मन में हर्षित, परितुष्ट तथा प्रसन्न हुआ। हाथ जोड़कर 'स्वामी ! अापकी जो आज्ञा' ऐसा कहते हुए उसने विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया। राजा के लिए उसने आवास-स्थान तथा पौषधशाला का निर्माण किया। निर्माण-कार्य समाप्त कर शीघ्र ही राजा को ज्ञापित किया। तदनन्तर राजा भरत अपने चातुर्घण्ट अश्वरथ से नीचे उतरा। नीचे उतर कर जहाँ पौषधशाला थी, वहाँ आया / पौषधशाला में प्रविष्ट हुआ। उसका प्रमार्जन किया—सफाई की। प्रमार्जन कर डाभ का बिछौना बिछाया। बिछौना बिछाकर उस पर बैठा। बैठकर) उसने सिन्धु देवी को उद्दिष्ट कर---तत्साधना हेतु तीन दिनों का उपवास-तेले की तपस्या स्वीकार की। तपस्या का संकल्प कर उसने पौषधशाला में पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। (मणिस्वर्णमय आभूषण 1. देखें मूत्र 34 2. देखें मूत्र 44 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र शरीर से उतारे / माला, वर्णक-चन्दन आदि सुरभित पदार्थों के देहगत विलेपन प्रादि दूर किये। शस्त्र--कटार आदि, मूसल–दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे / ) यों डाभ के बिछौने पर उपगत, तेले की तपस्या में अभिरत भरत मन में सिन्धु देवी का ध्यान करता हुआ स्थित हुआ / भरत द्वारा यों किये जाने पर सिन्धु देवी का आसन चलित हुआ--उसका सिंहासन डोला / सिन्धु देवी ने जब अपना सिंहासन डोलता हुआ देखा, तो उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान द्वारा उसने भरत को देखा, तपस्यारत, ध्यानरत जाना / देवी के मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ—जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है / अतीत, प्रत्युत्पन्न, अनागत-भूत, वर्तमान तथा भविष्यवर्ती सिन्धु देवियों के लिए यह समुचित है, परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें / इसलिए मैं भी जाऊँ, राजा को उपहार भेंट करूं। यों सोचकर देवी रत्नमय एक हजार आठ कलश, विविध मणि, स्वर्ण, रत्नाञ्चित चित्रयुक्त दो स्वर्ण-निर्मित उत्तम प्रासन, कटक, टित [वस्त्र तथा अन्यान्य आभूषण लेकर तीव्र गतिपूर्वक वहाँ आई और राजा से बोली- अापने भरतक्षेत्र को विजय कर लिया है। मैं आपके देश में राज्य में निवास करने वाली आपकी आज्ञाकारिणी सेविका हूँ। देवानुप्रिय ! मेरे द्वारा प्रस्तुत रत्नमय एक हजार पाठ कलश, विविध मणि, स्वर्ण, रत्नांचित चित्रयुक्त दो स्वर्णनिर्मित उत्तम आसन, कटक (त्रुटित, वस्त्र तथा अन्यान्य प्राभूषण) ग्रहण करें / आगे का वर्णन पूर्ववत् है / (तब राजा भरत ने सिन्धु देवी द्वारा प्रस्तुत प्रीतिदान स्वीकार कर सिन्धु देवी का सत्कार किया, सम्मान किया और उसे विदा किया। बैसा कर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला / जहाँ स्नानघर था, वहाँ प्राया। उसने स्नान किया, नित्य-नामत्तिक कृत्य किये / (स्नानघर से वह बाहर निकला। बाहर निकल कर) जहाँ भोजन-मण्डप था, वहाँ आया। वहाँ पाकर भोजन-मण्डप में सुखासन से बैठा, तेले का पारणा किया। (भोजन-मण्डप से वह बाहर निकला / बाहर निकलकर, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ पाया / वहाँ आकर) पूर्वाभिमुख हो उत्तम सिंहासन पर बैठा / सिंहासन पर बैठकर अपने अठारह श्रेणी-प्रश्रेणी-अधिकृत पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा कि अष्ट दिवसीय महोत्सव का आयोजन करो / मेरे आदेशानुरूप उसे परिसम्पन्न कर मुझे सूचित करो। उन्होंने सब वैसा ही किया / वैसा कर राजा को यथावत् ज्ञापित किया। वैताढ्य-विजय 64. तए णं से दिवे चक्करयणे सिंधुए देवीए अट्टाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणोए प्राउहघरसालाओ तहेव (पडिणिक्खमइ 2 ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिप्रसहसण्णिणादेणं पूरते चेव अंबरतलं) उत्तरपुरच्छिमं दिसि वेअद्धपव्वयाभिमुहे पयाए आवि होत्था। तए णं से भरहे राया (तं दिव्वं चक्करयणं उत्तरपुरच्छिमं दिसि वेअद्धपव्वयाभिमुहं पयातं चावि पासइ 2 त्ता) जेणेव वेश्रद्धपव्वए जेणेव वेअद्धस्स पन्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे तेणेव उवागच्छद 2 ता वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे दुवालसजोअणायाम णवजोप्रणविच्छिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेसं करेइ 2 ता जाव' वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ 2 त्ता 1. देखें सूत्र 50 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [115 पोसहसालाए (पोसहिए बंभयारी उम्मुक्कमणिसुवणे वगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्थमुसले दम्भसंथारोवगए) अट्ठमभत्तिए वेअद्धगिरिकुमारं देवं मणसि करेमाणे 2 चिटुइ / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स पासणं चलइ, एवं सिंधुगमो अव्वो, पीइदाणं आभिसेक्कं रयणालंकारं कडगाणि अतुडिआणि अ वत्थाणि अाभरणाणि अ गेण्हइ 2 त्ता ताए उक्किट्ठाए जाव' अट्टाहिरं (महामहिमं करेइ 2 त्ता एमाणत्तिअं) पच्चप्पिणंति / 164] सिन्धुदेवी के विजयोपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न पूर्ववत् शस्त्रागार से बाहर निकला / (वाहर निकल कर आकाश में अधर अवस्थित हुआ। वह एक हजार यक्षों से संपरिवत था। दिव्य वाद्यध्वनि से गगन-मण्डल को आपूर्ण कर रहा था।) उसने उत्तर-पूर्व दिशा में-ईशानकोण में वैताढय पर्वत की ओर प्रयाण किया। राजा भरत (उस दिव्य चक्ररत्न को उत्तर-पूर्व दिशा में वैताढय पर्वत की ओर जाता हुआ देखकर) जहाँ वैताढय पर्वत था, उसके दाहिनी ओर की तलहटी थी, वहाँ आया / वहाँ बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा सैन्य-शिविर स्थापित किया। वैताढयकुमार देव को उद्दिष्ट कर उसे साधने हेतु तोन दिनों का उपवास-तेले की तपस्या स्वीकार की। पौषधशाला में (पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया / मणि-स्वर्णमय प्राभूषण शरीर से उतारे / माला, वर्णक - चन्दनादि सुरभित पदार्थों के देहगत विलेपन आदि दूर किये / शस्त्र--कटार आदि, मूसल-दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे। वह डाभ के बिछौने पर संस्थित हुआ।) तेले की तपस्या में स्थित मन में वैताढय गिरिकुमार का ध्यान करता हुआ अवस्थित हुआ / भरत द्वारा यों तेले की तपस्या में निरत होने पर वैताढय गिरिकुमार का आसन डोला। आगे का प्रसंग सिन्धु देवी के प्रसंग जैसा समझना चाहिए। वैताढय गिरिकुमार ने राजा भरत को प्रीतिदान भेंट करने हेतु राजा द्वारा धारण करने योग्य रत्नालंकार -रत्नाञ्चित मुकुट, कटक, त्रुटित, वस्त्र तथा अन्यान्य आभूषण लिये। तीव्र गति से वह राजा के पास आया। आगे का वर्णन सिन्धु देवी के वर्णन जैसा है। राजा की प्राज्ञा से अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित कर आयोजकों ने राजा को सूचित किया। तमिस्रा-विजय 65. तए णं से दिव्वे चक्करयणे अट्ठाहियाए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए (पाउहघरसालानो पडिणिक्खमइ 2 ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्बतुडिअसहसणिणादेणं पूरते चेव अंबरतलं) पच्चस्थिमं दिसि तिमिसगुहाभिमुहे पयाए आवि होत्था / तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं (अंतलिक्खपडिवणं जक्खसहस्ससंपरिवुडं दिवं तुडिअसद्दसणिणादेणं पूरतं चेव अंबरतलं) पच्चत्थिमं दिसि तिमिसगुहाभिमुहं पयातं पासइ 2 ता हतचित्त जावर तिमिसगुहाए अदूरसामंते दुवालसजोप्रणायाम णवजोग्रणविच्छिण्णं (वरणगरसरिच्छे विजयखंधावारनिवेसं करेइ 2 ता) कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ 2 त्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी 1. देखें सूत्र 34 2. देखें सूत्र 48 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र (उम्मुक्कमणिसुवणे ववगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्थमुसले दम्भसंथारोवगए अटुमभत्तिए) कयमालगं देवं मणसि करेमाणे 2 चिट्ठइ / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि कयमालस्स देवस्स आसणं चलइ तहेव जाव वेअद्धगिरिकुमारस्स णवरं पोइदाणं इत्थीरयणस्स तिलगचोहसं भंडालंकारं कडगाणि अ (तुडिआणि अवत्थाणि अ) गेण्हइ 2 ता ताए उक्किट्ठाए जाव सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता पडिविसज्जेइ (तए णं से भरहे राया पोसहसालारो पडिणिक्खमइ 2 त्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ 2 ता हाए कयबलिकम्मे मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ) भोप्रणमंडवे, तहेव महामहिमा कयमालस्स पच्चप्पिणंति / 65] अष्ट दिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न (शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकल कर आकाश में अधर अवस्थित हुआ / वह एक हजार यक्षों से संपरिवृत था। दिव्य वाद्य-ध्वनि से गगन-मण्डल को श्रापूर्ण कर रहा था / ) पश्चिम दिशा में तमिस्रा गुफा की ओर आगे बढ़ा। राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को (आकाश में अधर अवस्थित, एक हजार यक्षों से संपरिवृत, दिव्य वाद्य-ध्वनि से गगन-मण्डल को प्रापूर्ण करते हुए) पश्चिम दिशा में तमिस्रा गुफा की अोर आगे बढ़ते हुए देखा / उसे यों देखकर राजा अपने मन में हर्षित हुआ, परितुष्ट हमा। उसने तमिस्रा गुफा से न अधिक दूर, न अधिक समीप-थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा और नो योजन चौड़ा (श्रेष्ठ नगर के सदृश) सैन्य-शिविर स्थापित किया। कृतमाल देव को उद्दिष्ट कर उसने तेले की तपस्या स्वीकार की। तपस्या का संकल्प कर उसने पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। (मणि-स्वर्णमय आभूषण शरीर से उतारे। माला, वर्णक-चन्दनादि सुरभित पदार्थों के देहस्थ विलेपन आदि दूर किये / शस्त्र-कटार आदि, मूसल—दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे / डाभ के बिछौने पर उपगत हुा / तेले की तपस्या में अभिरत) राजा भरत मन में कृतमाल देव का ध्यान करता हुआ स्थित हुआ। भरत द्वारा यों तेले की तपस्या में अभिरत हो जाने पर कृतमाल देव का आसन चलित हुअा। आगे का वर्णन-क्रम वैसा ही है, जैसा वैताढय गिरिकुमार का है / इतमाल देव ने राजा भरत को प्रोतिदान देने हेतु राजा के स्त्री-रत्न के लिए -रानी के लिए रत्न-निर्मित चौदह तिलक--ललाट-आभूषण सहित आभूषणों की पेटी, कटक (त्रुटित तथा वस्त्र आदि) लिये। उन्हें लेकर वह शीघ्र गति से राजा के पास आया। उसने राजा को ये उपहार भेंट किये / राजा ने उसका सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार-सम्मान कर फिर वहाँ से विदा किया। फिर राजा भरत (पौषधशाला से बाहर निकला / बाहर निकलकर, जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। वहाँ पाकर उसने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कृत्य किये। वैसा कर स्नानघर से बाहर निकला।) भोजन-मण्डप में आया। आगे का वर्णन पूर्ववत् है / कृतमाल देव को विजय करने के उपलक्ष्य में राजा के आदेश से अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित हुआ। महोत्सव के सम्पन्न होते ही प्रायोजकों ने राजा को वैसी सूचना की। निष्कुट-विजयार्थ सुषेण की तैयारी 66. तए णं से भरहे राया कयमालस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावई सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी—गच्छाहि णं भो देवाणुप्पिा ! सिंधूए महाणईए 3. देख सूत्र सख्या 34 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [117 पच्चथिमिल्लं णिक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अ ओअवेहि ओअवेत्ता अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छाहि अग्गाई० पडिच्छित्ता ममेप्रमाणत्तिपच्चप्पिणाहि / ___तते णं से सेणावई बलस्स आ भरहे वासंमि विस्सुअजसे महाबलपरक्कमे महप्पा प्रोग्रेसी तेअलक्खणजुत्ते मिलक्खुभासाविसारए चित्तचारुभासी भरहे वासंमि णिक्खुडाणं निष्णाण य दुग्गमाण य दुप्पवेसाण य विआणए अत्थसत्थकुसले रयणं सेणावई सुसेणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठचित्तमाणदिए जाव' करयलपरिग्गहि दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं सामी ! तहत्ति प्राणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ 2 ता भरहस्स रण्णो अंतिप्राओ पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव सए प्रावासे तेणेव उवागच्छइ 2 ता कोडुबियपुरिसे सहावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्येह हयगयरहपवर-(जोहकलिअं) चाउरंगिणि सेण्णं सण्णाहेहत्ति कटु जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ 2 ता मज्जणघरं अणुपविसइ 2 ता ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउअमंगलपायच्छित्ते सन्नद्धबद्धवम्मिअकवए उप्पी लिअसरासणपट्टिए पिणद्धगेविज्जबद्धाविद्धविमलवरचिधपट्टे गहिसाउहप्पहरणे अणेगगणनायगदंडनायग जाव' सद्धि. संपरिवुडे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मंगलजयसद्दकयालोए मज्जणघरानो पडिणिवखमइ 2 ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव आभिसेक्के हस्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता प्राभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरूढे / [66] कृतमाल देव के विजयोपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर राजा भरत ने अपने सुषेण नामक सेनापति को बुलाया / बुलाकर उससे कहा---देवानुप्रिय ! सिंधु महानदी के पश्चिम में विद्यमान, पूर्व में तथा दक्षिण में सिन्धु महानदी द्वारा, पश्चिम में पश्चिम समद्र द्वारा तथा उत्तर में वैतादय पर्वत द्वारा विभक्त-मर्यादित भरतक्षेत्र के कोणवर्ती खण्डरूप निष्कुट प्रदेश को, उसके सम, विषम अवान्तर-क्षेत्रों को अधिकृत करो---मेरे अधीन बनायो / उन्हें अधिकृत कर उनसे अभिनव, उत्तम रत्न अपनी-अपनी जाति के उत्कृष्ट पदार्थ गृहीत करो-प्राप्त करो / मेरे इस आदेश की पूति हो जाने पर मुझे इसकी सूचना दो / भरत द्वारा यों अाज्ञा दिये जाने पर सेनापति सुषेण चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हा / सुषेण भरतक्षेत्र में विश्रुतयशा-बड़ा यशस्वी था। विशाल सेना का वह अधिनायक था, अत्यन्त बलशाली तथा पराक्रमी था / स्वभाव से उदात्त---बड़ा गम्भीर था। ओजस्वी-आन्तरिक प्रोजयुक्त, तेजस्वी शारीरिक तेजयुक्त था। वह पारसी, अरबी आदि भाषाओं में निष्णात था। उन्हें बोलने में समझने में. उन द्वारा औरों को समझाने में समर्थ था। वह विविध प्रकार से चारुसन्दर शिष्ट भाषा-भाषी था। निम्न-नीचे, गहरे, दुर्गम-जहाँ जाना बड़ा कठिन हो, दुष्प्रवेश्यजिनमें प्रवेश करना दुःशक्य हो, ऐसे स्थानों का विशेषज्ञ था—विशेष जानकार था / अर्थशास्त्रनीतिशास्त्र आदि में कुशल था / सेनापति सुषेण ने अपने दोनों हाथ जोड़े / उन्हें मस्तक से लगाया-- 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखे सूत्र संख्या 44 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aa की दृष्टि से नेत्रों में 118) / जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र मस्तक पर से घुमाया तथा अंजलि बाँधे 'स्वामी! जो अाज्ञा' यों कहकर राजा का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया। ऐसा कर वह वहाँ से चला। चलकर जहाँ अपना प्रावास-स्थान था, वहाँ पाया / वहाँ आकर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर उनको कहा--देवानुप्रियो ! आभिषेक्य हस्तिरत्न को-गजराज को तैयार करो, घोड़े, हाथी, रथ तथा उत्तम योद्धाओं पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना को सजानो। ऐसा आदेश देकर वह जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया / स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नान किया. नित्य-नैमित्तिक कृत्य किये, कौतक-मंगल-प्रायश्चित्त किया--देहसज्जा की दष्टि से ने अंजन प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, दु:स्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दही, अक्षत प्रादि से मंगल-विधान किया। उसने अपने शरीर पर लोहे के मोटे मोटे तारों से निर्मित कवच कसा, धनुष पर दृढता के साथ प्रत्यञ्चा आरोपित की / गले में हार पहना / मस्तक पर अत्यधिक वीरतासूचक निर्मल, उत्तम वस्त्र गांठ लगाकर बांधा / बाण आदि क्षेप्य-दूर फेंके जाने वाले तथा खड्ग आदि अक्षेप्य-पास ही से चलाये जाने वाले शस्त्र धारण किये / अनेक गणनायक, दण्डनायक आदि से वह घिरा था / उस पर कोरंट पुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र तना था। लोग मंगलमय जय-जय शब्द द्वारा उसे वर्धापित कर रहे थे। वह स्नानघर से बाहर निकला / बाहर निकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, ग्राभिषेक्य हस्तिरत्न था, वहाँ आया / आकर उस गजराज पर आरूढ हुआ। चर्मरत्न का प्रयोग 67. तए णं से सुसेणे सेणावई हत्थिखंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं हयगयरहपवरजोहकलिआए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुडे महयाभडचडगरपहगरवंदपरिक्खित्ते महयाउक्किट्ठसीहणायबोलकलकलसद्देणं समुद्दरवभूयंपिव करेमाणे 2 सव्विड्डीए सब्वज्जुईए सव्वबलेणं (सव्वसमुदयेणं सव्वायरेणं सवविभूसाए. सम्वविभूईए सव्ववत्थपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सव्वतुडिअसहसणिणाएणं सव्विड्डीए सव्ववर-तुडिअ-जमगसमगपवाइएणं संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिमुरयमुइंगदुदुहि-) णिग्घोसणाइएणं जेणेव सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छइ 2 ता चम्मरयणं परामुसइ। तए णं तं सिरिवच्छसरिसरूवं मुत्ततारद्धचंदचित्तं अयलमकंपं अभेज्जकवयं जंतं सलिलासु सागरेसु अ उत्तरणं दिव्वं चम्मरयणं सणसत्तरसाई सव्वधण्णाइं जत्थ रोहंति एगदिवसेण वाविप्राइं, वासं णाऊण चक्कट्टिणा परामुट्ठ दिवे चम्मरयणे दुवालस जोअणाई तिरि पवित्थरइ तत्थ साहिआई, तए णं से दिव्वे चम्मरयणे सुसेणसेणावइणा परामुळे समाणे खिप्पामेव गावाभूए जाए होत्था / तए णं से सुसेणे सेणावई सखंधावारबलवाहणे गावाभूयं चम्मरयणं दुरूहइ 2 ता सिंधुमहाणई विमलजलतुगवीचि गावाभूएणं चम्मरयणेणं सबलवाहणे ससेणे समुत्तिण्णे। [67/ कोरंट पुष्प की मालाओं से युक्त छत्र उस पर लगा था, घोडे, हाथी, उत्तम योद्धाओं—पदा. तियों से युक्त सेना से वह संपरिवृत था। विपुल योद्धाओं के समूह से वह समवेत था। उस द्वारा किये गये गम्भीर, उत्कृष्ट सिंहनाद की कलकल ध्वनि से ऐसा प्रतीत होता था, मानो समुद्र गर्जन कर रहा हो / सब प्रकार की ऋद्धि, सब प्रकार की द्युति—आभा, सब प्रकार के बल सैन्य, शक्ति से युक्त (सर्वसमुदय - सभी परिजन सहित, समादरपूर्ण प्रयत्नरत, सर्वविभूषा--सब प्रकार की वेशभूषा, वस्त्र, Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [119 आभरण प्रादि द्वारा सज्जित, सर्वविभूति-सब प्रकार के वैभव, सब प्रकार के वस्त्र, पुष्प सुगन्धित पदार्थ, फूलों की मालाएँ, अलंकार अथवा फूलों की मालानों से निर्मित आभरण - इनसे वह सुसज्जित था / सर्व प्रकार के वाद्यों की ध्वनि-प्रतिध्वनि, शंख, पणव --- पात्र विशेष पर मढे हुए ढोल, पटहबड़े ढोल, भेरी, झालर, खरमुही, मुरज-ढोलक, मृदंग तथा नगाड़े इनके समवेत घोष के साथ) वह जहाँ सिन्धु महानदी थी, वहाँ पाया। वहाँ आकर चर्म-रत्न का स्पर्श किया। वह चर्म-रत्न श्रीवत्स–स्वस्तिक-विशेष जैसा रूप लिये था / उस पर मोतियों के, तारों के तथा अर्धचन्द्र के चित्र बने थे। वह अचल एवं अकम्प था / वह अभेद्य कवच जैसा था / नदियों एवं समुद्रों को पार करने का यन्त्र-अनन्य साधन था। दैवी विशेषता लिये था। चर्म-निर्मित वस्तुओं में वह सर्वोत्कृष्ट था। उस पर बोये हुए सत्तरह प्रकार के धान्य एक दिन में उत्पन्न हो सके, वह ऐसी विशेषता लिये था। ऐसी मान्यता है कि गृहपतिरत्न इस चर्म-रत्न पर सूर्योदय के समय धान्य बोता है, जो उग कर दिन भर में पक जाते हैं, गृहपति सायंकाल उन्हें काट लेता है। चक्रवर्ती भरत द्वारा परामष्ट वह चर्मरत्न कुछ अधिक बारह योजन विस्तृत था। सेनापति सुषेण द्वारा छाए जाने पर चर्मरत्न शीघ्र ही नौका के रूप में परिणत हो गया। सेनापति सुषेण सैन्य-शिविर -छावनी में विद्यमान सेना एवं हाथी, घोड़े, रथ आदि वाहनों सहित उस चर्म-रत्न पर सवार हुआ। सवार होकर निर्मल जल की ऊँची उठती तरंगों से परिपूर्ण सिन्धु महानदी को दलबलसहित, सेनासहित पार किया। विशाल विजय 68. तओ महाणईमुत्तरित्तु सिंधु अप्पडिहयसासणे अ सेणावई कहिंचि गामागरणगरपन्वयाणि खेडकब्बडमडंबाणि पट्टणाणि सिंहलए बब्बरए अ सव्वं च अंगलोअं बलायालोअं च परमरम्मं जवणदीवं च पवरमणिरयणगकोसागारसमिद्धं आरबके रोमके अ अलसंडविसयवासी अ पिक्खुरे कालमुहे जोणए अ उत्तरवेअड्डसंसियाओ अ मेच्छजाई बहुप्पगारा दाहिणप्रवरेण जाव सिंधुसागरंतोत्ति सव्वपवरकच्छं अ ओप्रवेऊण पडिणिप्रत्तो बहुसमरमणिज्जे अ भूमिभागे तस्स कच्छस्स सुहणिसण्णे, ताहे ते जणक्याण णगराण पट्टणाण य जे अतहिं सामिआ पभूआ आगरपती अ मंडलपती अ पट्टणपती अ सव्वे घेत्तूण पाहुडाई आभरणाणि भूसणाणि रयणाणि य वत्थाणि अ महरिहाणि अण्णं च जं वरिठें रायारिहं जं च इच्छिअव्वं ए सेगावइस्स उवणेति मत्थयकयंजलिपुडा, पुणरवि काऊण अंजलि मत्थयंमि पणया तुब्भे अम्हेऽत्थ सामिआ देवयंव सरणागया मो तुम्भं विसयवासिगोत्ति विजयं जपमाणा सेणावइणा जहारिहं ठविअ पूइन विसज्जिआ णिअत्ता सगाणि णगराणि पट्टणाणि अणुपविट्ठा, ताहे सेणावई सविणओ घेत्तूण पाहुडाई आभरणाणि भूसणाणि रयणाणि य पुणरवि तं सिंधुणामधेज्ज उत्तिणे अणहसासणबले, तहेव भरहस्स रणो णिवेएइ णिवेइत्ता य अप्पिणित्ता य पाहुडाई सक्कारिश्रसम्माणिए सहरिसे विसज्जिए सगं पडमंडवमइगए। तते णं सुसेणे सेणावई हाए कयबलिकम्मे कयकोउअमंगलपायच्छित्ते जिमिअभुत्तुत्तरागए Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र समाणे (आयंते चोक्खे परमसुईभूए) सरसगोसीसचंदणुक्खित्तगायसरीरे उपि पासायवरगए फुट्टमाणेहि मुइंगमत्थरहिं बत्तीसइबद्ध हि गाडएहि वरतरुणीसंपउत्तेहि उवणच्चिज्जमाणे 2 उवगिज्जमाणे 2 उवलालि (लभि) ज्जमाणे 2 महयाहयणट्टगीअवाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडुप्पवाइअरवेणं इठे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे भुजमाणे विहरइ / [68] सिन्धु महानदी को पार कर अप्रतिहत-शासन—जिसके आदेश का उल्लंघन करने में कोई समर्थ नहीं था, वह सेनापति सुषेण ग्राम, आकर, नगर, पर्वत, खेट, कर्वट, मडम्ब, पट्टन आदि जीतता हुया, सिंहलदेशोत्पन्न, बर्बरदेशोत्पन्न जनों को, अंगलोक, बलावलोक नामक क्षेत्रों को, अत्यन्त रमणीय, उत्तम मणियों तथा रत्नों के भंडारों से समृद्ध यवन द्वीप को, अरब देश के, रोम देश के लोगों को अलसंड-देशवासियों को, पिक्खुरों, कालमुखों, जोनकों-- विविध म्लेच्छ जातीय जनों को तथा उत्तर वैताढ्य पर्वत की तलहटी में वसी हुई बहुविध म्लेच्छ जाति के जनों को, दक्षिण-पश्चिम-नैऋत्यकोण से लेकर सिन्धु नदी तथा समुद्र के संगम तक के सर्वप्रवर ---सर्वश्रेष्ठ कच्छ देश को साधकर-जीतकर वापस मुड़ा / कच्छ देश के अत्यन्त सुन्दर भूमिभाग पर ठहरा / तब उन जनपदों देशों, नगरों, पत्तनों के स्वामी, अनेक आकरपति–स्वर्ण आदि की खानों के मालिक, मण्डलपति, पत्तनपतिवृन्द ने आभरण –अंगों पर धारण करने योग्य अलंकार, भूषण--उपांगों पर धारण करने योग्य अलंकार, रत्न, बहुमूल्य वस्त्र, अन्यान्य श्रेष्ठ, राजोचित वस्तुएँ हाथ जोड़कर, जुड़े हुए हाथ मस्तक से लगाकर उपहार के रूप में सेनापति सुषेण को भेंट की। वापस लौटते हुए उन्होंने पुनः हाथ जोड़े, उन्हें मस्तक से लगाया, प्रणत हुए। वे बड़ी नम्रता से बोले—'आप हमारे स्वामी हैं। देवता की ज्यों आपके हम शरणागत हैं, आपके देशवासी हैं / इस प्रकार विजयसूचक शब्द कहते हुए उन सबको सेनापति सुषेण ने पूर्ववत् यथायोग्य कार्यों में प्रस्थापित किया, नियुक्त किया, उनका सम्मान किया और उन्हें विदा किया। वे अपने अपने नगरों, पत्तनों आदि स्थानों में लौट आये। अपने राजा के प्रति विनयशील, अनुपहत-शासन एवं बलयुक्त सेनापति सुषेण ने सभी उपहार, आभरण, भूषण तथा रत्न लेकर सिन्धु नदी को पार किया। वह राजा भरत के पास आया / आकर जिस प्रकार उस देश को जीता, वह सारा वृत्तान्त राजा को निवेदित किया। निवेदित कर उससे प्राप्त सभी उपहार राजा को अर्पित किये। राजा ने सेनापति का सत्कार किया, सम्मान किया, सहर्ष विदा किया / सेनापति तम्ब में स्थित अपने प्रावास-स्थान में पाया। ___तत्पश्चात् सेनापति सुषेण ने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कृत्य किये, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दही, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया / फिर उसने राजसी ठाठ से भोजन किया / भोजन कर विश्रामगृह में आया / (आकर शुद्ध जल मे हाथ, मुंह आदि धोये, शुद्धि की / शरीर पर ताजे गोशीर्ष चन्दन का जल छिड़का, ऊपर अपने आवास में गया / वहाँ मृदंग बज रहे थे / सुन्दर, तरुण स्त्रियाँ बत्तीस प्रकार के अभिनयों द्वारा नाटक कर रही थीं। सेनापति की पसन्द के अनुरूप नत्य आदि क्रियानों द्वारा वे उसके मन को अनुरंजित करती थीं। नाटक में गाये जाते गीतों के अनुरूप वीणा, तबले एवं ढोल बज रहे थे / मृदंगों से बादल की-सी गंभीर ध्वनि निकल रही थी। वाद्य बजाने वाले वादक अपनी अपनी वादन-कला में बड़े निपुण थे। निपुणता से अपने अपने वाद्य वजा रहे थे। मेना Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृतीय वक्षस्कार] [121 पति सुषेण इस प्रकार अपनी इच्छा के अनुरूप शब्द, स्पर्श, रम, रूप तथा गन्धमय पांच प्रकार के मानवोचित, प्रिय कामभोगों का आनन्द लेने लगा। तमिस्रा गुफा : दक्षिणद्वारोद्घाटन 66. तए णं से भरहे राया अण्णया कयाई सुसेणं सेणावई सहावेइ 2 ता एवं वयासीगच्छ णं खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विधाडेहि 2 त्ता मम एअमत्ति पच्चप्पिणाहि त्ति। तए णं से सुसेणे सेणावई भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुटुचित्तमाणदिए जाव' करयलपरिग्गहिर सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु (एवं सामित्ति आणाए विणएणं वयणं) पडिसुणेइ 2 ता भरहस्स रण्णो अंतियानो पडिमिक्खिमइ 2 त्ता जेणेव सए प्रावासे जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ 2 ता दब्भसंथारगं संथरइ (संथरित्ता दम्भसंथारगं दुरूहइ 2 ता) कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जावअट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ 2 सा व्हाए कयबलिकम्मे कयकोउअमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरे धूवपुप्फगंधमल्लहत्थगए मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा तेणेव पहारेत्थ गमणाए / तए णं तस्स सुसेणस्स सेणावइस्स बहवे राईसरतलवरमाडंबिन जाव' सत्थवाहप्पभिइयो अप्पेगइआ उप्पलहत्थगया जाव' सुसेणं सेणावई पिट्ठओ 2 अणुगच्छंति / तए णं तस्स सुसेणस्स सेणावइस्स बहूईओ खुज्जाओ चिलाइआओ (वामणिग्रानो वडभीयो बम्बरोओ बउसिआओ जोणियाओ पल्हवियानो ईसिणियायो चारुकिणियानो लासियामो लउसियाओ दमिलोआओ सिंह लियाओ अरबोओ पुलिंदीओ पक्कणिआओ बहलिग्रामो मुरुडीओ सबरीओ पारसोयो) इंगिचितिअपत्थिअविआणिआश्रो जिउणकुसलाओ विणीआओ अप्पेगइयायो कलसहत्थगाओ (चंगेरीपुष्फपडलहत्थगनाओ भिगारआदंसथालपातिसुपइट्ठगवायकरगरयणकरंडपुप्फचंगेरोमल्लवण्णचुण्णगंधहत्थगआओ वत्थआभरणलोमहत्थयचंगेरीपुष्फपडलहत्थगआयो जाव लोमहत्थगनाओ अप्पेगइयाओ सोहासणहत्थगआओ छत्तचामरहत्यगाओ तिल्लसमुग्गयहत्थगनाओ) अणुगच्छंतीति / तए णं से सुसेणे सेणावई सम्विद्धोए सबजुईए जाव' णिग्घोसणाइएणं जेणेव तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता आलोए पणामं करेइ 2 ता लोमहत्थगं 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखें मुत्र संख्या 50 3. देखें सूत्र संख्या 44 4. देखें मूत्र संख्या 88 5. देखें सूत्र संख्या 52 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र परामुसइ 2 त्ता तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे लोमहत्थेणं पमज्जइ 2 त्ता दिवाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ 2 त्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितले चच्चए दलइ 2 ता अग्गेहिं वरेहि गंधेहि अ मल्लेहि अ अच्चिइ 2 ता पुप्फारहणं (मल्लगंधवण्णचुण्ण-) वत्थारुहणं करेइ 2 त्ता आसत्तोसत्तविपुलवट्ट-(वग्धारियमल्लदामकलावं) करेइ 2 ता अच्छेहि सणेहिं रययामएहि अच्छरसातंडुलेहि तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडाणं पुरओ अट्ठमंगलए आलिहइ, तंजहा-सोत्थियसिरिवच्छ-(णंदिआवत्तवद्धमाणगभद्दासणमच्छकलसप्पणए) कयग्गहगहिनकरयल-पभट्ट-चंदप्पभवइरवेरुलिअविमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुदरुक्कतुरुक्कधूवगंधुत्तमाणुविद्धच धूमट्टि विणिम्मुअंतं वेरुलिअमयं कडुच्छुअं पग्गहेतु पयते) धूवं दलयइ 2 ता वामं जाणु अचेइ 2 ता करयल जाव' मत्थए अंजलि कटु कवाडाणं पणामं करेइ 2 त्ता दंडरयणं परामुसइ / तए णं तं दंडरयणं पंचलइ वइरसारमइ विणासणं सव्वसत्तुसेण्णागं खंधावारे परवइस्स गड्ढ-दरि-विसमपन्भारगिरिवरपवायाणं समीकरणं संतिकरं सुभकरं हितकर रण्णो हिअ-इच्छिी -मणोरहपूरगं दिव्वमप्पडिहयं दंडरयणं गहाय सत्तटुपयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे दंडरयणेणं महया 2 सद्देणं तिक्खुत्तो प्राउडेइ / तए णं तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा सुसेणसेणावणा दंडरयणेणं महया 2 सद्देणं तिक्खुत्तो पाउडिया समाणा महया 2 सद्देणं कोंचारवं करेमाणा सरसरस्स सगाई 2 ठाणाई पच्चोसक्कित्था। तए णं से सुसेणे सेणावई तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेइ २त्ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता (तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता) करयलपरिग्गहि (दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि क१) जएणं विजएणं बद्धावेइ 2 त्ता एवं वयासी-विहाडिया णं देवाणुप्पिया ! तिमिसगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा एअण्णं देवाणुप्पिआणं पिअंगिवेएमो पिनं भे भवउ / तए गं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अंतिए एयम→ सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठचित्तमाणदिए जाव हिसाए सुसेणं सेणावई सक्कारेइ सम्माणेइ, सपकारिता सम्माणित्ता कोड बिअपुरिसे सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! अाभिसेक्कं हस्थिरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवर-(जोहकलिआए चाउरंगिणीए सेण्णाए सद्धि संपरिवुडे महयाभडचडगरपहगरवंदपरिक्खित्ते महया उविकडिसीहणायबोलकलकलसद्देणं समुद्दरवमूयंपिव करेमाणे) अंजणगिरिकूडसणिभं गयवरं परवई दुरुढे / [66] राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया / बुलाकर उससे कहा-'देवानुप्रिय ! जानो, शीघ्र ही तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के दोनों कपाट उद्घाटित करो। वैसा कर मुझे सूचित करो। 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखें सूत्र संख्या 44 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [123 राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर सेनापति सुषेण अपने चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा प्रानन्दित हुआ / उसने अपने दोनों हाथ जोड़े। उन्हें मस्तक से लगाया, मस्तक पर से घुमाया और अंजलि बाँधे ('स्वामी ! जैसी आज्ञा' ऐसा कहकर) विनयपूर्वक राजा का वचन स्वीकार किया। वैसा कर राजा भरत के पास से रवाना हुआ। रवाना होकर जहाँ अपना प्रावासस्थान था, जहाँ पौषधशाला थी, वहाँ आया। वहाँ आकर डाभ का बिछौना बिछाया। (डाभ का बिछौना बिछाकर उस पर संस्थित हुा / ) कृतमाल देव को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या अंगीकार की। पौषधशाला में पौषध लिया / ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। तेले के पूर्ण हो जाने पर वह पौषधशाला से बाहर निकला / बाहर निकलकर, जहाँ स्नानघर था, वहाँ पाया। पाकर स्नान किया, नित्यनैमित्तिक कृत्य किये। देहसज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, दुःस्वप्नादि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दही, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया / उत्तम, प्रवेश्य-राजसभा में, उच्च वर्ग में प्रवेशोचित श्रेष्ठ, मांगलिक वस्त्र भली-भांति पहने। थोड़े-संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। धूप, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ एवं मालाएँ हाथ में लीं / स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकल कर जहाँ तमित्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, उधर चला / माण्डलिक अधिपति, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुष, राजसम्मानित विशिष्ट जन, जागीरदार तथा सार्थवाह आदि सेनापति सुषेण के पीछे पीछे चले, जिनमें से कतिपय अपने हाथों में कमल लिये थे। बहुत सी दासियां पीछे पीछे चलती थीं, जिनमें से अनेक कुबड़ी थीं, अनेक किरात देश की थीं। (अनेक बौनी थीं, अनेक ऐसी थीं, जिनकी कमर झुकी थीं। अनेक बर्बर देश की, बकुश देश की, यूनान देश की, पलव देश की, इसिन देश को, चारुकिनिक देश की, लासक देश की, लकुश देश की, द्रविड देश की, सिंहल देश की, अरब देश की, पुलिन्द देश की, पक्कण देश की, बहल देश की, मुरुड देश की, शबर देश की तथा पारस देश की थी।) वे चिन्तित तथा अभिलषित भाव को संकेत या चेष्टा मात्र से समझ लेने में विज्ञ थीं, प्रत्येक कार्य में निपुण थीं, कुशल थीं तथा स्वभावतः विनयशील थीं। उन दासियों में से किन्हीं के हाथों में मंगल-कलश थे, (किन्हीं के हाथों में फूलों के गुलदस्तों से भरो टोकरियां, भगार-झारियां, दर्पण, थाल, रकाबी जैसे छोटे पात्र, सुप्रतिष्ठक, वातकरककरवे, रत्नकरण्डकः रत्न-मंजूषा, फलों की डलिया, माला, वर्णक, चूर्ण, गन्ध, वस्त्र, आभूषण, मोरपंखों से बनी, फूलों के गुलदस्तों से भरी डलिया, मयुरपिच्छ, सिंहासन, छत्र, चँवर तथा तिलसमुद्गक-तिल के भाजन-विशेष-डिब्बे आदि भिन्न भिन्न वस्तुएँ थीं।)। __सब प्रकार की समृद्धि तथा द्युति से युक्त सेनापति सुषेण वाद्य-ध्वनि के साथ जहाँ तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट थे, वहाँ आया। पाकर उन्हें देखते ही प्रणाम किया। मयूरपिच्छ से वनी प्रमार्जनिका उठाई। उससे दक्षिणी द्वार के कपाटों को प्रमाजित किया--साफ किया / उन पर दिव्य जल की धारा छोड़ी---दिव्य जल से उन्हें धोया / धोकर आर्द्र गोशीर्ष चन्दन से परिलिप्त पांच अंगुलियों सहित हथेली के थापे लगाये / थापे लगाकर अभिनव, उत्तम सुगन्धित पदार्थों से तथा मालाओं से उनकी अर्चना की। उन पर पुष्प (मालाएँ, सुगन्धित वस्तुएँ, वर्णक, चूर्ण) वस्त्र चढ़ाये / ऐसा कर इन सबके ऊपर से नीचे तक फैला, विस्तीर्ण, गोल (अपने में लटकाई गई मोतियों की मालाओं से युक्त) चांदनी-चंदवा ताना / चॅदवा तानकर स्वच्छ बारीक चांदी के चावलों से, जिनमें स्वच्छता के कारण समीपवर्ती वस्तुओं के प्रतिबिम्ब पड़ते थे, तमिस्रा गुफा के कपाटों के आगे स्वस्तिक, श्रीवत्स, (नन्द्यावर्त, Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र वर्धमानक, भद्रासन, मत्स्य, कलश तथा दर्पण-ये पाठ) मांगलिक प्रतीक अंकित किये / कचग्रह-- केशों को पकड़ने की ज्यों पांचों अंगुलियों से ग्रहीत पंचरंगे फूल उसने अपने करतल से उन पर छोड़े। वैदूर्य रत्नों से बना धूपपात्र उसने हाथ में लिया। धूपपात्र को पकड़ने का हत्था चन्द्रमा की ज्यों उज्ज्वल था, वज्ररत्न एवं वैदूर्यरत्न से बना था। धूप-पात्र पर स्वर्ण, मणि तथा रत्नों द्वारा चित्रांकन किया हुआ था। काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान एवं धूप की गमगमाती महक उससे उठ रही थी। सुगन्धित धुएँ की प्रचुरता से वहाँ गोल गोल धूममय छल्ले से बन रहे थे। उसने उस धूपपात्र में धूप दिया-धूप खेया। फिर उसने अपने बाएँ घुटने को जमीन से ऊँचा रखा (दाहिने घुटने को जमीन पर टिकाया) दोनों हाथ जोड़े, अंजलि रूप से उन्हें मस्तक से लगाया / वैसा कर उसने कपाटों को प्रणाम किया। प्रणाम कर दण्डरत्न को उठाया / वह दण्ड रत्नमय तिरछे अवयव-युक्त था, वज्रसार से बना था, समग्र शत्रु-सेना का विनाशक था, राजा के सैन्य-सन्निवेश में गड्ढों, कन्दराओं, ऊबड़-खाबड़ स्थलों, पहाड़ियों, चलते हुए मनुष्यों के लिए कष्टकर पथरीले टीलों को समतल बना देने वाला था। वह राजा के लिए शांतिकर, शुभकर, हितकर तथा उसके इच्छित मनोरथों का पूरक था, दिव्य था, अप्रतिहत किसी भी प्रतिघात से अबाधित था। सेनापति सुषेण ने उस दण्डरत्न को उठाया। वेग-पापादन हेतु वह सात आठ कदम पीछे हटा, तमिस्रा गुफा के दक्षिणी द्वार के किवाडों पर तीन बार या, जिससे भारी शब्द हुआ। इस प्रकार सेनापति सुषेण द्वारा दण्डरत्न से तीन बार आहत-ताड़ित कपाट क्रोञ्च पक्षी की ज्यों जोर से आवाज कर सरसराहट के साथ अपने स्थान से विचलित हुए-सरके / यों सेनापति सुषेण ने तमिस्रागुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोले / वैसा कर वह जहाँ राजा भरत था, वहाँ पाया (आकर राजा की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की)। हाथ जोड़े, (हाथों से अंजलि बांधे मस्तक को छा)। राजा को 'जय, विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित किया / वर्धापित कर राजा से कहा-देवानुप्रिय ! तमिस्रागुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट खोल दिये हैं / मैं तथा मेरे सदर यह प्रिय संवाद प्रापको निवेदित करते हैं / आपके लिए यह प्रियकर हो / राजा भरत सेनापति सुषेण से यह संवाद सुनकर अपने मन में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुआ / राजा ने सेनापति सुषेण का सत्कार किया, सम्मान किया। सेनापति को सत्कृत, सम्मानित कर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा-आभिषेक्य हस्तिरल को शीघ्र तैयार करो। उन्होंने वैसा किया / तब घोड़े, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं-पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना से परिवृत, अनेकानेक सुभटों के विस्तार से युक्त राजा उच्च स्वर से समुद्र के गर्जन के सदृश सिंहनाद करता हुआ अंजनगिरि के शिखर के समान गजराज पर आरूढ हुआ। काकरणी रत्न द्वारा मण्डल-पालेखन 70. तए णं से भरहे राया मणिरयणं परामुसइ तोतं चउरंगुलप्पमाणमित्तं च अणग्धं तंसिन छलंसं अणोवमजुई दिव्वं मणिरयणपतिसमं वेरुलि सयभूअकंतं जेण य मुद्धागएणं दुक्खं ण किंचि जाव हवइ प्रारोग्गे अ सव्वकालं तेरिच्छिअदेवमाणुसक्या य उवसग्गा सन्वे ण करेंति तस्स दुक्खं, संगामेऽवि असत्थवज्झो होइ णरो मणिवरं धरतो, ठिअजोवणकेसअवडिअणहो हवइ अ सव्वभयविष्पमुक्को, तं मणिरयणं गहाय से णरवई हत्थिरयणस्स दाहिणिल्लाए कुभीए णिविखवइ / तए णं से भरहाहिवे परिंदे हारोत्थए सुकयरइप्रवच्छे (कुडल उज्जोइआणणे मउडदित्तसिरए Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार [125 गरसीहे परवई गरिदे परवसहे मरुअरायवसम अम्भहिसरायतेअलच्छीए दिपमाण पसस्थमंगलसहि संथुब्वमाणे जयसद्दकयालोए हस्पिखंधपरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेअवरचामराहि उद्ध ब्वमाणीहि 2 जक्खसहस्ससंपरिखुडे वेसमणे चेव धणवई) अमरवइसण्णिभाए इद्धीए पहिअकित्ती मणिरयणक उज्जोए चक्करयणदेसिअभग्गे अणेगरायसहस्साणुप्रायमग्गे महयाउक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं सहरसभूपिव करेमाणे 2 जेणव तिमिसगुहाए दाहिणिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ 2 ता तिमिसगुहं दाहिणिल्लेणं दुधारेणं अईइ ससिस्व मेहंधयारनिवहं / तए गं से भरहे राया छत्तल दुवालसंसि अट्टकमि अहिगरणिसंठिअं अट्ठसोवण्णिअं कागणिरयणं परामुसइत्ति / तए गं तं चउरंगुलप्पमामि अट्टसुवण्णं च विसहरणं अउलं चउरंससंठाणसंठि समतलं माणुम्माणजोगा जतो लोगे चरंति सव्वजजपण्णवगा, ण इव चंदो ण इव तत्थ सूरे ण इव अग्गी ण इव तत्थ मणिणो तिमिरं णासेंति अंधयारे जत्थ तयं दिव्वं भावजुत्तं दुवालसजोषणाई तस्स लेसाउ विवद्धति तिमिरणिगरपडिसेहिप्रायो, रति च सव्वकालं खंधावारे करेइ पालो दिवसभूनं जस्स पभावेण चक्कवट्टी, तिमिसगुहं अतीति सेण्णसहिए अभिजेतु बितिप्रमद्धभरहं रायवरे कागणि गहाय तिमिसगुहाए पुरच्छिमिल्लपच्चशिभिल्लेसु कडएसु जोअणंतरिआई पंचधणुसयविक्खंभाई जोप्रणुज्जोअकराई चक्कणेमीसंठिआई चंदडलपडिणिकासाई एगणपण्णं मंडलाइं आलिहमाणे 2 अणुप्पविसइ / तए णं सा तिमिसगुहा भरण रण्णा तेहिं जोणतरिएहि (पंचधणुसयविक्खंभेहि) जोअणुज्जोअकरेहि एगणपण्णाए मंडलेहिं आलिहिज्जमाहि 2 खिप्पामेव पालोगभूआ उज्जोअभूआ दिवसभूया जाया यावि होत्था / [70] तत्पश्चात् राजा भरत ने मणिरल का स्पर्श किया। वह मणिरत्न विशिष्ट आकारयुक्त, सुन्दरतायुक्त था, चार अंगुल प्रमाण था, अमूल्य था-कोई उसका मूल्य प्रांक नहीं सकता था। वह तिखूटा था, ऊपर नीचे षट्कोणयुक्त था, अनुपम द्युतियुक्त था, दिव्य था, मणिरत्नों में सर्वोत्कृष्ट था, वैडूर्यमणि की जाति का था, सब लोगों का मन हरने वाला था सबको प्रिय था, जिसे मस्तक पर धारण करने से किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं रह जाता था जो सर्व-कष्ट-निवारक था, सर्वकाल प्रारोग्यप्रद था। उसके प्रभाव से तिर्यञ्च -पशु पक्षी, देव तथा मनुष्य कृत उपसर्ग-विघ्न कभी भी दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते थे। उस उत्तम मणि को धारण करने वाले मनुष्य का संग्राम में किसी भी शस्त्र द्वारा वध किया जाना शक्य नहीं था। उसके प्रभाव से यौवन सदा स्थिर रहता था, बाल तथा नाखून नहीं बढ़ते थे। उसे धारण करने से मनुष्य सब प्रकार के भयों से विमुक्त हो जाता था। राजा भरत ने इन अनुपम विशेषताओं से युक्त मणिरत्न को गृहीत कर गजराज के मस्तक के दाहिने भाग पर निक्षिप्त किया--बांधा।। भरतक्षेत्र के अधिपति राजा भरत का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था। (उसका मुख कुण्डलों से द्युतिमय था, मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था / वह नरसिंह मनुष्यों में सिंह सदृश शौर्यशाली, मनुष्यों का स्वामी, मनुष्यों का इन्द्र-परम ऐश्वर्यशाली अधिनायक, मनुष्यों में वृषभ के समान स्वीकृत कार्यभार का निर्वाहक, व्यन्तर आदि देवों के राजाओं के बीच विद्यमान प्रमुख सौधर्मेन्द्र के सदृश प्रभावशील, राजोचित तेजोमयी लक्ष्मी से उद्दीप्त, मंगलसूचक शब्दों से संस्तुत Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तथा जयनाद से सुशोभित था / वह हाथो पर प्रारूह था / कोरंट पुष्पों को मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था / उत्तम, श्वेत चँवर उस पर डुलाये जा रहे थे। वह सहस्र यक्षों से संपरिवृत कुबेर सदृश वैभवशाली प्रतीत होता था।) अपनी ऋद्धि से इन्द्र जैसा ऐश्वर्यशाली, यशस्वी लगता था / मणिरत्न से फैलते हुए प्रकाश तथा चक्ररत्न द्वारा निर्देशित किये जाते मार्ग के सहारे आगे बढ़ता हुआ, अपने पीछे-पीछे चलते हए हजारों नरेशों से युक्त राजा भरत उच्च स्वर से समद्र के गर्जन की ज्यों सिंहनाद करता हग्रा, जहाँ तमिस्रा गफा का दक्षिणी द्वार था. वहाँ आया। चन्द्रमा जिस प्रकार मेघ-जनित विपूल अन्धकार में प्रविष्ट होता है, वैसे ही वह दक्षिणी द्वार से तमिस्रा गुफा में प्रविष्ट हुआ। फिर राजा भरत ने काकणी-रत्न लिया / वह रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर नोचे छः तलयुक्त था / ऊपर, नीचे एवं तिरछे-प्रत्येक अोर वह चार चार कोटियों से युक्त था, यों बारह कोटि युक्त था। उसकी आठ कणिकाएँ थीं। अधिकरणी-स्वर्णकार लोह-निर्मित जिस पिण्डी पर सोने, चांदी आदि को पीटता है, उस पिण्डी के समान प्राकारयुक्त था / वह अष्ट सौवणिक'अष्ट स्वर्णमान-परिमाण था--तत्कालोन तोल के अनुसार आठ तोले वजन का था / वह चारअंगुल-परिमित था / विषनाशक, अनुपम, चतुरस्र-संस्थान-संस्थित, समतल तथा समुचित मानोन्मानयुक्त था, सर्वजन-प्रज्ञापक-उस समय लोक प्रचलित मानोन्मान व्यवहार का प्रामाणिक रूप में संसूचक था। जिस गुफा के अन्तर्वर्ती अन्धकार को न चन्द्रमा नष्ट कर पाता था, न सूर्य ही जिसे मिटा सकता था, न अग्नि ही उसे दूर कर सकती थी तथा न अन्य मणियाँ ही जिसे अपगत कर सकती थीं, उस अन्धकार को वह काकणी-रत्त नष्ट करता जाता था। उसकी दिव्य प्रभा बारह योजन तक विस्तृत थी / चक्रवर्ती के सैन्य-सन्निवेश में छावनी में रात में दिन जैसा प्रकाश करते रहना उस मणि-रत्न का विशेष गुण था। उत्तर भरतक्षेत्र को विजय करने हेतु उसी के प्रकाश में राजा भरत ने सैन्यसहित तमिस्रा गुफा में प्रवेश किया। राजा भरत ने काकणी रत्तं हाथ में लिए तमित्रा गुफा को पूर्व दिशावर्ती तथा पश्चिम दिशावर्ती भित्तियों पर एक एक योजन के अन्तर से पांच सौ धनुष प्रमाण विस्तीर्ण, एक योजन क्षेत्र को उद्योतित करने वाले, रथ के चक्के की परिधि की ज्यों गोल, चन्द्र-मण्डल को ज्यों भास्वर--उज्ज्वल, उनचास मण्डल प्रालिखित किये। वह तमिस्रा गुफा राजा भरत द्वारा यों एक एक योजन की दूरी पर आलिखित (पाँच सौ धनुष प्रमाण विस्तीर्ण) एक योजन तक उद्योत करने वाले उनपचास मण्डलों से शोघ्र ही दिन के समान पालोकयुक्त प्रकाशयुक्त हो गई। उन्मग्नजला, निमग्नजला महानदियाँ 71. तीसे गं तिमिसगुहाए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं उम्मग्ग-णिमग्ग-जलाओ णाम दुवे महाणईनो पण्णत्तानो, जानो णं तिमिसगुहाए पुरच्छिमिल्लानो भित्तिकउगानो पढाओ समाणोओ पच्चत्थिमेणं सिंधु महाणई समप्पैति / __ से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ उम्मग्ग-णिमग्गजलाओ महाणईओ ? 1. तत्र सुवर्ण मानमिदम्---चत्वारि मधुरतृणफलान्येक: श्वेतसर्षपः, षोडश श्वेतसर्षपा एक धान्यमाषफलम, द्वे धान्यमाषफले एका गुजा, पञ्च गुजा एकः कर्ममाषकः, षोडश कर्ममाषका एकसुवर्ण इति / चार मधुर तृणफल =एक सफेद सरसों, सोलह सफेद सरसों-एक उर्द का दाना, दो उर्द के दाने एक घुघची, पांच घंघची एक मासा, सोलह मासे-एक सूवर्ण-एक तोला।। ---श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति शान्तिचन्द्रीया वत्ति: 3 वक्षस्कारे सू. 54 . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [127 तृतीय वक्षस्कार] गोयमा ! जगणं उम्मग्गजलाए महाण ईए तणं वा पत्तं वा बटुवा सपकरं वा प्रासे वा हत्थी वा रहे वा जोहे वा मणुस्से वा पविखप्पइ तरुणं उम्मग्गजलामहाणई तिवखुत्तो आहुणिअ 2 एगते चलंसि एडेइ, जणं णिमग्गजलाए महाणईए तणं वा पत्तं वा कटू वा सक्करं वा (आसे वा हत्थी वा रहे वा जोहे वा) मणुस्से वा पविखप्पइ तण्णं णिमग्गजलामहाणई तिवखुत्तो आणि 2 अंतो गलंसि णिमज्जावेइ, से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ उम्मग्ग-णिमग्गजलाप्रो महाणईओ। तए णं से भरहे राया चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगराय० महया उक्किट्ट सीहणाय (बोलकलकलसद्देणं समुद्दरवभूयंपिय) करेमाणे 2 सिंधूए महाणईए पुरच्छिमिल्ले णं कूडे णं जेणेव उम्मग्गजला महाणई तेणेव उवागच्छइ 2 ता वद्धइरयणं सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिना! उम्मग्गणिमग्गजलासु महाणईसु अणेगखंभसयसरिणविठे अयलमकंपे अभेज्नकवए सावणबाहाए सव्वरयणामए सुहसंकमे करेहि करेत्ता मम एअमाणत्तिनं खिप्पामेव पच्चप्पिणाहि / तए णं से वद्धइरयणे भरहेणं रण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठचित्तमाणदिए जाव' विणएणं पडिसुणेइ 2 ता खिप्पामेव उम्मग्गणिमग्गजलासु महाणईसु प्रणेगखंभसयसणिविट्ठ (अयलमकंपे अमेज्जकवए सालवणवाहाए सम्वरयणामए)सुहसंकमे करेइ 2 ता जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छद 2 ता जाव' एप्रमात्तिनं पच्चप्पिणइ। तए णं से भरहे राया सखंधावारबले उम्मग्गणिमग्गजलाओ महाणईयो तेहि अणेगखंभसमसण्णिविठ्ठहि (प्रयलमकंपेहि अभेज्जकवएहि सालंबणबाहाएहि सत्वरयणामएहि) सुहसंकमेहि उत्तरह, तए णं तीसे तिमिसगुहाए उत्तरिल्लस्स दुवारस्स कवाडा सयमेव महया 2 कोंचारवं करेमाणा सरसरस्स सगाग्गाइं 2 ठाणाई पच्चोसक्किस्था। [71] तमिस्रा गुफा के ठीक बीच में उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामक दो महानदियां प्ररूपित की गई हैं, जो तमिस्रा गुफा के पूर्वी भित्तिप्रदेश से निकलती हुई पश्चिम भित्ति प्रदेश होती हुई सिन्धु महानदी में मिलती हैं / भगवन् ! इन नदियों के उन्मग्नजला तथा निमग्नजला—ये नाम किस कारण पड़े ? गौतम ! उन्मग्नजला महानदी में तृण, पत्र, काष्ठ, पाषाणखण्ड-पत्थर का टुकड़ा, घोड़ा, हाथी, रथ, योद्धा-पदाति या मनुष्य जो भी प्रक्षिप्त कर दिये जाएँ-गिरा दिये जाएँ तो वह नदी उन्हें तीन बार इधर-उधर घुमाकर किसी एकान्त, निर्जल स्थान में डाल देती है। निमग्नजला महानदी में तृण, पत्र, काष्ठ, पत्थर का टुकड़ा (घोड़ा, हाथी, रथ, योद्धापदाति) या मनुष्य जो भी प्रक्षिप्त कर दिये जाएं--गिरा दिये जाएं तो वह उन्हें तीन बार इधर-उधर घुमाकर जल में निमग्न कर देती है—डुबो देती है। गौतम ! इस कारण से ये महानदियां क्रमश: उन्मग्नजला तथा निमग्नजला कही जाती हैं। 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखें सूत्र संख्या 44 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र __ तत्पश्चात् अनेक नरेशों से युक्त राजा भरत चकरल द्वारा निर्देशित किये जाते मार्ग के सहारे आगे बढ़ता हुना उच्च स्वर से (समुद्र के गर्जन की ज्यों) सिंहनाद करता हुआ सिन्धु महानदी के पूर्वी तट पर अवस्थित उन्मग्नजला महानदी के निकट पाया / वहाँ आकर उसने अपने वर्द्धकिरत्न कोअपने श्रेष्ठ शिल्पी को बुलाया / उसे बुलाकर याही- 'देवानुप्रिय ! उन्मग्नजला तथा निमग्नजला महानदियों पर उत्तम पुलों का निर्माण करो, जो सेकड़ों खंभों पर सन्निविष्ट हों-भली-भाँति टिके हों, अचल हों, अकम्प हों-सुदृढ़ हों, कवच की ज्यों अभेद्य हों-जिनके ऊपरी पर्त भिन्न होने वाले– टूटनेवाले न हों, जिनके ऊपर दोनों ओर दीवारें बची हों, जिससे उन पर चलने वाले लोगों को चलने में पालम्बन रहे, जो सर्वथा रत्नमय हों। मेरे आदेशानुरूप यह कार्य परिसम्पन्न कर मुझे शीघ्र मूचित करो।' राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वह शिल्पी छापने चित्त में हर्षित, परितुष्ट एवं ग्रानन्दित हुआ। उसने विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया / राजाज्ञा स्वीकार कर उसने शीघ्र ही उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामक नदियों पर उत्तम पुलों का निर्माण कर दिया, जो सैकड़ों खंभों पर भली भांति टिके थे (अचल थे, अकम्प थे, कवच की ज्यों अभेद्य थे अथवा जिनके ऊपरी पर्त भिन्न होने वाले--टूटने वाले नहीं थे, जिनके ऊपर दोनों सोर दीवारें बनी थीं, जिससे उन पर चलने वालों को चलने में आलम्बन रहे, जो सर्वथा रत्नमय थे)। ऐसे पुलों की रचना कर वह शिल्पकार जहाँ जा भरत था, वहाँ आया। वहाँ अाकर राजा को अवगत कराया कि उनके आदेशानुरूप पुल-निर्माण हो गया है। तत्पश्चात् राजा भरत अपनी समग्र सेना के साथ उन पुलों द्वारा, जो सैकड़ों खंभों पर भलीभांति टिके थे (अचल थे, अकम्प थे, कवच की ज्यों अभेद्य थे अथवा जिनके ऊपरी पर्त भिन्न होने वाले-टूटने वाले नहीं थे, जिनके ऊपर दोनों मोवारें बनी थीं, जिससे उन पर चलने वालों को चलने में पालम्बन रहे, जो सर्वथा रत्नमय थे), उन्मग्नजला तथा निमग्नजल नामक नदियों को पार किया / यों ज्योंही उसने नदियां पारं की, नमिम्रा गुफा के उत्तरी द्वारा के कपाट क्रोञ्च पक्षी की तरह अावाज करते हुए सरसराहट के साथ अपने ग्राप सपने स्थान से सरक गये-खुल गये / आपात किरातों से संग्राम 72. तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरडनरहे वासे बहवे आवाडा णाम चिलाया परिवसंति, अड्डा दित्ता वित्ता विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइन्ना बहुधणबहुजायरूवरयया आओगपप्रोगसंपउत्ता विच्छड्डिअपउरभतपाणा बहुदासदासगोमाहिसगवेलगप्पभूआ बहुजणस्स अपरिभूया सूरा वीरा विक्कता विच्छिण्णविउलबलवाहणा बहसु समरसंपराएसु लद्धलक्खा यावि होत्था। __ तए णं तेसिमावाडचिलायाणं अण्णया कयाई विसयंसि बहूइं उप्पाइअसयाई पाउन्भविस्था, तंजहा-अकाले गज्जिअं, अकाले विज्जुमा, अकाले पायवा पुष्फंति, अभिक्खणं 2 मागासे देवयाओ णचंति। तए णं ते आवाडचिलाया विसयंसि बहूई उभ्याइअसयाई पाउन्भूयाई पासंति पासित्ता अण्णमण्णं सदाति 2 ता एवं वयासो-एवं खलु देवाणुप्पिा ! आम्हं विसयंसि बहूई उप्पाइअसयाई पाउन्भूआई तंजहा—अकाले गज्जिन, अकाले विज्जुआ, अकाले पायवा पुष्फंति, अभिक्खगं 2 अागासे देवयाओ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार [129 गच्चंति, तं ण णज्जइ णं देवाणुप्पिा ! अम्हं विसयस्स के मन्ने उवद्दवे भविस्सइत्ति कटु ओहयमणसंकप्पा चिंतासोगसागरं पविट्ठा करयलपल्हत्थमुहा अट्टज्माणोवगया भूमिगयदिट्ठिा झिायंति। तए णं से भरहे राया चक्करयणदेसिअमग्गे (अणेगरायसहस्साणुआयमग्गे महयाउक्किट्ठसीहगायबोलकलकलरवेणं) समुद्दरवभून पिव करेमाणे 2 तिमिसगुहानो उत्तरिल्लेणं दारेणं णोति ससिब्ब मेहंधयारणिवहा। तए णं ते आवाडचिलाया भरहस्स रण्णो अग्गाणीन एज्जमाणं पासंति 2 त्ता प्रासुरुत्ता रुट्ठा चंडिक्किआ कुविआ मिसिमिसेमाणा अण्णमण्णं सद्दाति 2 ता एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिा ! केइ अप्पत्थिप्रपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुग्णचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए, जे णं अम्हं विसयस्स उरि विरिएणं हव्वमागच्छइ तं तहा णं घत्तामो देवाणुप्पिया ! जहा गं एस अम्हं विसयस्स उरि विरिएणं णो हव्वमागच्छइत्तिकटु अण्णमण्णस्स अंतिए एअमळं पडिसुर्णेति 2 ता सण्णद्धबद्धवम्मियकवा उप्पोलिअसरासणपट्टिा पिणद्धगेविज्जा बद्धप्राविद्धविमलवचिंधपट्टा गहियाउहप्पहरणा जेणेव भरहस्स रणो अग्गाणीअं तेणेव उवागच्छंति 2 ता भरहस्स रण्णो अग्गाणोएण सद्धि संपलग्गा यावि होत्था। तए णं ते आवाडचिलाया भरहस्स रणो अग्गाणी यमहिअपवरवीरघाइअविवडिअचिधद्धयपडागं किच्छप्पाणोवगयं दिसोदिसि पडिसेहिति / |72] उस समय उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में आवाड-आपात संज्ञक किरात निवास करते थे। वे आढय-सम्पत्तिशाली, दीप्त-दीप्तिमान् प्रभावशाली, वित्त-अपने जातीय जनों में विख्यात, भवन रहने के मकान, शयन-ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र, आसन-बैठने के उपकरण, यान-मालअसबाब ढोने की गाड़ियाँ, वाहन-सवारियां आदि विपुल साधन सामग्री तथा स्वर्ण, रजत आदि प्रचुर धन के स्वामी थे / आयोग-प्रयोग-संप्रवृत्त-व्यावसायिक दृष्टि से धन के सम्यक् विनियोग और प्रयोग में निरत-कुशलतापूर्वक द्रव्योपार्जन में संलग्न थे। उनके यहाँ भोजन कर चुकने के बाद भी खाने-पीने के बहुत पदार्थ बचते थे। उनके घरों में बहुत से नौकर-नौकरानियाँ, गायें, भैंसें, बैल, पाड़े, भेड़ें, बकरियाँ आदि थीं। वे लोगों द्वारा अपरिभूत-अतिरस्कृत थे—इतने रौबीले थे कि उनका कोई तिरस्कार या अपमान करने का साहस नहीं कर पाते थे। वे शूर थे—अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करने में, दान देने में शौर्यशाली थे, युद्ध में वीर थे, विक्रांत-भूमण्डल को पाक्रान्त करने में समर्थ थे। उनके पास सेना और सवारियों की प्रचुरता एवं विपुलता थी। अनेक ऐसे युद्धों में, जिनमें मुकाबले की टक्करें थीं, उन्होंने अपना पराक्रम दिखाया था। उन आपात संज्ञक किरातों के देश में अकस्मात् सैकड़ों उत्पात-अनिष्टसूचक निमित्त उत्पन्न हुए / असमय में बादल गरजने लगे, असमय में विजली चमकने लगी, फूलों के खिलने का समय न आने पर भी पेड़ों पर फूल पाते दिखाई देने लगे / आकाश में भूत-प्रेत पुन:-पुनः नाचने लगे। ग्रापात किरातों ने अपने देश में इन सैकड़ों उत्पातों को आविर्भूत होते देखा। वैसा देखकर वे आपस में कहने लगे-देवानुप्रियो ! हमारे देश में असमय में बादलों का गरजना, असमय में विजली का चमकना, असमय में वृक्षों पर फल पाना, आकाश में वार-बार भूत-प्रेतों का नाचना आदि सैकड़ों उत्पात प्रकट हुए हैं। देवानुप्रियो ! न मालूम हमारे देश में कैसा उपद्रव होगा। वे Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र उन्मनस्क-उदास हो गये। राज्य-भ्रंश, धनापहार आदि की चिन्ता से उत्पन्न शोकरूपी मागर में डब गये अत्यन्त विषादयुक्त हो गये। अपनी हथेली पर मह रखे वे प्रार्तध्यान में ग्रस्त हो भूमि की ओर दृष्टि डाले सोच-विचार में पड़ गये। तब राजा भरत (जो हजारों राजाओं से युक्त था, समुद्र के गर्जन की ज्यों उच्च स्वर से सिंहनाद करता हुग्रा) चक्ररत्न द्वारा निर्देशित किये जाते मार्ग के सहारे तमिस्रा गुफा के उत्तरी द्वार से इस प्रकार निकला, जैरो बादलों के प्रचुर अन्धकार को चीरकर चन्द्रमा निकलता है / आपात किरातों ने राजा भरत की सेना के अग्रभाग को जब आगे बढ़ते हुए देखा तो वे तत्काल अत्यन्त क्रुद्ध, मष्ट, विकराल तथा कुपित होते हुए, मिसमिसाहट करते हुए तेज सांस छोड़ते हुए आपस में कहने लगे--देवानुप्रियो ! अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाला, दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला, पुण्य चतुर्दशी जिस दिन हीन असम्पूर्ण थी- घटिकाओं में अमावस्था प्रा गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मा हुआ, अभागा, लज्जा. शोभा से परिजित वह कौन है, जो हमारे देश पर बलपूर्वक जल्दी-जल्दी चढ़ा पा रहा है। देवानुप्रियो ! हम उसकी सेना को तितर-बितर कर दें, जिससे वह हमारे देश पर बलपूर्वक आक्रमण न कर सके / इस प्रकार उन्होंने आपस में विचार कर अपने कर्तव्य का अाक्रान्ता का मुकाबला करने का निश्चय किया। वैसा निश्चय कर उन्होंने लोहे के कवच धारण किये, वे युद्धार्थ तत्पर हुए, अपने धनुषों पर प्रत्यचा चढ़ा कर उन्हें हाथ में लिया, गले पर ग्रे वेयक---ग्रीवा की रक्षा करने वाले संग्रामोचित उपकरण विशेष बाँधे-धारण किये, विशिष्ट बीरता सूचक चिह्न के रूप में उज्ज्वल वस्त्र-विशेष मस्तक पर बाँधे / विविध प्रकार के प्रायुध-क्षेप्य----फेंके जाने वाले बाण आदि अस्त्र तथा प्रहरण'-अक्षेप्य–नहीं फेंके जाने वाले, हाथ द्वारा चलाये जाने वाले तलवार आदि शस्त्र धारण किये। ये, जहाँ राजा भरत की सेना का अग्रभाग था--सेना की अगली टुकड़ी थी, वहाँ पहुँचे / वहाँ पहुँचकर वे उससे भिड़ गये। उन पापात किरातों ने राजा भरत की सेना के अग्रभाग के कतिपय विशिष्ट योद्धाओं को मार डाला, मथ डाला, घायल कर डाला, गिरा डाला। उनकी गरुड आदि के चिह्नों से युक्त ध्वजाएँ, पताकाएँ नष्ट कर डालीं। राजा भरत की सेना के अग्रभाग के सैनिक बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाकर इधर-उधर भाग छूटे। आपात किरातों का पलायन 73. तए णं से सेणाबलस्स णेला वेढो (सण्णद्धबद्धवम्मियकवअं उप्पोलिअसरासणपट्टि पिणद्धगेविज बद्ध-आविद्धविमलवचिंधपट्ट गहिसाउहप्पहरणं) भरहस्स रण्णो अग्गाणीअं आवाडचिलाएहिं हय-महिय-पवर-वीर-(घाइअविवडिअचिधद्धयपडागं किच्छप्पाणोवगयं): दिसोदिसं पडिसेहिअं पासइ 2 ता प्रासुरुत्ते रुठे चंडिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे कमलामेलं पासरयणं दुरूहइ 2 ता तए णं तं असीइमंगुलमूसिणं णवणउइमंगुलपरिणाहं अट्ठसयमंगुलमायतं बत्तीसमंगुलमूसिअसिरं चउरंगुलकन्नागं वीसइअंगुलबाहागं चउरंगुलजाणूकं सोलसअंगुलजंघागं चउरंगुलमूसिनखुरं मुत्तोलीसंवत्तवलिनमज्झ ईसि अंगुलपणयपढें संणयपटु संगयपटुं सुजायपट्ठ पसत्थपटुं विसिटुपट्ठ एणीजाणुण्णयवित्थयथद्धपटुं वित्तलयकसणिवायग्रंकेल्लणपहार परिवज्जिअंगं तवणिज्जथासगाहिलाणं Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [131 वरकणगसुफुल्लथासगविचित्तरयणरज्जुपासं कंचणमणिकणगपयरगणाणाविहघंटिआजालमुत्तिआजालएहि परिमंडियेणं पट्ठण सोभमाणेण सोभमाणं कक्केयणइंदनीलमरगयमसारगल्लमुहमंडणरइअं आविद्वमाणिक्कसुत्तविभूसियं कणगामयपउमसुकयतिलकं देवमइविकप्पि सुररिंदवाहणजोग्गावयं सुरूवं दूइज्जमाणपंचचारुचामरामेलगं धरेंतं अणभवाहं अभेलणयणं कोकासिअबहलपत्तलच्छं सयावरणनवकणगतविमतवणिज्जतालुजोहासयं सिरियाभिसे अघोणं पोक्खरपत्तमिव सलिलबिदुजुअं अचंचलं चंचलसरीरं चोक्खचरगपरिव्वायगोविव हिलीयमाणं 2 खुरचलणचच्चपुडेहि धरणिप्रलं अभिहणमाणं 2 दो वि अचलणे जमगसमग मुहाओ विणिग्गमंतं व सिग्घयाए मुलाणतंतुउदगमवि हिस्साए पक्कमतं जाइकुलरूवपच्चयपसत्थ-वारसावत्तगविसुद्धलवखणं सुकुलप्पसूअं मेहाविभद्दयविणीअं अणुप्रतणुअसुकुमाललोमनिद्धछवि सुजायअमरमणपवणगरुलजइणचवलसिग्धगामि इसिमिव खंतिखमए सुसोसमिव पच्चक्खया विणीयं उदगहुतवहपासाणपंसुकद्दम ससक्करसवालुइल्लतडकडगविसमपन्भारगिरिदरीसु लंघणपिल्लणणित्थारणासमत्थं अचंडपाडियं दंडपाति अणसुपाति अकालताल च कालहेसि जिअनिदं गवेसगं जिअपरिसहं जच्चजातीअं मलिहाणि सुगपत्तसुवण्णकोमलं मणाभिराम कमलामेलं णामेणं आसरयणं सेणावई कमेण समभिरूढे कुवलयदलसामलं च रयणिकरमंडल निभं सत्तुजणविणासणं कणगरयणदंडं गवमालिप्रपुप्फसुरहिधि जाणामणिलयभत्तिचित्तं च पहोतमिसिमिसिंततिक्खधारं दिव्वं खग्गरयणं लोके अणोवमाणं तं च पुणो वंसरुखसिंगदिदंतकालायसविपुललोहदंडकवरवइरभेदकं जाव-सव्वत्थ अप्पडिहयं किं पुण देहेसु जंगमाणं-- पण्णासंगुलदीहो सोलस से अंगुलाई विच्छिण्णो। अद्धगुलसोणीको जेट्टपमाणो असी भषियो॥१॥ असिरयणं णरवइस्स हत्थानो तं गहिऊण जेणेव पावाडचिलाया तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता आवाडचिलाएहि सद्धि संपलग्गो प्रावि होत्था। तए णं से सुसेणे सेणावई ते प्रावाडचिलाए हयमहिअपवरवीरघाइअ जाव' दिसो दिसि पडिसेहेइ / 73] सेनापति सुषेण ने राजा भरत के (लोहे के कवच धारण किये हुए, प्रत्यंचा चढ़ा धनुष हाथ में लिये हुए, गले पर ग्रे वेयक धारण किये हुए, वीरतासूचक चिह्नरूप वस्त्र-विशेष मस्तक पर बाँधे हुए, प्रायुध-प्रहरण लिये हुए) सैन्य के अग्रभाग के अनेक योद्धानों को आपात किरातों द्वारा हत, मथित (घातित, विपातित) देखा / (उनकी ध्वजाएँ, पताकाएँ नष्ट-विनष्ट देखीं।) सैनिकों को बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाकर एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर भागते देखा / यह देखकर सेनापति सुषेण तत्काल अत्यन्त क्रुद्ध, रुष्ट, विकराल एवं कुपित हुना। वह मिसमिसाहट करता हा-तेज सांस छोड़ता हुआ कमलामेल नामक अश्वरत्न पर—अति उत्तम घोड़े पर आरूढ हुआ। वह घोड़ा अस्सी अंगुल ऊँचा था, निन्यानवै अंगुल मध्य परिधियुक्त था, एक सौ आठ अंगुल लम्बा था। उसका मस्तक बत्तीस अंगुल-प्रमाण था। उसके कान चार अंगुल प्रमाण थे। उसकी बाहा-मस्तक के नीचे का और घुटनों के ऊपर का भाग-प्राक्चरण-भाग बीस अंगुल-प्रमाण था। उसके घुटने चार 1. देखें सूत्र यही Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अंगुल-प्रमाण थे। उसकी जंधा-धुटनों से लेकर खुरों तक का भाग-पिण्डली सोलह अंगुलप्रमाण थी। उसके खुर चार अंगुल ऊँचे थे। उसकी देह का मध्य भाग मुक्तोली-ऊपर नीचे से सैकड़ी, बीच से कुछ विशाल कोष्ठिका कोठी के सदृश गोल तथा वलित था। उसकी पीठ की यह विशेषता थी, जब सवार उस पर बैठता, तब वह कुछ कम एक अंगुल झुक जाती थी। उसकी पीठ क्रमशः देहानुरूप अभिनत थी, देह-प्रमाण के अनुरूप थी-संगत थी, सुजात--जन्मजात दोषरहित थी, प्रशस्त थी, शालिहोत्रशास्त्र निरूपित लक्षणों के अनुरूप थी, विशिष्ट थी / वह हरिणी के जानु -घुटनों की ज्यों उन्नत थी, दोनों पाव-भागों में विस्तृत तथा चरम भाग में स्तब्ध सुदढ़ थी / उसका शरीर वेत्रबेंत, लता-बाँस की पतली छड़ी, कशा-चमड़े के चाबुक आदि के प्रहारों से परिजित था—धुड़सवार के मनोनुकूल चलते रहने के कारण उसे बेंत, छड़ी, चाबुक आदि से तजित करना, ताडित करना सर्वथा अनपेक्षित था। उसकी लगाम स्वर्ण में जड़े दर्पण जैसा आकार लिये अश्वोचित स्वर्णाभरणों से युक्त थी। काठी बाँधने हेतु प्रयोजनीय रस्सी, जो पेट से लेकर पीठ तक दोनों पावों में बाँधी जाती है, उत्तम स्वर्ण घटित सुन्दर पुष्पों तथा दर्पणों से समायुक्त थी, विविध-रत्नमय थी / उसकी पीठ, स्वर्णयुक्त मणि-रचित तथा केवल स्वर्ण-निमित पत्रकसंज्ञक प्राभूषण जिनके बीच-बीच में जड़े थे, ऐसी नाना प्रकार की घंटियों और मोतियों की लड़ियों से परिमंडित थी—सुशोभित थी, जिससे वह अश्व बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था / मुखालंकरण हेतु कर्केतन मणि, इन्द्रनील मणि, मरकत मणि आदि रत्नों द्वारा रचित एवं माणिक के साथ प्राविद्ध-पिरोये गये सूत्रक से---घोड़ों के मुख पर लगाये जाने वाले आभूषण-विशेष से वह विभूषित था / स्वर्णमय कमल के तिलक से उसका मुख सुसज्ज था। वह अश्व देवमति से-दैवी कौशल से विकल्पित-विरचित था। वह देवराज इन्द्र की सवारी के उच्चैःश्रवा नामक अश्व के समान गतिशील तथा सुन्दर रूप युक्त था। अपने मस्तक, गले, ललाट, मौलि एवं दोनों कानों के मूल में विनिवेशित पाँच चँवरों को–कलंगियों को समवेत रूप में वह धारण किये था। वह अनभ्रचारी था-इन्द्र का घोड़ा उच्चैःश्रवा जहाँ अभ्रचारी-आकाशगामी होता है, वहाँ वह भूतलगामी था। उसकी अन्यान्य विशेषताएँ उच्चैःश्रवा जैसी ही थीं। उसकी आँखें दोष आदि के कारण संकुचित नहीं थीं, विकसित थीं, दृढ़ थीं, रोमयुक्त थीं—पलकयुक्त थीं। डांस, मच्छर आदि से रक्षा हेतु उस पर लगाये गये प्रच्छादनपट में झूल में स्वर्ण के तार गुंथे थे। उसका ताल तथा जिह्वा तपाये हुए स्वर्ण की ज्यों लाल थे / उसकी नासिका पर लक्ष्मी के अभिषेक का चिह्न था। जलगत कमल-पत्र जैसे वायु द्वारा पाहत पानी की बूंदों से युक्त होकर सुन्दर प्रतीत होता है, उसी प्रकार वह अश्व अपने शरीर के पानी-पाभा या लावण्य से बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। वह अचंचल था अपने स्वामी का कार्य करने में सुस्थिर था / उसके शरीर में चंचलतास्फति थी। जैसे स्नान आदि द्वारा शुद्ध हुआ भिक्षाचर संन्यासी अशुचि पदार्थ के संसर्ग की आशंका से अपने आपको कुत्सित स्थानों से दूर रखता है, उसी तरह वह अश्व अपवित्र स्थानों को-ऊबड़खाबड़ स्थानों को छोड़ता हुआ उत्तम एवं सुगम मार्ग द्वारा चलने की वृत्ति वाला था। वह अपने खुरों की टापों से भूमितल को अभिहत करता हुआ चलता था। अपने प्रारोहक द्वारा नचाये जाने पर वह अपने आगे के दोनों पैर एक साथ इस प्रकार ऊपर उठाता था, जिससे ऐसा प्रतीत होता, मानो उसके दोनों पैर एक ही साथ उसके मुख से निकल रहे हों। उसकी गति इतनी लाघवयुक्त स्फूर्तियुक्त थी कि कमलनालयुक्त जल में भी वह चलने में सक्षम था जैसे जल में चलने वाले अन्य प्राणियों के पैर कमलनालयुक्त जल में उलझ जाते हैं, उसके वैसा नहीं था--वह जल में भी स्थल की ज्यों शीघ्रता Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [133 से चलने में समर्थ था / वह उन प्रशस्त बारह भावों से युक्त था, जिनसे उसके उत्तम जाति–मातृपक्ष, कुल-पितृ-पक्ष तथा रूप-आकार-संस्थान का प्रत्यय-विश्वास होता था, परिचय मिलता था। वह अश्वशास्त्रोक्त उत्तम कुल क्षत्रियाश्व जातीय पितृ-प्रसूत था। वह मेधावी-अपने मालिक के पैरों के संकेत, नाम-विशेष आदि द्वारा अाहान आदि का प्राशय समझने की विशिष्ट बद्धियक्त था वह भद्र एवं विनीत था, उसके रोम अति सूक्ष्म, सुकोमल एवं स्निग्ध-चिकने थे, जिनसे वह छविमान् था / वह अपनी गति से देवता, मन, वायु तथा गरुड़ की गति को जीतने वाला था। वह बहुत चपल और द्रुतगामी था / वह क्षमा में ऋषितुल्य था-वह न किसी को लात मारता था, न किसी को मुह से काटता था तथा न किसी को अपनी पूंछ से ही चोट लगाता था। वह सुशिष्य की ज्यों प्रत्यक्षतः विनीत था। वह उदक-पानो, हुतवह अग्नि, पाषाण-पत्थर, पांसु-मिट्टी, कर्दम--- कीचड़, छोटे-छोटे कंकड़ों से युक्त स्थान, रेतीले स्थान, नदियों के तट, पहाड़ों की तलहटियाँ, ऊँचेनीचे पठार, पर्वतीय गुफाएँ-इन सब को अनायास लांघने में, अपने सवार के संकेत के अनुरूप चलकर इन्हें पार करने में समर्थ था। वह प्रबल योद्धाओं द्वारा युद्ध में पातित-गिराये गये—फेंके गये दण्ड की ज्यों शत्रु की छावनी पर अकित रूप में आक्रमण करने की विशेषता से युक्त था / मार्ग में चलने से होने वाली थकावट के बावजूद उसकी आँखों से कभी आँसू नहीं गिरते थे / उसका तालु कालेपन से रहित था। वह समुचित समय पर ही हिनहिनाहट करता था। वह जितनिद्र -निद्रा को जीतने वाला था। मूत्र, पुरीष-लीद आदि का उत्सर्ग उचित स्थान खोजकर करता था / वह सर्दी, गर्मी आदि के कष्टों में भी अखिन्न रहता था। उसका मातृपक्ष निर्दोष था / उसका नाक मोगरे के फूल के सदृश शुभ्र था। उसका वर्ण तोते के पंख के समान सुन्दर था। देह कोमल थी। वह वास्तव में मनोहर था। . ऐसे अश्वरत्न पर आरूढ सेनापति सुषेण ने राजा के हाथ से असिरत्न-उत्तम तलवार ली। वह तलवार नील कमल की तरह श्यामल थी। घुमाये जाने पर चन्द्रमण्डल के सदृश दिखाई देती थी। वह शत्रुओं का विनाश करने वाली थी। उसकी मूठ स्वर्ण तथा रत्न से निर्मित थी / उसमें से नवमालिका के पुष्प जैसी सुगन्ध आती थी। उस पर विविध प्रकार की मणियों से निर्मित बेल आदि के चित्र थे। उसकी धार शाण पर चढ़ी होने के कारण बड़ी चमकीली और तीक्ष्ण भी / लोक में वह अनुपम थी। वह बाँस, वृक्ष, भैसे आदि के सींग, हाथी आदि के दाँत, लोह, लोहमय भारी दण्ड, उत्कृष्ट वज्र - हीरक जातीय उपकरण आदि का भेदन करने में समर्थ थी। अधिक क्या कहा जाए, वह सर्वत्र अप्रतिहत–प्रतिघात रहित थी-बिना किसी रुकावट के दुर्भद्य वस्तुओं के भेदन में भी समर्थ थी। फिर पशु, मनुष्य आदि जंगम प्राणियों के देह-भेदन की तो बात ही क्या ! वह तलवार पचास अंगुल लम्बी थी, सोलह अंगुल चौड़ी थी। उसकी मोटाई अर्ध-अंगुल-प्रमाण थी / यह उत्तम तलवार का लक्षण है। राजा के हाथ से उस उत्तम तलवार को लेकर सेनापति सुषेण, जहाँ आपात किरात थे, वहाँ आया / वहाँ आकर वह उनसे भिड़ गया--उन पर टूट पड़ा। उसने आपात किरातों में से अनेक प्रबल योद्धाओं को मार डाला, मथ डाला तथा घायल कर डाला / वे आपात किरात एक दिशा से दूसरी दिशा में भाग छूटे / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134} [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र मेघमुख देवों द्वारा उपद्रव 74. तए णं ते पावाडचिलाया सुसेणसेणावइणा हयमहिआ जाव' पडिसेहिया समाणा भीआ तत्था वहिला उव्विग्गा संजायभया अस्थामा अबला अवीरित्रा अपुरिसक्कारपरक्कमा अधारणिज्जमिति कटु अणेगाई जोषणाई प्रवक्कमति 2 ता एगयो मिलायंति 2 ता जेणेव सिंधू महाणई तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता वालुप्रासंथारए संथरेंति 2 ता वालुप्रासंथारए दुरूहंति 2 ता अट्ठमभत्ताई पगिण्हंति 2 ता वालुप्रासंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिमा जे तेसि कुलदेवया मेहमुहा णामं णागकुमारा देवा, ते मणसि करेमाणा 2 चिट्ठति / तए णं तेसिमावाडचिलायाणं अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि मेहमुहाणं णागकुमाराणं देवाणं पासणाई चलंति। ... तए णं ते मेहमुहा णागकुमारा देवा पासणाई चलिपाई पासंति 2 ता प्रोहि पउंजति २त्ता आवाडचिलाए प्रोहिणा प्राभोएंति 2 ता अण्णमण्णं सद्दार्वेति २त्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिा ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरद्धभरहे वासे आवाडचिलाया सिंधए महाणईए वालुप्रासंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिा अम्हे कुलदेवए मेहमुहे णागकुमारे देवे मणसि करेमाणा 2 चिट्ठति, तं सेन खलु देवाणुप्पिया! अम्हं आवाडचिलायाणं अंतिए पाउभवित्तएत्ति कटु अण्णमण्णस्स प्रतिए एअमटुं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरिआए जाय' बोतिवयमाणा 2 जेणेव जंबुद्दीवे दोवे उत्तरद्धभरहे वासे जेणेव सिंधू महाणई जेणेव प्रावाडचिलाया तेणेव उवागच्छंति 2 ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिखिणिपाइं पंचवण्णाई वत्थाई पवरपरिहिया ते आवाडचिलाए एवं वयासी-हं भो प्रावाडचिलाया! जण्णं तुम्भे देवाणुप्पिा ! वालुप्रासंथारोवगया उत्ताणगा अवसणा अट्ठमभत्तिमा अम्हे कुलदेवए मेहमुहे णागकुमारे देवे मणसि करेमाणा 2 चिट्ठह, तए णं अम्हे मेहमुहा णागकुमारा देवा तुम्भं कुलदेवया तुम्हें अतिअण्णं पाउम्भूत्रा, तं वदह णं देवाणुप्पिा ! कि करेमो के व मे मणसाइए? तए णं ते आवाडचिलाया मेहमुहाणं गागकुमाराणं देवाणं अंतिए एअमट्ट सोच्चा जिसम्म हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया जाव हिप्रया उट्ठाए उट्ठन्ति 2 त्ता जेणेव मेहसुहा, णागकुमारा देवा तेणेव उवागच्छंति २त्ता करयलपरिग्गाहयं जाव' मत्थए अंजलि कटु मेहमुहे णागकुमारे देवे जएणं विजएणं वद्धाति 2 ता एवं वयासो-एस गं देवाणुप्पिए ! केइ अप्पत्थिअपथिए दुरंतपंतलक्षणे (हीणपुण्णचाउद्दसे) हिरि-सिरि परिवज्जिए जे णं अम्हं विसयस्स उरि विरिएणं हव्यमागच्छह, तंतहा णं घत्तेह देवाणुप्पिया ! जहा णं एस अम्हं विसयस्स उरि विरिएणं णो हध्वमागच्छइ / 1. देखें सूत्र संख्या 57 2. देखें सूत्र संख्या 34 3. देखें सूत्र संख्या 44 देखें सत्र संख्या 44 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [135 तए णं ते मेहमुहा णागकुमारा देवा ते आवाडचिलाए एवं क्यासी-एस णं भो देवाणुप्पिया ! भरहे णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी महिड्डीए महज्जुईए जाव' महासोक्खे, णो खलु एस सक्को केणइ देवेण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किं पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा सत्थप्पोगेण वा अग्गि पोगेण वा मंतप्पनोगेण वा उद्दवित्तए पडिसेहित्तए वा, तहाबि अणं तुम्भं पियट्टयाए भरहस्स रण्णो उक्सग्गं करेमोत्ति कटु तेसि पावाडचिलायाणं प्रतिप्रायो प्रवक्कमन्ति 2 त्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति 2 ता महाणी विउव्वंति 2 ता जेणेव भरहस्स रण्णो विजयक्खंधावारणिवेसे तेणेव उवागच्छंति 2 ता उपि विजयक्खंधावारणिवेसस्स खिप्पामेव पततुतणायंति खिप्पामेव विज्जुयायन्ति 2 ता खिप्पामेव जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणमेत्ताहि धाराहि प्रोघमेधं सत्तरत्तं वासं वासिउं पवत्ता यावि होत्था। [74] सेनापति सुषेण द्वारा मारे जाने पर, मथित किये जाने पर, घायल किये जाने पर मैदान छोड़कर भागे हुए आपात किरात बड़े भीत-भयाकुल, त्रस्त--त्रासयुक्त, व्यथित- व्यथायुक्तपीडायुक्त, उद्विग्न---उद्वेगयुक्त होकर घबरा गये। युद्ध में टिक पाने की शक्ति उनमें नहीं रही / वे अपने को निर्बल, निर्वीर्य तथा पौरुष-पराक्रम रहित अनुभव करने लगे। शत्रु-सेना का सामना करना शक्य नहीं है, यह सोचकर वे वहाँ से अनेक योजन दूर भाग गये। यों दूर जाकर वे एक स्थान पर आपस में मिले, जहाँ सिन्धु महानदी थी, वहाँ पाये / वहाँ आकर बाल के संस्तारक-बिछौने तैयार किये। बाल के संस्तारकों पर वे स्थित हुए। वैसा कर उन्होंने तेले की तपस्या स्वीकार की। वे अपने मुख ऊँचे किये, निर्वस्त्र हो घोर आतापना सहते हुए मेघमुख नामक नागकुमारों का, जो उनके कूल-देवता थे, मन में ध्यान करते हए तेले की तपस्या में अभिरत हो गए / जब तेले की तपस्या परिपूर्ण-प्राय थी, तब मेघमुख नागकुमार देवों के प्रासन चलित हुए। मेघमुख नागकुमार देवों ने अपने आसन चलित देखे तो उन्होंने अपने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान द्वारा उन्होंने आपात किरातों को देखा। उन्हें देखकर वे परस्पर यों कहने लगे--- देवानुप्रियो ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में सिन्धु महानदी पर बालू के संस्तारकों पर अवस्थित हो आपात किरात अपने मुख ऊँचे किये हुए तथा निर्वस्त्र हो आतापना सहते हुए तेले की तपस्या में संलग्न हैं। वे हमारा-मेघमुख नागकुमार देवों का, जो उनके कुल-देवता हैं, ध्यान करते हुए विद्यमान हैं / देवानुप्रियो ! यह उचित है कि हम उन आपात किरातों के समक्ष प्रकट हों। ___इस प्रकार परस्पर विचार कर उन्होंने वैसा करने का निश्चय किया / वे उत्कृष्ट, तीव्र गति से चलते हुए, जहाँ जम्बूद्वीप था, उत्तरार्ध भरतक्षेत्र था एवं सिन्धु महानदी थी, आपात किरात थे, वहाँ पाये। उन्होंने छोटी-छोटी घण्टियों सहित पँचरंगे उत्तम वस्त्र पहन रखे थे / आकाश में अधर अवस्थित होते हुए वे आपात किरातों से बोले --आपात किरातो ! देवानुप्रियो ! तुम बालू के संस्तारकों पर अवस्थित हो, निर्वस्त्र हो पातापना सहते हुए, तेले ही तपस्या में अभिरत होते हुए हमारा-मेघमुख नागकुमार देवों का, जो तुम्हारे कुल देवता हैं, ध्यान कर रहे हो / यह देखकर हम 1. देखें सूत्र संख्या 14 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तुम्हारे कुलदेव मेघमुख नागकुमार तुम्हारे समक्ष प्रकट हुए हैं। देवानुप्रियो ! तुम क्या चाहते हों ? हम तुम्हारे लिए क्या करें ? मेघमुख नागकुमार देवों का यह कथन सुनकर आपात किरात अपने चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुए, उठे / उठकर जहाँ मेघमुख नागकुमार देव थे, वहाँ आये / वहाँ आकर हाथ जोड़े, अंजलि-बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया। ऐसा कर मेघमुख नागकुमार देवों को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया-उनका जयनाद, विजयनाद किया और बोले-देवानुप्रियो ! अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु का प्रार्थी--चाहने वाला, दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला (पुण्य चतुर्दशीहीन --असंपूर्ण थी, घटिकाओं में अमावस्या आ गई, उस अशुभ दिन में जन्मा हुआ) अभागा, लज्जा, शोभा से परिवजित कोई एक पुरुष है, जो बलपूर्वक जल्दी-जल्दी हमारे देश पर चढ़ा पा रहा है। देवानुप्रियो ! आप उसे वहाँ से इस प्रकार फेंक दीजिए हटा दीजिए, जिससे वह हमारे देश पर बलपूर्वक आक्रमण नहीं कर सके, आगे नहीं बढ़ सके / तब मेघमुख नागकुमार देवों ने आपात किरातों से कहा--देवानुप्रियो ! तुम्हारे देश पर आक्रमण करने वाला महाऋद्धिशाली, परम द्युतिमान्, परम सौख्ययुक्त, चातुरत्न चक्रवर्ती भरत नामक राजा है / उसे न कोई देव-वैमानिक देवता, न कोई किंपुरुष, न कोई महोरग तथा न कोई गन्धर्व ही रोक सकता है, न बाधा उत्पन्न कर सकता है। न उसे शस्त्र-प्रयोग द्वारा, न अग्नि-प्रयोग द्वारा तथा न मन्त्र-प्रयोग द्वारा ही उपद्रत किया जा सकता है, रोका जा सकता है / फिर भी हम तुम्हारा अभीष्ट साधने हेतु राजा भरत के लिए उपसर्ग-विघ्न उत्पन्न करेंगे / ऐसा कहकर वे आपात किरातों के पास से चले गये / उन्होंने वैक्रिय समुद्घात द्वारा आत्मप्रदेशों को देह से बाहर निकाला। आत्मप्रदेश बाहर निकाल कर उन द्वारा गृहीत पुद्गलों के सहारे बादलों की विकुर्वणा की / वैसा कर जहाँ राजा भरत की छावनी थी, वहाँ आये / बादल शीघ्र ही धीमे-धीमे गरजने लगे। बिजलियाँ चमकने लगीं / वे शीघ्र ही पानी बरसाने लगे / सात दिन-रात तक युग, मूसल एवं मुष्टिका के सदृश मोटी धाराओं से पानी बरसता रहा। छत्ररत्न का प्रयोग 75. तए णं से भरहे राया उपि विजयक्खंधावारस्स जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणमेत्ताहिं धाराहि प्रोघमेषं सत्तरत्तं वासं वासमाणं पासइ 2 त्ता चम्मरयणं परामुसइ, तए णं तं सिरिवच्छसरिसरूवं वेढो भाणिअव्वो (मुत्ततारद्धचंदचित्तं अयलमकंपं अभेज्जकवयं जंतं सलिलासु सागरेसु अ उत्तरणं दिव्वं चम्मरयणं सणसत्तरसाई सम्वधण्णाई जत्य रोहंति एगदिवसेण वाविनाई, वासं णाऊण चक्कट्टिणा परामुट्ठ दिव्वे चम्मरयणे) दुवासलजोत्रणाई तिरिअं पवित्थरइ, तत्थ साहिआई, तए णं से भरहे राया सखंधावारबले चम्मरयणं दुरूहइ 2 ता दिव्वं छत्तरयणं परामुसइ, तए णं णवणउइसहस्सकंचणसलागपरिमंडिअं महरिहं अउज्झ णिवणसुपसत्थविसिट्टलटकंचणसुपुट्ठदंडं मिउराययवट्टलटुअरविंदकण्णिप्रसमाणरूवं वत्थिपएसे अ पंजरविराइ विविहभत्तिचित्तं मणिमुत्तपवालतत्ततवणिज्जपंचवण्णिअधोरयणस्वरइयं रयणमरोईसमोप्पणाकप्पकारमणुरंजिएल्लियं रायलििचधं अज्जुणसुवण्णपंडुरपच्चत्थअपट्ठदेसभागं तहेव तवणिज्जपट्टधम्मतपरिगयं अहिश्रसस्सिरीअं सारयरयणि Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार [137 अरविमलपडिपुण्णचंदमंडलसमाणरूवं रिदवामप्पमाणपगइवित्थडं कुमुदसंडधवलं रप्णो संचारिमं विमाणं सूरातववायबुट्टिदोसाण य खयकरं तवगुणेहि लद्ध अहयं बहुगुणदाणं उऊण विवरीअसुहकयच्छायं। छत्तरयणं पहाणं सुदुल्लहं अप्पपुण्णाणं // 1 // पमाणराईण तवगुणाण फलेगदेसभागं विमाणवासेवि दुल्लहतरं वग्धारिअमल्लदामकलावं सारयधवलन्भरययणिगरप्पगासं दिव्वं छत्तरयणं महिवइस्स धरणिअलपुण्णइंदो। तए णं से दिव्वे छत्तरयणे भरहेणं रण्णा परामुळे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोप्रणाइं, पवित्थरइ साहिआई तिरिअं। [75] राजा भरत ने अपनी सेना पर युग, मूसल तथा मुष्टिका के प्रमाण मोटी धाराश्नों के रूप में सात दिन-रात तक बरसती हुई वर्षा को देखा / देखकर उसने चर्मरत्न का स्पर्श किया। वह चर्मरत्न श्रीवत्स-स्वस्तिकविशेष जैसा रूप लिये था। (उस पर मोतियों के, तारों के तथा अर्धचन्द्र के चित्र बने थे / वह अचल एवं अकम्प था। वह कवच की ज्यों अभेद्य था। नदियों तथा समुद्रों को पार करने का यन्त्र---अनन्य साधन था, देवी विशेषता लिये था। चमेनिमित वस्तुओं में वह सर्वोत्कृष्ट था / उस पर बोये हुए सत्तरह प्रकार के धान्य एक दिन में उत्पन्न हो सके, ऐसी विशेषता मान्यता है कि गहपतिरत्न इस चर्मरत्न पर सुर्योदय के समय धान्य बोता है, जो उगकर दिन भर में पक जाते हैं, गृहपति सायंकाल उन्हें काट लेता है।) चक्रवर्ती राजा भरत द्वारा उपर्युक्त रूप में होती हुई वर्षा को देखकर छुआ गया दिव्य चर्मरत्न कुछ अधिक बारह योजन तिर्यक् - तिरछा विस्तीर्ण हो गया- फैल गया। तत्पश्चात् राजा भरत अपनी सेना सहित उस चर्मरत्न पर आरूढ हो गया। आरूढ होकर उसने छत्ररत्न को छ मा, उठाया / वह छत्ररत्न निन्यानबे हजार स्वर्ण-निर्मित शलाकारों से-ताड़ियों परिमण्डित था। बहमुल्य था-चक्रवर्ती के योग्य था। अयोध्य था-उसे देख लेने पर प्रतिपक्षी योद्धाओं के शस्त्र उटते तक नहीं थे। वह निर्वण था--छिद्र, ग्रन्थि आदि के दोष से रहित था। सुप्रशस्त, विशिष्ट, मनोहर एवं स्वर्णमय सुदृढ दण्ड से युक्त था / उसका आकार मृदु-मुलायम चाँदी से बनी गोल कमल कणिका के सदृश था। वह बस्ति-प्रदेश में-छत्र के मध्य भागवर्ती दण्ड-प्रक्षेपस्थान में--जहाँ दण्ड आबिद्ध एवं योजित रहता है, अनेक शलाकाओं से युक्त था। अतएव वह पिंजरे जैसा प्रतीत होता था। उस पर विविध प्रकार की चित्रकारी की हुई थी। उस पर मणि, मोतो, मूगे, तपाये हुए स्वर्ण तथा रत्नों द्वारा पूर्ण कलश आदि मांगलिक-वस्तूमों के पंचरंगे उज्ज्वल प्राकार बने थे / रत्नों की किरणों के सदश रंगरचना में निपुण पुरुषों द्वारा वह सुन्दर रूप में रंगा हा था। उस पर राजलक्ष्मी का चिह्न अंकित था। अर्जन नामक पाण्डर वर्ण के स्वर्ण द्वारा उसका पृष्ठभाग आच्छादित था—उस पर सोने का कलापूर्ण काम था। उसके चार कोण परितापित स्वर्णमय पट्ट से परिवेष्टित थे। बह अत्यधिक श्री-शोभा–सुन्दरता से युक्त था / उसका रूप शरद् ऋतु के निर्मल, परिपूर्ण चन्द्रमण्डल के सदृश था। उसका स्वाभाविक विस्तार राजा भरत द्वारा तिर्यक् प्रसारित--तिरछो फैलाई गई अपनी दोनों भुजाओं के विस्तार जितना था। वह कुमुद-चन्द्रविकासी कमलों के बन सदृश धवल था। वह राजा भरत का मानो संचरणशील-जंगम विमान था। वह सूर्य Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र के आतप, वायु–आँधी, वर्षा आदि दोषों--विघ्नों का विनाशक था। पूर्व जन्म में प्राचरित तप, पुण्यकर्म के फलस्वरूप वह प्राप्त था। वह छत्ररत्न अहत--अपने पापको योद्धा मानने वाले किसी भी पुरुष द्वारा संग्राम में खण्डित न हो सकने वाला था, ऐश्वर्य प्रादि अनेक गुणों का प्रदायक था। हेमन्त आदि ऋतुओं में तद्विपरीत सुखप्रद छाया देता था / अर्थात् शीत ऋतु में उष्ण छाया देता था तथा ग्रीष्म ऋतु में शीतल छाया देता था / वह छत्रों में उत्कृष्ट एवं प्रधान था / अल्पपुण्य-पुण्यहीन या थोड़े पुण्यवाले पुरुषों के लिए वह दुर्लभ था। वह छत्ररत्न छह खण्डों के अधिपति चक्रवर्ती राजाओं के पूर्वाचरित तप के फल का एक भाग था। विमानवास में भी-देवयोनि में भी वह अत्यन्त दुर्लभ था। उस पर फूलों की मालाएँ लटकती थीं वह चारों ओर पुष्पमालाओं से आवेष्टित था। वह शरद् ऋतु के धवल मेघ तथा चन्द्रमा के प्रकाश के समान भास्वर --उज्ज्वल था। वह दिव्य था—एक सहस्र देवों से अधिष्ठित था। राजा भरत का वह छत्ररत्न ऐसा प्रतीत होता था, मानो भूतल पर परिपूर्ण चन्द्रमण्डल हो। राजा भरत द्वारा छुए जाने पर वह छत्ररत्न कुछ अधिक बाहर योजन तिरछा विस्तीर्ण हो गया-फैल गया। 76. तए णं से भरहे राया छत्तरयणं खंधावारस्सुरि ठवेइ 2 ता मणिरयणं परामुसइ वेढो (तोतं चउरंगुलप्पमाणमित्तं च अणग्धं तसिन छलंसं प्रणोवमजुइं दिव्वं मणिरयपतिसमं बेरुलिन सव्वभूकंतं जेण य मुद्धागएणं दुक्खं ण किंचि जाव हवइ आरोग्गे अ सव्वकालं तेरिच्छिप्रदेवमाणुसकया य उवसग्गा सम्वे ण करेंति तस्स दुक्खं, संगामेऽवि असत्थवज्झो होइ णरो मणिवरं धरतो ठिप्रजोन्वणकेसअवडिढप्रणहो हवइ अ सवभय विप्पमुक्को) छत्तरयणस्स वस्थिभागंसि उवेइ, तस्स य अणतिवरं चारुरूवं सिलणिहिअत्थमंतमेतसालि-जव-गोहूम-मुग्ग-मास-तिल-कुलत्थ-सटिग-निप्फावचणग-कोद्दव-कोत्थु भरि-कंगुबरग-रालग-अणेग-धण्णावरण-हारिप्रग-अल्लग-मूलग-हलिद्द-लाउअ-तउसतुंब-कालिंग-कविट्ठ-अंब-अंबिलिअ-सव्वणिप्फायए सुकुसले गाहावइरयणेत्ति सक्वजणवीसुश्रगुणे / तए णं से गाहावइरयणे भरहस्स रण्णो तदिवसप्पइण्णणिप्फाइअपूइाणं सत्वधण्णाणं अणेगाई कुभसहस्साइं उबट्ठवेति, तए णं से भरहे राया चम्मरयणसमारूढे छत्तरयणसमोच्छन्ने मणिरयणकउज्जोए समुग्गयभूएणं सुहंसुहेणं सत्तरत्तं परिवसइ--- णवि से खुहा ण विलियं णेव भयं व विज्जए दुक्खं / भरहाहिवस्स रणो खंधावारस्सवि तहेव // 1 // [76] राजा भरत ने छत्ररत्न को अपनी सेना पर तान दिया। यों छत्ररत्न को तानकर मणिरत्न का स्पर्श किया। (वह मणिरत्न विशिष्ट आकारयुक्त, सुन्दर था, चार अंगुल प्रमाण था, अमूल्य था-कोई उसका मूल्य प्रांक नहीं सकता था / वह तिखूटा था, ऊपर-नीचे षट्कोण युक्त था, अनुपम द्युतियुक्त था, दिव्य था, मणिरत्नों में सर्वोत्कृष्ट था, वैदूर्य मणि की जाति का था, सब लोगों का मन हरने वाला था--सबको प्रिय था, जिसे मस्तक पर धारण करने से किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं रह जाता था—जो सर्वकष्ट-निवारक था, सर्वकाल आरोग्यप्रद था। उसके प्रभाव से तिर्यञ्च Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [139 पशु-पक्षी, देव तथा मनुष्यकृत उपसर्ग-विघ्न कभी भी दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते थे। उस उत्तम मणि को धारण करनेवाले मनुष्य का संग्राम में किसी भी शस्त्र द्वारा वध किया जाना शक्य नहीं था। उसके प्रभाव से यौवन सदा स्थिर रहता था, बाल एवं नाखून नहीं बढ़ते थे। उसे धारण करने से मनुष्य सब प्रकार के भयों से विमुक्त हो जाता था।) उस मणिरत्न को राजा भरत ने छत्ररत्न के बस्तिभाग में—शलाकारों के बीच में स्थापित किया। राजा भरत के साथ गाथापतिरत्न-सैन्यपरिवार हेतु खाद्य, पेय आदि की समीचीन व्यवस्था करनेवाला उत्तम गृहपति था। वह अपनी अनुपम विशेषता-योग्यता लिये था। शिला की ज्यों अति स्थिर चर्मरत्न पर केवल वपन मात्र द्वारा शालि-कलम संज्ञक उच्चजातीय चावल, जौ, गेहूँ, मूग, उर्द, तिल, कुलथी, षष्टिक-तण्डुलविशेष, निष्पाव, चने, कोद्रव-कोदों, कुस्तु भरी-धान्यविशेष, कंगु, वरक, रालक-मसूर आदि दालें, धनिया, वरण आदि हरे पत्तों के शाक, अदरक, मूली, हल्दी, लौकी, ककड़ी, तुम्बक, बिजौरा, कटहल, पाम, इमली ग्रादि समग्र फल, सब्जी प्रादि पदार्थों को उत्पन्न करने में वह कुशल थासमर्थ था। सभी लोग उसके इन गुणों से सुपरिचित थे। उस श्रेष्ठ माथापति ने उसी दिन उप्त--बोये हुए, निष्पादित-पके हुए, पूत-तुष, भूसा आदि हटाकर साफ किये हुए सब प्रकार के धान्यों के सहस्रों कुभ राजा भरत को समर्पित किये / राजा भरत उस भीषण वर्षा के समय चर्मरत्न पर आरूढ रहा-स्थित रहा, छत्ररत्न द्वारा आच्छादित रहा, मणिरत्न द्वारा किये गये प्रकाश में सात दिन-रात सुखपूर्वक सुरक्षित रहा / उस अवधि में राजा भरत को तथा उसकी सेना को न भूख ने पीडित किया, न उन्होंने दैन्य का अनुभव किया और न वे भयभीत और दुःखित ही हुए। आपात किरातों की पराजय 77. तए ण तस्स भरहस्स रण्णो सत्तरत्तंसि परिणममाणसि इमेआरूवे अभत्थिए चितिए पस्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था- केस णं भो ! अपस्थिअपत्थए दुरंतपंतलक्खणे (होणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरि-) परिवज्जिए जे णं ममं इमाए एप्राणुरूवाए जाव अभिसमण्णागयाए उप्पि विजयखंधावारस्स जुगमुसलमुट्ठि-(पमाणमेत्ताहि धाराहि अोघमेघं सत्तरत्तं) वासं वासइ / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो इमेप्रारूवं अभत्थिन चितियं पत्थिमणोगयं संकप्पं समुप्पण्णं जाणित्ता सोलस देवसहस्सा सण्णज्झिउं पवत्ता यावि होत्था। तए णं ते देवा सण्णद्धबद्धवंम्मिश्रकवया जाव' गहियाउहप्पहरणा जेणेव ते मेहमुहा णागकुमारा देवा तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता मेहमुहे णागकुमारे देवे एवं वयासो-'हं भो ! मेहमुहा गागकुमारा! देवा अप्पत्थिनपत्थगा (दुरंतपंतलक्खणा होणपुण्णचाउद्दसा हिरिसिरि-) परिवज्जित्रा किणं तुब्भि ण याणह भरहं रायं चाउरंतचक्कट्टि महिडिश्र (महज्जुइयं जाव महासोक्खं णो खलु एस सक्को केणइ देवेण बा दाणवेण वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा सत्थप्पओगेण वा अम्गिप्पओगेण वा मंतप्पभोगेण वा) उबद्दवित्तए वा पडिसेहित्तए वा तहावि णं तुन्भे भरहस्स रण्णो विजयखंधावारस्स उप्पि जुगमुसल१. देखें सूत्र संख्या 57 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [अम्बूतीपप्राप्तिसूत्र मुढिप्पमाणमित्ताहि धाराहि श्रोधमेघ सत्तरत्तं वास वासह, तं एवमवि गते इत्तो खिप्पामेव अवक्कमह अहव णं अज्ज पासह चित्तं जीवलोगं / तए णं ते मेहमुहा णागकुमारा देवा तेहिं देवेहिं एवं वुत्ता समाणा भीमा तत्था वहिला उविग्गा संजायभया मेघानीकं पडिसाहरंति 2 ता जेणेव आवाडचिलाया तेणेव उवागच्छंति 2 ता प्रावाडचिलाए एवं क्यासी-एस णं देवाणुप्पिा ! भरहे राया महिड्डिए (महज्जुईए जाव महासोक्खे) णो खलु एस सक्को केणइ देवेण वा (दाणवेण वा किण्णरेण वा कि पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा सत्थप्पोगेण वा) अग्गिप्पओगेण वा (मंतप्पओगेण वा) उवद्दवित्तए वा पडिसेहित्तए वा तहावि अणं ते अम्हेहि देवाणुप्पिना ! तुम्भं पियट्टयाए भरहस्स रण्णो उवसग्गे कए, गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिा ! व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउअमंगलपायच्छित्ता उल्लपडसाडगा प्रोचूलगणिअच्छा अम्गाई वराई रयणाई गहाय पंजलिउडा पायवडिया भरहं रायाणं सरणं उवेह, पणिवइअवच्छला खलु उत्तमपुरिसा, पत्थि मे भरहस्स रण्णो प्रतिमाओ भयमिति कट्ट / एवं वदित्ता जामेव दिसि पाउन्भूआ तामेव दिसि पडिगया। तए ते प्रावाडचिलाया मेहमुहेहिं णागकुमारेहिं देवेहिं एवं धुत्ता समाणा उट्ठाए उठेति 2 त्ता व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउअमंगलपायच्छित्ता उल्लपडसाडगा प्रोचूलगणिअच्छा अग्गाई बराई रयणाइं गहाय जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति 2 ता करयलपरिग्गहिन जाव' मत्थए अंजलि कटु रायं जएणं विजएणं वद्धाविति 2 ता अग्गाई वराई रयणाई उवणेति 2 त्ता एवं वयासी वसुहर गुणहर जयहर, हिरिसिरिधीकित्तिधारकारद / लक्खणसहस्सधारक, रायमिदं णे चिरं धारे // 1 // हयवइ गयवइ गरवइ, णवणिहिवइ भरहवासपढमवई / बत्तीसजणवयसहस्सराय, सामी चिरं जीव // 2 // पढमणरीसर ईसर, हिअईसर महिलिआसहस्साणं / देवसयसाहसीसर, चोहसरयणीसर जसंसी // 3 // सागरगिरिमेराग, उत्तरवाईणमभिजिन तुमए / ता अम्हे देवाणुप्पिअस्स विसए परिवसामो // 4 // अहो णं देवाणुप्पिआणं इड्डी जुई जसे बले वोरिए पुरिसक्कारपरक्कमे दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे लद्ध पत्ते अभिसमण्णागए / तं दिट्ठा णं देवाणुप्पिाणं इड्डी एवं चेव (जुई जसे बले वीरिए परिसक्कारपरक्कमे दिव्वा देवजुई दिव्वे देवाणुभावे लद्ध पत्ते) अभिसमण्णागए। तं खामेमु णं देवाणप्पिा ! खमंतु णं देवाणुप्पिआ! खंतुमरहतु णं देवाणुप्पिया ! गाइ भुज्जो भुज्जो एवंकरणाएत्ति कटु पंजलिउडा पायवडिआ भरहं रायं सरणं विति। 1. देखें सूत्र संख्या 44 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार [141 तए णं से भरहे राया तेसिं आवाडचिलायाणं अग्गाइं वराई रयणाई पडिच्छति 2 ता ते भावाडचिलाए एवं वयासी-गच्छह णं भो! तुम्भे ममं बाहुच्छायापरिग्गहिया णिब्भया णिरुध्विग्गा सुहंसुहेणं परिवसह, णस्थि भे कत्तो वि भयमस्थित्ति कटु सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ। ___तए णं से भरहे राया सुसेणं सेणावई सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी—गच्छाहि णं भो देवाणुप्पिा ! दोच्चं पि सिंधुए महाणईए पच्चत्थिमं णिक्खुडं ससिंधुसागरगिरिमेरागं समविसमणि खुडाणि अ ओअवेहि 2 ता अग्गाई वराई रयणाई पडिच्छाहि 2 ता मम एप्रमाणत्तिन खिप्पामेव पच्चप्पिणाहि जहा दाहिणिल्लस्स प्रोयवणं तहा सव्वं भाणिअन्वं जाव पच्चणुभवमाणा विहरति / [77] जब राजा भरत को इस रूप में रहते हुए सात दिन रात व्यतीत हो गये तो उसके मन में ऐसा विचार, भाव, संकल्प उत्पन्न हुआ—वह सोचने लगा-अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु का प्रार्थी-चाहने वाला, दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला (पुण्य चतुर्दशी हीन-असम्पूर्ण थी, घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मा हुअा अभागा, लज्जा एवं शोभा से परिवजित) कौन ऐसा है, जो मेरी दिव्य ऋद्धि तथा दिव्य द्युति की विद्यमानता में भी मेरी सेना पर युग. मूसल एवं मुष्टिका प्रमाण जलधारा द्वारा सात दिन-रात हुए, भारी वर्षा करता जा रहा है / राजा भरत के मन में ऐसा विचार, भाव, संकल्प उत्पन्न हुआ जानकर सोलह हजार देव--- चोदह रत्नों के रक्षक चौदह हजार देव तथा दो हजार राजा भरत के अंगरक्षक देव-युद्ध हेतु सन्नद्ध हो गये / उन्होंने लोहे के कवच अपने शरीर पर कस लिये, शस्त्रास्त्र धारण किये, जहाँ मेघमुख नागकुमार देव थे, वहाँ आये / आकर उनसे बोले–मृत्यु को चाहने वाले, (दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाले, पुण्य चतुर्दशी हीन-असम्पूर्ण थी, घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्म लेने वाले अभागे, लज्जा तथा शोभा से परिजित) मेघमुख नागकुमार देवो! क्या तुम चातुरन्त चक्रवर्ती राजा भरत को नहीं जानते ? वह महा ऋद्धिशाली है / (परम द्युतिमान् तथा परम सौख्यशालीभाग्यशाली है / उसे न कोई देव-वैमानिक देवता, न कोई दानव-भवनवासी देवता, न कोई किन्नर, न कोई किंपुरुष, न कोई महोरग तथा न कोई गन्धर्व ही रोक सकता है, न बाधा उत्पन्न कर सकता है / न उसे शस्त्र प्रयोग द्वारा, न अग्नि-प्रयोग द्वारा तथा न मन्त्र-प्रयोग द्वारा ही उपद्रत किया जा सकता है, रोका जा सकता है।) फिर भी तुम राजा भरत की सेना पर युग, मूसल तथा मुष्टिकाप्रमाण जल-धाराओं द्वारा सात दिन-रात हुए भीषण वर्षा कर रहे हो / तुम्हारा यह कार्य अनुचित है-तमने यह बिना सोचे समझे किया है, किन्तु बीती बात पर अब क्या अधिक्षेप कर-उपालभ द / तुम अब शीघ्र ही यहाँ से चले जाओ, अन्यथा इस जीवन से अग्रिम जीवन देखने को तैयार हो जायोमृत्यु की तैयारी करो। __ जब उन देवताओं ने मेघमुख नागकुमार देवों को इस प्रकार कहा तो वे भीत, त्रस्त, व्यथित एवं उद्विग्न हो गये, बहुत डर गये / उन्होंने बादलों की घटाएँ समेट लीं। समेट कर, जहाँ आपात किरात थे, वहाँ आये और बोले- देवानुप्रियो ! राजा भरत महा ऋद्धिशाली (परम द्युतिमान् तथा परम सौभाग्यशाली है / उसे न कोई देव, न कोई दानव, न कोई किन्नर, न कोई किंपुरुष, न कोई महोरग तथा न कोई गन्धर्व ही रोक सकता है, न बाधा उत्पन्न कर सकता है / न उसे शस्त्र प्रयोग Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र द्वारा, न अग्नि-प्रयोग द्वारा तथा न मन्त्र-प्रयोग द्वारा ही उपद्र त किया जा सकता है, रोका जा सकता है / ) देवानुप्रियो ! फिर भी हमने तुम्हारा अभीष्ट साधने हेतु राजा भरत के लिए उपसर्ग-विघ्न किया। अब तुम जानो, स्नान करो, नित्य-नैमित्तिक कृत्य करो, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन आंजो, ललाट पर तिलक लगाओ, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान करो / यह सब कर तुम गीली धोती, गीला दुपट्टा धारण किये हुए, वस्त्रों के नीचे लटकते किनारों को सम्हाले हए ----पहने हए वस्त्रों को भली भांति बाँधने में-जचाने में समय न लगाते हुए श्रेष्ठ, उत्तम रत्नों को लेकर हाथ जोड़े राजा भरत के चरणों में पड़ो, उसकी शरण लो। . उत्तम पुरुष विनम्र जनों के प्रति वात्सल्य-भाव रखते हैं, उनका हित करते हैं / तुम्हें राजा भरत से कोई भय नहीं होगा। यों कहकर वे देव जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में चले गये। __ मेघमुख नागकुमार देवों द्वारा यों कहे जाने पर वे आपात किरात उठे। उठकर स्नान किया, नित्य नैमित्तिक कृत्य किये, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया। यह सब कर गीली धोती एवं गीला दपटा धारण किये हाए. वस्त्रों के नीचे लटकते किनारे सम्हाले हए-पहने हुए वस्त्रों को भली भाँति बाँधने में भी–जचाने में भी समय न लगाते हुए श्रेष्ठ, उत्तम रत्न लेकर जहाँ राजा भरत था, वहाँ पाये / आकर हाथ जोडे, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया। राजा भरत को ‘जय विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित किया, श्रेष्ठ, उत्तम रत्न भेंट किये तथा इस प्रकार बोलेषट्खण्डवर्ती वैभव के-सम्पत्ति के स्वामिन् ! गुणभूषित ! जयशील ! लज्जा, लक्ष्मी, धृति सन्तोष, कोति के धारक ! राजोचित सहस्रों लक्षणों से सम्पन्न ! नरेन्द्र ! हमारे इस राज्य का चिरकाल पर्यन्त पाप पालन करें / / 1 / / अश्वपते ! गजपते ! नरपते ! नबनिधिपते ! भरत क्षेत्र के प्रथमाधिपते ! बत्तीस हजार देशों के राजाओं के अधिनायक! आप चिरकाल तक जीवित रहें-दीर्घायु हों / / 2 / / प्रथम नरेश्वर ! ऐश्वर्यशालिन् ! चौसठ हजार नारियों के हृदयेश्वर-प्राणवल्लभ ! रत्नाधिष्ठातृ-मागध तीर्थाधिपति आदि लाखों देवों के स्वामिन् ! चतुर्दश रत्नों के धारक ! यशस्विन् ! पापने aa में समुद्रपर्यन्त और उत्तर दिशा में क्षल्ल हिमवान गिरि पर्यन्त उत्तराध, दक्षिणार्ध–समग्र भरतक्षेत्र को जीत लिया है (जीत रहे हैं। हम देवानप्रिय के देश में प्रजा के रूप में निवास कर रहे हैं. हम आपके प्रजाजन हैं / / 3-4 // देवानुप्रिय की- आपकी ऋद्धि-सम्पत्ति, द्युति-कान्ति, यश-कीर्ति, बल-दैहिक शक्ति, वीर्य-आन्तरिक शक्ति, पुरुषकार--पौरुष तथा पराक्रम--ये सब आश्चर्यकारक हैं। आपको दिव्य देव-धुति---देवताओं के सदृश परमोत्कृष्ट कान्ति, परमोत्कृष्ट प्रभाव अपने पुण्योदय से प्राप्त है। हमने आपकी ऋद्धि (द्युति, यश, बल, वीर्य, पौरुष, पराक्रम, दिव्य देव-द्युति, दिव्य देव-प्रभाव, जो आपको लब्ध है, प्राप्त है, स्वायत्त है) का साक्षात् अनुभव किया है / देवानुप्रिय ! हम आपसे क्षमा ना करते हैं। देवानप्रिय ! आप हमें क्षमा करें। आप क्षमा करने योग्य हैं--क्षमाशील हैं। देवानप्रिय ! हम भविष्य में फिर कभी ऐसा नहीं करेंगे। यों कहकर वे हाथ जोडे राजा भरत के चरणों में गिर पड़े, शरणागत हो गये। फिर राजा भरत ने उन आपात किरातों द्वारा भेंट के रूप में उपस्थापित उत्तम, श्रेष्ठ रत्न Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ _. तृतीय वक्षस्कार [143 स्वीकार किये / स्वीकार कर उनसे कहा तुम अब अपने स्थान पर जाओ। मैंने तुमको अपनी भुजाओं की छाया में स्वीकार कर लिया है ---मेरा हाथ तुम्हारे मस्तक पर है। तुम निर्भयभयरहित, निरुद्व ग-उद्वेग रहित–व्यथा रहित होकर सुखपूर्वक रहो। अब तुम्हें किसी से भी भय नहीं है / यों कहकर राजा भरत ने उनका सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया। तब राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया और कहा-देवानुप्रिय ! जानो, पूर्वसाधित निष्कुट--कोणवर्ती प्रदेश की अपेक्षा दूसरे, सिन्धु महानदी के पश्चिम भागवर्ती कोण में विद्यमान, पश्चिम में सिन्धु महानदी तथा पश्चिमी समुद्र, उत्तर में क्षुल्ल हिमवान् पर्वत तथा दक्षिण में वैताढय पर्वत द्वारा मर्यादित-विभक्त प्रदेश को, उसके सम-विषम कोणस्थ स्थानों को साधित करो-विजित करो / वहाँ से उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में प्राप्त करो। यह सब कर मुझे शीघ्र ही अवगत कराओ। इससे आगे का भाग दक्षिणी सिन्धु निष्कुट के विजय के वर्णन के सदृश है / वैसा ही यहाँ समझ लेना चाहिए। चुल्लहिमवंतविजय 78. तए णं दिव्ये चक्करयणे अण्णया कयाइ आउहघरसालानो पडिणिक्खमइ 2 ता अंतलिक्खपडिवणे जाव' उत्तरपुरच्छिमं दिसि चुल्लाहिमवंतपव्वयाभिमुहे पयाते यावि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्यं चक्करयणं (उत्तरपुरच्छिमं दिसि चुल्लाहिमवंतपव्वयाभिमुहे पयातं पासइ) चुल्लहिमवंतवासहरपव्ययस्स अदूरसामंते दुवालसयोजनायाम (णवजोअणवित्थिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवेसं करेइ) चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्टमभत्तं पगिण्हइ, तहेव जहा मागहतित्थस्स (हयगयरहपकरज़ोहकलिपाए सद्धि संपरिवुडे महया-भडचडगर-पहगरवंदपरिक्खित्ते चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगरायवरसहस्साणुआयमग्गे महया उक्किटुसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभियमहा-) समुद्दरवभूअंपिव करेमाणे 2 उत्तरदिसाभिमुहे जेणेव चुल्लहिमवंतवासहरपव्वए तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता चुल्ल हिमवंतवासहरपब्धयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ, फुसित्ता तुरए णिगिण्हइ, णिगिहित्ता तहेव (रहं ठवेइ 2 ता धणु परामुसइ, तए णं तं अइरुग्गयबालचन्द-इंदधणुसंकासं वरमहिसदरिप्रदप्पिअदढ-घसिंगरइअसारं उरगवरपवरगवलपवर-परहुप्रभमरकुलणीलिणिद्धधंतधोअपर्ट्स णिउणोविअमिसिमिसिंतमणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्तं तडिततरुणकिरणतवणिज्जबचिधं दद्दरमलयगिरिसिहरकेसरचामरवालद्धचंचिधं कालहरिअरत्तपीअसुक्किल्लबहुण्हारुणिसंपिणद्धजीवं जीविअंतकरणं चलजीवं धणू गहिऊण से परवई उसु च वरवइरकोडिअ वइरसारतोंड कंचणमणिकणगरयणधाइट्ठसुकयपुखं अणेगमणिरयणविविहसुविरइयनाचिधं वइसाहं ठाईऊण ठाणं) आयत्तकण्णायतं च काऊण उसुमुदारं इमाणि वयणाणि तत्थ भाणीय से परवई (हंदि सुणंतु भवंतो, बाहिरओ खलु सरस्स जे देवा णागासुरा सुवण्णा, तेसि खु णमो पणिक्यामि। हंदि सुणंतु भवतो, 1. देखें सूत्र संख्या 52 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अभिंतरओ सरस्स जे देवा। णागासुरा सुवण्णा,) सव्वे मे ते विसयवासित्ति कटु उद्धं वेहासं उसु णिसिरइ परिगरणिगरिअमज्झो, (वाउद्घ असोभमाणकोसेज्जो। चित्तेण सोभए धणुवरेण इंदोव्व पच्चक्खं / ) तए णं से सरे भरहेणं रण्णा उड्ढं बेहासं णिस? समाणे खिप्पामेव बावरि जोअणाई गंता चुल्ल हिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स मेराए णिवइए / तए णं से चुल्लहिमवंतगिरिकुमारे देवे मेराए सरं णिवइ पासइ 2 ता प्रासुरुत्ते रु? (चंडिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिडि पिडाले साहरइ 2 ता एवं वयासी-केस गं भो एस अपस्थिप्रपत्थए दुरंतपंतलक्खणे होणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जे णं मम इमाए एआणुरूवाए दिव्वाए देविद्धोए दिवाए देवजुईए दिव्वेणं दिव्वाणुभावेणं लद्धाए पत्ताए अभिसमण्णागयाए उष्पि अप्पुस्सुए भवणंसि सरं मिसिरइत्ति कटु सोहासणाप्रो अन्भुटुइ 2 ता जेणेक से णामाहयंके सरे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता तं णामाहयंकं सरं गेण्हइ, णामंकं अणुप्पवाएइ, णामकं अणुप्पवाएमाणस्स इमे एआरवे अब्भस्थिए चितिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था उप्पण्णे खलु भो ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे णाम राया चाउरंतचक्कवट्टी, तं जोअमेअं तोअपच्चुप्पण्णमणागयाणं चुल्ल हिमवंतगिरिकुमाराणं देवाणं राईणमुबत्थाणीअं करेत्तए / तं गच्छामि णं अहंपि भरहस्स रण्णो उवत्थाणीनं करेमित्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता) पोइदाणं सव्वोसहि च मालं गोसीसचंदणं कडगाणि ( तुडिआणि अ वत्थाणि न प्राभरणाणि अ सरं च णामाहयक) दहोदगं च गेण्हइ 2 ता ताए उक्किट्ठाए जाव' उत्तरेणं चुल्लहिमवंतगिरिमेराए अहण्णं देवाणुप्पिआणं विसयवासी (अहण्णं देवाणुप्पियाणं प्राणत्तीकिकरे) अहण्णं देवाणुप्पिाणं उत्तरिल्ले अंतवाले (तं पडिच्छंतु णं देवाणुपिया! ममं इमेआरूवं पोइदाणंति कट्ट सम्वोसहिं च मालं गोसीसचंदणं कडगाणि अतुडिआणि अ वत्थाणि प्र प्राभरणाणि अ सरं च णामाहयक दहोदगं च उबणेइ / तए णं से भरहे राया चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स इमेयारूवं पीइदाणं पडिच्छाइ 2 ता चुल्ल हिमवंतगिरिकुमारं देवं) पडिविसज्जेइ / [78] आपात किरातों को विजित कर लेने के पश्चात् एक दिन वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला, आकाश में अधर अवस्थित हुआ। फिर वह उत्तर-पूर्व दिशा में--- ईशान कोण में क्षुद्र-लघु हिमवान् पर्वत की ओर चला। राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को उत्तर-पूर्व दिशा में क्षुद्र हिमवान् पर्वत की ओर जाते देखा / उसने क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत से न अधिक दूर, न अधिक समीप-कुछ ही दूरी पर बारह योजन लम्बा (नौ योजन चौड़ा, उत्तम नगर जैसा) सैन्य-शिविर स्थापित किया। उसने क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव को उद्दिष्ट कर तेले की तपस्या स्वीकार की। आगे का वर्णन मागध तीर्थ के प्रसंग जैसा है। (... .." राजा भरत घोड़े, हाथी, रथ तथा पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना से घिरा था / बड़े-बड़े योद्धाओं का समूह उसके साथ चल रहा था / चक्ररत्न द्वारा दिखाये गये मार्ग पर वह आगे 1. देखें सुत्र संख्या 34 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [145 बढ़ रहा था। हजारों मुकुटधारी श्रेष्ठ राजा उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। उस द्वारा किये गये सिंहनाद के कलकल शब्द से ऐसा भान होता था कि मानो वायु द्वारा प्रक्षुभित महासागर गर्जन कर रहा हो।) राजा भरत उत्तर दिशा की ओर अग्रसर हुआ / जहाँ क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत था, वहाँ पाया। उसके रथ का अग्रभाग क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत से तीन बार स्पृष्ट हुआ। उसने वेगपूर्वक चलते हुए घोड़ों को नियन्त्रित किया। (घोड़ों को नियन्त्रित कर रथ को रोका / धनुष का स्पर्श किया। वह धनुष आकार में अचिरोद्गत बाल-चन्द्र-शुक्ल पक्ष की द्वितीया के चन्द्र जैसा एवं इन्द्रधनुष जैसा था / उत्कृष्ट, गर्वोद्धत भैसे के सुदृढ, सधन सींगों की ज्यों निविड-निश्छिद्र पुद्गल-निष्पन्न था। उस धनुष का पृष्ठभाग उत्तम नाग, महिष-शृग, श्रेष्ठ कोकिला, भ्रमरसमूह तथा नील के सदृश उज्ज्वल काली कान्ति से युक्त, तेज से जाज्वल्यमान एवं निर्मल था। निपूण शिल्पी द्वारा चमकाये गये, देदीप्यमान मणियों और रत्नों की घंटियों के समह से वह परिवेष्टित था। बिजली की तरह जगमगाती किरणों से युक्त, स्वर्ण से परिबद्ध तथा चिह्नित था। दर्दर एवं मलय पर्वत के शिखर पर रहनेवाले सिंह के अयालों तथा चवरी गाय के पूछ के बालों के उस पर सुन्दर, अर्धचन्द्राकार बन्ध लगे थे। काले, हरे, लाल, पीले तथा सफेद स्नायुगों-नाड़ीतन्तुओं से उसकी प्रत्यंचा बँधी थी। शत्रुओं के जीवन का विनाश करने में वह सक्षम था। उसकी प्रत्यंचा चंचल थी / राजा ने वह धनुष उठाया / उस पर बाण चढ़ाया। बाण की दोनों कोटियाँ उत्तम वज्र-श्रेष्ठ हीरों से बनी थीं। उसका मुख-सिरा वन की ज्यों अभेद्य था। उसका पुखपीछे का भाग स्वर्ण में जड़ी हुई चन्द्रकान्त आदि मणियों तथा रत्नों से सुसज्ज था। उस पर अनेक मणियों और रत्नों द्वारा सुन्दर रूप में राजा भरत का नाम अंकित था / भरत ने वैशाख–धनुष चढ़ाने के समय प्रयुक्त किये जाने वाले विशेष पाद-न्यास में स्थिर होकर) उस उत्कृष्ट बाण को कान तक खींचा (और वह यों बोला-मेरे द्वारा प्रयुक्त बाण के बहिर्भाग में तथा आभ्यन्तर भाग में अधिष्ठित नागकुमार, असुरकुमार, सुपर्णकुमार, आदि देवो ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। प्राप सुनें-स्वीकार करें।) ऐसा कर राजा भरत ने वह बाण ऊपर आकाश में छोड़ा / मल्ल जब अखाड़े में उतरता है तब जैसे वह कमर बाँधे होता है, उसी प्रकार भरत युद्धोचित वस्त्र-बन्ध द्वारा अपनी कमर बाँधे था। (उसका कौशेय-पहना हुआ वस्त्र-विशेष हवा से हिलता हुआ बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। विचित्र, उत्तम धनुष धारण किये वह साक्षात् इन्द्र की ज्यों सुशोभित हो रहा था / ) राजा भरत द्वारा ऊपर आकाश में छोड़ा गया वह बाण शीघ्र ही बहत्तर योजन तक जाकर क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव की मर्यादा में-सीमा में तत्सम्बद्ध समुचित स्थान में गिरा / क्षुद्र हिमवान् गिरिकुमार देव ने बाण को अपने यहाँ गिरा हा देखा तो वह तत्क्षण क्रोध से लाल हो गया। (रोषयुक्त हो गया -कोपाविष्ट हो गया, प्रचण्ड-विकराल हो गया, क्रोधाग्नि से उद्दीप्त हो गया। कोपाधिक्य से उसके ललाट पर तीन रेखाएँ उभर आई। उसकी भृकुटि तन गई / वह बोला-अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाला, दुःखद अन्त तथा अशुभ लक्षण वाला, पुण्य चतुर्दशी जिस दिन हीन--असम्पूर्ण थी-घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मा हुआ, लज्जा, श्री-शोभा से परिवजित वह कौन अभागा है, जिसने उत्कृष्ट Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र देवानुभाव से-दैविक प्रभाव से लब्ध, प्राप्त, स्वायत्त मेरी ऐसी दिव्य देवऋद्धि, देवद्यति पर प्रहार करते हुए, मौत से न डरते हए मेरे यहाँ बाण गिराया है ! यों कहकर वह अपने सिंहासन से उठा और जहाँ वह नामांकित बाण पड़ा था, वहाँ पाया / वहाँ आकर उस बाण को उठाया, नामांकन देखा / देखकर उसके मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ—जम्बूद्वीप के अन्तर्वर्ती भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है / अत: अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती क्षुद्र हिमवान-गिरिकुमार देवों के लिए यह उचित है-परंपरागत व्यवहारानुरूप है कि वे (चक्रवर्ती) राजा को उपहार भेंट करें / इसलिए मैं भी जाऊँ, राजा को उपहार भेंट करू। यों विचार कर) उसने प्रीतिदान-भेंट के रूप में सर्वोषधियाँ, कल्पवृक्ष के फूलों की माला, गोशीर्ष चन्दन--हिमवान् कुज में उत्पन्न होने वाला चन्दन-विशेष, कटक (श्रुटित, वस्त्र, आभूषण, नामांकित बाण), पद्मद्रह-पद्म नामक (ह्रद) का जल लिया। यह सब लेकर उत्कृष्ट तीव्र गति द्वारा वह राजा भरत के पास आया। आकर बोला- मैं क्षुद्र हिमवान् पर्वत की सीमा में देवानुप्रिय के—आपके देश का बासी हूँ। मैं आपका आज्ञानुवर्ती सेवक हूँ। आपका उत्तर दिशा का अन्तपाल हूँ-उपद्रव-निवारक हूँ। अतः देवानुप्रिय ! आप मेरे द्वारा उपहृत भेंट स्वीकार करें। यों कहकर उसने सर्वोषधि, माला, गोशीर्ष चन्दन, कटक, त्रुटित, वस्त्र, आभूषण, नामांकित बाण तथा पदमहद का जल भेंट किया। राजा भरत ने क्षुद्र हिमवान-गिरिकूमार देव द्वारा इस प्रकार भेंट किये गये उपहार स्वीकार किये। स्वीकार करके क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देव को विदा किया। ऋषभकूट पर नामांकन 76. तए णं से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ 2 ता रहं परावत्तेइ 2 ता जेणेव उसहकूडे तेणेव उवागच्छइ 2 ता उसहकूडं पव्वयं तिक्खुत्तो रहसिरेणं फुसइ 2 ता तुरए णिगिण्हइ 2 ता रहं ठवेइ 2 ता छत्तलं दुवालसंसिनं अटुकण्णिअं अहिगरणिसंठिनं सोवण्णि कागणिरयणं परामुसइ 2 ता उसभकूडस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लसि कडगंसि णामगं पाउडेइ प्रोसप्पिणीइमोसे, तइपाए समाए पच्छिमे भाए। प्रहमंसि चक्कवट्टी, भरहो इन नामधिज्जेणं // 1 // अहमंसि पढमराया, प्रहयं भरहाहियो परवरिंदो। णस्थि महं पडिसत्तू, जिअं मए भारहं वासं // 2 // इति कटु णामगं प्राउडेइ, णामगं प्राउडित्ता रहं परावत्तेइ 2 ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे, जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ 2 ता (तुरए णिगिण्हइ 2 ता रहं ठवेइ 2 ता रहाम्रो पच्चोरहति 2 ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता मज्जणघरं अणुपविसइ 2 ता जाव ससिव्व पिअदंसणे णरवई मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 त्ता जेणेव भोप्रणमंडवे तेणेव उवागच्छइ 2 ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ 2 ता भोप्रणमंडवाओ पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे णिसीप्रइ 2 ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीयो सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] . [147 देवाणुप्पिया ! उस्सुक्कं उक्करं जाव चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्टाहिलं महामहिमं करेह २त्ता मम एप्रमाणत्तिअं पच्चप्पिण्णह, तए णं ताम्रो अट्ठारस सेणिप्पसेणीयो भरहेणं रण्णा एवं वुत्ताओ समाणीनो हट्ठ जाव करेंति 2 ता एप्रमाणत्तिनं पच्चप्पिणंति) चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए पाउहघरसालानो पडिणिक्खमइ 2 सा जाव' दाहिणि दिसि वेअड्डपन्वयाभिमुहे पयाते प्रावि होत्था / [79] क्षुद्र हिमवान् पर्वत पर विजय प्राप्त कर लेने के पश्चात् राजा भरत ने अपने रथ के घोड़ों को नियन्त्रित किया-दाईं ओर के दो घोड़ों को लगाम द्वारा अपनी ओर खींचा तथा बाई प्रोर के दो घोड़ों को आगे किया-ढीला छोड़ा / यों उन्हें रोका। रथ को वापस मोड़ा / वापस मोड़कर जहाँ ऋषभकूट पर्वत था, वहाँ आया / वहाँ आकर रथ के अग्र भाग से तीन बार ऋषभकूट पर्वत का स्पर्श किया। तीन बार स्पर्श कर फिर उसने घोड़ों को खड़ा किया, रथ को ठहराया। रथ को ठहराकर काकणी रत्न का स्पर्श किया / वह (काकणी) रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर, नीचे छह तलयुक्त था। ऊपर, नीचे एवं तिरछे---प्रत्येक अोर वह चार-चार कोटियों से युक्त था, यों बारह कोटि युक्त था। उसकी आठ कणिकाएँ थीं। अधिकरणी--स्वर्णकार लोह-निर्मित जिस पिण्डी पर सोने, चाँदी आदि को पीटता है, उस पिण्डी के समान आकारयुक्त था, सौणिक था--अष्टस्वर्णमानपरिमाण था। राजा ने काकणी रत्न का स्पर्श कर ऋषभकूट पर्वत के पूर्वीय कटक में-मध्य भाग में इस प्रकार नामांकन किया इस अवसर्पिणी काल के तीसरे प्रारक के पश्चिम भाग में---तीसरे भाग में मैं भरत नामक चक्रवर्ती हुआ हूँ // 1 // मैं भरतक्षेत्र का प्रथम राजा-प्रधान राजा हूँ, भरतक्षेत्र का अधिपति हँ, नरवरेन्द्र है। मेरा कोई प्रतिशत्रु-प्रतिपक्षी नहीं है। मैंने भरतक्षेत्र को जीत लिया है / / 2 // इस प्रकार राजा भरत ने अपना नाम एवं परिचय लिखा। वैसा कर अपने रथ को वापस मोड़ा / वापस मोड़कर, जहाँ अपना सैन्य-शिविर था, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ पाया। (वहाँ आकर घोड़ों को नियन्त्रित किया, रथ को ठहराया, रथ से नीचे उतरा। नीचे उतर कर, जहाँ स्नानघर था, वहाँ पाया, स्नानघर में प्रविष्ट हुआ / स्नानादि सम्पन्न कर, चन्द्र की ज्यों प्रियदर्शन-प्रीतिप्रद दिखाई देनेवाला राजा भरत स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकल कर वह भोजन-मंडप में पाया, सुखासन से बैठा अथवा शुभ-उत्तम आसन पर बैठा, तेले का पारणा किया। पारणा कर, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ पाया। पूर्व की ओर मूह कर सिंहासन पर बैठा / अपने अठारह श्रेणि-प्रवेणि जनों को बुलाया, उनसे कहा—देवानुप्रियो ! मेरी ओर से यह घोषणा करो कि क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देव को विजय करने के उपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित किया जाए। इन आठ दिनों में राज्य में कोई भी क्रय-विक्रय आदि 1. देखें सूत्र 50 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148] [जम्मूतोषप्राप्तिमूत्र से सम्बद्ध शुल्क, सम्पत्ति आदि पर लिया जाने वाला राज्य-कर आदि न लिये जाएँ / मेरे आदेशानुरूप यह कार्य परिसम्पन्न कर मुझे अवगत करायो / राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जन अपने मन में हर्षित हुए। उन्होंने राजा के आदेशानुरूप सब व्यवस्थाएं की, महोत्सव आयोजित करवाया। वैसा कर उन्होंने राजा को सूचित किया / ) क्षुद्र हिमवान्-गिरिकुमार देव को विजय करने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्ट दिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला / बाहर निकलकर उसने दक्षिण दिशा में वैताढय पर्वत की ओर प्रयाण किया। नमि-विनमि-विजय ___ 80. तए णं से भरहे राया तं दिवं चक्करयणं जाव' वेपद्धस्स पव्वयस्स उत्तरिल्ले णितंबे तेणेव उवागच्छइ 2 ता वेअद्धस्स पम्वयस्स उत्तरिल्ले णितंबे बुवालसजोयणायामं जाव पोसहसालं अणुपविसइ जाव णमिविणमीणं विज्जाहरराईणं अट्ठमभत्तं पगिण्हइ 2 ता पोसहसालाए (अट्टमभत्तिए) णमिविणमिविज्जाहररायाणो मणसि करेमाणे 2 चिट्ठइ। तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि णमिविणमिविज्जाहररायाणो दिव्वाए मईए चोइअमई अण्णमण्णस्स अंतिसं पाउम्भवंति 2 ता एवं वयासी उप्पण्णे खलु भो देवाणुप्पिश्रा ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी तं जोनमेनं तोअपच्चुप्पण्णमणागयाणं विज्जाहरराईणं चक्कवट्टीणं उवत्थाणिों करेत्तए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! अम्हेवि भरहस्स रण्णो उवत्थाणिकं करेमो इति कटु विणमी णाऊणं चक्कट्टि दिव्वाए मईए चोइअमई माणुम्माणप्पमाणजुत्तं तेअस्सि रूवलक्खणजुत्तं ठिअजुन्वणकेसड्डिअणहं सव्वरोगणासणि बलकरि इच्छिअसोउण्हफासजुत्तं-- तिसु तणअं तिसु तंब तिवलीगतिउण्णयं तिगंभीरं / तिसु कालं तिसु सेनं तिप्रायतं तिसु अविच्छिण्णं // 1 // समसरीरं भरहे वासंमि सन्वमहिलपहाणं सुदरथणजघणवरकरचलणणयणसिरसिजदसणजणहिअयरमणमणहरि सिंगारगारं-(चारुवेसं संगयगयहसिमभणिचिट्ठिअविलासललिप्रसंलावनिउण-) जुत्तोक्यारकुसलं अमरवहणं सुरूवं रूवेणं अणुहरंतों सुभदं भइंमि जोवणे वट्टमाणि इत्योरयणं णमी अ रयणाणि य कडगाणि य तुडिआणि अगेण्हइ 2 ता ताए उक्किट्ठाए तुरिमाए जाव' उद्ध आए विज्जाहरगईए जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति 2 ता अंतलिखपडिवण्णा सखिखिणीयाई (पंचवण्णाई वत्थाई पवर-परिहिए करयलपरिग्गहिरं दसणहं सिर-जाव अंजलि कटु भरहं रायं) 1. देखें सूत्र 50 2. देखें सूत्र 62 3. देखें सूत्र 51 4. देखें सूत्र 34 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय पक्षकार [149 जएणं विजएणं वद्धाति 2 ता एवं वयासी-अभिजिए णं देवाणुप्पिा ! (केवलकल्पे भरहे वासे उत्तरेणं चुल्लाहमवंतमेराए तं अम्हे देवाणुपियाणं विसयवासी) अम्हे देवाणुप्पियाणं आणतिकिकरा इति कटु तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिा ! अम्हं इमं (इमेप्रारूवं पोइदाणंति क१) विणमी इत्थीरयणं णमी रयणाणि समप्पेइ / तए णं से भरहे राया (नमिविनमीणं विज्जाहरराईणं इमेयारूवं पोइदाणं पडिच्छइ 2 ता नमिविनमीणं विज्जाहरराईणं सक्कारेइ सम्माणेइ 2 त्ता) पडिविसज्जेइ 2 त्ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता मज्जणधरं अणुपविसइ 2 ता भोप्रणमंडवे जाव' नमिविनमीणं विज्जाहरराईणं अट्टाहिमहामहिमा। तए णं से दिव्वे चक्करयणे पाउहघरसालानो पडिणिक्खमइ जाव' उत्तरपुरस्थिमं दिसि गंगादेवीभवणाभिमुहे पयाए प्रावि होत्था, सच्चेव सव्वा सिंधुवत्तव्वया जाव नवरं कुभट्ठसहस्सं रयणचित्तं णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताणि अदुवे कणगसीहासणाई सेसं तं चेव जाव महिमत्ति। [80] राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण दिशा में वैताढय पर्वत की ओर जाते हुए देखा / वह बहुत हर्षित एवं परितुष्ट हुआ / वह वैताढय पर्वत की उत्तर दिशावर्ती तलहटी में आया / वहाँ बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा श्रेष्ठ नगर सदृश सैन्यशिविर स्थापित किया। वहाँ वह पौषधशाला में प्रविष्ट हुआ। श्रीऋषभ स्वामी के कच्छ तथा महाकच्छ नामक प्रधान सामन्तों के पुत्र नमि एवं विनमि नामक विद्याधर राजाओं को उद्दिष्ट कर उन्हें साधने हेतु तेले की तपस्या स्वीकार की। पौषधशाला में (तेले की तपस्या में विद्यमान) नमि, विनमि विद्याधर राजाओं का मन में ध्यान करता हुआ वह स्थित रहा। राजा की तेले की तपस्या जब परिपूर्ण होने को आई, तब नमि, विनमि विद्याधर राजाओं को अपनी दिव्य मति--दिव्यानुभाव-जनित ज्ञान द्वारा इसका भान हुआ / वे एक दूसरे के पास आये, परस्पर मिले और कहने लगे—जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है / अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती विद्याधर राजाओं के लिए यह उचित है-परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें। इसलिए हम भी राजा भरत को अपनी ओर से उपायन उपहृत करें। यह सोचकर विद्याधरराज विनमि ने अपनी दिव्य मति से प्रेरित होकर चक्रवर्ती राजा भरत को भेंट करने हेतु सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न लिया / स्त्रीरत्न-परम सुन्दरी सुभद्रा का शरीर मानोन्मान प्रमाणयुक्त -दहिक फैलाव, वजन, ऊँचाई आदि की दृष्टि से वह परिपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सर्वांगसुन्दर था। वह तेजस्विनी थी, रूपवती एवं लावण्यमयी थी। वह स्थिर यौवन युक्त थी-उसका यौवन अविनाशी था / उसके शरीर के केश तथा नाखून नहीं बढ़ते थे / उसके स्पर्श से सब रोग मिट जाते थे। वह बल-वृद्धिकारिणी थी-उसके परिभोग से परिभोक्ता का बल, कान्ति बढ़ती थी / ग्रीष्म ऋतु में वह शीत- . स्पर्शा तथा शीत ऋतु में उष्णस्पर्शा थी / 1. देखें सूत्र 79 2. देखें सूत्र 50 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र वह तीन स्थानों में कटिभाग में, उदर में तथा शरीर में कृश थी। तीन स्थानों में नेत्र के प्रान्त भाग में, अधरोष्ठ में तथा योनिभाग में ताम्र-लाल थी / वह त्रिवलियुक्त थी-देह के मध्य उदर स्थित तीन रेखाओं से युक्त थी। वह तीन स्थानों में-स्तन, जघन तथा योनिभाग में उन्नत थी। तीन स्थानों में नाभि में, सत्त्व में--अन्तःशक्ति में तथा स्वर में गंभीर थी। वह तीन स्थानों में रोमराजि में, स्तनों के चूचकों में तथा नेत्रों की कनीनिकायों में कृष्ण वर्ण युक्त थी। तीन में-दाँतों में, स्मित में-मुसकान में तथा नेत्रों में वह श्वेतता लिये थी। तीन स्थानों मेंकेशों की वेणी में, भजलता में तथा लोचनों में प्रलम्ब थी-लम्बाई लिये थी। तीन स्थानों में--- श्रोणिचक्र में, जघन-स्थली में तथा नितम्ब बिम्वों में विस्तीर्ण थी-चौड़ाई युक्त थी / / 1 / / वह समचौरस दैहिक संस्थानयुक्त थी। भरतक्षेत्र में समग्र महिलाओं में वह प्रधान--श्रेष्ठ थी। उसके स्तन, जघन, हाथ, पैर, नेत्र, केश, दाँत सभी सुन्दर थे, देखने वाले पुरुष के चित्त को ग्राह्लादित करने वाले थे, आकृष्ट करने वाले थे। वह मानो शृगार-रस का आगार-गृह थी। (उसकी वेशभूषा बड़ी लुभावनी थी। उसकी गति–चाल, हँसी, बोली, चेष्टा, कटाक्ष--ये सब बड़े संगत-सुन्दर थे / वह लालित्यपूर्ण संलाप- वार्तालाप करने में निपुण थी।) लोक-व्यवहार में वह कुशल-प्रवीण थी / वह रूप में देवांगनाओं के सौन्दर्य का अनुसरण करती थी / वह कल्याणकारीसुखप्रद यौवन में विद्यमान थी। विद्याधरराज नमि ने चक्रवर्ती भरत को भेंट करने हेतु रत्न, कटक तथा त्रुटित लिये / उत्कृष्ट त्वरित, तीन विद्याधर-गति द्वारा वे दोनों, जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये / वहाँ आकर वे आकाश में अवस्थित हुए। (उन्होंने छोटी-छोटी घंटियों से युक्त, पंचरंगे वस्त्र भलीभाँति पहन रखे थे / उन्होंने हाथ जोडे, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया। ऐसा कर) उन्होंने जय-विजय शब्दों द्वारा राजा भरत को वर्धापित किया और कहा---(देवानुप्रिय ! आपने उत्तर में क्षुद्र हिमवान पर्वत की सीमा तक भरतक्षेत्र को जीत लिया है। हम आपके देशवासी हैं आपके प्रजाजन हैं, हम आपके प्राज्ञानवर्ती सेवक हैं। (आप हमारे ये उपहार स्वीकार करें। यह कह कर) विनमि ने स्त्रीरत्न तथा नमि ने रत्न, पाभरण भेंट किये / राजा भरत ने (विद्याधरराज नमि तथा विनमि द्वारा समर्पित ये उपहार स्वीकार किये / स्वीकार कर नमि एवं विनमि का सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर) वहाँ से विदा किया। फिर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला / बाहर निकल कर स्नानघर में गया / स्नान आदि संपन्न कर भोजन-मंडप में गया, तेले का पारणा किया। विद्याधरराज नमि तथा विनमि को विजय कर लेने के उपलक्ष्य में अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित किया। अष्ट दिवसीय महोत्सव के संपन्न हो जाने के पश्चात् दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला / उसने उत्तर-पूर्व दिशा में-ईशान-कोण में गंगा देवी के भवन की ओर प्रयाण किया। ___ यहाँ पर वह सब वक्तव्यता ग्राह्य है, जो सिन्धु देवी के प्रसंग में वर्णित है। विशेषता केवल यह है कि गंगा देवी ने राजा भरत को भेंट रूप में विविध रत्नों से युक्त एक हजार पाठ कलश, Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [151 स्वर्ण एवं विविध प्रकार की मणियों से चित्रित-विमंडित दो सोने के सिंहासन विशेषरूप से उपहृत किये। फिर राजा ने अष्टदिवसीय महोत्सव प्रायोजित करवाया। खण्डप्रपातविजय 81. तए णं से दिव्वे चक्करयणे गंगाए देवोए अट्टाहियाए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालानो पडिणिक्खमइ 2 ता जाव' गंगाए महाणईए पच्चस्थिमिल्लेणं कूलेणं दाहिदिसि खंडप्पवायगुहाभिमुहे पयाए यावि होत्था। ___ तते णं से भरहे राया (तं दिव्वं चक्करयणं गंगाए महाणईए पच्चथिमिल्लेणं कूलेणं दाहिणदिसि खंडप्पवायगुहाभिमुहं पयातं पासइ 2 त्ता) जेणेव खंडप्पवायगुहा तेणेव उवागच्छइ 2 ता सव्वा कयमालवत्तव्वया अव्वा णवरि गट्टमालगे देवे पीतिदाणं से आलंकारिमभंडं कडगाणि अ सेसं सव्वं तहेव जाव अट्टाहिया महामहिमा०। तए णं से भरहे राया पट्टमालस्स देवस्स अट्ठाहिआए म० णिवत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावई सद्दावेइ 2 ता जाव सिंधुगमो अव्वो, जाव गंगाए महाणईए पुरथिमिल्लं णिवखुडं सगंगासागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अाप्रोवेइ 2 ता अग्गाणि वराणि रयणाणि पडिच्छइ 2 ता जेणेव गंगामहाणई तेणेव उवागच्छइ 2 ता दोच्चपि सक्खंधावारबले गंगामहाणई विमलजलतुंगवीइं णावाभूएणं चम्मरयणणं उत्तरइ 2 ता जेणेव भरहस्स रण्णो विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिमा उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता प्राभिसेक्काओ हत्थिर यणानो पच्चोरहइ 2 त्ता अग्गाइं वराई रयणाई गहाय जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता करयलपरिग्गहिरं जाव' अंजलि कटु भरहं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ 2 त्ता अग्गाई वराई रयणाई उवणेइ / तए णं से भरहे राया सुसेणस्स सेणावइस्स अग्गाई बराई रयणाई पडिच्छइ 2 त्ता सुसेणं सेणावई सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता पडिविसज्जेइ / तए णं से सुसेणे सेणावई भरहस्स रण्णो सेसंपि तहेव जाव विहरइ / ___तए णं से भरहे राया अण्णया कयाइ सुसेणं सेणावइरयणं सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-गच्छ णं भो देवाणुप्पिना ! खंडपवायगुहाए उत्तरिल्लस्स दुवारस्स कवाडे विहाडेहि 2 ता जहा तिमिसगुहाए तहा भाणिप्रबं जाव पि भे भवउ, सेसं तहेव जाव भरहो उत्तरिल्लेणं दुवारेणं अईइ, ससिव्व मेहंधयारनिवहं तहेब पविसंतो मंडलाइं आलिहइ। तीसे णं खंडप्पवायगुहाए बहुमज्झदेसभाए (एत्थ णं) उम्मग्ग-णिमग्ग-जलाओ णामं दुवे महाणईओ तहेव गवरं पच्चथिमिल्लापो कडगाओ पवढायो समाणीनो पुरस्थिमेणं गंगं महाणई समति, सेसं तहेव गरि पच्चस्थिमिल्लेणं कलेणं गंगाए संकमवत्तध्वया तहेवत्ति / तए णं खंडगप्पवायगुहाए दाहिणिल्लस्स दुवारस्स कवाडा सयमेव महया कोंचारवं करेमाणा 2 सरसरस्सगाई ठाणाई पच्चोसक्कित्था। तए णं से भरहे राया चक्क१. देखें सूत्र संख्या 50 2. देखें सूत्र संख्या 44 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [जम्यूद्वीपप्रशप्तिसूत्र रयणदेसियमग्गे (अणेगराय० महया उक्किटुसीहणायबोलकलकलसद्देणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणे) खंडगप्पवायगुहाओ दक्खिणिल्लेणं दारेणं णोणेइ ससिव्व मेहंधयारनिवहारो। (81) गंगा देवी को साध लेने के उपलक्ष्य में आयोजित अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर उसने गंगा महानदी के पश्चिमी किनारे दक्षिण दिशा में खण्डप्रपात गुफा की ओर प्रयाण किया। तब (दिव्य चक्ररत्न को गंगा महानदी के पश्चिमी किनारे दक्षिण दिशा में खण्डप्रपात गुफा की ओर प्रयाण करते देखा, देखकर) राजा भरत जहाँ खण्डप्रपात गुफा थी, वहाँ अाया। यहाँ तमिस्रा गुफा के अधिपति कृतमाल देव से सम्बद्ध समग्र वक्तव्यता ग्राह्य है। केवल इतना सा अन्तर है, खण्डप्रपात गुफा के अधिपति नत्तमालक देव ने प्रीतिदान के रूप में राजा भरत को आभूषणों से भरा हुआ पात्र, कटक-हाथों के कड़े विशेष रूप में भेंट किये। नृत्तमालक देव को विजय करने के उपलक्ष्य में आयोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया। यहाँ पर सिन्धु देवी से सम्बद्ध प्रसंग ग्राह्य है / सेनापति सुषेण ने गंगा महानदी के पूर्वभागवर्ती कोण-प्रदेश को, जो पश्चिम में महानदी से. पूर्व में समुद्र से, दक्षिण में वैताढ्य पर्वत से एवं उत्तर में लघु हिमवान् पर्वत से मर्यादित था, तथा सम-विषम अवान्तरक्षेत्रीय कोणवर्ती भागों को साधा / श्रेष्ठ, उत्तम रत्न भेंट में प्राप्त किये / वैसा कर सेनापति सुषेण जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ पाया। वहाँ आकर उसने निर्मल जल की ऊँची उछलती लहरों से युक्त गंगा महानदी को नौका के रूप में परिणत चर्मरत्न द्वार किया। पार कर जहाँ राजा भरत था. सेना का पडाव था, जहाँ बाह्य उपस्थान उपस्थानशाला थी. वहाँ आया। आकर प्राभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे उतरा। नीचे उतर कर उसने उत्तम, श्रेष्ठ रत्न लिये, जहाँ राजा भरत था, वह वहाँ आया। वहाँ आकर दोनों हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे राजा भरत को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर उत्तम, श्रेष्ठ रत्न, जो भेंट में प्राप्त हुए थे, राजा को समर्पित किये। राजा भरत ने सेनापति सुषेण द्वारा समर्पित उत्तम, श्रेष्ठ रत्न स्वीकार किये / रत्न स्वीकार कर सेनापति सुषेण का सत्कार किया, सम्मान किया। उसे सत्कृत, सम्मानित कर वहाँ से विदा किया। आगे का प्रसंग पहले आये वर्णन की ज्यों है / तत्पश्चात् एक समय राजा भरत ने सेनापतिरत्न सुषेण को बुलाया / बुलाकर उससे कहा-देवानुप्रिय ! जाओ, खण्डप्रपात गुफा के उत्तरी द्वार के कपाट उद्घाटित करो। आगे का वर्णन तमिस्रा गुफा की ज्यों संग्राह्य है / फिर राजा भरत उत्तरी द्वार से गया। सघन अन्धकार को चीर कर जैसे चन्द्रमा आगे बढ़ता है, उसी तरह खण्डप्रपात गुफा में प्रविष्ट हुआ, मण्डलों का आलेखन किया। खण्डप्रपात गुफा के ठीक बीच के भाग से उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामक दो बड़ी नदियाँ निकलती हैं। . Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [153 इनका वर्णन पूर्ववत् है। केवल इतना अन्तर है, ये नदियां खण्डप्रपात गुफा के पश्चिमी भाग से निकलती हुई, निकलकर आगे बढ़ती हुई पूर्वी भाग में गंगा महानदी में मिल जाती हैं। शेष वर्णन पूर्ववत् संग्राह्य है। केवल इतना अन्तर है, पुल गंगा के पश्चिमी किनारे पर बनाया। तत्पश्चात् खण्डप्रपात गुफा के दक्षिणी द्वार के कपाट क्रौञ्चपक्षी की ज्यों जोर से अावाज करते हुए सरसराहट के साथ स्वयमेव अपने स्थान से सरक गये, खुल गये। चक्ररत्न द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण करता हुआ, (समुद्र के गर्जन की ज्यों सिंहनाद करता हुआ, अनेक राजाओं से संपरिवृत) राजा भरत निविड अन्धकार को चीर कर आगे बढ़ते हुए चन्द्रमा की ज्यों खण्डप्रपात गुफा के दक्षिणी द्वार से निकला। नवनिधि-प्राकटय 82. तए णं से भरहे राया गंगाए महाणईए पच्चस्थिमिल्ले कूले दुवालसजोअणायाम णवजोअविच्छिण्णं (वरणगरसरिच्छं) विजयक्खंधावारणिवेसं करेइ / अवसिटुं तं चेव जाव निहिरयणाणं अट्ठमभत्तं पगिण्हइ / तए णं से भरहे राया पोसहसालाए जाव णिहिरयणे मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइत्ति, तस्स य अपरिमियरत्तरयणा धुमक्खयमव्वया सदेवा लोकोपचयंकरा उवगया णव णिहिरो लोगविस्सुअजसा, तं जहा नेसप्पे 1, पंडुअए 2, पिंगलए 3, सव्वरयणे 4, महपउमे 5 / काले 6, अ महाकाले 7, माणवगे महानिही 8 संखे // 1 // सप्पमि णिवेसा, गामागरणगरपट्टणाणं च / दोणमुहमडंबाणं खंधावारावणगिहाणं // 2 // गणिअस्स य उप्पत्ती, माणुम्माणस्स जं पमाणं च / धष्णस्स य बोआण, य उप्पत्ती पंडुए भणिआ॥३॥ सम्वा प्राभरणविही, पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं। प्रासाण य हत्थीण य, पिंगलणिहिमि सा भणिया // 4 // रयणाई सन्वरयणे, चउदस वि वराइं चक्कवट्टिस्स। उप्पज्जते एगिदिआई पंचिदिआइं च // 5 // वत्थाण य उत्पत्ती, णिप्फत्ती चेव सवभत्तीणं / रंगाण य धोव्वाण य, सव्वा एसा महापउमे // 6 // काले कालण्णाणं, सवपुराणं च तिसु वि वंसेसु / सिप्पसयं कम्माणि अतिण्णि पयाए हिअकराणि // 7 // लोहस्स य उत्पत्ती, होइ महाकालि आगराणं च / रुप्पस्स सुवण्णस्स य, मणिमुत्तसिलप्पवालाणं // 8 // Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जोहाण य उप्पत्ती, प्रावरणाणं च पहरणाणं च / सव्वा य जुद्धणीई, माणवगे दंडणीई अ॥ णट्टविही णाडगविही, कव्वस्स य चउम्विहस्स उत्पत्ती। संखे महाणिहिंमी, तुडिअंगाणं च सन्वेसि // 10 // चक्कट्ठपइट्ठाणा, अठ्ठस्सेहा य णव य विक्खंभा। बारसदीहा मंजू-संठिया जण्हवीइ मुहे // 11 // वेरुलिअमणिकवाडा, कणगमया विविहरयणपडिपुण्णा।। ससिसूरचक्कलक्खण अणुसमवयणोववत्ती या // 12 // पलिओवमढिईश्रा, णिहिसरिणामा य तत्थ खलु देवा।। जेसि ते आवासा, अक्किज्जा आहिवच्चा य / / 13 / / एए णवणिहिरयणा, पभूयधणरयणसंचयसमिद्धा। जे वसमुपगच्छंति, भरहाविवचक्कवट्टीणं // 14 // तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालारो पडिणिक्खमइ, एवं मज्जणघरपवेसो जाव सेणिपसे णिसद्दावणया जाव णिहिरयणाणं प्रवाहियं महामहिमं करेइ / तए णं से भरहे राया णिहिरयणाणं अट्ठाहिनाए महामहिमाए णिवत्ताए समाणोए सुसेणं सेणावइरयणं सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-गच्छ णं भो देवाणुप्पिया ! गंगामहाणईए पुरथिमिल्लं णिक्खुडं दुच्चंपि सगंगासागरगिरिमेरागं समविसमणिक्खुडाणि अ प्रोअवेहि 2 ता एप्रमाणत्ति पच्चप्पिणाहित्ति / तए णं से सुसेणे तं चेव पुव्ववणिग्रं भाणिग्रन्वं जाव ओमवित्ता तमाणत्तिों पच्चप्पिणइ पडिविसज्जेइ जाव भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ। तए णं से दिव्वे चक्करयणे अन्नया कयाइ पाउहघरसालाओ पडिणिवखमइ 2 त्ता अंतलिवलपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिवतुडिय-(सहसणिणादेणं) श्रापूरते चेव विजयवखंधावारणिवेसं मज्झमझेणं णिगच्छइ दाहिणपच्चत्थिमं दिसि विणीअं रायहाणि अभिमुहे पयाए यावि होत्था। तए णं से भरहे राया जाव' पासइ 2 त्ता हट्टतुट्ठ जाव' कोड बियपुरिसे सहावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! प्राभिसेक्कं (हत्थिरयणं पडिकप्पेह हयगयरहपवरजोहकलिअं चाउरंगिणि सेण्णं सष्णाहेह, एत्तमाणतिरं पच्चप्पिणह, तए णं ते कोडुबियपुरिसे तमाणत्तियं) पच्चप्पिणंति। 1. देखें सूत्र संख्या 50 2. देखें सूत्र संख्या 44 .. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [155 [82] तत्पश्चात्-गुफा से निकलने के बाद राजा भरत ने गंगा महानदी के पश्चिमी तट पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन चोड़ा, श्रेष्ठ-नगर-सदश सैन्यशिविर स्थापित किया। अागे का वर्णन मागध देव को साधने के सन्दर्भ में पाये वर्णन जैसा है। फिर राजा ने नौ निधिरत्नों को उत्कृष्ट निधियों को उद्दिष्ट कर तेले को तपस्या स्वीकार की। तेले की तपस्या में अभिरत राजा भरत नौ निधियों का मन में चिन्तन करता हुआ पौषधशाला में अवस्थित रहा / नौ निधियां अपने अधिष्ठातृ-देवों के साथ वहाँ राजा भरत के समक्ष उपस्थित हुई / वे निधियाँ अपरिमित-अनगिनत लाल, नीले, पीले, हरे, सफेद आदि अनेक वर्गों के रत्नों से युक्त थीं, ध्रव, अक्षय तथा अव्यय-अविनाशी थीं, लोकविश्रुत थीं। वे इस प्रकार थीं.-- 1. नैसर्प निधि, 2. पाण्डुक निधि, 3. पिंगलक निधि, 4. सर्वरत्न निधि, 5. महापद्म निधि, 6. काल निधि, 7. महाकाल निधि, 8. माणवक निधि तथा 6. शंखनिधि / वे निधियां अपने-अपने नाम के देवों से अधिष्ठित थीं। 1. नैसर्प निधि-ग्राम, प्राकर, नगर, पट्टन, द्रोणमुख, मडम्ब, स्कन्धावार, आपण तथा भवन -इनके स्थापन–समुत्पादन की विशेषता लिये होती है। . 2. पाण्डुक निधि-गिने जाने योग्य---दोनार, नारिकेल आदि, मापे जाने वाले धान्य आदि, तोले जाने वाले चीनी, गुड़ आदि, कलम जाति के उत्तम चावल आदि धान्यों के बीजों को उत्पन्न करने में समर्थ होती है। 3. पिंगलक निधि-पुरुषों, नारियों, घोड़ों तथा हाथियों के प्राभूषणों को उत्पन्न करने की विशेषता लिये होती है। 4. सर्वरत्न निधि-चक्रवर्ती के चौदह उत्तम रत्नों को उत्पन्न करती है। उनमें चक्ररत्न, दण्डरत्न, असिरत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, मणिरत्न तथा काकणीरत्न-ये सात एकेन्द्रिय होते हैं। सेनापति रत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न, पुरोहितरत्न, अश्वरल, हस्तिरत्न तथा स्त्रीरत्न-ये सात पंचेन्द्रिय होते हैं। 5. महापद्म निधि-सब प्रकार के वस्त्रों को उत्पन्न करती है। वस्त्रों के रंगने, धोने आदि समग्र सज्जा के निष्पादन की वह विशेषता लिये होती है। 6. काल निधि–समस्त ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान, तीर्थंकर-वंश, चक्रवर्ति-वंश तथा बलदेववासुदेव-वंश--इन तीनों में जो शुभ, अशुभ घटित हुआ, घटित होगा, घटित हो रहा है, उन सबके ज्ञान, सौ प्रकार के शिल्पों के ज्ञान, उत्तम, मध्यम तथा अधम कर्मों के ज्ञान को उत्पन्न करने की विशेषता लिये होती है। 7. महाकाल निधि-विविध प्रकार के लोह, रजत, स्वर्ण, मणि, मोती, स्फटिक तथा प्रवाल-मूगे आदि के आकरों-खानों को उत्पन्न करने की विशेषतायुक्त होती है। 8. माणवक निधि-योद्धाओं, पावरगों--शरीर को प्रावृत करने वाले, सुरक्षित रखने Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र वाले कवच आदि के प्रहरणों-शस्त्रों के, सब प्रकार की युद्ध-नीति के-चक्रव्यूह, शकटव्यूह, गरुडव्यूह आदि की रचना से सम्बद्ध विधिक्रम के तथा साम, दाम, दण्ड एवं भेदमुलक राजनीति के उद्भव की विशेषता युक्त होती है। 6. शंख निधि-सब प्रकार की नृत्य-विधि, नाटक-विधि–अभिनय, अंग-संचालन, मुद्रा. प्रदर्शन आदि की, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चार पुरुषार्थों के प्रतिपादक काव्यों की अथवा संस्कृत, अपभ्रश एवं संकीर्ण-मिली-जुली भाषाओं में निबद्ध काव्यों की अथवा गद्य-अच्छन्दोबद्ध, पद्य---छन्दोबद्ध, गेय-गाये जा सकने योग्य, गीतिबद्ध, चौर्ण-निपात एवं अव्यय बहुल रचनायुक्त काव्यों की उत्पत्ति की विशेषता लिये होती है, सब प्रकार के वाद्यों को उत्पन्न करने की विशेषतायुक्त होती है। उनमें से प्रत्येक निधि का अवस्थान आठ-आठ चक्रों के ऊपर होता है--जहाँ-जहाँ ये ले जाई जाती हैं, वहाँ-वहाँ ये आठ चक्रों पर प्रतिष्ठित होकर जाती हैं / उनकी ऊँचाई आठ-पाठ योजन की, चौड़ाई नौ-नौ योजन की तथा लम्बाई बारह-बारह योजन की होती है / उनका प्राकार मंजूषापेटी जै IT होता है। गंगा जहाँ समद्र में मिलती है. वहाँ उनका निवास है। उनके कपाट बैडर्य मणिमय होते हैं। वे स्वर्ण-घटित होती हैं। विविध प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण-संभत होती हैं / उन पर चन्द्र, सूर्य तथा चक्र के आकार के चिह्न होते हैं। उनके द्वारों की रचना अनुसम-अपनी रचना के अनुरूप संगत, अविषम होती है / निधियों के नामों के सदृश नामयुक्त देवों की स्थिति एक पल्योपम होती है / उन देवों के आवास अक्रयणीय-न खरीदे जा सकने योग्य होते हैं—मूल्य देकर उन्हें कोई खरीद नहीं सकता, उन पर प्राधिपत्य प्राप्त नहीं कर सकता। प्रचुर धन-रत्न-संचय युक्त ये नौ निधियां भरतक्षेत्र के छहों खण्डों को विजय करने वाले चक्रवर्ती राजाओं के वंशगत होती हैं। राजा भरत तेले की तपस्या के परिपूर्ण हो जाने पर पौषधशाला से बाहर निकला, स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नान आदि संपन्न कर उसने श्रेणि-प्रश्रेणि-जनों को बुलाया, नौ निधि-रत्नों कोनौ निधियों को साध लेने के उपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित कराया। अष्टदिवसीय महोत्सव के संपन्न हो जाने पर राजा भरत ने अपने सेनापति सुषेण को बुलाया। बुलाकर उससे कहा-देवानुप्रिय ! जानो, गंगा महानदी के पूर्व में अवस्थित, भरतक्षेत्र के कोणस्थित दूसरे प्रदेश को, जो पश्चिम दिशा में गंगा से, पूर्व एवं दक्षिण दिशा में समुद्रों से और उत्तर दिशा में वैताढय पर्वत से मर्यादित हैं तथा वहाँ के अवान्तरक्षेत्रीय समविषम कोणस्थ प्रदेशों को अधिकृत करो। अधिकृत कर मुझे अवगत करायो। सेनापति सुषेण ने उन क्षेत्रों पर अधिकार किया उन्हें साधा / यहाँ का सारा वर्णन पूर्ववत् है। सेनापति सुषेण ने उन क्षेत्रों को अधिकृत कर राजा भरत को उससे अवगत कराया। राजा भरत ने उसे सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया। वह अपने आवास पर पाया, सुखोपभोग में अभिरत हुआ। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार [157 तत्पश्चात् एक दिन वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर आकाश में प्रतिपन्न–अधर स्थित हुअा। वह एक सहस्र योद्धाओं से संपरिवृत था--घिरा था / दिव्य वाद्यों की ध्वनि (एवं निनाद) से आकाश को व्याप्त करता था। वह चक्ररत्न सैन्य-शिविर के बीच से चला / उसने दक्षिण-पश्चिम दिशा में नैऋत्य कोण में विनीता राजधानी की ओर प्रयाण किया / राजा भरत ने चक्ररत्न को देखा। उसे देखकर वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ। उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा--देवानुप्रियो / प्राभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करो (घोड़े, हाथो, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं-पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना को सजाग्रो)। मेरे प्रादेशानुरूप यह सब संपादित कर मुझे सूचित करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा किया एवं राजा को उससे अवगत कराया। विनीत-प्रत्यागमन 83. तए णं से भरहे राया अज्जिअरज्जो णिज्जिअसत्तू उप्पण्णसमत्तरयणे चक्करयणप्पहाणे गवणिहिवई समिद्धकोसे बत्तीसरायवरसहस्साणुप्रायमग्गे सट्ठीए वरिससहस्सेहि केवलकप्पं भरहं वासं ओयवेह, प्रोप्रवेत्ता कोड बियपुरिसे सहावेइ २त्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं हयगयरह० तहेव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई गरवई दुरुढे / ___ तए णं तस्स भरहस्स रणो आभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरुढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरो प्रहाणुपुवीए संपट्टिा, तंजहा--सोस्थिअ-सिरिवच्छ-(णंदिआवत्त-वद्धमाणग-भद्दासण-मच्छकलस) दप्पणे, तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगार दिव्या य छत्तयागा (सचामरा सणरइअ पालोनदरिसणिज्जा वाउद्ध अविजयवेजयंती अन्भुस्सिआ गगणतलमणुलिहंती पुरनो अहाणुपुटवीए) संपट्टिा, तयणंतरं च वेरुलिअभिसंतविमलवंडं (पलबकोरण्टमल्लदामोवसोहिअं चन्दमंडल निभं समूसिअं विमलं मायवत्तं पवरं सोहासणं च मणिरयणपायपीढं सपाउप्राजोगसमाउत्तं बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपायत्तपरिक्खित्तं पुरो प्रहाणुपुवीए) संपढिनं, तयणंतरं च णं सत्त एगिदिनरयणा पुरओ अहाणुपुम्वीए संपत्थिना, तंजहा–चक्करयणे 1, छत्तरयणे 2, चम्मरयणे 3, दंडरयणे 4, प्रसिरयणे 5, मणिरयणे 6, कागणिरयणे 7, तयणंतरं च णं णव महाणिहीनो पुरओ अहाणुपुच्चीए संपट्टिआ, तंजहा--णेसप्पे पंडुयए (पिंगलए सयरयणे महपउमे काले अ महाकाले माणवगे महानिही) संखे, तयणंतरं च णं सोलस देवसहस्सा पुरो प्रहाणुपुटवीए संपटिया, तयणंतरं च णं बत्तीसं रायवरसहस्सा अहाणुपुयीए संपट्टिआ, तयणंतरं च णं सेणावइरयणे पुरनो अहाणुपुवीए संपट्टिए, एवं गाहावइरयणे, बद्धहरयणे, पुरोहिअरयणे, तयणंतरं च णं इत्थिरयणे पुरओ अहाणुपुटवीए, तयणंतरं च णं बत्तीसं उडुकल्लाणिया सहस्सा पुरनो अहाणुपुचीए, तयणंतरं च गं बत्तीस जणवयकल्लाणिआ सहस्सा पुरओ अहाणपुवीए०, तयणंतरं च णं बत्तीसं बत्तीसइबद्धा णाडगसहस्सा पुरओ अहाणपुवीए०, तयणंतरं च णं तिष्णि सट्ठा सूअसया पुरओ अहाणुपुब्बीए०, तयणंतरं च णं अट्ठारस सेगिप्पसेणीओ पुरओ०, तयणंतरं च णं चउरासीइं आससयसहस्सा पुरओ०, तयणंतरं च णं चउरासीई हत्यिसयसहस्सा पुरो अहाणुपुवीए०, तयणंतरं च णं छण्णउई मणुस्सकोडोओ पुरओ अहाणुपुवीए संपटिआ, तयणंतरं Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र च णं बहवे राईसरतलवर जाव' सत्यवाहप्पभिइनो पुरओ अहाणुव्वोइ संपट्टिया। तयणंतरं च णं बहवे असिग्गाहा लटिग्गाहा कुतग्गाहा चावगाहा चामरग्गाहा पासग्गाहा फलगग्गाहा परसुग्गाहा पोत्थयग्गाहा वीणग्गाहा कूअग्गाहा हडप्फग्गाहा दीविगाहा सहि सहि रूवेहि, एवं वेसेहि चिहिं निमोहि सहि 2 वत्थेहि पुरओ अहाणुपुव्वीए संपत्थिा , तयणंतर च णं बहवे दंडिणो मुडियो सिहंडिणो जडिवो पिच्छिगो हासकारगा खेडुकारगा दवकारगा चाडकारगा कदंपिआ कुक्कुइआ मोहरिया गायंता य दोवंता य (वायंता) नच्चता य हसंता य रमंता य कोलंता य सासेंता य सावेता य जाता य राता य सो ता य सोभावेंता य पालोअंता य जयजयसदं च पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुठवीए संपट्ठिया, एवं उववाइअगमेणं जाव तस्स रण्णो पुरनो महासा आसधरा उभयो पासिं गागा णागधरा पिटुओ रहा रहसंगेल्लो अहाणुपुन्वीए संपट्टिआ इति / ___ तए णं से भरहाहिवे गरिदे हारोत्थयए सुकयरइअवच्छे जाव' अमरवइसण्णिभाए इद्धोए पहिअकित्ती चक्करयणदेसिअमग्गे अणेगरायवरसहस्साणुप्रायमग्गे (महयाउक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं) समुद्दरवभूअंपिव करेमाणे 2 सव्विद्धोए सव्वजुईए जाव' णिग्घोसणाइयरवेणं गामागरणगरखेडकब्बडमडंब- (दोणमुह-पट्टणासम-संवाह-सहस्समंडिआहि) जोप्रणंतरित्राहि वसहीहि वसमाणे 2 जेणेव विगोया रायहाणो तेगेव उवागच्छइ, उवागच्छिता विणोआए रायहाणोए अदूरसामंते दुवालसजोअणायामं णवजोयणविस्थिणं (वरणगरसरिच्छं विजय-) खंधावारणिवेसं करइ, 2 त्ता वद्धइरयणं सद्दावेइ 2 त्ता जाव पोसहसालं अणुपविसइ, 2 ता विणीआए रायहाणोए अट्ठमभत्तं पगिण्हइ 2 ता (पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी उम्मुक्कमणिसुवण्णो ववगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्थमुसले दम्भसंथारोवगए) अट्ठमभत्तं पडिजागरमाणे 2 विहरइ। तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पोसहसालारो पडिणिक्खमइ 2 ता कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ 2 ता तहेव जाव' अंजगिरिकूडसण्णिभं गयवई परवई दूरूढे / तं चेव सव्वं जहा हेट्ठा णरि णव महाणिहिओ चत्तारि सेणाओ ण पविसंति सेसो सो चेव गमो जाव णिग्घोसणाइएणं विणोपाए रायहाणोए मज्झमझेणं जेणेव सए गिहे जेणेव भवणवरडिसगपडिदुवारे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं तस्स भरहस्स रणोविणो रायहाणि मज्झमझेणं अपविसमाणस्स अप्पेगइया देवा विगो रायहाणि सम्भंतरबाहिरिअं आसिअसम्मज्जिवलितं करेंति अप्पेगइआ मंचाइमंचकलिनं करेंति, एवं सेसेसुवि पएसु, अप्पेगइआ णाणाविहरागवसणुस्सियधयपडागामंडितभूमिअं अप्पेगइआ लाउल्लोइअमहिअं करेंति, अप्पेगइआ (कालागुरु-पवरकुदुरुक्क-तुरुक्क-धूवमधमघंत-गंधुधुपाभिरामं, सुगंधवरगंधियं) गंधवट्टिभूकं करेंति, अप्पेगइमा हिरण्णवासं वासिति 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखें सूत्र 54 3. देखें सूत्र 52 4. देखें सूत्र संख्या 50 5. देखें सूत्र-संख्या 53 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [159 सुदण्णरयणवइरआभरणवासं वासेंति, तए णं तस्स भरहस्स रणो विणीअं रायहाणि मज्झमझेणं अणुपविसमाणस्स सिंघाडग-(तिग-चउक्क-चच्चर-पणियावण-) महापहेसु बहवे अथस्थिआ कामस्थिया भोगस्थिआ लाभत्थिआ इद्धिसिआ किब्बिसिया कारोडिआ कारवाहिमा संखिया चक्किआ गंगलिश्रा मुहमंगलिया पूसमाणया बद्धमाणया लंखमंखमाइया ताहि ओरालाहिं इट्टाहिं कताहि पिनाहि मणुन्नाहि मणामाहिं सिवाहि धण्णाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीआहिं हिअयगमणिज्जाहि हिअयपह लायणिज्जाहि वहि अणुवरयं अभिणंदंता य अभिथुगंता य एवं वयासी-जय जय गंदा ! जय जय भद्दा ! भई ते अजिअं जिणाहि जिनं पालयाहि जिअमझे वसहि इंदो विव देवाणं चंदो विव ताराणं चमरो विव असुराणं धरणो विव नागाणं बहूई पुव्वसयसहस्साई बहूईओ पुवकोडीनो बहूईओ पुव्वकोडाकोडीओ विणीआए रायहाणीए चुल्लाहमवंतगिरिसागरमेरागस्स य केवलकप्यस्स भरहस्स वासस्स गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसणिवेसेसु सम्म पयायालणोवज्जिअलद्धजसे महया जाव (आहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्तं, मट्टित्तं महत्तरगत्तं प्राणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनट्टगीयवाइयतीतलतालतुडियघणमुअंगपडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुजमाणे) विहराहित्ति कटु जयजयसई पउंजंति / तए णं से भरहे राया गयणमालासहस्सेहि पिच्छिज्जमाणे 2 वयणमालासहस्सेहि अभिथुध्वमाणे 2 हिअयमालासहस्सेहिं उण्णं दिज्जमाणे 2 मणोरहमालासहस्से हि विच्छिप्पमाणे 2 कंतिरूवसोहागपुणेहि पिच्छिज्जमाणे 2 अंगुलिमालासहस्सेहि दाइज्जमाणे 2 दाहिणहत्थेणं बहूणं गरणारीसहस्साहि अंजलिमालासहस्साई पडिच्छेमाणे 2 भवणपंतीसहरसाइं समइच्छमाणे 2 तंतोतलतुडिअगीअवाइअरवेणं मधुरेणं मणहरेणं मंजुमंजुणा घोसे अपडिबुज्झमाणे 2 जेणेव सए गिहे जेणेव सए भवणवरडिसयदुवारे तेणेव उवागच्छइ 2 ता प्राभिसेवक हस्थिरयणं टवइ 2 ता प्राभिसेवकाओ हस्थिरयणाश्रो पच्चोरहइ 2 त्ता सोलस देवसहस्से सक्कारेइ सम्माणेइ २त्ता बत्तीसं रायसहस्से सक्कारेइ सम्माणेइ 2 त्ता सेणावइरयणं सक्कारेड सामाणेइ 2 ता एवं गाहावइरयणं वद्धइरयणं पुरोहियरयणं सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता तिणि सट सूत्रसए सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता अण्णेवि बहवे राईसर, जाव' सत्यवाहप्पभिइयो सवकारेइ सम्माणेइ 2 त्ता पडिविसज्जेइ, इत्थीरयणेणं बत्तीसा उडुकल्लाणियासहस्सेहिं बत्तीसाए जणवयकल्लाणियासहस्सेहिं बत्तीसाए बत्तीसहबदर्डि जायसहस्सेहिं सद्धि संपरिवुडे भवणवर वडिसगं अईइ जहा कुबेरो ब्व देवराया कैलाससिहरिसिंगभूअंति, तए णं से भरहे राया मित्तणाइणिअगसयणसंबंधिपरिप्रणं पच्चुवेक्खइ 2 ता जेणेव मज्जणगरे तेणेव उवागच्छइ 2 ता जाव' मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव भोअणमंडवे तेणेव उवागच्छद 2 ता भोअणमंडसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ 2 ता उप्पि पासायवरगए 1. देखें सूत्र 44 2. देखें सूत्र 45 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र फुट्टमाणेहिं मुइंगमस्थरहि बत्तीसइबहिं णाडएहि उवलालिज्जमाणे 2 उवणच्चिज्जमाणे 2 उवगिज्जमाणे 2 महया जाव' भुजमाणे विहरइ / [83] राजा भरत ने इस प्रकार राज्य अजित किया-अधिकृत किया। शत्रुओं को जीता। उसके यहाँ समग्र रत्न उद्भूत हुए। चक्ररत्न उनमें मुख्य था। राजा भरत को नौ निधियाँ प्राप्त हुई। उसका कोश-खजाना समृद्ध था-धन-वैभवपूर्ण था। बत्तीस हजार राजाओं से वह अनुगत था। उसने साठ हजार वर्षों में समस्त भरतक्षेत्र पर अधिकार कर लिया–भरतक्षेत्र को साध लिया। तनदन्तर राजा भरत ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उन्हें कहा-'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करो, हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त णी सेना सजाओ। कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा किया, राजा को अवगत कराया। राजा स्नान आदि नित्य-नैमित्तिक कृत्यों से निवृत्त होकर अंजनगिरि के शिखर के समान उन्नत गजराज पर आरूढ हुआ। राजा के हस्तिरत्न पर आरूढ हो जाने पर स्वस्तिक, श्रीवत्स (नन्द्यावर्त, वर्धमानक, भद्रासन, मत्स्य, कलश,)दर्पण-ये पाठ मंगल-प्रतीक राजा के आगे चले रवाना किये गये। उनके बाद जल से परिपूर्ण कलश, भृगार-झारियाँ, दिव्य छत्र, पताका, चंवर तथा दर्शनरचित-राजा के दृष्टिपथ में अवस्थित राजा को दिखाई देने वाली, आलोक-दर्शनीय देखने में सुन्दर प्रतीत होने वाली, हवा से फहराती, उच्छ्रित-ऊँची उठी हुई, मानो आकाश को छूती हुईसी विजय-वैजयन्ती--विजयध्वजा लिये राजपुरुष चले / तदनन्तर वैड्र्य---नीलम की प्रभा से देदीप्यमान उज्ज्वल दंडयुक्त, लटकती हुई कोरंट पुष्पों की मालाओं से सुशोभित, चन्द्रमंडल के सदृश आभामय, समुच्छित-ऊँचा फैलाया हुआ निर्मल प्रातपत्र-धूप से बचाने-वाला छत्र, अति उत्तम सिंहासन, श्रेष्ठ मणि-रत्नों से विभूषित-जिसमें मणियां तथा रत्न जड़े थे, जिस पर राजा की पादुकाओं की जोड़ी रखी थी, वह पादपीठ-राजा के पैर रखने का पीढ़ा, चौकी, जो (उक्त बस्तु-समवाय) किङ्करों आज्ञा कीजिए, क्या करें-हरदम यों आज्ञा पालन में तत्पर सेवकों, विभिन्न कार्यों में नियुक्त भृत्यों तथा पदातियों-पैदल चलने वाले लोगों से घिरे थे, क्रमश: आगे रवाना किये गये। __तत्पश्चात् चक्ररत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, दण्डरत्न, असिरत्न, मणिरत्न, काकणीरत्न-ये सात एकेन्द्रिय रत्न यथाक्रम चले। उनके पीछे क्रमशः नैसर्प, पाण्डुक, (पिंगलक, सर्वरत्न, महापद्म, काल, महाकाल, माणवक) तथा शंख-ये नौ निधियाँ चलीं। उनके बाद सोलह हजार देव चले। उनके पीछे बत्तीस हजार राजा चले / उनके पीछे सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न तथा पुरोहितरत्न ने प्रस्थान किया। तत्पश्चात् स्त्रीरत्न-परम सुन्दरी सुभद्रा, बत्तीस हजार ऋतुकल्याणिकाएँ-जिनका स्पर्श ऋतु के प्रतिकूल रहता है-शीतकाल में उष्ण तथा ग्रीष्मकाल में शीतल रहता है, ऐसी राजकुलोत्पन्न कन्याएँ तथा बत्तीस हजार जनपदकल्याणिकाएँ जनपद के अग्रगण्य पुरुषों की कन्याएँ यथाक्रम चलीं। उनके पीछे बत्तीस-बत्तीस अभिनेतव्य प्रकारों से परिबद्ध-संयुक्त बत्तीस हजार नाटक-नाटकमंडलियाँ प्रस्थित हुईं। तदनन्तर तीन सौ साठ सूपकार--रसोइये, 1. देख सूत्र 45 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [161 अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जन-१. कुंभकार, 2. पटेल-ग्रामप्रधान, 3. स्वर्णकार, 4. सूपकार, 5. गन्धर्व--संगीतकार-गायक, 6. काश्यपक-नापित, 7. मालाकार-माली, 8. कक्षकर, 9. ताम्बूलिक--ताम्बुल लगाने वाले तमोली-ये नौ नारुक तथा 1. चर्मकार-चमार-जूते बनाने वाले, 2. यन्त्रपीलक-तेली, 3. ग्रन्थिक, 4. छिपक-छोपे, 5. कांस्यक-कसेरे, 6. सीवक–दर्जी, 7. गोपाल--ग्वाले, 8. भिल्ल-भील तथा 6. धीवर.-ये नौ कारुक-इस प्रकार कूल अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जन चले। __उनके पीछे क्रमशः चौरासी लाख घोड़े, चौरासी लाख हाथी, छियानवै करोड़ मनुष्य--पदाति जन चले / तत्पश्चात् अनेक राजा-माण्डलिक नरपति, ईश्वर - ऐश्वर्यशाली या प्रभावशाली पुरुष, तलवर--राजसम्मानित विशिष्ट नागरिक, सार्थवाह आदि यथाक्रम चले / तत्पश्चात् असिग्राह-तलवारधारी, लष्टिग्राह-लट्टीधारी, कुन्तग्राह-भालाधारी, चापग्राह-धनुर्धारी, चमरग्राह-चवर लिये हुए, पाशग्राह-उद्धत घोड़ों तथा बैलों को नियन्त्रित करने हेतु चाबुक आदि लिये हुए अथवा पासे आदि द्यूत-सामग्री लिये हुए, फलकग्राह-काष्ठपट्ट लिये हुए, परशुग्राह–कुल्हाड़े लिये हुए, पुस्तकग्राह-पुस्तकधारी-ग्रन्थ लिये हुए अथवा हिसाब-किताब रखने के बही-खाते आदि लिये हुए, वीणाग्राह-वीणा लिये हुए, कूप्यग्राह-पक्व तैलपात्र लिये हुए, हड़प्फग्राह--द्रम्म अादि सिक्कों के पात्र अथवा ताम्बूल हेतु पान के मसाले, सुपारी आदि के पात्र लिये हुए पुरुष तथा दीपिकाग्राह-मशालची अपने-अपने कार्यों के अनुसार रूप, वेश, चि था वस्त्र प्रादि धारण किये हुए यथाक्रम चले / उनके बाद बहुत से दण्डी–दण्ड धारण करने वाले, मुण्डी-सिर मुंडे, शिखण्डी-शिखाधारी, जटी---जटाधारी, पिच्छी--मयूरपिच्छ-मोरपंख आदि धारण किये हुए, हासकारक-हासपरिहास करने वाले विदूषक-मसखरे, खेड्डकारक-बूतविशेष में निपुण, द्रवकारक—क्रीडा करने वाले-खेल-तमाशे करने वाले, चाटुकारक-खुशामदी-खुशामदयुक्त प्रिय वचन बोलने वाले, कान्दपिक-कामुक या शगारिक चेष्टाएँ करने वाले, कौत्कुचिक--भांड आदि तथा मौखरिक-- मुखर, वाचाल मनुष्य गाते हुए, खेल करते हुए, (तालियाँ बजाते हुए) नाचते हुए, हँसते हुए, पासे आदि द्वारा द्यूत आदि खेलने का उपक्रम करते हुए, क्रीडा करते हुए, दूसरों को गीत आदि सिखाते हुए, सुनाते हुए, कल्याणकारी वाक्य बोलते हुए, तरह-तरह की आवाजें करते हुए, अपने मनोज वेष आदि द्वारा शोभित होते हुए, दूसरों को शोभित करते हुए-प्रसन्न करते हुए, राजा भरत को देखते हुए, उनका जयनाद करते हुए यथाक्रम चलते गये। यह प्रसंग विस्तार से औपपातिक सूत्र के अनुसार संग्राह्य है। राजा भरत के आगे-मागे बड़े-बड़े कद्दावर घोड़े, घुड़सवार [गजारूढ़ राजा के] दोनों ओर हाथी, हाथियों पर सवार पुरुष चलते थे / उसके पीछे रथ-समुदाय यथावत् रूप में चलता था। __तब नरेन्द्र, भरतक्षेत्र का अधिपति राजा भरत, जिसका वक्षःस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था, अमरपति---देवराज इन्द्र के तुल्य जिसकी समृद्धि सुप्रशस्त थी, जिससे उसको कीति विश्रुत थी, समुद्र के गर्जन की ज्यों अत्यधिक उच्च स्वर से सिंहनाद करता हुआ, सब प्रकार की ऋद्धि तथा द्युति से समन्वित, भेरी-नगाड़े, झालर, मृदंग आदि अन्य वाद्यों की Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र ध्वनि के साथ सहस्रों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडम्ब (द्रोण मुख, प्राश्रम, संवाध) से युक्त मेदिनी को जीतता हुआ उत्तम, श्रेष्ठ रत्न भेंट के रूप में प्राप्त करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुसरण करता हुआ, एक-एक योजन के अन्तर पर पड़ाव डालता हुअा, रुकता हुआ, जहाँ विनीता राजधानी थी, वहाँ अाया। राजधानी से न अधिक दूर न अधिक समीप-थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा (उत्तम नगर के सदृश) सैन्य-शिविर स्थापित किया / अपने उत्तम शिल्पकार को बुलाया। यहाँ की वक्तव्यता पूर्वानुसार संग्राह्य है / विनीता राजधानी को उद्दिष्ट करतदधिष्ठायक देव को साधने हेतु राजा ने तेले की तपस्या स्वीकार की। (तपस्या स्वीकार कर पौषधशाला में पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया, मणि-स्वर्णमय आभूषण शरीर से उतार दिये / माला, वर्णक-चन्दन प्रादि सुगन्धित पदार्थों के देहगत विलेपन दूर किये / शस्त्र-कटार आदि, मुसल-दण्ड, गदा प्रादि हथियार एक ओर रखे / ) डाभ के बिछौने पर अवस्थित राजा भरत तेले की तपस्या में प्रतिजागरित सावधानतापूर्वक संलग्न रहा / तेले की तपस्या के पूर्ण हो जाने पर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकलकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, प्राभिषेक्य हस्ति रत्न को तैयार करने, स्नानघर में प्रविष्ट होने, स्नान करने आदि का वर्णन पूर्ववत् संग्राह्य है। सभी नित्य-नैमित्तिक अावश्यक कार्यों से निवृत्त होकर राजा भरत अंजनगिरि के शिखर के के समान उन्नत गजपति पर आरूढ हुआ। यहाँ से आगे का वर्णन विनीता राजधानी से विजय हेतु अभियान करने के वर्णन जैसा है। केवल इतना अन्तर है कि विनीता राजधानी में प्रवेश करने के अवसर पर नौ महानिधियों ने तथा चार सेनाओं ने राजधानी में प्रवेश नहीं किया। उनके अतिरिक्त सबने उसी प्रकार विनीता में प्रवेश किया, जिस प्रकार विजयाभियान के अवसर पर विनीता से निकले थे। राजा भरत ने तुमुल वाद्य-ध्वनि के साथ विनीता राजधानी के बीचों-बीच चलते हुए जहाँ अपना पैतृक घर था, जगति निवास-गृहों में सर्वोत्कृष्ट प्रासाद का बाहरी द्वार था, उधर चलने का विचार किया, चला। जब राजा भरत इस प्रकार विनीता राजधानी के बीच से निकल रहा था, उस समय कतिपय . जन विनीता राजधानी के बाहर-भीतर पानी का छिड़काव कर रहे थे, गोबर आदि का लेप कर रहे थे, मंचातिमंच-सीढ़ियों से समायुक्त प्रेक्षागहों की रचना कर रहे थे, तरह-तरह के रंगों के वस्त्रों से बनी, ऊँची, सिंह, चक्र आदि के चिह्नों से युक्त ध्वजारों एवं पताकाओं से नगरी के स्थानों को सजा रहे थे। अनेक व्यक्ति नगरी की दीवारों को लीप रहे थे, पोत रहे थे। अनेक व्यक्ति काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान आदि तथा धूप की गमगमाती महक से नगरी के वातावरण को उत्कृष्ट सुरभिमय बना रहे थे, जिससे सुगन्धित धूएँ की प्रचुरता के कारण गोलगोल धूममय छल्ले बनते दिखाई दे रहे थे। कतिपय देवता उस समय चाँदी की वर्षा कर रहे थे। कई देवता स्वर्ण, रत्न, हीरों एवं आभूषणों की वर्षा कर रहे थे। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार ... जब राजा भरत विनीता राजधानी के बीच से निकल रहा था तो नगरी के सिंघाटकतिकोने स्थानों, (तिराहों, चौराहों, चत्वरों-जहाँ चार से अधिक रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थानों, बाजारों,) महापथों-बड़ी-बड़ी सड़कों पर बहुत से अभ्यर्थी-धन के अभिलाषी, कामार्थी-सुख या मनोज्ञ शब्द, सुन्दर रूप के अभिलाषी, भोगार्थी-सुखप्रद गन्ध, रस एवं स्पर्श के अभिलाषी, लाभार्थी मात्र भोजन के अभिलाषी, ऋद्धय षिक-गोधन आदि ऋद्धि के अभिलाषी, किल्विषिकभांड आदि, कापालिक-खप्पर धारण करने वाले भिक्षु, करबाधित-करपीडित-राज्य के कर आदि से कष्ट पाने वाले, शांखिक-शंख बजाने वाले, चाक्रिक-चक्रधारी, लांगलिक--हल चलाने वाले कृषक, मुखमांगलिक-मुंह से मंगलमय शुभ वचन बोलने वाले या खुशामदी, पुष्यमानवमागध-भाट, चारण आदि स्तुतिगायक, वर्धमानक---औरों के कन्धों पर स्थित पुरुष, लंख–बांस के सिरे पर खेल दिखाने वाले नट, मंख-चित्रपट दिखाकर आजीविका चलाने वाले, उदार-- उत्तम, इष्ट-वाञ्छित, कान्त--कमनीय, प्रिय-प्रीतिकर, मनोज्ञ—मनोनुकूल, मनाम-चित्त को प्रसन्न करने वाली, शिव-कल्याणमयी, धन्य-प्रशंसायुक्त, मंगल-मंगलयुक्त, सश्रीक-शोभायुक्त-लालित्ययुक्त, हृदयगमनीय-हृदयंगम होने वाली हृदय में स्थान प्राप्त करने वाली, हृदय-प्रह्लादनीय हृदय को आह्लादित करने वाली वाणी से एवं मांगलिक शब्दों से राजा का अनवरत लगातार अभिनन्दन करते हुए, अभिस्तवन करते हुए प्रशस्ति करते हुए इस प्रकार बोले---जन-जन को आनन्द देने वाले राजन् ! आपकी जय हो, अापकी विजय हो। जन-जन के लिए कल्याणस्वरूप राजन् ! आप सदा जयशील हों। अापका कल्याण हो / जिन्हें नहीं जीता है, उन पर आप विजय प्राप्त करें। जिनको जीत लिया है, उनका पालन करें, उनके बीच निवास करें / देवों में इन्द्र की तरह, तारों में चन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह तथा नागों में धरणेन्द्र की तरह लाखों पूर्व, करोड़ों पूर्व, कोडाकोडी पूर्व पर्यन्त उत्तर दिशा में लघु हिमवान् पर्वत तथा अन्य तीन दिशाओं में समुद्रों द्वारा मर्यादित सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के ग्राम, प्राकर-नमक आदि के उत्पत्ति-स्थान, नगर-जिनमें व हीं लगता हो, ऐसे शहर, खेट-धूल के परकोटों से युक्त गाँव, कर्बट - अति साधारण कस्बे, मडम्ब-आसपास गाँव रहित बस्ती, द्रोणमुख-जल-मार्ग तथा स्थल-मार्ग से युक्त स्थान, पत्तन- बन्दरगाह अथवा बड़े नगर, पाश्रम-तापसों के आवास, सन्निवेश-झोपड़ियों से युक्त बस्ती अथवा सार्थवाह तथा सेना आदि के ठहरने के स्थान-इन सबका-~-इन सब में बसने वाले प्रजाजनों का सम्यक-भलीभाँति पालन कर यश अर्जित करते हुए, इन सबका आधिपत्य, पौरोवृत्य-अग्रसरता या आगेवानी, स्वामित्व, भतत्व-प्रभुत्व, महत्तरत्व अधिनायकत्व, आज्ञश्वरत्व-सेनापत्य-जिसे आज्ञा देने सर्वाधिकार होता है, ऐसा सैनापत्य-सेनापतित्व-इन सबका सर्वाधिकृत रूप में सर्वथा निर्वाह करते हए निधि, निरन्तर अविच्छिन्न रूप में नृत्य, गीत, वाद्य, वीणा, करताल, तूर्य-तुरही एवं घनमृदंग-बादल जैसी आवाज करने वाले मृदंग आदि के निपुणतापूर्ण प्रयोग द्वारा निकलती सुन्दर ध्वनियों से प्रानन्दित होते हुए, विपुल-प्रचुर-अत्यधिक भोग भोगते हुए सुखी रहें, यों कहकर उन्होंने जयघोष किया। राजा भरत का सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार दर्शन कर रहे थे / सहस्रों नर-नारी अपने वचनों द्वारा बार-बार उसका अभिस्तवन-गुणसंकीर्तन कर रहे थे / सहस्रों नर-नारी हृदय से उसका बार-बार अभिनन्दन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी अपने शुभ मनोरथ--हम इनकी सन्निधि में रह पाएं, इत्यादि उत्सुकतापूर्ण मनःकामनाएँ लिये हुए थे। सहस्रों नर-नारी उसकी कान्ति Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र देहदीप्ति, उत्तम सौभाग्य आदि गुणों के कारण ये स्वामी हमें सदा प्राप्त रहें, बार-बार ऐसी अभिलाषा करते थे। ___ नर-नारियों द्वारा अपने हजारों हाथों से उपस्थापित अंजलिमाला-प्रणामांजलियों को अपना दाहिना हाथ ऊँचा उठाकर बार-बार स्वीकार करता हुआ, घरों की हजारों पंक्तियों को लांघता हुआ, वीणा, ढोल, तुरही आदि वाद्यों की मधुर, मनोहर, सुन्दर ध्वनि में तन्म होता हुआ, उसका आनन्द लेता हुया, जहाँ अपना घर था, अपने सर्वोत्तम प्रासाद का द्वार था, वहाँ पाया। वहाँ आकर प्राभिषेक्य हस्तिरत्न को ठहराया, उससे नीचे उतरा। नीचे उतरकर सोलह हजार देवों का सत्कार किया, सम्मान किया / उन्हें सत्कृत-सम्मानित कर बत्तीस हजार राजाओं का सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत-सम्मानित कर सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न तथा पुरोहितरत्न का सत्कार किया, सम्मान किया। उनका सत्कार-सम्मान कर तीन सौ साठ पाचकों का सत्कार-सम्मान किया, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि-जनों का सत्कार-सम्मान किया / माण्डलिक राजानों, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुषों तथा सार्थवाहों आदि का सत्कार-सम्मान किया। उन्हें सत्कृत-सम्मानित कर सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न, बत्तीस हजार ऋत-कल्याणिकाओं तथा बत्तीस हजार जनपद-कल्याणिकाओं, बत्तीस बत्तीस अभिनेतव्य विधिक्रमों से परिबद्ध बत्तीस हजार नाटकों से-नाटक-मण्डलियों से संपरिवृत राजा भरत कुबेर की ज्यों कैलास पर्वत के शिखर के तुल्य अपने उत्तम प्रासाद में गया। राजा ने अपने मित्रों--- सुहृज्जनों, निजक-माता, भाई, बहिन आदि स्वजन-पारिवारिक जनों तथा श्वसुर, साले आदि सम्बन्धियों से कुशल-समाचार पूछे / वैसा कर वह जहाँ स्नानघर था, वहाँ गया / स्नान आदि संपन्न कर स्नानघर से बाहर निकला, जहाँ भोजन-मण्डप था, पाया। भोजनमण्डप में आकर सुखासन से अथवा शुभ-उत्तम आसन पर बैठा, तेले की तपस्या का पारणा किया / पारणा कर अपने महल में गया / वहाँ मृदंग बज रहे थे / बत्तीस-बत्तीस अभिनेतव्य विधिक्रम से नाटक चल रहे थे, नृत्य हो रहे थे। यों नाटककार, नृत्यकार, संगीतकार राजा का मनोरंजन कर रहे थे, गीतों द्वारा राजा का कीर्ति-स्तवन कर रहे थे। राजा उनका प्रानन्द लेता हुमा सांसारिक सुख का भोग करने लगा। राज्याभिषेक 84. तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ रज्जधुरं चितेमाणस्स इमेआरूवे (अब्भथिए चितिए पस्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था) अभिजिए णं मए णिप्रगबलवीरिअरिसक्कारपरक्कमेण चुल्लहिमवंतगिरिसागरमेराए केवलकप्पे भरहे वासे, तं सेयं खलु मे अप्पाणं महया रायाभिसेएणं अभिसेएणं अभिसिंचावित्तएत्ति कटु एवं संपेहेति 2 ता कल्लं पाउप्पभाए (रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अह पंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगास-किसुय-सुयमुह-गुजद्धरागसरिसे कमलागर-संड-बोहए उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा) जलंते जेणेव मज्जणघरे जाव पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे णिसोअति, णिसोइत्ता सोलस देवसहस्से बत्तीसं रायवरसहस्से Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [165 सेणावइरयणे (गाहावइरयणे वद्धहरयणे) पुरोहियरयणे तिण्णि सढे सूप्रसए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ अण्णे अ बहवे राईसरतलवर जाव' सत्थवाहप्पभिइनो सहावेइ 2 ता एवं क्यासी—'अभिजिए णं देवाणुप्पिा ! मए णिअगबलवीरिय-(पुरिसक्कारपरक्कमेण चुल्ल हिमवंतगिरिसागरमेराए) केवलकल्पे भरहे वासे / तं तुब्भे णं देवाणुप्पिना ! ममं महयारायाभिसेयं विअरह / ' तए णं से सोलस वेवसहस्सा (बत्तीसं रायबरसहस्सा सेणावइरयणे जाव पुरोहियरयणे तिणि सढे सूत्रसए अट्ठारस सेणिप्पसेणोप्रो अण्णे अ बहवे राईसरतलवर जाव सत्यवाह-) पभिइनो भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुटुकरयलमस्थए अंजलि कटु भरहस्स रणो एमटुं सम्म विणएणं पडिसुणेति / तए णं से भरहे राया जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता जाव पडिजागरमाणे विहरइ। तए णं से भरहे राया अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि आभिप्रोगिए देवे सद्दावेइ 2 त्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! विणोआए रायहाणीए उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एगं महं अभिसेप्रमंडवं विउच्वेह 2 ता मम एअमाणत्तिनं पच्चप्पिणह, तए णं ते प्राभियोगा देवा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हतुट्टा जाव' एवं सामित्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता विणोआए रायहाणीए उत्तरपुरस्थिमं दिसौभागं प्रवक्कमंति 2 तर वेउविप्रसमुग्याएणं समोहणंति २त्ता संखिज्जाइं जोप्रणाई दंडं णिसिरंति, तंजहा- (वइराणं वेरुलिनाणं लोहिअक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगम्भाणं पुलयाणं सोगन्धिआणं जोईरसाणं अंजणाणं अंजणपुलयाणं जायसवाणं अंकाणं फलिहाणं) रिद्वाणं अहाबायरे पुग्गले परिसाउँति 2 त्ता प्रहासुहमे पुग्गले परिमादिअंति 2 ता दुच्चंपि वेउब्वियसमुग्घायेणं (संखिज्जाई जोप्रणाई दंडं णिसिरंति, तंजहा--अहाबायरे पुग्गले परिसाडेंति 2 त्ता प्रहासुहमे पुग्गले परिमादिति 2 त्ता दुच्चंपि वेउब्वियसमुग्धायेणं) समोहणंति 2 त्ता बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं विउध्वंति, से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा० / तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगं अभिसेप्रमण्डवं विउध्वंति--प्रणेगखंभसयसण्णिविट्ठ (अन्भुग्गयं सुकयवइरवेइयातोरणवररचियसालिभंजियागं सुसिलिट्ठविसिटुलटुसंठियपसत्थ-वेरुलियविमलखंभे गाणामणिकणगरयणखचियउज्जलं बहुसमसुविभत्तदेसभागं ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगबालगकिन्नररुरुसर. भधमरकुजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं कंचणमणिरयणथूभियागं णाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहरधवलं मरीइकवयं विणिमुयंत लाउलोइयमहियं गोसोसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितलं उचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावं पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुजोवयारकलियं, कालागुरुपवरकुदरुक्कतुरुक्कधूवमघमघतं गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं) गंधवट्टिभूनं पेच्छाघरमंडववण्णगोत्ति तस्स णं अभिसेअमंडवस्स 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखें सूत्र संख्या 44 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एग अभिसेअपेढं विउध्वंति अच्छं सहं, तस्स णं अभिसेअपेढस्स तिदिसि तओ तिसोवाणपडिरूबए विउबंति, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते। (तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं झया छत्ता य नेवत्था) तस्स णं अभिसेअपेढस्स बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते / तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगं सोहासणं विउव्वंति / तस्स णं सोहासणस्स अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते जाव दामवण्णगं समतंति / तए णं ते देवा अभिसेअमंडवं विउध्वंति 2 ता जेणेव भरहे राया (तमाणत्तिअं) पच्चप्पिणंति / तए णं से भरहे राया प्राभिओगाणं देवाणं अंतिए एअमट्ठे सोच्चा णिसम्म हटतुट्ठ जाव' पोसहसालारो पडिणिक्खमइ 2 ता कोडंबिनपुरिसे सद्दावेइ 2 ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! ग्राभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकम्पेह 2 त्ता हयगय (रहपवरजोहकलिअं चाउरंगिणि सेण्णं) सण्णाहेत्ता एप्रमाणत्तिअं पच्चप्पिणह जाव' पच्चपिण्णंति / तए णं भरहे राया मज्जणघरं अणुपविसइ जाव' अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई परवई आरूढे / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो आभिसेक्कं हस्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलगा जो चेव गमो विणीनं पविसमाणस्स सो चेव णिक्खममाणस्स वि जाव अपडिबुज्झमाणे विणीअं रायहाणि मज्झमज्झणं णिग्गच्छइ 2 त्ता जेणेव विणीपाए रायहाणीए उत्तरपुरस्थिमे दिसोभाए अभिसेअमंडवे तेणेव उवागच्छइ 2 ता अभिसेप्रमंडवदुआरे प्राभिसेक्कं हत्थिरयणं ठावेइ 2 ता भाभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरहइ 2 ता इत्थीरयणणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिआसहस्सेहि बत्तीसाए जणवयकल्लाणिप्रासहस्सेहि बत्तीसाए बत्तीसइबद्ध हि गाडगसहस्सेहिं सद्धि संपरिबुडे अभिसेअमंडवं अणुपविसइ 2 ता जेणेव अभिसेयपेढे तेणेव उवागच्छइ 2 ता अभिसेअपेढं अणुप्पदाहिणीकरेमाणे 2 पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूहइ 2 ता जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 ता पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति / तए णं तस्स भरहस्स रणो बत्तीसं रायसहस्सा जेणेव अभिसेअमण्डवे तेणेव उवागच्छंति 2 ता अभिसे अमंडवं अणुपविसंति 2 ता अभिसे अपेढं अणुप्पयाहिणीकरेमाणा 2 उत्तरिलं तिसोवाणपडिरूवएणं जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता करयल जाव अंजलि कटु भरहं रायाणं जएणं विजएणं वद्धाति 2 ता भरहस्स रण्णो णच्चासणे गाइदूरे सुस्सूसमाणा (णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा) पज्जुवासंति / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सेणावइरयणे (गाहावइरयणे बद्धइरयणे पुरोहियरयणे तिणि सट्टे सूत्रसए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ अण्णे अ बहवे राईसरतलवर) सत्थवाहप्पभिईओ ते ऽवि तह चेव णवरं दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं (णमंसंति अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा) पज्जुवासंति / तए णं से भरहे राया आभियोगे देवे सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिना ! ममं महत्थं महग्धं महरिहं महारायाअभिसेनं उवट्ठवेह / 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखें सूत्र यही 3. देखें सूत्र संख्या 53 4. देखें सूत्र संख्या 44 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [167 तए णं ते प्राभिओगिआ देवा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्ता जाव' उत्तरपुरस्थिमं दिसीभार्ग अवक्कमंति, अवक्कमित्ता वेउदिवासमुग्धाएणं समोहणंति, एवं जहा विजयस्स तहा इत्थंपि जाव पंडगवणे एगो मिलायंति एगो मिलाइत्ता जेणेव दाहिणद्धभरहे वासे जेणेव विणोपा रायहाणी तेणेव उवागच्छंति 2 ता विणीअं रायहाणि अणुप्पयाहिणीकरेमाणा 2 जेणेव अभिसेप्रमंडवे जेणेव भरहे राया तेणेव उवागच्छंति 2 ता तं महत्थं महग्धं महरिहं महारायाभिसेअं उवट्ठति / तए णं तं भरहं रायाणं बत्तीसं रायसहस्सा सोभणसि तिहिकरणदिवसणक्खत्तमुहत्तंसि उत्तरपोट्ठवयाविजयंसि तेहिं साभाविएहि अ उत्तरवेउविएहि अवरकमलपइट्ठाणेहि सुरभिवरवारिपडिपुणेहि जाव महया महया रायाभिसेएणं अभिर्भासचंति, अभिसेयो जहा विजयस्स, अभिसि चित्ता पत्तेनं 2 जाव' अंजलि कटु ताहि इटाहिं जहा पविसंतस्स भणिआ (भई ते, अजिअं जिणाहि जिअं पालयाहि, जिअमझे वसाहि, इंदो विव देवाणं चंदो विव ताराणं चमरो विव असुराणं धरणो विव नागाणं बहूइं पुन्वसयसहस्साई बहूईओ पुवकोडोयो बहूईओ पुवकोडाकोडीग्रो विणीपाए राहाणोए चुल्लहिमवंतगिरिसागरमेरागस्स य केवलकप्पस्स भरहस्स वासस्स गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसण्णिवेसेसु सम्म पयापालणोवज्जिालद्धजसे महया जाव अाहेवच्चं पोरेवच्चं) विहराहित्ति कटु जयजयसदं पउंजंति। तए णं तं भरहं रायाणं सेणावइरयणे (गाहावइरयणे वद्धइरयणे) पुरोहियरयणे तिणि अ सट्टा सूअसया अट्ठारस सेणिप्पसेणीमो अण्णे अ बहवे जाव सत्थवाहप्पभिइओ एवं चैव अभिसिंचंति वरकमलपइट्ठाणेहिं तहेव (ओरालाहि इटाहि कंताहि पित्राहि मणुनाहि मणामाहि सिवाहि घण्णाहि मंगल्लाहिं सस्सिरीआहि हिअयगमणिज्जाहिं हिअयपल्हायणिज्जाहिं वहिं अणुवरयं अभिणंदंति य) अभिथुणंति अ सोलस देवसहस्सा एवं चेव गवरं पम्हलसुकुमालाए गन्धकासाइपाए गायाई लूहेंति सरसगोसीसचन्दणेणं गायाई अणुलिपंति 2 त्ता नासाणीसासवायवोझ चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवाइरेगं धवलं कणगखइअंतकम्मं पागासफलिहसरिसप्पभं अहयं दिव्वं देवदूसजुअलं णिअंसाति 2 ता हारं पिणद्धति 2 ता एवं प्रद्धहारं एगावलि मुत्तालि रयणावलि पालंब-अंगयाइं तुडिआई कडयाई दसमुद्दिनाणंतगं कडिसुत्तगं वेअच्छगसुत्तगं मुरवि कंठमुरवि कुडलाई चूडामणि चित्तरयणुक्कडंति) मउड पिणद्धति / तयणंतरं गंहि च णं दद्दरमलयसुगंधिएहि गंधेहि गायाई अब्भुखेति दिव्वं च सुमणोदामं पिणति, कि बहुणा ? गंट्ठिमवेढिम (पूरिम-संघाइमेणं चउन्विहेणं मल्लेणं कप्परुक्खयंपिव समलंकिय-) विभूसिनं करेंति / तए णं से भरहे राया महया 2 रायाभिसेएणं अभिसिंचिए समाणे कोड बिअपुरिसे सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! हथिखंधवरगया विणीआए रायहाणीए 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखें सूत्र संख्या 44 3. देखें सूत्र संख्या 44 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र सिंघाडगतिगचउक्कचच्चर जाव महापहपहेसु महया 2 सद्देणं उग्धोसेमाणा 2 उस्सुक्कं उक्करं उक्किट्ठ अदिज्जं अमिज्ज अब्भडपवेसं अदंडकुदंडिस (अधरिमं गणिआवरणाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरियं अणुद्धप्रमुइंगं अमिलाय-मल्लदाम पमुइय-पक्कीलियं) सपुरजणवयं दुवालससंवच्छरिअं पमोअंघोसेह 2 ममेप्रमाणत्तिअं पच्चप्पिणहत्ति, तए णं ते कोड बिअपुरिसा भरहेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिया पीइमणा हरिसक्सविसप्पमाणहियया विणएणं वयणं पडिसुणेति 2 ता खिप्पामेव हत्थिखंधवरगया (विणीयाए रायहाणीए सिंघाडगतिगचउक्कचच्चर जाव महापहपहेसु महया 2 सद्देणं) धोसंति 2 ता एप्रमाणत्तिधे पच्चप्पिणंति / तए णं से भरहे राया महया 2 रायाभिसेएणं अभिसित्ते समाणे सोहासणाप्रो अन्भुट्टेड 2 ता इत्थिरयणेणं (उडुकल्लाणिप्रासहसहि जणवयकल्लाणियासहहिं बत्तीसं बत्तीसइबहि) गाडगसहस्सेहि सद्धि संपरिवुडे अभिसेअपेढाओ पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरहइ 2 त्ता अभिसेप्रमंडवानो पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव आभिसेक्के हत्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ 2 ता अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई जाव' दूरूढे / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो बत्तीसं रायसहस्सा अभिसेअपेढानो उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति, तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सेणावइरयणे जाव' सत्थवाहप्पभिईओ अभिसेअपेढानो दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति, तए णं तस्स भरहस्स रण्णो प्राभिसेक्कं हस्थिरयणं दूरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठट्ठमंगलगा पुरो जाव संपत्थिया, जोऽवि अ अइगच्छमाणस्स गमो पढमो कुबेरावसाणो सो चेव इहंपि कमो सक्कारजढो अन्वो जाव कुबेरोव्व देवराया कैलासं सिहरिसिंगभूअंति / तए णं से भरहे राया मज्जणघरं अणुपविसइ 2 ता जाव भोग्रणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्ठमभत्तं पारेइ 2 ता भोग्रणमंडवाओ पडिणिक्खमइ 2 त्ता उम्पि पासायवरगए फुट्टमाणेहि मुइंगमस्थएहि (बत्तीसइबद्ध हिं णाडएहिं उवलालिज्जमाणे 2 उवणधिज्जमाणे 2 उवगिज्जमाणे 2 विउलाई भोगभोगाई) भुजमाणे विहरइ। तए णं से भरहे राया दुवालससंवच्छरिअंसि पमोग्रंसि णिवत्तंसि समाणंसि जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ 2 ता जाव' मज्जणघराम्रो पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला (जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता) सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे णिसीणइ 2 त्ता सोलस देवसहस्से सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता पडिविसज्जेइ 2 ता बत्तीसं रायवरसहस्सा सक्कारेइ 1. देखें सूत्र 53 2. देखें सूत्र यही 3. देखें सूत्र 44 4. देखें सूत्र 44 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [169 सम्माणेइ 2 त्ता सेणावइरयणं सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता जाव' पुरोहियरयणं सक्कारेइ सम्माणेइ 2 त्ता एवं तिणि सळं सूवारसए अट्ठारस सेणिप्पसेणीयो सक्कारेइ सम्माणेइ 2 त्ता अण्णे बहवे राईसरतलवर जाव' सत्थवाहप्पभिइओ सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता पडिविसज्जेति 2 त्ता उप्पि पासायवरगए जाव' विहरइ / 184] राजा भरत अपने राज्य का दायित्व सम्हाले था। (एक दिन उसके मन में ऐसा भाव, चिन्तन, आशय तथा संकल्प उत्पन्न हुआ-) मैंने अपने बल, वीर्य, पौरुष एवं पराक्रम द्वारा एक ओर लघु हिमवान् पर्वत एवं तीन अोर समुद्रों से मर्यादित समस्त भरतक्षेत्र को जीत लिया है / इसलिए अब उचित है, मैं विराट् राज्याभिषेक-समारोह आयोजित करवाऊं, जिसमें मेरा राजतिलक हो / उसने ऐसा विचार किया / (रात बीत जाने पर, नीले तथा अन्य कमलों के सुहावने रूप में खिल जाने पर, उज्ज्वल प्रभा एवं लाल अशोक, किशुक के पुष्प, तोते की चोंच, घुघची के प्राधे भाग के रंग के सदृश लालिमा लिये हुए, कमल वन को उद्बोधित--विकसित करने वाले, सहस्रकिरणयुक्त, दिन के प्रादुर्भावक सूर्य के उदित होने पर, अपने तेज से उद्दीप्त होने पर) दूसरे दिन राजा भरत, जहाँ स्नानघर था, वहाँ अाया। स्नान प्रादि कर बाहर निकला, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ पाया, पूर्व की ओर मुंह किये सिंहासन पर बैठा। सिंहासन पर बैठकर उसने सोलह हजार आभियोगिक स हजार प्रमख राजानों. सेनापतिरत्त. (गाथापतिरत्न, वर्धकिरल.) परोहितरत्न. तीन सौ साठ सूपकारों, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जनों तथा अन्य बहुत से माण्डलिक राजाओं, ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशील पुरुषों, राजसम्मानित विशिष्ट नागरिकों और सार्थवाहों को अनेक छोटे व्यापारियों को साथ लिये देशान्तर में व्यापार-व्यवसाय करनेवाले बड़े व्यापारियों को बुलाया / बुलाकर उसने कहा—'देवानुप्रियो ! मैंने अपने बल, वीर्य, (पौरुष तथा पराक्रम द्वारा एक ओर लघु हिमवान् पर्वत से तथा तीन ओर समुद्रों से मर्यादित) समग्र भरतक्षेत्र को जीत लिया है / देवानुप्रियो ! तुम लोग मेरे राज्याभिषेक के विराट् समारोह की रचना करो तैयारी करो। राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे सोलह हजार आभियोगिक देव (बत्तीस हजार प्रमुख राजा, सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न, पुरोहित रत्न, तीन सौ साठ सूपकार, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जन तथा अन्य बहुत से माण्डलिक राजा, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशील पुरुष, राज-सम्मानित विशिष्ट नागरिक, सार्थवाह) आदि बहुत हषित एवं परितुष्ट हुए। उन्होंने हाथ जोड़े, उन्हें मस्तक से लगाया / ऐसा कर राजा भरत का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया। तत्पश्चात् राजा भरत जहाँ पौषधशाला थी, वहाँ आया, तेले की तपस्या स्वीकार की। तेले की तपस्या में प्रतिजागरित रहा। तेले की तपस्या पूर्ण हो जाने पर उसने आभियोगिक देवों का अाह्वान किया / आह्वान कर उसने कहा- 'देवानुप्रियो ! विनीता राजधानी के उत्तर-पूर्व दिशाभाग देवों,ब 1. देखें मूत्र यही 2. देख सूत्र 44 3. देखें सूत्र यही Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र में-ईशानकोण में एक विशाल अभिषेकमण्डप की विकुर्वणा करो-वैत्रियलब्धि द्वारा रचना करो। वैसा कर मुझे अवगत करायो।' राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे आभियोगिक देव अपने मन में हर्षित एवं परितुष्ट हुए / “स्वामी ! जो आज्ञा।" यों कहकर उन्होंने राजा भरत का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार किया / स्वीकार कर विनीता राजधानी के उत्तर-पूर्व दिशाभाग मेंईशानकोण में गये / वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाला। प्रात्मप्रदेशों को बाहर निकाल कर उन्हें संख्यात योजन पर्यन्त दण्डरूप में परिणत किया / उनसे गृह्यमाण (हीरे, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, ज्योतिरस, अंजन, अंजनपुलक, स्वर्ण, अंक, स्फटिक), रिष्ट आदि रत्नों के बादर---स्थूल, असार पुद्गलों को छोड़ दिया। उन्हें छोड़ कर सारभूत सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया। उन्हें ग्रहण कर पुनः वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाला। बाहर निकाल कर मृदंग के ऊपरी भाग की ज्यों समतल, सुन्दर भूमिभाग की विकुर्वणा की-वैक्रियलब्धि द्वारा रचना की। उसके ठीक बीच में एक विशाल अभिषेक-मण्डप की रचना की। वह अभिषेक-मण्डप सैकड़ों खंभों पर टिका था / (वह अभ्युद्गत-बहुत ऊँचा था / वह हीरों से सरचित वेदिकानों. तोरणों एवं सन्दर पतलियों से सुसज्जित था / वह सुश्लिष्ट—सुन्दर, सुहावने, विशिष्ट, रमणीय आकारयुक्त, प्रशस्त, उज्ज्वल वैडूर्यमणि निर्मित स्तंभों पर संस्थित था / उसका भूभिभाग नाना प्रकार की देदीप्यमान मणियों से खचित--जड़ा हुआ, सुविभक्त एवं अत्यधिक समतल था / वह ईहामृग-भेड़िया, वृषभ-बैल, तुरंग-घोड़ा, मनुष्य, मगरमच्छ, विहंग-पक्षी, व्यालक–सांप, किन्नर, रुरु-कस्तूरीमृग, शरभ-अष्टापद, चमर--चवरी गाय, कुंजर हाथी, वनलता एवं पद्मलला आदि के विविध चित्रों से युक्त था / उस पर स्वर्ण, मणि तथा रत्न रचित स्तूप बने थे / उसका उच्च धवल शिखर अनेक प्रकार की घंटियों एवं पांच रंग की पताकानों से परिमंडित था-विभूपित था। वह किरणों की ज्यों अपने से निकलती आभा से देदीप्यमान था / उसका प्रांगन गोबर से लिपा था तथा दीवारें चूने से---कलई से पुती थीं। उस पर ताजे गोशीर्ष तथा लाल चन्दन के पांचों अंगुलियों एवं हथेली सहित हाथ के थापे लगे थे। उसमें चन्दन-चचित कलश रखे थे। उसका प्रत्येक द्वार तोरणों एवं कलशों से सुसज्जित था। उसकी दीवारों पर जमीन से ऊपर तक के भाग को छ ती हुई बड़ी-बड़ी गोल तथा लम्बी पुष्पमालाएँ लगी थीं। पांच रंगों के सरस--ताजे, सुरभित पुष्पों से वह सजा था। काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान एवं धूप की गमगमाती महक से वहाँ का वातावरण उत्कृष्ट सुरभिमय बना था, जिससे सुगन्धित धुएँ की प्रचुरता के कारण वहाँ गोल-गोल धममय छल्ले बनते दिखाई देते थे / अभिषेकमण्डप के ठीक बीच में एक विशाल अभिषेकपीठ की रचना की / वह अभिषेकपीठ स्वच्छ-रजरहित तथा श्लक्षण-सूक्ष्म पुद्गलों से बना होने से मुलायम था। उस अभिषेकपीठ की तीन दिशाओं में उन्होंने तीन-तीन सोपानमार्गों की रचना की / (उन्हें ध्वजाओं, छत्रों तथा वस्त्रों से सजाया / ) उस अभिषकपीठ का भूमिभाग बहुत समतल एवं रमणीय था। उस अत्यधिक समतल, सुन्दरःभूमिभाग के ठीक बीच में उन्होंने एक विशाल सिंहासन का निर्माण किया। सिंहासन का वर्णन विजयदेव के सिंहासन जैसा है / यों उन देवताओं ने अभिषेकमण्डप की रचना की। अभिषेकमण्डप की रचना कर वे जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये। उसे इससे अवगत कराया। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [171 राजा भरत उन प्राभियोगिक देवों से यह सुनकर हर्षित एवं परितुष्ट हुअा, पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / उन्हें बुलाकर यों कहा—'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही हस्तिरत्न को तैयार करो। हस्तिरत्न को तैयार कर घोडे, हाथी, रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं से-पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना को सजायो / ऐसा कर मुझे अवगत करायो / ' कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा किया एवं राजा को उसकी सूचना दी। फिर राजा भरत स्नानघर में प्रविष्ट हुआ / स्नानादि से निवृत्त होकर अंजनगिरि के शिखर के समान उन्नत गजराज पर आरूढ हुा / राजा भरत के आभिषेक्य हस्तिरत्न पर आरूढ हो जाने पर पाठ मंगल-प्रतीक, जिनका वर्णन विनीता राजधानी में प्रवेश करने के अवसर पर आया है, राजा के आगे-आगे रवाना किये गये। राजा के विनीता राजधानी से अभिनिष्क्रमण का वर्णन उसके विनीता में प्रवेश के वर्णन के समान है / राजा भरत विनीता राजधानी के बीच से निकला / निकल कर जहाँ विनीता राजधानी के उत्तर-पूर्व दिशाभाग में-ईशानकोण में अभिषेकमण्डप था, वहाँ आया। वहाँ पाकर अभिषेकमण्डप के द्वार पर आभिषेक्य हस्तिरत्न को ठहराया। ठहराकर वह हस्ति रत्न से नीचे उतरा / नीचे उतर कर स्त्रीरत्न -परम सुन्दरी सुभद्रा, बत्तीस हजार ऋतुकल्याणिकानों, बत्तीस हजार जनपदकल्याणिकाओं, बत्तीस-बत्तीस पात्रों, अभिनेतव्य ऋमोपक्रमों से अनबद्ध बत्तीस हजार नाटकों-- नाटक-मंडलियों से संपरिवृत-घिरा हुअा राजा भरत अभिषेकमण्डप में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर जहाँ अभिषेकपीठ था, वहाँ आया। वहाँ पाकर उसने अभिषेकपीठ की प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वह पूर्व की ओर स्थित तीन सीढ़ियों से होता हुआ जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया। वहाँ पाकर पूर्व की ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठा / फिर राजा भरत के अनुगत बत्तीस हजार प्रमुख राजा, जहाँ अभिषेकमण्डप था, वहाँ आये / वहाँ आकर उन्होंने अभिषेकमण्डप में प्रवेश किया। प्रवेश कर अभिषेकपीठ की प्रदक्षिणा की, उसके उत्तरवर्ती त्रिसोपानमार्ग से, जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये / वहाँ आकर उन्होंने हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे राजा भरत को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया / वर्धापित कर राजा भरत के न अधिक समीप, न अधिक दूर-थोड़ी ही दूरी पर शुश्रूषा करते हुए-राजा का वचन सुनने की इच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, राजा की पर्युपासना करते हुए यथास्थान बैठ गये। तदनन्तर राजा भरत का सेनापतिरत्न, (गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न, पुरोहित रत्न, तीन सौ साठ सूपकार, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जन तथा और बहुत से माण्डलिक राजा, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशील पुरुष, राजसम्मानित नागरिक) सार्थवाह अादि वहाँ आये। उनके पाने का वर्णन पूर्ववत् संग्राह्य है। केवल इतना अन्तर है कि वे दक्षिण की अोर के त्रिसोपान-मार्ग से अभिषेकपीठ पर गये। (राजा को प्रणाम किया, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए) राजा की पर्युपासना करने लगे--राजा की सेवा में उपस्थित हुए। तत्पश्चात राजा भरत ने पाभियोगिक देवों का आह्वान किया। आह्वान कर उनसे कहादेवानुप्रियो ! मेरे लिए महार्थ-जिसमें मणि, स्वर्ण, रत्न प्रादि का उपयोग हो, महार्य-जिसमें Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र बहुत बड़ा पूजा-सत्कार हो—बहुमूल्य वस्तुओं का उपयोग हो, महाह-~-जिसके अन्तर्गत गाजों-बाजों सहित बहुत बड़ा उत्सव मनाया जाए, ऐसे महाराज्याभिषेक का प्रबन्ध करो व्यवस्था करो। राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट हुए। वे उत्तरपूर्व दिशाभाग में ईशान-कोण में गये। वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा उन्होंने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाला। जम्बूद्वीप के विजयद्वार के अधिष्ठाता विजयदेव के प्रकरण में जो वर्णन अाया है, वह यहाँ संग्राह्य है। वे देव पंडकवन में एकत्र हुए, मिले। मिलकर जहाँ दक्षिणार्थ भरत क्षेत्र था, जहाँ विनीता राजधानी थी, वहाँ आये। प्राकर विनीता राजधानी की प्रदक्षिणा की, जहाँ अभिषेकमण्डप था, जहाँ राजा भरत था, वहाँ आये। आकर महार्थ, महाघ तथा महार्ह महाराज्याभिषेक के लिए त समस्त सामग्री राजा के समक्ष उपस्थित की। बत्तीस हजार राजाओं ने शोभन-उत्तम, श्रेष्ठ तिथि, करण, दिवस. नक्षत्र एवं महर्त में-उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र तथा विजय नामक महर्त में स्वाभाविक तथा उत्तरविक्रिया द्वारा-वैक्रियलब्धि द्वारा निष्पादित, श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठापित, सुरभित, उत्तम जल से परिपूर्ण एक हजार पाठ कलशों से राजा भरत का बड़े आनन्दोत्सव के साथ अभिषेक किया। अभिषेक का परिपूर्ण वर्णन विजयदेव के अभिषेक के सदृश है।' उन राजाओं में से प्रत्येक ने इष्ट-प्रिय वाणी द्वारा राजा का अभिनन्दन, अभिस्तवन किया। वे बोले-राजन् ! आप सदा जयशील हों। आपका कल्याण हो। (जिन्हें नहीं जीता है, उन पर आप विजय प्राप्त करें, जिनको जीत लिया है, उनका पालन करें, उनके बीच निवास करें / देवों में इन्द्र की तरह, तारों में चन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह तथा नागों में धरणेन्द्र की तरह लाखों पूर्व, करोड़ों पूर्व, कोडाकोड़ी पूर्व पर्यन्त उत्तर दिशा में लघु हिमवान् पर्वत तथा अन्य तीन दिशाओं में समुद्रों द्वारा मर्यादित संपूर्ण भरतक्षेत्र के ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, पाश्रम, सन्निवेश-इन सबका, इन सब में बसने वाले प्रजाजनों का सम्यक्-भलीभाँति पालन कर यश अजित करते हुए, इन सबका आधिपत्य, पौरोवृत्त्य, अग्रसरता करते हुए) आप सांसारिक सुख भोगें, यों कह कर उन्होंने जयघोष किया। तत्पश्चात् सेनापतिरत्न, (गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न) तीन सौ साठ सूपकारों, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जनों तथा और बहुत से माण्डलिक राजाओं, सार्थवाहों ने राजा भरत का उत्तम कमलपत्रों पर प्रतिष्ठापित, सुरभित उत्तम जल से परिपूर्ण कलशों से अभिषेक किया। उन्होंने उदार-उत्तम, इष्ट-वाञ्छित, कान्त-कमनीय, प्रिय-प्रीतिकर, मनोज्ञ मनोनुकल, मनाम-चित्त को प्रसन्न करने वाली, शिवकल्याणमयी, धन्य-प्रशंसा युक्त, मंगल-मंगलयुक्त, सश्रीक शोभायुक्त लालित्ययुक्त, हृदयगमनीय हृदय में प्रानन्द उत्पन्न करने वाली, हृदयप्रह्लादनीय-हृदय को आह्लादित करने वाली वाणी द्वारा अनवरत अभिनन्दन किया, अभिस्तवन किया। . 1. देखिये तृतीय उपाङ्ग-जीवाजीवाभिगमसूत्र Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [173 .. सोलह हजार देवों ने (अगर आदि सुगन्धित पदार्थों एवं आमलक ग्रादि कसैले पदार्थों से संस्कारित, अनुवासित अति सुकुमार रोप्रों वाले तौलिये से राजा का शरीर पोंछा / शरीर को पोंछ कर उस पर गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। लेप कर राजा को दो देवदूष्य-दिव्य वस्त्र धारण कराये। वे इतने बारीक और वजन में इतने हलके थे कि नासिका से निकलने वाली हवा से भी दूर सरक जाते। वे इतने रूपातिशययुक्त थे---सुन्दर थे कि उन्हें देखते ही नेत्र आकृष्ट हो जाते / उनका वर्णरंग तथा स्पर्श बड़ा उत्तम था / वे घोड़े के मुंह से निकलने वाली लार--मुखजल से भी अत्यन्त कोमल थे, सफेद रंग के थे / उनकी किनार सोने से सोने के तारों से खचित थी--बुनाई में सोने के तारों से समन्वित थी। उनकी प्रभा-दीप्ति प्रकाश-स्फटिक—अत्यन्त स्वच्छ स्फटिक-विशेष जैसी थी। वे अहत-छिद्ररहित थे—कहीं से भी कटे हुए नहीं थे—सर्वथा नवीन थे, दिव्य द्युतियुक्त थे / वस्त्र पहनाकर उन्होंने राजा के गले में अठारह लड का हार पहनाया। हार पहनाकर अर्धहार-नौ लड का हार, एकावली-इकलड़ा हार, मुक्तावली-मोतियों का हार, कनकावली-स्वर्णमणिमय हार, रत्नावली-रत्नों का हार, प्रालम्ब-स्वर्णमय, विविध मणियों एवं रत्नों के चित्रांकन से युक्त देहप्रमाण आभरण विशेष- हार-विशेष पहनाया / अंगद भुजाओं के बाजूबन्द, त्रुटित-तोड़े, कटकहाथों में पहनने के कड़े पहनाये / दशों अंगुलियों में दश अंगूठियाँ पहनाईं। कमर में कटिसूत्र—करधनी या करनोला पहनाया, दुपट्टा ओढ़ाया, मुरकी--कानों को चारों ओर से घेरने वाला कर्णभूषण, जो कानों से नीचे आने पर गले तक लटकने लगता है, पहनाया। कुण्डल पहनाये, चूड़ामणि-शिरोभूषण धारण करवाया / ) विभिन्न रत्नों से जड़ा हुआ मुकुट पहनाया। तत्पश्चात् उन देवों ने दर्दर तथा मलय चन्दन की सुगन्ध से युक्त, केसर, कपूर, कस्तूरी आदि के सारभूत, सघन-सुगन्ध-व्याप्त रस-इत्र राजा पर छिड़के। उसे दिव्य पुष्पों की माला पहनाई। उन्होंने उसको ग्रन्थिम--सूत आदि से गुंथी हुई, वेष्टिम-वस्तुविशेष पर लपेटी हुई, (पूरिमवंश-शलाका आदि पंजर—पोल–रिक्त स्थान में भरी हुई तथा संघातिम—परस्पर सम्मिलित अनेक के एकीकृत-समन्वित रूप से विरचित) चार प्रकार की मालाओं से समलंकृत किया-विभूषित किया। उनसे सुशोभित राजा कल्पवृक्ष सदृश प्रतीत होता था। इस प्रकार विशाल राज्याभिषेक समारोह में अभिषिक्त होकर राजा भरत ने अपने कौटाम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा-देवानुप्रियो ! हाथी पर सवार होकर तुम लोग विनीता राजधानी के तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों, चत्वरों-जहाँ चार से अधिक रास्ते मिलते हैं, ऐसे स्थानों तथा विशाल राजमार्गों पर जोर-जोर से यह घोषणा करो कि इस उपलक्ष्य में मेरे राज्य के निवासी बारह वर्ष पर्यन्त प्रमोदोत्सव मनाएं। इस बीच राज्य में कोई भी क्रय-विक्रय आदि सम्वन्धी शुल्क, संपत्ति आदि पर प्रतिवर्ष लिया जाने वाला राज्य-कर नहीं लिया जायेगा / लभ्य मेंग्राह्य में किसी से यदि कुछ लेना है, पावना है, उसमें खिचाव न किया जाए, जोर न दिया जाए, आदान-प्रदान का, नाप-जोख का क्रम बन्द रहे, राज्य के कर्मचारी, अधिकारी किसी के घर में प्रवेश न करें, दण्ड–यथापराध राजग्राह्य द्रव्य-जुर्माना, कुदण्ड-बड़े अपराध के लिए दण्डरूप में लिया जाने वाला अल्पद्रव्य-थोड़ा जुर्माना--ये दोनों ही न लिये जाएं। (ऋण के सन्दर्भ में कोई विवाद न हो, राजकोष से धन देकर ऋणी का ऋण चुका दिया जाए-ऋणी को ऋणमुक्त कर दिया जाए। विविध प्रकार के नाटक, नृत्य आदि आयोजित कर समारोह को सुन्दर बनाया जाए, जिसे सभी Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र दर्शक सुविधापूर्वक देख सकें / यथाविधि समुद्भावित मृदंग-निनाद से महोत्सव गुंजाया जाता रहे / नगरसज्जा में लगाई गई या लोगों द्वारा पहनी गई मालाएँ कुम्हलाई हुई न हों, ताजे फूलों से बनी हों। प्रमोद-प्रानन्दोल्लास, मनोरंजन, खेल-तमाशे चलते रहें / ) यह घोषणा कर मुझे अवगत कराओ। राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे कौटुम्बिक पुरुष बहुत हर्षित तथा परितुष्ट हुए, आनन्दित हुए / उनके मन में बड़ी प्रसन्नता हुई / हर्ष से उनका हृदय खिल उठा / उन्होंने विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया। स्वीकार कर वे शीघ्र ही हाथी पर सवार हुए, (विनीता राजधानी के सिंघाटक-तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों, चत्वरों-जहाँ चार से अधिक मार्ग मिलते हों, ऐसे स्थानों तथा बड़े-बड़े राजमागों में उच्च स्वर से) उन्होंने राजा के आदेशानुरूप घोषणा की / घोषणा कर राजा को अवगत कराया। विराट् राज्याभिषेक-समारोह में अभिषिक्त राजा भरत सिंहासन से उठा / स्त्रीरत्न सुभद्रा, (बत्तीस हजार ऋतुकल्याणिकाओं तथा बत्तीस हजार जनपदकल्याणिकाओं और बत्तीस-बत्तीस पात्रों, अभिनेतव्य क्रमोपक्रमों से अनुबद्ध) बत्तीस हजार नाटकों-नाटक-मंडलियों से संपरिक्त वह राजा अभिषेक-पीठ से उसके पूर्वी त्रिसोपानोपगत मार्ग से नीचे उतरा। नीचे उतरकर अभिषेकमण्डप से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ प्राभिषेक्य हस्तिरत्न था, वहाँ जाकर अंजनगिरि के शिखर के समान उन्नत गजराज पर आरूढ हुआ। राजा भरत के अनुगत बत्तीस हजार प्रमुख राजा अभिषेक-पीठ से उसके उत्तरी त्रिसोपानोपगत मार्ग से नीचे उतरे / राजा भरत का सेनापतिरत्न, सार्थवाह आदि अभिषेक-पीठ से उसके दक्षिणी त्रिसोपानोपगत मार्ग से नीचे उतरे। प्राभिषेक्य हस्तिरत्न पर प्रारूढ राजा के आगे पाठ मंगल-प्रतीक रवाना किये गये। आगे का वर्णन पूर्ववर्ती एतत्सदृश प्रसंग से संग्राह्य है / तत्पश्चात् राजा भरत स्नानघर में प्रविष्ट हुआ। स्नानादि परिसंपन्न कर भोजन-मण्डप में आया, सुखासन पर या शुभासन पर बैठा, तेले का पारणा किया। पारणा कर भोजन-मण्डप से निकला / भोजन-मण्डप से निकल कर वह अपने श्रेष्ठ उत्तम प्रासाद में गया। वहाँ मृदंग बज रहे थे। (बत्तीस-बत्तीस पात्रों, अभिनेतव्य क्रमोपकमों से नाटक चल रहे थे, नृत्य हो रहे थे / यो नाटककार, नृत्यकार, संगीतकार, राजा का मनोरंजन कर रहे थे, गीतों द्वारा राजा का कीति-स्तवन कर रहे थे।) राजा उनका आनन्द लेता हुआ सांसारिक सुखों का भोग करने लगा। प्रमोदोत्सव में बारह वर्ष पूर्ण हो गये। राजा भरत जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। स्नान कर वहाँ से निकला, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, (जहाँ सिंहासन था, वहाँ पाया / ) वहाँ आकर पूर्व की ओर मुंह कर सिंहासन पर बैठा। सिंहासन पर बैठकर सोलह हजार देवों का सत्कार किया, सम्मान किया। उनको सत्कृत, सम्मानित कर वहाँ से विदा किया। बत्तीस हजार प्रमुख राजाओं का सत्कार-सम्मान किया / सत्कृत, सम्मानित कर उन्हें विदा किया / सेनापति रत्न, पुरोहित रत्न आदि का, तीन सौ साठ सूपकारों का, अठारह श्रेणी-प्रश्रेणीजनों का, बहुत से माण्डलिक राजाओं, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुषों, राजसम्मानित विशिष्ट नागरिकों तथा सार्थवाह आदि का सत्कार Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [175 किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत, सम्मानित कर विदा किया। विदा कर वह अपने श्रेष्ठ- उत्तम महल में गया ! वहाँ विपुल भोग भोगने लगा। चतुर्दश रत्न : नव निधि : उत्पत्तिक्रम 85. भरहस्स रण्णो चक्करयणे 1 दंडरयणे 2 असिरयणे 3 छत्तरयणे 4 एते णं चत्तारि एगिदियरयणे आउहघरसालाए समुप्पण्णा। चम्मरयणे 1 मणिरयणे 2 कागणिरयणे 3 णव य महाणिहओ एए णं सिरिघरंसि समुप्पण्णा। सेणावइरयणे 1 गाहावइरयणे 2 बद्धइरयणे 3 पुरोहिअरयणे 4 एए णं चत्तारि मणुअरयणा विणीनाए रायहाणीए समुप्पण्णा / प्रासरयणे 1 हत्थिर यणे 2 एए णं दुवे पंचिदिअरयणा वेश्रद्धगिरिपायमूले समुप्पण्णा। सुभद्दा इत्थीरयणे उत्तरिल्लाए विज्जाहरसेढोए समुप्पण्णे। [85] चक्ररत्न, दण्डरत्न, असिरत्न तथा छत्ररत्न राजा भरत के ये चार एकेन्द्रिय रत्न प्रायुधगृहशाला में शस्त्रागार में उत्पन्न हुए / चर्मरत्न, मणिरत्न, काकणीरत्न तथा नौ महानिधियां, श्रीगृह में-भाण्डागार में उत्पन्न हुए। सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकि रत्न तथा पुरोहितरत्न, ये चार मनुष्यरत्न, विनीता राजधानी में उत्पन्न हुए। अश्वरत्न तथा हस्तिरत्न, ये दो पञ्चेन्द्रियरत्न वैताढय पर्वत की तलहटी में उत्पन्न हुए / सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न उत्तर विद्याधरश्रेणी में उत्पन्न हुआ। भरत का राज्य : वैभव : सुख 86. तए णं से भरहे राया चउदसण्हं रयणाणं णवण्हं महाणिहीणं सोलसण्हं देवसाहस्सीणं बत्तोसाए रायसहस्साणं बत्तीसाए उडुकल्लाणिग्रासहस्साणं बत्तीसाए जणवयकल्लाणिप्रासहस्साणं बत्तीसाए बत्तीसइबद्धाणं णाडगसहस्साणं तिण्हं सट्ठीणं सूवयारसयाणं अट्ठारसण्हं सेणिप्पसेणीणं चउरासीइए आससयसहस्साणं चउरासीइए दंतिसयसहस्साणं चउरासीइए रहसयसहस्साणं छण्णउइए मणुस्सकोडीणं बावत्तरीए पुरवरसहस्साणं बत्तीसाए जणवयसहस्साणं छण्णउइए गामकोडोणं णवणउइए दोणमुहसहस्साणं अडयालीसाए पट्टणसहस्साणं चउन्वीसाए कब्बडसहस्साणं चउव्वीसाए मडंबसहस्साणं वीसाए प्रागरसहस्साणं सोलसण्हं खेडसहस्साणं चउदसण्हं संवाहसहस्साणं छप्पण्णाए अंतरोदगाणं एगणपण्णाए कुरज्जाणं विणीपाए रायहागीए चुल्लहिमवंतगिरिसागरमेरागस्स केवलकप्पस्स भरहस्स वासस्स अणेसि च बहूणं राईसरतलवर जाव' सत्थवाहप्पभिईणं पाहेवच्चं पोरेवच्चं भट्टित्तं सामित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे ओहयणिहएसु कंटएसु उद्धिनमलिएसु सव्वसत्तुसु णिज्जिएसु भरहाहिवे णरिंदे वरचंदणचच्चिअंगे वरहाररइअवच्छे वरमउडविसिट्टए वरवत्थभूसणधरे सव्वोउअसुरहिकुसुमधरमल्लसोभिप्रसिरे वरणाडगनाडइज्जवरइस्थिगुम्मसद्धि संपरिवुडे सम्वोसहि१. देखें सूत्र 44 -- - Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र सव्वरयणसव्वसमिइसमग्गे संपुण्णमणोरहे हयामित्तमाणमहणे पुवकयतवप्पभावनिविट्ठसंचित्रफले भुजइ माणुस्सए सुहे भरहे णामधेज्जेत्ति / [86 राजा भरत चौदह रत्नों, नौ महानिधियों, सोलह हजार देवताओं, बत्तीस हजार राजाओं, बत्तीस हजार ऋतुकल्याणिकाओं, बत्तीस हजार जनपदकल्याणिकाओं, बत्तीस-बत्तीस पात्रों, अभिनेतब्य क्रमोपक्रमों से अनुबद्ध बत्तीस हजार नाटकों-नाटक-मण्डलियों, तीन सौ साठ सूपकारों, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि-जनों, चौरासी लाख घोड़ों, चौरासी लाख हाथियों, चौरासी लाख रथों, छियानवै करोड़ मनुष्यों--पदातियों, बहत्तर हजार पुरवरों-महानगरों, बत्तीस हजार जनपदों, छियानवै करोड़ गाँवों, निन्यानवै हजार द्रोणमुखों, अड़तालीस हजार पत्तनों, चौबीस हजार कर्वटो, चौबीस हजार मडम्बों, बीस हजार आकरों, सोलह हजार खेटों, चौदह हजार संवाधों, छप्पन अन्तरोदकों-जलके अन्तर्वर्ती सन्निवेश-विशेषों तथा उनचास कुराज्यों-भील आदि जंगली जातियों के राज्यों का, विनीता राजधानी का, एक अोर लघु हिमवान् पर्वत से तथा तीन और समुद्रों से मर्यादित समस्त भरतक्षेत्र का, अन्य अनेक माण्डलिक राजा, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुष, तलवर, सार्थवाह आदि का आधिपत्य, पौरोवृत्य-अग्रेसरत्व, भर्तृत्व-प्रभुत्व, स्वामित्व, महत्तरत्व-अधिनायकत्व, आज्ञेश्वरत्व सैनापत्य-जिसे आज्ञा देने का सर्वाधिकार होता है, वैसा सैनापत्य-सेनापतित्व-इन सबका सर्वाधिकृत रूप में पालन करता हुआ, सम्यक् निर्वाह करता हुआ राज्य करता था। राजा भरत ने अपने कण्टकों-गोत्रज शत्रुओं की समग्र सम्पत्ति का हरण कर लिया, उन्हें विनष्ट कर दिया तथा अपने अगोत्रज समस्त शत्रुओं को मसल डाला, कुचल डाला / उन्हें देश से निर्वासित कर दिया। यों उसने अपने समग्र शत्रुओं को जीत लिया। राजा भरत को सर्वविध औषधियाँ, सर्वविध रत्न तथा सर्वविध समितियाँ-ग्राभ्यन्तर एवं वाह्य परिषदें संप्राप्त थीं। अमित्रों-शत्रुओं का उसने मान-भंग कर दिया। उसके समस्त मनोरथ सम्यक् सम्पूर्ण थेसम्पन्न थे। जिसके अंग श्रेष्ठ चन्दन से चचित थे, जिसका वक्षःस्थल हारों से सुशोभित था, प्रीतिकर था, जो श्रेष्ठ मुकुट से विभूषित था, जो उत्तम, बहुमूल्य आभूषण धारण किये था, सब ऋतुओं में खिलनेवाले फूलों की सुहावनी माला से जिसका मस्तक शोभित था, उत्कृष्ट नाटक प्रतिबद्ध पात्रोंनाटक-मण्डलियों तथा सुन्दर स्त्रियों के समूह से संपरिक्त वह राजा भरत अपने पूर्व जन्म में प्राचीर्ण तप के, संचित निकाचित-निश्चित रूप में फलप्रद पुण्य कर्मों के परिणामस्वरूप मनुष्य जीवन के सुखों का परिभोग करने लगा। कैवल्योदभव 27. तए णं से भरहे राया अण्णया कयावि जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ 2 ता जाव' ससिव्व पियदंसणे णरवई मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव प्रादंसघरे जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 ता सोहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे णिसोमइ 2 ता पासघरंसि अत्ताणं देहमाणे 2 चिट्टइ। 1. देखें सूत्र संख्या 44 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वक्षस्कार] [177 तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाह लेसाहि विसुज्झमाणीहि 2 ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स कम्माणं खएणं कम्मर यविकिरणकरं अपुग्वकरणं पविट्ठस्स अणंते प्रणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पणे / तए णं से भरहे केवली सयमेवाभरणालंकारं ओमुअइ 2 त्ता सयमेव पंचमुट्ठिअं लोअं करेइ 2 ता पायंसघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता अंतेउरमझमझेणं णिग्गच्छइ 2 त्ता दसहिं रायवरसहस्सेहि सद्धि संपरिवडे विणीअं रायहाणि मज्झमझेणं णिग्गच्छइ 2 ता मज्भदेसे सुहंसुहेणं विहरइ 2 ता जेणेव अट्ठावए पव्वए तेणेव उवागच्छइ 2 ता अट्ठावयं पव्वयं सणिअं 2 दुरूहइ 2 ता मेघघणसण्णिकासं देवसण्णिवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ 2 ता संलेहणा-झूसणा-झसिए भत्त-पाण-पडिप्राइक्खए पाओवगए कालं प्रणवकंखमाणे 2 विहरइ। तए गं से भरहे केवली सत्तरि पुव्वसयसहस्साई कुमारवासमझे वसित्ता, एगं वाससहस्सं मंडलिय-राय-मज्झे वसित्ता, छ पुग्वसयसहस्साई वाससहस्सूणगाइं महारायमज्झे वसित्ता, तेसीइ पुवसयसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता, एगं पुव्वसयसहस्सं देसूणगं केवलि-परियायं पाउणित्ता तमेव बहुपडिपुण्णं सामन्न-परियायं पाउणित्ता चउरासीइ पुश्वसयसहस्साई सव्वाउअं पाउणित्ता मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं सवणेणं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं खीणे वेअणिज्जे आउए णामे गोए कालगए वीइक्कते समुज्जाए छिण्णजाइ-जरा-मरण-बन्धणे सिद्ध बद्ध मुत्ते परिणिन्वुडे अंतगडे सव्वदुक्खप्पहीणे। [87] किसी दिन राजा भरत, जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया / आकर स्नानघर में प्रविष्ट हुआ, स्नान किया। मेघसमूह को चीर कर बाहर निकलते चन्द्रमा के सदृश प्रियदर्शन-देखने में प्रिय एवं सुन्दर लगने वाला राजा स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ श्रादर्शगृहकांच से निर्मित भवन-शीशमहल था, जहाँ सिंहासन था, वहाँ पाया। आकर पूर्व की ओर मुंह किये सिंहासन पर बैठा / वह शीशमहल में शीशों पर पड़ते अपने प्रतिबिम्ब को बार बार देखता रहा। __शुभ परिणाम- अन्तःपरिणति, प्रशस्त-उत्तम अध्यवसाय-मन:संकल्प, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं-पुद्गल द्रव्यों के संसर्ग से जनित आत्मपरिणामों में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए विशुद्धिक्रम से ईहा-सामान्य ज्ञान के अनन्तर विशेष निश्चयार्थ विचारणा, अपोह विशेष निश्चयार्थ प्रवृत्त विचारणा द्वारा तदनुगुण दोष-चिन्तन प्रसूत निश्चय, मार्गण तथा गवेषण ---निरावरण परमात्मस्वरूप के चिन्तन, अनुचिन्तन, अन्वेषण करते हुए राजा भरत को कर्मक्षय से-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय- इन चार घाति कमों के-आत्मा के मूल गुणों-केवलज्ञान तथा केवलदर्शन ग्रादि का घात या अवरोध करनेवाले कर्मों के क्षय के परिणामस्वरूप, कर्म-रज के निवारक अपूर्वकरण में--शुक्लध्यान में अवस्थिति द्वारा अनन्त-अन्तरहित, कभी नहीं मिटने वाला, अनुत्तर–सर्वोत्तम, निर्व्याघात-बाधा-रहित, निवारण-यावरण-रहित, कृत्स्न सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न हुए। तब केवली सर्वज्ञ भरत ने स्वयं ही अपने आभूषण, अलंकार उतार दिये। स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया। वे शीशमहल से प्रतिनिष्क्रान्त हुए। प्रतिनिष्क्रान्त होकर अन्तःपुर के बीच से Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र होते हुए राजभवन से बाहर निकले / अपने द्वारा प्रतिबोधित दश हजार राजाओं से संपरिवृत्त केवली भरत विनीता राजधानी के बीच से होते हुए बाहर चले गये। मध्यदेश में--कोशलदेश में सुखपूर्वक विहार करते हुए वे जहाँ अष्टापद पर्वत था, वहाँ आये। वहाँ आकर धीरे-धीरे अष्टापद पर्वत पर चढ़े / पर्वत पर चढ़कर सघन मेघ के समान श्याम तथा देव-सन्निपात-रम्यता के कारण जहाँ देवों का आवागमन रहता था, ऐसे पृथ्वीशिलापट्टक का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर उन्होंने वहाँ संलेखना-शरीर-कषाय-क्षयकारी तपोविशेष स्वीकार किया, खान-पान का परित्याग किया, पादोपगत-कटी वृक्ष की शाखा की ज्यों जिसमें देह को सर्वथा निष्प्रकम्प रखा जाए, वैसा संथारा अंगीकार किया। जीवन और मरण की आकांक्षा-कामना न करते हुए वे आत्माराधना में अभिरत रहे। केवली भरत सतहत्तर लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहे, एक हजार वर्ष तक मांडलिक राजा के रूप में रहे, एक हजार वर्ष कम छह लाख पूर्व तक महाराज के रूप में---चक्रवर्ती सम्राट् के रूप में रहे / वे तियासी लाख पूर्व तक गृहस्थवास में रहे / अन्तर्मुहूर्त कम एक लाख पूर्व तक वे केवलिपर्याय-सर्वज्ञावस्था में रहे। एक लाख पूर्व पर्यन्त उन्होंने बहु-प्रतिपूर्ण-सम्पूर्ण श्रामण्य-पर्याय'-- श्रमण-जीवन का, संयमी जीवन का पालन किया। उन्हान चारासी लाख पूर्व का समग्र आयुष्य भोगा। होंने एक महीने के चौविद्वार-अन्न. जल आदि ग्राहार वजित अनशन द्वारा वेदनीय, प्रायुष्य, नाम तथा गोत्र-इन चार भवोपनाही, अधाति कर्मों के क्षीण हो जाने पर श्रवण नक्षत्र में जब चन्द्र का योग था, देह-त्याग किया। जन्म, जरा तथा मृत्यु के बन्धन को उन्होंने छिन्न कर डाला--- तोड़ डाला। वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वत, अन्तकृत्-संसार के-संसार में आवागमन के नाशक तथा सब प्रकार के दुःखों के प्रहाता हो गये। विवेचन-राजा भरत शीशमहल में सिंहासन पर बैठा शीशों में पड़ते हुए अपने प्रतिबिम्ब को निहार रहा था। अपने सौन्दर्य, शोभा एवं रूप पर वह स्वयं विमुग्ध था। अपने प्रतिबिम्बों को निहारते-निहारते उसकी दृष्टि अपनी अंगुली पर पड़ी। अंगुली में अंगूठी नहीं थी। वह नीचे गिर पड़ी थी। भरत ने अपनी अंगुली पर पुनः दृष्टि गड़ाई। अंगूठी के बिना उसे अपनी अंगुली सुहावनी नहीं लगी / सूर्य की ज्योत्स्ना में चन्द्रमा की युति जिस प्रकार निष्प्रभ प्रतीत होती है, उसे अपनी अंगुली वैसी ही लगी। उसके सौन्दर्याभिमानी मन पर एक चोट लगी। उसने अनुभव किया-अंगुली की कोई अपनी शोभा नहीं थी, वह तो अंगठी की थी, जिसके बिना अंगली का शोभारहित रूप उदघाटित हो गया। भरत चिन्तन की गहराई में पैठने लगा। उसने अपने शरीर के अन्यान्य आभूषण भी उतार दिये / सौन्दर्य-परीक्षण की दृष्टि से अपने प्राभूषणरहित अंगों को निहारा / उसे लगा--चमचमाते स्वर्णाभरणों तथा रत्नाभरणों के अभाव में वस्तुतः मेरे अंग फीके, अनाकर्षक लगते हैं / उनका अपना सौन्दर्य, अपनी शोभा कहाँ है ? भरत की चिन्तन-धारा उत्तरोत्तर गहन बनती गई। शरीर के भीतरी मलीमस रूप पर 1. केवलज्ञान को उत्पत्ति से पहले अन्तर्मुहूर्त का भाव-चारित्र जोड़ देने से एक लाख पूर्व का काल पूर्ण हो जाता है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय यक्षस्कार [179 उसका ध्यान गया। उसने मन ही मन अनुभव किया-शरीर का वास्तविक स्वरूप मांस, रक्त, मज्जा, विष्ठा, मूत्र एवं मल-मय है / इनसे आपूर्ण शरीर सुन्दर, श्रेष्ठ कहाँ से होगा? भरत के चिन्तन ने एक दूसरा मोड़ लिया। वह आत्मोन्मुख बना / आत्मा के परम पावन, विशुद्ध चेतनामय तथा शाश्वत शान्तिमय रूप की अनुभूति में भरत उत्तरोत्तर मग्न होता गया / त अध्यवसाय, उज्ज्वल. निर्मल परिणाम इतनी तीव्रता तक पहुँच गये कि उसके कर्मबन्धन तडातड़ टूटने लगे। परिणामों की पावन धारा तीव्र से तीव्रतर, तीव्रतम होती गई / मात्र अन्तर्मुहूर्त में अपने इस पावन भावचारित्र द्वारा चक्रवर्ती भरत ने वह विराट् उपलब्धि स्वायत्त कर ली, जो जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि है / घातिकर्म-चतुष्टय क्षीण हो गया। राजा भरत का जीवन कैवल्य की दिव्य ज्योति से आलोकित हो उठा। चक्रवर्ती के अत्यन्त भोगमय, वैभवमय जीवन में रचे-पचे भरत में सहसा ऐसा अप्रत्याशित, अकल्पित, अकित परिवर्तन आयेगा, किसी ने सोचा तक नहीं था। इतने स्वल्प काल में भरत परम सत्य को यों प्राप्त कर लेगा, किसी को यह कल्पना तक नहीं थी। किन्तु परम शक्तिमान्, परम तेजस्वी प्रात्मा के उद्बुद्ध होने पर यह सब संभव है, शक्य है। अन्त:परिणामों की उच्चतम पवित्रता की दशा प्राप्त हो जाने पर अनेकानेक वर्षों में भी नहीं सध सकने वाला साध्य मिनिटों में, घण्टों में सध जाता है / वहाँ गाणितिक नियम लागू नहीं होते। भरत का जीवन, जीवन की दो पराकाष्ठाओं का प्रतीक है। चक्रवर्ती का जीवन जहाँ भोग की पराकाष्ठा है, वहाँ सहसा प्राप्त सर्वज्ञतामय परम उत्तम मुमुक्षा का जीवन त्याग की पराकाष्ठा है। इस दूसरी पराकाष्ठा के अन्तर्गत मुहूर्त भर में भरत ने जो कर दिखाया, निश्चय ही वह उसके प्रबल पुरुषार्थ का द्योतक है। भरतक्षेत्र : नामाख्यान 88. भरहे अ इत्थ देवे महिड्डीए महज्जुईए जाव' पलिनोवमट्टिईए परिवसइ, से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ भरहे वासे 2 इति। अदुतरं च णं गोयमा ! भरहस्स वासस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्ते, जंण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णस्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुवि च भवइ अ भविस्सइ अ, धुवे णिपए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे भरहे वासे। 88] यहाँ भरतक्षेत्र में महान् ऋद्धिशाली, परम द्युतिशाली, पल्योपमस्थितिक-एक पल्योपम प्रायुष्य युक्त भरत नामक देव निवास करता है / गौतम ! इस कारण यह क्षेत्र भरतवर्ष या भरतक्षेत्र कहा जाता है। गौतम ! एक और बात भी है। भरतवर्ष या भरतक्षेत्र-यह नाम शाश्वत है सदा से चला आ रहा है / कभी नहीं था, कभी नहीं है, कभी नहीं होगा-यह स्थिति इसके साथ नहीं है। यह था, यह है, यह होगा-यह ऐसी स्थिति लिये हुए है / यह ध्र व, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं नित्य है। 1. देखें सूत्र संख्या 14 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार क्षुल्ल हिमवान् 89. कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंते णामं वासहर-पव्वए पण्णते? गोयमा! हेमवयस्स वासस्स दाहिणणं, भरहस्स बासस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंते णाम वासहरपव्वए पण्णत्ते / पाईण-पडीणायए, उदोण-दाहिण-वित्थिण्णे, दुहा लवणसमुदं पुढे, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठ, पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे / एगं जोनण-सयं उद्ध उच्चत्तेणं, पणवीसं जोअणाई उव्वेहेणं, एगं जोअणसहस्सं वावण्णं च जोप्रणाई दुवालस य एगणवीसइ भाए जोअणस्स विक्खंभेणंति / तस्स बाहा पुरथिम-पच्चत्थिमेणं पंच जोअणसहस्साई तिण्णि अ पण्णासे जोअणसए पण्णरस य एगणवीसइभाए जोमणस्स अद्धभागं च पायामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया (पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा,) पच्चथिमिल्लाए कोडोए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, चउव्वीसं जोअण-सहस्साई णव य बत्तीसे जोअणसए अद्धभागं च किंचि विसेसूणा आयामेणं पण्णत्ता / तोसे धणु-पट्टे दाहिणेणं पणवीसं जोअण-सहस्साई दोण्णि प्रतीसे जोपणसए चत्तारि अ एगणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ते, रुअगसंठाणसंठिए, सव्वकणगामए, अच्छे, सण्हे तहेव जाव' पडिरूवे, उभो पासि दोहिं पउमवरवेइमाहिं दोहि अ वणसंडेहि संपरिविखत्ते दुण्हवि पमाणं वण्णगोत्ति। चुल्लहिमवंतस्स वासहर-पव्वयस्स उरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव' बहवे वाणमंतरा देवा य देवीप्रो अ जाव' विहरंति। FEE] भगवन् ! जम्बूद्वीप में चुल्ल हिमवान् नामक वर्षधर पर्वत कहाँ (बतलाया गया) है? गौतम ! जम्बूद्वीप में चुल्ल हिमवान् नामक वर्षधर पर्वत हैमवतक्षेत्र के दक्षिण में, भरतक्षेत्र के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में बतलाया गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। वह दो अोर से लवणसमुद्र को छुए हुए है / अपनी पूर्वी कोटि से-किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र को छुए हुए है तथा पश्चिमी कोटि से पश्चिमी लवणसमुद्र को छुए है। वह एक सौ योजन ऊँचा है। पच्चीस योजन भूगत है—भूमि में गड़ा है। वह 1052 1 योजन चौड़ा है। 1. देखें सूत्र संख्या 4 2. देखें सूत्र संख्या 6 3. देखें सूत्र संख्या 12 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार [181 उसकी बाहा-भुजा सदृश प्रदेश पूर्व-पश्चिम 5350 " योजन लम्बा है। उसकी जीवाधनुष की प्रत्यंचा सदृश प्रदेश पूर्व-पश्चिम लम्बा है / वह (अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है), अपने पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है / वह (जीवा) 24632 योजन एवं आधे योजन से कुछ कम लम्बी है। दक्षिण में उसका धनु पृष्ठ भाग परिधि की अपेक्षा से 25230 योजन बतलाया गया है। वह रुचक-संस्थान-संस्थित है- रुचक संज्ञक आभूषण-विशेष का आकार लिये हुए है, सर्वथा स्वर्णमय है। वह स्वच्छ, सुकोमल तथा सुन्दर है / वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं एवं दो वनखंडों से घिरा हुआ है / उनका वर्णन पूर्वानुरूप चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर बहुत समतल और रमणीय भूमिभाग है / वह आलिंगपुष्कर-मुरज या ढोलक के ऊपरी चर्मपुट के सदृश समतल है / वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव तथा देवियाँ विहार करते हैं। पद्महद 60. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए इत्थ णं इक्के महं पउमद्दहे णामं दहे पण्णत्ते। पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिण-वित्थिण्णे, इक्कं जोग्रण-सहस्सं पायामेणं, पंच जोअणसयाई विक्खंभेणं, दस जोअणाई उध्वेहेणं, अच्छे, सण्हे, रययामयकले (लण्हे, घट्ट, मट्ट, जीरये, णिप्पंके, णिक्कंकडच्छाए, सप्पभे, सस्सिरीए, सउज्जोए,) पासाईए, (दरिसणिज्जे, अभिरूवे,) पडिरूवेत्ति। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवप्रो समंता संपरिक्खित्ते / वेइआ-वणसंडवण्णो भाणिप्रव्वोत्ति। तस्स णं पउमद्दहस्स चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता। वण्णावासो भाणिग्रव्वोत्ति / तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेअं 2 तोरणा पण्णत्ता। ते णं तोरणा जाणामणिमया। तस्स गं पउमद्दहस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थं महं एगे पउमे पण्णते, जोअणं पायाम-विक्खंभेणं, प्रद्धजोअणं वाहल्लेणं, दस जोप्रणाई उम्वेहेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ। साइरेगाई दसजोषणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ता। से णं एगाए जगईए सम्वनो समंता संपरिक्खित्तो जम्बुद्दीवजगइप्पमाणा, गवक्खकडएवि तह चेव पमाणेणंति / तस्स णं पउमस्स अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-बहरामया मूला, रिटामए कंदे, वेरुलिग्रामए णाले, वेरुलिआमया बाहिरपत्ता, जम्बूणयामया अभिंतरपत्ता, तवणिज्जमया केसरा, णाणामणिमया पोक्खरस्थिभाया, कणगामई कण्णिगा। सा गं अद्धजोयणं पायामविक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, सव्वकणगामई, अच्छा। तीसे णं कणियाए उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा। तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए, एस्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते, कोसं Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [जम्बूधोपप्रमरितसूत्र पायामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूणगं कोसं उद्ध उच्चत्तणं, अणेगखंभसयसण्णिविट्ट, पासाईए दरिसणिज्जे / तस्स णं भवणस्स तिदिसि तनो दारा पण्णत्ता। ते णं दारा पञ्चधणुसयाई उद्ध उच्चत्तेणं, अड्ढाइज्जाई धणुसयाई विक्खंभेणं, तावति चेव पवेसेणं / सेनावरकणगथूभिया जाव वणमालाश्रो अवाओ। तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंग०, तस्स णं बहुमझदेसभाए एत्थ णं महई एगा मणिपेडिआ पण्णत्ता। साणं मणिपेढिआ पंचधणुसयाई प्रायामविक्खंभेणं, अड्ढाइज्जाइं धणुसयाई बाहल्लेणं, सन्वमणिमई अच्छा / तोसे गं मणिपेढिाए उप्पि एत्थ णं महं एगे सयणिज्जे पण्णत्ते, सणिज्जवण्णो भाणिग्रव्यो।। से णं पउमे अण्णणं अट्ठसएणं पउमाणं तदद्ध च्चत्तप्पमाणमित्ताणं सम्वनो समंता संपरिक्खित्ते / ते णं पउमा श्रद्धजोअणं पायाम-विक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, दसजोषणाई उन्हेणं, कोसं असिया जलंतानो, साइरेगाई दसजोअणाई उच्चत्तेणं / तेसि णं पउमाणं अयमेवारूपे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा वइरामया मूला, (रिट्ठामए कंदे, वेरुलियामए णाले, बेरुलियामया बाहिरपत्ता, जम्बूणयामया अभितरपत्ता तवणिज्जमया केसरा णाणामणिमया पोक्खरस्थिभाया) कणगामई कण्णिआ। साणं कण्णिमा कोसं पायामेणं, अद्धकोसं बाहल्लेणं, सव्वकणगामई, अच्छा इति / तीसे गं कण्णिपाए उप्पि बहुसमरमणिज्जे जाव' मणीहि उवसोभिए / तस्स णं पउमस्स अवरुत्तरेणं, उत्तरेणं, उत्तरपुरथिमेणं एत्थ गं सिरीए देवीए चउण्हं सामाणिप्र-साहस्सीणं चत्तारि पउम-साहस्सोश्रो पण्णत्ताश्री। तस्स गं पउमस्स पुरथिमेणं एत्थ णं सिरीए देवीए चउण्हं महत्तरिमाणं चत्तारि पउमा प० / तस्स णं पउमस्स दाहिण-पुरथिमेणं सिरीए देवीए अभिंतरिमाए परिसाए अट्टण्हं देवसाहस्सीणं अट्ठ पउम-साहस्सोमो पण्णत्ताओ। दाहिणेणं मझिमपरिसाए दसण्हं देवसाहस्सीणं दस पउम-साहस्सोश्रो पण्णत्तानो। दाहिणपच्चस्थिमेणं बाहिरिसाए परिसाए बारसहं देवसाहस्सीणं बारस पउम-साहस्सोश्रो पण्णत्तानो / पच्चस्थिमेणं सत्तण्हं अणिग्राहिवईणं सत्त पउमा पण्णत्ता / तस्स णं पउमस्स चउद्दिसि सम्वनो समंता इत्थ गं सिरीए देवीए सोलसम्हं आयरक्ख-देवसाहस्सोणं सोलस पउम-साहस्सीमो पण्णत्तायो। से णं तिहि पउम-परिक्खेवेहि सवओ समंता संपरिक्खित्ते, तं जहा-अभितरकेणं मज्झिमएणं बाहिरएणं / भितरए पउम-परिक्खेवे बत्तीसं पउम-सय-साहस्सोओ पण्णत्ताओ। मज्झिमए पउमपरिक्खेवे चत्तालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। बाहिरिए पउम-परिक्खेवे अडयालीसं पउमसयसाहस्सोमो पण्णत्तानो। एवामेव सपुवावरेणं तिहिं पउम-परिक्खेवेहिं एगा पउमकोडी वीसं च पउम-सयसाहस्सीओ भवंतीति अक्खायं / से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ पउमद्दहे 2 ? 1. देखें सूत्र संख्या 6 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [183 गोयमा ! पउमद्दहे णं तत्थ 2 देसे तहि 2 बहवे उप्पलाई, (कुमुयाई, नलिणाई, सोगन्धियाई, पुंडरीयाई, सयपत्ताई, सहस्सपत्ताई,) सयसहस्सपत्ताई पउमद्दहप्पभाई पउमद्दहवण्णाभाई सिरी अ इत्थ देवी महिड्डिा जाव' पलिओवमट्टिईमा परिवसइ, से एएणट्ठणं (एवं बुच्चइ पउमद्दहे इति) अदुत्तरं च णं गोयमा ! पउमद्दहस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते ण कयाइ णासि न० / [90] उस अति समतल तथा रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में पद्मद्रह नामक एक विशाल द्रह बतलाया गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। उसकी लम्बाई एक हजार योजन तथा चौड़ाई पाँच सौ योजन है। उसकी गहराई दश योजन है। वह स्वच्छ, सुकोमल, रजतमय, तटयुक्त, (चिकना, घुटा हुआ-सा, तरासा हुआ-सा, रजरहित, मैलरहित, कर्दमरहित, कंकड़रहित, प्रभायुक्त, श्रीयुक्त शोभायुक्त, उद्योतयुक्त) सुन्दर, (दर्शनीय, अभिरूप—मन को अपने में रमा लेने वाला एवं) प्रतिरूप—मन में बस जानेवाला है। __वह द्रह एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से परिवेष्टित है। वेदिका एवं वनखण्ड पूर्व वणित के अनुरूप हैं। उस पद्मद्रह की चारों दिशाओं में तीन-तीन सीढ़ियाँ बनी हुई हैं / वे पूर्व वर्णनानुरूप हैं / उन तीन-तीन सीढ़ियों में से प्रत्येक के आगे तोरणद्वार बने हैं। वे नाना प्रकार की मणियों से सुसज्जित उस पद्मद्रह के बीचोंबीच एक विशाल पद्म है। वह एक योजन लम्बा और एक योजन चौड़ा है / आधा योजन मोटा है। दश योजन जल के भीतर गहरा है। दो कोश जल से ऊँचा उठा हुआ है। इस प्रकार उसका कुल विस्तार दश योजन से कुछ अधिक है। वह एक जगती-प्राकार द्वारा सब ओर से घिरा है। उस प्राकार का प्रमाण जम्बूद्वीप के प्राकार के तुल्य है / उसका गवाक्षसमूह झरोखे भी प्रमाण में जम्बूद्वीप के गवाक्षों के सदृश हैं। उस पद्म का वर्णन इस प्रकार है–उसके मूल वज्ररत्नमय हीरकमय हैं / उसका कन्दमूल-नाल की मध्यवर्ती ग्रन्थि रिष्टरत्नमय है। उसका नाल वैडूर्यरत्नमय है। उसके बाह्य पत्रबाहरी पत्ते वैडूर्य रत्न नीलम घटित हैं। उसके प्राभ्यन्तर पत्र-भीतरी पत्ते जम्बूनद-कुछ-कुछ लालिमान्वित रंगयुक्त या पीतवर्णयुक्त स्वर्णमय हैं। उसके केसर-किञ्जल्क तपनीय रक्त या लाल स्वर्णमय हैं। उसके पुष्करास्थिभाग-कमलबीज विभाग विविध मणिमय हैं। उसकी कणिकाबीजकोश कनकमय स्वर्णमय है। वह कणिका आधा योजन लम्बी-चौड़ी है, सर्वथा स्वर्णमय है, स्वच्छ-उज्ज्वल है। उस कणिका के ऊपर अत्यन्त समतल एवं सुन्दर भूमिभाग है / वह ढोलक पर मढ़े हुए चर्मपुट की ज्यों समतल है। उस अत्यन्त समतल तथा रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल भवन बतलाया गया है। वह एक कोश लम्बा, प्राधा कोश चौड़ा तथा कुछ कम एक कोश ऊँचा है, सैकड़ों खंभों से युक्त है, सुन्दर एवं दर्शनीय है / उस भवन के तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं / वे द्वार पाँच सौ 1. देखें स्त्र संख्या 14 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र धनुष ऊँचे हैं, अढ़ाई सौ धनुष चौड़े हैं तथा उनके प्रवेशमार्ग भी उतने ही चौड़े हैं। उन पर उत्तम स्वर्णमय छोटे-छोटे शिखर-कंगूरे बने हैं / वे पुष्पमालाओं से सजे हैं, जो पूर्व वर्णनानुरूप हैं। उस भवन का भीतरी भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय है। वह ढोलक पर मढ़े चमड़े की ज्यों समतल है। उसके ठीक बीच में एक विशाल मणिपीठिका बतलाई गई है। वह मणिपीठिका पाँच सौ धनुष लम्बी-चौड़ी तथा अढाई सौ धनुष मोटी है, सर्वथा स्वर्णमय है, स्वच्छ है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल शय्या है। उसका वर्णन पूर्ववत् है। ___ वह पद्म दूसरे एक सौ आठ पद्मों से, जो ऊँचाई में, प्रमाण में-विस्तार में उससे आधे हैं, सब ओर से घिरा हआ है / वे पद्म प्राधा योजन लम्बे-चौड़े, एक कोश मोटे, दश योजन जलगतपानी में गहरे तथा एक कोश जल से ऊपर ऊँचे उठे हुए हैं। यों जल के भीतर से लेकर ऊँचाई तक वे दश योजन से कुछ अधिक है। उन पद्मों का विशेष वर्णन इस प्रकार है-उनके मूल वज्ररत्नमय, (उनके कन्द रिष्टरत्नमय, नाल वैडूर्यरत्नमय, बाह्य पत्र वैडूर्यरत्नमय, आभ्यन्तर पत्र जम्बूनद संज्ञक स्वर्णमय, किजल्क तपनीय-स्वर्णमय, पुष्करास्थि भाग नाना मणिमय) तथा कणिका कनकमय है / वह कणिका एक कोश लम्बी, प्राधा कोश मोटी, सर्वथा स्वर्णमय तथा स्वच्छ है / उस कणिका के ऊपर एक बहुत समतल, रमणीय भूमिभाग है, जो नाना प्रकार की मणियों से सुशोभित उस मूल पद्म के उत्तर-पश्चिम में-वायव्यकोण में, उत्तर में तथा उत्तर-पूर्व में-ईशानकोण में श्री देवी के सामानिक देवों के चार हजार पद्म हैं। उस (मूल पद्म) के पूर्व में श्री देवी की चार महत्तरिकाओं के चार पद्म हैं। उसके दक्षिण-पूर्व में-आग्नेयकोण में श्री देवी की आभ्यन्तर परिषद् के पाठ हजार देवों के आठ हजार पद्म हैं। दक्षिण में श्री देवी की मध्यम परिषद् के दश हजार देवों के दश हजार पद्म हैं। दक्षिण-पश्चिम में नैऋत्यकोण में श्री देवी की बाह्य परिषद् के बारह हजार देवों के बारह हजार पद्म हैं / पश्चिम में सात अनीकाधिपति-सेनापति देवों के सात पद्म हैं / उस पद्म की चारों दिशाओं में सब ओर श्री देवी के सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों के सोलह हजार पद्म हैं / वह मूल पद्माभ्यन्तर, मध्यम तथा बाह्य तीन पद्म-परिक्षेपों कमल रूप परिवेष्टनों द्वारा प्राचीरों द्वारा सब अोर से घिरा हुआ है। आभ्यन्तर पद्म-परिक्षेप में बत्तीस लाख पद्म हैं, मध्यम पद्म-परिक्षेप में चालीस लाख पद्म हैं, तथा बाह्य पद्मपरिक्षेप में अड़तालीस लाख पद्म हैं / इस प्रकार तीनों पद्म-परिक्षेपों में एक करोड़ बीस लाख पद्म हैं / भगवन् ! यह द्रह पद्मद्रह किस कारण कहलाता है ? गौतम ! पद्मद्रह में स्थान-स्थान पर बहुत से उत्पल, (कुमुद, नलिन, सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र) शतसहस्रपत्र प्रभृति अनेकविध पद्म हैं। वे पद्म–कमल पद्मद्रह के सदृश प्राकारयुक्त, वर्णयुक्त एवं आभायुक्त हैं। इस कारण वह पद्मद्रह कहा जाता है। वहाँ परम ऋद्धिशालिनी पल्योपम-स्थितियुक्त श्री नामक देवी निवास करती है। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार [165 अथवा गौतम ! पद्मद्रह नाम शाश्वत कहा गया है। वह कभी नष्ट नहीं होता। विवेचन–तीनों परिक्षेपों के पद्म 12000000 हैं। उनके अतिरिक्त श्री देवी के निवास का एक पद्म, श्री देवी के प्रावास-पद्म के चारों ओर 108 पद्म, श्री देवी के चार हजार सामानिक देवों के 4000 पद्म, चार महत्तरिकाओं के 4 पद्म, पाभ्यन्तर परिषद् के पाठ हजार देवों के 8000 पद्म, मध्यम परिषद् के दश हजार देवों के 10000 पद्म, बाह्य परिषद् के बारह हजार देवों के 12000 पद्म, सात सेनापतिदेवों के 7 पद्म तथा सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों के 16000 पद्म-कुल पद्मों की संख्या 12000000+1+108+4000+4+ 8000+10000+ 12000+7+16000 = 12050120 एक करोड़ बीस लाख पचास हजार एक सौ बीस है / गंगा, सिन्धु, रोहितांशा 61. तस्स णं पउमद्दहस्स पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं गंगा महाणई पवढा समाणी पुरत्थाभिमुही पञ्च जोअणसयाई पव्वएणं गंता गंगावत्तकूडे आवत्ता समाणी पञ्च तेवीसे जोअणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभाए जोमणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तएणं मुत्तावलोहारसंठिएणं साइरेगजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ।। गंगा महाणई जो पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिभिया पण्णत्ता / सा गं जिभिआ अद्धजोअणं आयामेणं, छ सकोसाइं जोअणाई विक्खंभेणं, अद्धकोसं बाहल्लेणं, मगर मुहविउटुसंठाणसंठिआ, सन्ववइरामई, अच्छा, सण्हा। गंगा महाणई जत्थ पवडइ, एत्थ णं महं एगे गंगप्पवाए कुडे णाम कुडे पण्णत्ते, सढि जोमणाई प्रायामविक्खंभेणं, णउअं जोअणसयं किंचिविसेसाहिग्रं परिक्खेवेणं, दस जोषणाई उन्वेहेणं, अच्छे, सण्हे, रययामयकूले, समतोरे, वइरामयपासाणे, वइरतले, सुवण्णसुब्भरययामयवालुपाए, वेरुलिअमणिफालिअपडलपच्चोअडे, सुहोसारे, सुहोत्तारे, णाणामणितित्थसुबद्ध, वट्टे, अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसोअलजले, संछण्णपत्तभिसमुणाले, बहुउप्पल-कुमुअ-णलिग-सुभग-सोगंधिअ-पोंडरीअमहापोंडरोअ-सयपत्त-सहस्सपत्त-सयसहस्सपत्त-पप्फुल्लकेसरोवचिए, छप्पय-महुयरपरिभुज्जमाणकमले, अच्छ-विमल-पत्थसलिले, पुण्णे, पडिहत्थभवन-मच्छ-कच्छभ-अगसउणगणमिहुणपविभरियसदुन्नइपमहरसरणाइए पासाईए / से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसण्डेणं सव्वनो समंता संपरिक्खिते / बेइआवणसंडगाणं पउमाणं वण्णो भाणिअव्वो। तस्स णं गंगप्पवायकुडस्स तिदिसि तो तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तंजहा--पुरस्थिमेणं दाहिणणं पच्चत्थिमेणं / तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहावइरामया जेम्मा, रिटामया यइट्ठाणा, वेरुलिआमया खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलया, लोहिक्खमईओ सूईयो, वयरामया संघो, णाणामणिमया आलंबणा आलंबणबाहाओत्ति।। तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेअं पत्तेअं तोरणा पणत्ता। ते णं तोरणा णाणामणिमया णाणामणिमएसु खंभेसु उवणि विट्ठसंनिविट्ठा, विविहमुत्तं तरोवइया, विविहताराहवोवचिआ, ईहामिअ-उसह-तुरग-णर-मगर-विहग-वालग-किण्णर-रुरु-सरभ-चमर-कुजर-वणलय. पउमलय-भत्तिचित्ता, खंभुग्गयवहरवेइग्रापरिगयाभिरामा, विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्ताविक, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र प्रच्चीसहस्समालणीआ, रूवगसहस्सकलिआ, भिसमाणा, भिभिसमाणा, चक्खुल्लोषणलेसा, सुहफासा, सस्सिरीअरूवा, घंटावलिचलिप्रमहरमणहरसरा, पासादीना। तेसि णं तोरणाणं उरि बहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता, तंजहा---सोत्थिय सिरिवच्छे जाव पडिरूवा। तेसि णं तोरणाणं उरि बहवे किण्हचामरझया, (नीलचामरज्झया, हरिअचामरज्झया,) सुक्किल्लचामरज्झया, अच्छा, सण्हा, रुप्पपट्टा, वइरामयदण्डा, जलयामलगंधिया, सुरम्मा, पासाईया 4 / तेसि णं तोरणाणं उप्पि बहवे छत्ताइच्छत्ता, पड़ागाइपडागा, घंटाजुअला, चामरजुअला, उप्पलहत्थगा, पउमहत्थगा-(कुमुअहत्थगा, नलिणहत्थगा, सोगन्धिनहत्थगा, पुंडरीश्रहत्थगा, सयपत्तहत्थगा, सहस्सपत्तहत्थगा,) सयसहस्सपत्तहत्थगा, सम्वरयणामया, अच्छा जाव' पडिरूवा / ... तस्स णं गंगप्पवायकुडस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं महं एगे गंगादीवे णामं दीवे पण्णत्तं, अट्ठ जोअणाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाई पणवीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ, सव्ववइरामए, अच्छे, सण्हे। से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वनो समन्ता संपरिक्खित्ते, वणनो भाणिअन्यो। गंगादीवस्स णं दीवस्स उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते / तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं गंगाए देवीए एगे ‘भवणे पण्णत्ते, कोसं पायामेणं, प्रद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूणगं च कोसं उद्ध उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसणिविढे जाव' बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियाए सयणिज्जे / ___ से केणद्वेण (धुवे णियए) सासए णामधेज्जे पण्णत्ते। तस्स गंगप्पवायकुडस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं गंगामहाणई पवढा समाणी उसरद्धभरहवासं एज्जमाणी 2 सहि सलिलासहस्सेहि पाउरेमाणी 2 अहे खण्डप्पवायगुहाए वेअद्धपव्वयं दालइत्ता दाहिणद्धभरहवासं एज्जमाणी 2 दाहिणद्धभरहवासस्स बहुमज्झदेसभागं गंता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी चोद्दसहि सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरथिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ। गंगा महाणई पवहे छ सकोसाइं जोषणाई विखंभेणं, अद्धकोसं उन्हेणं / तयणंतरं च णं मायाए 2 परिवद्धमाणी 2 मुहे बाट्रि जोप्रणाइं अद्धजोअणं च विक्खंभेणं, सकोसं जोधणं उब्वेहेणं / उभयो पासि दोहि पउमवरवेइमाहि, दोहि वणसंडेहि संपरिक्खित्ता / बेइआ-वणसंडवण्णो भाणिअन्वो। __ एवं सिंधए वि णेप्रव्वं जाव तस्स णं पउमद्दहस्स पच्चथिमिल्लेणं तोरणेणं सिंधुप्रावत्तणकडे दाहिणाभिमुही सिंधुप्पवायकुड, सिंधुद्दीवो अट्ठो सो चेव जाव अहे तिमिसगुहाए वेश्रद्धपव्वयं दालइत्ता पच्चत्थिमाभिमुही प्रावत्ता समाणा चोहससलिला अहे जगई पच्चस्थिमेणं लवणसमुदं जाव समप्पेइ, सेसं तं चेवत्ति। 1. देखें सूत्र संख्या 4 2. देखें सूत्र संख्या 55 . Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] . [167 तस्स णं पउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसा महाणई पवढा समाणी दोणि छावत्तरे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाइ जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। रोहिअंसाणामं महाणई जओ पवडइ, एत्थ गं महं एगा जिभित्रा पण्णत्ता। सा णं जिभिआ जोअणं पायामेणं, अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिया, सव्ववइरामई, अच्छा। रोहिअंसा महाणई जहिं पवडइ, एत्थ णं महं एगे रोहिअंसापवायकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते / सवीसं जोप्रणसयं पायामविक्खंभेणं, तिण्णि असीए जोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, दसजोषणाई उम्वेहेणं, अच्छे / कुडवण्णओ जाव तोरणा। तस्स णं रोहिअंसापवायकुडस्स बहुमज्भदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहिअंसा णामं दीवे पण्णत्ते / सोलस जोप्रणाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाइं पण्णासं जोयणाई परिक्खेवेणं, दो कोसे असिए जलंतानो, सव्वरयणामए, अच्छे, सण्हे / सेसं तं चेव जाव भवणं अट्ठो अभाणिअव्वोत्ति / तस्स णं रोहिअंसप्पवायकुडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसा महाणई पढा समाणी हेमवयं वासं एज्जमाणी 2 चउद्दसहि सलिलासहस्सेहि अापूरेमाणी 2 सद्दावइवट्टवेअड्डफव्वयं अद्धजोअणेणं असंपत्ता समाणी पच्चत्वाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी 2 अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दालइत्ता पच्चस्थिमेणं लवणसमुई समप्पेइ / रोहिअंसा णं पवहे अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं, कोसं उब्वेहेणं / तयणंतरं च णं मायाए 2 परिवद्धमाणो 2 मुहमूले पणवीसं जोअणसयं विक्खंभेणं, अद्धाइज्जाई जोअणाई उन्हेणं, उभओ पासि दोहि पउमवरवेइब्राहि दोहि अ वणसंडेहि संपरिविखत्ता। [1] उस पद्मद्रह के पूर्वी तोरण-द्वार से गंगा महानदी निकलती है। वह पर्वत पर पांच सौ योजन बहती है, गंगावर्तकूट के पास से वापस मुड़ती है, 523 3 योजन दक्षिण की ओर बहती है / घड़े के मुंह से निकलते हुए पानी की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक, मोतियों के बने हार के सदृश आकार में वह प्रपात-कुण्ड में गिरती है। प्रपात-कुण्ड में गिरते समय उसका प्रवाह चुल्ल हिमवान् पर्वत के शिखर से प्रपात-कुण्ड तक कुछ अधिक सौ योजन होता है। जहाँ गंगा महानदी गिरती है, वहाँ एक जिहिका-जिह्वा की-सी आकृतियुक्त प्रणालिका वह प्रणालिका प्राधा योजन लम्बी तथा छह योजन एवं एक कोस चौड़ी है। वह प्राधा कोस मोटी है / उसका आकार मगरमच्छ के खुले मुंह जैसा है। वह सम्पूर्णतः हीरकमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है। __गंगा महानदी जिसमें गिरती है, उस कुण्ड का नाम गंगाप्रपातकुण्ड है। वह बहुत बड़ा है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई साठ योजन है। उसकी परिधि एक सौ नब्बे योजन से कुछ अधिक है। वह दस योजन गहरा है, स्वच्छ एवं सूकोमल है, रजतमय कलयुक्त है, समतल तटयुक्त है. हीरकमय पाषाणयुक्त है—वह पत्थरों के स्थान पर हीरों से बना है। उसके पैदे में हीरे हैं। उसकी बाल स्वर्ण तथा शुभ्र रजतमय है। उसके तट के निकटवर्ती उन्नत प्रदेश वैडूर्यमणि-नीलम तथा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 185] {जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र स्फटिक-बिल्लौर की पट्टियों से बने हैं। उसमें प्रवेश करने एवं बाहर निकलने के मार्ग सुखावह हैं। उसके घाट अनेक प्रकार की मणियों से बँधे हैं। वह गोलाकार है। उसमें विद्यमान जल उत्तरोत्तर गहरा और शीतल होता गया है। वह कमलों के पत्तों, कन्दों तथा नालों से परिव्याप्त है / अनेक उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सोगन्धिक, पुडिरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, शत-सहस्रपत्र-इन विविध कमलों के प्रफुल्लित किजल्क से सुशोभित है। वहाँ भौरे कमलों का परिभोग करते हैं / उसका जल स्वच्छ, निर्मन और पथ :-.. हितकर है / वह कुण्ड' जल से अापूर्ण है / इधर-उधर घूमती हुई मछलियों, कछुओं तथ. पक्षियों के मुन्नत-उच्च, मधुर स्वर से वह मुखरित-गुंजित रहता है, सुन्दर प्रतीत होता है / वह एक पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है / वेदिका, बनखण्ड तथा कमलों का वर्णन पूर्ववत् कथनीय है, ज्ञातव्य है। उस गंगाप्रपातकुण्ड की तीन दिशाओं में-पूर्व, दक्षिण तथा पश्चिम में तीन-तीन सीढ़ियां बनी हुई हैं। उन सीढ़ियों का वर्णन इस प्रकार है। उनके नेम- भूभाग से ऊपर निकले हुए प्रदेश वज्ररत्नमय-ह रकमय हैं। उनके प्रतिष्ठान सीढ़ियों के मूल प्रदेश रिष्ट रत्नमय हैं / उनके खंभे वैर्यरत्नमय है / उनके फलक-पट्ट--पाट सोने-चाँदी से बने हैं। उनकी सूचियाँ दो-दो पाटों को जोड़ने के कोलक लोहिताक्ष-सज्ञक रत्न-निर्मित हैं। उनकी सन्धियाँ--दो-दो पाटों के बीच के भाग वज्ररत्नमय हैं / उनके पालम्बन--चढ़ते-उतरते समय स्खलननिवारण हेतु निर्मित आश्रयभूत स्थान, मालम्बनवाह-भित्ति-प्रदेश विविध प्रकार की मणियों से बने हैं। तीनों दिशाओं में विद्यमान उन तीन-तीन सीढ़ियों के आगे तोरण-द्वार बने हैं। वे अनेकविध रत्नों से सज्जित हैं, मणिमय खंभों पर टिके हैं, सीढ़ियों के सन्निकटवर्ती हैं। उनमें बीच-बीच में विविध तारों के आकार में बहुत प्रकार के मोती जड़े हैं। वे ईहामृग-वृक, वृषभ, अश्व, मनुष्य, मकर, खग, सर्प, किन्नर, रुरुसंज्ञक मृग, शरभ-अष्टापद, चमर-चवरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्रांकनों से सुशोभित हैं। उनके खंभों पर उत्कीर्ण वज्ररत्नमयी वेदिकाएँ बड़ी सुहावनी लगती हैं। उन पर चित्रित विद्याधर-युगल-सहजात-युगल-एकसमान, एक आकारयुक्त कठपुतलियों की ज्यों संचरणशील से प्रतीत होते हैं। अपने पर जड़े हजारों रत्नों की प्रभा से वे सुशोभित हैं। अपने पर बने सहस्रों चित्रों से वे बड़े सुहावने एवं अत्यन्त देदीप्यमान हैं, देखने मात्र से नेत्रों में समा जाते हैं / वे सुखमय स्पर्शयुक्त एवं शोभामय रूपयुक्त हैं। उन पर जो घंटियां लगी हैं, वे पवन से प्रान्दोलित होने पर बड़ा मधुर शब्द करती हैं, मनोरम प्रतीत होती हैं। उन तोरण-द्वारों पर स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि आठ-आठ मंगल-द्रव्य स्थापित हैं। काले चबरों की ध्वजाएँ काले चँवरों से अलंकृत ध्वजाएँ, (नीले चँवरों की ध्वजाएँ, हरे चॅवरों की ध्वजाएँ, तथा सफेद चॅवरों की ध्वजाएँ, जो उज्ज्वल एवं सुकोमल हैं, उन पर फहराती हैं। उनमें रुपहले वस्त्र लगे हैं। उनके दण्ड, जिनमें वे लगी हैं, वज्ररत्न-निर्मित हैं। कमल की सी उत्तम सुगन्ध उनसे प्रस्फुटित होती है। वे सुरम्य हैं, चित्त को प्रसन्न करनेवाली हैं। उन तोरण-द्वारों पर बहुत से छत्र, अतिछत्र-छत्रों पर लगे छत्र, पताकाएँ, अतिपताकाएँ-पताकाओं पर लगी पताकाएँ, दो-दो घंटाओं की जोड़ियाँ, दो-दो चँवरों की जोड़ियाँ लगी हैं। उन पर उत्पलों, पद्मों, (कुमुदों, नलिनों, सौगन्धिकों, पुण्डरीकों, शतत्रों, सहस्रपत्रों,) शत-सहस्रपत्रों-एतत्संज्ञक कमलों के ढेर के ढेर लगे हैं, जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ एवं सुन्दर हैं / Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ बक्षस्कार [189 उस गंगाप्रपातकुण्ड के ठीक बीच में गंगाद्वीप नामक एक विशाल द्वीप है / वह पाठ योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि कुछ अधिक पच्चीस योजन है। वह जल से ऊपर दो कोस ऊँचा उठा हुआ है / वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है / वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है / उनका वर्णन पूर्ववत् है / __गंगाद्वीप पर बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है। उसके ठीक बीच में गंगा देवी का विशाल भवन है। वह एक कोस लम्बा, प्राधा कोस चौड़ा तथा कुछ कम एक कोस ऊँचा है। वह सैकड़ों खंभों पर अवस्थित है / उसके ठीक बीच में एक मणिपीठिका है। उस पर शय्या है। परम ऋद्धिशालिनी गंगादेवी का आवास-स्थान होने से वह द्वीप गंगाद्वीप कहा जाता है, अथवा यह उसका शाश्वत नाम है-सदा से चला आता है। उस गंगाप्रपातकुण्ड के दक्षिणी तोरण से गंगा महानदी आगे निकलती है। वह उत्तरार्ध भरतक्षेत्र की ओर आगे बढ़ती है तब सात हजार नदियाँ उसमें प्रा मिलती हैं। वह उनसे आपूर्ण होकर खण्डप्रपात गुफा होती हुई, वैताढय पर्वत को चीरती हुई-पार करती हुई दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र की ओर जाती है। वह दक्षिणार्ध भरत के ठीक बीच से बहती हुई पूर्व की ओर मुड़ती है। फिर चौदह हजार नदियों के परिवार से युक्त होकर वह (गंगा महानदी) जम्बूद्वीप की जगती को दीर्ण कर-चीर कर पूर्वी-पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्र में मिल जाती है। गंगा महानदी का प्रवह-उद्गमस्रोत-जिस स्थान से वह निर्गत होती है, वहाँ उसका प्रवाह एक कोस अधिक छः योजन का विस्तार-चौड़ाई लिये हुए है। वह प्राधा कोस गहरा है। तत्पश्चात् वह महानदी क्रमशः मात्रा में प्रमाण में विस्तार में बढ़ती जाती है। जब समुद्र में मिलती है, उस समय उसकी चौड़ाई साढ़े बासठ योजन होती है, गहराई एक योजन एक कोस--- सवा योजन होती है। वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा वनखण्डों द्वारा संपरिवृत है / वेदिकाओं एवं वनखण्डों का वर्णन पूर्ववत् है / गंगा महानदी के अनुरूप ही सिन्धु महानदी का पायाम-विस्तार है। इतना अन्तर हैसिन्धु महानदी उस पद्मद्रह के पश्चिम दिग्वर्ती तोरण से निकलती है, पश्चिम दिशा की ओर बहती है, सिन्ध्वावर्त कूट से मुड़कर दक्षिणाभिमुख होती हुई बहती है। आगे सिन्धुप्रपातकुण्ड, सिन्धुद्वीप आदि का वर्णन गंगाप्रपातकण्ड, गंगाद्वीप आदि के सदश है। फिर नीचे तिमिस गुफा से होती हुई वह वैताढ्य पर्वत को चीरकर पश्चिम की ओर मुड़ती है। उसमें वहाँ चौदह हजार नदियां मिलती हैं। फिर वह जगती को दीर्ण करती हुई पश्चिमी लवणसमुद्र में जाकर मिलती है। बाकी सारा वर्णन गंगा महानदी के अनुरूप है। उस पद्मद्रह के उत्तरी तोरण से रोहितांशा नामक महानदी निकलती है। वह पर्वत पर उत्तर में 276 योजन बहती है, आगे बढ़ती है। घड़े के मुंह से निकलते हुए पानी की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक, मोतियों के हार के सदृश आकार में पर्वत-शिखर से प्रपात तक कुछ अधिक एक सौ योजन परिमित प्रवाह के रूप में प्रपात में गिरती है। रोहितांशा महानदी जहाँ गिरती है, वहाँ एक जिबिका-जिह्वासदृश प्राकृतियुक्त प्रणालिका है / उसका आयाम एक योजन है, विस्तार साढ़े बारह योजन है। उसका मोटापन एक कोस है / उसका आकार मगरमच्छ के खुले मुख के आकार जैसा है / वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190) [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र रोहिताशा महानदी जहाँ गिरती है, वह रोहितांशाप्रपातकण्ड नामक एक विशाल कुण्ड है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई एक सौ बीस योजन है। उसकी परिधि कुछ कम 183 योजन है / उसकी गहराई दस योजन है / वह स्वच्छ है / तोरण-पर्यन्त उसका वर्णन पूर्ववत् है। उस रोहितांशाप्रपात कुण्ड के ठीक बीच में रोहितांशट्टीप नामक एक विशाल द्वीप है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई सोलह योजन है। उसकी परिधि कुछ अधिक पचास योजन है। वह जल से ऊपर दो कोश ऊँचा उठा हुआ है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है। भवन-पर्यन्त बाकी का वर्णन पूर्ववत् है। उस रोहितांशाप्रपात कुण्ड के उत्तरी तोरण से रोहितांशा महानदी आगे निकलती है, हैमवत क्षेत्र की ओर बढ़ती है / चौदह हजार नदियाँ वहाँ उसमें मिलती हैं। उनसे आपूर्ण होती हुई वह शब्दापाती वृत्तवैताढय पर्वत के प्राधा योजन दूर रहने पर पश्चिम की ओर मुड़ती है। वह हैमवत क्षेत्र को दो भागों में विभक्त करती हुई आगे बढ़ती है। तत्पश्चात् अट्ठाईस हजार नदियों के परिवार सहित उनसे आपूर्ण होती हुई वह नीचे की ओर जगती को दीर्ण करती हुई-उसे चीर कर लांघती हुई पश्चिम-दिग्वर्ती लवणसमुद्र में मिल जाती है। रोहितांशा महानदी जहाँ से निकलती है, वहाँ उसका विस्तार साढ़े बारह योजन है। उसकी गहराई एक कोश है / तत्पश्चात् वह मात्रा में क्रमशः बढ़ती जाती है / मुख-मूल में समुद्र में मिलने के स्थान पर उसका विस्तार एक सौ पच्चीस योजन होता है, गहराई अढाई योजन होती है। वह अपने दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों से संपरिवृत है। चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत के कूट 62. चुल्ल हिमवन्ते णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता ? गोयमा! इक्कारस कूडा पण्णत्ता, तं जहा-१. सिद्धाययणकूडे, 2. चुल्ल हिमवन्तकडे, 3. भरहकडे, 4. इलादेवीकूडे, 5. गंगादेवीकूडे, 6. सिरिकूडे, 7. रोहिअंसकूडे, 8. सिन्धुदेवीकूडे, 6. सुरदेवीकूडे, 10. हेमवयकूडे, 11. वेसमणकूडे। कहि णं भन्ते ! चल्लहिमवन्ते वासहरपब्वए सिद्धाययणकडे णामं कडे पण्णते? गोयमा ! पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चस्थिमेणं चुल्लहिमवन्तकूडस्स पुरथिमेणं एत्थ गं सिद्धाययणकडे णामं कूडे पण्णत्ते, पंच जोअणसयाई उद्ध उच्चत्तणं, मूले पंच जोअणसयाई विक्खंभेणं, मझे तिणि अ पण्णत्तरे जोअणसए विक्खंभेणं, उप्पि अद्धाइज्जे जोअणसए विक्खंभेणं / मूले एगं जोपणसहस्सं पंच य एगासीए जोअणसए किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, मज्झे एग जोअणसहस्सं एगं च छलसीधे जोप्रणसयं किंचि विसेसूणं परिक्खेवेणं, उप्पि सत्त इक्काणउए जोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं। मूले विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उपि तणुए, गोपुच्छ-संठाण-संठिए, सवरयणामए, अच्छे / से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते / सिद्धाययणस्स फूडस्स गं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव' तस्स णं 1. देखें सूत्र संख्या 6 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [191 बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते, पण्णासं जोअणाई आयामेणं, पणवीसं जोषणाई विक्खंभेणं, छत्तीसं जोअणाई उद्ध उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमावष्णो भाणिश्रव्यो। कहि णं भन्ते ! चुल्लहिमवन्ते वासहरपव्वए चुल्लहिमवन्तकूड़े णामं कूडे पण्णत्ते ? गोयमा ! भरहकूडस्स पुरथिमेणं सिद्धाययणकूडस्स पच्चस्थिभेणं, एत्थ णं चुल्लहिमवन्ते वासहरपव्वए चुल्लहिमवन्तकूडे णामं कूडे पण्णत्ते / एवं जो चेव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तबिक्खंभ-परिक्खेवो जाव बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते, वाष्टुिं जोअणाई प्रद्धजोअणं च उच्चत्तेणं, इक्कतीसं जोप्रणाई कोसं च विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसिनपहसिए विव, विविहमणिरयणभत्तिचित्ते, वाउद्धअविजयवेजयंतीपडागच्छत्ताइछत्तकलिए, तुंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरे, जालंतररयणपंजरुम्मीलिएन्व, मणिरयणभिआए, विअसिअसयवत्तपुंडरीअतिलयरयणद्धचंदचित्ते, णाणामणिमयदामालकिए, अंतो बहिं च सण्हे वइरतवणिज्जरइलवालुगापत्थडे, सुहफासे, सस्सिरीअरूवे, पासाईए (दरिसणिज्जे अभिरूवे) पडिरूहे। तस्स णं पासायबडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव सीहासणं सपरिवार। से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ चुल्लहिमवन्तकूडे 2 ? / गोयमा ! चुल्लहिमवन्ते णाम देवे महिड्डिए जाव परिवसइ / कहिणं भन्ते ! चुल्लहिमवन्तगिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवन्ता णामं रायहाणो पण्णत्ता? गोयमा ! चुल्लहिमवन्तकूडस्स दक्षिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीइवइत्ता अण्णं जम्बुद्दीवं 2 दक्षिणेणं बारस जोश्रण-सहस्साई ओगाहित्ता इत्थ णं चुल्लाहिमवन्तस्स गिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवन्ता णामं रायहाणी पण्णत्ता, बारस जोअणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, एवं विजयरायहाणीसरिसा भाणिसव्वा / एवं अवसेसाणवि कूडाणं वत्तव्वया अव्वा, प्रायामविक्खंभपरिक्खेवपासायदेवयाओ सीहासणपरिवारो अट्ठो अ देवाण य देवीण य रायहाणीओ णेग्नवानो, चउसु देवा 1. चुल्लहिमवन्त 2. भरह 3. हेमवय 4. वेसमणकूडेसु, सेसेसु देवयाओ / से केणठेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ चुल्ल हिमवन्ते वासहरपव्वए ? गोयमा ! महाहिमवन्त-यासहर-पव्वयं पणिहाय प्रायामुच्चत्तुवेहविक्खंभपरिक्खेवं पडुच्च ईसि खुडतराए चेव हस्सतराए चेव णोअतराए चेव, चुल्ल हिमवन्ते अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव' पलिओवमट्ठिइए परिवसइ, से एएणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-चुल्ल हिमवन्ते वासहरपव्वए 2, अदुत्तरं च णं गोयमा ! चुल्लहिमवन्तस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते जंण कयाइ णासि / _[12] भगवन् ! चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत के कितने कूट-शिखर बतलाये गये हैं ? 1. देखें सूत्र संख्या 14 2. देखें सूत्र संख्या 14 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [जमूतीपप्राप्तिसूत्र ___ गौतम ! उसके ग्यारह कूट बतलाये गये हैं--१. सिद्धायतनकूट, 2. चुल्लहिमवान्कूट, 3. भरतकूट, 4. इलादेवीकूट, 5. गंगादेवीकूट, 6. श्रीकूट, 7. रोहितांशाकूट, 8. सिन्धुदेवीकूट, 6. सुरादेवीकूट, 10 हैमवतकूट तथा 11. वैश्रवणकूट / भगवन् ! चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत पर सिद्धायतनकूट कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, चुल्ल हिमवान् कूट के पूर्व में सिद्धायतन नामक कूट बतलाया गया है। वह पांच सौ योजन ऊँचा है। वह मूल में पांच सौ योजन, मध्य में 375 योजन तथा ऊपर 250 योजन विस्तीर्ण है। मूल में उसकी परिधि कुछ अधिक 1581 योजन, मध्य में कुछ कम 1186 योजन तथा ऊपर कुछ कम 791 योजन है। वह मूल में विस्तीर्ण-चौड़ा, मध्य में संक्षिप्त-संकड़ा एवं ऊपर तनुक-पतला है। उसका आकार गाय की ऊर्वीकृत पूछ के आकार जैसा है / वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है / वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। सिद्धायतनकूट के ऊपर एक बहुत समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। उस भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल सिद्धायतन है। वह पचास योजन लम्बा, पच्चीस योजन चौड़ा और छत्तीस योजन ऊँचा है / उससे सम्बद्ध जिनप्रतिमा पर्यन्त का वर्णन पूर्ववत् है। भगवन् ! चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत पर चुल्लहिमवान् नामक कूट कहाँ पर बतलाया गया है ? गौतम ! भरतकूट के पूर्व में, सिद्धायतनकूट के पश्चिम में चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत पर चुल्लहिमवान् नामक कूट बतलाया गया है। सिद्धायतनकूट की ऊँचाई, विस्तार तथा घेरा जितना है, उतना ही उस (चुल्लहिमवान्कूट) का है। उस कूट पर एक बहुत ही समतल एवं रमणीय भूमिभाग है। उसके ठीक बीच में एक बहुत बड़ा उत्तम प्रासाद है। वह 623 योजन ऊँचा है। वह 31 योजन और 1 कोस चौड़ा है। (समचतुरस्र होने से उतना ही लम्बा है / ) वह बहुत ऊँचा उठा हुआ है / अत्यन्त धवल प्रभापुज लिये रहने से वह हँसता हुआ-सा प्रतीत होता है। उस पर अनेक प्रकार को मणियाँ तथा रत्न जड़े हुए हैं। उनसे वह बड़ा विचित्र- अद्भुत प्रतीत होता है। अपने पर लगी, पवन से हिलती, फहराती विजय-वैजयन्तियों—विजयसूचक ध्वजाओं, पताकाओं, छत्रों तथा अतिछत्रों से वह बड़ा सुहावना लगता है। उसके शिखर बहत ऊँचे हैं, मानो वे आकाश को लांघ जाना चाहते हों। उसकी जालियों में जडे रत्न-समह ऐसे प्रतीत होते हैं. मानो प्रासाद ने अपने नेत्र उघाड रखे हों। उसकी स्नुपिकाएँ-छोटे-छोटे शिखर-छोटी-छोटी गुमटियाँ मणियों एवं रत्नों से निर्मित हैं / उस पर विकसित शतपत्र, पुण्डरीक, तिलक, रत्न तथा अर्धचन्द्र के चित्र अंकित हैं। अनेक मणिनिर्मित मालाओं से वह अलंकृत है। वह भीतर-बाहर वज्ररत्नमय, तपनीय-स्वर्णमय, चिकनी, रुचिर बालुका से आच्छादित है। उसका स्पर्श सुखप्रद है, रूप सश्रीक-शोभान्वित है। वह आनन्दप्रद, (दर्शनीय, अभिरूप तथा) प्रतिरूप है। उस उत्तम प्रासाद के भीतर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग बतलाया गया है। सम्बद्ध सामग्रीयुक्त सिंहासन पर्यन्त उसका विस्तृत वर्णन पूर्ववत् है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चतुर्थ वक्षस्कार] [193 भगवन् ! वह चुल्ल हिमवान् कूट क्यों कहलाता है ? गोतम ! परम ऋद्धिशाली चुल्ल हिमवान् नामक देव वहाँ निवास करता है, इसलिए वह चुल्ल हिमवान् कूट कहा जाता है। भगवन् ! चुल्ल हिमवान् गिरिकुमार देव की चुल्ल हिमवन्ता नामक राजधानी कहाँ बतलाई गई है ? गौतम ! चुल्ल हिमवान् कट के दक्षिण में तिर्यक लोक में असंख्य द्वीपों, समुद्रों को पार कर अन्य जम्बुद्वीप में दक्षिण में बारह हजार योजन पार करने पर चुल्ल हिमवान् गिरिकुमार देव की चल्ल हिमवन्ता नामक राजधानी आती है। उसका पायाम-विस्तार बारह हजार योजन है। उसका विस्तृत वर्णन विजय-राजधानी के सदृश जानना चाहिए। बाकी के कटों का आयाम-विस्तार, परिधि, प्रासाद, देव, सिंहासन, तत्सम्बद्ध सामग्री, देवों एवं देवियों की राजधानियों आदि का वर्णन पूर्वानुरूप है। इन कटों में से चल्ल हिमवान, भरत, हैमवत तथा वैश्रवण कटों में देव निवास करते हैं और उनके अतिरिक्त अन्य कूटों में देवियाँ निवास करती हैं। भगवन् ! वह पर्वत चुल्ल हिमवान् वर्षधर किस कारण कहा जाता है ? गौतम ! महा हिमवान् वर्षधर पर्वत की अपेक्षा चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत पायामलम्बाई, उच्चत्व-ऊँचाई, उद्वेध - जमीन में गहराई, विष्कम्भ–विस्तार-चौड़ाई, तथा परिक्षेप---परिधि या घेरा-इनमें क्षुद्रतर, ह्रस्वतर तथा निम्नतर है न्यूनतर है, कम है। इसके अतिरिक्त वहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्ययुक्त चुल्ल हिमवान् नामक देव निवास करता है, गौतम ! इस कारण वह चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत कहा जाता है। गौतम ! अथवा चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत—यह नाम शाश्वत कहा गया है, जो न कभी नष्ट हुअा, न कभी नष्ट होगा। हैमवत वर्ष 63. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते ? गोयमा! महाहिमवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दक्षिणणं, चुल्लाहमवन्तस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते / पाइण-पडीणायए, उदीणदाहिणविच्छिण्णे, पलिअंकसंठाणसंठिए, दुहा लवणसमुदं पुढें, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुछे, पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढें। दोण्णि जोअणसहस्साई एगं च पंचुत्तरं जोअणसयं पंच य एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं / ___ तस्स बाहा पुरथिमपच्चत्थिमेणं छज्जोअणसहस्साई सत्त य पणवणे जोअणसए तिण्णि प्र एगणवीसइ भाए जोअणस्स आयामेणं। तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडोणायया, दुहनो लवणसमुह पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चस्थिमिल्लाए (कोडीए पच्चथिमिल्लं Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र लवणसमुह) पुट्ठा। सत्ततीसं जोअणसहस्साई छच्च चउवत्तरे जोअणसए सोलस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स किंचिविसेसूणे आयामेणं / तस्स धणु दाहिणणं अद्वतीसं जोअणसहस्साई सत्त य चताले जोअणसए दस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं / हेमवयस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए अायारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं तइयसमाणुभावो णेप्रव्वोत्ति / [93] भगवन् ! जम्बूद्वीप में हैमवत क्षेत्र कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! महा हिमवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हैमवत नामक क्षेत्र कहा गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है, पलंग के आकार में अवस्थित है / वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है / वह 2105 योजन चौड़ा है। उसकी बाहा पूर्व-पश्चिम में 67553 योजन लम्बी है। उत्तर दिशा में उसकी जीवा पूर्व तथा पश्चिम दोनों ओर लवणसमुद्र का स्पर्श करती है / अपने पूर्वी किनारे से वह पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है, पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र को स्पर्श करती है। उसकी लम्बाई कुछ कम ३७६७४१ई योजन है। दक्षिण में उसका धनुपृष्ठ परिधि की अपेक्षा से 387400 योजन है। भगवन् ! हैमवत क्षेत्र का आकार-स्वरूप, भाव-तदन्तर्गत पदार्थ, प्रत्यवतार-तत्सम्बद्ध प्राकटय--अवस्थिति कैसी है ? ___ गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल एवं रमणीय है। उसका स्वरूप आदि तृतीय प्रारक-सुषम-दुःषमा काल के सदृश है। शब्दापाती वृत्त वैताढय पर्वत 14. कहि णं भंते ! हेमवए वासे सद्दावई णामं वट्टवेअद्धपन्चए पण्णते? गोयमा! रोहिश्राए महाणईए पच्चत्थिमेणं, रोहिअंसाए महाणईए पुरथिमेणं, हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ गं सद्दावई गामं वट्टवेअद्धपचए पग्णत्ते / एग जोअणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं, अद्धाइज्जाई जोअणसयाई उवेहेणं, सम्वत्थसमे, पल्लंगसंठाणसंठिए, एगं जोअणसहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिणि जोअणसहस्साइं एगं च बावळं जोअणसयं किंचिविसेसाहि परिक्खेवेणं पण्णत्ते, सव्वरयणामए अच्छे / से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, वेइआवणसंडवग्णनो भाणिअन्वो। ___ सद्दावइस्स णं वट्टवेअद्धपव्वयस्स उरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते / तस्स जं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायव.सए पण्णत्ते / बाट्टि जोप्रणाइं अद्धजोयणं च उद्धउच्चत्तेणं, इक्कतीसं जोषणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं जाव सीहासणं सपरिवारं। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य वक्षस्कार] [195 . से केणढेणं भंते ! एवं बुच्चइ सद्दावई वट्टवेयद्धपव्वए 2 ? गोयमा ! सद्दावई वट्टवेअद्धपब्वए णं खुद्दा खुद्दिआसु वावीसु, (पोक्खरिणीसु, दोहिआसु, गुंजालिआसु, सरपंतिमासु, सरसरपंतिमासु, बिलपंतिमासु बहवे उप्पलाई, पउमाई, सद्दावइप्पभाई, सहावइवण्णाई सद्दावइवण्णाभाई, सद्दावई अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव' महाणुभावे पलिओवमटिइए परिवसइत्ति / से णं तत्थ चउण्हं सामाणिग्रासाहस्सोणं जाव रायहाणो मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं अण्णमि जंबुद्दीवे दीवे० / [24] भगवन् ! हैमवतक्षेत्र में शब्दापाती नामक वृत्तवैताढ्य पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! रोहिता महानदी के पश्चिम में, रोहितांशा महानदी के पूर्व में, हैमवत क्षेत्र के बीचोबीच शब्दापाती नामक वृत्त वैताढच पर्वत बतलाया गया है। वह एक हजार योजन ऊँचा है, अढाई सौ योजन भूमिगत है, सर्वत्र समतल है। उसकी प्राकृति पलंग जैसी है। उसकी लम्बाईचौड़ाई एक हजार योजन है। उसकी परिधि कुछ अधिक 3162 योजन है। वह सर्वरत्नमय है, है। वह एक पदमवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से संपरित है। पदमवरवेदिका तथा वनखण्ड का वर्णन पूर्ववत् है। शब्दापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत पर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है / उस भूमिभाग के वीचोंबीच एक विशाल, उत्तम प्रामाद बतलाया गया है / वह 623 योजन ऊंचा है, 31 योजन 1 कोश लम्बा-चौड़ा है। सिंहासन पर्यन्त आगे का वर्णन पूर्ववत् है। भगवन् ! वह शब्दापाती वृत्तवैताढय पर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! शब्दापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत पर छोटी-छोटी चौरस बावड़ियों, (गोलाकार पुष्करिणियों, बड़ी-बड़ी सीधी वापिकाओं, टेढ़ी-तिरछी वापिकाओं, पृथक्-पृथक् सरोवरों, एक दूसरे से संलग्न सरोवरों,) अनेकविध जलाशयों में बहुत से उत्पल हैं, पद्म हैं, जिनकी प्रभा, जिनका वर्ण शब्दापाती के सदृश है। इसके अतिरिक्त परम ऋद्धिशाली, प्रभावशालो, पल्योपम आयुष्ययुक्त शब्दातियाती नामक देव वहाँ निवास करता है / उसके चार हजार सामानिक देव हैं / उसकी राजधानी अन्य जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में है। विस्तृत वर्णन पूर्ववत् है / (इस कारण यह नाम पड़ा है, अथवा शाश्वत रूप में यह चला आ रहा है।) हैमवतवर्ष नामकरण का कारण 15. से केण8 णं भन्ते ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे 2 ? गोयमा ! चुल्लहिमवन्तमहाहिमवन्तेहि वासहरपन्वएहि दुहओ समवगूढे णिच्चं हेमं दलइ, णिच्चं हेमं दलइत्ता णिच्चं हेमं पगासइ, हेमवए अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव' पलिओवमट्ठिइए परिवसइ, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे हेमवए वासे / 1. देखें सूत्र संख्या 14 2. देखे सूत्र संख्या 14 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र [95] भगवन् ! वह हैमवत क्षेत्र क्यों कहा जाता है ? गौतम ! वह चुल्ल हिमवान् तथा महाहिमवान् वर्षधर पर्वतों के बीच में है-महाहिमवान् पर्वत से दक्षिण दिशा में एवं चुल्ल हिमवान् पर्वत से उत्तर दिशा में, उनके अन्तराल में विद्यमान है। वहाँ जो यौगलिक मनुष्य निवास करते हैं, वे बैठने आदि के निमित्त नित्य स्वर्णमय शिलापट्टक आदि का उपयोग करते हैं। उन्हें नित्य स्वर्ण देकर वह यह प्रकाशित करता है कि वह स्वर्णमय विशिष्ट वैभवयुक्त है। ( यह प्रौपचारिक कथन है) वहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्ययुक्त हैमवत नामक देव निवास करता है / गौतम ! इस कारण वह हैमवतक्षेत्र कहा जाता है / महाहिमवान वर्षधर पर्वत 66. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे 2 महाहिमवन्ते णाम वासहरपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! हरिवासस्स दाहिणणं, हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जम्बुद्दीवे महाहिमवंते णाम वासहरपब्वए पण्णत्ते। पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, पलियंकसंठाणसंठिए, दुहा लवणसमुदं पुढें, पुरथिमिल्लाए कोडीए (पुरथिमिल्लं लवणसमुदं) पुठे, पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुढें। दो जोअणसयाई उद्ध उच्चत्तेणं, पण्णासं जोणाइं उन्हेणं, चत्तारि जोअणसहस्साई दोणि अ दसुत्तरे जोअणसए दस य एगणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणं / तस्स बाहा पुरथिमपच्चस्थिमेणं णव य जोअणसहस्साई दोणि अछावत्तरे जोअणसए णव य एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं / तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुदं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चथिमिल्लाए (कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं) पुट्ठा, तेवण्णं जोअणसहस्साई नव य एगतीसे जोअणसए छच्च एगणवीसइभाए जोअणस्स किंचिविसेसाहिए आयामेणं / तस्स धणु दाहिणणं सत्तावण्णं जोअणसहस्साई दोणि अ तेणउए जोप्रणसए दस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं, रुअगसंठाणसंठिए, सम्वरयणामए, अच्छे / उभो पासि दोहि पउमवरवेइआहि दोहि अवणसंहिं संपरिक्खित्ते। महाहिमवन्तस्स णं वासहरपव्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव' णाणाविह पञ्चवणेहि मणीहि अ तणेहि अ उवसोभिए जाव' आसयंति सयंति य / [96] भगवन् ! जम्बूद्वीप में महाहिमवान् नामक वर्षधर पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! हरिवर्षक्षेत्र के दक्षिण में, हैमवतक्षेत्र के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाहिमवान् नामक वर्षधर पर्वत बतलाया गया है। वह पर्वत पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। वह पलंग का-सा आकार लिये 1. देखें सूत्र संख्या 6 2. देखें सूत्र संख्या 12 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [197 हुए है। वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है और पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। वह दो सौ योजन ऊँचा है, 50 योजन भूमिगत है---जमीन में गहरा गड़ा है। वह 421010 योजन चौड़ा है। उसकी बाहा पूर्व-पश्चिम 6276 // योजन लम्बी है। उत्तर में उसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है / वह लवणसमुद्र का दो ओर से स्पर्श करती है। वह अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है। वह कुछ अधिक 539316 योजन लम्बी है। दक्षिण में उसका धन पृष्ठ है, जिसकी परिधि 5726360 योजन है। वह रुचकसदृश आकार लिये हुए है, सर्वथा रत्नमय है, स्वच्छ है। अपने दोनों ओर वह दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों से घिरा हुआ है। महाहिमवान वर्षधर पर्वत के ऊपर अत्यन्त समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। वह विविध प्रकार के पंचरंगे रत्नों तथा तृणों से सुशोभित है / वहाँ देव-देवियाँ निवास करते हैं। महापद्मद्रह ___67. महाहिमवंतस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महापउमद्दहे णामं दहे पण्णत्ते / दो जोअणसहस्साई आयामेणं, एग जोअणसहस्सं विक्खंभेणं, दस जोप्रणाई उव्वेहेणं, अच्छे रययामयकूले एवं पायामविक्खंभविहूणा जा चेव पउमद्दहस्स वत्तव्वया सा चेव अव्वा / पउमप्पमाणं दो जोअणाई अट्ठो जाय महापउमद्दहवण्णाभाई हिरी प्र इत्थ देवी जाव पलिओवमट्टिइया परिवसइ / से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ, अदुत्तरं च णं गोयमा! महापउमद्दहस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्ते जणं कयाइ णासी 3 / तस्स णं महापउमद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिया महाणई पवढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच य एगूणवीसइभाए जोपणस्स दाहिणाभिमुही पवएणं गंता महया घउमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगदोजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। रोहिआ णं महाणई जनो पवडइ एत्थ णं महं एगा जिन्भिया पणत्ता। सा णं जिभिया जोअणं आयामेणं, अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्टसंठाणसंठिया, सव्ववइरामई, अच्छा। __ रोहिआ णं महाणई जहि पवडइ एस्थ णं महं एगे रोहिअप्पवायकुडे णामं कुडे पण्णत्ते / सवीसं जोअणसयं आयामविवखंभेणं पण्णत्तं तिणि प्रसीए जोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, दस जोप्रणाइं उन्हेणं, अच्छे, सण्हे, सो चेव वण्णो / वइरतले, वट्टे, समतोरे जाव तोरणा / तस्स णं रोहिअप्पवायकुण्डस्स बहुज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहिनदीवे णामं दीवे पण्णत्ते / सोलस जोश्रणाई आयामविवखंभेणं, साइरेगाइं पण्णासं जोअणाई परिक्खेवेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ, सव्ववइरामए, अच्छे / से णं एगाए पउमवरवेइमाए एगेण य वणसंडेणं सव्वप्रो समंता संपरिविखत्ते / रोहिनदीवस्स णं दीवस्स उम्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते। कोसं आयामेणं, सेसं तं चेव पमाणं च अट्ठो अभाणिअव्वो। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198]] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र __ तस्स गं रोहिअप्पवायकुण्डस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पवढा समाणी हेमवयं वासं एज्जेमाणी 2 सद्दावई वट्टवेअद्धपव्वयं अद्धजोग्रणेणं असंपत्ता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणो 2 अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरथिमेणं लवणसमुई समप्पेइ / रोहिआ णं जहा रोहिअंसा तहा पवाहे अ मुहे अ भाणिअब्वा इति जाव संपरिक्खित्ता। तस्स णं महापउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता महाणई पढा समाणो सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच य एगूणवोसइभाए जोपणस्स उत्तराभिमुहो पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं, मुत्ताबलिहारसंठिएणं, साइरेगदुजोपणसइएणं पवाएणं पवडइ / हरिकता महाणई जो पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिभिआ पण्णत्ता। दो जोयगाई आयामेणं, पणवीसं जोअणाई विक्खंभेणं, अद्ध जोअणं बाहल्लेणं, मगरमुहविउदृसंठाणसंठिआ, सम्वरयणामई, अच्छा / __ हरिकंता णं महाणई जहि पवडइ, एस्थ णं महं एगे हरिकंतप्पवायकुडे णाम कुडे पण्णत्ते / दोण्णि अ चत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं, सत्ताउणठे जोयणसए परिखेवेणं, अच्छे एवं कुण्डबत्तव्वया सव्वा नेयव्वा जाव तोरणा। तस्स णं हरिकतप्पवायकुण्डस्स बहुमझदेसभाए एस्थ णं महं एगे हरिकंतदोवे णामं दोवे पण्णते, बत्तीसं जोअणाई आयामविक्खंभेणं, एगुत्तरं जोअणसयं परिक्खेवेणं, दो कोसे असिए जलंतामो, सव्वरयणामए, अच्छे / से णं एगाए पउमवरवेइमाए एगेण य वणसंडेणं (सव्वनो समंता) संपरिविखत्ते वण्णमो भाणिअम्वोत्ति, पमाणं च सयणिज्जं च अट्रो प्रभाणिअन्यो। तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेगं तोरणेणं (हरिकता महाणई) पवढा समाणो हरिवस्सं वासं एज्जेमाणो 2 विग्रडावई वट्टवेअद्ध जोअणेणं असंपत्ता पच्चस्थाभिमुहो आवत्ता समाणी हरिवासं दुहा विभयमाणो 2 छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दलइत्ता पच्चत्यिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ / हरिकता णं महाणई पवहे पणवीसं जोअणाई, विक्खम्भेणं, अद्धजोअणं उन्हेणं / तयणंतरं च णं मायाए 2 परिवद्धमाणी 2 मुहमूले अद्धाइज्जाई जोअणसयाई विक्खम्भेणं, पञ्च जोगणाई उम्वेहेणं। उभयो पासि दोहि पउमवरवेइहिं दोहि अ वणसंहिं संपरिक्खित्ता। __ [17] महाहिमवान् पर्वत के बीचोंबीच महापद्मद्रह नामक द्रह बतलाया गया है। वह दो हजार योजन लम्बा तथा एक हजार योजन चौड़ा है। वह दश योजन जमीन में गहरा है। वह स्वच्छ---उज्ज्वल है, रजतमय तटयुक्त है। लम्बाई ओर चौड़ाई को छोड़कर उसका सारा वर्णन पद्मद्रह के सदृश है। उसके मध्य में जो पद्म है, वह दो योजन का है। अन्य सारा वर्णन पद्मद्रह के पद्म के सदृश है। उसको प्राभा-प्रभा आदि सब वैसा ही है। वहाँ एक पल्योपमस्थितिका-एक पल्योपम आयुष्ययुक्ता ह्रो नामक देवी निवास करती है / गौतम ! इस कारण वह इस नाम से पुकारा जाता है / अथवा गोतम ! महापद्मद्रह नाम शाश्वत बतलाया गया है, जो न कभी नष्ट हुग्रा, न कभी नष्ट होगा। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [199 उस महापद्मद्रह के दक्षिणी तोरण से रोहिता नामक महानदी निकलती है। वह हिमवान् पर्वत पर दक्षिणाभिमुख होती हुई 1605 र योजन बहती है / घड़े के मुंह से निकलते हुए जल की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक मोतियों से निर्मित हार के-से आकार में वह प्रपात में गिरती है। तब उसका प्रवाह पर्वत-शिखर से नीचे प्रपात तक कुछ अधिक 200 योजन होता है। रोहिता महानदी जहाँ गिरती है, वहाँ एक विशाल जिबिका-प्रणालिका बतलाई गई है। उसका आयामलम्बाई एक योजन और विस्तार-चौड़ाई 123 योजन है। उसकी मोटाई एक कोश है / उसका प्राकार मगरमच्छ के खुले मुंह के आकार जैसा है / वह सर्वथा स्वर्णमय है, स्वच्छ है। रोहिता महानदी जहाँ गिरती है, उस प्रपात का नाम रोहिताप्रपात कुण्ड है / वह 120 योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि कुछ कम तीन सौ अस्सी योजन है। वह दश योजन गहरा है, स्वच्छ एवं सुकोमल-चिकना है। उसका पेंदा हीरों से बना है। वह गोलाकार है। उसका तट समतल है। उससे सम्बद्ध तोरण पर्यन्त समग्र वर्णन पूर्ववत् है। रोहिताप्रपात कुण्ड के बीचोंबीच रोहित नामक एक विशाल द्वीप है। वह 16 योजन लम्वाचौडा है। उसकी परिधि कुछ अधिक 50 योजन है। वह जल से दो कोश ऊपर ऊँचा उठा हया है। वह संपूर्णत: हीरकमय है, उज्ज्वल है-चमकीला है। वह चारों ओर एक पदमवरवेदिका द्वारा तथा एक बनखण्ड द्वारा घिरा हुअा है। रोहित द्वीप पर बहुत समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। उस भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल भवन है / वह एक कोश लम्बा है। बाकी का वर्णन, प्रमाण प्रादि पूर्ववत् कथनीय है। उस रोहितप्रपात कुण्ड के दक्षिणी तोरण से रोहिता महानदी निकलती है। वह हैमवत क्षेत्र की ओर आगे बढ़ती है। शब्दापाती वृत्तवैताढय पर्वत जब आधा योजन दूर रह जाता है, तब वह पूर्व की ओर मुड़ती है और हैमवत क्षेत्र को दो भागों में बाँटती हुई आगे बढ़ती है। उसमें 28000 नदियाँ मिलती हैं। वह उनसे अापूर्ण होकर नीचे जम्बूद्वीप की जगती को चीरती हुई-भेदती हुई पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है। रोहिता महानदी के उद्गम, संगम आदि सम्बन्धी सारा वर्णन रोहितांशा महानदी जैसा है। उस महापद्मद्रह के उत्तरी तोरण से हरिकान्ता नामक महानदी निकलती है। वह उत्तराभिमुख होती हुई 1605 पायोजन पर्वत पर बहती है। फिर घड़े के मुंह से निकलते हुए जल की ज्यों जोर से शब्द करती हुई, वेगपूर्वक मोतियों से बने हार के आकार में प्रपात में गिरती है। उस समय ऊपर पर्वत-शिखर से नीचे प्रपात तक उसका प्रवाह कुछ अधिक दो सौ योजन का होता है। हरिकान्ता महानदी जहाँ गिरती है, वहाँ एक विशाल जिबिका-प्रणालिका बतलाई गई है। वह दो योजन लम्बी तथा पच्चीस योजन चौड़ी है। वह प्राधा योजन मोटी है। उसका आकार मगरमच्छ के खुले हुए मुख के आकार जैसा है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है / हरिकान्ता महानदी जिसमें गिरती है, उसका नाम हरिकान्ताप्रपात कुण्ड है। वह विशाल है / वह 240 योजन लम्बा-चौड़ा है / उसकी परिधि 756 योजन की है। वह निर्मल है / तोरणपर्यन्त कुण्ड का समग्र वर्णन पूर्ववत् जान लेना चाहिए। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र हरिकान्ताप्रपातकुण्ड के बीचों-बीच हरिकान्त द्वीप नामक एक विशाल द्वीप है। वह 32 योजन लम्बा-चौड़ा है / उसकी परिधि 101 योजन है, वह जल से ऊपर दो कोश ऊँचा उठा हुआ है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है / वह चारों ओर एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक वनखण्ड द्वारा घिरा हुआ है / तत्सम्बन्धी प्रमाण, शयनीय आदि का समस्त वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / हरिकान्ताप्रपातकुण्ड के उत्तरी तोरण से हरिकान्ता महानदी आगे निकलती है। हरिवर्षक्षेत्र में वहती है, विकटापाती वृत्त वैताढ्य पर्वत के एक योजन दूर रहने पर वह पश्चिम की ओर मुड़ती है। हरिवर्षक्षेत्र को दो भागों में बाँटती हुई आगे बढ़ती है। उसमें 56000 नदियाँ मिलती हैं / वह उनसे आपूर्ण होकर नीचे की ओर जम्बूद्वीप की जगती को चीरती हुई पश्चिमी लवण समुद्र में मिल जाती है। हरिकान्ता महानदी जिस स्थान से उद्गत होती है-निकलती है, वहाँ उसकी चौड़ाई पच्चीस योजन तथा गहराई प्राधा योजन है। तदनन्तर क्रमशः उसकी मात्रा प्रमाण बढ़ता जाता है। जब वह समुद्र में मिलती है, तब उसकी चौड़ाई 250 योजन तथा गहराई पाँच योजन होती है / वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकानों से तथा दो वनखण्डों से घिरी हुई है। महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के कूट 68. महाहिमवन्ते णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णता? गोयमा! अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तंजहा.-१. सिद्धाययणकूडे, 2. महाहिमवन्तकूडे, 3. हेमक्य कूड, 4. रोहिअकूडे, 5. हिरिकूडे, 6. हरिकंतकूडे, 7. हरिवासकूडे, 8. वेरुलिअकूडे / एवं चुल्ल हिमवंतकडाणं जा चेव वत्तव्वया सच्चेव अव्वा / से केणद्वेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ महाहिमवते वासहरपन्वए 2 ? / गोयमा ! महाहिमवंते णं वासहरपव्वए चुल्लहिमवंतं वासहरपव्वयं पणिहाय आयामुच्चत्तुव्वेहविक्खम्भपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दोहतराए चेव, महाहिमवंते अ इत्थ देवे महिड्ढोए जाव' पलिओवमट्टिइए परिवसइ। [98] भगवन् ! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के कितने कूट बतलाये गये हैं ? गौतम ! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के आठ कूट बतलाये गये हैं, जैसे--१. सिद्धायतनकूट, 2. महाहिमवान्कूट, 3. हैमवतकूट, 4. रोहितकूट, 5. होकूट, 6. हरिकान्तकूट, 7. हरिवर्षकूट तथा 8. वैडूर्यकूट / चुल्ल हिमवान् कूटों की वक्तव्यता के अनुरूप ही इनका वर्णन जानना चाहिए। भगवन् ! यह पर्वत महाहिमवान् वर्षधर पर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत, चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत की अपेक्षा लम्बाई, ऊँचाई, गहराई, चौड़ाई तथा परिधि में महत्तर तथा दीर्घतर है—अधिक बड़ा है। परम ऋद्धिशाली, पल्योपम आयुष्ययुक्त महा हिमवान् नामक देव वहाँ निवास करता है, इसलिए वह महाहिमवान् वर्षधर पर्वत कहा जाता है। 1. देखें सूत्र संख्या 14 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [201 हरिवर्षक्षेत्र 66. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णते? गोयमा! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, महाहिमवन्तवासहरपन्वयस्स उत्तरेणं, पुरस्थिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चस्थिमलवणसमुद्दस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे 2 हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते / एवं (पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढें,) पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुढें। अट्ठ जोगणसहस्साइं चत्तारि अ एगवीसे जोपणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स विक्खम्भेणं। तस्स बाहा पुरथिमपच्चस्थिमेणं तेरस जोअणसहस्साई तिष्णि प्र एगसळे जोपणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणंति। तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुदं पुढा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं (लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं) लवणसमुदं पुट्ठा। तेवतरि जोपणसहस्साई णव य एगुत्तरे जोअणसए सत्तरस य एगणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च पायामेणं / तस्स घणु दाहिणणं चउरासीइं जोअणसहस्साई सोलस जोप्रणाइं चत्तारि एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं / हरिवासस्स णं भन्ते ! वासस्स केरिसए आगारभावपडोपारे पण्णते? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव' मणीहि तणेहि अ उवसोभिए एवं मणीणं तणाण य वण्णो गन्धो फासो सदो भाणिअव्वो। हरियासे णं तत्थ 2 देसे तहिं 2 बहवे खुड्डा खुड्डिआओ एवं जो सुसमाए अणुभावो सो चेव अपरिसेसो वत्तव्वोत्ति / कहि णं भन्ते ! हरिवासे वासे विप्रडावई णामं वट्टवेअद्धपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा! हरीए महाणईए पच्चस्थिमेणं, हरिकताए महाणईए पुरथिमेणं, हरियासस्स 2 बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं विप्रडावई णामं वट्टवेअद्धपव्वए पण्णत्ते / एवं जो चेव सद्दावइस्स विक्खंभच्चत्तवेहपरिक्खेवसंठाणवण्णावासो अ सो चेव विमडावइस्सवि भाणिग्रवो। णवरं अरुणो देवो, पउमाइं जाव विश्नडावइवण्णाभाई अरुणे इत्थ देवे महिड्डीए एवं जाव' दाहिणणं रायहाणी अध्या / से केणठेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ-हरियासे हरियासे ? गोयमा! हरिवासे णं वासे मणुआ अरुणा, अरुणाभासा, सेआ णं संखदलसण्णिकासा। हरियासे अ इत्थ देवे महिड्डिए जाव पलिओवमट्टिईए परिवसइ, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ / MEE] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हरिवर्ष नामक क्षेत्र कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हरिवर्ष नामक 1. देखें मूत्र संख्या 6 2. देखें गूत्र संख्या 14 3. देखें सूत्र संख्या 14 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2.2] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसून क्षेत्र बतलाया गया है। वह (अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है तथा) पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। उसका विस्तार 84210 योजन है / ____ उसकी बाहा पूर्व-पश्चिम 133616 लम्बी है। उत्तर में उसकी जीवा है, जो पूर्व-पश्चिम लम्बी है। वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करती है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है (तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है) / वह 73601 "योजन लम्बी है। भगवन् ! हरिवर्षक्षेत्र का आकार, भाव, प्रत्यवतार कैसा है ? गौतम ! उसमें अत्यन्त समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। वह मणियों तथा तृणों से सुशोभित है / मणियों एवं तृणों के वर्ण, गन्ध, स्पर्श और शब्द पूर्व वणित के अनुरूप हैं / हरिवर्षक्षेत्र में जहाँ तहाँ छोटी-छोटी वापिकाएँ, पुष्करिणियां आदि हैं। अवसर्पिणी काल के सुषमा नामक द्वितीय प्रारक का वहाँ प्रभाव है-वहाँ तदनुरूप स्थिति है / अवशेष वक्तव्यता पूर्ववत् है / भगवन् ! हरिवर्षक्षेत्र में विकटापाती नामक वृत्त वैताढय पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? / गौतम ! हरि या हरिसलिला नामक महानदी के पश्चिम में, हरिकान्ता महानदी के पूर्व में, हरिवर्ष क्षेत्र के बीचों-बीच विकटापाती नामक वृत्त वैताढय पर्वत बतलाया गया है। विकटापाती वृत्त वैताढय की चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई, परिधि, आकार वैसा ही है, जैसा शब्दापाती का है / इतना अन्तर है-वहाँ अरुण नामक देव है / वहाँ विद्यमान कमल आदि के वर्ण, आभा, प्राकार आदि विकटापाती वृत्त वैताढ्य पर्वत के-से हैं। वहाँ परम ऋद्धिशाली अरुण नामक देव निवास करता है / दक्षिण में उसकी राजधानी है। भगवन् ! हरिवर्षक्षेत्र नाम किस कारण पड़ा ? गौतम ! हरिवर्षक्षेत्र में मनुष्य रक्तवर्णयुक्त हैं, रक्तप्रभायुक्त हैं कतिपय शंख-खण्ड के सदृश श्वेत हैं / श्वेतप्रभायुक्त है। वहाँ परम ऋद्धिशाली, पल्योपमस्थितिक-एक पल्योपम आयुष्य वाला हरिवर्ष नामक देव निवास करता है। गौतम ! इस कारण वह क्षेत्र हरिवर्ष कहलाता है / विवेचन-हरि शब्द के अनेक अर्थों में एक अर्थ सूर्य तथा एक अर्थ चन्द्र भी है / वृत्तिकार के अनुसार वहाँ कतिपय मनुष्य उदित होते अरुणाभायुक्त सूर्य के सदृश अरुणवर्णयुक्त एवं अरुणप्राभायुक्त हैं / कतिपय मनुष्य चन्द्र के समान श्वेत- उज्ज्वल वर्णयुक्त, श्वेतप्राभायुक्त हैं। निषध वर्षधर पर्वत 100. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे 2 णिसहे णाम बासहरपव्वए पणते ? गोयमा! महाविदेहस्स वासस्स दक्षिणेणं, हरिवासस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चस्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपव्यए पण्णत्ते / पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणविस्थिण्णे। दुहा लवणसमुदं पुठे, पुरथिमिल्लाए (कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुह) पुठे, पच्चस्थिमिल्लाए (कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं) पुठे। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार [20 // चत्तारि जोयणसयाई उद्ध उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउअसयाइं उन्हेणं, सोलस जोअणसहस्साइं अट्ट य बायाले जोअणसए दोणि य एगणवीसइभाए जोअणस्स विक्खम्भेणं / तस्स बाहा पुरथिमपच्चत्थिमेणं वीसं जोअणसहस्साइं एगं च पण्णदें जोअणसयं दुण्णि अ एगणवीसइभाए जोअणस्स अद्धभागं च पायामेणं / तस्स जीवा उत्तरेणं (पाईणपडीणायया, दुहओ लवणसमुदं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा) चउणवइ जोअणसहस्साई एगं च छप्पण्णं जोअणसयं दुण्णि अ एगणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणंति / तस्स घणु दाहिणणं एगं जोअणसयसहस्सं चउवीसं च जोगुणसहस्साइं तिणि अ छायाले जोअणसए णव य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणंति / रुप्रगसंठाणसंठिए, सव्वतवणिज्जमए, अच्छे / उभओ पासिं दोहि पउमवरवेइआहि दोहि अ वणसंहि (सव्वओ समंता) संपरिक्खित्ते। णिसहस्स णं वासहरपब्वयस्स उम्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव' आसयंति, सयंति / तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं महं एगे तिगिछिद्दहे णाम दहे पण्णते। पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, चत्तारि जोअणसहस्साई प्रआयामेणं, दो जोप्रणहस्साई विक्खंभेणं, दस जोअणाई उन्वेहेणं, अच्छे सण्हे रययामयकूले। तस्स णं तिगिच्छिद्दहस्स चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता। एवं जाव पायामविक्खम्भविहूणा जा चेव महापउमद्दहस्स वत्तव्वया सा चेव तिगिछिद्दहस्सवि वत्तव्वया, तं चेव पउमद्दहप्पमाणं जाव तिगिछिवण्णाई, धिई अ इत्थ देवी पलिग्रोवमट्टिईमा परिक्सइ से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ तिगिछिद्दहे तिगिछिद्दहे। [100] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत निषध नामक वर्षधर पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! महाविदेहक्षेत्र के दक्षिण में, हरिवर्षक्षेत्र के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत निषध नामक वर्षधर पर्वत बतलाया गया है / वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। वह दो ओर लवणसमुद्र का स्पर्श करता है / वह अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है / वह 400 योजन ऊँचा है, 400 कोस जमीन में गहरा है। वह 16842 र योजन चौड़ा है / उसकी बाहा-पार्श्व-भुजा पूर्व-पश्चिम में 20165 3 // योजन लम्बी है। उत्तर में उसकी जीवा (पूर्व-पश्चिम लम्बी है। वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करती है / अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है, पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है।) 641561 योजन लम्बाई लिये है / दक्षिण की ओर स्थित उसके धनुपृष्ठ की परिधि 124346 // योजन है। उसका रुचक-स्वर्णाभरणविशेष के आकार जैसा आकार है। वह सम्पूर्णतः तपनीय स्वर्णमय है, स्वच्छ है / वह दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों द्वारा सब ओर से घिरा है। 1. देखें सूत्र संख्या 12 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] जम्मूद्वीपप्रज्ञप्तिसून निषध वर्षधर पर्वत के ऊपर एक बहुत समतल तथा सुन्दर भूमिभाग है, जहां देव-देवियाँ निवास करते हैं। उस बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग के ठीक बीच में एक तिगिंछद्रह (पुष्परजोद्रह) नामक द्रह है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है, उत्तर-दक्षिण चौड़ा है / वह 4000 योजन लम्बा 2000 योजन चौड़ा तथा 10 योजन जमीन में गहरा है। वह स्वच्छ, स्निग्ध-चिकना तथा रजतमय तटयुक्त है। उस तिगिछद्रह के चारों ओर तीन-तीन सीढ़ियां बनी हैं। लम्बाई, चौड़ाई के अतिरिक्त उस (तिगिछद्रह) का सारा वर्णन पद्मद्रह के समान है। परम ऋद्धिशालिनी, एक पल्योपम के आयुष्य वाली धृति नामक देवी वहाँ निवास करती है। उसमें विद्यमान कमल आदि के वर्ण, प्रभा अादि तिगिच्छ-परिमल-पुष्परज के सदृश हैं / अतएव वह तिगिछद्रह कहलाता है। 101. तस्स णं तिगिछिद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं हरिमहाणई पवढा समाणी सत्त जोप्रणसहस्साई चत्तारि अ एकवीसे जोअणसए एगं च एगणवीसइभागं जोअणस्स दाहिणाभिमुही पध्वएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं (मुत्तावलिहारसंठिएणं) साइरेगचउजोअणसइएणं पवाएणं पपडइ / एवं जा चेव हरिकन्ताए वत्तम्वया सा चेव हरीएवि णेप्रध्वा / जिभिआए, कुडस्स, दोवस्स, भवणस्स तं चेव पमाणं अट्ठोऽवि भाणिअन्वो जाव अहे जगई दालइत्ता छप्पण्णाए सलिला. सहस्सेहि समग्गा पुरस्थिमं लवणसमुई समप्पेइ / तं चेव पवहे अमुहमूले अपमाणं उन्वेहो अजो हरिकन्ताए जाव वणसंडसंपरिक्खित्ता। तस्स णं तिगिछिद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सोनोआ महाणई पवढा समाणी सत्त जोश्रणसहस्साई चसारि अ एगवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं जाव' साइरेगचउजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ / सीमोना णं महाणई जओ पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिम्भिमा पण्णत्ता। चत्तारि जोप्रणाई प्रायामेणं, पण्णासं जोअणाई विक्खंभेणं, जोअणं बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिया, सव्ववइरामई अच्छा। सीओमा णं महाणई जहि पवडइ एस्थ णं महं एगे सोप्रोअप्पवायकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते / चत्तारि असीए जोअणसए आयामविक्खंभेणं, पण्णरसअट्ठारे जोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, अच्छे एवं कुडवत्तम्वया नव्या जाव तोरणा। तस्स णं सीओअप्पवायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ णं महं एगे सीओअदीवे णामं दीये पण्णत्ते / चउटुिं जोअणाई आयामविक्खंभेणं, दोणि विउत्तरे जोमणसए परिक्खेवेणं, दो कोसे ऊसिए जलंतानो, सव्ववइरामए, अच्छे / सेसं तमेव वेइयावणसंडभूमिभागभवणसयणिज्जअट्ठो भाणिअव्वो। तस्स णं सीओअप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओग्रा महाणई पवढा समाणी देवकुरु एज्जेमाणा 2 चित्तविचित्तकूडे, पवए, निसढदेवकुरुसूरसुलसविज्जुप्पभदहे अ दुहा विभयमाणी 2 चउरासीए सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी 2 भद्दसालवणं एज्जेमाणी 2 मंदरं पव्वयं दोहिं जोअहिं 1. देखें सूत्र संख्या 12 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार [205 असंपत्ता पच्चत्थिमाभिमुही पावत्ता समाणी अहे विज्जुप्पभं वक्खारपब्वयं दारइत्ता मन्दरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं अवर विदेहं वासं दुहा विभयमाणी 2 एगमेगाओ चक्कवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए 2 सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी 2 पञ्चहि सलिलासयसहस्सेहि दुतीसाए असलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जयंतस्स दारस्स जगई दालइत्ता पच्चस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेति / सोपोआ णं महाणई पवहे पण्णासं जोअणाई विक्खंभेणं, जोधणं उन्हेणं / तयणंतरं च णं मायाए 2 परिवद्धमाणी 2 मुहमूले पञ्च जोअणसयाई विक्खंभेणं, दस जोपणाई उम्वेहेणं / उभो पासिं दोहि पउमवरवेइआहिं दोहि अवणसंहिं संपरिक्खिता। णिसढे णं भन्ते ! वासहरपब्वए णं कति कूडा पण्णता? गोयमा ! णव कूडा पण्णता, तं जहा–१. सिद्धाययणकडे, 2. णिसढकडे, 3. हरिवासकडे, 4. पुब्वविदेहकडे, 5. हरिकुडे, 6. धिईकूडे, 7. सीओआफूडे, 8. अवरविदेहकूडे, 6. रुअगाडे / जो चेव चुल्लहिमवंतकूडाणं उच्चत्त-विक्खम्भ-परिक्खेवो पुव्ववण्णिओ रायहाणी अ सा चेव इहं णि अव्वा। से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ णिसहे बासहरपन्वर 2 ? गोयमा! णिसहे णं वासहरपब्बए बहवे कूडा णिसहसंठाणसंठिआ उसभसंठाणसंठिया, णिसहे अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव' पलिप्रोवमट्टिईए परिवसइ, से तेणठेणं गोयमा! एवं बुच्चा णिसहे वासहरपव्वए 2 / [101] उस तिगिछद्रह के दक्षिणी तोरण से हरि (हरिसलिला) नामक महानदी निकलती है / वह दक्षिण में उस पर्वत पर 74210 योजन बहती है। घड़े के मूह से निकलते पानी की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वह वेगपूर्वक (मोतियों से बने हार के आकार में) प्रपात में गिरती है / उस समय उसका प्रवाह ऊपर से नीचे तक कुछ अधिक चार सौ योजन का होता है। शेष वर्णन जैसा हरिकान्ता महानदी का है, वैसा ही इसका समझना चाहिए। इसकी जिहिका, कुण्ड, द्वीप एवं भवन का वर्णन, प्रमाण उसी जैसा है। नीचे जम्बूद्वीप की जगती को दीर्ण कर वह आगे बढ़ती है। 56000 नदियों से प्रापूर्ण वह महानदी पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है। उसके प्रवह-उद्गम-स्थान, मुख-मूल-समुद्र से संगम तथा उद्वेध-गहराई का वैसा ही प्रमाण है, जैसा हरिकान्ता महानदी का है। हरिकान्ता महानदी की ज्यों वह पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड से घिरी हुई है। तिगिछद्रह के उत्तरी तोरण से शीतोदा नामक महानदी निकलती है। वह उत्तर में उस पर्वत पर 7421 र योजन बहती है। घड़े के मुंह से निकलते जल की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक वह प्रपात में गिरती है। तब ऊपर से नीचे तक उसका प्रवाह कुछ अधिक 400 योजन होता है / शीतोदा महानदी जहाँ से गिरती है, वहाँ एक विशाल जितिका-प्रणालिका है। वह चार योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी तथा एक योजन मोटी है। उसका प्राकार मगरमच्छ के खले हुए मुख के आकार जैसा है। वह संपूर्णतः वज्ररत्नमय है, स्वच्छ है / 1. देखें सूत्र संख्या 14 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र ____शीतोदा महानदी जिस कुण्ड में गिरती है, उसका नाम शीतोदाप्रपातकुण्ड है। वह विशाल है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई 480 योजन है। उसकी परिधि कुछ कम 1518 योजन है / वह निर्मल है। तोरणपर्यन्त उस कुण्ड का वर्णन पूर्ववत् है। शीतोदाप्रपातकुण्ड के बीचों-बीच शीतोदाद्वीप नामक विशाल द्वीप है। उसकी लम्बाईचौड़ाई 64 योजन है, परिधि 202 योजन है। वह जल के ऊपर दो कोस ऊँचा उठा है। वह सर्ववज्ररत्नमय है, स्वच्छ है / पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, भूमिभाग, भवन, शयनीय आदि बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। उस शीतोदाप्रपातकुण्ड के उत्तरी तोरण से शीतोदा महानदी आगे निकलती है / देवकुरुक्षेत्र में आगे बढ़ती है। चित्र-विचित्र-वैविध्यमय कूटों, पर्वतों, निषध, देवकुरु, सूर, सुलस एवं विद्युत्प्रभ नामक द्रहों को विभक्त करती हुई जाती है। उस बीच उसमें 84000 नदियाँ पा मिलती हैं / वह भद्रशाल वन की ओर आगे जाती है। जब मन्दर पर्वत दो योजन दूर रह जाता है, तब वह पश्चिम की ओर मुड़ती है। नीचे विद्युत्प्रभ नामक वक्षस्कार पर्वत को भेद कर मन्दर पर्वत के पश्चिम में अपर विदेहक्षेत्र-पश्चिम विदेहक्षेत्र को दो भागों में विभक्त करती हुई बहती है। उस बीच उसमें 16 चक्रवर्ती विजयों में से एक-एक से अट्राईस-प्रदाईस हजार नदियाँ ग्रा मिलती हैं। इस प्रकार 448000 ये तथा 84000 पहले की कुल 532000 नदियों से आपूर्ण वह शीतोदा महानदी नीचे जम्बूद्वीप के पश्चिम दिग्वी जयन्त द्वार की जगती को दीर्ण कर पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती है। शीतोदा महानदी अपने उद्गम-स्थान में पचास योजन चौड़ी है। वहाँ वह एक योजन गहरी है। तत्पश्चात् वह मात्रा में प्रमाण में क्रमश: बढ़ती-बढ़ती जब समुद्र में मिलती है, तब वह 500 योजन चौड़ी हो जाती है। वह अपने दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों द्वारा परिवृत है। भगवन् ! निषध वर्षधर पर्वत के कितने कूट बतलाये गये हैं ? / गौतम ! उसके नौ कूट बतलाये गये हैं--१. सिद्धायतनकूट, 2. निषधकट, 3. हरिवर्षकूट, 4. पूर्वविदेहकूट, 5. हरिकूट, 6. धृतिकूट, 7. शीतोदाकूट, 8. अपरविदेहकूट तथा 6. रुचककूट / चुल्ल हिमवान् पर्वत के कूटों की ऊँचाई, चौड़ाई, परिधि, राजधानी आदि का जो वर्णन पहले आया है, वैसा ही इनका है। भगवन् ! वह निषध वर्षधर पर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के बहुत से कूट निषध के-वृषभ के आकार के सदृश हैं / उस पर परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्ययुक्त निषध नामक देव निवास करता है। इसलिए वह निषध वर्षधर पर्वत कहा जाता है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [2070 महाविदेहक्षेत्र 102. कहि णं भंते ! जंबहीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते ? / गोयमा! भीलवन्तस्स वासहरपन्वयस्स दक्खिणेणं, णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दोवे 2 महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते। पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, पलिअंकसंठाणसंठिए / दुहा लवणसमुदं पुढे (पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं) पुढे पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्ल (लवणसमुई) पुळे, तित्तीसं जोअणसहस्साइं छच्च चुलसीए जोनणसए चत्तारि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्खंभेणंति / तस्स बाहा पुरथिमपच्चस्थिमेणं तेत्तीसं जोअणसहस्साई सत्त य सत्तसळे जोपणसए सत्त य एगणवीसइभाए जोअणस्स पायामेणंति / तस्स जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईणपडीणायया। दुहा लवणसमुदं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं (लवणसमुई) पुट्ठा एवं पच्चस्थिमिल्लाए (कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुह) पुट्ठा, एग जोयणसयसहस्सं आयामेणंति / तस्स धणु उभओ पासि उत्तरदाहिणणं एगं जोअणसयसहस्सं अट्ठावणं जोअणसहस्साई एगं च तेरसुत्तरं जोअणसयं सोलस य एगणवीसहभागे जोअणस्स किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणंति / महाविदेहे गं वासे चउरिवहे चउप्पडोसारे पण्णत्ते, तं जहा-१. पुवविदेहे, 2. अवर विदेहे, 3. देवकुरा, 4. उत्तरकुरा। महाविदेहस्स गं भंते ! वासस्स केरिसए आगारभावपडोसारे पण्णते? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव' कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहि चेव / महाविदेहे णं भंते ! वासे मणुप्राणं केरिसए पायारभावपडोमारे पण्णते ? तेसि णं मणुप्राणं छविहे संधयणे, छबिहे संठाणे, पञ्चधणुसयाई उद्धच उच्चत्तेणं, जहणणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुवकोडीआउअं पालेन्ति, पालेत्ता अप्पेगइश्रा णिरयगामी, (अप्पेगहआ तिरियगामी, अप्पेगइआ मणुयगामी, अप्पेगइआ देवगामी,) अप्पेगइआ सिझंति, (बुझंति, मुच्चंति, परिणिव्यायंति, सम्वदुक्खाणं) अंतं करेन्ति / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-महाविदेहे वासे 2 ? ___ गोयमा ! महाविदेहे गं वासे भरहेरवयहेमवयहेरण्णवयह रिवासरम्मगवासेहितो आयामविक्खंभसंठाणपरिणाहेणं वित्थिण्णतराए चेव विपुलतराए चेव महंततराए चेव सुप्पमाणतराए चेव / महाविदेहा य इत्थ मणूसा परिवसंति, महाविदेहे अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव पलिनोवमट्टिइए परिवसइ / से तेणछैणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-महाविदेहे वासे 2 / / अदुत्तरं च णं गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जंण कयाइ णासि३। 1. देखें सूत्र संख्या 41 2. देखें सूत्र संख्या 14 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] जिम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र _ [102] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह नामक क्षेत्र कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह नामक क्षेत्र बतलाया गया है। वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है, पलंग के आकार के समान संस्थित है। वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। (अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है तथा) पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है / उसकी चौड़ाई 33684 3 योजन है। __उसकी बाहा पूर्व-पश्चिम 33767 प योजन लम्बी है। उसके बीचों-बीच उसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है। वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करती है। अपने पूर्वी किनारे से वह पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है (तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है)। वह एक लाख योजन लम्बी है। उसका धनुपृष्ठ उत्तर-दक्षिण दोनों ओर परिधि की दष्टि से कुछ अधिक 158113 योजन है। महाविदेह क्षेत्र के चार भाग बतलाये गये हैं—१. पूर्व विदेह, 2. पश्चिम विदेह, 3. देवकुरु तथा 4. उत्तरकुरु। भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र का आकार, भाव, प्रत्यवतार किस प्रकार का है ? गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल एवं रमणीय है। वह नानाविध कृत्रिम-व्यक्तिविशेष-विरचित एवं अकृत्रिम--स्वाभाविक पंचरंगे रत्तों से, तृणों से सुशोभित है। भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यों का आकार, भाव, प्रत्यवतार किस प्रकार का है ? गौतम ! वहाँ के मनुष्य छह प्रकार के संहनन', छह प्रकार के संस्थान वाले होते हैं / वे पाँच सौ धनुष ऊँचे होते हैं। उनका आयुष्य कम से कम अन्तर्मुहूर्त तथा अधिक से अधिक एक पूर्व कोटि का होता है। अपना आयुष्य पूर्ण कर उनमें से कतिपय नरकगामी होते हैं, (कतिपय तिर्यक्योनि में जन्म लेते हैं, कतिपय मनुष्ययोनि में जन्म लेते हैं, कतिपय देव रूप में उत्पन्न होते हैं,) कतिपय सिद्ध, (बुद्ध, मुक्त, परिनिवृत्त) होते हैं, समग्र दु:खों का अन्त करते हैं / भगवन् ! वह महाविदेह क्षेत्र क्यों कहा जाता है ? गौतम ! भरतक्षेत्र, ऐरवतक्षेत्र, हैमवतक्षेत्र, हैरण्यवतक्षेत्र, हरिवर्षक्षेत्र तथा रम्यकक्षेत्र की अपेक्षा महाविदेहक्षेत्र लम्बाई, चौड़ाई, आकार एवं परिधि में विस्तीर्णतर–अति विस्तीर्ण, विपुलतर-अति विपुल, महत्तर-अति विशाल तथा सुप्रमाणतर-अति वृहत् प्रमाणयुक्त है। महाविदेह-अति महान्-विशाल देहयुक्त मनुष्य उसमें निवास करते हैं। परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्य वाला महाविदेह नामक देव उसमें निवास करता है। गौतम! इस कारण वह महाविदेह क्षेत्र कहा जाता है / --- - - - - 1. 1. वचऋषभनाराच, 2. ऋषभनाराच, 3. नाराच, 4. अर्धनाराच, 5. कीलक तथा 6. सेवातं / / 2. 1. समचतुरस्र, 2. म्यग्रोधपरिमंडल, 3. स्वाति, 4. वामन, 5. कुब्ज तथा 6. हुंड / Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [209 - इसके अतिरिक्त गौतम ! महाविदेह नाम शाश्वत बतलाया है, जो न कभी नष्ट हुया है, न कभी नष्ट होगा। गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत 103. कहि णं भन्ते महाविदेहवासे गन्धमायणे णामं वक्खारपब्वए पण्णते? गोयमा! णीलवन्तस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणणं, मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं, गंधिलावइस्स विजयस्स पुरच्छिमेणं, उत्तरकुराए पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे गन्धमायणे णामं वक्खारपन्वए पण्णते। __ उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविस्थिण्णे। तीसं जोअणसहस्साई दुण्णि अ णउत्तरे जोधण-सए छच्च य एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं। णीलवंतवासहरपव्ययंतेणं चत्तारि जोधणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउअसयाइं उन्वेहेणं, पञ्च जोअणसयाई विक्खंभेणं / तयणंतरं च णं मायाए 2 उस्सेहुव्वेहपरिवद्धीए परिवद्धमाणे 2, विक्खंभपरिहाणीए परिहायमाणे 2 मंदरपव्वयंतेणं पञ्च जोअणसयाइं उद्धं उच्चत्तेणं, पञ्च गाउअसयाई उच्वेहेणं, अंगुलस्स असंखिज्जइभागं विक्खंभेणं पण्णत्ते / गयदन्तसंठाणसंठिए, सव्वरयणामए, अच्छे / उभनो पासि दोहिं पउमवरवेइनाहिं दोहिम वणसंडेहिं सवओ समन्ता संपरिक्खित्ते / गन्धमायणस्स णं वक्खारपव्वयस्स उप बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे। (तासि णं आभियोगसेढोणं तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे देवा य देवीओ अ) आसयंति / गन्धमायणे णं वक्खारपब्वए कति कडा पण्णता? गोयमा ! सत्ता कडा, तं जहा-१. सिद्धाययणकूडे, 2. गन्धमायणकूडे, 3. गंधिलावईकडे, 4. उत्तरकुरुकडे, 5. फलिहकूडे, 6. लोहियक्खकूडे, 7. आणंदकूडे / / कहिणं भन्ते ! गंधमायणे वक्खारपन्चए सिद्धाययणकडे णाम कडे पण्णते? गोयमा ! मंदरस्स पनवयस्स उत्तरपच्चस्थिमेणं, गंधमायणकूडस्स दाहिणपुरत्यिमेणं, एस्थ णं गंधमायणे वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं फूडे पण्णत्ते। जं चेव चुल्ल हिमवन्ते सिद्धाययणकूडस्स पमाणं तं चेव एएसि सब्वेसि भाणिअव्वं / एवं चेव विदिसाहि तिणि कुडा भाणिअव्वा / चउत्थे तइअस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं पञ्चमस्स दाहिणेणं, सेसा उ उत्तरदाहिणेणं / फलिहलोहिअक्खेसु भोगकरभोगवईओ देवयानो सेसेसु सरिसणामया देवा। छसु वि पसायवडेंसगा रायहाणीओ विदिसासु। से केणठेणं भन्ते ! एवं बुच्चद गंधमायणे वक्खारपम्वए 2 ? गोयमा ! गंधमायणस्स णं वक्खारपव्वयस्स गंधे से जहाणामए कोटपुडाण वा (तयरपुडाण) पोसिज्जमाणाण वा उक्किरिज्जमाणाण वा विकिरिज्जमाणाण वा परिभुज्जमाणाण वा (संहिज्जमाणाण वा) ओराला मणुण्णा (मणामा) गंधा अभिणिस्सबन्ति, भवे एयारूवे ? णो इणठे समठे, गंधमायणस्स णं इतो इतराए (कंततराए, पियतराए, मणुष्णतराए, मणामताए, Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र मणाभिरामतराए) गंधे पण्णत्ते। से एएणट्ठणं गोयमा! एवं वुच्चइ गंधमायणे वक्खार-पव्वए 2 / गंधमायणे अ इत्थ देवे महिड्डीए परिवसइ, अदुत्तरं च णं सासए णामधिज्जे इति / [103] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में गन्धमादन नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, मन्दर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में---वायव्य कोण में, गन्धिलावती विजय के पूर्व में तथा उत्तर कुरु के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत गन्धमादन नामक वक्षस्कार पर्वत बतलाया गया है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा और पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। उसकी लम्बाई 30206 योजन है। वह नीलवान् वर्षधर पर्वत के पास 400 योजन ऊँचा है, 400 कोश जमीन में गहरा है, 500 योजन चौड़ा है। उसके अनन्तर क्रमशः उसकी ऊँचाई तथा गहराई बढ़ती जाती है, चौड़ाई घटती जाती है। यों वह मन्दर पर्वत के पास 500 योजन ऊँचा हो जाता है, 500 कोश गहरा हो जाता है / उसकी चौड़ाई अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी रह जाती है। उसका आकार हाथी के दाँत जैसा है / वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है / वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं द्वारा तथा दो वनखण्डों द्वारा घिरा हुआ है। गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत के ऊपर बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है। उसकी चोटियों पर जहाँ तहाँ अनेक देव-देवियाँ निवास करते हैं। भगवन् ! गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत के कितने कूट बतलाये गये हैं ? गौतम ! उसके सात कूट बतलाये गये हैं-१. सिद्धायतन कूट, 2. गन्धमादन कुट, 3. गन्धिलावती कूट, 4. उत्तरकुरु कूट, 5. स्फटिक कूट, 6. लोहिताक्ष कूट तथा 7. प्रानन्द कूट / भगवन् ! गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतन कूट कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! मन्दर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में, गन्धमादन कूट के दक्षिण-पूर्व में गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतन कूट बतलाया गया है। चुल्ल हिमवान् पर्वत पर सिद्धायतन कूट का जो प्रमाण है, वही इन सब कूटों का प्रमाण है। तीन कूट विदिशाओं में--सिद्धायतन कूट मन्दर पर्वत के वायव्य कोण में,-गन्धमादन कुट सिद्धायतन कूट के वायव्य कोण में तथा गन्धिलावती कूट गन्धमादन कूट के वायव्य कोण में है। चौथा उत्तरकुरु कूट तीसरे गन्धिलावती कूट के वायव्य कोण में तथा पाँचवें स्फटिक कूट के दक्षिण में है। इनके सिवाय बाकी के तीन-स्फटिक कूट, लोहिताक्ष कूट एवं प्रानन्द कूट उत्तर-दक्षिणश्रेणियों में अवस्थित हैं अर्थात् पाँचवाँ कूट चौथे कूट के उत्तर में छठे कूट के दक्षिण में, छठा कूट पाँचवें कूट के उत्तर में सातवें कूट के दक्षिण में तथा सातवाँ कूट छठे कूट के उत्तर में है, स्वयं दक्षिण में है। स्फटिक कुट तथा लोहिताक्ष कूट पर भोगंकरा एवं भोगवती नामक दो दिक्कुमारिकाएँ निवास करती हैं। बाकी के कूटों पर तत्सदृश-कूटानुरूप नाम वाले देव निवास करते हैं / उन कटों पर तदधिष्ठातृ-देवों के उत्तम प्रासाद हैं, विदिशाओं में राजधानियाँ हैं / ता Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार [211 भगवन् ! गन्धमादन वक्षस्कारपर्वत का यह नाम किस प्रकार पड़ा ? गौतम ! पीसे हुए, कूटे हुए, बिखेरे हुए, (एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डाले हुए, उंडेले हुए) कोष्ठ (एवं तगर) से निकलने वाली सुगन्ध के सदृश उत्तम, मनोज्ञ, (मनोरम) सुगन्ध गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत से निकलती रहती है। भगवन् ! क्या वह सुगन्ध ठीक वैसी है ? गोतम ! तत्वत: वैसी नहीं है। गन्धमादन से जो सुगन्ध निकलती है, वह उससे इष्टतरअधिक इष्ट (अधिक कान्त, अधिक प्रिय, अधिक मनोज्ञ, अधिक मनस्तुष्टिकर एवं अधिक मनोरम) है। वहाँ गन्धमादन नामक परम ऋद्धिशाली देव निवास करता है। इसलिए वह गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है / अथवा उसका यह नाम शाश्वत है। उत्तर कुरु 104. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता ? गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, गोलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, गन्धमायणस्स वश्वारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं, मालवन्तस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चस्थिमेणं एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता / पाईणपडीणायया, उदीणदाहिणवित्थिण्णा, अद्धचंदसंठाणसंठिया / इक्कारस जोमणसहस्साई अट्ठ य बायाले जोअणसए दोग्णि अ एगूणवीसहभाए जोअणस्स विक्खम्भेणंति / .. तोसे जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा वखारपवयं पुट्ठा, तंजहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्ठा एवं पच्चथिमिल्लाए (कोडीए) पच्चस्थिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्ठा, तेवणं जोअणसहस्साई प्रायामेणंति / तीसे णं धणु दाहिणणं सर्दुि जोअणसहस्साई चत्तारि प्र अट्ठारसे जोअणसए दुवालस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवणं / उत्तरकुराए णं भन्ते ! कुराए केरिसए आयारभावपडोबारे पण्णत्ते ? ... गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं पुत्ववण्णिा जा चेव सुसमसुसमावत्तव्वया सा चेव अव्वा जाव 1. पउमगंधा, 2. मिअगंधा, 3. अममा, 4. सहा, 5. तेतली, 6. सणिचारी। [104] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में उत्तरकुरु नामक क्षेत्र कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! मन्दर पर्वत के उत्तर में, नीलवान् वर्षधरपर्वत के दक्षिण में, गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में तथा माल्यवान् वक्षस्कारपर्वत के पश्चिम में उत्तरकुरु नामक क्षेत्र बतलाया गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है, उत्तर-दक्षिण चौड़ा है, अर्ध चन्द्र के आकार में विद्यमान है / वह 11842 प योजन चौड़ा है। .... उत्तर में उसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है। वह दो तरफ से वक्षस्कार पर्वत का स्पर्श करती है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी वक्षस्कारपर्वत का स्पर्श करती है, पश्चिमी किनारे से पश्चिमी वक्षस्कार पर्वत का स्पर्श करती है। वह 53000 योजन लम्बी है। दक्षिण में उसके धनुपृष्ठ की परिधि 60418 र योजन है / Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र भगवन् ! उत्तर कुरुक्षेत्र का प्राकार, भाव, प्रत्यवतार कैसा है ? गौतम ! वहाँ बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है। पूर्व प्रतिपादित सषमसुषमा-सम्बन्धी वक्तव्यता-वर्णन के अनुरूप है-वैसी ही स्थिति उसकी है। वहाँ के मनुष्य पद्मगन्ध-कमल-सदृश सुगन्धयुक्त, मृगगन्ध-कस्तूरी-मृग सदृश सुगन्धयुक्त, अमम-ममता रहित, सह-कार्यक्षम, तेतली--विशिष्ट पुण्यशाली तथा शनैश्चारी--मन्दगतियुक्तधीरे-धीरे चलने वाले होते हैं। यमक पर्वत 105. कहि णं भन्ते ! उत्तरकुराए जमगाणामं दुवे पव्वया पण्णत्ता ? __ गोयमा ! गीलवंतस्स वासहरपब्वयस्स दक्खिणिल्लानो चरिमन्ताओ अट्ठजोअणसए चोत्तीसे चत्तारि अ सत्तभाए जोषणस्स अबाहाए सीआए महाणईए उभओ कूले एत्थ णं जमगाणामं दुवे पव्वया पण्णता / जोअणसहस्सं उड्ढे उच्चत्तेणं, अड्डाइज्जाई जोअणसयाई उन्हेणं, मूले एग जोअणसहस्सं आयामविक्खम्भेणं, माझे अट्ठमाणि जोअणसयाई आयामविक्खम्भेणं, उरि पंच जोमणसयाई आयामविक्लम्भेणं / मूले तिणि जोप्रणसहस्साई एगं च बावळं जोअणसयं किंचिविसेसाहिलं परिक्खेवेणं, मज्झे दो जोअणसहस्साई तिणि वावत्तरे जोअणसए किचिविसे साहिए परिक्खेवेणं, उवरि एग जोअणसहस्सं पञ्च य एकासीए जोअणसए किचिविसेसाहिए परिवखेवणं / मूले विच्छिण्णा, मज्झे संखित्ता, उप्पि तणुआ, जमगसंठाणसंठिया सव्वकणगामया, अच्छा, सोहा। पत्तेअं 2 पउमवरवेइआपरिक्खिता पत्तेनं 2 वणसंडपरिक्खित्ता / तानो णं पउमवरवेइआओ दो गाउनाई उद्धउच्चत्तेणं, पञ्च धणसयाई विक्खम्भेणं, वेडा-वणसण्डवण्णओ भाणिअन्वो। तेसि णं जमगपव्वयाणं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव' तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं दुवे पासायवडेंसगा पण्णत्ता / ते णं पासायवडेंसगा बाढि जोमणाई अद्धजोअणं च उद्ध उच्चत्तेणं, इक्कतीसं जोअणाई कोसं च आयाम-विक्खंभेणं पासायवण्णनो भाणिश्रव्वो, सीहासणा सपरिवारा (एवं पासाययंतीनो)। एत्थ णं जमगाणं देवाणं सोलसण्हं पायरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस-भद्दासणसाहस्सीनो पण्णत्तायो। से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ जमग-पव्वया 2 ? / गोयमा ! जमग-पव्वएसु णं तत्थ 2 देसे तहि तहि बहवे खुड्डाखुड्डियासु वावीसु जाव' विलपंतियासु बहवे उप्पलाइं जाव जमगवण्णाभाई, जमगा य इत्थ दुवे देवा महिडिया, ते णं तत्थ चउण्हं सामाणिन-साहस्सोणं (चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणिआणं, सत्तण्हं अणिआहिवईणं, सोलसण्हं आयरक्ख-देवसाहस्सोणं मझगए पुरापोराणाणं सुपरक्कताणं 1. देखें सूत्र संख्या 6 2. देखें सूत्र संख्या 78 3. देखें सूत्र संख्या 74 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [213 सुभाणं, कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाण-फल-वित्ति-विसेसं पच्चणुभवमाणा) भुजमाणा विहरंति, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जमग-पव्वया 2 अदुत्तरं च णं सासए णामधिज्जे जाव जमगपव्वया 2 / कहि णं भन्ते ! जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णताओ? गोयमा ! जम्बुद्दीवे दोवे मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं अण्णमि जम्बुद्दीवे 2 बारस जोअणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं जमगाणं देवाणं जमिगायो रायहाणीनो पण्णताओ। बारस जोअणसहस्साई आयामविक्खम्भेणं, सत्तत्तीसं जोअणसहस्साई णव य अडयाले जोअणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवणं / पत्तेअं 2 पायारपरिक्खित्ता / ते णं पागारा सत्तत्तीसं जोअणाई प्रद्धजोअणं च उद्ध उच्चत्तणं, मूले अद्धत्तेरसजोषणाई विक्खम्भेणं, मज्झे छ सकोसाइं जोअणाई विक्खम्भेणं, उरि तिणि सपद्धकोसाई जोप्रणाई विक्खम्भेणं, मूले विच्छिण्णा, मज्झे संखित्ता, उपि तणुपा, बाहिं बट्टा, अंतो चउरंसा, सन्वरयणामया, अच्छा / ते गं पागारा जाणामणिपञ्चवर्णोहिं कविसीसएहि उबसोहिआ, तं जहा-किण्हेहि जाव' सुक्किल्लेहि / ते णं कविसीसगा अद्धकोसं पायामेणं, देसूणं अद्धकोसं उद्ध उच्चत्तेणं, पञ्च धणुसयाई बाहल्लेणं, सम्वमणिमया, अच्छा / ___जमिगाणं रायहाणीणं एगमेगाए बाहाए पणवीसं पणवीसं दारसयं पण्णतं / तेणं दारा बाट्ठि जोगणाई अद्धजोप्रणं च उद्धं उच्चत्तेणं, इक्कतीसं जोषणाई कोसं च विक्खम्भेणं, तावइनं चेव पवेसेणं / सेआ वरकणगथूभिप्रागा एवं रायप्पसेणइज्जविमाणवत्तव्वयाए दारवण्णओ जाव अट्ठमंगलगाई ति। जमियाणं रायहाणीणं चउद्दिसि पञ्च पञ्च जोअणसए अबाहाए चत्तारि वणसण्डा पण्णता, तं जहा–१. असोगवणे, 2. सत्तिवण्णवणे, 3. चंपगवणे, 4. चूअवणे। ते णं वणसंडा साइरेगाई बारसजोअणसहस्साई आयामेणं, पञ्च जोअणसयाई विक्खंभेणं / पत्तेअं२ पागारपरिक्खित्ता किण्हा, वणसण्डवण्णो भूमीओ पासायव.सगा य भाणिअश्वा / जमिगाणं रायहाणीणं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते वण्णगोत्ति / तेसि णं बहसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्भदेसभाए एत्थ णं दुवे उवयारियालयणा पण्णत्ता। बारस जोअणसयाई आयामविक्खम्भेणं, तिणि जोअणसहस्साई सत्त य पञ्चाणउए जोअणसए परिक्खेवेणं, अद्धकोसं च बाहल्लेणं, सव्वजंबूणयामया, अच्छा। पत्तेअं पत्तेअं पउमवरवेइमापरिक्खित्ता, पत्तधे पत्तेय वणसंडवण्णो भाणिअन्वो, तिसोवाणपडिरूवगा तोरणचउद्दिसि भूमिभागा य भाणिग्रवत्ति / तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे पासायव.सए पण्णत्ते / बाढि जोप्रणाई अद्धजोप्रणं च उद्धं उच्चत्तेणं, इक्कतीसं जोअणाई कोसं च पायामविक्खम्भेणं वण्णो उल्लोमा भूमिभागा 1. देखें सूत्र संख्या 4 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र सोहासणा सपरिवारा. एवं पासायपंतीमो (एत्थ पढमा पंती ते णं पासायवेडिसगा) एक्कतीसं जोषणाई कोसं च उद्ध उच्चत्तेणं, साइरेगाई अद्धसोलसजोअणाई प्रायामविक्खम्भेणं। बिइअपासायपंती ते णं पासायवर्डेसया साइरेगाई पद्धसोलसजोषणाई उ उच्चत्तेणं, साइरेगाइं अट्ठमाइं जोषणाई प्रायामविक्खम्भेणं / तइप्रपासायपंती ते गं पासायवडेंसया साइरेगाई अद्धटुमाइं जोअणाई उ उच्चत्तेणं, साइरेगाई श्रद्ध दुजोषणाई प्रायामविक्खम्भेणं, वण्णो सीहासणा सपरिवारा। तेसि णं मूलपासायडिसयाणं उत्तरपुरथिमे दिसोभाए एत्थ णं जमगाणं देवाणं सहाओ सुहम्मानो पण्णत्तानो। अद्धतेरस जोषणाई आयामेणं, छस्सकोसाइं जोप्रणाई विक्खम्भेणं, णव जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, प्रणेगखम्भसयसण्णिविट्ठा सभावण्णओ, तासि गं समाणं सुहम्माणं तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता। ते गं दारा दो जोअणाई उद्ध उच्चत्तेणं, जोअणं विक्खम्भेणं, तावइ चेव पवेसेणं, सेना वण्णओ जाव वणमाला। तेसि णं दाराणं पुरओ पत्ते 2 तो मुहमंडवा पण्णत्ता / ते णं मुहमंडवा अखत्तेरसजोषणाई आयामेणं, छस्सकोसाइं जोअणाई विक्खम्भेणं, साइरेगाई दो जोनणाई जुद्ध उच्चत्तेणं / (तासि णं सभाणं सुहम्माणं) दारा भूमिभागा य ति। पेच्छाघरमंडवाणं तं चेव पमाणं भूमिभागो मणिपेढिप्राओत्ति, ताओ णं मणिपेढिप्राओ जोअणं पायामविक्खम्भेणं, अद्धजोप्रणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईया सोहासणा भाणिप्रवा।। - तेसि णं पैच्छाघरमंडवाणे पुरनो मणिपेढियानो पण्णताओ। तानो णं मणिपेढिमानो दो जोअणाई प्रायामविक्खम्भेणं, जोधणं बाहल्लेणं, सब्वमणिमईयो / तासि णं उप्पि पत्ते 2 तम्रो थूभा। ते णं थूभा दो जोषणाई उद्ध उच्चत्तेणं, दो जोषणाई अायामविक्खम्भेणं, सेआ संखतल जाव' अट्टमंगलया। तेसि णं थभाणं चउहिसि चत्तारि मणिपेढिाओ पग्णतायो / तानो णं मणिपेढिपात्रो जोब्रण आयामविक्खम्भेणं, अद्धजोप्रणं बाहल्लेणं, जिणपडिमाओ वत्तव्याओ। चेइअरुक्खाणे मणिपेढिओओं दो जोअणाई आयामविक्खम्भेणं, जोअणं बाहल्लेणं; चेइअ-रुक्ख-वण्णमोति। - तेसिणं चेइअ-रुक्खाणं पुरो तनो मणि-पेढिआओ पण्णत्ताओ। तामओ गं मणि-पेढिआनो जोगणं आयाम-विक्खम्भेणं, अद्धजोअणं बाहल्लेणं तासि णं उपि पत्ते 2 महिंदज्झया पण्णत्ता। ते ण अट्टमाइं जोअगाई उद्धं उच्चत्तेणं, अद्धकोसं उन्वेहेणं, प्रद्धर्कोस बाहल्लेग, वइरामयवट्ट वण्णओ वेइआवणसंडतिसोवाणतोरणा य भाणिअव्या / ::..:: तासि णं सभाणं सुहस्माणं छच्च मणोगुलिआसाहस्सोमो पण्णत्तानो, तं जहा-पुरस्थिमेणं दो साहस्सोमो पण्णलाओ, पच्चथिमेणं दो साहस्सोमो, दक्षिणेणं एगा साहस्सी, उत्तरेणं एगा। (तासु णं मोगुलिमासु बहवे सुवप्रणरुप्पमया फलगा पण्णत्ता। तेसि णं सुवण्णरुप्पमएसु फलगेसु. 1. देखें सूत्र संख्या 67 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार [215 बहवे वइरामया णागदन्तगा पण्णत्ता। तेसु णं वइरामएसु नागदन्तेसु बहवे किण्हसुत्तवग्धारिश्रमल्लदामकलावा जाव सुकिल्लसुत्तवग्धारिअमल्लदामकलावा / ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा) दामा चिट्ठतित्ति / एवं गोमाणसिआओ, गवरं धूवघडिआओत्ति। __ तासि गं सुहम्माणं सभाणं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्त / मणियेढिआ दो जोप्रणाई आयामविक्खम्भेणं, जोअगं बाहल्लेणं। तासि गं मणिपेढिआणं उपि माणवए चेइअखम्भे महिंदज्झयप्पमाणे उरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेट्ठा छक्कोसे वन्जित्ता जिणसकहानो पण्णत्ताओत्ति / माणवगस्स पुग्वेणं सोहासणा सपरिवारा, पच्चत्थिमेणं सणिज्जवण्णो / सयणिज्जाणं उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए खुड्डगहिंदज्झया, मणिपेढिआविहूणा महिंदज्मयप्पमाणा। तेसि प्रवरेणं चोष्फाला पहरणकोसा। तत्थ णं बहवे फलिहरयणपामुक्खा (बहवे पहरणरयणा सन्निक्खित्ता) चिट्ठति / सुहम्माणं उपि अट्ठमंगलगा। तासि णं उत्तरपुरस्थिमेणं सिद्धाययणा, एस चेव जिणघराणवि गमोत्ति। णवरं इमं जाणत्तं-एतेसि णं बहुमज्झदेसभाए पत्तेअं२ मणिपेढिआओ / दो जोअणाई आयामविक्खम्भेणं, जोअणं बाहल्लेणे। तासि उप्पि पत्तेअं 2 देवच्छंदया पण्णत्ता। दो जोअणाई पायामविक्खम्भेणं, साइरेगाइं दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, सव्वरयणामए। जिणपडिमा वण्णश्रो जाव धूवकडच्छुगा, एवं अक्सेसाणवि सभाणं जाव उववायसभाए, सयणिज्जं हरो अ। अभिसेअसभाए बहु आभिसेक्के भंडे, अलंकारिअसभाए बहु अलंकारिअभंडे चिट्ठइ, ववसायसभासु पुत्थयरयणा, गंदा पुक्खरिणीओ, बलिपेढा, दो जोअणाई आयामविक्खम्भेणं, जोअणं बाहल्लेणं जावत्ति उववानो संकप्पो, अभिसेअबिहूसणा य बयसाओ। अच्चणिसुधम्मगमो, जहा य परिवारणा इद्धी // 1 // जावइयंमि पमाणंमि, हुंति जमगाओ जोलवंताओ। तावइअमन्तरं खलु, जमगदहाणं दहाणं च // 2 // [105] भगवन् ! उत्तरकुरु में यमक नामक दो पर्वत कहाँ बतलाये गये हैं ? गौतम ! नीलवान् वर्षधरपर्वत के दक्षिण दिशा के अन्तिम कोने से 834 3 योजन के अन्तराल पर शीतोदा नदी के दोनों--पूर्वी, पश्चिमी तट पर यमक संज्ञक दो पर्वत बतलाये गये हैं। वे 1000 योजन ऊँचे, 250 योजन जमीन में गहरे, मूल में 1000 योजन, मध्य में 750 योजन तथा ऊपर 500 योजन लम्बे-चौड़े हैं। उनकी परिधि मूल में कुछ अधिक 3162 योजन, मध्य में कुछ अधिक 2372 योजन एवं ऊपर कुछ अधिक 1581 योजन है। वे मूल में विस्तीर्ण-चौड़े, मध्य में संक्षिप्त-संकड़े और ऊपर-चोटी पर तनुक पतले हैं। वे यमकसंस्थानसंस्थित हैं—एक साथ उत्पन्न हुए दो भाइयों के आकार के सदृश अथवा यमक नामक पक्षियों के आकार के समान हैं / वे सर्वथा स्वर्णमय, स्वच्छ एवं सुकोमल हैं। उनमें से प्रत्येक एक-एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक-एक वन-खण्ड द्वारा घिरा हुआ है। वे पद्मवरवेदिकाएँ दो-दो कोश ऊँची हैं / पाँच-पाँच सौ धनुष चौड़ी हैं / पद्मवरवेदिकाओं तथा वन-खण्डों का वर्णन पूर्ववत् है / Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र उन यमक नामक पर्वतों पर बहुत समतल एवं रमणीक भूमिभाग है। उस बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग के बीचों-बीच दो उत्तम प्रासाद हैं। वे प्रासाद 623 योजन ऊँचे हैं / 31 योजन 1 कोश लम्बे-चौड़े हैं। सम्बद्ध सामग्री युक्त सिंहासन पर्यन्त प्रासाद का वर्णन पूर्ववत् है / इन यमक देवों के 16000 आत्मरक्षक देव हैं / उनके 16000 उत्तम प्रासन-सिंहासन बतलाये गये हैं। भगवन् ! उन्हें यमक पर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! उन (यमक) पर्वतों पर जहाँ तहाँ बहुत सी छोटी-छोटी बावड़ियों, पुष्करिणियों आदि में जो अनेक उत्पल, कमल आदि खिलते हैं, उनका आकार एवं आभा यमक पर्वतों के आकार तथा आभा के सदृश हैं / वहाँ यमक नामक दो परम ऋद्धिशाली देव निवास करते हैं। उनके चार हजार सामानिक देव हैं, (चार सपरिवार अग्रमहिषियाँ ----प्रधान देवियां हैं, तीन परिषदें हैं, सात सेनाएँ हैं, सात सेनापति-देव हैं, 16000 आत्मरक्षक देव हैं। उनके बीच वे अपने पूर्व प्राचरित, आत्मपराक्रमपूर्वक सदुपाजित शुभ, कल्याणमय कर्मों का अभीष्ट सुखमय फल-भोग करते हुए विहार करते हैं--रहते हैं।) गौतम ! इस कारण वे यमक पर्वत कहलाते हैं / अथवा उनका यह नाम शाश्वत रूप में चला आ रहा है। भगवन् ! यमक देवों की यमिका नामक राजधानियाँ कहाँ हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत मन्दर पर्वत के उत्तर में अन्य जम्बूद्वीप में 12000 योजन अवगाहन करने पर जाने पर यमक देवों की यमिका नामक राजधानियाँ आती हैं। वे 12000 योजन लम्बी-चौड़ी हैं। उनकी परिधि कुछ अधिक 37648 योजन है। प्रत्येक राजधानी प्राकारपरकोटे से परिवेष्टित है—घिरी हुई है। वे प्राकार 373 योजन ऊँचे हैं। वे मूल में 123 योजन, मध्य में 6 योजन 1 कोश तथा ऊपर तीन योजन आधा कोश चौड़े हैं। वे मूल में विस्तीर्ण-चौड़े, वीच में संक्षिप्त--संकड़े तथा ऊपर तनुक-पतले हैं। वे बाहर से कोनों के अनुपलक्षित रहने के करण वृत्त-गोलाकार तथा भीतर से कोनों के उपलक्षित रहने से चौकोर प्रतीत होते हैं / वे सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं। वे नाना प्रकार के पंचरंगे रत्नों से निमित कपिशीर्षकों बन्दर के मस्तक के आकार के कंगूरों द्वारा सुशोभित हैं / वे कंगूरे प्राधा कोश ऊँचे तथा पाँच सौ धनुष मोटे हैं, सर्वरत्नमय हैं, उज्ज्व ल हैं। यमिका नामक राजधानियों के प्रत्येक पार्श्व में सवा सौ-सवा सौ द्वार हैं। वे द्वार 623 योजन ऊँचे हैं। 31 योजन 1 कोश चौड़े हैं। उनके प्रवेश-मार्ग भी उतने ही प्रमाण के हैं। उज्ज्वल, उत्तम स्वर्णमय स्तूपिका, द्वार, अष्ट मंगलक आदि से सम्बद्ध समस्त वक्तव्यता राजप्रश्नीय सूत्र में बिमान-वर्णन के अन्तर्गत आई वक्तव्यता के अनुरूप है। यमिका राजधानियों की चारों दिशाओं में पाँच-पाँच सौ योजन के व्यवधान से 1. अशोकवन, 2. सप्तपर्णवन, 3. चम्पकबन तथा 4. ग्राम्रवन-ये चार वन-खण्ड हैं। ये वन-खण्ड अधिक 12000 योजन लम्बे तथा 500 योजन चौड़े हैं। प्रत्येक वन-खण्ड प्राकार द्वारा परिवेष्टित है / वन-खण्ड, भूमि, उत्तम प्रासाद आदि पूर्व वणित के अनुरूप हैं। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसुर्य बबरमार] [217 यमिका राजधानियों में से प्रत्येक में बहुत समतल सुन्दर भूमिभाग हैं। उनका वर्णन पूर्ववत् है / उन बहुत समतल, रमणीय भूमिभागों के बीचों-बीच दो प्रासाद-पीठिकाएँ हैं। वे 1200 योजन लम्बी-चौड़ी हैं। उनकी परिधि 3795 योजन है। वे प्राधा कोश मोटी हैं। बे सम्पूर्णतः उत्तम जम्बूनद जातीय स्वर्णमय हैं, उज्ज्वल हैं। उनमें से प्रत्येक एक-एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक-एक वन-खण्ड द्वारा परिवेष्टित है। वन-खण्ड, त्रिसोपानक, चारों दिशाओं में चार तोरण, भूमिभाग आदि से सम्बद्ध वर्णन पूर्ववत् है / उसके बीचों-बीच एक उत्तम प्रासाद है / वह 623 योजन ऊँचा है / वह 31 योजन 1 कोश लम्बा-चौड़ा है। उसके ऊपर के हिस्से, भूमिभाग- नीचे के हिस्से, सम्बद्ध सामग्री सहित सिंहासन, प्रासाद-पंक्तियाँ-मुख्य प्रासाद को चारों ओर से परिवेष्टित करनेवाली महलों की कतारें इत्यादि अन्यत्र वर्णित हैं, ज्ञातव्य हैं। प्रासाद-पंक्तियों में से प्रथम पंक्ति के प्रासाद 31 योजन 1 कोश ऊँचे हैं। वे कुछ अधिक 153 योजन लम्बे चौड़े हैं। ___ द्वितीय पंक्ति के प्रासाद कुछ अधिक 156 योजन ऊँचे हैं। वे कुछ अधिक 76 योजन लम्बे-चौड़े हैं। तृतीय पंक्ति के प्रासाद कुछ अधिक 72 योजन ऊँचे हैं, कुछ अधिक 32 यौजन लम्बे-चौड़े हैं / सम्बद्ध सामग्री युक्त सिंहासनपर्यन्त समस्त वर्णन पूर्ववत् है / मूल प्रासाद के उत्तर-पूर्व दिशाभाग में-ईशान कोण में यमक देवों की सुधर्मा सभाएँ बतलाई गई हैं। वे सभाएँ 123 योजन लम्बी, 6 योजन 1 कोश चौड़ी तथा 6 योजन ऊँची हैं। सैकड़ों खंभों पर अवस्थित हैं—टिकी हैं। उन सुधर्मा सभाओं की तीन दिशाओं में तीन द्वार बतलाये गये हैं / वे द्वार दो योजन ऊँचे हैं, एक योजन चौड़े हैं। उनके प्रवेश-मागों का प्रमाण-विस्तार भी उतना ही है / वनमाला पर्यन्त प्रागे का सारा वर्णन पूर्वानुरूप है। उन द्वारों में से प्रत्येक के आगे मुख-मण्डप-द्वाराग्नवर्ती मण्डप बने हैं। वे साढ़े बारह योजन लम्बे, छह योजन एक कोश चौड़े तथा कुछ अधिक दो योजन ऊँचे हैं / द्वार तथा भूमिभाग पर्यन्त अन्य समस्त वर्णन पूर्वानुरूप है / मुख-मण्डपों के आगे अवस्थित प्रेक्षागृहों-नाटयशालाओं का प्रमाण मुखमण्डपों के सदृश है। भूमिभाग, मणिपीठिका आदि पूर्व वर्णित हैं। मुख-मण्डपों में अवस्थित मणिपीठिकाएँ 1 योजन लम्बी-चौड़ी तथा प्राधा योजन मोटी हैं। वे सर्वस्था मणिमय हैं / वहाँ विद्यमान सिंहासनों का वर्णन पूर्ववत् है। प्रेक्षागह-मण्डपों के आगे जो मणिपीठिकाएँ हैं, वे दो योजन लम्बी-चौड़ी तथा एक योजन मोटी हैं। वे सम्पूर्णतः मणिमय हैं। उनमें से प्रत्येक पर तीन तीन स्तूप-स्मृति-स्तंभ बने हैं। वे स्तूप दो योजन ऊँचे हैं, दो योजन लम्बे-चौड़े हैं वे शंख की ज्यों श्वेत हैं। यहाँ आठ मांगलिक पदार्थों तक का वर्णन पूर्वानुरूप है। उन स्तूपों की चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाएँ हैं। वे मणिपीठिकाएँ एक योजन लम्बी-चौड़ी तथा प्राधा योजन मोटी हैं। वहाँ स्थित जिन-प्रतिमाओं का वर्णन पूर्वानुरूप है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] [जम्बूद्वीपप्रमप्तिसूत्र ___ वहाँ के चैत्यवृक्षों की मणिपीठिकाएँ दो योजन लम्बी-चौड़ी और एक योजन मोटी हैं / चैत्यवृक्षों का वर्णन पूर्वानुरूप है / उन चैत्यवृक्षों के आगे तीन मणिपीठिकाएँ बतलाई गई हैं। वे मणिपीठिकाएँ एक योजन लम्बी-चौड़ी तथा आधा योजन मोटी हैं। उनमें से प्रत्येक पर एक-एक महेन्द्रध्वजा है / वे ध्वजाएँ साढ़े सात योजन ऊँची हैं और आधा कोश जमीन में गहरी गड़ी हैं / वे वज्ररत्नमय हैं, वर्तुलाकार हैं। उनका तथा वेदिका, वन-खण्ड त्रिसोपान एवं तोरणों का वर्णन पूर्बानुरूप है। उन (पूर्वोक्त) सुधर्मा सभाओं में 6000 पीठिकाएँ बतलाई गई हैं। पूर्व में 2000 पीठिकाएँ पश्चिम में 2000 पीठिकाएँ, दक्षिण में 1000 पीठिकाएँ तथा उत्तर में 1000 पीठिकाएँ हैं / (उन पीठिकानों में अनेक स्वर्णमय, रजतमय फलक लगे हैं। उन स्वर्ण-रजतमय फलकों में वज्ररत्नमय अनेक खूटियाँ लगी हैं। उन वज्ररत्नमय खूटियों पर काले सूत्र में तथा सफेद सूत्र में पिरोई हुई मालाओं के समूह लटक रहे हैं / वे मालाएँ तपनीय तथा जम्बूनद जातीय स्वर्ण के सदृश देदीप्यमान हैं / वहाँ गोमानसिका-शय्या रूप स्थान-विशेष विरचित हैं। उनका वर्णन पीठिकाओं जैसा है। इतना अन्तर है-मालाओं के स्थान पर धूपदान लेने चाहिए। उन सुधर्मा सभाओं के भीतर बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग हैं। मणिपीठिकाएँ हैं / वे दो योजन लम्बी-चौड़ी हैं तथा एक योजन मोटी हैं। उन मणिपीठिकानों के ऊपर महेन्द्रध्वज के समान प्रमाणयुक्त–साढ़े सात योजन-प्रमाण माणवक नामक चैत्य-स्तंभ हैं। उनमें ऊपर के छह कोश तथा नीचे के छह कोश वजित कर बीच में-- साढ़े चार योजन के अन्तराल में जिनदंष्ट्राएँ निक्षिप्त हैं। माणवक चैत्य स्तंभ के पूर्व में विद्यमान सम्बद्ध सामग्री युक्त सिंहासन, पश्चिम में विद्यमान शयनीय-- शय्याएँ पूर्ववर्णनानुरूप हैं / शयनीयों के उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में दो छोटे महेन्द्रध्वज बतलाये गये हैं। उनका प्रमाण महेन्द्रध्वज जितना है। वे मणिपीठिकारहित हैं। यों महेन्द्रध्वज से उतने छोटे हैं। उनके पश्चिम में चोप्फाल नामक प्रहरण-कोश-आयुध-भाण्डागार-शस्त्रशाला है। वहाँ परिघ. रत्न-लोहमयी उत्तम गदा प्रादि (अनेक शस्त्ररत्न-उत्तम शस्त्र) रखे हुए हैं। उन सुधर्मा सभाओं के ऊपर आठ-आठ मांगलिक पदार्थ प्रस्थापित हैं। उनके उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में दो सिद्धायतन हैं। जिनगृह सम्बन्धी वर्णन पूर्ववत् है केवल इतना अन्तर है- इन जिन-ग्रहों के बीचों प्रत्येक में मणिपीठिका है। वे मणिपीठिकाएँ दो योजन लम्बी-चौड़ी तथा एक योजन मोटी हैं। उन मणिपीठिकाओं में से प्रत्येक पर जिनदेव के आसन हैं। वे आसन दो योजन लम्बे-चौड़े हैं, कुछ अधिक दो योजन ऊँचे हैं। वे सम्पूर्णत: रत्नमय हैं / धूपदान पर्यन्त जिन-प्रतिमा वर्णन पूर्वानुरूप है / उपपात सभा आदि शेष सभाओं का भी शयनीय एवं गृह आदि पर्यन्त पूर्वानुरूप वर्णन है। अभिषेक सभा में बहुत से अभिषेक-पात्र हैं, आलंकारिक सभा में बहुत से अलंकार-पात्र हैं, व्यवसाय-सभा में पुस्तकरत्न-उद्घाटनरूप व्यवसाय-स्थान में पुस्तक-रत्न हैं / वहाँ नन्दा पुष्करिणियाँ हैं, पूजा-पीठ हैं / वे (पूजा-पीठ) दो योजन लम्बे-चौड़े तथा एक योजन मोटे हैं / उपपात-उत्पत्ति, संकल्प-शुभ अध्यवसाय-चिन्तन, अभिषेक-इन्द्रकृत अभिषेक, विभूषणा---ग्रालंकारिक सभा में प्रलंकार-परिधान, व्यवसाय-पुस्तक-रत्न का उद्घाटन, अर्चनिका-सिद्धायतन आदि की अर्चा-पूजा, सुधर्मा सभा में गमन, परिवारणा–परिवेष्टना Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्व बमस्कार [219 तत्तद् दिशाओं में देव-परिवारस्थापना, ऋद्धि-सम्पत्ति-देव-वैभव-नियोजना प्रादि यमक देवों का वर्णन-क्रम है। नीलवान् पर्वत से यमक पर्वतों का जितना अन्तर है, उतना ही यमक-द्रहों का अन्य द्रहों से अन्तर है। नीलवान् द्रह 106. कहि णं भन्ते ! उत्तरकुराए णीलबन्तद्दहे गाम बहे पण्णत्ते ? गोयमा ! जमगाणं दक्खिणिल्लाओ चरिमन्ताओ अट्ठसए चोत्तीसे चत्तारि प्रसत्तभाए जोप्रणस्स अबाहाए सीधाए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्य णं णोलवन्तहहे णामं दहे पण्णत्ते / दाहिण-उत्तरायए, पाईण-पडीणवित्थिण्णे। जहेव पउमद्दहे तहेव वण्णओ णेअन्वो, णाणतं-दोहि पउमवरवेइब्राहिं दोहि य वणसंहिं संपरिक्खित्ते, णीलबन्ते णाम णागकुमारे देवे सेसं तं चेव णेप्रव्वं / णीलवन्तद्दहस्स पुब्वावरे पासे दस 2 जोप्रणाई अबाहाए एत्थ णं वीसं कंचणगपम्वया पण्णत्ता, एग जोयणसयं उद्धउच्चत्तेणं-- मूलंमि जोपणसयं, पण्णत्तरि जोधणाई मन्झमि / उवरितले कंचणगा, पण्णासं जोमणा हंति // 1 // मूलंमि तिणि सोले, सत्तत्तीसाइं दुण्णि मज्झमि / अट्ठावण्णं च सयं, उवरितले परिरो होइ // 2 // पढमिस्थ नीलवन्तो 1, बितिओ उत्तरकुरू 2, मुणेप्रव्यो / चंदद्दहोत्य तइनो 3, एरावय 4, मालवन्तो म 5 // 3 // एवं वण्णो अट्ठो पमाणं पलिओवमट्ठिइमा देवा। [106] भगवन् ! उत्तरकुरु में नीलवान् नामक द्रह कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! यमक पर्वतों के दक्षिणी छोर से 834 3 योजन के अन्तराल पर शीता महानदी के ठीक बीच में नीलवान नामक द्रह बतलाया गया है। वह दक्षिण-उत्तर लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है / जैसा पद्मद्रह का वर्णन है, वैसा ही उसका है / केवल इतना अन्तर है-नीलवान् द्रह दो पद्मवरवेदिकाओं द्वारा तथा दो वनखण्डों द्वारा परिवेष्टित है / वहाँ नीलवान् नामक नागकुमार देव निवास करता है / अवशेष-वर्णन पूर्वानुरूप है / नीलवान् द्रह के पूर्वी पश्चिमी पार्श्व में दश-दश योजन के अन्तराल पर बीस काञ्चनक पर्वत हैं। वे सौ योजन ऊँचे हैं। काञ्चनक पर्वतों का विस्तार मूल में सो योजन, मध्य में पचहत्तर योजन तथा ऊपर पचास योजन है / उनकी परिधि मूल में 316 योजन, मध्य में 237 योजन तथा ऊपर 158 योजन है / पहला नीलवान, दूसरा उत्तरकुरु, तीसरा चन्द्र, चौथा ऐरावत तथा पाँचवां माल्यवान---- ये पांच द्रह हैं। अन्य द्रहों का प्रमाण, वर्णन नीलवान् द्रह के सदृश ग्राह्य है। उनमें एक पल्योपम Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसून आयुष्य वाले देव निवास करते हैं। प्रथम नीलवान् द्रह में जैसा सूचित किया गया है, नागेन्द्र देव निवास करता है तथा अन्य चार में व्यन्तरेन्द्र देव निवास करते हैं / वे एक पल्योपम आयुष्य वाले हैं। जम्बूपीठ, जम्बूसुदर्शना 107. कहि णं भन्ते ! उत्तरकुराए कुराए जम्बूपेढे णामं पेढे पण्णते? ___ गोयमा ! णीलवन्तस्स वासहरपब्वयस्स दक्षिणेणं, मन्दरस्स उत्तरेणं, मालवन्तस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, सीमाए महाणईए पुरथिमिल्ले कले एत्थ णं उत्तरकुराए कुराए जम्बूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते / पञ्च जोअणसयाई प्रायाम-विक्खम्मेणं, पण्णरस एक्कासीयाइं जोअणसयाई किंचिविसेसाहिआई परिक्खेवणं, बहुमज्झदेसभाए बारस जोअणाई बाहल्लेणं / तयणन्तरं च णं मायाए 2 पदेसपरिहाणीए 2 सव्वेसु णं चरिमपेरतेसु दो दो गाउपाइं बाहल्लेणं, सव्वजम्बूणयामए अच्छे / से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सन्वनो समन्ता संपरिक्खित्ते, दुण्हपि वण्णो / तस्स णं जम्बूपेढस्स चउद्दिसि एए चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ जाव तोरणाई। तस्स णं जम्बूपेढस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ णं मणिपेढिा पण्णत्ता / अट्ठजोत्रणाई प्रायामविक्खम्भेणं, चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं / तोसे गं मणिपेढिप्राए उप्पि एत्थ णं जम्बूसुदंसणा पण्णत्ता। अट्ट जोअणाई उद्धउच्चत्तेणं, प्रद्धजोमणं उध्वेहेणं / तोसे णं खंधो दो जोअणाई उद्ध उच्चत्तेणं, अद्धजोप्रणं बाहल्लेणं। तीसे गं साला छ जोषणाई उद्ध उच्चत्तणं, बहुमझदेसभाए अट्ठ मोमणाई अायामविक्खम्भेणं, साइरेगाइं अट्ठ जोअणाई सव्वग्गेणं / / तीसे णं अयमेआरूवे वण्णावासे पण्णते-वरामया मूला, रययसुपइट्ठिअविडिमा (-विउलखंधा वेरुलियरुइलखंधा, सुजायवरजायस्वपढमगविसालसाला, णाणामणिरयणविविहसाहप्पसाहा, बेरुलियपत्ततवणिज्जपविटा, जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवंकुरधरा, विचित्तमणिरयणसुरहिकुसुमफलभारनमियसाला, सच्छाया सप्पभा सस्सिरिया सउज्जोया) अहिअमणणिव्वुइकरी पासाईमा दरिसणिज्जा / जंबूए सुदंसणाए चउदिसि चत्तारि साला पण्णत्ता। तेसि णं सालाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं सिद्धाययणे पण्णत्ते। कोसं पायामेणं, अद्धकोसं विक्खम्भेणं, देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं, अणेगखम्भसयसण्णिविठे जाव' दारा पञ्चधणुसयाई उद्ध उच्चत्तणं जाव वणमालाओ। __ मणिपेढिपा पञ्चधणुसयाई आयाम-विक्खम्भेणं, श्रद्धाइज्जाई धणुसयाइं बाहल्लेणं / तीसे णं मणिपेढिआए उप्पि देवच्छन्दए, पंचधणुसयाई प्रायाम-विक्खम्भेणं, साइरेगाइं पञ्चधणुसयाई उद्ध उच्चत्तेणं, जिणपडिमावण्णो णेअन्वोत्ति। तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले साले, एत्थ णं भवणे पण्णत्ते / कोसं पायामेणं, एवमेव गवरमित्थ सयणिज्ज / सेसेसु पासायवडेंसया सोहासणा य सपरिवारा इति / 1. देखें सत्र संख्या 68 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार [221 ___अम्बू णं बारसहि पउमवरवेइब्राहि सव्वनो समन्ता संपरिक्खित्ता, वेइमाणं बण्णो / जम्बू णं अण्णेणं अट्ठसएणं जम्बूणं तदधुच्चत्ताणं सव्वनो समन्ता संपरिक्खित्ता / तासि णं वण्णओ। तानो णं जम्बू हि पउमवरवेइआहि संपरिक्खित्ता। जम्बूए णं सुदंसणाए उत्तरपुरस्थिमेणं, उत्तरेणं, उत्तरपच्चत्थिमेणं एत्थ णं अणाढिअस्स देवस्स चउण्हं सामाणिसाहस्सीणं चत्तारि जम्बूसाहस्सीनो पण्णत्तानो। तीसे गं पुरस्थिमेणं चउण्हं अग्गमहिसीणं चत्तारि जम्बूमो पण्णत्ताओ वक्खिणपुरत्थिमे दक्खिणेण तह अवरदक्षिणेणं च / प्रट्ट दस बारसेव य भवन्ति जम्बूसहस्साई // 1 // प्रणिग्राहिवाण पच्चस्थिमेण सत्तेव होंति जम्बूनो। . सोलस साहस्सीओ चउद्दिसि आयरक्खाणं // 2 // जम्बूए णं तिहि सहएहि वणसंडेहि सव्वनो समन्ता संपरिक्खित्ता। जम्बूए णं पुरथिमेणं पण्णासं जोअणाइं पढमं वणसंडं ओगाहित्ता एत्थ णं भवणे पण्णत्ते, कोसं प्रायामेणं, सो चेव वण्णओ सयणिज्जं च, एवं सेसासुवि दिसासु भवणा। जम्बूए णं उत्तरपुरस्थिमेणं पढमं वणसण्डं पण्णासं जोषणाई प्रोगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि पुक्खरिणीमो पण्णत्ताओ, तं जहा–१, पउमा, 2, पउमप्पभा, 3, कुमुदा, 4, कुमुदप्पभा। तानो णं कोसं पायामेणं, अद्धकोसं विक्खम्भेणं, पञ्चधणुसयाई उठवेहेणं वण्णयो। तासि णं मज्झे पासायवडेंसगा कोसं पायामेणं, अद्धकोसं विक्खम्मेणं, देसूर्ण कोसं उद्ध उच्चत्तेणं, वण्णो सीहासणा सपरिवारा, एवं सेसासु विदिसासु गाहा पउमा पउमप्पभा चेव, कुमुदा कुमुदप्पहा / उप्पलगुम्मा लिणा, उप्पला उप्पलुज्जला // 1 // भिंगा भिग्गप्पभा चेव, अंजणा कज्जलप्पभा। सिरिकता सिरिमहिमा, सिरिचंदा चेव सिरिनिलया // 2 // जम्बूए णं पुरथिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायव.सगस्स दक्षिणेणं एत्थ गं कूडे पण्णत्ते। अदु जोनणाई उद्ध उच्चत्तेणं, दो जोअणाई उन्हेणं, मूले अटु जोषणाई आयामविक्खम्भेणं, बहुमज्झदेसभाए छ जोषणाई प्रायामविक्खम्भेणं, उरि चत्तारि जोषणाई आयामविक्खम्भेणं पणवीसढारस बारसेव मूले अ मज्झि उरि च / सविसेसाई परिरओ कूडस्स इमस्स बोद्धव्वो // 1 // मूले वित्थिणे, मज्झे संखित्ते, उरि तणुए, सव्वकणगामए, अच्छे, वेइआवणसंडवण्णो , एवं सेसावि कूडा इति। जम्बूए णं सुदंसणाए दुवालस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222) [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र 1. सुदंसणा, 2. अमोहा य, 3. सुप्पबुद्धा, 4. जसोहरा। 5. विदेहजम्बू, 6. सोमणसा, 7. णिश्रया, 8. णिच्चमंडिआ॥१॥ सुभद्दा य, 10 विसाला य, 11 सुजाया, 12 सुमणा वि प्रा।। सुदंसणाए जम्बूए, णामधेज्जा दुवालस // 2 // जम्बूए णं अट्ठमंगलगा। से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ-जम्बू सुदंसणा 2 ? गोयमा ! जम्बूए णं सुदंसणाए अणाढिए णाम जम्बुद्दीवाहिवई परिवसइ महिड्डीए, से णं तत्थ चउण्हं सामाणिप्रसाहस्सीणं, (चउण्हं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणिआहिवईणं सोलस-) प्रायरक्खदेवसाहस्सोणं, जम्बुद्दीवस्स पं दीवस्स, जम्बूए सुदंसणाए, अणाढिाए रायहाणीए, अण्णेसि च बहूणं देवाण य देवीण य जाव' विहरइ, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ, अदुत्तरं णं च णं गोयमा ! जम्बूसुदंसणा जाव भुवि च 3 धुवा, णिअआ, सासया, अक्खया (अव्वया) अवद्विमा। कहि णं भन्ते ! अणाढिअस्स देवस्स प्रणाढिया णाम रायहाणी पण्णत्ता ? गोयमा ! जम्बुद्दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं जं चेव पुन्ववणि जमिगापमाणं तं चेव प्रव्वं, जाव उववाश्रो अभिसेसो प्रनिरवसेसोत्ति। से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ उत्तरकुरा ? गोयमा ! उत्तरकुराए उत्तरकुरू णामं देवे परिवसइ महिड्डीए जाव' पलिप्रोवमट्टिइए, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ उत्तरकुरा 2, अदुत्तरं च णंति (धुवे, णियए) सासए। [107] भगवन् ! उत्तरकुरु में जम्बूपीठ नामक पीठ कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, मन्दर पर्वत के उत्तर में माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में एवं शीतामहानदी के पूर्वी तट पर उत्तरकुरु में जम्बूपीठ नामक पीठ बतलाया गया है। वह 500 योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि कुछ अधिक 1581 योजन है / वह पीठ बीच में बारह योजन मोटा है / फिर क्रमश: मोटाई में कम होता हुआ वह अपने आखिरी छोरों पर दो दो कोश मोटा रह जाता है। वह सम्पूर्णत: जम्बूनदजातीय स्वर्णमय है, उज्ज्वल है। वह एक पद्मवरवेदिका से तथा एक वन-खण्ड से सब ओर से संपरिवृत-घिरा है। पद्मवरवेदिका तथा वन-खण्ड का वर्णन पूर्वानुरूप है / जम्बूपीठ की चारों दिशाओं में तीन तीन सोपानपंक्तियां हैं / तोरण-पर्यन्त उनका वर्णन पूर्ववत् है। जम्बूपीठ के बीचोंबीच एक मणि-पीठिका है / वह आठ योजन लम्बी-चौड़ी है, चार योजन मोटी है / उस मणि-पीठिका के ऊपर जम्बू सुदर्शना नामक वृक्ष बतलाया गया है। वह पाठ योजन 1. देखें सूत्र संख्या 12 2. देखें सूत्र संख्या 14 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [223 ऊँचा तथा प्राधा योजन जमीन में गहरा है उसका स्कन्ध-कन्द से ऊपर शाखा का उद्गम-स्थान दो योजन ऊँचा अोर प्राधा योजग मोटा है। उसकी शाखा-दिक-प्रसृता शाखा अथवा मध्य भाग प्रभवा ऊर्ध्वगता शाखा 6 योजन ऊँची है / बीच में उसका आयाम-विस्तार आठ योजन है। यों सर्वांगतः उसका प्रायाम-विस्तार कुछ अधिक आठ योजन है। उस जम्बू वृक्ष का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है उसके मूल वज्ररत्नमय हैं, विडिमा-मध्य से ऊर्ध्व विनिर्गत-ऊपर को निकली हुई शाखा रजत-घटित है। उसका स्कन्ध विशाल. रुचिर वज्ररत्नमय है। उसकी बडी डालें उत्तमजातीय स्वर्णमय हैं / उसके अरुण, मृदुल, सुकुमार प्रवाल-अंकुरित होते पत्ते, पल्लव-बढ़े हुए पत्ते तथा अंकुर स्वर्णमय हैं। उसकी डालें विविध मणि रत्नमय हैं, सुरभित फूलों तथा फलों के भार से अभिनत हैं / वह वृक्ष छायायुक्त, प्रभायुक्त, शोभायुक्त एवं प्रानन्दप्रद तथा दर्शनीय है। जम्बू सुदर्शना की चारों दिशाओं में चार शाखाएँ बतलाई गई हैं। उन शाखाओं के बीचोंबीच एक सिद्धायतन है। वह एक कोश लम्बा, प्राधा कोश चौड़ा तथा कुछ कम एक कोश ऊँचा है। वह सैकड़ों खंभों पर टिका है / उसके द्वार पांच सौ धनुष ऊँचे हैं / वनमालाओं तक का आगे का वर्णन पूर्वानुरूप है। उपर्युक्त मणिपीठिका पाँच सौ धनुष लम्बी-चौड़ी है, अढाई सौ धनुष मोटी है / उस मणिपीठिका पर देवच्छन्दक-देवासन है। वह देवच्छन्दक पांच सौ धनुष लम्बा-चौड़ा है, कुछ अधिक पांच सौ धनुष ऊँचा है / आगे जिन-प्रतिमाओं तक का वर्णन पूर्ववत् है / उपर्युक्त शाखाओं में जो पूर्वी शाखा है, वहाँ एक भवन बतलाया गया है। वह एक कोश लम्बा है / यहाँ विशेषतः शयनीय और जोड लेना चाहिए / बाकी की दिशाओं में जो शाखाएँ हैं, वहाँ प्रासादावतंसक-उत्तम प्रासाद हैं। सम्बद्ध सामग्री सहित सिंहासन-पर्यन्त उनका वर्णन पूर्वानुसार है। वह जम्बू (सुदर्शन) बारह पद्मवरवेदिकानों द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। वेदिकाओं का वर्णन पूर्वानुरूप है / पुन: वह अन्य 108 जम्बू वृक्षों से घिरा हुआ है, जो उससे आधे ऊँचे हैं। उनका वर्णन पूर्ववत् है / पुनश्च वे जम्बू वृक्ष छह पद्मवरवेदिकाओं से घिरे हुए हैं। जम्बू (सुदर्शन) के उत्तर-पूर्व में -ईशान कोण में, उत्तर में तथा उत्तर-पश्चिम में वायव्य कोण में अनादत नामक देव, जो अपने को वैभव, ऐश्वर्य तथा ऋद्धि में अनुपम, अप्रतिम मानता हुआ जम्बू द्वीप के अन्य देवों को प्रादर नहीं देता, के चार हजार सामानिक देवों के 4000 जम्बू वृक्ष बतलाये----गये हैं। पूर्व में चार अग्रमहिषियों--प्रधान देवियों के चार जम्बू कहे गये हैं। दक्षिण-पूर्व में आग्नेय कोण में, दक्षिण में तथा दक्षिण-पश्चिम में-नैऋत्य कोण में क्रमश : आठ हजार, दश हजार और बाहर हजार जम्बू हैं / ये पार्षद देवों के जम्बू हैं। पश्चिम में सात अनीकाधिपों-सात सेनापति-देवों के सात जम्बू हैं। चारों दिशाओं में सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों के सोलह हजार जम्बू हैं। जम्बू (सुदर्शन) तीन सौ वन-खण्डों द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है / उसके पूर्व में पचास योजन पर अवस्थित प्रथम वनखण्ड में जाने पर एक भवन आता है, जो एक कोश लम्बा है / Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र उसका तथा तद्गत शयनीय आदि का वर्णन पूर्वानुरूप है। बाकी की दिशाओं में भी भवन बतलाये गये हैं। __ जम्बू सुदर्शन के उत्तर-पूर्व-ईशान कोण में प्रथम वनखण्ड में पचास योजन की दूरी पर 1. पद्म, 2. पद्मप्रभा, 3. कुमुदा एवं 4. कुमुदप्रभा नामक चार पुष्करिणियाँ हैं। वे एक कोश लम्बी, आधा कोश चौड़ी तथा पाँच सौ धनुष भूमि में गहरी हैं। उनका विशेष वर्णन अन्यत्र है, वहाँ से ग्राह्य है। उनके बीच-बीच में उत्तम प्रासाद हैं / वे एक कोश लम्बे, प्राधा कोश चौड़े तथा कुछ कम एक कोश ऊँचे हैं / सम्बद्ध सामग्री सहित सिंहासन पर्यन्त उनका वर्णन पुर्वानुरूप है / इसी प्रकार बाकी की विदिशाओं में-आग्नेय, नैऋत्य तथा वायव्य कोण में भी पुष्करिणियाँ हैं। उनके नाम निम्नांकित हैं: 1. पद्मा, 2. पद्मप्रभा, 3. कुमुदा, 4. कुमुदप्रभा, 5. उत्पलगुल्मा, 6. नलिना, 7. उत्पला, 8. उत्पलोज्ज्वला, 6. भृगा, 10. भृगप्रभा, 11. अंजना, 12. कज्जलप्रभा, 13. श्रीकान्ता, 14. श्रीमहिता, 15. श्रीचन्द्रा तथा 16. श्रीनिलया। जम्बू के पूर्व दिग्वर्ती भवन के उत्तर में, उत्तर-पूर्व-ईशानकोणस्थित उत्तम प्रासाद के दक्षिण में एक कूट-पर्वत-शिखर बतलाया गया है। वह आठ योजन ऊँचा एवं दो योजन जमीन में गहरा है / वह मूल में पाठ योजन, बीच में छह योजन तथा ऊपर चार योजन लम्बा-चौड़ा है। उस शिखर की परिधि मूल में कुछ अधिक पच्चीस योजन, मध्य में कुछ अधिक अठारह योजन तथा ऊपर कुछ अधिक बारह योजन है / वह मूल में चौड़ा, बीच में संकड़ा और ऊपर पतला है, सर्व स्वर्णमम है, उज्ज्वल है / पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड का वर्णन पूर्वानुरूप है / इसी प्रकार अन्य शिखर हैं। जम्बू सुदर्शना के बारह नाम कहे गये हैं: 1. सुदर्शना, 2. अमोघा, 3. सुप्रबुद्धा, 4. यशोधरा, 5. विदेहजम्बू, 6. सौमनस्या, 7. नियता, 8. नित्यमण्डिता, 6. सुभद्रा, 10. विशाला, 11. सुजाता तथा 12. सुमना / जम्बू सुदर्शना पर पाठ-पाठ मांगलिक द्रव्य प्रस्थापित हैं। भगवन् ! इसका नाम जम्बू सुदर्शना किस कारण पड़ा ? गौतम ! वहाँ जम्बूद्वीपाधिपति, परम ऋद्धिशाली अनादत नामक देव अपने चार हजार सामानिक देवों, (चार सपरिवार अग्रमहिषियों-प्रधान देवियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापति-देवों तथा) सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, जम्बूद्वीप का, जम्बू सुदर्शना का, अनादृता नामक राजधानी का, अन्य अनेक देव-देवियों का आधिपत्य करता हुआ निवास करता है / गौतम ! इस कारण उसे जम्बू सुदर्शना कहा जाता है। अथवा गौतम ! जम्बू सुदर्शना नाम ध्रव, नियत, शाश्वत, अक्षय (अव्यय) तथा अवस्थित है। भगवन् ! अनादत नामक देव की अनादता नामक राजधानी कहाँ बतलाई गई है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत मन्दर पर्वत के उत्तर में अनादृता राजधानी है। उसके Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [225 प्रमाण प्रादि पूर्वणित यमिका राजधानी के सदश हैं। देव का उपपात--उत्पत्ति, अभिषेक आदि सारा वर्णन वैसा ही है। भगवन् ! उत्तरकुरु-यह नाम किस कारण पड़ा? गौतम ! उत्तरकुरु में परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्य युक्त उत्तरकुरु नामक देव निवास करता है / गौतम ! इस कारण वह उत्तरकुरु कहा जाता है / अथवा उत्तरकुरु नाम (ध्र व, नियत एवं) शाश्वत है / माल्यवान वक्षस्कार पर्वत 108. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे मालवंते णामं वक्खारपब्वए पण्णते? गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं, णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणणं, उत्तरकुराए पुरथिमेणं, कच्छस्स चक्कट्टिविजयस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे मालवंते णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाईणपडीणविच्छिण्ण, जं चेव गंधमायणस्स पमाणं विक्खम्भो अ, णवरमिमं णाणत्तं सव्ववेरुलिआमए, अवसिळें तं चेव जाव गोयमा ! नव कूडा पण्णत्ता, तं जहा सिद्धाययणकडे-- सिद्ध य मालवन्ते, उत्तरकुरु कच्छ सागरे रयए। सीओ य पुण्णभद्दे, हरिस्सहे चेव बोद्धब्वे // 1 // कहि णं भन्ते ! मालवन्ते वक्खारपवए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? गोयमा ! मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं, मालवन्तस्स कूडस्स दाहिणपच्चस्थिमेणं एस्थ णं सिद्धाययणे कूडे पण्णत्ते / पंच जोनणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, अवसिळं तं चेव जाव रायहाणी / एवं मालवन्तस्स कूडस्स, उत्तरकुरुकूडस्स, कच्छकूडस्स, एए चत्तारि कूडा दिसाहिं पमाणेहि अव्वा, कूडसरिसणामया देवा। ___ कहि णं भन्ते ! मालवन्ते सागरकूडे णामं कूडे पण्णते ? गोयमा ! कच्छकूडस्स उत्तरपुरस्थिमेणं, रययकूडस्स दक्खिणेणं एत्थ णं सागरकडे णामं कूडे पण्णते। पंच जोप्रणसयाई उद्ध उच्चत्तेणं, अवसिळं तं चेव, सुभोगा देवी, रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं, रययकूडे भोगमालिणी देवी रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं, अवसिट्ठा कूडा उत्तरवाहिणणं अव्वा एक्केणं पमाणेणं। [108] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत माल्यवान् नामक वक्षस्कारपर्वत कहाँ बतलाया गया है ? - गौतम ! मन्दरपर्वत के उत्तर-पूर्व में ईशान कोण में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, उत्तर करु के पूर्व में, कच्छ नामक चक्रवति-विजय के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र में माल्यवान् नामक वक्षस्कारपर्वत बतलाया गया है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। गन्धमादन का जैसा प्रमाण, विस्तार है. वैसा ही उसका है। इतना अन्तर है- वह सर्वथा वैदूर्य-रत्नमय है / बाकी सब वैसा ही है। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गौतम ! यावत् कूट-पर्वत-शिखर नौ बतलाये गये हैं-१. सिद्धायतनकूट, 2. माल्यवान्कूट, 3. उत्तरकुरुकूट, 4. कच्छकूट, 5. सागरकूट, 6. रजतकूट, 7. शीताकूट, 8. पूर्णभद्रकूट एवं 6. हरिस्सहकूट / भगवन् ! माल्यवान वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतन कूट नामक कूट कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! मन्दरपर्वत के उत्तर-पूर्व में ईशान कोण में, माल्यवान् कूट के दक्षिण-पश्चिम मेंनैऋत्य कोण में सिद्धायतन नामक कूट बतलाया गया है। वह पाँच सौ योजन ऊँचा है। राजधानीपर्यन्त बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। माल्यवान्कूट, उत्तरकुरुकूट तथा कच्छकूट की दिशाएँप्रमाण आदि सिद्धायतन कूट के सदृश हैं। अर्थात् वे चारों कूट प्रमाण, विस्तार आदि में एक समान हैं / कूटों के सदृश नाम युक्त देव उन पर निवास करते हैं। भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर सागर कूट नामक कूट कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! कच्छकूट के उत्तर-पूर्व में -ईशान कोण में और रजतकूट के दक्षिण में सागर कूट नामक कूट बतलाया गया है। वह पाँच सौ योजन ऊँचा है। बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। वहाँ सुभोगा नामक देवी निवास करती है। उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में उसकी राजधानी है / रजत कट पर भोगमालिनी नामक देवी निवास करती है। उत्तर-पूर्व में उसकी राजधानी है / बाकी के कूट-पिछले कूट से अगला कूट उत्तर में, अगले कूट से पिछला कूट दक्षिण में इस क्रम से अवस्थित हैं, एक समान प्रमाणयुक्त हैं। हरिस्सह कूट 106. कहि णं भन्ते ! मालवन्ते हरिस्सहकूडे णामं कूडे पण्णते ? गोयमा ! पुण्णभद्दस्स उत्तरेणं, णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, एत्य णं हरिस्सहकूडे णामं कूडे पण्णत्ते। एगं जोअणसहस्सं उद्धं उच्चत्तणं, जमगपमाणेणं अव्वं / रायहाणी उत्तरेणं असंखेज्जे दीवे अण्णमि जम्बुद्दीवे दोवे, उत्तरेणं बारस जोअणसहस्साई प्रोगाहित्ता एत्थ णं हरिस्सहस्स देवस्स हरिस्सहाणामं रायहाणी पण्णत्ता। चउरासीइं जोअणसहस्साई आयामविक्खम्भेणं, बे जोअणसयसहस्साइं पढेि च सहस्साइं छच्च छत्तीसे जोनणसए परिक्खेवेणं, सेसं जहा चमरचञ्चाए रायहाणीए तहा पमाणं भाणिअव्वं, महिड्डीए महज्जुईए। से केणठेणं भन्ते ! एवं बुच्चइ मालवन्ते वक्खारपव्वए 2 ? / गोयमा! मालवन्ते णं वक्खारपब्वए तत्थ तत्थ देसे तहिं 2 बहवे सरिागुम्मा, णोमालिप्रागुम्मा जाव मगदन्तिप्रागुम्मा। ते णं गुम्मा दसद्धवण्णं कुसुमं कुसुमेति, जे णं तं मालवन्तस्स यक्खारपन्वयस्स बहुसमरमणिज्ज भूमिभागं वायविधुअग्गसालामुक्कपुप्फपुजोवयारकलिअं करेन्ति / मालवंते अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव' पलिप्रोवमट्टिइए परिवसइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ, अदुत्तरं च णं (धुवे, णियए, सासए, अक्खए, अम्वए, अवट्ठिए) णिच्चे। 1. देखें सूत्र संख्या 14 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार [227 [106] भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर हरिस्सह कूट नामक कूट कहाँ बतलाया गया है? गौतम ! पूर्णभद्रकट के उत्तर में, नीलवान् पर्वत के दक्षिण में हरिस्सहकट नामक कूट बतलाया गया है। वह एक हजार योजन ऊँचा है। उसकी लम्बाई, चौड़ाई आदि सब यमक पर्वत के सदृश है। मन्दर पर्वत के उत्तर में असंख्य तिर्यक् द्वीप-समुद्रों को लांघकर अन्य जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तर में बारह हजार योजन जाने पर हरिस्सह कूट के अधिष्ठायक हरिस्सह देव की हरिस्सहा नामक राजधानी आती है / वह 84000 योजन लम्बी-चौड़ी है। उसकी परिधि 265636 योजन है / वह ऋद्धिमय तथा द्युतिमय है। उसका अवशेष वर्णन चमरेन्द्र की चमरचञ्चा नामक राजधानी के समान समझना चाहिए। भगवन् ! माल्यवान् वक्षस्कारपर्वत-इस नाम से क्यों पुकारा जाता है ? गौतम ! माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत पर जहां तहाँ बहुत से सरिकाओं, नवमालिकाओं, मगदन्तिकाओं आदि तत्तत् पुष्पलताओं के गुल्म-झुरमुट हैं। उन लताओं पर पंचरंगे फूल खिलते हैं / वे लताएँ पवन द्वारा प्रकम्पित अपनी टहनियों के अग्रभाग से मुक्त हुए पुष्पों द्वारा माल्यवान् वक्षस्कारपर्वत के अत्यन्त समतल एवं सुन्दर भूमिभाग को सुशोभित, सुसज्जित करती हैं / वहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्ययुक्त माल्यवान् नामक देव निवास करता है, गौतम ! इस कारण वह माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है / अथवा उसका यह नाम (धव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित एवं) नित्य है / कच्छ विजय 110. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पग्णते ? गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं, णीलवंतस्स वासहरपब्वयस्स दक्खिणेणं, चित्तकूडस्स वक्खारपव्ययस्स पच्चस्थिमेणं, मालवंतस्स वखारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे 2 महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाडीण-पडीणवित्थिणे पलिअंकसंठाणसंठिए, गंगासिंधूहि महाणईहिं वेयःण य पव्वएणं छन्भागपविभत्ते, सोलस जोअणसहस्साइं पंच य बाणउए जोधणसए दोणि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं, दो जोनणसहस्साई दोणि प्र तेरसुत्तरे जोअणसए किचि विसेसूणे विक्खंभेणंति / / कच्छस्स णं विजयस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वेअद्ध णाम पव्वए पण्णत्ते, जे णं कच्छ विजयं दुहा विभयमाणे 2 चिट्ठइ, तं जहा-दाहिणद्धकच्छं उत्तरद्धकच्छं चेति / / ___ कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्वकच्छे णाम विजए पणते ? गोयमा ! वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणणं, सोपाए महाणईए उत्तरेणं, चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चस्थिमेणं, मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्धकच्छे णामं विजए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाईणपडीणविस्थिण्णे, अट्ठजोप्रणसहस्साई दोणि अ एगसत्तरे जोअणसए एक्कं च एगूणवीसइभागं पायामेणं, दो जोअणसहस्साई दोण्णि प्र तेरसुत्तरे जोअणसए किंचिविसेसूणे विक्खंभेणं, पलिअंकसंठाणसंठिए / Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र बाहिणद्धकच्छस्स णं भन्ते ! विजयस्स केरिसए आयारभावपडोपारे पण्णते ? गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते, तं जहा-जाव' कत्तिमेहि व प्रकत्तिमेहि चेव। दाहिणद्धकच्छे णं भन्ते ! विजए मणुप्राणं केरिसए पायारभावपडोधारे पण्णते? गोयमा! तेसि णं मणुआणं छविहे संघयणे जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेंति / / कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे विजए वेअः णामं पव्वए ? गोयमा ! दाहिणद्धकच्छ-विजयस्स उत्तरेणं, उत्तरद्धकच्छस्स दाहिणणं, चित्तकूडस्स पच्चत्थिमेणं, मालवन्तस्स वक्खारपव्ययस्स पुरथिमेणं एत्थ णं कच्छे विजए वेबद्ध णामं पव्वए पण्णत्ते / तं जहा–पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, दुहा वक्खारपध्वए पुढे-पुरथिमिल्लाए कोडीए (पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुळे, पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं वक्खारपस्वयं पुढें) दोहिवि पुछे। भरहवेअद्धसरिसए गवरं दो बाहाम्रो जीवा धणुपट्टे च ण कायन्वं / विजयविक्खम्भसरिसे आयामेणं / विक्खम्भो, उच्चत्तं, उव्वेहो तहेव च विज्जाहराभिओगसेढीयो तहेव, गवरं पणपण्णं 2 विज्जाहरणगरावासा पण्णत्ता। आभिओगसेढीए उत्तरिल्लानो सेढीयो सीमाए ईसाणस्स सेसानो सक्कस्सत्ति / कूडा 1. सिद्ध 2. कच्छे 3. खंडग 4. माणी 5. वेबद्ध 6. पुण्ण 7. तिमिसगुहा / 8. कच्छे 6. वेसमणे वा, वेअद्ध होंति .कूडाई // 1 // कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे 2 महाविदेहे वासे उत्तर-कच्छे णाम विजए पण्णत्ते? गोयमा ! वेयद्धस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, गोलवन्तस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणणं, मालवन्तस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं, चित्तकूडस्स वखारपब्वयस्स पच्चस्थिमेणं एत्य णं जम्बुद्दीवे जाव' सिज्झन्ति, तहेव अव्वं सब्वं / कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दोवे महाविदेहे वासे उत्तरद्धकच्छे विजए सिंधुकुडे णामं कुडे पण्णत्ते ? गोयमा ! मालवन्तस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं, उसभकूडस्स पच्चत्थिमेणं, णीलवन्तस्स वासहरपन्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरडकच्छविजए सिंधुकुडे णाम कुडे पण्णत्ते, सट्ठि जोगणाणि आयामविक्खम्भेणं जाव भवणं अट्ठो रायहाणी प्र अव्वा, भरहसिंधुकुडसरिसं सव्वं अव्वं / तस्स णं सिंधुकुण्डस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं सिंधुमहाणई पवूढा समाणी उत्तरद्धकच्छविजयं एज्जेमाणी 2 सहि सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी 2 अहे तिमिसगुहाए वेअद्धपव्वयं दालयित्ता 1. देखें सूत्र संख्या 41 2. देखें सूत्र संख्या 12 3. देखें सूत्र संख्या 14 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ बनस्कार [222 दाहिणकच्छविजयं एज्जेमाणी 2 चोद्दसहि सलिलासहस्सेहि समग्गा दाहिणणं सोयं महाणई समप्पेइ। सिंधुमहाणई पबहे अ मूले अ भरहसिंधुसरिसा पमाणेणं जाव दोहि वणसंडेहि संपरिक्खित्ता। कहि णं भन्ते ! उत्तरद्धकच्छविजए उसभकूडे णामं पव्वए पण्णते? * गोयमा ! सिधुकुडस्स पुरथिमेणं, गंगाकुण्डस्स पच्चस्थिमेणं, णीलवन्तस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं उत्तरद्धकच्छविजए उसहकूडे णामं पव्वए पण्णत्ते / अट्ठ जोगणाई उद्ध उच्चत्तेणं, तं चेव पमाणं जाव रायहाणी से णवरं उत्तरेणं भाणिप्रव्वा / कहि णं भन्ते ! उत्तरद्धफच्छे विजए गंगाकुण्डे णामं कुण्डे पण्णते ? गोयमा ! चित्तकडस्स वक्खारपब्वयस्स पच्चत्थिमेणं, उसहकडस्स पव्वयस्स पुरस्थिमेणं, णोलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं उत्तरद्धकच्छे गंगाकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते / ट्टि जोअणाई आयामविक्खम्भेणं, तहेव जहा सिंधू जाव वणसंडेण य संपरिक्खित्ता। से केण→णं भन्ते ! एवं बुच्चइ कच्छे विजए कच्छे विजए ? गोयमा! कच्छे विजए वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, सीमाए महाणईए उत्तरेणं, गंगाए महाणईए पच्चत्थिमेणं, सिंधूए महाणईए पुरस्थिमेणं दाहिणद्धकच्छविजयस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं खेमा णामं रायहाणी पण्णत्ता, विणीपारायहाणीसरिसा भाणिव्या / तत्थ णं खेमाए रायहाणीए कच्छे णामं राया समुप्पज्जइ, महया हिमवन्त जाव सव्वं भरहोवमं भाणिअव्वं निक्खमणवज्जं सेसं सत्वं भाणिअव्वं जाव भुजए माणुस्सए सुहे। कच्छणामधेज्जे प्र कच्छे इत्थ देवे महिड्डीए जाव' पलिनोवमट्ठिईए परिवसइ, से एएटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ कच्छे विजए कच्छे विजए जाव' णिच्चे। 6110] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में कच्छ नामक विजय कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! शीता महानदी के उत्तर में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में कच्छ नामक विजय--चक्रवर्ती द्वारा विजेतव्य भूविभाग बतलाया गया है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है, पलंग के आकार में अवस्थित है। गंगा महानदी, सिन्धु महानदी तथा वैताढय पर्वत द्वारा वह छह भागों में विभक्त है। वह 165621 योजन लम्बा तथा कुछ कम 2213 योजन चौड़ा है। कच्छ विजय के बीचोंबीच वैताढय नामक पर्वत बतलाया गया है, जो कच्छ विजय को दक्षिणार्ध कच्छ तथा उत्तरार्ध कच्छ के रूप में दो भागों में बाँटता है। 1. देखें सूत्र संख्या 14 2. देखें सूत्र संख्या 93 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23.] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में दक्षिणार्ध कच्छ नामक विजय कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! वैताढय पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में, चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में दक्षिणार्ध कच्छ नामक विजय बतलाया गया है / वह उत्तर-दक्षिण लम्बा तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। 82711 योजन लम्बा है. कुछ कम 2213 योजन चौड़ा है, पलंग के आकार में विद्यमान है। भगवन् ! दक्षिणार्ध कच्छ विजय का आकार, भाव, प्रत्यवतार किस प्रकार का बतलाया गया है ? गौतम ! वहाँ का भूमिभाग बहुत समतल एवं सुन्दर है। वह कृत्रिम, अकृत्रिम मणियों तथा तृणों आदि से सुशोभित है। भगवन् ! दक्षिणार्ध कच्छ विजय में मनुष्यों का प्राकार, भाव, प्रत्यवतार किस प्रकार का बतलाया गया है ? ___ गौतम ! वहाँ मनुष्य छह प्रकार के संहननों से युक्त होते हैं / अवशेष वर्णन पूर्ववत् है। भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में कच्छ विजय में वैताढय नामक पर्वत कहाँ है ? गौतम ! दक्षिणार्ध कच्छ विजय के उत्तर में, उत्तरार्ध कच्छ विजय के दक्षिण में, चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में तथा माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में कच्छ विजय के अन्तर्गत वैतादय नामक पर्वत बतलाया गया है, वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है, उत्तर-दक्षिण चौडा है। वह दो ओर से वक्षस्कार-पर्वतों का स्पर्श करता है। (अपने पूर्वी किनारे से वह चित्रकूट नामक पूर्वी वक्षस्कार पर्वत का स्पर्श करता है तथा पश्चिमी किनारे से माल्यवान् नामक पश्चिमी वक्षस्कार पर्वत का स्पर्श करता है, वह भरत क्षेत्रवर्ती वैताढ्य पर्वत के सदृश है। अवक्रक्षेत्रवर्ती होने के कारण उसमें बाहाएँ, जीवा तथा धनुपृष्ठ-इन्हें न लिया जाए नहीं कहना चाहिए। कच्छादि विजय जितने चौड़े हैं, वह उतना लम्बा है। वह चौड़ाई, ऊँचाई एवं गहराई में भरतक्षेत्रवर्ती वैताढय पर्वत के समान है। विद्याधरों तथा आभियोग्य देवों की श्रेणियाँ भी उसी की ज्यों हैं। इतना अन्तर है-इसकी दक्षिणी श्रेणी में 55 तथा उत्तरी श्रेणी में 55 विद्याधर नगरावास कहे गये हैं / आभियोग्य श्रेण्यन्तर्गत, शीता महानदी के उत्तर में जो श्रेणियाँ हैं, वे ईशानदेव-द्वितीय कल्पेन्द्र की हैं, बाकी की श्रेणियाँ शक्र---प्रथम कल्पेन्द्र की हैं। वहाँ कूट-पर्वत-शिखर इस प्रकार हैं-१. सिद्धायतन कूट, 2. दक्षिणकच्छाध कूट, 3. खण्डप्रपातगुहा कूट, 4. माणिभद्र कूट, 5. वैताढ्य कूट, 6. पूर्णभद्र कूट, 7. तमिस्रगुहा कूट, 8. उत्तरार्धकच्छ कूट, 6. वैश्रवण कूट / भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में उत्तरार्ध कच्छ नामक विजय कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! वैताढ्य पर्वत के उत्तर में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, माल्यवान् Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [231 वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में तथा चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्धकच्छविजय नामक विजय बतलाया गया है / अवशेष वर्णन पूर्ववत् है / भगवन ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में उत्तरार्धकच्छविजय में सिन्धु-कुण्ड नामक कुण्ड कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! माल्यवान वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में, ऋषभकट के पश्चिम में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिणी नितम्ब में-मेखलारूप मध्यभाग में ढलान में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में उत्तरार्धकच्छविजय में सिन्धुकुण्ड नामक कुण्ड बतलाया गया है / वह साठ योजन लम्बाचौड़ा है / भवन, राजधानी आदि सारा वर्णन भरत क्षेत्रवर्ती सिन्धु-कुण्ड के सदृश है / उस सिन्धु-कुण्ड के दक्षिणी तोरण से सिन्धु महानदी निकलती है। उत्तरार्ध कच्छ विजय में बहती है। उसमें वहाँ 7000 नदियाँ मिलती हैं। वह उनसे आपूर्ण होकर नीचे तिमिस्रगुहा से होती हुई वैताढय पर्वत को दीर्ण कर-चीर कर दक्षिणार्ध कच्छ विजय में जाती है। वहाँ 14000 नदियों से युक्त होकर वह दक्षिण में शीता महानदी में मिल जाती है / सिन्धु महानदी अपने उद्गम तथा संगम पर प्रवाह-विस्तार में भरत क्षेत्रवर्ती सिन्धु महानदी के सदृश है / वह दो वनखण्डों द्वारा घिरी है-यहाँ तक का सारा वर्णन पूर्ववत् है / भगवन् ! उत्तरार्ध कच्छ विजय में ऋषभकट नामक पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! सिन्धुकट के पूर्व में, गंगाकट के पश्चिम में, नीलवान वर्षधर पर्वत के दक्षिणी ढलान में, उत्तरार्ध कच्छ विजय में ऋषभकूट नामक पर्वत बतलाया गया है। वह पाठ योजन ऊँचा है। उसका प्रमाण, विस्तार, राजधानी पर्यन्त वर्णन पूर्ववत् है / इतना अन्तर है--उसकी राजधानी उत्तर भगवन् ! उत्तरार्ध कच्छ विजय में गंगा-कुण्ड नामक कुण्ड कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, ऋषभकट पर्वत के पूर्व में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिणी ढलान में उत्तरार्ध कच्छ में गंगा-कुण्ड नामक कुण्ड बतलाया गया है। वह 60 योजन लम्बा-चौड़ा है। वह एक वन-खण्ड द्वारा परिवेष्टित है—यहाँ तक का अवशेष वर्णन सिन्धु-कुण्ड सदृश है। भगवन् ! वह कच्छ विजय क्यों कहा जाता है ? गौतम ! कच्छ विजय में वैताढय पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में, गंगा महानदी के पश्चिम में, सिन्धु महानदी के पूर्व में दक्षिणार्ध कच्छ विजय के बीचोंबीच उसकी क्षेमा नामक राजधानी बतलाई गई है। उसका वर्णन विनीता राजधानी के सदश है / क्षेमा राजधानी में कच्छ नामक षट्खण्ड-भोक्ता चक्रवर्ती राजा समुत्पन्न होता है-वहाँ लोगों द्वारा उसके लिए कच्छ नाम व्यवहृत किया जाता है / अभिनिष्क्रमण—प्रव्रजन को छोड़कर उसका सारा वर्णन चक्रवर्ती राजा भरत जैसा समझना चा कच्छ विजय में परम समृद्धिशाली, एक पल्योपम आयु-स्थितियुक्त कच्छ नामक देव निवास करता है / गौतम ! इस कारण वह कच्छ विजय कहा जाता है / अथवा उसका कच्छ विजय नाम नित्य है, शाश्वत है। For Private &Personal use Only . Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 // [जम्हीपप्रज्ञप्तिसूत्र चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत 111. कहि गं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चित्तकूडे णामं वक्खारपस्वए पण्णते? गोयमा ! सीमाए महाणईए उत्तरेणं, णीलवन्तस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणणं, कच्छविजयस्स पुरत्थिमेणं, सुकच्छविजयस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहवासे चित्तकडे णाम वक्खारपव्वए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाईणपडोणविस्थिण्णे, सोलस-जोअणसहस्साई पञ्च य वाणउए जोअणसए दुणि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स प्रायामेणं, पञ्च जोग्रणसयाई विक्खम्भेणं, नीलवन्तवासहरपब्वयंतेणं चत्तारि जोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउअसयाई उन्वेहेणं / ___ तयणंतरं च णं मायाए 2 उस्सेहोब्वेहपरिवुड्डीए परिवड्डमाणे 2 सीआमहाणई-अंतेणं पञ्च जोअणसयाई उद्ध उच्चत्तेणं, पञ्च गाउअसयाई उव्वेहेणं, अस्सखन्धसंठाणसंठिए, सव्वरयणामए अच्छे सण्हे जाव ' पडिरूवे / उभओ पासि दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहि अवणसंडेहि संपरिक्खित्ते, वण्णनो दुण्ह वि चित्तकूडस्स णं वक्खारपव्वयस्स उप्पि बहुसभरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव' आसयन्ति / चित्तकूडे णं भन्ते ! वक्खारपव्वए कति कूडा पपणत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कडा पण्णत्ता, तं जहा-१. सिद्धाययणकडे, 2. चित्तकडे, 3. कच्छकडे, 4. सुकच्छकूडे / समा उत्तरदाहिणेणं परुप्परंति, पढमं सीआए उत्तरेणं, चउत्थए नीलवन्तस्स वासहरपन्वयस्स दाहिणेणं / एत्थ णं चित्तकडे णामं देवे महिड्डीए जाव रायहाणी सेत्ति / [111] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में चित्रकूट नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! शीता महानदी के उत्तर में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, कच्छ विजय के पूर्व में तथा सुकच्छ विजय के दक्षिण में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में चित्रकूट नामक वक्षस्कार पर्वत बतलाया गया है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। वह 165921 योजन लम्बा है, 500 योजन चौड़ा है, नीलवान् वर्षधर पर्वत के पास 400 योजन ऊँचा है तथा 400 कोश जमीन में गहरा है। तत्पश्चात् वह ऊँचाई एवं गहराई में क्रमश: बढ़ता जाता है। शीता महानदी के पास वह 500 योजन ऊँचा तथा 500 कोश जमीन में गहरा हो जाता है। उसका आकार घोड़े के कन्धे जैसा है वह सर्वरत्नमय है, निर्मल, सुकोमल तथा सुन्दर है। वह अपने दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं से तथा दो वन-खण्डों से घिरा है / दोनों का वर्णन पूर्वानुरूप है। चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के ऊपर बहुत समतल एवं सुन्दर भूमिभाग है / वहाँ देव-देवियाँ आश्रय लेते हैं, विश्राम करते हैं / 1. देखें सूत्र संख्या 4 2. देखें सूत्र संख्या 6 3. देखें सूत्र संख्या 14 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्भ वक्षस्कार] [233 भगवन् ! चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के कितने कूट बतलाये गये हैं ? गौतम ! उसके चार फूट बतलाये गये हैं-१. सिद्धायतनकूट (चित्रकूट के दक्षिण में), 2. चित्रकूट (सिद्धायतनकूट के उत्तर में), 3. कच्छकूट (चित्रकूट के उत्तर में) तथा 4. सुकच्छकूट (कच्छकूट के दक्षिण में)। ये परस्पर उत्तर-दक्षिण में एक समान हैं। पहला सिद्धायतनकूट शीता महानदी के उत्तर में तथा चौथा सुकच्छकूट नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में है। चित्रकूट नामक परम ऋद्धिशाली देव वहाँ निवास करता है। राजधानी पर्यन्त सारा वर्णन पूर्ववत् है। सुकच्छ विजय 112. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णाम विजए पण्णत ? गोयमा ! सीमाए महाणईए उत्तरेणं, गोलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणणं, गाहावईए महाणईए पच्चस्थिमेणं, चित्तकूडस्स वखारपब्वयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दोवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजए पण्णते, उत्तरदाहिणायए, जहेव कच्छे विजए तहेव सुकच्छे विजए, णवरं खेमपुरा रायहाणी, सुकच्छे राया समुप्पज्जइ तहेव सब्बं / कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे 2 महाविदेहे वासे गाहावइकुण्डे पणते ? गोयमा ! सुकच्छविजयस्स पुरत्थिमेणं, महाकच्छस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं, गीलवन्तस्स बासहरपन्वयस्स दाहिणिल्ले णितम्बे एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते, जहेव रोहिअंसाकुण्डे तहेव जाव गाहावइदीवे भवणे। तस्स णं गाहावइस्स कुण्डस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गाहावई महाणई पढा समाणी सुकच्छमहाकच्छविजए दुहा विभयमाणो 2 अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहि समग्गा दाहिणणं सोमं महाणई समप्पेह / गाहावई णं महाणई पबहे अ मुहे अ सम्वत्थ समा, पणवीसं जोअणसयं विक्खम्भेणं, अद्धाइज्जाई जोअणाई उठवेहेणं, उभओ पासि दोहि प्र एउमवरवेइहिं दोहि अवणसण्डेहि जाव बुण्हवि वण्णमो इति। [112] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में सुकच्छ नामक विजय कहाँ बतलाया गया है ? ___गौतम ! शीता महानदी के उत्तर में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, ग्राहावती महानदी के पश्चिम में तथा चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में सुकच्छ नामक विजय बतलाया गया है / वह उत्तर-दक्षिण लम्बा है / उसका विस्तार आदि सब वैसा ही है, जैसा कच्छ विजय का है। इतना अन्तर है--क्षेमपुरा उसकी राजधानी है / वहाँ सुकच्छ नामक राजा समुत्पन्न होता है / बाकी सब कच्छ विजय की ज्यों हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में ग्राहावती कुण्ड कहाँ बतलाया गया है ? Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र ___ गौतम ! सुकच्छ विजय के पूर्व में, महाकच्छ विजय के पश्चिम में नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिणी ढलान में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में ग्राहावती कुण्ड नामक कुण्ड बतलाया गया है। इसका सारा वर्णन रोहितांशा कुण्ड की ज्यों है / उस ग्राहावती कुण्ड के दक्षिणी तोरण-द्वार से ग्राहावती नामक महानदी निकलती है। वह सुकच्छ महाकच्छ विजय को दो भागों में विभक्त करती हुई आगे बढ़ती है / उसमें 28000 नदियां मिलती हैं। वह उनसे आपूर्ण होकर दक्षिण में शीता महानदी से मिल जाती है / ग्राहावती महानदी उद्गम-स्थान पर, संगम-स्थान पर-सर्वत्र एक समान है / वह 125 योजन चौड़ी है, अढ़ाई योजन जमीन में गहरी है / वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं द्वारा, दो वन-खण्डों द्वारा घिरी है। बाकी का सारा वर्णन पूर्वानुरूप है। महाकच्छ विजय 113. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे महाकच्छे णाम विजये पण्णत्ते ? गोयमा ! गीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणणं, सीनाए महाणईए उत्तरेणं, पम्हकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, गाहावईए महाणईए पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते, सेसं जहा कच्छविजयस्स जाव महाकच्छे इत्थ देवे महिड्डीए अट्ठो अ भाणिग्रव्यो / [113] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में महाकच्छ नामक विजय कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में, पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, ग्राहावती महानदी के पूर्व में महाविदेह क्षेत्र में महाकच्छ नामक विजय बतलाया गया है। बाकी का सारा वर्णन कच्छ विजय की ज्यों है / यहाँ महाकच्छ नामक परम ऋद्धिशाली देव रहता है। पनकट वक्षस्कार पर्वत 114. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे पम्हकडे णामं वक्खार पवए पण्णते ? गोयमा ! णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, सोयाए महाणईए उत्तरेणं, महाकच्छस्स पुरथिमेणं, कच्छावईए पच्चस्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे पम्हकूडे णामं वक्खारपब्वए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविस्थिण्णे सेसं जहा चित्तकूडस्स जाव प्रासयन्ति / पम्हकूडे चत्तारि कूडा पण्णता तं जहा–१. सिद्धाययणकूडे, 2. पम्हकूडे, 3. महाकच्छकूडे, 4. कच्छवइकूडे एवं जाव अट्ठो। पम्हकूडे इत्थ देवे महद्धिए पलिप्रोवमठिईए परिवसइ, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ। [114] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत पद्मकूट नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नीलवान् वक्षस्कार पर्वत के दक्षिण में शीता महानदी के उत्तर में, महाकच्छ विजय के पूर्व में, कच्छावती विजय के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र में पद्मकुट नामक वक्षस्कार पर्वत बतलाया गया है / वह उत्तर-दक्षिण लम्बा है, पूर्व-पश्चिम चौड़ा है / बाकी का सारा वर्णन चित्रकूट की ज्यों है। पद्मकूट के चार कूट--शिखर बतलाये गये हैं 1. सिद्धायतन कूट, 2. पद्म कूट, 3. महाकच्छ कूट, 4. कच्छावती कूट / इनका वर्णन पूर्वानुरूप है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [235 यहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्ययुक्त पद्मकूट नामक देव निवास करता है। गौतम ! इस कारण यह पनकूट कहलाता है। कच्छकावती (कच्छावती) विजय 115. कहि गं भन्ते ! महाविदेहे वासे कच्छगावती णाम विजए पण्णत्ते ? गोयमा ! णीलवन्तस्स दाहिणणं, सोनाए महाणईए उत्तरेणं, दहावतीए महाणईए पच्चस्थिमेणं, पम्हकडस्स पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे कच्छगावती णामं विजए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीवित्थिण्णे सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स जाव कच्छगावई अ इत्थ देवे। कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे दहावईकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते? गोयमा ! आवत्तस्स विजयस्स पच्चस्थिमेणं, कच्छगावईए विजयस्स पुरथिमेणं, गोलवन्तस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं महाविदेहे वासे दहावईकुण्डे णाम कुण्डे पण्णत्ते / सेसं जहा गाहावईकुण्डस्स जाव अट्ठो। तस्स णं दहावईकुण्डस्स दाहिणणं तोरणेणं दहावई महाणई पबूढा समाणी कच्छावईनावत्ते विजए दुहा विभयमाणी 2 दाहिणणं सो महाणई समप्पेइ, सेसं जहा गाहावईए। [115] भगवन् महाविदेह क्षेत्र में कच्छकावती नामक विजय कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में, द्रहावती महानदी के पश्चिम में, पद्मकट के पूर्व में, महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत कच्छकावती नामक विजय बतलाया गया है / वह उत्तर-दक्षिण लम्बा तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। बाकी सारा वर्णन कच्छविजय के सदृश है / यहाँ कच्छकावती नामक देव निवास करता है / भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में द्रहावती कुण्ड नामक कुण्ड कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! पावर्त विजय के पश्चिम में, कच्छकावती विजय के पूर्व में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिणी ढलान में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत दहावती कुण्ड नामक कुण्ड बतलाया गया है। बाकी का सारा वर्णन ग्राहावती कुण्ड की ज्यों है / / उस दहावती कुण्ड के दक्षिणी तोरण-द्वार से द्रहावती महानदी निकलती है। वह कच्छावती तथा आवर्त विजय को दो भागों में बांटती हुई आगे बढ़ती है / दक्षिण में शीतीदा महानदी में मिल जाती है / बाकी का सारा वर्णन ग्राहावती का ज्यों है। आवर्त विजय 116. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पण्णत्ते? गोयमा ! णीलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणणं, सीमाए महाणईए उत्तरेणं, गलिणकूडस्स बक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, दहावतीए महाणईए पुरत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे पावत्ते णाम विजए पण्णत्ते / सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स इति / [116] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में आवर्त नामक विजय कहाँ बतलाया गया है ? Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236] [जम्मूदीपप्राप्तिसूत्र ___ गौतम ! नोलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में, नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में तथा द्रहावती महानदी के पूर्व में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत आवर्त नामक विजय बतलाया गया है / उसका बाकी सारा वर्णन कच्छविजय की ज्यों है / नलिनकट वक्षस्कार पर्वत 117. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे गलिणकडे णामं वक्खारपन्यए पण्णत्ते ? गोयमा ! भीलवन्तस्स दाहिणणं, सोपाए उत्तरेणं, मंगलावइस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं, आवत्तस्स विजयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे गलिणकडे णामं वक्खारपन्वए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणण्यए पाईणपडोणविस्थिपणे सेसं जहा चित्तकडस्स जाव आसयन्ति / णलिणकडे णं भन्ते! कति कूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता, सं जहा--१. सिद्धाययणकूडे, 2. गलिणकडे, 3. आवत्ताडे, 4. मंगलाबत्तकूडे, एए कूडा पञ्चसइआ, रायहाणीनो उत्तरेणं / [117] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में नलिनकूट नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में, मंगलावती विजय के पश्चिम में तथा आवर्त विजय के पूर्व में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत नलिनकूट नामक वक्षस्कार पर्वत बतलाया गया है / वह उत्तर-दक्षिण लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। बाकी वर्णन चित्रकट के सदृश हैं। भगवन् ! नलिनकूट के कितने कूट बतलाये गये हैं ? गौतम ! उसके चार कूट बतलाये गये हैं-१. सिद्धायतनकूट, 2. नलिनकूट, 3. आवर्तकूट तथा 4. मंगलावर्तकूट / ये कूट पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। राजधानियाँ उत्तर में हैं / मंगलावर्त विजय 118. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे मंगलावत्ते णाम विजए पण्णते? गोयमा ! णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, सीआए उत्तरेणं, गलिणकूडस्स पुरस्थिमेणं, पंकावईए पच्चत्थिमेणं एत्थ णं मंगलावते णामं विजए पण्णत्ते। जहा कच्छस्स विजए तहा एसो भाणियन्वो जाव मंगलावते अ इत्थ देवे परिवसइ, से एएणठेणं० / कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे पंकावई कुडे णामं कुण्डे पण्णते? गोयमा ! मंगलावत्तस्स पुरथिमेणं, पुक्खलविजयस्स पच्चस्थिमेणं, णीलवन्तस्स दाहिणे णितंबे, एत्थ णं पंकावई (कुडे णाम) कुडे पण्णत्ते। तं चेव गाहावइकुण्डप्पमाणं जाव मंगलावत्तपुक्खलावत्तविजए दुहा विभयमाणी 2 अवसेसं तं चेव जं चेव गाहावईए। [118] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में मंगलावर्त नामक विजय कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में, नलिनकूट के पूर्व में, Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [237 पंकावती के पश्चिम में मंगलावर्त नामक विजय बतलाया गया है। इसका सारा वर्णन कच्छ विजय के सदृश है / यहाँ मंगलावर्त नामक देव निवास करता है / इस कारण यह मंगलावर्त कहा जाता है / भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में पंकावती कुण्ड नामक कुण्ड कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! मंगलावर्त विजय के पूर्व में, पुष्कल विजय के पश्चिम में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिणी ढलान में पंकावती कुण्ड नामक कुण्ड बतलाया गया है / उसका प्रमाण, वर्णन ग्राहावती कूण्ड के समान है। उससे पकावती नामक नदी निकलती है, जो मंगलावतं विजय तथा पूष्कलावत विजय को दो भागों में विभक्त करती हुई आगे बढ़ती है। उसका बाकी वर्णन ग्राहावती की ज्यों है। पुष्कलावर्त विजय 116. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे पुक्खलावते णाम विजए पण्णत्ते ? गोयमा ! णीलवन्तस्स दाहिणणं, सीग्राए उत्तरेणं, पंकावईए पुरस्थिमेणं, एक्कसेलस्स वखारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं पुक्खलावते णाम विजए पण्णते, जहा कच्छविजए तहा भाणिअन्य जाब पुक्खले प्र इत्थ देवे महिड्डिए पलिओवमट्ठिइए परिवसइ, से एएणोणं० / [119] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावत नामक विजय कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में, पंकावती के पूर्व में एकशैल वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत पुष्कलावत नामक विजय बतलाया गया है / इसका वर्णन कच्छ विजय के समान है / यहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्य युक्त पुष्कल नामक देव निवास करता है, इस कारण यह पुष्कलावर्त विजय कहलाता है / एकशैल वक्षस्कार पर्वत 120. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे एगसेले णामं वक्खारपव्वए पण्णते? गोयमा ! पुक्खलावत्तचक्कवट्टिविजयस्स पुरस्थिमेणं, पोक्खलावतीचक्कवट्टिविजयस्स पञ्चस्थिमेणं, णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, सीआए उत्तरेणं, एत्थ णं एगसेले णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते, चित्तकूडगमेणं अव्वो जाव' देवा प्रासयन्ति / चत्तारि कूडा, तं जहा-१. सिद्धाययणकडे, 2. एगसेलकडे, 3. पुक्खलावत्तकूडे, 4. पुक्खलावईकूडे, कूडाणं तं चेव पञ्चसइ परिमाणं जाव एगसेले अ देवे महिड्डीए। [120] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में एकशैल नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! पुष्कलावर्त-चक्रवर्ति-विजय के पूर्व में, पुष्कलावती-चक्रवर्ति-विजय के पश्चिम में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत एकशेल नामक वक्षस्कार पर्वत बतलाया गया है / देव-देवियां वहाँ आश्रय लेते हैं, विश्राम करते हैं तक उसका वर्णन चित्रकूट के सदृश है। उसके चार कूट हैं---१. सिद्धायतनकूट, 2. एकशैलकूट, 3. पुष्कलावर्तकूट तथा 4. पुष्कलावतीकूट / ये पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। उस (एकशैल वक्षस्कार पर्वत) पर एकशैल नामक परम ऋद्धिशाली देव निवास करता है। 1. देखें सूत्र संख्या 12 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पुष्कलावती विजय 121. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं चक्कवट्टिविजए पण्णत्ते ? गोयमा ! णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, सोपाए उत्तरेणं, उत्तरिल्लस्स सीप्रामुहवणस्स पच्चत्थिमेणं, एगसेलस्स वक्खारपन्वयस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं विजए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए एवं जहा कच्छविजयस्स जाव पुक्खलावई अ इत्थ देवे परिवसइ, एएणद्वेणं। [121] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नामक चक्रवति-विजय कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में, उत्तरवर्ती शीतामुखवन के पश्चिम में, एकशैल वक्षस्कारपर्वत के पूर्व में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत पूष्कलावती नामक विजय बतलाया गया है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा है--इत्यादि सारा वर्णन कच्छविजय की ज्यों है। उसमें पुष्कलावती नामक देव निवास करता है। इस कारण वह पुष्कलावती विजय कहा जाता है। उत्तरी शीतामुख वन 122. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे सोनाए महाणईए उत्तरिल्ले सोआमुहवणे गाम वणे पण्णत्ते? गोयमा ! णीलवन्तस्स दक्खिणेणं, सोपाए उत्तरेणं, पुरस्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पुक्खलावइचक्कवट्टिविजयस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं सोआमुहवणे णामं वणे पण्णत्ते / उत्तरदाहिणायए, पाईणपडीणवित्थिण्णे, सोलसजोअणसहस्साइं पञ्च य बाणउए जोअणसए दोणि अ एगणवीसइभाए जोअणस्स पायामेणं, सीपाए महाणईए अन्तेणं दो जोअणसहस्साई नव य वावीसे जोअणसए विक्खम्भेणं / तयणंतरं च णं मायाए 2 परिहायमाणे 2 गोलबन्तवासहरपव्वयंतेणं एगं एगूणवीसइभागं जोअणस्स विक्खम्भेणंति / से गं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसण्डेणं संपरिक्खित्तं वण्णो सीआमुहवणस्स जाव' देवा आसयन्ति, एवं उत्तरिल्लं पास समत्तं / विजया भणिआ। रायहाणीयो इमानो-- 1. खेमा, 2. खेमपुरा चेव, 3. रिट्ठा, 4. रिट्ठपुरा तहा। 5. खग्गी, 6. मंजूसा, अवि अ 7. प्रोसही, 8. पुंडरीगिणी // 1 // सोलस विज्जाहरसेढीग्रो, तावइयाओ अभिओगसेढीओ सब्वानो इमाओ ईसाणस्स, सव्वेसु विजएसु कच्छवत्तव्वया जाव अट्ठो, रायाणो सरिसणामगा, विजएसु सोलसण्हं बक्खारपब्वयाणं चित्तकूडवत्तव्वया जाव कूडा चत्तारि 2, बारसण्हं गईणं गाहावइवत्तव्वया जाव उभओ पासि दोहि पउमवरवेइमाहिं वणसण्डेहि अ वण्णप्रो। [122] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में शीता महानदी के उत्तर में शीतामुख नामक वन कहाँ बतलाया गया है ? Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [239 गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, शीता महानदी के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पुष्कलावती चक्रवति-विजय के पूर्व में शीतामुख नामक वन बतलाया गया है / वह उत्तर-दक्षिण लम्बा तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। वह 16562 योजन लम्बा है। शीता महानदी के पास 2922 योजन च योजन चौडा है। तत्पश्चात इसकी मात्रा--विस्तार क्रमशः घटता जाता है। नीलवान वर्षधर पर्वत के पास यह केवल योजन चौड़ा रह जाता है। यह वन एक पद्मवरवेदिका तथा एक वन-खण्ड द्वारा संपरिवृत है। इस पर देव-देवियां आश्रय लेते हैं, विश्राम लेते हैं-तक का और वर्णन पूर्वानुरूप है। विजयों के वर्णन के साथ उत्तरदिग्वर्ती पार्श्व का वर्णन समाप्त होता है। विभिन्न विजयों की राजधानियां इस प्रकार हैं 1. क्षेमा, 2. क्षेमपुरा, 3. अरिष्टा, 4. अरिष्टपुरा, 5. खड्गी, 6. मंजूषा, 7. औषधि तथा 8. पुण्डरीकिणी। कच्छ आदि पूर्वोक्त विजयों में सोलह विद्याधर-श्रेणियां तथा उतनी ही सोलह ही आभियोग्यश्रेणियां हैं / ये आभियोग्यश्रेणियां ईशानेन्द्र की हैं। सब विजयों की वक्तव्यता--वर्णन कच्छविजय के वर्णन जैसा है। उन विजयों के जो जो नाम हैं, उन्हीं नामों के चक्रवर्ती राजा वहाँ होते हैं। विजयों में जो सोलह वक्षस्कार पर्वत हैं, उनका वर्णन चित्रकूट के वर्णन के सदृश है। प्रत्येक वक्षस्कार पर्वत के चार चार कूट-शिखर हैं। उनमें जो बारह नदियां हैं, उनका वर्णन ग्राहावती नदी जैसा है। वे दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वन-खण्डों द्वारा परिवेष्टित हैं, जिनका वर्णन पूर्वानुरूप है। दक्षिणी शीतामुखवन 123. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीमाए महाणईए दाहिणिल्ले सोयामुहवणे णाम वणे पण्णत्ते ? / एवं जह चेव उत्तरिल्लं सोप्रामुहवणं तह चेव दाहिणं पि भाणिअन्वं, णवरं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, सीपाए महाणईए दाहिणणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, वच्छस्स विजयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीआए महाणईए दाहिणिल्ले सीमामुहवणे णामं वणे पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए तहेव सवं णवरं णिसहवासहरपन्चयंतेणं एगमेगूणवीसहभागं जोअणस्स विक्खम्भेणं, किण्हे किण्णोभासे जाव' महया गन्धद्वाणि मुअंते जाव' प्रासयंति, उभओ पासिं दोहि पउमवरवेइब्राहि वणवण्णो / 6123] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में शीता महानदी के दक्षिण में शीतामुखवन नामक वन कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! जैसा शीता महानदी के उत्तर-दिग्वर्ती शीतामुख बन का वर्णन है, वैसा ही दक्षिण दिग्वर्ती शीतामुखवन का वर्णन समझ लेना चाहिए। इतना अन्तर है—दक्षिण-दिग्वर्ती शीतामुख 1. देखें सूत्र संख्या 6 2. देखें सूत्र संख्या 87 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र बन निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, शीता महानदी के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, वत्स विजय के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में विद्यमान है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा है और सब उत्तर-दिग्वर्ती शीतामुख वन की ज्यों है। इतना अन्तर और है-वह घटते-घटते निषध वर्षधर पर्वत के पास योजन चौड़ा रह जाता है। वह काले, नीले आदि पत्तों से युक्त होने से वैसी आभा लिये है / उससे बड़ी सुगन्ध फूटती है, देव-देवियां उस पर आश्रय लेते हैं, विश्राम करते हैं। वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा वनखण्डों से परिवेष्टित है-इत्यादि समस्त वर्णन पूर्वानुरूप है। वत्स आदि विजय 124. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णामं विजए पण्णते? गोयमा ! णिसहस्स वासहरपब्वयस्स उत्तरेणं, सीआए महाणईए दाहिणेणं, दाहिणिल्लस्स सीमामुहवणस्स पच्चत्थिमेणं, तिउडस्स वक्खारपब्वयस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं जम्बहीवे दीवे महाविदेहे वासे बच्छे णामं विजए पण्णत्ते, तं चेव पमाणं, सुसीमर रायहाणी 1, तिउडे बक्खारपव्वए सुवच्छे विजए, कुण्डला रायहाणी 2, तत्तजला गई, महावच्छे विजए अपराजिआ रायहाणी 3, वेसमणकूडे वक्खारपव्वए, वच्छावई विजए, पभंकरा रायहाणी 4, मत्तजला णई, रम्मे विजए, अंकावई रायहाणी 5, अंजणे वक्खारपव्वए रम्मगे विजए, पम्हावई रायहाणी 6, उम्मत्तजला महाणई, रमणिज्जे विजए, सुभा रायहाणी 7, मायंजणे वक्खारपवए मंगलावई विजए, रयणसंचया रायहाणीति 8 / एवं जह चैव सोनाए महाणईए उत्तरं पासं तह चेव दक्खिणिल्लं भाणिग्रव्वं, दाहिणिल्लसीआमुह-वणाइ। इमे वक्खार-कूडा, तं जहा--तिउडे 1, वेसमण कूडे 2, अंजणे 3, मायंजणे 4, [णईउ तत्तजला 1, मत्तजला 2, उम्मत्तजला 3,] विजया तं जहा बच्छे सुवच्छे महावच्छे, चउत्थे वच्छगावई / ___ रम्मे रम्मए चेव रमणिज्जे मंगलावई // 1 // रायहाणीयो, तं जहा सुसीमा कुण्डला चेव, अवराइभ पहंकरा। अंकाबई पम्हावई, सुभा रयणसंचया // वच्छस्स विजयस्स णिसहे दाहिणणं, सीमा उत्तरेणं, दाहिणिल्ल-सोदामुहवणे पुरस्थिमेणं, तिउडे पच्चत्थिमेणं, सुसीमा रायहाणी पमाणं तं चेवेति / / वच्छाणंतरं तिउडे, तो सुवच्छे विजए, एएणं कमेणं तत्तजला गई, महावच्छे विजए वेसमणकूडे वक्खारपवए, वच्छाबई विजए, मत्तजला गई, रम्मे विजए, अंजणे वक्खारपवए, रम्मए विजए, उम्मत्तजला गई, रमणिज्जे विजए, मायंजणे वक्खारपव्वए, मंगलावई विजए। [124] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में वत्स नामक विजय कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! निषध वर्षधर. पर्वत के उत्तर में, शीता महानदी के दक्षिण में, दक्षिणी शीतामुख Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वझरकार] {241 वन के पश्चिम में, त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में वत्स नामक विजय बतलाया गया है। उसका प्रमाण पूर्ववत् है / उसकी सुसीमा नामक राजधानी है। त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत पर सुवत्स नामक विजय है। उसकी कुण्डला नामक राजधानी है। वहाँ तप्तजला नामक नदी है। महावत्स विजय की अपराजिता नामक राजधानी है। वैश्रवणकूट वक्षस्कार पर्वत पर वत्सावती विजय है। उसकी प्रभंकरा नामक राजधानी है / वहाँ मत्तजला नामक नदी है / रम्य विजय की अंकावती नामक राजधानी है / अंजन वक्षस्कार पर्वत पर रम्यक विजय है / उसकी पद्मावती नामक राजधानी है / वहाँ उन्मत्तजला नामक महानदी है। रमणीय विजय की शुभा नामक राजधानी है। मातंजन वक्षस्कार पर्वत पर मंगलावती विजय है। उसकी रत्नसंचया नामक राजधानी है। शीता महानदी का जैसा उत्तरी पार्श्व है, वैसा ही दक्षिणी पार्श्व है। उत्तरी शीतामुख वन की ज्यों दक्षिणी शीतामुख वन है / वक्षस्कारकूट इस प्रकार हैं 1. त्रिकूट, 2. वैश्रवणकूट, 3. अंजनकूट, 4. मातंजनकूट / ( नदियां- 1. तप्तजला, 2. मत्तजला तथा 3. उन्मत्तजला / ) विजय इस प्रकार हैं 1. वत्स विजय, 2. सुवत्स विजय, 3. महावत्स विजय, 4. वत्सकावती विजय, 5. रम्य विजय, 6. रम्यक विजय, 7. रमणीय विजय तथा 8. मंगलावती विजय / राजधानियां इस प्रकार हैं 1. सुसीमा, 2. कुण्डला, 3. अपराजिता, 4. प्रभंकरा, 5. अंकावती, 6. पद्मावती, 7. शुभा तथा 8. रत्नसंचया। वत्स विजय के दक्षिण में निषध पर्वत है, उत्तर में शीता महानदी है, पूर्व में दक्षिणी शीतामुख वन है तथा पश्चिम में त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत है। उसकी सुसीमा राजधानी है, जिसका प्रमाण, वर्णन विनीता के सदश है। वत्स विजय के अनन्तर त्रिकूट पर्वत, तदनन्तर सुबत्स विजय, इसी क्रम से तप्तजला नदी, महावत्स विजय, वैश्रवण कूट वक्षस्कार पर्वत, वत्सावती विजय, मत्तजला नदी, रम्य विजय, अंजन वक्षस्कार पर्वत, रम्यक विजय, उन्मत्तजला नदी, रमणीय विजय, मातंजन वक्षस्कार पर्वत तथा मंगलावती विजय हैं। सौमनस वक्षस्कार पर्वत 125. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्खारपव्यए पण्णत्ते ? गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, मन्दरस्स पब्वयस्स दाहिणपुरस्थिमेणं मंगलावई० विजयस्स पच्चस्थिमेणं, देवकुराए पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे 2 महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाईणपडोणविस्थिण्णे, जहा मालवन्ते Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र वक्खारपवए तहा णवरं सव्वरययामये अच्छे जाव' पडिरूवे। णिसहवासहरपव्ययंतेणं चत्तारि जोअणसयाई उद्ध उच्चत्तेणं, चत्तारि गाऊसयाई उठवेहेणं, सेसं तहेव सव्वं गवरं अट्ठो से, गोयमा ! सोमणसे णं वक्खारपव्वए। बहवे देवा य देवोत्रो अ, सोमा, सुमणा, सोमणसे अ इत्थ देवे महिड्डीए जाव परिवसइ, से एएणठेणं गोयमा ! जाव णिच्चे। सोमणसे अ बक्खारपध्वए कइ कूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्त कूडा पण्णत्ता, तं.जहा सिद्ध 1 सोमणसे 2 वि अ, बोद्धब्वे मंगलावई कूडे 3 / देवकुरु 4 विमल 5 कंचण 6, वसिटकूडे 7 अ बोद्धव्वे // 1 // एवं सम्वे पञ्चसइआ कूडा, एएसि पुच्छा दिसिविदिसाए भाणिअन्वा जहा गन्धमायणस्स, विमलकञ्चणकूडेसु गरि देवयाओ सुवच्छा बच्छमित्ता य अवसिठेसु कूडेसु सरिस-णामया देवा रायहाणीयो दक्खिणेणंति / [125] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में सौमनस नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, मन्दर पर्वत के दक्षिण-पूर्व में-आग्नेय कोण में, मंगलावती विजय के पश्चिम में, देवकुरु के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में सौमनस नामक वक्षस्कार पर्वत बतलाया गया है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ा है / जैसा माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत है, वैसा ही वह है। इतनी विशेषता है-वह सर्वथा रजतमय है, उज्ज्वल है, सुन्दर है। वह निषध वर्षधर पर्वत के पास 400 योजन ऊँचा है। वह 400 कोश जमीन में गहरा है / बाकी सारा वर्णन माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत की ज्यों है। गौतम ! सौमनस वक्षस्कार पर्वत पर बहुत से सौम्य -- सरल-मधुर स्वभावयुक्त, कायकुचेष्टारहित, सुमनस्क—उत्तम भावना युक्त, मनःकालुष्य रहित देव-देवियां आश्रय लेते हैं, विश्राम करते हैं। तदधिष्ठायक परम ऋद्धिशाली सौमनस नामक देव वहाँ निवास करता है / इस कारण वह सौमनस वक्षस्कार पर्वत कहलाता है / अथवा गौतम ! उसका यह नाम नित्य है-सदा से चला आ रहा है। भगवन् ! सौमनस वक्षस्कार पर्वत के कितने कूट बतलाये गये हैं ? गौतम ! उसके सात कूट बतलाये गये हैं—१. सिद्धायतन कूट, 2. सोमनस कूट, 3. मंगलावती कूट. 4. देवकुरु कूट, 5. विमल कूट, 6. कंचन कूट तथा 7. वशिष्ठ कूट / ये सब कुट 500 योजन ऊँचे हैं / इनका वर्णन गन्धमादन के कुटों के सदृश है। इतना अन्तर है-विमल कूट तथा कंचन कूट पर सुवत्सा एवं वत्समित्रा नामक देवियाँ रहती हैं / बाको के 1. देखें सूत्र संख्या 4 2. देखें सूत्र संख्या 14 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [243 कटों पर, कूटों के जो-जो नाम हैं, उन-उन नामों के देव निवास करते हैं। मेरु के दक्षिण में उनकी राजधानियां हैं। देवकुरु 126. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पण्णता ? गोयमा ! मन्दरस्स पब्वयस्स दाहिणणं, णिसहस्स वासहर-पन्वयस्स उत्तरेणं, विज्जुप्पहस्स वक्खार-पन्वयस्स पुरथिमेणं, सोमणस-वक्खार-पवयस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पण्णत्ता। पाईण-पडीणायया, उदीण-दाहिण-वित्थिण्णा / इक्कारस जोअणसहस्साई अट्ट य बायाले जोअण-सए दुण्णि अ एगूणवीसइ-भाए जोअणस्स विक्खम्भेणं जहा उत्तरकुराए वत्तव्वया जाव अणुसज्जमाणा पम्हगन्धा, मिअगन्धा, अममा, सहा, तेतली, सणिचारोति / [126] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में देवकुरु नामक कुरु कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! मन्दर पर्वत के दक्षिण में, निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में, सौमनस वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत देवकुरु नामक कुरु बतलाया गया है / वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। वह 1184211 योजन विस्तीर्ण है। उसका और वर्णन उत्तरकुरु सदृश है। वहाँ पद्मगन्ध-कमलसदृश सुगन्ध युक्त, मृगगन्ध-कस्तूरी मृग सदृश सुगन्धयुक्त, अमम ममता रहित, सह–कार्यक्षम, तेतली-विशिष्ट पुण्यशाली तथा शनैश्चारी-मन्द गतियुक्तधीरे-धीरे चलने वाले छह प्रकार के मनुष्य होते हैं, जिनकी वंश-परंपरा-सन्तति-परंपरा उत्तरोत्तर चलती है। चित्र-विचित्र कट पर्वत 127. कहि णं भन्ते ! देवकुराए चित्तविचित्त-कडा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता ? गोयमा ! णिसहस्स वासहरपन्वयस्स उत्तरिल्लानो चरिमंताओ अढचोत्तीसे जोअणसए चत्तारि अ सत्तभाए जोपणस्स अबाहाए सीओआए महाणईए पुरथिमपच्चत्थिमेणं उभनो कूले एत्थ णं चित्त-विचित्त-कडा गाम दुवे पव्वया पण्णता। एवं जच्चेव जमगपब्वयाणं सच्चेव, एएसि रयहाणीनो दक्षिणेणंति / / [127] भगवन् ! देवकुरु में चित्र-विचित्र कूट नामक दो पर्वत कहाँ बतलाये गये हैं ? गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के उत्तरी चरमान्त से--अन्तिम छोर से 8344 योजन की दूरी पर शीतोदा महानदी के पूर्व-पश्चिम के अन्तराल में उसके दोनों तटों पर चित्र-विचित्र कूट नामक दो पर्वत बतलाये गये हैं। यमक पर्वतों का जैसा वर्णन है, वैसा ही उनका है। उनके अधिष्ठातृ-देवों की राजधानियां मेरु के दक्षिण में हैं। निषध द्रह 128. कहि णं भन्ते ! देवकुराए 2 णिसढदहे णामं दहे पण्णते ? Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244] [जन्मदीपप्राप्तिसूत्र गोयमा ! तेसि चित्तविचित्तकूडाणं पश्ययाणं उत्तरिल्लानो चरिमन्तानो प्रदुचोतीसे जोप्रणसए चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अबाहाए सीओआए महाणईए बहमज्झदेसभाए एत्थ णं णिसहहहै णामं दहे पण्णत्ते। ___ एवं जच्चेव नीलवंतउत्तरकुरुचन्देरावयमालवंताणं वत्तस्वया, सच्चेव णिसहदेवकुरुसूरसुलसविज्जुष्पभाणं णेश्रव्या, रायहाणीनो दक्षिणेणंति / [128] भगवन् ! देवकुरु में निषध द्रह नामक द्रह कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! चित्र-विचित्र कूट नामक पर्वतों के उत्तरी चरमान्त से 8344 योजन की दूरी पर शीतोदा महानदी के ठीक मध्य भाग में निषध द्रह नामक द्रह बतलाया गया है / नीलवान, उत्तरकुरु, चन्द्र, ऐरावत तथा माल्यवान्-इन द्रहों की जो वक्तव्यता है, वही निषध, देवकुरु, सूर, सुलस तथा विद्युत्प्रभ नामक द्रहों की समझनी चाहिए। उनके अधिष्ठातृ-देवों की राजधानियां मेरु के दक्षिण में हैं। कूटशाल्मलीपीठ 126. कहि णं भन्ते ! देवकुराए 2 कूडसामलिपेढे णामं पेढे पण्णते ? गोयमा ! मन्दरस्स पव्ययस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं, णिसहस्स वासहरपध्ययस्स उत्तरेणं, विज्जुप्पभस्स वक्खारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं, सोप्रोआए महाणईए पच्चस्थिमेणं देवकुरुपच्चस्थिमस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ णं देवकुराए कुराए कूडसामलीपेढे णामं पेढे पण्णते। ___ एवं जच्चेव जम्बूए सुदंसणाए वत्तव्वया सच्चेव सामलीए वि भाणिवा णामविहूणा, गरुलदेवे, रायहाणी दक्खिणेणं, अवसिळं तं चेव जाव देवकुरूप। इत्थ देवे पलिओवमदिइए परिवसइ, से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ देवकुरा 2, प्रदुत्तरं च णं देवकुराए / [126] भगवन् ! देवकुरु में कूटशाल्मलीपीठ--शाल्मली या सेमल वृक्ष के आकार में शिखर रूप पीठ कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! मन्दर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में--नैऋत्य कोण में, निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में, शीतोदा महानदी के पश्चिम में देवकुरु के पश्चिमार्ध के ठीक बीच में कूटशाल्मलीपीठ नामक पीठ बतलाया गया है। जम्बू सुदर्शना की जैसी वक्तव्यता है, वैसी ही कूटशाल्मलीपीठ की समझनी चाहिए। जम्बू सुदर्शना के नाम यहाँ नहीं लेने होंगे। गरुड इसका अधिष्ठातृ-देव है। राजधानी मेरु के दक्षिण में है / बाकी का वर्णन जम्बू सुदर्शना जैसा है। यहाँ एक पल्योपमस्थितिक देव निवास करता है / अतः गौतम ! यह देवकुरु कहा जाता है / अथवा देवकुरु नाम शाश्वत है / विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत 130. कहिं णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे 2 महाविदेहे वासे विज्जुप्पभे णामं वक्खारपन्चए पण्णते? गोयमा ! णिसहस्स वासहरपन्वयस्स उत्तरेणं, मन्दरस्स पव्वयस्स दाहिण-पच्चत्थिमेणं, Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [245 चतुर्थ बक्षस्कार] देवकुराए पच्चत्थिमेणं, पम्हस्स विजयस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जम्बुद्दीवे 2 महाविदेहे वासे विज्जुप्पमे वक्खारपव्वए पण्णत्ते / उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालवन्ते णवरि सव्वतबणिज्जमए अच्छे जाव' देवा प्रासयन्ति। विज्जुप्पमे णं भन्ते ! वक्खारपस्वए कइ कूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! नव कूडा पण्णत्ता, तंजहा-सिद्धाययणकूडे 1, विज्जुप्पभकूडे 2, देवकुरुकडे 3, पम्हकूडे 4, कणगकूडे 5, सोवस्थिअकूडे 6, सीओआकडे 7, सयज्जलकूडे 8, हरिफूडे / सिद्ध अ विज्जुणामे, देवकुरू पम्हकणगसोबत्थी। सीपोया य सयज्जलहरिकुडे चेव बोद्धब्वे // 1 // एए हरिकुडवज्जा पञ्चसइया अटवा। एएसि कूडाणं पुच्छा दिसिविदिसानो णेप्रवामो जहा मालवन्तस्स / हरिस्सहकूडे तह चेव हरिकूडे रायहाणी जह चेव दाहिणणं चमरचंचा रायहाणी तह अव्वा, कणगसोवस्थिअकूडेसु वारिसेण-बलाहयाओ दो देवयानो, अवसिठेसु कूडेसु कूडसरिसणामया देवा रायहाणीओ दाहिणणं / से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ-विज्जुप्पभे वक्खारपव्वए 2 ? गोयमा ! विज्जुप्पो णं वक्खारपब्वए विज्जुमिव सव्वश्रो समन्ता प्रोभासेइ, उज्जोवेइ, पभासइ, विज्जुप्पभे य इत्थ देवे पलिग्रोवमट्टिइए जाव' परिवसइ, से एएणद्वेणं गोयमा! एवं बच्चइ विज्जुप्पभे 2, अदुत्तरं च णं जाव णिच्चे। [130] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में विद्युत्प्रभ नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में, मन्दर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में, देवकुरु के पश्चिम में तथा पद्म विजय के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में विद्युत्प्रभ नामक वक्षस्कार पर्वत बतलाया गया है। वह उत्तर-दक्षिण में लम्बा है। उसका शेष वर्णन माल्यवान् पर्वत जैसा है। इतनी विशेषता है-वह सर्वथा तपनीय-स्वर्णमय है। वह स्वच्छ है-देदीप्यमान है, सुन्दर है / देव-देवियां पाश्रय लेते हैं, विश्राम करते हैं। भगवन् ! विद्यत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत के कितने कूट बतलाये गये हैं ? गौतम ! उसके नौ कूट बतलाये गये हैं-१. सिद्धायतनकूट, 2. विद्युत्प्रभकूट, 3. देवकुरुकूट, 4. पक्ष्मकूट, 5. कनककूट, 6. सौवत्सिककूट. 7. शीतोदाकूट, 8. शतज्वलकूट 9. हरिकूट / हरिकूट के अतिरिक्त सभी कूट पांच-पांच सौ योजन ऊँचे हैं। इनकी दिशा-विदिशाओं में अवस्थिति इत्यादि सारा वर्णन माल्यवान् जैसा है। 1. देखें सूत्र संख्या 4 2. देखें सूत्र संख्या 14 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र हरिकूट हरिस्सहकूट सदृश है। जैसे दक्षिण में चमरचञ्चा राजधानी है, वैसे ही दक्षिण में इसकी राजधानी है। ___ कनककूट तथा सौवत्सिककूट में वारिषेणा एवं बलाहका नामक दो देवियां-दिक्कुमारिकाएँ निवास करती हैं। बाकी के कूटों में कट-सदृश नामयुक्त देव निवास करते हैं। उनकी राजधानियां मेरु के दक्षिण में हैं। भगवन् ! वह विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत विद्युत की ज्यों-बिजली की तरह सब ओर से अवभासित होता है, उद्योतित होता है, प्रभासित होता है वैसी आभा, उद्योत एवं प्रभा लिये हुए है-बिजली की ज्यों चमकता है। वहाँ पल्योपमपरिमित आयुष्य-स्थिति युक्त विद्युत्प्रभ नामक देव निवास करता है, अतः वह पर्वत विद्युत्प्रभ कहलाता है / अथवा गौतम ! उसका यह नाम नित्य-शाश्वत है। विवेचन-यहाँ प्रयुक्त 'पल्योपम' शब्द एक विशेष, अति दीर्घकाल का द्योतक है। जैन वाङमय में इसका बहुलता से प्रयोग हुआ है। पल्य या पल्ल का अर्थ कुआ या अनाज का बहुत बड़ा गड्ढा है। उसके आधार पर या उसकी उपमा से काल-गणना किये जाने के कारण यह कालावधि 'पल्योपम' कही जाती है / पल्योपम के तीन भेद हैं--१. उद्धारपल्योपम, 2. अद्धापल्योपम तथा 3. क्षेत्रपल्योपम / उद्धारपल्योपम-कल्पना करें, एक ऐसा अनाज का बड़ा गड्ढा या कुना हो, जो एक योजन (चार कोश) लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा हो। एक दिन से सात दिन तक की पायुवाले नवजात यौगलिक शिशु के बालों के अत्यन्त छोटे-छोटे टुकड़े किये जाएँ, उनसे लूंस-ठूस कर उस गड्ढे या कुए को अच्छी तरह दबा-दबाकर भरा जाए। भराव इतना सघन हो कि अग्नि उन्हें जला न सके, चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाए तो एक भी कण इधर से उधर न हो, गंगा का प्रवाह बह जाए तो उन पर कुछ असर न हो / यों भरे हुए कुए में से एक-एक समय में एकएक बालखण्ड निकाला जाए। यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कुआ खाली हो, उस कालपरिमाण को उद्धारपल्योपम कहा जाता है। उद्धार का अर्थ निकालना है। बालों के उद्धार या निकाले जाने के आधार पर इसकी संज्ञा उद्धारपल्योपम है। उद्धारपल्योपम के दो भेद हैं--सूक्ष्म एवं व्यावहारिक / उपर्युक्त वर्णन व्यावहारिक उद्धारपल्योपम का है। सूक्ष्म उद्धारपल्योपम इस प्रकार है व्यावहारिक उद्धारपल्योपम में कुए को भरने के लिए यौगलिक शिशु के बालों के टुकड़ों की जो चर्चा आई है, उनमें से प्रत्येक टुकड़े के असंख्यात अदृश्य खंड किये जाएं। उन सूक्ष्म खंडों से पूर्ववणित कुरा ठूस-ठूस कर भरा जाए। वैसा कर लिये जाने पर प्रतिसमय एक-एक केशखण्ड कुए में से निकाला जाए। यों करते-करते जितने काल में वह कुआ बिलकुल खाली हो जाए, उस काल-अवधि को सूक्ष्म उद्धारपल्योपम कहा जाता है। इसमें संख्यात-वर्ष-कोटि-परिमाण काल माना जाता है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वमस्कार [247 प्रद्धापल्योपम-अद्धा देशी शब्द है, जिसका अर्थ काल या समय है। आगम के प्रस्तुत प्रसंग में जो पल्योपम का जिक्र आया है, उसका आशय इसी पल्योपम से है। इसकी गणना का क्रम इस प्रकार है यौगलिक के बालों के टुकड़ों से भरे हुए कए में से सौ-सौ वर्ष में एक-एक टुकड़ा निकाला जाए / इस प्रकार निकालते-निकालते जितने में वह कुआ बिलकुल खाली हो जाए, उस कालावधि को अद्धापल्योपम कहा जाता है / इसका परिमाण संख्यात-वर्ष-कोटि है। अद्धापल्योपम भी दो प्रकार का होता है-सूक्ष्म और व्यावहारिक / यहाँ जो वर्णन किया गया है, वह व्यावहारिक अद्धापल्योषम का है / जिस प्रकार सूक्ष्म उद्धारपल्योपम में यौगलिक शिशु के बालों के टुकड़ों के असंख्यात अदृश्य खंड किये जाने की बात है, तत्सदृश यहाँ भी वैसे ही असंख्यात अदृश्य केश-खंडों से वह कग्रा भरा जाए। प्रति सौ वर्ष में एक-एक खंड निकाला जाए। यों निकालते निकालते जब कुआ बिलकुल खाली हो जाए, वैसा होने में जितना काल लगे, वह सूक्ष्म अद्धापल्योपम, कोटि में आता है / इसका काल-परिमाण असंख्यात वर्ष कोटि माना जाता है / क्षेत्रपल्योपम-ऊपर जिस कुए या धान के विशाल गड्ढे की चर्चा की गई है, यौगलिक के बालखंडों से उसे उपयुक्त रूप में दबा-दबा कर भर दिये जाने पर भी उन खंडों के बीच-बीच में आकाश-प्रदेश-रिक्त स्थान रह जाते हैं। वे खंड चाहे कितने ही छोटे हों, आखिर वे रूपी या मूर्त हैं, अाकाश अरूपी या अमूर्त है / स्थूल रूप में उन खंडों के बीच में रहे आकाश-प्रदेशों की कल्पना नहीं की जा सकती पर सूक्ष्मता से सोचने पर वैसा नहीं है। इसे एक स्थूल उदाहरण से समझा जा सकता है-- कल्पना करें, अनाज के एक बहत बडे कोठे को कष्माण्डों-कम्हडों से भर दिया जाए। सामान्यतः देखने में लगता है, वह कोठा भरा हा है, उसमें कोई स्थान खाली नहीं है, पर यदि उसमें नीबू भरे जाएं तो वे अच्छी तरह समा सकते हैं, क्योंकि सटे हुए कुम्हड़ों के बीच-बीच में नीबूत्रों के समा सकने जितने स्थान खाली रहते ही हैं। यों नीबुओं से भरे जाने पर भी सूक्ष्म रूप में और खाली स्थान रह जाते हैं, यद्यपि बाहर से वैसा लगता नहीं। यदि उस कोठे में सरसों भरना चाहें तो वे भी समा जायेंगे। सरसों भरने पर भी सूक्ष्म रूप में और स्थान खाली रहते हैं। यदि शुष्क नदी के बारीक रज-कण उसमें भरे जाएं, तो वे भी समा सकते हैं। दूसरा उदाहरण दीवाल का है / चुनी हुई दीवाल में हमें कोई खाली स्थान प्रतीत नहीं होता, पर उसमें हम अनेक खूटियां, कीलें गाड़ सकते हैं। यदि वास्तव में दीवाल में स्थान खाली नहीं होता तो यह कभी संभव नहीं था। दीवाल में स्थान खाली है, मोटे रूप में हमें यह मालम नहीं पड़ता। क्षेत्रपल्योपम की चर्चा के अन्तर्गत यौगलिक के बालों के खण्डों के बीच-बीच में जो प्राकाश प्रदेश होने की बात है, उसे इसी दृष्टि से समझा जा सकता है। यौगलिक के बालों के खंडों को संस्पृष्ट करने वाले आकाश-प्रदेशों में से प्रत्येक को प्रति समय निकालने की कल्पना की जाए / यों निकालते-निकालते जब सभी आकाश-प्रदेश निकाल लिये जाएं, कुप्रा बिलकुल खाली हो जाए, वैसा होने में जितना काल लगे, उसे क्षेत्रपल्योपम कहा जाता है। इसका काल-परिमाण असंख्यात उर्पिणी-अवसर्पिणी है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूब क्षेत्रपल्योपम भी दो प्रकार का है-व्यावहारिक एवं सूक्ष्म / उपर्युक्त विवेचन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम का है। सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम इस प्रकार है-- कुए में भरे यौगलिक के केश-खंडों से स्पृष्ट तथा अस्पृष्ट सभी आकाश-प्रदेशों में से एकएक समय में एक-एक प्रदेश निकालने की यदि कल्पना की जाए तथा यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कुत्रा समग्र आकाश-प्रदेशों से रिक्त हो जाए, वह काल-प्रमाण सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम है। इसका भी काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है। व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम से इसका काल असंख्यात गुना अधिक है। __ अनुयोगद्वार सूत्र 138-140 तथा प्रवचनसारोद्धार 158 में पल्योपम का विस्तार से विवेचन है। पक्ष्मादि विजय 131. एवं पम्हे विजए, अस्सपुरा रायहाणी, अंकावई वखारपन्वए 1, सुपम्हे विजए, सोहपुरा रायहाणी, खीरोदा महाणई 2, महापम्हे विजए, महापुरा रायहाणी, पम्हावई वक्खारपव्वए 3, पम्हगावई विजए, विजयपुरा रायहाणी, सोपसोआ महाणई 4, संखे विजए, प्रवराइआ रायहाणी, आसीविसे वक्खारपब्वए 5, कुमुदे विजए अरजा रायहाणी अंतोवाहिणी महाणई 6, लिणे विजए, असोगा रायहाणी, सुहावहे वक्खारपव्वए 7, गलिणावई विजए, वीयसोगा रायहाणी 8, दाहिणिल्ले सीनोआमुहवणसंडे, उत्तरिल्ले वि एवमेव भाणिअन्वे जहा सीमाए। वप्पे विजए, विजया रायहाणी, चन्दे वक्खारपव्वए 1, सुवप्पे विजए, वेजयन्ती रायहाणी प्रोम्मिमालिणी गई 2, महावप्पे विजए, जयन्ती रायहाणी, सूरे वक्खारपटवए 3, वघ्यावई विजए, अपराइमा रायहाणी, फेणमालिणी गई 4, वग्गू विजए चक्कपुरा रायहाणी, णागे वक्खारपव्यए 5, सुवग्गू विजए, खग्गपुरा रायहाणी, गंभीरमालिणी अंतरणई 6, गन्धिले विजए अवज्झा रायहाणी, देवे धक्वारपव्वए 7, गन्धिलावई विजए अनोज्झा रायहाणी 8 / एवं मन्दरस्स पव्वयस्स पच्चथिमिल्लं पासं भाणिअव्वं, तत्थ ताव सीओपाए गईए दक्खिणिल्ले णं कूले इमे विजया, तंजहा-- पम्हे सुपम्हे महापम्हे, चउत्थे पम्हगावई / संखे कुमुए णलिणे, अट्ठमे णलिणावई // 1 // इमानो रायहाणीओ, तंजहा प्रासपुरा सोहपुरा, महापुरा चेव हवइ विजयपुरा। प्रवराइआ य अरया, असोग तह वोअसोगा य // 2 // इमे वक्खारा, तंजहा--अंके, पम्हे, आसोविसे, सुहावहे, एवं इत्थ परिवाडीए दो दो विजया कसरिस-णामया भाणिअव्वा, दिसा विदिसाओ अ भाणिअव्वानो, सीओश्रा-मुहवणं च भाणिअन्वं सोनोग्राए दाहिणिल्लं उत्तरिल्लं च / सीओआए उत्तरिल्ले पासे इमे विजया, तं जहा Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [249 बप्पे सुवप्पे महावप्पे, चउत्थे वप्पयावई। वग्गू अ सुवग्गू अ, गन्धिले गन्धिलावई // 1 // रायहाणीओ इमाओ, तं जहा विजया वेजयन्ती, जयन्ती अपराजिना। चक्कपुरा खग्गपुरा, हवइ अवज्झा अउज्झा य // 2 // इमे वक्खारा, तं जहा–चन्दपन्वए 1, सूरपब्वए 2, नागपव्वए 3, देवपन्वए 4 / इमानो णईनो सीप्रोप्राए महाणईए दाहिणिल्ले कूले खोरोआ सोहसोबा अंतरवाहिणीसो गईओ 3, उम्मिमालिणी 1, फेणमालिणी 2, गंभीरमालिणी 3, उत्तरिल्ल विजयाणन्तराउत्ति / इत्थ परिवाडीए दो दो कूडा विजयसरिसणामया भाणिअन्वा, इमे दो दो कूडा अवद्विश्रा, तं जहा-सिद्धाययणकडे पव्वयसरिसणामकूडे / [131] पक्ष्म विजय है, अश्वपुरी राजधानी है, अंकावती वक्षस्कार पर्वत है। सुपक्ष्म विजय है, सिंहपुरी राजधानी है, क्षीरोदा महानदी है। महापक्ष्म विजय है, महापुरी राजधानी है, पक्ष्मावती वक्षस्कार पर्वत है / पक्ष्मकावती विजय है, विजयपुरी राजधानी है, शीतस्रोता महानदी है / शंख विजय है, अपराजिता राजधानी है, आशीविष वक्षस्कार पर्वत है। कुमुद विजय है, अरजा राजधानी है, अन्तर्वाहिनी महानदी है। नलिन विजय है, अशोका राजधानी है, सुखावह वक्षस्कार पर्वत है। नलिनावती (सलिलावती) विजय है, वीताशोका राजधानी है। दाक्षिणात्य शीतोदामुख वनखण्ड है। इसी की ज्यों उत्तरी शोतोदामुख वनखण्ड है। उत्तरी शीतोदामुख बनखण्ड में वप्र विजय है, विजया राजधानी है, चन्द्र वक्षस्कार पर्वत है / सुवप्र विजय है, वैजयन्ती राजधानी है, ऊमिमालिनी नदी है / महावप्र विजय है, जयन्ती राजधानी है, सुर वक्षस्कार पर्वत है / वप्रावती विजय है, अपराजिता राजधानी है, फेनमालिनी नदी है / वल्गु विजय है, चक्रपुरी राजधानी है, नाग वक्षस्कार पर्वत है / सुवल्गु विजय है, खड्गपुरी राजधानी है, गम्भीरमालिनी -अन्तरनदी है। गन्धिल विजय है, अवध्या राजधानी है, देव वक्षस्कार पर्वत है। गन्धिलावती विजय है, अयोध्या राजधानी है। इसी प्रकार मन्दर पर्वत के दक्षिणी पार्श्व का-भाग का कथन कर लेना चाहिए / वह वैसा ही है। वहाँ शीतोदा नदी के दक्षिणी तट पर ये विजय हैं 1. पक्ष्म, 2. सुपक्ष्म, 3. महापक्ष्म, 4. पक्ष्मकावती, 5. शंख, 6. कुमुद, 7. नलिन तथा 8. नलिनावती। राजधानियां इस प्रकार हैं---- 1. अश्वपुरी, 2. सिंहपुरी, 3. महापुरी, 4. विजयपुरी, 5. अपराजिता, 6. अरजा, 7. अशोका तथा 8. वीतशोका। वक्षस्कार पर्वत इस प्रकार हैं१. अंक, 2. पक्ष्म, 3. आशीविष तथा 4. सुखावह / Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र इस क्रमानुरूप कूट सदृश नामयुक्त दो-दो विजय, दिशा-विदिशाएँ, शीतोदा का दक्षिणवर्ती मुखवन तथा उत्तरवर्ती मुखवन-ये सब समझ लिये जाने चाहिए। शीतोदा के उत्तरी पार्श्व में ये विजय हैं 1. वप्र, 2. सुवप्र, 3. महावप्र, 4. वप्रकावती (वप्रावती), 5. वल्गु, 6. सुवल्गु, 7. गन्धिल तथा 8. गन्धिलावती / राजधानियां इस प्रकार हैं 1. विजया, 2. वैजयन्ती, 3. जयन्ती, 4. अपराजिता, 5. चक्रपुरी, 6. खड्गपुरी, 7. अवध्या तथा 8. अयोध्या। वक्षस्कार पर्वत इस प्रकार हैं१. चन्द्र पर्वत, 2. सूर पर्वत, 3. नाग पर्वत तथा 4. देव पर्वत / क्षीरोदा तथा शीतस्रोता नामक नदियां शीतोदा महानदी के दक्षिणी तट पर अन्तरवाहिनी नदियां हैं। मिमालिनी, फेनमालिनी तथा गम्भीरमालिनी शीतोदा महानदी के उत्तर दिग्वर्ती विजयों की अन्तरवाहिनी नदियां हैं। इस क्रम में दो-दो कूट-पर्वत-शिखर अपने-अपने विजय के अनुरूप कथनीय हैं / वे अवस्थित-स्थिर हैं, जैसे--सिद्धायतन कूट तथा वक्षस्कार पर्वत-सदृश नाभयुक्त कूट / मन्दर पर्वत 132. कहि गं भन्ते ! जम्बुद्दीवे 2 महाविदेहे वासे मन्दरे णामं पम्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! उत्तरकुराए दक्षिणेणं, देवकुराए उत्तरेणं, पुवविदेहस्स वासस्स पच्चत्थिमेणं, अवरविदेहस्स वासस्स पुरस्थिमेणं, जम्बुद्दीवस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरे णामं पव्वए पण्णत्ते। णवणउतिजोअणसहस्साई उद्धं उच्चत्तेणं, एगं जोअणसहस्सं उन्वेहेणं, मूले दसजोअणसहस्साई णवइंच जोअणाई दस य एगारसभाए जोअणस्स विक्खम्भेणं, धरणिअले दस जोअणसहस्साई विक्खम्भेणं, तयणन्तरं च णं मायाए 2 परिहायमाणे परिहायमाणे उवरितले एगं जोअणसहस्सं विक्खंभेणं / मूले इक्कत्तीसं जोअणसहस्साई णव य दसुत्तरे जोअणसए तिणि अ एगारसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं, धरणिप्रले एकत्तीसं जोअणसहस्साई छच्च तेवीसे जोअणसए परिक्खेवेणं, उवरितले तिणि जोपणसहस्साई एमं च बावटें जोअणसयं किंचिविसेसाहिअं परिक्खेवेणं / मूले वित्थिण्णे, मज्झे संखित्ते, उरि तणए, गोपुच्छसंठाणसंठिए, सव्वरयणामए, अच्छे, सण्हेत्ति / से णं एगाए पउमवरवेइमाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ते वण्णप्रोत्ति / मन्दरे णं भन्ते ! पव्वए कई वणा पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि वणा पण्णता, तं जहा-भहसालवणे 1, णन्दणवणे 2, सोमणसवणे 3, Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्ष बसस्कार [251 कहि णं भन्ते ! मन्दरे पन्वए भद्दसालवणे णामं वणे पण्णत्ते ? . गोयमा ! धरणिले एत्थ णं मन्दरे पन्धए भद्दसालवणे णामं वणे पण्णत्ते / पाईणपडीणायए, उदीणवाहिणवित्थिण्णे, सोमणसविज्जुप्पहगंधमायणमालवंतेहिं वक्खारपब्वएहिं सोमासोप्रोग्राहि प्र महाणईहिं अट्ठभागपविभत्ते। मन्दरस्स पब्वयस्स पुरथिमपच्चस्थिमेणं बावीसं बावीसं जोनणसहस्साई आयामेणं, उत्तरदाहिणणं श्रद्धाइज्जाई अद्धाइज्जाइं जोअणसयाई विक्खम्भेणंति / से गं एगाए पउभवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वनो समन्ता संपरिविखत्ते / दुण्हवि वण्णनो भाणिअन्यो, किण्हे किण्होभासे जाव' देवा प्रासयन्ति सयन्ति / ___मन्दरस्स णं पव्वयस्स पुरथिमेणं भद्दसालवणं पण्णासं जोअणाई प्रोगाहित्ता एत्व णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते। पण्णासं जोअणाई प्रायामेणं, पणवीसं जोषणाई विक्खम्भेणं, छत्तीसं जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, अणेगखम्भसयसण्णिविट्ठे वष्णो। तस्स गं सिद्धाययणस्स तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता / ते गं दारा अट्ट जोअणाई उद्ध उच्चत्तेणं, चत्तारि जोषणाई विक्खम्भेणं, तावड्यं चेव पवेसेणं, सेना वरकणगथूभिआगा जाव वणमालानो भूमिभागो अ भाणिप्रव्यो। तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिना पण्णत्ता। अट्ठजोनणाई मायामविक्खम्भेणं, चत्तारि जोषणाई बाहल्लेणं, सम्वरयणामई, अच्छा। तोसे णं मणिपेढिपाए उरि देवच्छन्दए, अट्ठजोप्रणाई आयामविक्खम्भेणं, साइरेगाइं अट्ठजोप्रणाई उद्ध उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमावण्णओ देवच्छन्दगस्स जाव धूवकडुच्छ पाणं इति / मन्दरस्स गं पव्वयस्स दाहिणणं भद्दसालवणं पण्णासं एवं चउद्दिसिपि मन्दरस्स, भद्दसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा भाणिअव्वा / मन्दरस्स णं पव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं भ६सालवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि णन्दापुक्खरिणीनो पण्णत्ताओ तं जहा-पउमा 1, पउमप्पभा 2, चेव कुमुदा 3, कुमुदप्पभा 4, ताओ णं पुक्खरिणीप्रो पण्णासं जोअणाई आयामेणं, पणवीसं जोअणाई विक्खम्भेणं, दंसजोअणाइं उब्वेहेणं, वण्णो वेइग्रावणसंडाणं भाणिअव्वो, चउद्दिसि तोरणा जाव तासि णं पुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो पासायडिसए पण्णते। पञ्चजोअणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, प्रद्धाइज्जाइं जोअणसयाई विक्खंभेणं, अन्नग्गयमूसिय एवं सपरिवारो पासायडिसओ भाणिप्रव्यो। __ मंदरस्स णं एवं दाहिणपुरस्थिमेणं पुक्खरिणीम्रो उप्पलगुम्मा, पलिणा, उप्पला, उप्पलुज्जला तं चेव पमाणं, मज्झे पासायडिसओ सक्कस्स सपरिवारो। तेणं चेव पमाणणं दाहिणपच्चत्थिमेणवि पुक्खरिणीयो भिगा भिगनिभा चेव, अंजणा अंजणप्पभा। पासायडिसओ सक्कस्स सीहासणं सपरिवार। उत्तरपुरस्थिमेणं पुक्खरिणीओ-सिरिकता 1, सिरिचन्दा 2, सिरिमहिमा 3, चेव सिरिणिलया 4 / पासायडिसनो ईसाणस्स सीहासणं सपरिवारंति / मन्दरे णं भन्ते ! पव्वए भद्दसालवणे कइ दिसाहथिकूडा पण्णता? 1. देखें सूत्र संख्या 6 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252] [जम्मवीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! अट्ठ दिसाहत्थिकडा पण्णता, तं जहा पउमुत्तरे 1, णोलवन्ते 2, सुहत्थी 3, अंजणागिरी 4 / कुमुदे अ५, पलासे अ६, वडिसे 7, रोअणागिरी 8 // 1 // कहि णं भन्ते ! मन्दरे पव्वए भइसालवणे पउमुत्तरे णाम दिसाहस्थिडे पण्णते ? गोयमा ! मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरथिमेणं, पुरथिमिल्लाए सीमाए उत्तरेणं एत्थ णं पउमुत्तरे णाम दिसाहथिकडे पण्णत्ते। पञ्चजोप्रणसयाई उद्ध उच्चत्तेणं, पञ्चगाउसयाई उब्वेहेणं एवं विक्खम्भपरिक्खेवो भाणिअन्वो चुल्ल हिमवन्तसरिसो, पासायाण य तं चेव पउमुत्तरो देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं 1 / एवं णीलवन्तदिसाहस्थिडे मन्दरस्स दाहिणपुरथिमेणं पुरथिमिल्लाए सोआए दक्षिणेणं / एप्रस्सवि नीलवन्तो देवो, रायहाणी दाहिणपुरस्थिमेणं 2 / एवं सुहस्थिदिसाहथिकूडे मंदरस्स दाहिणपुरस्थिमेणं दक्षिणिल्लाए सोपोआए पुरथिमेणं / एअस्सवि सुहत्थी देवो, रायहाणी दाहिणपुरस्थिमेणं 3 / एवं चेव अंजणागिरिदिसाहत्थिकडे मन्दरस्स दाहिणपच्चरिथमेणं, दक्खिणिल्लाए सीओआए पच्चस्थिमेणं, एअस्सवि अंजणगिरी देवो, रायहाणो दाहिणपच्चस्थिमेणं 4 / एवं कुमुदे विदिसाहत्थिडे मन्दरस्स दाहिणपच्चस्थिमेणं० पच्चथिमिल्लाए सीप्रोप्राए दविखणेणं, एनस्सवि कुमुदो देवो रायहाणो दाहिणपच्चस्थिमेणं 5 / एवं पलासे विदिसाहत्थिडे मन्दरस्स उत्तरपच्चथिमिल्लाए सोनोपाए उत्तरेणं, एअस्सवि पलासो देवो, रायहाणी उत्तरपच्चस्थिमेणं 6 / एवं वडेसे विदिसाहथिकूडे मन्दरस्स उत्तरपच्चस्थिमेणं उत्तरिल्लाए सोनाए महाणईए पच्चस्थिमेणं / एअस्सवि वडेंसो देवो, रायहाणी उत्तरपच्चत्थिमेणं / __ एवं रोअणागिरी दिसाहत्थिकडे मंदरस्स उत्तरपुरस्थिमेणं, उत्तरिल्लाए सीमाए पुरथिमेणं / एयस्सवि रोअणागिरी देवो, रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं / [132] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में मन्दर नामक पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! उत्तरकुरु के दक्षिण में, देवकुरु के उत्तर में, पूर्व विदेह के पश्चिम में और पश्चिम विदेह के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उसके बीचोंबीच मन्दर नामक पर्वत बतलाया गया है। वह 66000 योजन ऊँचा है, 1000 जमीन में गहरा है / वह मूल में 1009010 योजन तथा भूमितल पर 10000 योजन चाड़ा है / उसके बाद वह चोड़ाईको मात्रा में क्रमशः घटतापर 1000 योजन चौड़ा रह जाता है। उसकी परिधि मूल में 319101 योजन, भूमितल पर 31623 योजन तथा ऊपरी तल पर कुछ अधिक 3162 योजन है / वह मूल में विस्तीर्ण-चौड़ा, मध्य में संक्षिप्त—संकड़ा तथा ऊपर तनुक–पतला है। उसका आकार गाय की पूंछ के आकार जैसा Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [253 है / वह सर्वरत्नमय है. स्वच्छ है, सुकोमल है। वह एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक बनखण्ड द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है / उसका विस्तृत वर्णन पूर्वानुरूप है / भगवन् ! मन्दर पर्वत पर कितने बन बतलाये गये हैं ? गौतम ! वहाँ चार वन बतलाये गये हैं---२. भद्रशाल वन, 2. नन्दन वन, 3. सौमनस वन तथा 4. पंडक वन / गौतम ! मन्दर पर्वत पर भद्रशाल वन नामक वन कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! मन्दर पर्वत पर उसके भूमिभाग पर भद्रशाल नामक बन बतलाया गया है। वह पर्व-पश्चिम लम्बा एवं उत्तर-दक्षिण चौडा है। वह सौमनस, विद्यत्प्रभ, गन्धमा नामक वक्षस्कार पर्वतों द्वारा शीता तथा शीतोदा नामक महानदियों द्वारा आठ भागों में विभक्त है। वह मन्दर पर्वत के पूर्व-पश्चिम बाईस-बाईस हजार योजन लम्बा है, उत्तर-दक्षिण अढ़ाई सौ-पढ़ाई सौ योजन चौड़ा है / वह एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक वन-खण्ड द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। दोनों का वर्णन पूर्ववत् है। वह काले, नीले पत्तों से आच्छन्न है, वैसी आभा से युक्त है। देव-देवियां वहाँ अाश्रय लेते हैं, विश्राम लेते हैं-इत्यादि वर्णन पूर्वानुरूप है।। मन्दर पर्वत के पूर्व में भद्रशाल वन में पचास योजन जाने पर एक विशाल सिद्धायतन प्राता है / वह पचास योजन लम्बा है, पच्चीस योजन चौड़ा है तथा छत्तीस योजन ऊँचा है / वह सैकड़ों खंभों पर टिका है / उसका वर्णन पूर्ववत् है / उस सिद्धायतन की तीन दिशाओं में तीन द्वार बतलाये गये हैं / वे द्वार आठ योजन ऊँचे तथा चार योजन चौड़े हैं। उनके प्रवेश मार्ग भी उतने ही हैं। उनके शिखर श्वेत हैं-उज्ज्वल हैं, उत्तम स्वर्ण निर्मित हैं / यहाँ से सम्बद्ध वनमाला, भूमिभाग आदि का सारा वर्णन पूर्वानुरूप है / उसके बीचोंबीच एक विशाल मणिपीठिका है। वह पाठ योजन लम्बी-चौड़ी है, चार योजन मोटी है, सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, उज्ज्वल है / उस मणिपीठिका के ऊपर देवच्छन्दक-देवासन है / वह पाठ योजन लम्बा-चौड़ा है / वह कुछ अधिक पाठ योजन ऊँचा है / जिनप्रतिमा, देवच्छन्दक, धूपदान आदि का वर्णन पूर्ववत् है। मन्दर पर्वत के दक्षिण में भद्रशाल वन में पचास योजन जाने पर वहाँ उस (मन्दर) की चारों दिशाओं में चार सिद्धायतन हैं / मन्दर पर्वत के उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में भद्रशाल वन में पचास योजन जाने पर पद्मा, पद्मप्रभा, कुमुदा तथा कुमुदप्रभा नामक चार पुष्करिणियां आती हैं। वे पचास योजन लम्बी, पच्चीस योजन चौड़ी तथा दश योजन जमीन में गहरी हैं / वहाँ पद्मवरवेदिका, वन-खण्ड तथा तोरण द्वार आदि का वर्णन पूर्वानुरूप है / उन पुष्करिणियों के बीच में देवराज ईशानेन्द्र का उत्तम प्रासाद है / वह पाँच सौ योजन ऊँचा और अढ़ाई सौ योजन चौड़ा है / सम्बद्ध सामग्री सहित उस प्रासाद का विस्तृत वर्णन पूर्वानुरूप है। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254] [जनीपप्रज्ञप्तिसूत्र ___ मन्दर पर्वत के दक्षिण-पूर्व में प्राग्नेय कोण में उत्पलगुल्मा, नलिना, उत्पला तथा उत्पलोज्ज्वला नामक पुष्करिणियां हैं, उनका प्रमाण पूर्वानुसार है। उनके बीच में उत्तम प्रासाद हैं। देवराज शकेन्द्र वहाँ सपरिवार रहता है। मन्दर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में-नैऋत्य कोण में भृगा, भृगनिभा, अंजना एव अंजनप्रभा नामक पुष्करिणियां हैं, जिनका प्रमाण, विस्तार पूर्वानुरूप है / शक्रेन्द्र वहाँ का अधिष्ठातृ देव है / सम्बद्ध सामग्री सहित सिंहासन पर्यन्त सारा वर्णन पूर्ववत् है। मन्दर पर्वत के उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में श्रीकान्ता, श्रीचन्द्रा, श्रीमहिता तथा श्रीनिलया नामक पुष्करिणियां हैं / बीच में उत्तम प्रासाद हैं / वहाँ ईशानेन्द्र देव निवास करता है। सम्बद्ध सामग्री सहित सिंहासन पर्यन्त सारा वर्णन पूर्वानुरूप है। भगवन् ! मन्दर पर्वत पर भद्रशाल वन में दिशाहस्तिकट-हाथी के आकार के शिखर कितने बतलाये गये हैं ? गौतम ! वहाँ आठ दिग्हस्तिकूट बतलाये गये हैं 1. पद्मोत्तर, 2. नीलवान्, 3. सुहस्ती, 4. अंजनगिरि, 5. कुमुद, 6. पलाश, 7. अवतंस तथा 8. रोचनागिरि / भगवन् ! मन्दर पर्वत पर भद्रशाल वन में पद्मोत्तर नामक दिग्हस्तिकूट कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! मन्दर पर्वत के उत्तर-पूर्व में ईशान कोण में तथा पूर्व दिग्गत शीता महानदी के उत्तर में पद्मोत्तर नामक दिग्हस्तिकूट बतलाया गया है / वह 500 योजन ऊँचा तथा 500 कोश जमीन में गहरा है / उसकी चौड़ाई तथा परिधि चुल्ल हिमवान् पर्वत के समान है / प्रासाद आदि पूर्ववत् हैं / वहाँ पद्मोत्तर नामक देव निवास करता है / उसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में ईशान कोण में है। नीलवान नामक दिग्हस्तिकट मन्दर पर्वत के दक्षिण-पूर्व में-आग्नेय कोण में तथा पूर्व दिशागत शीता महानदी के दक्षिण में है। वहाँ नीलवान् नामक देव निवास करता है। उसकी राजधानी दक्षिण-पूर्व में प्राग्नेय कोण में है। सुहस्ती नामक दिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के दक्षिण-पूर्व में-आग्नेय कोण में तथा दक्षिणदिशागत शीतोदा महानदी के पूर्व में है। वहाँ सुहस्ती नामक देव निवास करता है। उसकी राजधानी दक्षिण-पूर्व में आग्नेय कोण में है / ___अंजनगिरि नामक दिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में नैऋत्य कोण में तथा दक्षिण-दिशागत शीतोदा महानदी के पश्चिम में है। अंजनगिरि नामक उसका अधिष्ठायक देव है। उसकी राजधानी दक्षिण-पश्चिम में--नैऋत्य कोण में है। ___ कुमुद नामक विदिशागत हस्तिकूट मन्दर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में नैऋत्य कोण में तथा पश्चिम-दिग्वर्ती शीतोदा महानदी के दक्षिण में है। वहाँ कुमुद नामक देव निवास करता है। उसकी राजधानी दक्षिण-पश्चिम में-नैऋत्य कोण में है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [255 चतुषं पक्षकार] पलाश नामक विदिग्रहस्तिकट मन्दर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में वायव्य कोण में एवं पश्चिम दिग्वर्ती शोतोदा महानदी के उत्तर में है। वहाँ पलाश नामक देव निवास करता है / उसकी राजधानी उत्तर-पश्चिम में वायव्य कोण में है। अवतंस नामक विदिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में वायव्य कोण में तथा उत्तर दिग्गत शीता महानदी के पश्चिम में है। वहाँ अवतंस नामक देव निवास करता है। उसकी राजधानी उत्तर-पश्चिम में वायव्य कोण में है / रोचनागिरि नामक दिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में और उत्तर दिग्गत शीता महानदी के पूर्व में है। रोचनागिरि नामक देव उस पर निवास करता है / उसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में है। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में मन्दर पर्वत के पद्मोत्तर, नीलवान्, सुहस्ती, अंजनगिरि, कुमुद, पलाश, अवतंस तथा रोचनागिरि---इन आठ दिग्हस्तिकूटों का उल्लेख हुआ है। हाथी के आकार के ये कूट-शिखर भिन्न-भिन्न दिशाओं एवं विदिशाओं में संस्थित हैं। इन कटों की चर्चा के प्रसंग में पद्मोत्तर, नीलवान्, सुहस्ती तथा अंजनगिरि को दिशा-हस्तिकूट कहा गया है और कुमुद, पलाश एवं अवतंस को विदिशा-हस्तिकूट कहा गया है। प्राशय स्पष्ट है, पहले चार, जैसा सूत्र में वर्णन है, भिन्न-भिन्न दिशाओं में विद्यमान हैं तथा अगले तीन विदिशाओं में विद्यमान हैं / अन्तिम आठवें कूट रोचनागिरि के लिए दिशाहस्तिकूट शब्द आया है, जो संशय उत्पन्न करता है। आठ कूट अलग-अलग चार दिशामों में तथा चार विदिशाओं में हों. यह संभाव्य है। रोचनागिरि के दिशाहस्तिकूट के रूप में लिये जाने से दिशा-हस्तिकूट पांच होंगे तथा विदिशा-हस्तिकूट तीन होंगे / ऐसा संगत प्रतीत नहीं होता। प्रागमोदय समिति के, पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज के तथा पूज्य श्री घासीलाल जी महाराज के जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र के संस्करणों के पाठ में तथा अर्थ में रोचनागिरि का दिशाहस्तिकूट के रूप में ही उल्लेख हुया है / यह विचारणीय एवं गवेषणीय है। नन्दन यन 133. कहि णं भन्ते ! मन्दरे पव्वए गंदणवणे णामं वणे पण्णते ? गोयमा ! भद्दसालवणस्स बहुसमरमणिज्जायो भूमिभागाओ पञ्चजोअणसयाई उद्धं उप्पइता एस्थ णं मन्दरे पम्वए णन्दणवणे णामं वणे पण्णत्ते। पञ्चजोपणसयाई चक्कवालविक्खम्भेणं, वट्टे, वलयाकारसंठाणसंठिए, जे णं मन्दरं पव्वयं सम्वनो समन्ता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठा ति। णवजोअणसहस्साइं गव य चउप्पण्णे जोअणसए छच्चेगारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविक्खम्भो, एगत्तीसं जोअणसहस्साई चत्तारि प्रअउणासीए जोअणसए किंचि विसेसाहिए बाहि गिरिपरिरएणं, अट्ट जोनणसहस्साई णव य चउप्पण्णे जोअणसए छच्चेगारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिविक्खम्भो, अद्रावीसं जोअणसहस्साई तिणि य सोलसुत्तरे जोअणसए अट्ट य इक्कारसभाए जोपणस्स अंतो गिरिपरिरएणं / से णं एगाए पउमवरवेइमाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समन्ता संपरिक्खिते वणओ जाव आसयन्ति / Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256] [जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्र मन्दरस्स गं पव्वयस्स पुरथिमेणं एत्य णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते / एवं चउद्दिसि चत्तारि सिद्धाययणा, विदिसासु पुक्खरिणीओ, तं चेव पमाणं सिद्धाययणाणं पुक्खरिणीणं च पासायडिसगा तह चेव सक्केसाणाणं तेणं चैव पमाणेणं। गंदणवणे णं भन्ते ! कइ कूडा पण्णता? गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा–णन्दणवणकूडे 1, मन्दरकूडे 2, णिसहकूडे 3, हिमवयफूडे 4, रययकूडे 5, रुअगकूडे 6, सागरचित्तकूडे 7, वइरकूडे 8, बलकूडे है / कहि णं भन्ते ! णन्दणवणे गंदणवणकूडे णामं कूडे पण्णते? गोयमा ! मन्दरस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लसिद्धाययणस्स उत्तरेणं, उत्तरपुरस्थिमिल्लस्स पासायवडेंसयस्स दक्खिणेणं, एत्थ णं गन्दणवणे गंदणवणे णामं कूडे पण्णत्ते / पञ्चसइआ कूडा पुत्ववण्णिा भाणिप्रवा। देवी मेहंकरा, रायहाणी विदिसाएत्ति 1 / एमाहिं चेव पुग्वाभिलावेणं अव्वा इमे कूडा। इमाहिं दिसाहि पुरथिमिल्लस्स भवणस्स दाहिणेणं, दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं, मन्दरे कूडे मेहवई रायहाणी पुब्वेणं 2 / दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पुरथिमेणं, दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पच्चत्थिमेणं णिसहे कूडे सुमेहा देवी, रायहाणी दक्षिणेणं 3 / दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पच्चस्थिमेणं, दक्षिणपच्चथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पुरस्थिमेणं हेमवए कूडे हेममालिनी देवी, रायहाणी दक्खिणेणं 4 / पच्चथिमिल्लस्स भवणस्स दक्खिणेणं दाहिण-पच्चथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं रययफूडे सुवच्छा देवी, रायहाणी पच्चस्थिमेणं 5 / पच्चथिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं, उत्तर-पच्चथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स दक्षिणेणं रुअगे कडे बच्छमित्ता देवी, रायहाणी पच्चत्थिमेणं 6 / उत्तरिल्लस्स भवणस्स पच्चत्थिमेणं, उत्तर-पच्चथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पुरथिमेणं सागरचित्ते कूडे वइरसेणा देवी, रायहाणी उत्तरेणं 7 / ___उत्तरिल्लस्स भवणस्स पुरथिमेणं, उत्तर-पुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पच्चत्थिमेणं वइरकूडे बलाहया देवी, रायहाणी उत्तरेणंति 8 / कहि णं भन्ते ! णन्दणवणे बलकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? गोयमा ! मन्दरस्स फव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं णन्दणवणे बलफूडे णामं कडे पण्णत्ते। एवं जं चेव हरिस्सहकूडस्स पमाणं रायहाणी अ तं चेव बलकूडस्सवि, णवरं बलो देवो, रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणंति / [133] भगवन् ! मन्दर पर्वत पर नन्दनवन नामक वन कहाँ बतलाया गया हैं ? गौतम ! भद्रशालवन के बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग से पांच सौ योजन ऊपर जाते पर मन्दर पर्वत पर नन्दनवन नामक वन आता है / चक्रवालविष्कम्भ-सममण्डल विस्तार Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अक्षरकार] [247 परिधि के सब ओर से समान विस्तार की अपेक्षा से वह 500 योजन है, गोल है। उसका आकार वलय-कंकण के सदृश है, सघन नहीं है, मध्य में वलय की ज्यों शुषिर है-रिक्त (खाली) है / वह (नन्दन वन) मन्दर पर्वतों को चारों ओर से परिवेष्टित किये हुए है। नन्दन वन के बाहर मेरु पर्वत का विस्तार 9954 योजन है। नन्दन वन से बाहर उसकी परिधि कुछ अधिक 31476 योजन है। नन्दन वन के भीतर उसका विस्तार 8644 // योजन है। उसकी परिधि 28316 योजन है। वह एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक वनखण्ड द्वारा चारों ओर से परिवेष्टित है। वहाँ देव-देवियां आश्रय लेते हैं-इत्यादि सारा वर्णन पूर्वानुरूप है। मन्दर पर्वत के पूर्व में एक विशाल सिद्धायतन है। ऐसे चारों दिशाओं में चार सिद्धायतन हैं / विदिशाओं में--ईशान, आग्नेय आदि कोणों में पुष्करिणियां हैं, सिद्धायतन, पुष्करिणियां तथा उत्तम प्रासाद तथा शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र संबंधी वर्णन पूर्ववत् है / भगवन् ! नन्दन वन में कितने कट बतलाये गये हैं ? गौतम ! वहाँ नौ कूट बतलाये गये हैं 1. नन्दनवनकूट, 2. मन्दरकूट, 3. निषधकूट, 4. हिमवत्कूट, 5. रजतकट, 6. रुचककूट, 7. सागरचित्रकूट, 8. वज्रकूट तथा 6. बलकूट / भगवन् ! नन्दन वन में नन्दनवनकूट नामक कूट कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! मन्दर पर्वत पर पूर्व दिशावर्ती सिद्धायतन के उत्तर में, उत्तर-पूर्व-ईशान कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के दक्षिण में नन्दन वन में नन्दनवनकूट नामक कूट बतलाया गया है। ये सभी कूट 500 योजन ऊँचे हैं। इनका विस्तृत वर्णन पूर्ववत् है। नन्दनवनकूट पर मेघंकरा नामक देवी निवास करती है। उसकी राजधानी उत्तर-पूर्व विदिशा में-ईशान कोण में है / और वर्णन पूर्वानुरूप है। इन दिशाओं के अन्तर्गत पूर्व दिशावर्ती भवन के दक्षिण में, दक्षिण-पूर्व-आग्नेय कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के उत्तर में मन्दरकट पर पूर्व में मेघवती नामक राजधानी है। दक्षिण दिशावर्ती भवन के पूर्व में, दक्षिण-पूर्व-आग्नेय कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के पश्चिम में निषधकूट पर सुमेधा नामक देवी है। दक्षिण में उसकी राजधानी है। दक्षिण दिशावर्ती भवन के पश्चिम में, दक्षिण-पश्चिम-नैऋत्य कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के पूर्व में हैमवतकूट पर हेममालिनी नामक देवी है। उसकी राजधानी दक्षिण में है। पश्चिम दिशावर्ती भवन के दक्षिण में, दक्षिण-पश्चिम-नैऋत्य कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के उत्तर में रजतकूट पर सुवत्सा नामक देवी रहती है / पश्चिम में उसकी राजधानी है / __ पश्चिमदिग्वर्ती भवन के उत्तर में, उत्तर-पश्चिम-वायव्य कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के दक्षिण में रुचक नामक कूट पर वत्समित्रा नामक देवी निवास करती है। पश्चिम में उसकी राजभानी है। . Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसून उत्तरदिग्वर्ती भवन के पश्चिम में, उत्तर-पश्चिम-वायव्य कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के पूर्व में सागरचित्र नामक कूट पर वज्रसेना नामक देवी निवास करती है। उत्तर में उसकी राजधानी है। उत्तरदिग्वर्ती भवन के पूर्व में, उत्तर-पूर्व-ईशान कोणवर्ती उत्तम प्रासाद के पश्चिम में वज्रकूट पर बलाहका नामक देवी निवास करती है / उसकी राजधानी उत्तर में है ? भगवन् ! नन्दन वन में बलकूट नामक कूट कहाँ बतलाया गया है / गौतम ! मन्दर पर्वत के उत्तर-पूर्व में—ईशान कोण में नन्दन वन के अन्तर्गत बलकूट नामक कट बतलाया गया है। उसका. उसकी राजधानी का प्रमाण, विस्तार हरिस्सहकूट एवं उसकी राजधानी के सदृश है। इतना अन्तर है-उसका अधिष्ठायक बल नामक देव है। उसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में है। सौमनस वन 134. कहि णं भन्ते ! मन्दरए पन्वए सोमणसवणे णामं वणे पण्णत्ते ? गोयमा ! णन्दणवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागानो अद्धतेवढि जोअणसहस्साई उद्ध उप्पहत्ता एत्थ णं मन्दरे पब्वए सोमणसवणे णामं वणे पण्णते। पञ्चजोयणसयाई चक्कवाल विक्खम्भेणं, वट्टे, वलयाकारसंठाणसंठिए, जे णं मन्दरं पव्वयं सव्वओ समन्ता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ / चत्तारि जोअणसहस्साइं दुण्णि य बावत्तरे जोअणसए अट्ट य इक्कारसभाए जोमणस्स बाहि गिरिविक्खम्भेणं, तेरस जोमणसहस्साई पञ्च य एक्कारे जोअणसए छच्च इक्कारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिपरिरएणं, तिण्णि जोअणसहस्साई दुण्णि अ बावत्तरे जोश्रण-सए अट्ट य इक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविक्खम्भेणं, दस जोअणसहस्साई तिणि अ अउणापण्णे जोअणसए तिणि अ इक्कारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिपरिरएणति / से णं एगाए पउमवरवेइपाए एगेण य वसंडेणं सध्वनो समन्ता संपरिक्खित्ते वण्णो, किण्हे किण्होभासे जाव' प्रासयन्ति / एवं कडवज्जा सच्चेव णन्दणवणवत्तव्वया भाणियन्वा, तं चेव ओगाहिऊण जाव पासायव.सगा सक्कीसाणाणंति / [134] भगवन् ! मन्दर पर्वत पर सौमनस वन नामक वन कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नन्दनवन के बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग से 62500 योजन ऊपर जाने पर मन्दर पर्वत पर सौमनस नामक वन पाता है। वह चक्रवाल-विष्कम्भ की दृष्टि से पाँच सौ योजन विस्तीर्ण है, गोल है, वलय के आकार का है / वह मन्दर पर्वत को चारों ओर से परिवेष्टित किये हुए है। वह पर्वत से बाहर 427216 योजन विस्तीर्ण है। पर्वत से बाहर उसकी परिधि १३५११योजन है। वह पर्वत के भीतरी भाग में 32726 योजन विस्तीर्ण है। पर्वत के भीतरी भाग से संलग्न उसकी परिधि 103463 योजन है। वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है / विस्तृत वर्णन पूर्ववत् है / 1. देखे सूत्र संख्या 6 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य वक्षस्कार [259 वह वन काले, नीले आदि पत्तों से-वैसे वृक्षों से, लताओं से आपूर्ण है। उनकी कृष्ण, नील आभा द्योतित है। वहाँ देव-देवियां पाश्रय लेते हैं। कूटों के अतिरिक्त और सारा वर्णन नन्दन वन के सदृश है / उसमें आगे शकेन्द्र तथा ईशानेन्द्र के उत्तम प्रासाद हैं / पण्डक वन 135. कहि गं भन्ते ! मन्दरपव्वए पंडगवणे णामं वणे पण्णते? गोयमा ! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिज्जानो भूमिभागाओ छत्तीसं जोअणसहस्साई उद्ध उप्पइत्ता एत्थ णं मन्दरे पव्वए सिहरतले पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते / चत्तारि चउणउए जोयणसए चक्कवाल विक्खम्भेणं, वट्टे, वलयाकारसंठाणसंठिए, जे गं मंदरचूलिअंसवनो समन्ता संपरिक्खिताणं चिट्ठइ / तिम्णि जोअणसहस्साई एगं च बावळं जोअणसयं किचिविसेसाहिलं परिक्खेवेणं / सेणं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं जाव' किण्हे देवा प्रासयन्ति / / __ पंडगवणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं मंदरचलिआ णामं चूलिया पण्णत्ता / चत्तालीसं जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, मूले बारस जोश्रणाई विक्खम्भेणं, मज्झे अट्ट जोषणाई विक्खम्भेणं, उपि चत्तारि जोषणाई विक्खम्भेणं / मूले साइरेगाई सत्तत्तीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, मज्झे साइरेगाई पणवीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, अपि साइरेगाइं बारस जोषणाई परिक्खेवेणं / मूले वित्थिण्णा, मज्झे संखित्ता, उप्पि तणुआ, गोपुच्छसंठाणसंठिया, सब्ववेरुलिआमई, अच्छा / साणं एगाए पउमवरवेइआए (एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समन्ता) संपरिक्खित्ता इति / उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव' सिद्धाययणं बहुमज्झदेसभाए कोसं पायामेणं, प्रद्धकोसं विक्खम्भेणं, देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं, अणेगखंभसय (-सण्णिविट्ठ), तस्स णं सिद्धाययणस्स तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता। तेणं दारा अट्ठ जोअणाई उद्ध उच्चत्तेणं, चत्तारि जोअणाई विक्खम्भेणं, तावइयं चेव पवेसेणं / सेना बरकणगथूभिआगा जाव वणमालामो भूमिभागो अ भाणिअन्वो। तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिना पग्णत्ता / अट्ठजोनणाई आयामविक्खम्भेणं, चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं, सम्वरयणामई अच्छा। तोसे णं मणिपेढिाए उरि देवच्छन्दए, अट्ठजोअणाई आयामविक्खम्भेणं, साइरेगाइं अटुजोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमावण्णो देवच्छन्दगस्स जाव) धूवकडुच्छ गा। मन्दरचूलिआए णं पुरस्थिमेणं पंडगवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते। एवं जच्चेव सोमणसे पुत्ववण्णिओ गमो भवणाणं पुक्खरिणीणं पासायवडेंसगाण य सो चेव णेअव्वो जाव सक्कोसाणवडेंसगा तेणं चेव परिमाणेणं / [135] भगवन् ! मन्दर पर्वत पर पण्डक वन नामक वन कहाँ बतलाया गया है ? 1. देखें सूत्र संख्या 6 2. देखें सूत्र संख्या 6 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मनदीपप्रमष्तिसूत्र गौतम ! सौमनस वन के बहुत समतल तथा रमणीय भूमिभाग से 36000 योजन ऊपर जाने पर मन्दर पर्वत के शिखर पर पण्डक वन नामक वन बतलाया गया है। चक्रवाल विष्कम्भ दृष्टि से वह 494 योजन विस्तीर्ण है, गोल है, वलय के आकार जैसा उसका आकार है। वह मन्दर पर्वत की चूलिका को चारों ओर से परिवेष्टित कर स्थित है। उसकी परिधि कुछ अधिक 3162 योजन है। वह एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक वनखण्ड द्वारा घिरा है। वह काले, नीले प्रादि पत्तों से युक्त है / देव-देवियां वहाँ पाश्रय लेते हैं। पण्डक वन के बीचों-बीच मन्दर चूलिका नामक चूलिका बतलाई गई है। वह चालीस योजन ऊँची है। वह मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन तथा ऊपर चार योजन चौड़ी है। मूल में उसकी परिधि कुछ अधिक 37 योजन, बीच में कुछ अधिक 25 योजन तथा ऊपर कुछ अधिक 12 योजन है / वह मूल में विस्तीर्ण-चौड़ी, मध्य में संक्षिप्त-सैकड़ी तथा ऊपर तनुक-पतली है। उसका आकार गाय के पूछ के आकार-सदृश है। वह सर्वथा वैडूर्य रत्नमय है-नीलमनिर्मित है, उज्ज्वल है / वह एक पद्मवरवेदिका (तथा एक वनखण्ड) द्वारा चारों ओर से संपरिवृत है। ऊपर बहुत समतल एवं सुन्दर भूमिभाग है। उसके बीच में सिद्धायतन है। वह एक कोश लम्बा, प्राधा कोश चौड़ा, कुछ कम एक कोश ऊँचा है, सैकड़ों खंभों पर टिका है / उस सिद्धायतन की तीन दिशाओं में तीन दरवाजे बतलाये गये हैं। वे दरवाजे पाठ योजन ऊँचे हैं। वे चार योजन चौड़े हैं। उनके प्रवेश-मार्ग भी उतने ही हैं। उस (सिद्धायतन) के सफेद, उत्तम स्वर्णमय शिखर हैं। मागे वनमालाएँ, भूमिभाग आदि से सम्बद्ध वर्णन पूर्ववत् है / उसके बीचों-बीच एक विशाल मणिपीठिका बतलाई गई है। वह पाठ योजन लम्बीचौडी है. चार योजन मोटी है, सर्वरत्नमय है. स्वच्छ है। उस मणिपीठिका के ऊपर देवा वह आठ योजन लम्बा-चौड़ा है, कुछ अधिक आठ योजन ऊँचा है। जिन प्रतिमा, देवच्छन्दक, धूपदान आदि का वर्णन पूर्वानुरूप है / / ___मन्दर पर्वत की चूलिका के पूर्व में पण्डक वन में पचास योजन जाने पर एक विशाल भवन पाता है। सौमनस वन के भवन, पुष्करिणियां, प्रासाद आदि के प्रमाण, विस्तार आदि का जैसा वर्णन है, इसके भवन, पुष्करिणियां तथा प्रासाद आदि का वर्णन वैसा ही समझना चाहिए / शक्रेन्द्र एवं ईशानेन्द्र वहाँ के अधिष्ठायक देव हैं / उनका वर्णन पूर्ववत् है। अभिषेक-शिलाएँ 136. पण्डगवणे णं भन्ते ! वणे कह अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताप्रो ? गोयमा ! चत्तारि अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पंडुसिला 1, पण्डुकंबलसिला 2, रत्तसिला 3, रत्तकम्बलसिलेति 4 / कहि णं भन्ते ! पण्डगवणे पण्डुसिला णामं सिला पण्णता? गोयमा ! मन्दर-चूलिआए पुरथिमेणं, पंडगवणपुरथिमपेरंते, एत्थ णं पंडगवणे पण्डुसिला णामं सिला पण्णता। उत्तरदाहिणायया, पाईणपडीवित्थिण्णा, प्रद्धचंदसंगणसंठिमा, पञ्च Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [261 जोनणसयाई आयामेणं, प्रद्धाइज्जाई जोपणसयाई विक्खम्भेणं, चत्तारि जोषणाइ बाहल्लेणं, सम्यकणगामई, अच्छा, वेइआवणसंडेणं सव्वो समन्ता संपरिक्खित्ता बण्णओ। तीसे णं पण्डुसिलाए चउदिसि चत्तारि तिसोवाण-पडिरूवमा पण्णत्ता जाव तोरणा वण्णमो। तोसे गं पण्डसिलाए उम्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे. पण्णत्ते, (तत्थ तत्थ वेसे तहि तहि बहवे) देवा प्रासयन्ति / तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उत्तरदाहिणणं एत्य गं दुवे सीहासणा पण्णता, पञ्च घणुसयाई आयामविक्खम्भेणं, प्रबाइज्जाई धणुसयाई बाहल्लेणं, सीहासणवण्णो भाणिअव्यो विजयदूसवज्जोत्ति। तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सोहासणे, तत्थ णं बहूहिं भवणवइवाणमन्तरजोइसिअवेमाणिएहि देवेहि वोहि अ कच्छाइया तित्ययरा अभिसिच्चन्ति। तस्थ णं जे से दाहिणिल्ले सोहासणे तस्थ णं बहूहिं भवण-(वहवाणमन्तरजोइसिम-) वेमाणिएहि देवेहि देवीहि अ वच्छाइआ तित्थयरा अभिसिच्चन्ति / कहि णं भन्ते ! पण्डगवणे पण्डुकंबलासिला णामं सिला पण्णता? गोयमा ! मन्दरचूलिपाए दक्खिणेणं, पण्डगवणदाहिणपेरंते, एत्थ णं पंडगवणे पंडुकंबलासिला णामं सिला पण्णत्ता। पाईणपडीणायया, उत्तरदाहिण-विस्थिण्णा एवं तं चेव पमाणं वत्तव्वया य भाणिवा जाव तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ णं महं एगे सोहासणे पण्णत्ते, तं चेव सोहासणप्पमाणं तत्थ णं बहूहि भवणवइ-(वाणमन्तरजोइसिप्रवेमाणिमदेवेहि देवीहि अ) भारहगा तित्थयरा अहिसिच्चन्ति / कहि णं भन्ते ! पण्डगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता ? गोयमा ! मन्दरचूलियाए पच्चत्थिमेणं, पण्डगवणपच्च स्थिमपेरंते, एत्थ णं पण्डगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता। उत्तरदाहिणायया, पाईणपडीणवित्थिण्णा जाव तं चेव पमाणं सव्वतवणिज्जमई अच्छा / उत्तरदाहिणणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पणत्ता / तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ णं बहूहिं भवण० पम्हाइमा तित्थयरा अहिसिच्चन्ति / तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सोहासणे तत्थ णं बहहिं भवण जाव' वप्पाइमा तित्थयरा अहिसिच्चति / / कहि णं भन्ते ! पण्डगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता? गोयमा ! मन्दरचूलिपाए उत्तरेणं, पंडगवणउत्तरचरिमंते एत्थ णं पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णता। पाईणपडीणायया, उदीणदाहिणवित्थिणा, सव्वतवणिज्जमई अच्छा जाव' मझदेसभाए सीहासणं, तत्थ णं बहूहिं भवणवइ० जाव देवहिं देवीहि अ एरावयगा तित्ययरा अहिसिच्चन्ति। 1. देखें सूत्र यही 2. देखें सूत्र संख्या 4 3. देखें सूत्र यही Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262] [जमीपप्राप्तिसूत्र [136] भगवन् ! पण्डकवन में कितनी अभिषेक शिलाएँ बतलाई गई हैं ? गौतम ! वहाँ चार अभिषेक शिलाएँ बतलाई गई हैं-१. पाण्डुशिला, 2. पाण्डुकम्बलशिला, 3. रक्तशिला तथा 4. रक्तकम्बलशिला। भगवन् ! पण्डक वन में पाण्डुशिला नामक शिला कहाँ बतलाई गई है ? गौतम ! मन्दर पर्वत की चूलिका के पूर्व में पण्डक वन के पूर्वी छोर पर पाण्डुशिला नामक शिला बतलाई गई है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बी तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ी है। उसका आकार अर्ध चन्द्र के आकार-जैसा है / वह 500 योजन लम्बी, 250 योजन चौड़ी तथा 4 योजन मोटी है। वह सर्वथा स्वर्णमय है, स्वच्छ है, पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड द्वारा चारों ओर से संपरिवृत है / विस्तृत वर्णन पूर्वानुरूप है। उस पाण्डुशिला के चारों ओर चारों दिशाओं में तीन तीन सीढ़ियाँ बनी हैं। तोरणपर्यन्त उनका वर्णन पूर्ववत् है। उस पाण्डुशिला पर बहुत समतल एवं सुन्दर भूमिभाग बतलाया गया है। उस पर (जहाँ-तहाँ बहुत से) देव आश्रय लेते हैं। उस बहुत समतल, रमणीय भूमिभाग के बीच में उत्तर तथा दक्षिण में दो सिंहासन बतलाये गये हैं। वे 500 धनुष लम्बे-चौड़े और 250 धनुष ऊँचे हैं / विजयदूष्यवजित-विजय नामक वस्त्र के अतिरिक्त उसका सिंहासन पर्यन्त वर्णन पूर्ववत् है / वहाँ जो उत्तर दिग्वर्ती सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव-देवियां कच्छ आदि विजयों में उत्पन्न तीर्थकरों का अभिषेक करते हैं। ___ वहाँ जो दक्षिण दिग्वर्ती सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति, (वानव्यन्तर, ज्योतिष्क) एवं वैमानिक देव-देवियां वत्स आदि विजयों में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। ___ भगवन् ! पण्डक वन में पाण्डुकम्बलशिला नामक शिला कहाँ बतलाई गई है ? गौतम ! मन्दर पर्वत की चूलिका के दक्षिण में, पण्डक वन के दक्षिणी छोर पर पाण्डुकम्बलशिला नामक शिला बतलाई गई है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी है। उसका प्रमाण, विस्तार पूर्ववत् है / उसके बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग के बीचों-बीच एक विशाल सिंहासन बतलाया गया है / उसका वर्णन पूर्ववत् है / वहाँ भवनपति, (वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक) देव-देवियों द्वारा भरतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक किया जाता है। भगवन् ! पण्डक वन में रक्तशिला नामक शिला कहाँ बतलाई गई है ? _गौतम ! मन्दर पर्वत की चलिका के पश्चिम में, पण्डक बन के पश्चिमी छोर पर रक्तशिला नामक शिला बतलाई गई है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बी है, पूर्व-पश्चिम चौड़ी है। उसका प्रमाण, विस्तार पूर्ववत् है। वह सर्वथा तपनीय स्वर्णमय है, स्वच्छ है। उसके उत्तर-दक्षिण दो सिंहासन बतलाये गये हैं। उनमें जो दक्षिणी सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति आदि देव-देवियों द्वारा पक्ष्मादिक विजयों में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक किया जाता है। वहाँ जो उत्तरी सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति आदि देवों द्वारा वप्र प्रादि विजयों में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक किया जाता है। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्व वक्षस्कार] 263 भगवन् ! पण्डक वन में रक्तकम्बलशिला नामक शिला कहाँ बतलाई गई है ? गौतम ! मन्दर पर्वत की चूलिका के उत्तर में, पण्डक वन के उत्तरी छोर पर रक्तकम्बलशिला नामक शिला बतलाई गई है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी है, सम्पूर्णतः तपनीय स्वर्णमय तथा उज्ज्वल है। उसके बीचों-बीच एक सिंहासन है। वहाँ भवनपति आदि बहुत से देव-देवियों द्वारा ऐरावत क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक किया जाता है। मन्दर पर्वत के काण्ड 137. मन्दरस्स णं भन्ते ! पन्वयस्स कह कंडा पण्णता? गोयमा! तो कंडा पण्णत्ता, तं जहा-हिटुिल्ले कंडे 1, मज्झिमिल्ले कंडे 2, उवरिल्ले मन्दरस्स णं भन्ते ! पव्वयस्स हिडिल्ले कंडे कतिविहे पण्णते? गोयमा! चउन्विहे पणत्ते, तं जहा-पुढवी 1, उवले 2, बहरे 3, सक्करे 4 / मज्झिमिल्ले णं भन्ते ! कंडे कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! चउरिवहे पण्णत्ते, तं जहा-अंके 1, फलिहे 2, जायस्वे 3, रयए 4 / उरिल्ले कंडे कतिविहे पण्णते? / गोयमा! एगागारे पण्णत्ते, सव्वजम्बूणयामए। मन्दरस्स णं भन्ते ! पव्वयस्स हेटिल्ले कंडे केवइ बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! एगं जोअणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते। मज्झिमिल्ले कंडे पुच्छा, गोयमा! तेवट्टि जोअणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णते। उवरिल्ले पुच्छा, गोयमा! छत्तीसं जोअणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते / एवामेव सपुरवावरेणं मन्दरे पव्वए एगं जोअणसयसहस्सं सव्वग्गेणं पण्णत्ते। [137] भगवन् ! मन्दर पर्वत के कितने काण्ड-विशिष्ट परिमाणानुगत विच्छेद-पर्वत-क्षेत्र के विभाग बतलाये हैं ? गौतम ! उसके तीन विभाग बतलाये गये हैं.---१. अधस्तन विभाग नीचे का विभाग, 2. मध्यम विभाग–बीच का विभाग तथा 3. उपरितन विभाग-ऊपर का विभाग / भगवन् ! मन्दर पर्वत का अधस्तन विभाग कितने प्रकार का बतलाया गया है ? गौतम ! वह चार प्रकार का बतलाया गया है-१. पृथ्वी-मृत्तिकारूप, 2. उपलपाषाणरूप, 3. वज्र-हीरकमय तथा 4. शर्करा-कंकरमय / भगवन् ! उसका मध्यम विभाग कितने प्रकार का बतलाया गया है ? गौतम ! वह चार प्रकार का बतलाया गया है--१. अंकरलमय, 2. स्फटिकमय, 3. स्वर्णमय तथा 4. रजतमय। भगवन् ! उसका उपरितन विभाग कितने प्रकार का बतलाया गया है ? Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 [जम्बूद्वीपप्रमन्तिसूत्र गौतम ! वह एकाकार एक प्रकार का बतलाया गया है ? वह सर्वथा जम्बूनद-स्वर्णमय है। भगवन ! मन्दर पर्वत का अधस्तन विभाग कितना ऊँचा बतलाया गया है? गौतम ! वह 1000 योजन ऊँचा बतलाया गया है / भगवन ! मन्दर पर्वत का मध्यम विभाग कितना ऊँचा बतलाया गया है ? गौतम ! वह 63000 योजन ऊँचा बतलाया गया है / भगवन् ! मन्दर पर्वत का उपरितन विभाग कितना ऊँचा बतलाया गया है ? गौतम ! वह 36000 योजन ऊँचा बतलाया गया है। यों उसकी ऊँचाई का कुल परिमाण 1000+63000+36000 = 100000 योजन है। मन्दर के नामधेय 138. मन्दरस्स णं भन्ते ! पव्वयस्स कति णामधेज्जा पण्णता? गोयमा! सोलस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा मन्दर 1, मेरु 2, मणोरम 3, सुदंसण 4, सयंपभे अ५, गिरिराया 6 / रयणोच्चय 7, सिलोच्चय 8, मज्झे लोगस्स 6, गाभी य 10 // 1 // अच्छे प्र 11, सूरिआवत्ते 12, सूरिप्रावरणे 13, ति प्रा। उत्तमे प्र 14, दिसादी अ 15, बडेसेति प्र 16, सोलसे // 2 // से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ मन्दरे पम्वए 2 ? गोयमा ! मन्दरे पव्वए मन्दरे णामं देवे परिवसइ महिड्डीए जाव' पलिप्रोवमट्ठिइए, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ मन्दरे पक्वए 2 अदुत्तरं तं चेवत्ति। [138] भगवन् / मन्दर पर्वत के कितने नाम बतलाये गये हैं ? गौतम ! मन्दर पर्वत के 16 नाम बतलाये गये हैं-१. मन्दर, 2. मेरु, 3. मनोरम, 4. सुदर्शन, 5. स्वयंप्रभ, 6. गिरिराज, 7. रत्नोच्चय, 8. शिलोच्चय, 6. लोकमध्य, 10. लोकनाभि, 11. अच्छ, 12. सूर्यावर्त, 13. सूर्यावरण, 14. उत्तम या उत्तर, 15. दिगादि तथा 16. अवतंस / भगवन् ! वह मन्दर पर्वत क्यों कहलाता है ? गौतम ! मन्दर पर्वत पर मन्दर नामक परम ऋद्धिशाली, पल्योपम के आयुष्य वाला देव निवास करता है, इसलिए वह मन्दर पर्वत कहलाता है। अथवा उसका यह नाम शाश्वत है / नीलवान वर्षधर पर्वत 136. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दोवे गोलवन्ते णामं वासहरपब्बए पण्णत्ते ? गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं, रम्मगवासस्स दक्खिणेणं, पुरथिमिल्ललवणसमुहस्स पच्चस्थिमिल्लेणं, पच्चथिमिल्ललवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुदीवे 2 णीलवन्ते 1. देखें सूत्र संख्या 14 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] 265 णामं वासहरपब्धए पण्णत्ते / पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणयित्थिपणे, णिसहवत्तव्यया णीलवन्तस्स भाणिवा, णवरं जीवा दाहिणेणं, धणु उत्तरेणं / एत्थ णं केसरिद्दहो, दाहिणेणं सोपा महाणई पवढा समाणी उत्तरकुरु एज्जमाणी 2 जमगपव्वए णीलवन्तउत्तरकुरुचन्देरावतमालवन्तहहे अ दुहा विभयमाणी 2 चउरासीए सलिलासहस्सेहिं प्रापूरेमाणी 2 भद्दसालवणं एज्जमाणी 2 मन्दरं पव्वयं दोहिं जोमणेहि असंपत्ता पुरत्थाभिमुही पावत्ता समाणी अहे मालवन्तवक्खारपव्वयं दालयित्ता मन्दरस्स पब्वयस्स पुरथिमेणं पुश्वविदेहवासं दुहा विभयमाणी 2 एगमेगानो चक्कवट्टिविजयाप्रो प्रहावीसाए 2 सलिलासहस्सेहि प्रापूरमाणो 2 पञ्चहि सलिलासयसहस्सेहि बत्तीसाए अ सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे विजयस्स दारस्स जगई दालइत्ता पुरथिमेणं लवणसमुई समप्पेइ, अवसिढें तं चेवत्ति। एवं णारिकतावि उत्तराभिमुही णेप्रवा, गवरमिमं णाणत्तं गन्धावइवट्टवेअद्धपव्ययं जोअणणं असंपत्ता पच्चत्थाभिमुही प्रावत्ता समाणो अवसिटें तं चेव पवहे अ मुहे अ जहा हरिकन्तसलिला इति / णीलवन्ते णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कडा पण्णत्ता? गोयमा ! नव क डा पण्णत्ता, तं जहा सिद्धाययणकूडे० / सिद्ध 1, णीले 2, पुम्वविदेहे 3, सोमाय 4, कित्ति 5, णारी अ६। अवरविदेहे 7, रम्मग-क डे 8, उवदंसणे व // 1 // सब्वे एए कडा पञ्चसइया रायहाणी उ उत्तरेणं / से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ–णोलवन्ते वासहरपब्वए 2 ? गोयमा ! णीले गोलोभासे गोलवन्ते अ इत्य देवे महिड्डीए जाव' परिवसइ सम्ववेलिप्रामए णोलवन्ते जाव णिच्चेति / [136] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत नीलवान् नामक वर्षधर पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! महाविदेह क्षेत्र के उत्तर में, रम्यक क्षेत्र के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत नीलवान् नामक वर्षधर पर्वत बतलाया गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा और उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। जैसा निषध पर्वत का वर्णन है, वैसा ही नीलवान् वर्षधर पर्वत का वर्णन है। इतना अन्तर है-दक्षिण में इसकी जीवा है, उत्तर में धनुपृष्ठभाग है। उसमें केसरी नामक द्रह है। दक्षिण में उससे शीता महानदी निकलती है। वह उत्तरकुरु में बहती है / प्रागे यमक पर्वत तथा नीलवान्, उत्तरकुरु, चन्द्र, ऐरावत एवं माल्यवान् द्रह को दो भागों में बाँटती हुई आगे बढ़ती है। उसमें 84000 नदियां मिलती हैं। उनसे आपूर्ण होकर वह भद्रशाल वन में बहती है। जब मन्दर पर्वत दो योजन दूर रहता है, तब वह पूर्व की ओर 1. देखें सूत्र संख्या 14 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र मुड़ती है, नीचे माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत को विदीर्ण-विभाजित कर मन्दर पर्वत के पूर्व में पूर्व विदेह क्षेत्र को दो भागों में बाँटती हुई आगे जाती है। एक-एक चक्रवतिविजय में उसमें अट्ठाईस अट्ठाईस हजार नदियां मिलती हैं। यों कुल 28000x16+84000-532000 नदियों से आपूर्ण वह नीचे विजयद्वार की जगती को दीर्ण कर पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है / बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। नारीकान्ता नदी उत्तराभिमुख होती हुई बहती है। उसका वर्णन इसी के सदृश है। इतना अन्तर है-जब गन्धापाति वृत्तवैताढय पर्वत एक योजन दूर रह जाता है, तब वह वहाँ से पश्चिम की ओर मुड़ जाती है। बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है। उद्गम तथा संगम के समय उसके प्रवाह का विस्तार हरिकान्ता नदी के सदृश होता हैं / भगवन् ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के कितने कूट बतलाये गये हैं ? गौतम ! उसके नौ कूट बतलाये गये हैं--- 1. सिद्धायतन कूट, 2. नीलवत्कूट, 3. पूर्वविदेहकूट, 4. शीताकूट, 5. कीर्तिकूट, 6. नारीकान्ताकूट, 7. अपरविदेहकूट, 8. रम्यककूट तथा 9. उपदर्शनकूट / ये सब कूट पांच सौ योजन ऊँचे हैं। इनके अधिष्ठातृ देवों की राजधानियां मेरु के उत्तर में है। भगवन् ! नीलवान् वर्षधर पर्वत इस नाम से क्यों पुकारा जाता है ? गौतम ! वहाँ नीलवर्णयुक्त, नील आभावाला परम ऋद्धिशाली नीलवान् नामक देव निवास करता है। नीलवान् वर्षधर पर्वत सर्वथा वैडूर्य रत्नमय-नीलममय है। इसलिए वह नीलवान् कहा जाता है / अथवा उसका यह नाम नित्य है-सदा से चला आता है। रम्यक-वर्ष 140. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे 2 रम्मए भामं वासे पण्णते? गोयमा! णीलवन्तस्स उत्तरेणं, रुप्पिस्स दविखणेणं, पुरस्थिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पञ्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं एवं जह चेव हरियासं तह चेव रम्मयं वासं भाणिप्रव्वं, णवरं पविखणणं जीवा उत्तरेणं घणु अवसेसं तं चेव / कहिणं भन्ते ! रम्मए वासे गन्धावाईणामं घट्टवेश्रद्धपव्वए पण्णते? गोयमा ! णरकन्ताए पच्चत्थिमेणं, णारीकन्ताए पुरथिमेणं रम्भगवासस्स बहुमज्झवेसभाए एस्थ णं गन्धावाईणामं वट्टवेअद्ध पव्वए पण्णत्ते, जं चेव विडावइस्स तं चेव गन्धावइस्सवि वत्तव्वं, अट्ठो बहवे उप्पलाई जाव' गंधावईवण्णाई गन्धावईप्पभाई पउमे म इत्थ देवे महिडीए जाव' पलिमोषमट्टिईए परिवसइ, रायहाणी उत्तरेणन्ति / 1. देखें सूत्र संख्या 14 2. देखें सूत्र संख्या 14 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ वक्षस्कार] .. से केणठेणं भन्ते ! एवं वृच्चइ रम्मए वासे 2 ? गोयमा ! रम्मगवासे णं रम्मे रम्मए रमणिज्जे, रम्मए प्र इत्थ देवे जाव' परिवसइ, से तेणठेणं। [140] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तगत रम्यक नामक क्षेत्र कहाँ बसलाया गया है ? गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के उत्तर में, रुवमी पर्वत के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में रम्यक नामक क्षेत्र बतलाया गया है। उसका वर्णन हरिवर्ष क्षेत्र जैसा है। इतना अन्तर है-उसकी जीवा दक्षिण में है, धनुपृष्ठभाग उत्तर में है। बाकी का वर्णन उसी (हरिवर्ष) के सदृश है। भगवन् ! रम्यक क्षेत्र में गन्धापाती नामक वृत्तवैताढय पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! नरकान्ता नदी के पश्चिम में, नारीकान्ता नदी के पूर्व में रम्यक क्षेत्र के बीचों बोच गन्धापाती नामक वृत्तवैताढय पर्वत बतलाया गया है / विकटापाती वृत्तवैताढय का जैसा वर्णन है, वैसा ही इसका है। गन्धापाती वृत्तवैताढय पर्वत पर उसी के सदृश वर्णयुक्त, आभायुक्त अनेक उत्पल, पद्म आदि हैं। वहाँ परम ऋद्धिशाली पल्योपम आयुष्य युक्त पद्म नामक देव निवास करता है। उसकी राजधानी उत्तर में है। भगवन् ! वह (उपर्युक्त) क्षेत्र रम्यकवर्ष नाम से क्यों पुकारा जाता है ? गौतम ! रम्यकवर्ष सुन्दर, रमणीय है एवं उसमें रम्यक नामक देव निवास करता है, अतः वह रम्यकवर्ष कहा जाता है / रुक्मी वर्षधर पर्वत 141. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे 2 रुप्पी णाम बासहरपव्वए पण्णते ? गोयमा ! रम्मगवासस्स उत्सरेणं, हेरण्णवयवासस्स दक्खिणेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एल्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे रुप्पी गाम वासहरपव्वए पण्णत्ते / पाईणपडीणायए, उदोणवाहिणवित्थिण्णे, एवं जाव चेव महाहिमवन्तवत्तव्यया सा चेव रुप्पिस्सवि, णवरं दाहिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं तं चेव।। __ महापुण्डरीए दहे, परकन्ता णदी दक्खिणेणं णेअव्वा जहा रोहिना पुरस्थिमेणं गच्छा। रुप्पकूला उत्तरेणं णेशव्वा जहा हरिकन्ता पच्चत्थिमेणं गच्छइ, प्रवसेसं तं चेवत्ति। रुप्पिमि णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कडा पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठ कूडा पण्णता, तं जहा सिद्ध 1, रुप्पी 2, रम्मग 3, परकन्ता 4, बुद्धि 5, रुप्पकला य 6 / हेरण्णवय 7, मणिकंचण 8, अट्ठ य रुप्पिमि कूडाई // 1 // सव्वेवि एए पंचसइया रायहाणीनो उत्तरेणं / 1. देखें सूत्र संख्या 14 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र से केणठेणं भन्ते एवं वुच्चइ रुप्पी वासहरपन्वए 2? गोयमा! रुप्पीणामवासहरपन्दए रुप्पी रुष्पपट्टे, रुप्पोभासे सव्वरुप्पामए, रुप्पी प्र इत्थ वेचे पलिश्रोवमदिईए परिवसइ, से एएणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइत्ति। [141] भगवन् ! जम्बूद्वीप में रुक्मी नामक वर्षधर पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! रम्यक वर्ष के उत्तर में, हैरण्यवत वर्ष के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत रुक्मी नामक वर्षधर पर्वत बतलाया गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। वह महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के सदृश है। इतना अन्तर है-उसकी जीवा दक्षिण में है। उसका धनुपृष्ठभाग उत्तर में है। बाकी का सारा वर्णन महाहिमवान् जैसा है। वहाँ महापुण्डरीक नामक द्रह है। उसके दक्षिणी तोरण से नरकान्ता नामक नदी निकलती है। वह रोहिता नदी की ज्यों पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है / नरकान्ता नदी का और वर्णन रोहिता नदी के सदृश है। रूप्यकूला नामक नदी महापुण्डरीक द्रह के उत्तरी तोरण से निकलती है / वह हरिकान्ता नदी की ज्यों पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती है / बाकी का वर्णन तदनुरूप है। भगवन् ! रुक्मी वर्षधर पर्वत के कितने कट बतलाये गये हैं ? गौतम ! उसके आठ कूट बतलाये गये हैं--१. सिद्धायतनकूट, 2. रुक्मीकूट, 3. रम्यककूट, 4. नरकान्ताकूट, 5. बुद्धिकूट, 6. रूप्य कलाकूट, 7. हैरण्यवतकूट तथा 8. मणिकांचनकूट / ये सभी कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। उत्तर में इनकी राजधानियां हैं। भगवन् ! वह रुक्मी वर्षधर पर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! रुक्मी वर्षधर पर्वत रजत-निष्पन्न रजत की ज्यों आभामय एवं सर्वथा रजतमय है। वहाँ पल्योपमस्थितिक रुक्मी नामक देव निवास करता है, इसलिए वह रुक्मी वर्षधर पर्वत कहा जाता है। हैरण्यवत वर्ष 142. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे 2 हेरण्णवए णामं वासे पण्णते? गोयमा ! रुप्पिस्स उत्तरेणं, सिहरिस्स दक्खिणेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे हिरण्णवए वासे पण्णत्ते, एवं जह चेव हेमवयं तह चेव हेरण्णवयंपि भाणिग्रव्वं, गवरं जीवा दाहिणणं, उत्तरेणं धणु अवसिडें तं वत्ति / कहि णं भन्ते ! हेरण्णवए वासे मालवन्तपरिवाए णामं वट्टवेअद्धपव्वए पण्णते ? गोयमा ! सुवण्णकूलाए पच्चत्थिमेणं, रुप्पकलाए पुरथिमेणं एत्थ णं हेरण्णवयस्स वासस्स बहुमज्झदेसभाए मालवन्तपरिमाए णामं वट्टवेअड्डे पणत्ते / जह चेव सद्दावई तह चेव मालवन्तपरिआएवि, अट्ठो उप्पलाइं पउमाइं मालवन्तप्पभाई मालवन्तवण्णाई मालवन्तवण्णाभाई पभासे प्र इत्थ देवे महिड्डीए जाव पलिग्रोवमट्टिईए परिवसइ, से एएण?णं०, रायहाणी उत्तरेणंति / Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ बक्षस्कार [.269 से केण?णं भन्ते ! एवं बुच्चइ-हेरण्णवए वासे 2 ? गोयमा ! हेरण्णवए णं वासे हप्पीसिहरीहिं वासहरपवहिं दुहरो समवगूढे, णिच्चं हिरण्णं दलइ, णिच्चं हिरणं मुचइ, णिच्चं हिरण्णं पगासइ, हेरण्णवए अइत्थ देवे परिवसइ से एएण?णंति। [142] भगवन् ! जम्बुद्वीप के अन्तर्गत हैरण्यवत क्षेत्र कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! रुक्मी नामक वर्षधर पर्वत के उत्तर में, शिखरी नामक वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमो लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हैरण्यवत क्षेत्र बतलाया गया है। जैसा हैमवत का वर्णन है, वैसा ही हैरण्यवत क्षेत्र का समझना चाहिए। इतना अन्तर है-उसकी जीवा दक्षिण में है, धनुपृष्ठभाग उत्तर में है / बाकी का सारा वर्णन हैमवत-सदृश है। भगवन् ! हैरण्यवत क्षेत्र में माल्यवत्पर्याय नामक वृत्त वैताढय पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! सुवर्णकूला महानदो के पश्चिम में, रूप्यकूला महानदी के पूर्व में हैरण्यवत क्षेत्र के बीचोंबीच माल्यवत्पर्याय नामक वृत वैताढय पर्वत बतलाया गया है। जैसा शब्दापाती वृत्त वैताढय पर्वत का वर्णन है, वैसा ही माल्यवत्पर्याय वृत वैताढ्य पर्वत का है। उस पर उस जैसे प्रभायुक्त, वर्णयुक्त, प्राभायुक्त उत्पल तथा पद्म आदि हैं। वहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्ययुक्त प्रभास नामक देव निवास करता है। इन कारणों से वह माल्यवत्पर्याय वृत्त वैताढ्य कहा जाता है / राजधानी उत्तर में है। भगवन् ! हैरण्यवत क्षेत्र इस नाम से किस कारण कहा जाता है ? गौतम ! हैरण्यवत क्षेत्र रुक्मी तथा शिखरी नामक वर्षधर पर्वतों से दो ओर से घिरा हा है। वह नित्य हिरण्य-स्वर्ण देता है, नित्य स्वर्ण छोड़ता है, नित्य स्वर्ण प्रकाशित करता है, जो स्वर्णमय शिलापट्टक आदि के रूप में वहाँ यौगलिक मनुष्यों के शय्या, आसन आदि उपकरणों के रूप में उपयोग में आता है, वहाँ हैरण्यवत नामक देव निवास करता है, इसलिए वह हैरण्यवत क्षेत्र कहा जाता है। शिखरी वर्षधर पर्वत __143. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दोवे सिहरी णामं वासहरपब्बए पण्णत्त ? __ गोयमा ! हेरण्णवयस्स उत्तरेणं, एरावयस्स दाहिणणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं, एवं जह चेव चुल्लहिमवन्तो तह चेव सिहरीवि, गवरं जीवा दाहिणणं, धणु उत्तरेणं, अवसिद्भुतं चेव / पुण्डरीए दहे, सुवण्णकूला महाणई दाहिणणं अव्वा जहा रोहिअंसा पुरस्थिमेणं गच्छइ, एवं जह चेव गंगासिन्धूनो तह चेव रत्तारत्तवईओ अव्वाश्रो पुरथिमेणं रत्ता पच्चस्थिमेण रत्तवई, अवसिट्ठतं चेव, [अवसेसं भाणिअव्वंति] / सिहरिम्मि णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कडा पण्णत्ता ? Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! इक्कारस कूडा पण्णता, तं जहा--सिद्धाययणकडे 1, सिहरिकरे, 2, हेरण्णवयकूडे 3, सुवण्णकूलाकूडे 4, सुरादेवीकडे 5, रत्ताकडे 6, लच्छीकडे 7, रत्तवईकडे 8, इलादेवीकूरे 6, एरवयफूडे 10, तिगिच्छिकूडे 11 / एवं सम्वेवि कूडा पंचसइमा, रायहाणीयो उत्तरेणं। से केणद्वेणं भन्ते ! एवमुच्चइ सिहरिवासहरपव्वए 2 ? गोयमा ! सिहरिमि वासहरपधए बहवे कूडा सिहरिसंठाणसंठिमा सव्वरयणामया सिहरी प्र इत्थ देवे जाव' परिवसइ, से तेणढे / [143] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत शिखरी नामक वर्षधर पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! हैरण्यवत के उत्तर में, ऐरावत के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में शिखरी नामक वर्षधर पर्वत बतलाया गया है / वह चुल्ल हिमवान् के सदृश है। इतना अन्तर है-उसकी जीवा दक्षिण में है। उसका धनुपृष्ठभाग उत्तर में है / बाकी का वर्णन पूर्ववणित चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत के अनुरूप है। उस पर पुण्डरीक नामक द्रह है। उसके दक्षिणी तोरण से सुवर्णकूला नामक महानदी निकलती है / वह रोहितांशा की ज्यों पूर्वी लवणसमुद्र में मिलती है। यहाँ रक्ता तथा रक्तवती का वर्णन भी वैसा ही समझना चाहिए जैसा गंगा तथा सिन्धु का है। रक्ता महानदी पूर्व में तथा रक्तवती पश्चिम में बहती है / [अवशिष्ट वर्णन गंगा-सिन्धु की ज्यों है / भगवन् ! शिखरी वर्षधर पर्वत के कितने कूट बतलाये गये हैं ? गौतम ! उसके ग्यारह कूट बतलाये गये हैं.-१. सिद्धायतन कूट, 2. शिखरी कूट, 3. हैरण्यवत कूट, 4. सुवर्णकूला कूट, 5. सुरादेवी कूट, 6. रक्ता कूट, 7. लक्ष्मी कूट, 8. रक्तावती कूट, 6. इलादेवी कूट, 10. ऐरावत कूट, 11. तिगिच्छ कूट / ये सभी कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊँचे हैं / इनके अधिष्ठातृ देवों की राजधानियां उत्तर भगवन् ! यह पर्वत शिखरी वर्षधर पर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! शिखरी वर्षधर पर्वत पर बहुत से कूट उसी के-से आकार में अवस्थित हैं, सर्वरत्नमय हैं / वहाँ शिखरी नामक देव निवास करता है, इस कारण वह शिखरी वर्षधर पर्वत कहा जाता है। ऐरावत वर्ष 144. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दोवे दीवे एरावए णामं वासे पण्णत्ते ? गोयमा ! सिहरिस्स उत्तरेणं, उत्तरलवणसमुहस्स दक्षिणेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं, एस्थ णं जम्बुद्दीवे दोवे एरावए णामं वासे पण्णत्ते। 1. देखें सूत्र संख्या 14 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्ष वक्षस्कार] [271 खाणुबहुले, कंटकबहुले एवं जच्चेव भरहस्स बसम्वया सच्चेव सम्वा निरवसेसा प्रख्या / सप्रोप्रवणा, सणिक्खिमणा, सपरिनिष्वाणा / णवरं एरावनो चक्कवट्टी, एरावो देवो, से तेणठेणं एरावए वासे 2 / भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत ऐरावत नामक क्षेत्र कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! शिखरी वर्षधर पर्वत के उत्तर में, उत्तरी लवणसमुद्र के दक्षिण में, पूर्वी लवण समुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत ऐरावत नामक क्षेत्र बतलाया गया है। वह स्थाणु-बहुल है.--शुष्क काठ की बहुलता से युक्त है, कंटकबहुल है, इत्यादि उसका सारा वर्णन भरतक्षेत्र की ज्यों है। वह षटखण्ड साधन, निष्क्रमण-प्रव्रज्या या दीक्षा तथा परिनिर्वाण-मोक्ष सहित है-ये वहाँ साध्य हैं / इतना अन्तर है - वहाँ ऐरावत नामक चक्रवर्ती होता है, ऐरावत नामक अधिष्ठातृ-देव है, इस कारण वह ऐरावत क्षेत्र कहा जाता है। [OD Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार अधोलोकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव [145] जया णं एक्कमेक्के चक्कवट्टि विजए भगवन्तो तित्थयरा समुप्पज्जन्ति, तेणं कालेणं तेणं समएणं अहेलोगवत्थव्वाओ अढ दिसाकुमारीप्रो महत्तरियामो सएहि 2 कू.हि, सरहिं 2 भवणेहि, सहि 2 पासायवडेंसएहि, पत्तेअं 2 चउहि सामाणिन-साहस्सोहि, चहि महत्तरिश्राहिं सपरिवाराहि सहि अणिएहि, सहि अणिमाहिवईहि, सोलसहिं पायरक्खदेवसाहस्सीहि, अण्णेहि अ बहूहिं भवणवइ-वाणमन्तरेहि देवेहि देवीहि अ सद्धि संपरिचडाप्रो महया हयणट्टगीयवाइस(तंतोतलतालतुडियघणमुअंगपडुप्पवाइयरवेणं विउलाई) भोगभोगाई भुजमाणोश्रो विहरंति, तं जहा भोगंकरा 1 भोगवई 2, सुभोगा 3 भोगमालिनी 4 / तोयधारा 5 विचित्ता य 6, पुप्फमाला 7 अणिदिना 8 // 1 // तए णं तासि अहेलोगवत्थव्वाण अण्हं दिसाकुमारीणं मयहरियाणं पत्तेअं पत्तेअं प्रासणाई चलंति / तए णं तानो अहेलोगवत्थव्वानो अटु दिसाकुमारीयो महत्तरियानो पत्तेअं 2 पासणाई चलिग्राइं पासन्ति 2 ता प्रोहि पउंजंति, पउंजित्ता भगवं तित्थयरं प्रोहिणा प्राभोएंति 2 त्ता अण्णमण्णं सद्दाविति 2 ता एवं वयासो-उप्पण्णे खलु भो ! जम्बुद्दीवे दीवे भयवं तित्थयरे तं जोयमे तोअपच्चुप्पण्णमणागयाणं अहेलोगवत्थव्वाणं अट्टण्हं दिसाकुमारीमहत्तरिमाणं भगवनो तित्थगरस्स जम्मण-महिमं करेत्तए, तं गच्छामो णं अम्हेवि भगवो जम्मण-महिमं करेमोत्ति कटु एवं वयंति 2 ता पत्तेअं पत्तेअं प्राभिप्रोगिए देवे सहावेति 2 ता एवं क्यासी-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेग-खम्भ-सय-सण्णिविट्ठ लीलादिन० एवं विमाण-वण्णश्रो भाणिश्रवो जाव जोप्रण-वित्थिण्णे दिव्वे जाणविमाणे विउवित्ता एप्रमाणत्तियं पच्चपिणहत्ति।' तए णं ते प्राभियोगा देवा प्रणेगखम्भसय जाव' पच्चप्पिणंति, तए णं तानो आहेलोगवत्थव्यासो अट्ठ दिसाकुमारी-महत्तरियानो हद्वतुट्ठ० पत्तयं पत्तेयं चहि सामाणिप्रसाहस्सोहि चहि महत्तरिाहि (सपरिवाराहि सतहि अणिएहि सहि अणिमाहिवईहिं सोलसएहि आयरक्ख-देवसाहस्सीहिं) अणेहि बहूहि देवेहि देवी हि प्र सद्धि संपरिवुडामो ते दिवे जाणविमाणे दुरुहंति, दुरुहिता सस्विड्डोए सव्वजुईए घणमुइंग-पणवपवाइअरवेणं ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए जेणेव भगवनो तित्थगरस्स जम्मणणगरे जेणेव तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छन्ति 2 त्ता भगवनो 1. देखें सूत्र संख्या 68 2. देखें सूत्र संख्या 34 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार] [273 तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेहि दिब्धेहि जाणविमाहि तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेंति, करित्ता उत्तरपुरथिमे दिसोभाए ईसि चउरंगुलमसंपत्ते धरणिले ते दिव्वे जाणबिमाणे ठविति, ठवित्ता पत्तेअं 2 चहि सामाणिग्रसहस्सोहि (चहि महत्तरियाहि सपरिवाराहि सहि अणिएहि सहि अणिमाहिवईहि सोलसहि प्रायरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहि अ बहूहि भगणवइवाणमन्तरेहि देवेहि देवीहि अ) सद्धि संपरिबुडापो दिवेहितो जाणविमाहितो पच्चोरुहंति 2 ता सव्विड्डीए जाव' गाइएणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति 2 ता भगवं तित्थयां तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेंति 2 ता पत्तेअं 2 करयलपरिग्गहिअं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट, एवं क्यासी–णमोत्थु ते रयणकुच्छिधारिए ! जगप्पईवदाईए ! सव्वजगमंगलस्स, चक्खुणो अमुत्तस्स, सव्वजगजीववच्छलस्स, हिप्रकारगमग्गदेसियवागिद्धिविभुप्पभुस्स, जिणस्स, णाणिस्स, नायगस्स, बहस्स, बोहगस्स, सव्वलोगनाहस्स, निम्ममस्स, पवरकूलसमब्भवस्स जाईए खत्तिस्स जमसि लोगुत्तमस्स जणणी धण्णासि तं पुण्णासि कयत्थासि अम्हे णं देवाणुप्पिए ! अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारोमहत्तरियानो भगवो तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो, तणं तुम्भेहि ण भाइव्वं; इति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमन्ति 2 त्ता वेउविनसमुग्धाएणं समोहगंति 2 ता संखिज्जाई जोयणाई दंडं निस्सरंति, तं जहा-रययाणं (वइराणं, वेरुलिनाणं, लोहिमक्खाणं, मसारगल्लाणं, हंसगम्भाणं, पुलयाणं, सोगंधियाणं, जोईरसाणं, अंजणागं, प्रलयाणं रयणाणं जायरूबाणं, अंकाणं, फलिहाणं, रिट्ठाणं अहाबायरे पुग्गले परिसाडेइ, अहासुहमे पुग्गले परिभाएइ, दुच्चंपि वेउव्विसमुग्घाएणं समोहणइ 2 ता) संवट्टगवाए विउच्वंति 2 ता ते णं सिवेणं, मउएणं, मारुएणं अणुबुएणं, भूमितलविमलकरणेणं, मणहरेणं सव्वोउअसुरहिकुसुमगन्धाणुवासिएणं, पिण्डिमणिहारिमेणं गन्धुद्धएणं तिरिनं पवाइएणं भगवनो तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स सव्वप्रो समन्ता जोप्रणपरिमण्डलं से जहाणामए कम्मगरदारए सिया (तरुणे, बलवं, जुगवं, जुवाणे, अप्पायंके, थिरग्गहत्थे, दढपाणिपाए, पिट्ठतरो-रुपरिणए, घणनिचिप्रवट्टवलिप्रखंधे, चम्मेलुगदुहणमुट्ठिप्रसमायनिचिप्रगत्ते, उरस्सबलसमण्णागए, तलजमलजुअलपरिघबाहू, लंघणपवणजइणपमद्दणसमत्थे, छए, दक्खे, प? कुसले, मेहावी, निउणसिप्पोवगए एगं महंत सिलागहत्थगं वा दंडसंपुच्छणि वा वेणुसिलागिगं वा गहाय रायंगणं व रायंतेउरं वा देवकुलं वा सभं वा पवं वा पारामं वा उज्जाणं वा अतुरिअमचवलमसंभंतं निरन्तरं सनिउणं सम्वनो समन्ता संपमज्जति) तहेव जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कट्टवा कयवरं वा असुइमचोक्खं पूइ दुभिगन्धं तं सव्वं पाहुणि 2 एगन्ते एडेंति 2 जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति 2 त्ता भगवो तिस्थयरस्स तित्थरमायाए अ अदूरसामन्ते पागायमाणीयो, परिगायमाणीयो चिट्ठति / [145] जब एक एक-किसी भी चक्रवर्ति-विजय में तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, उस कालतृतीय चतुर्थ प्रारक में उस समय–अर्ध रात्रि की वेला में भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, 1. देखें सूत्र संख्या 5-2 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274] [अम्यूटीपप्रज्ञप्तिसूत्र तोयधारा, विचित्रा, पुष्पमाला तथा अनिन्दिता नामक, अधोलोकवास्तव्या-अधोलोक में निवास करनेवाली, महत्तरिका-गौरवशालिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ, जो अपने कूटों पर, अपने भवनों में, अपने उत्तम प्रासादों में अपने चार हजार सामानिक देवों,सपरिवार चार महत्तरिकाओं, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा अन्य अनेक भवनपति एवं वानव्यन्तर देवदेवियों से संपरिवृत, नृत्य, गीत, पटुता-कलात्मकतापूर्वक बजाये जाते वीणा, झींझ, ढोल एवं मृदंग की बादल जैसी गंभीर तथा मधुर ध्वनि के बीच विपुल सुखोपभोग में अभिरत होती हैं, तब उनके आसन चलित होते हैं—प्रकम्पित होते हैं / जब वे अधोलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाएँ अपने आसनों को चलित होते देखती हैं, वे अपने अवधिज्ञान का प्रयोग करती हैं। अवधिज्ञान का प्रयोग कर उसके द्वारा भगवान् तीर्थकर को देखती हैं। देखकर वे परस्पर एक-दूसरे को सम्बोधित कर कहती हैं ___ जम्बूद्वीप में भगवान् तीर्थकर उत्पन्न हुए हैं। अतीत--पहले हुई, प्रत्युत्पन्न वर्तमान समय में होने वाली-विद्यमान तथा अनागत-भविष्य में होनेवाली, अंधोलोकवास्तव्या हम आठ महत्तरिका दिशाकुमारियों का यह परंपरागत प्राचार है कि हम भगवान् तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव मनाएं, अतः हम चलें, भगवान् का जन्मोत्सव आयोजित करें। यों कहकर उनमें से प्रत्येक अपने प्राभियोगिक देवों को बुलाती हैं, उनसे कहती हैंदेवानुप्रियो ! सैकड़ों खंभों पर अवस्थित सुन्दर यान-विमान की विकुर्वणा करो-वैक्रियल ब्धि द्वारा सुन्दर विमान-रचना करो। दिव्य विमान की विकुर्वणा कर हमें सूचित करो। विमान-वर्णन पूर्वानुरूप है। __ वे पाभियोगिक देव सैकड़ों खंभों पर अवस्थित यान-विमानों की रचना करते हैं और उन्हें सूचित करते हैं कि उनके आदेशानुरूप कार्य संपन्न हो गया है / यह जानकर वे अधोलोकवास्तव्या गौरवशीला दिक्कूमारियाँ हर्षित एवं परितुष्ट होती हैं। उनमें से प्रत्येक अपने-अपने चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार महत्तरिकानों, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्य अनेक देव-देवियों के साथ दिव्य यान-विमानों पर आरूढ होती हैं। प्रारूढ होकर सब प्रकार की ऋद्धि एवं द्युति से समायुक्त, बादल की ज्यों घहराते-गजते मृदंग, ढोल आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ उत्कृष्ट दिव्य गति द्वारा जहाँ तीर्थंकर का जन्मभवन होता है, वहाँ आती हैं / वहाँ आ कर विमानों द्वारा-दिव्य विमानों में अवस्थित वे भगवान् तीर्थकर के जन्मभवन की तीन बार प्रदक्षिणा करती हैं। वैसा कर उत्तर-पूर्व दिशा में-ईशान कोण में अपने विमानों को, जब वे भूतल से चार अंगुल ऊँचे रह जाते हैं, ठहराती हैं। ठहराकर अपने चार हजार सामानिक देवों (सपरिवार चार महत्तरिकायों, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा बहुत से भवनपति एवं वानव्यन्तर देव-देवियों से संपरिक्त वे दिव्य विमानों से नीचे उतरती हैं। नीचे उतरकर सब प्रकार की समृद्धि लिये, जहाँ तीर्थंकर तथा उनकी माता होती है, वहाँ पाती हैं / वहाँ आकर भगवान् तीर्थंकर की तथा उनकी माता की तीन प्रदक्षिणाएं करती हैं, वैसा कर हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे, उन्हें मस्तक पर घुमा कर तीर्थंकर की माता से कहती हैं 'रत्नकुक्षिधारिके-अपनी कोख में तीर्थंकर रूप रत्न को धारण करने वाली ! जगत्प्रदीपदायिके - जगति -जनों के सर्व-भाव-प्रकाशक तीर्थंकर रूप दीपक प्रदान करने वाली ! हम आपको नमस्कार Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार [275 करती हैं / समस्त जगत् के लिए मंगलमय, नेत्रस्वरूप-सकल जगद्-भाव-दर्शक, मूर्त--चक्षुर्माह्य, समस्त जगत् के प्राणियों के लिए वात्सल्यमय, हितप्रद सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप मार्ग उपदिष्ट करने वाली, विभु–सर्वव्यापक-समस्त श्रोतृवृन्द के हृदयों में तत्तद्भाषानुपरिणत हो अपने तात्पर्य का समावेश करने में समर्थ वाणी की ऋद्धि-वाग्वैभव से युक्त, जिन-राग-द्वेष-विजेता, ज्ञानी--- सातिशय ज्ञान युक्त, नायक-धर्मवर चक्रवर्ती-उत्तम धर्म-चक्र का प्रवर्तन करनेवाले, बुद्ध-ज्ञाततत्त्व, बोधक-दूसरों को तत्त्व-बोध देनेवाले, समस्त लोक के नाथ- समस्त प्राणिवर्ग में ज्ञान-बीज का आधान एवं संरक्षण कर उनके योग-क्षेमकारी, निर्मम-ममता-रहित, उत्तम कुल, क्षत्रिय-जाति में उद्भूत, लोकोत्तम-लोक में सर्वश्रेष्ठ तीर्थकर भगवान् की आप जननी हैं। आप धन्य, पुण्य एवं कृतार्थ कृतकृत्य हैं / देवानुप्रिये ! . अधोलोकनिवासिनी हम आठ प्रमुख दिशाकुमारिकाएं भगवान् तीर्थकर का जन्ममहोत्सव मनायेंगी अतः आप भयभीत मत होना। यों कहकर वे उत्तर-पूर्व दिशाभाग में.-ईशान-कोण में जाती हैं। वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्म-प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालती हैं। आत्म-प्रदेशों को बाहर निकालकर उन्हें संख्यात योजन तक दण्डाकार परिणत करती हैं। (वन-हीरे, वैडूर्य-नीलम, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, ज्योतिरस, अंजन–एतत्संज्ञक रत्नों के, जातरूपस्वर्ण के अंक, स्फटिक तथा रिट रत्नों के पहले बादर-स्थूल पुद्गल छोड़ती हैं, सूक्ष्म पुद्गल ग्रहण करती हैं। फिर दूसरी बार बैंक्रिय समुद्घात करती हैं, संवर्तक वायु की विकुर्वणा करती हैं। संवर्तक वायु की विकुर्वणा कर उस शिव-कल्याण कर, मृदुल-भूमि पर धीरे-धीरे बहते, अनुद्ध तअनूज़गामी, भूमितल को निर्मल, स्वच्छ करने वाले, मनोहर-मन को रंजित करने वाले, सब ऋतुओं में विकासमान पुष्पों की सुगन्ध से सुवासित, सुगन्ध को पुजीभूत रूप में दूर क संप्रसत करने वाले, तिर्यक्-तिरछे बहते हुए वायु द्वारा भगवान् तीर्थकर के योजन परिमित परिमण्डल को भूभाग को-घेरे को चारों ओर से सम्माजित करती हैं। जैसे एक तरुण, बलिष्ठ-शक्तिशाली, युगवान्उत्तम युग में सुषम दुःषमादि काल में उत्पन्न, युवा-यौवनयुक्त, अल्पातंक-निरातंक-नीरोग, स्थिराग्रहस्त-गृहीत कार्य करने में जिसका अग्रहस्त-हाथ का आगे का भाग काँपता नहीं, सुस्थिर रहता हो, दृढपाणिपाद-सुदृढ़ हाथ-पैरयुक्त, पृष्ठान्तोरुपरिणत-जिसकी पीठ, पार्श्व तथा जंघाएँ आदि अंग परिणत हों- परिनिष्ठित हों, जो अहीनांग हो, जिसके कंधे गठीले, वृत्त-गोल एवं वलित-- मुड़े हुए, हृदय की ओर झुके हुए मांसल एवं सुपुष्ट हों, चमड़े के बन्धनों से युक्त मुद्गर आदि उपकरणविशेष या मुष्टिका द्वारा बार-बार कूट कर जमाई हुई गाँठ की ज्यों जिनके अंग पक्के हों, मजबूत हों, जो छाती के बल से-अान्तरिक बल से युक्त हो, जिसकी दोनों भुजाएँ दो एक-जैसे ताड़ व क्षों की ज्यों हों, अथवा अर्गला की ज्यों हों, जो गर्त आदि लांघने में, कूदने में, तेज चलने में, प्रमर्दन में कठिन या कडी वस्तु को चर-चर कर डालने में सक्षम हो, जो छेक-कार्य करने में निष्णात, दक्ष-निषणअविलम्ब कार्य करने वाला हो, प्रष्ठ–वाग्मी, कुशल-क्रिया का सम्यक् परिज्ञाता, मेधावीबुद्धिशील–एक बार सुन लेने या देख लेने पर कार्य-विधि स्वायत्त करने में समर्थ हो, निपुणशिल्पोपगत-शिल्प क्रिया में निपुणता लिये हो-ऐसा कर्मकर लड़का खजूर के पत्तों से बनी बड़ी झाड़ को, दण्डयुक्त-हत्थे युक्त झाड़ को या बांस की सीकों से बनी झाड़ को लेकर राजमहल के प्रांगन, रांजान्तःपुर-रनवास, देव-मन्दिर, सभा, प्रपा–प्याऊ-जलस्थान, आराम-दम्पतियों के रमणोपयोगी नगर के समीपवर्ती बगीचे को, उद्यान-खेलकूद या लोगों के मनोरंजन के निमित्त निर्मित Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276] [जमीपप्रज्ञप्तिसूत्र बाग को जल्दी न करते हुए, चपलता न करते हुए, उतावल न करते हुए लगन के साथ, चतुरतापूर्वक सब ओर से झांड-बुहार कर साफ कर देता है, उसी प्रकार वे दिक्कुमारियाँ संवर्तक बायु द्वारा तिनके, पत्ते, लकड़ियां, कचरा, अशुचि-अपवित्र गन्दे, अचोक्ष-मलिन, पूतिक-सड़े हुए, दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को उठाकर. परिमण्डल से बाहर एकान्त में-अन्यत्र डाल देती हैं--परिमण्डल को संप्रमाजित कर स्वच्छ बना देती हैं। फिर वे दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थकर तथा उनकी माता के पास आती हैं। उनसे न अधिक समीप तथा न अधिक दूर अवस्थित हो अागान-मन्द स्वर से गान करती हैं, फिर क्रमशः परिगान-उच्च स्वर से गान करती हैं। ऊर्ध्वलोकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव [146] तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोग-वत्थब्वानो अट्ट दिसाकुमारी-महत्तरियानो सरहिं 2 कूहि, सएहि 2 भवहिं, सरहिं 2 पासाय-वडेंसहि पत्तेअं 2 चहि सामाणिनसाहस्सोहि एवं तं चेव पुन्व-वण्णि (चहि महत्तरियाहि सपरिवाराहि, सहि अणिएहि, सतहि अणिमाहिवईहि, सोलसहिं प्रायरक्खदेवसाहस्सोहिं, अण्णेहि अ बहूहि भवणवइवाणमन्तरेहि देवेहि, देवीहि अ सद्धि संपरिवुडानो महया ह्यणट्टगीयवाइन जाब भोगभोगाई भुजमाणीप्रो) बिहरंति, तं जहा-- मेहंकरा 1 मेहवई 2, सुमेहा 3 मेहमालिनी 4 / सुवच्छा 5 वच्छमित्ता य 6, वारिसेणा 7 बलाहगा // 1 // तए णं तासि उद्धलोगवत्थव्वाणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीमहत्तरित्राणं पत्तेअं 2 प्रासणाई चलन्ति, एवं तं चेव पुत्ववण्णिअं भाणिनव्वं जाव अम्हे णं देवाणुप्पिए ! उद्धलोगवत्थस्वासो अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरित्रानो जेणं भगवो तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो, तेणं तुम्भेहि ण भाइअव्वं ति कट्ट, उत्तर-पुरस्थिमं दिसीभागं प्रवक्कमन्ति 2 ता (वेउविसमुग्धाएणं समोहणंति 2 ता जाव दोच्चंपि वेउन्वित्रसमुग्घाएणं समोहणंति 2 त्ता) अभवद्दलए विउध्वन्ति 2 ता (से जहाणामए कम्मदारए जाव सिप्पोवगए एगं महंतं दगवारगं वा दगकुभयं वा दगथालगं वा दगकलसं वा दभिंगारं वा गहाय रायंगणं वा अतुरियं जाव समता प्रावरिसिज्जा, एवमेव तानोवि उद्धलोगवस्थव्वाग्रो अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरियानो अभवद्दलए विउन्वित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति 2 ता खिप्पामेव विज्जुअायंति 2 ता भगवनो तित्थगरस्स जम्मण-भवणस्स सव्वनो समन्ता जोत्रणपरिमंडलं णिच्चोअगं, नाइमट्टिगं, पविरलफुसिय, रयरेणविणासणं, दिव्वं सुरभिगन्धोदयवासं वासंति 2 ता) तं निहयरयं, गट्ठरयं, भट्टरयं, पसंतरयं, उवसंतरयं करेंति 2 खिप्पामेव पच्चुवसमन्ति, एवं पुप्फवद्दलंसि पुप्फवासं वासंति, वासित्ता (से जहाणामए मालागारदारए सिमा जाव सिप्पोवगए एग महं पुष्फछज्जिअं वा पुप्फपडलगं वा पुष्फचंगेरीअं वा गहाय रायंगणं वा जाव समन्ता कयग्गहगहिप्रकरयल-पन्भट्ठ-विप्पमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं पुष्फपुजोवयारकलिअं करेति, एवमेव ताम्रो वि उद्धलोगवत्थव्वानो जाव पुष्फवद्दलए विउन्वित्ता खिप्पामेव पतणतणायन्ति जाव जोप्रणपरिमण्डलं जलय-थलयभासुरप्पभूयस्स बिटट्ठाइस्स दसद्धवष्णस्स कुसुमत्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम बलस्कार] [277 मासं वासंति) कालागुरु पवर-(कुदरुक्कतुरुक्कडझंत धूवमधमधन्तगंधुद्ध प्राभिरामं सुगंधवरगन्धि गंधवट्टिमूनं दिव्व) सुरवराभिगमणजोग्गं करेंति 2 ता जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य, तेणेव उवागच्छन्ति 2 ता (भगवनो तित्थयरस्स तित्थयरमायाए य अदूरसामते) मागायमाणीम्रो, परिगायमाणीश्रो चिट्ठति / [146] उस काल, उस समय मेघंकरा, मेघवती, सुमेधा, मेघमालिनी, सुवत्सा, वत्समिश्रा, वारिषेणा तथा बलाहका नामक, ऊर्ध्व लोकवास्तव्या-ऊर्ध्व लोक में निवास करनेवाली, महिमामयी आठ दिक्कुमारिकाओं के, जो अपने कूटों पर, अपने भवनों में, अपने उत्तम प्रासादों में अपने चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार महत्तरिकाओं, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों, अन्य अनेक भवनपति एवं वानव्यन्तर देव-देवियों से संपरिवृत, नृत्य, गीत एवं तुमुल वाद्य-ध्वनि के बीच विपुल सुखोपभोग में अभिरत होती हैं, प्रासन चलित होते हैं / एतत्सम्बद्ध शेष वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए / वे दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थंकर की माता से कहती हैं-देवानुप्रिये ! हम ऊर्ध्वलोकवासिनी विशिष्ट दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थकर का जन्म-महोत्सव मनायेंगी / अतः आप भयभीत मत होना / यों कहकर वे उत्तर-पूर्व दिशा-भाग में-ईशान कोण में चली जाती हैं / (वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालती हैं, पुनः वैसा करती हैं, वैसा कर) वे आकाश में बादलों की विकुर्वणा करती हैं, (जैसे कोई क्रिया-कुशल कर्मकर उदकवारक--मृत्तिकामय जल-भाजन विशेष, उदक-कुभ-जलघट-पानी का घड़ा, उदक-स्थालककांसी आदि से बना जल-पात्र, जल का कलश या भारी लेकर राजप्रासाद के प्रांगण आदि को धीरेधीरे सिक्त कर देता है-वहाँ पानी का छिड़काव कर देता है, उसी प्रकार, उन ऊर्ध्व लोकवास्तव्या, महिमामयी पाठ दिक्कुमारिकाओं ने आकाश में जो बादल विकूलित किये, वे (बादल) शीघ्र ही जोर-जोर से गरजते हैं, उनमें बिजलियां चमकती हैं तथा वे भगवान् महावीर के जन्म-भवन के चोरों ओर योजन-परिमित परिमंडल पर न अधिक पानी गिराते हुए, न बहुत कम पानी गिराकर मिट्टी को असिक्त, शुष्क रखते हुए मन्द गति से, धूल, मिट्टी जम जाए, इतने से धीमे वेग से उत्तम स्पर्शयुक्त, दिव्यसुगन्धयुक्त झिरमिर-झिरमिर जल बरसाते हैं। उससे रज-धूल-निहत हो जाती है-फिर उठती नहीं, जम जाती है, नष्ट हो जाती है -सर्वथा अदृश्य हो जाती है, भ्रष्ट हो जाती हैं-वर्षा के साथ चलती हवा से उड़कर दूर चली जाती है, प्रशान्त हो जाती है-सर्वथा असत्-अविद्यमान की ज्यों हो जाती है, उपशान्त हो जाती है। ऐसा कर वे बादल शीघ्र ही प्रत्युपशान्त-उपरत हो जाते हैं। फिर वे ऊर्ध्वलोकवास्तव्या आठ दिक्कुमारिकाएँ पुष्पों के बादलों की विकुर्वणा करती हैं। (जैसे कोई क्रिया-निष्णात माली का लडका एक बड़ी पूष्प-छाधिका--फलों की बडी टोकरी, पुष्प-पटलक-फूल रखने का पात्र-विशेष या पुष्प-चंगेरी-फूलों की डलिया लेकर राजमहल के प्रांगन आदि में कवग्रह-रति-कलह में प्रेमी द्वारा मुदुतापूर्वक पकड़े जाते प्रेयसी के केशों की ज्यों पंचरंगे फूलों को पकड़-पकड़ कर ले-लेकर सहज रूप में उन्हें छोड़ता जाता है, बिखेरता जाता है, पुष्पोपचार से, फूलों की सज्जा से उसे कलित-सुन्दर बना देता है,) ऊर्ध्वलोकवास्तव्या आठ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278] [नम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र दिक्कुमारिकाओं द्वारा विकुर्वित फूलों के बादल जोर-जोर से गरजते हैं, उसी प्रकार, जल में उत्पन्न होने वाले कमल आदि, भूमि पर उत्पन्न होने वाले बेला, गुलाब आदि देदीप्यमान, पंचरंगे, बृत्तसहित फूलों की इतनी विपुल वृष्टि करते हैं कि उनका घुटने-घुटने तक ऊँचा ढेर हो जाता है। फिर वे काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथा धूप की गमगमाती महक से वहां के वातावरण को बड़ा मनोज्ञ, उत्कृष्ट-सुरभिमय बना देती हैं। सुगंधित धुएँ की प्रचुरता से वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले से बनने लगते हैं। यों वे दिक्कुमारिकाएँ उस भूभाग को सुरवर–देवोत्तम देवराज इन्द्र के अभिगमन योग्य बना देती हैं। ऐसा कर वे भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी मां के पास आती हैं। वहाँ आकर (भगवान् तीर्थकर तथा उनकी मां से न अधिक दूर, न अधिक समीप) भागान, परिगान करती हैं। रुचकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव 147. तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरस्थिमरुप्रगवत्थव्यायो अढ दिसाकुमारीमहत्तरियानो सएहि 2 कूडेहि तहेव जाव' विहरंति, तं जहा णंदुत्तरा य 1, गन्दा 2, प्राणन्दा 3, गंदिवद्धणा 4 / विजया य 5, वेजयन्ती 6, जयन्ती 7, अपराजिना 8 // 1 // सेसं तं चेव (सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं क्यासी-मोत्थु ते रयणकुच्छिधारिए ! जगप्पईवदाईए ! सव्वजगमंगलस्स, चक्खुणो प्र मुत्तस्स, सम्वजगजीववच्छलस्स, हिसकारगमगदेसियवागिद्धिविभुप्पभुस्स, जिणस्स, गाणिस्स, नायगस्स, बुहस्स, बोहगस्स, सम्वलोगनाहस्स, निम्ममस्स, पवरकुलसमुम्भवस्स जाईए खत्तिस्स जंसि लोगुत्तमस्स जणणी ! धण्णासि तं पुण्णासि कयथासि मम्हे गं देवाणुप्पिए ! पुरस्थिमरुअगवत्थव्वाप्रो अटु दिसाकुमारीमहत्तरिमानो भगवनो तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो) तुम्भाहिं " भाइअव्वंति कटु भगवो तित्थगरस्स तित्थयरमायाए अपुरस्थिमेणं प्रायंसहत्थगयानो पागायमाणीनो परिगायमाणीनो चिट्ठन्ति / तेणं कालेणं तेणं समएणं दाहिणरुअगवत्थव्यानो अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरित्रानो तहेव जाव' विहरंति, तं जहा समाहारा 1, सुप्पइण्णा 2, सुप्पबुद्धा 3, जसोहरा 4 / लच्छिमई 5, सेसवई 6, चित्तगुत्ता 7, वसुधरा // 1 // तल्लेव जाव' तुम्भाहि न भाइअव्वंति कटु भगवनो तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए प्र दाहिणणं भिगारहत्थगयानो पागायमाणीनो, परिगायमाणीसो चिट्ठन्ति। 1. देखें सूत्र संख्या 146 2. देखें सूत्र संख्या 146 3. देखें सूत्र यही Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार] [279 सेणं कालेणं तेणं समएणं पच्चत्थिमरुप्रगवस्थव्वानो अटु दिसाकुमारीमहत्तरियानो सरहिं जाव' विहरंति, तं जहा--- इलादेवी 1, सुरादेवी 2, पुहवी 3, पउमावई 4 / एगणासा 5, गवमिश्रा 6, भद्दा 7, सोश्रा य अट्ठमा 8 // 1 // तहेव जाव तुम्भाहि भाइअव्वंत्ति कटु जाव भगवनो तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए म पच्चत्थिमेणं तालिअंटहत्थगयाश्रो पागायमाणीओ, परिगायमाणोश्रो चिट्ठन्ति / तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरिल्लरुअगवत्थव्वानो जाव विहरंति, तं जहा-- अलंबुसा 1, मिस्सकेसी 2, पुण्डरीमा य 3, वारुणी 4 / हासा 5, सव्वप्पभा 6, चेव, सिरि 7, हिरि 8, चेव उत्तरप्रो॥१॥ तहेव जाव' वन्दित्ता भगवनो तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए प्र उत्तरेणं चामरहत्थगयानो मागायमाणोश्रो, परिगायमाणीयो चिट्ठन्ति / तेणं कालेणं तेणं समएणं विदिसरुअगवत्थव्यानो चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिमानो जाव विहरंति, तं जहा-चित्ता य 1, चित्तकणगा 2, सतेरा य 3, सोदामिणी 4 / तहेव जाव' ण भाइअव्वंति कटु भगवनो तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए अचउसु विदिसासु दीविनाहत्थगयानो बागायमाणीयो, परिगायमाणीयो चिट्रन्ति त्ति। तेणं कालेणं तेणं समएणं मज्झिमरुअगवत्थव्वानो चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिमानो सएहि 2 कू?हं तहेब जाव विहरंति, तं जहा--१. रूपा, 2. रुप्रासिश्रा, 3. सुरूमा, 4. रुप्रगावई। तहेव जाव' तुम्भाहि ग भाइयव्वंति कटु भगवो तित्थयरस्स चउरंगुलवज्ज णाभिणालं कप्पन्ति, कप्पेत्ता विपरगं खणन्ति, खणित्ता विनरगे णाभि णिहणंति, णिहणित्ता रयणाण य वइराण य पूरेति 2 त्ता हरिपालिप्राए पेढं बन्धंति 2 ता तिदिसि तो कयलीहरए विउव्वति / तए णं तेसि कयलोहरगाणं बहुमज्झदेसभाए तो चाउस्सालाए विउम्वन्ति, तए णं तेसि चाउसालगाणं बहुमझदेसभाए तो सीहासणे विउठवन्ति, तेसि णं सीहासणाणं अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, सम्वो वण्णगो भाणिप्रव्यो। 1. देखें सूत्र संख्या 146 2. देखें सूत्र यही 3. देखें सूत्र संख्या 146 4. देखें सूत्र संख्या 146 5. देखें सूत्र यही 6. देखें सूत्र संख्या 146 7. देखें सूत्र यही 8. देखें सूत्र संख्या 146 9. देखें सूत्र यही Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तए तं तानो रुप्रगमझवत्थव्वाश्रो चत्तारि दिसाकुमारीपो महत्तरानो जेणेव भयवं तिस्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छन्ति 2 ता भगवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं गिण्हन्ति तित्थयरमायरं च बाहाहि गिण्हन्ति 2 त्ता जेणेव दाहिणिल्ले कयलीहरए जेणेव चाउसालए जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छन्ति 2 ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सोहासणे णिसीयाति 2 त्ता सयपागसहस्सपागेहि तिल्लेहि अभंगेंति 2 ता सुरभिणा गन्धवट्टएणं उन्वटेंति 2 ता भगवं तित्थयरं करयलपुडेण तित्थयरमायरं च बाहासु गिण्हन्ति 2 ता जेणेव पुरथिमिल्ले कयलीहरए, जेणेव चउसालए जेणेन सोहासणे, तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सोहासणे णिसीप्राति 2 त्ता तिहिं उदएहि मज्जाति, तं जहा-गन्धोदएणं 1, पुष्फोदएणं 2 सुद्धोदएणं मज्जावित्ता सव्वालंकारविभसिकं करेंति 2 ता भगवं तित्थयरं करयलपडेणं तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हन्ति 2 त्ता जेणेव उत्तरिल्ले कयलीहरए जेणेव चउसालए जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छन्ति 2 ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे जिसीप्राविति 2 त्ता प्राभिप्रोगे देवे सद्दाविन्ति 2 ता एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चुल्लहिमवन्तानो वासहरपन्वयानो गोसीसचंदणकट्ठाई साहरह। तए णं ते प्राभिप्रोगा देवा ताहि रुप्रगमज्भवत्थन्वाहि चहि दिसाकुमारी-महत्तरिवाहि एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव' विणएणं बयणं पडिच्छन्ति 2 ता खिय्यामेव चुल्ल हिमवन्तामो वासहरपव्ययानो सरसाइं गोसीसचन्दणकट्ठाई साहरन्ति / तए णं तानो मज्झिमरुप्रगवत्थव्वानो चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरित्रानो सरगं करेन्ति 2 ता अणि घडेति, अणि घडित्ता सरएणं अरणि महिति 2 ता अग्गि पाति 2 ता अग्गि संधुक्खंति 2 ता गोसीसचन्दणकट्ठे पविखवन्ति 2 ता अग्गि उज्जालंति 2 ता समिहाकद्राइं पक्खिविन्ति 2 त्ता अग्गिहोमं करेंति 2 ता भतिकम्मं करेंति २त्ता रक्खापोट्टलिअं बंधन्ति, बन्धेत्ता पाणामणिरयण-भत्तिचित्ते दुविहे पाहाणवट्टगे गहाय भगवनो तित्थयरस्स कण्णमूलंमि टिट्टिप्राविन्ति भवउ भयवं पव्वयाउए 2 / तए णं तानो रुपगमज्झवत्थव्वाश्रो चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरियानो भयवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च बाहाहि गिण्हन्ति, गिण्हित्ता जेणेव भगवनो तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छन्ति 2 त्ता तित्थयरमायरं संयणिज्जंसि णिसीप्राविति, णिसीश्रावित्ता भयवं तित्थयरं माउए पासे ठवेंति, ठवित्ता प्रागायमाणीग्रो परिगायमाणीग्रो चिट्ठन्तीति / [147] उस काल, उस समय पूर्व दिग्वर्ती रुचककूट-निवासिनी आठ महतरिका दिक्कुमारिकाएँ अपने-अपने कटों पर सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं / उनके नाम इस प्रकार हैं 1. नन्दोत्तरा, 2. नन्दा, 3. आनन्दा, 4. नन्दिवर्धना, 5. विजया, 6. वैजयन्ती, 7. जयन्ती तथा 8. अपराजिता / 1. देखें सूत्र संख्या 44 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार] [281 ___ अवशिष्ट वर्णन पूर्ववत् है। (वे तीर्थकर की माता के निकट पाती हैं एवं हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे, उन्हें मस्तक पर घुमाकर तीर्थकर की माता से कहती हैं-- 'रत्नकुक्षिधारिके-अपनी कोख में तीर्थंकर रूप रत्न को धारण करने वाली ! जगत्प्रदीपदायिके-जगद्वर्ती जनों को सर्वभाव प्रकाशक तीर्थंकररूप दीपक प्रदान करने वाली ! हम आपको नमस्कार करती हैं / समस्त जगत् के लिए मंगलमय, नेत्रस्वरूप---सकल-जगद्भावदर्शक, मूर्तचक्षुर्णाह्य, समस्त जगत् के प्राणियों के लिए वात्सल्यमय, हितप्रद सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप मार्ग उपदिष्ट करने वाली, विभु --सर्वव्यापक-समस्त श्रोतृवन्द के हृदयों में तत्तद्भाषानुपरिणत हो अपने तात्पर्य का समावेश करने में समर्थ वाणी की ऋद्धि-वाग्वैभव से युक्त जिन-राग-द्वेषविजेता, ज्ञानी-सातिशय ज्ञानयुक्त, नायक, धर्मवरचक्रवर्ती उत्तम धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाले, बुद्ध--ज्ञाततत्त्व, बोधक-दूसरों को तत्त्वबोध देने वाले, समस्त लोक के नाथ समस्त प्राणिवर्ग में ज्ञान-बीज का आधान एवं संरक्षण कर उनके योग-क्षेमकारी, निर्मम ममतारहित, उत्तम 'क्षत्रिय-कुल में उद्भूत, लोकोत्तम–लोक में सर्वश्रेष्ठ तीर्थकर भगवान् की आप जननी हैं। आप धन्य हैं, पुण्यशालिनी हैं एवं कृतार्थ कृतकृत्य हैं।) देवानुप्रिये ! पूर्वदिशावर्ती रुचककूट निवासिनी हम आठ प्रमुख दिशाकुमारिकाएँ भगवान् तीर्थकर का जन्म-महोत्सव मनायेंगी। अतः प्राप भयभीत मत होना।' यों कहकर तीर्थंकर तथा उनकी माता के शृगार, शोभा, सज्जा आदि विलोकन में उपयोगी, प्रयोजनीय दर्पण हाथ में लिये वे भगवान् तीर्थकर एवं उनकी माता के पूर्व में प्रागान, परिगान करने लगती हैं। उस काल, उस समय दक्षिण रुचककट-निवासिनी पाठ दिक्कुमारिकाएँ अपने-अपने कूटों में सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं / उनके नाम इस प्रकार हैं 1. समाहारा, 2. सुप्रदत्ता, 3. सुप्रबुद्धा, 4. यशोधरा, 5. लक्ष्मीवती, 6. शेषवती, 7. चित्रगुप्ता तथा 8. वसुन्धरा / आगे का वर्णन पूर्वानुरूप है। वे भगवान् तीर्थकर की माता से कहती हैं-'पाप भयभीत न हों / ' यों कहकर वे भगवान् तीर्थकर एवं उनकी माता के स्नपन में प्रयोजनीय सजल कलश हाथ में लिये दक्षिण में आगान, परिगान करने लगती हैं। उस काल, उस समय पश्चिम रूचक कूट-निवासिनी पाठ महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं / उनके नाम इस प्रकार हैं 1. इलादेवी, 2. सुरादेवी, 3. पृथिवी, 4. पद्मावती, 5. एकनासा, 6. नवमिका, 7. भद्रा तथा 8. सीता। प्रागे का वर्णन पूर्ववत् है / वे भगवान तीर्थकर की माता को सम्बोधित कर कहती हैं—'पाप भयभीत न हो।' यों कह कर वे हाथों में तालवृन्त-व्यजन—पंखे लिये हुए आगान, परिगान करती हैं। उस काल, उस समय उत्तर रुचककूट-निवासिनी पाठ महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 1. अलंबुसा, 2. मिश्रकेशी, 3. पुण्डरीका, 4. वारुणी, 5. हासा, 6. सर्वप्रभा, 7. श्री तथा 8. ह्री। शेष समग्र वर्णन पूर्ववत् है / वे भगवान् तीर्थंकर तथा उनकी माता को प्रणाम कर उनके उत्तर में चॅवर हाथ में लिये आगान-परिगान करती हैं। उस काल, उस समय रुचककूट के मस्तक पर--शिखर पर चारों विदिशाओं में निवास करने वाली चार महत्तरिका दिक्कुमारिकाएँ सुखोपभोग करती हुई विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं 1. चित्रा, 2. चित्रकनका, 3. शतेरा तथा 4. सौदामिनी / आगे का वर्णन पूर्वानुरूप है। वे प्राकर भगवान् तीर्थंकर की माता से कहती हैं--'आप डरें नहीं।' यों कहकर भगवान् तीर्थकर तथा उनकी माता के चारों विदिशाओं में अपने हाथों में दीपक लिये प्रागान-परिगान करती हैं / उस काल, उस समय मध्य रुचककूट पर निवास करनेवाली चार महत्तरिका दिक्कुमारिकाएँ सुखोपभोग करती हुई अपने-अपने कूटों पर विहार करती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं 1. रूपा, 2. रूपासिका, 3. सुरूपा तथा 4. रूपकावती / आगे का वर्णन पूर्ववत् है। वे उपस्थित होकर भगवान् तीर्थंकर की माता को सम्बोधित कर कहती हैं—'आप डरें नहीं।' इस प्रकार कहकर वे भगवान् तीर्थकर के नाभि-नाल को चार अंगुल छोड़कर काटती हैं। नाभि-नाल को काटकर जमीन में खड्डा खोदती हैं। नाभि-नाल को उसमें गाड़ देती हैं और उस खड्डे को वे रत्नों से, हीरों से भर देती हैं। गड्डा भरकर मिट्टी जमा देती हैं, उस पर हरी-हरी दूब उगा देती हैं। ऐसा करके उसकी तीन दिशाओं में तीन कदलीगृहकेले के वृक्षों से निष्पन्न घरों की विकुर्वणा करती हैं। उन कदली-गहों के बीच में तीन चतुः शालाओं-जिन में चारों ओर मकान हों, ऐसे भवनों की विकुर्वणा करती हैं। उन भवनों के बीचों बीच तीन सिंहासनों की विकुर्वणा करती हैं। सिंहासनों का वर्णन पूर्ववत् है। फिर वे मध्यरुचकवासिनी महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थकर तथा उनकी माता के पास आती हैं। तीर्थंकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा उठाती हैं और तीर्थकर की माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं / ऐसा कर दक्षिणदिग्वर्ती कदलीगह में, जहाँ चतुःशाल भवन एवं सिंहासन बनाए गए थे, वहाँ आती हैं। भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं। सिंहासन पर बिठाकर उनके शरीर पर शतपाक एवं सहस्रपाक तैल द्वारा अभ्यंगन-- मालिश करती हैं। फिर सुगन्धित गन्धाटक से--गेहूँ अादि के आटे के साथ कतिपय सौगन्धिक पदार्थ मिलाकर तैयार किये गये उबटन से शरीर पर वह उबटन या पीठी मलकर तेल की चिकनाई दूर करती हैं / वैसा कर वे भगवान् तीर्थकर को हथेलियों के संपुट द्वारा तथा उनकी माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं, जहाँ पूर्वदिशावर्ती कदलीगृह, चतुःशाल भवन तथा सिंहासन थे, वहाँ लाती हैं, वहाँ लाकर भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं / सिंहासन पर बिठाकर गन्धोदक-- Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार] [283 केसर आदि सुगन्धित पदार्थ मिले जल, पुष्पोदक-पुष्प मिले जल तथा शुद्ध जल केवल जल--यों तीन प्रकार के जल द्वारा उनको स्नान कराती हैं / स्नान कराकर उन्हें सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित करती हैं / तत्पश्चात् भगवान् तीर्थकर को हथेलियों के संपुट द्वारा और उनकी माता को भुजाओं द्वारा उठाती हैं / उठाकर, जहाँ उत्तरदिशावर्ती कदलीगृह, चतुःशाल भवन एवं सिंहासन था, वहाँ लाती हैं। वहाँ लाकर भगवान् तीर्थंकर तथा उनकी माता को सिंहासन पर बिठाती हैं। उन्हें सिंहासन पर बिठाकर अपने प्राभियोगिक देवों को बुलाती हैं / बुलाकर उन्हें कहती हैं देवानुप्रियो ! चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से गोशीर्ष-चन्दन-काष्ठ लामो / ' मध्य रुचक पर निवास करने वाली उन महत्तरा दिक्कुमारिकाओं द्वारा यह आदेश दिये जाने पर वे प्राभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं, विनयपूर्वक उनका आदेश स्वीकार करते हैं / वे शीघ्र ही चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत से सरस-ताजा गोशीर्ष चन्दन ले आते हैं / तब वे मध्य रुचकनिवासिनी दिक्कुमारिकाएं शरक-शर या बाण जैसा तीक्ष्ण-नुकीला अग्नि-उत्पादक काष्ठविशेष तैयार करती हैं / उसके साथ अरणि काष्ठ को संयोजित करती हैं / दोनों को परस्पर रगड़ती हैं, अग्नि उत्पन्न करती हैं। अग्नि को उद्दीप्त करती हैं / उद्दीप्त कर उसमें गोशीर्ष चन्दन के टुकड़े डालती हैं। उससे अग्नि प्रज्वलित करती है। अग्नि को प्रज्वलित कर उसमें समिधा-काष्ठ-हवनोपयोगी ईन्धन डालती हैं, हवन करती हैं, भूतिकर्म करती हैं -जिस प्रयोग द्वारा ईन्धन भस्मरूप में परिणत हो जाए, वैसा करती हैं। वैसा कर वे डाकिनी, शाकिनी आदि से, दृष्टिदोष--से-नजर आदि से रक्षा हेतु भगवान् तीर्थकर तथा उनकी माता के भस्म की पोटलियाँ बाँधती हैं / फिर नानाविध मणि-रत्नांकित दो पाषाण-गोलक लेकर वे भगवान् तीर्थकर के कर्णमूल में उन्हें परस्पर ताडित कर 'टिट्टी' जैसी ध्वनि उत्पन्न करती हुई बजाती हैं, जिससे बाललीलावश अन्यत्र आसक्त भगवान् तीर्थकर उन द्वारा वक्ष्यमाण आशीर्वचन सुनने में दत्तावधान हो सकें / वे आशीर्वाद देती हैं'भगवन् ! आप पर्वत के सदृश दीर्घायु हों।' फिर मध्य रुचकनिवासिनी वे चार महत्तरा दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा तथा भगवान की माता को भुजानों द्वारा उठाती हैं / उठाकर उन्हें भगवान तीर्थकर के जन्म-भवन में ले आती हैं / भगवान् की माता को वे शय्या पर सुला देती हैं / शय्या पर सुलाकर भगवान् तीर्थंकर को माता की बगल में रख देती हैं-सुला देती हैं। फिर वे मंगल-गीतों का आगान, परिगान करती हैं। विवेचन-शतपाक एवं सहस्रपाक तैल आयुर्वेदिक दृष्टि से विशिष्ट लाभप्रद तथा मूल्यवान् तल होते हैं, जिनमें बहुमूल्य औषधियां पड़ी होती हैं। शान्तिचन्द्रीया वृत्ति में किये गये संकेत के अनुसार शतपाक तैल वह है, जिसमें सौ प्रकार के द्रव्य पड़े हों, जो सौ दफा पकाया गया हो, अथवा जिसका मूल्य सौ कार्षापण हो। उसी प्रकार सहस्रपाक तैल वह है, जिसमें हजार प्रकार के द्रव्य पडे हों, जो हजार बार पकाया गया हो, अथवा जिसका मूल्य हजार कार्षापण हो / उपासक वृत्ति में प्राचार्य अभयदेवसूरि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। कार्षापण प्राचीन भारत में प्रयुक्त एक सिक्का था / वह स्वर्ण, रजत तथा ताम्र अलग-अलग तीन प्रकार का होता था। प्रयुक्त धातु के अनुसार वह स्वर्णकार्षापण, रजतकार्षापण तथा ताम्र Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] [सम्पप्राप्तिमा कार्षापण कहा जाता था। स्वर्णकार्षापण का वजन 16 मासे, रजतकार्षापण का वजन 16 पण (तोल-विशेष) तथा ताम्रकार्षापण का वजन 80 रत्ती होता था।' शक्रेन्द्र द्वारा जन्मोत्सवार्थ तैयारी 148. तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के णाम देविदे, देवराया, बज्जपाणी, पुरंदरे, सयककऊ, सहस्सक्खे, मघवं, पागसासणे, दाहिणद्ध-लोगाहिबई, बत्तीसविमाणावाससयसहस्साहिवई, एरावणवाहणे, सुरिंदे, अरयंबरवत्थधरे, पालइयमालमउडे, नवहेमचारचित्तचंचलकुण्डलविलिहिज्जमाणगंडे, भासुरबोंदी, पलम्ब-वणमाले, महिड्डिए, महज्जुईए, महाबले, महायसे महाणुभागे, महासोक्खे, सोहम्मे कप्पे, सोहम्मवडिसए विमाणे, सभाए सुहम्माए, सक्कंसि सीहासणंसि, से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयसाहस्सीणं, चउरासीए सामाणिप्रसाहस्सोणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगयालाणं, अण्हं अगमहिसोणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं प्रणिपाणं, सत्तण्हं प्रणिग्राहिवईगं, चउण्हं चउरासोणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, मन्नेसि च बहणं सोहम्मकापवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य पाहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टितं, महत्तरगत्तं, प्राणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयणट्टगोयवाइयतंतोतलतालतुडिमघणमुइंगपडपडहवाइनरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुजमाणे विहरइ। तए णं तस्स सक्कस्स देविदस्स देवरग्णो मासणं चलइ / तए णं से सक्के (देविदे, देवराया) पासणं चलिनं पासइ 2 त्ता प्रोहिं पउंजइ, पउंजित्ता भगवं तित्थयरं प्रोहिणा प्राभोएइ 2 ता हद्वतुट्ठचित्ते, आनंदिए पोइमणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्पमाणहिए, धाराहयकयंबकुमुमचंचुमालइअऊसविअरोमकूवे, विप्रसिअवरकमलनयणवयणे, पचलिअवरकडगतुडिअकेऊरमउडे, कुण्डलहारविरायंतवच्छे, पालम्बपलम्बमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरिअंचवलं सुरिंदे सोहासणाम्रो अब्भुठेइ, 2 ता पायपीढायो पच्चोरहइ 2 ता वेरुलिन-वरिटुरिट्ठअंजणनिउणोविअमिसिमिसितमणिरयणमंडियाओ पाउप्रानो प्रोमुग्रह 2 ता एगसाडिअं उत्तरासंगं करेइ 2 ता अंजलिमउलियग्गहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ 2 ता वामं जाणु अंचेइ 2 त्ता दाहिणं जाणु धरणीप्रलंसि साहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेइ 2 त्ता ईसि पच्चुण्णमइ 2 त्ता कडगतुडिअथंभिप्रायो भुमामो साहरइ 2 त्ता करयलपरिग्गहिरं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासो-गमोऽत्थु णं अरहताणं, भगवंताणं, प्राइगराणं, तित्थयराणं, सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीहाणं, पुरिसवरपुण्डरोग्राणं, पुरिसवरगन्धहत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोगणाहाणं, लोगहियाणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोअगराणं, अभयदयाणं, चपखुदयाणं, मग्गदयाणं, सरणदयाणं, जीवदयाणं, बोहिदयाणं, धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरन्तचक्कवट्टीणं, दीवो, ताणं, सरणं, गई, पइट्टा, अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं, विप्रट्टछउमाणं, जिणाणं, जावयाणं, 1. संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी-सर मोनियर विलियम्स, पृष्ठ 176 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार [285 तिनाणं, तारयाणं, बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोअगाणं, सव्वन्नूणं, सम्वदरिसीणं, सिवमयलमरुप्रमणन्तमक्खयमवावाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं णमो जिणाणं, जिअभयाणं / णमोऽस्थ णं भगवनो तित्थगरस्स प्राइगरस्स (सिद्धिगइणामधेयं ठाणं) संपाविउकामस्स वंदामि णं भगवन्तं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भयवं ! तत्थगए इहगयंति कटु वन्दइ णमंसइ 2 ता सोहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे / तए णं तस्स सक्कस्स देविदस्स देवरणो अयमेवारूवे जाव' संकप्पे समुपज्जित्था-उप्पण्णे खलु भो जम्बुद्दीवे दीवे भगवं तित्थयरे, तं जीप्रमेयं तोअपच्चुप्पण्णमणागयाणं सक्काणं देविदाणं, देवराईणं तित्थयराणं जम्मणमहिमं करेत्तए, तं गच्छामि णं अहं पि भगवनो तित्थगरस्स जम्मणमहिम करेमि त्ति कटु एवं संपेहेइ 2 त्ता हरिणेगमेसि पायत्ताणीयाहिवई देवं सद्दावेति 2 ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सभाए सुधम्माए मेघोघरसिअं गंभीरमहुरयरसई जोयणपरिमण्डलं सुघोस सूसरं घंटे तिक्खुत्तो उल्लालेमाणे 2 महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे 2 एवं वयाहि आणवेइ णं भो सक्के देविदे देवराया, गच्छइ णं भो सक्के देविदे देवराया जम्बुद्दोवे 2 भगवनो तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करित्तए, तं तुम्भे वि णं देवाणुप्पिया! सव्विद्धोए, सव्वजुईए, सव्वबलेणं, सव्वसमुदएणं, सन्यायरेणं, सवविभूईए, सव्वविभूसाए, सव्वसंभमेणं, सव्वणाडएहिं, सम्वोवरोहेहि, सम्वपुप्फगन्धमल्लालंकारविभूसाए, सव्वदिव्वतुडिअसद्दसण्णिणाएणं, महया इद्धीए, (महया जुईए, महया बलेणं, महया समुदएणं, महया प्रायरेणं, महया विभूईए, मह्या विभूसाए, महया संभमेणं, महेहि णाडएहि, महेहिं उवरोहेहि, महया पुष्फ-गन्ध-मल्लालंकार-विभूसाए, महया दिव्व-तुडिअ-सह-सणिणाएणं) रवेणं णियपरिपालसंपरिवुडा सयाई 2 जाणविमाण-वाहणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं चेव सक्कस्स (देविदस्स देवरणो) अंतिअं पाउन्भवह / तए णं से हरिणेगमेसी देवे पायत्ताणीयाहिवई सक्केणं (देविदेणं, देवरण्णा) एवं वृत्ते समाणे हद्वतुट्ठ जाव' एवं देवोत्ति प्राणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ 2 ता सक्कस्स 3 अंतिप्रायो पडिणिक्खमह 2 ता जेणेव सभाए सुहम्माए, मेघोघरसिगंभीरमहरयरसद्दा, जोपणपरिमंडला, सुघोसा घण्टा, तेणेव उवागच्छइ 2 ता मेघोघरसिनगंभीरमहरयरसइं, जोअण-परिमंडलं, सुघोसं घण्टं तिक्खुत्तो उल्लालेइ / तए णं तोसे मेघोघरसिअगंभीरमहरयर-सद्दाए, जोषण-परिमंडलाए, सुघोसाए घण्टाए तिक्खुत्तो उल्लालिमाए समाणीए सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगृहिं बत्तीसविमाणावाससयसहस्सेहि, अण्णाई एगूणाई बत्तीसं घण्टासयसहस्साई जमगसमगं कणकणारावं का पयत्ताई हुत्था इति / तए णं सोहम्मे कप्पे पासायविमाणनिक्खुडावडिअसद्दसमुट्ठिअघण्टापडेसुप्रासयसहस्ससंकुले जाए प्रावि होत्था इति / 1. देखें सूत्र संख्या 68 2. देखें सूत्र संख्या 44 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तए णं तेसि सोहम्मकप्पवासीणं, बहणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य एगन्तरइपसत्तणिच्चपमत्तविसयसुहमुच्छिाणं, सूसरघण्टारसिनविउलबोलपूरिन-चवल-पडिबोहणे कए समाणे घोसणकोऊहलदिण्ण-कण्णएगग्गचित्तउवउत्तमाणसाणं से पायताणीग्राहिवई देवे तंसि घण्टारवंसि निसंतपडिसंतंसि समाणंसि तत्थ तत्थ तहि 2 देसे महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणे 2 एवं वयासोति'हन्त ! सुणंतु भवंतो बहवे सोहम्मकप्पवासी वेमाणिप्रदेवा देवीओ अ सोहम्मकप्पवणो इणमो बयणं हिअसुहत्यं-अणणवेवइ णं भो (सक्कस्स देविदस्स देवरणो) अंतिअं पाउन्भवहत्ति / तए णं ते देवा देवीप्रो अ एयमझें सोच्चा हद्वतुहिअया' अप्पेगइआ बन्दणवत्तिअं, एवं पूषणवत्ति, सक्कारवत्तिअं, सम्माणवत्ति सणवत्तिअं, जिणभत्तिररगेणं, अपेगइआ तं जीअमेअं एवमादि त्ति कट्ट जाव' पाउन्भवंति ति। तए णं से सक्के देविदे, देवराया ते वेमाणिए देवे देवीओ अ अकाल-परिहीणं चेव अंतिअं पाउन्भवमाणे पासइ २त्ता हठे पालयं णाम प्राभिओगिरं देवं सद्दावेद 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! अणेगखम्भसयसण्णिविठ्ठ, लीलट्ठिय-सालभंजिआकलिअं, ईहामिअउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरफुजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं, खंभुग्गयवहरवेइमापरिगयाभिरामं, विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्तं पिव, अच्ची-सहस्समालिणीअं, रूवगसहस्सकलिअं, भिसमाणं भिम्भिसमाणं, चक्खुल्लोषणलेसं, सुहफासं, सस्सिरोअरूवं, घण्टावलिअमहरमणहरसरं, सुह, कन्तं, दरिसणिज्ज, णिउणोविअमिसिमिसितमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं, जोयणसहस्सवित्थिण्णं, पञ्चजोप्रणसयमुग्विद्धं, सिग्धं, तुरिअं जइणणिवाहि, दिव्वं जाणविमाणं विउव्याहि 2 ता एप्रमाणत्तिनं पच्चप्पिणाहि। [148] उस काल, उस समय शक नामक देवेन्द्र-देवों के परम ईश्वर स्वामी, देवराजदेवों में सुशोभित, वज्रपाणि-हाथ में वज्र धारण किए, पुरन्दर-पुर-असुरों के नगरविशेष के दारक-विध्वंसक, शतक्रतु-पूर्व जन्म में कार्तिक श्रेष्ठी के भव में :सौ बार श्रावक की पंचमी प्रतिमा के परिपालक, सहस्राक्ष-हजार आँखों वाले-अपने पाँच सौ मन्त्रियों की अपेक्षा हजार आँखों वाले, मघवा-मेघों के- बादलों के नियन्ता, पाकशासन-पाक नामक शत्रु के नाशक, दक्षिणार्धलोकाधिपति, बत्तीस लाख विमानों के स्वामी, ऐरावत नामक हाथी पर सवारी करने वाले, सुरेन्द्र-देवताओं के प्रभु, आकाश की तरह निर्मल वस्त्रधारी, मालाओं से युक्त मुकुट धारण किये हुए, उज्ज्वल स्वर्ण के सुन्दर, चित्रित चंचल-हिलते हुए कुण्डलों से जिसके कपोल सुशोभित थे, देदीप्यमान शरीरधारी, लम्बी पुष्पमाला पहने हुए, परम ऋद्धिशाली, परम द्युतिशाली, महान् बली, महान् यशस्वी, परम प्रभावक, अत्यन्त सुखी, सौधर्मकल्प के अन्तर्गत सौधर्मावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में इन्द्रासन पर स्थित होते हुए बत्तीस लाख विमानों, चौरासी हजार सामानिक देवों, तेतीस गुरुस्थानीय त्रायस्त्रिंश देवों, चार लोकपालों, परिवारसहित आठ अग्रमहिषियों-प्रमुख इन्द्राणियों, तीन परिषदों, सात अनीकों सेनाओं, सात अनीकाधिपतियों-सेनापति देवों, तीन लाख छत्तीस हजार अंगरक्षक देवों 1. देखें सूत्र संख्या 44 1. देखें सूत्र यही . Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार] [287 तथा सौधर्मकल्पवासी अन्य बहुत से देवों तथा देवियों का प्राधिपत्य, पौरोवृत्त्य-अग्रेसरता, स्वामित्व, भर्तृत्व-प्रभुत्व, महत्तरत्व-अधिनायकत्व, प्राजेश्वरत्व-सैनापत्य-जिसे आज्ञा देने का सर्वाधिकार हो, ऐसा सैनापत्य-सेनापतित्व करते हुए, इन सबका पालन करते हुए, नत्य, गीत, कलाकौशल के साथ बजाये जाते वीणा, झांझ, ढोल एवं मृदंग की बादल जैसी गंभीर तथा मधुर ध्वनि के बीच दिव्य भोगों का आनन्द ले रहा था। सहसा देवेन्द्र, देवराज शक का आसन चलित होता है, काँपता है / शक (देवेन्द्र, देवराज) जब अपने पासन को चलित देखता है तो वह अवधि-ज्ञान का प्रयोग करता है। अवधिज्ञान द्वारा भगवान् तीर्थंकर को देखता है। वह हृष्ट तथा परितुष्ट होता है। अपने मन में प्रानन्द एवं प्रीति - प्रसन्नता का अनुभव करता है / सौम्य मनोभाव और हर्षातिरेक से उसका हृदय खिल उठता है / मेघ द्वारा बरसाई जाती जलधारा से आहत कदम्ब के पुष्पों की ज्यों उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं-वह रोमांचित हो उठता है / उत्तम कमल के समान उसका मुख तथा नेत्र विकसित हो उठते हैं / हर्षातिरेकजनित स्फूर्तावेगवश उसके हाथों के उत्तम कटक–कड़े, श्रुटित-बाहुरक्षिका-भुजाओं को सुस्थिर बनाये र तु परिधीयमान-धारण की गई आभरणात्मक पद्रिका, केयूर-भुजबन्ध एवं मुकुट सहसा कम्पित हो उठते हैं-हिलने लगते हैं। उसके कानों में कुण्डल शोभा पाते हैं / उसका वक्षःस्थल हारों से सुशोभित होता है / उसके गले में लम्बी माला लटकती है, आभूषण झूलते हैं / (इस प्रकार सुसज्जित) देवराज शक्र आदरपूर्वक शीघ्र सिंहासन से उठता है। पादपीठ-पैर रखने के पीढ़े पर अपने पैर रखकर नीचे उतरता है। नीचे उतरकर वैडूर्य-नीलम, श्रेष्ठ रिष्ठ तथा अंजन नामक रत्नों से निपुणतापूर्वक कलात्मक रूप में निर्मित, देदीप्यमान, मणि-मण्डित पादुकाएँ पैरों से उतारता है / पादुकाएँ उतार कर अखण्ड वस्त्र का उत्तरासंग करता है। हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधता है, जिस ओर तीर्थंकर थे उस दिशा की ओर सात, पाठ कदम आगे जाता है। फिर अपने बायें घुटने को आकुचित करता है-सिकोड़ता है, दाहिने घुटने को भूमि पर टिकाता है, तीन बार अपना मस्तक भूमि से लगाता है। फिर कुछ ऊँचा उठता है, कड़े तथा बाहुरक्षिका से सुस्थिर भुजात्रों को उठाता है, हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधे (जुड़े हुए) हाथों को मस्तक के चारों ओर घुमाता है और कहता है अर्हत्-इन्द्र आदि द्वारा पूजित अथवा कर्म-शत्रुओं के नाशक, भगवान्-आध्यात्मिक ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न, आदिकर-अपने युग में धर्म के प्राद्य प्रवर्तक, तीर्थकर--साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म-तीर्थ प्रवर्तक, स्वयंसंबुद्ध-स्वयं बोधप्राप्त, पुरुषोत्तम-पुरुषों में उत्तम, पुरुषसिंह--- आत्मशौर्य में पुरुषों में सिंह सदृश, पुरुषवरपुण्डरीक - सर्व प्रकार की मलिनता से रहित होने के कारण पुरुषों में श्रेष्ठ, श्वेत कमल की तरह निर्मल अथवा मनुष्यों में रहते हुए भी कमल की तरह निर्लेप, पुरुषवरगन्धहस्ती-उत्तम गन्धहस्ती के सदश-जिस प्रकार गन्धहस्ती के पहुँचते ही सामान्य हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकार किसी क्षेत्र में जिनके प्रवेश करते ही दुभिक्ष, महामारी आदि अनिष्ट दूर हो जाते हैं अर्थात् अतिशय तथा प्रभावपूर्ण उत्तम व्यक्तित्व के धनी, लोकोत्तम-लोक के सभी प्राणियों में उत्तम, लोकनाथ--लोक के सभी भव्य प्राणियों के स्वामी- उन्हें सम्यग्दर्शन तथा सन्मार्ग प्राप्त कराकर उनका योग-क्षेम' साधने वाले, लोकहितकर-लोक का कल्याण करने वाले, लोकप्रदीप१. अप्राप्तस्य प्रापणं योग:-जो प्राप्त नहीं है, उसका प्राप्त होना योग कहा जाता है। प्राप्तस्य रक्षण क्षेम:-- प्राप्त की रक्षा करना क्षेम है। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र ज्ञान रूपी दीपक द्वारा लोक का अज्ञान दूर करने वाले अथवा लोकप्रतीप-लोक-प्रवाह के प्रतिकूलगामी-अध्यात्मपथ पर गतिशील, लोकप्रद्योतकर-लोक-अलोक, जीव-अजीव आदि का स्वरूप प्रकाशित करनेवाले अथवा लोक में धर्म का उद्योत फैलाने वाले, अभयदायक---सभी प्राणियों के लिए अभयप्रद–सम्पूर्णत: अहिंसक होने के कारण किसी के लिए भय उत्पन्न नहीं करने वाले, चक्षुदायकआन्तरिक नेत्र सद्ज्ञान देनेवाले, मार्गदायक --सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूप साधनापथ के उद्बोधक, शरणदायक—जिज्ञासु तथा मुमुक्ष जनों के लिए प्राश्रयभूत, जीवनदायकप्राध्यात्मिक जीवन के संबल, बोधिदायक-सम्यक बोध देनेवाले, धर्मदायक-सम्यक् चारित्ररूप धर्म के दाता, धर्मदेशक-धर्मदेशना देनेवाले, धर्मनायक, धर्मसारथि-धर्मरूपी रथ के चालक, धर्मवर चातुरन्त-चक्रवर्ती-चार अन्त-सीमा युक्त पृथ्वी के अधिपति के समान धार्मिक जगत् के चक्रवर्ती, दीप-दीपक-सदृश समस्त वस्तुओं के प्रकाशक अथवा द्वीप-संसार-समुद्र में डूबते हुए जीवों के लिए द्वीप के समान बचाव के आधार, त्राण-कर्म-कर्थित भव्य प्राणियों के रक्षक, शरण आश्रय, गति एवं प्रतिष्ठास्वरूप, प्रतिघात, बाधा या आवरण रहित उत्तम ज्ञान, दर्शन के धारक, व्यावृत्तछद्माअज्ञान प्रादि प्रावरण रूप छद्म से अतीत, जिन-राग. द्वष प्रादि के विजेता. ज्ञायक-राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक-राग आदि को जीतने का पथ बताने वाले, तीर्णसंसार-सागर को पार कर जाने वाले, तारक-दूसरों को संसार-सागर से पार उतारने वाले बोद्धव्य का ज्ञान प्राप्त किये हुए, बोधक-औरों के लिए बोधप्रद, मुक्त कर्मबन्धन से छूटे हुए, मोचक-कर्मबन्धन से छूटने का मार्ग बतानेवाले, वैसी प्रेरणा देनेवाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिवकल्याणमय, अचल-स्थिर, अरुक–निरुपद्रव, अनन्त-अन्तरहित, अक्षय-क्षयरहित, अबाध-- बाधारहित, अपुनरावृत्ति--जहाँ से फिर जन्म-मरण रूप संसार में आगम नहीं होता, ऐसी सिद्धिगति-सिद्धावस्था को प्राप्त, भयातीत जिनेश्वरों को नमस्कार हो / आदिकर, सिद्धावस्था पाने के इच्छुक भगवन् तीर्थकर को नमस्कार हो / यहाँ स्थित मैं वहाँ-~-अपने जन्मस्थान में स्थित भगवान् तीर्थंकर को वन्दन करता हूँ। वहाँ स्थित भगवान् यहाँ स्थित मुझको देखें / ऐसा कहकर वह भगवान् को वन्दन करता है, नमन करता है / वन्दन-नमन कर वह पूर्व की ओर मुंह करके उत्तम सिंहासन पर बैठ जाता है / तब देवेन्द्र, देवराज शक्र के मन में ऐसा संकल्प, भाव उत्पन्न होता है-जम्बूद्वीप में भगवान् तीर्थकर उत्पन्न हुए हैं। भतकाल में हए, वर्तमान काल में विद्यमान, भविष्य में होने वाले देवेन्द्रों, देवराजों शकों का यह परंपरागत प्राचार है कि वे तीर्थंकरों का जन्म-महोत्सव मना इसलिए मैं भी जाऊँ, भगवान् तीर्थकर का जन्मोत्सव समायोजित करू / देवराज शक्र ऐसा विचार करता है, निश्चय करता है। ऐसा निश्चय कर वह अपनी पदातिसेना के अधिपति हरिनिगमेषी' नामक देव को बुलाता है / बुलाकर उससे कहता है-'देवानुप्रिय ! 1. हरेः-इन्द्रस्य, निगमम् आदेशमिच्छतीति हरिनिगमेषी तम्, अथवा इन्द्रस्य नैगमेषी नामा देव:--तम् / (इन्द्र के निगम-आदेश को चाहने वाला अथवा इन्द्र का नगमेषी नामक देव) ---जम्बूद्वीप, शान्तिचन्द्रीयावत्ति पचन्द्रामावत्ति, पत्र 397 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्चम सत्कार [289 शीघ्र ही सुधर्मा सभा में मेघसमूह के गर्जन के सदृश गंभीर तथा अति मधुर शब्दयुक्त, एक योजन वर्तुलाकार, सुन्दर स्वर युक्त सुघोषा नामक घण्टा को तीन बार बजाते हुए, जोर जोर से उद्घोषणा करते हुए कहो-देवेन्द्र, देवराज शक का आदेश है-वे जम्बूद्वीप में भगवान् तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव मनाने जा रहे हैं / देवानुप्रियो। आप सभी अपनी सर्वविध ऋद्धि, द्युति, बल, समुदय, आदर, विभूति, विभूषा, नाटक-नृत्य-गीतादि के साथ, किसी भी बाधा की पर्वाह न करते हुए सब प्रकार के पुष्पों, सुरभित पदार्थों, मालामों तथा आभूषणों से विभूषित होकर दिव्य, तुमुल ध्वनि के साथ महती ऋद्धि (महती द्युति, महत् बल, महनीय समुदय, महान् आदर, महती विभूति, महती विभूषा, बहुत बड़े ठाटबाट, बड़े-बड़े नाटकों के साथ, अत्यधिक बाधाओं के बावजूद उत्कृष्ट पुष्प, गन्ध, माला, आभरणविभूषित) उच्च, दिव्य वाद्यध्वनिपूर्वक अपने-अपने परिवार सहित अपने-अपने विमानों पर सवार होकर विलम्ब न कर शक (देवेन्द्र, देवराज) के समक्ष उपस्थित हों।' देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा इस प्रकार आदेश दिये जाने पर हरिनिगमेषी देव हर्षित होता है, परितुष्ट होता है, देवराज शक का आदेश विनयपूर्वक स्वीकार करता है। प्रादेश स्वीकार कर शक्र के पास से प्रतिनिष्क्रान्त होता है-निकलता है। निकल कर, जहाँ सुधर्मा सभा है एवं जहां मेघसमूह के गर्जन के सदृश गंभीर तथा अति मधुर शब्द युक्त, एक योजन वर्तुलाकार सुघोषा नामक घण्टा है, वहाँ जाता है / वहाँ जाकर बादलों के गर्जन के तुल्य एवं गंभीर एवं मधुरतम शब्द युक्त, एक योजन गोलाकार सुघोषा घण्टा को तीन बार बजाता है। . मेघसमूह के गर्जन की तरह गंभीर तथा अत्यन्त मधुर ध्वनि से युक्त, एक योजन वर्तु लाकार सुघोषा घण्टा के तीन बार बजाये जाने पर सौधर्म कल्प में एक कम बत्तीस लाख विमानों में एक कम बत्तीस लाख घण्टाएँ एक साथ तुमुल शब्द करने लगती हैं, बजने लगती हैं। सौधर्म कल्प के प्रासादों एवं विमानों के निष्कुट-गम्भीर प्रदेशों, कोनों में आपतित-पहुंचे तथा उनसे टकराये हुए शब्द-वर्गणा के पुद्गल लाखों घण्टा-प्रतिध्वनियों के रूप में समुत्थित होने लगते हैं--प्रकट होने लगते हैं। सौधर्म कल्प सुन्दर स्वरयुक्त घण्टानों की विपुल ध्वनि से संकुल-आपूर्ण हो जाता है / फलतः वहां निवास करने वाले बहुत से वैमानिक देव, देवियां जो रतिसुख में प्रसक्त-अत्यन्त आसक्त तथा नित्य प्रमत्त रहते हैं, वैषयिक सुख में मूच्छित रहते हैं, शीघ्र प्रतिबुद्ध होते हैं-जागरित होते हैं--- भोगमयी मोह-निद्रा से जागते हैं। घोषणा सुनने हेतु उनमें कुतूहल उत्पन्न होता है-वे तदर्थ उत्सुक होते हैं / उसे सुनने में वे कान लगा देते हैं, दत्तचित्त हो जाते हैं / जब घण्टा-ध्वनि निःशान्त-अत्यन्त मन्द, प्रशान्त–सर्वथा शान्त हो जाती है, तब शक की पदाति सेना का अधिपति हरिनिगमेषी देव स्थान-स्थान पर जोर-जोर से उद्घोषणा करता हुआ इस प्रकार कहता है सौधर्मकल्पवासी बहुत से देवो! देवियो ! आप सौधर्मकल्पपति का यह हितकर एवं सुखप्रद वचन सुनें-उमकी प्राज्ञा है, आप उन (देवेन्द्र, देवराज शक) के समक्ष उपस्थित हों। यह सुनकर उन देवों, देवियों के हृदय हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं। उनमें से कतिपय भगवान तीर्थकर के वन्दन-अभिवादन हेतु, कतिपय पूजन-अर्चन हेतु, कतिपय सत्कार-स्तवनादि द्वारा गुणकीर्तन हेतु, कतिपय सम्मान समादर-प्रदर्शन द्वारा मनःप्रसाद निवेदित करने हेतु, कतिपय दर्शन की Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र उत्सुकता से, अनेक जिनेन्द्र भगवान के प्रति भक्ति-अनुरागवश तथा कतिपय इसे अपना परंपरानुगत आचार मानकर वहाँ उपस्थित हो जाते हैं / - देवेन्द्र, देवराज शक्र उन वैमानिक देव-देवियों को अविलम्ब अपने समक्ष उपस्थित देखता है। देखकर प्रसन्न होता है / वह अपने पालक नामक प्राभियोगिक देव को बुलाता है / बुलाकर उसे कहता है देवानुप्रिय ! सैकड़ों खंभों पर अवस्थित, कोडोद्यत पुत्तलियों से कलित-शोभित, ईहामगवक, वषभ, अश्व, मनुष्य, मकर, खग, सर्प, किन्नर, हरु संज्ञक मग, शरभ-अष्टापद, चमर-चवरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्रांकन से युक्त, खंभों पर उत्कीर्ण वज्ररत्नमयी वेदिका द्वारा सुन्दर प्रतीयमान. संचरणशील सहजात पुरुष-युगल की ज्यों प्रतीत होते चित्रांकित विद्याधरों से समायुक्त, अपने पर जड़ी सहस्रों मणियों तथा रत्नों की प्रभा से सुशोभित, हजारों रूपकों-चित्रों से सुहावने, अतीव देदीप्यमान, नेत्रों में समा जाने वाले, सुखमय स्पर्शयुक्त, सश्रीक--शोभामय रूपयुक्त, पवन से प्रान्दोलित घण्टियों की मधुर, मनोहर ध्वनि से युक्त, सुखमय, कमनीय, दर्शनीय, कलात्मक रूप में सज्जित, देदीप्यमान मणिरत्नमय घण्टिकाओं के समूह से परिव्याप्त, एक हजार योजन विस्तीर्ण, पाँच सौ योजन ऊँचे, शीघ्रगामी, त्वरितगामी, अतिशय वेगयुक्त एवं प्रस्तुत कार्य-निर्वहण में सक्षम दिव्य यान-विमान की विकुर्वणा करो। आज्ञा का परिपालन कर सूचित करो। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में वर्णित शक्रेन्द्र के देव-परिवार तथा विशेषणों आदि का स्पष्टीकरण इस प्रकार है सौधर्म देवलोक के अधिपति शक्रेन्द्र के तीन परिषद् होती हैं-शमिता-आभ्यन्तर, चण्डामध्यम तथा जाता-बाह्य / आभ्यन्तर परिषद् में बारह हजार देव और सात सौ देवियाँ, मध्यम परिषद् में चौदह हजार देव और छह सौ देवियाँ एवं बाह्य परिषद् में सोलह हजार देव और पाँच सौ देवियाँ होती हैं। प्राभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति पाँच पल्योपम, देवियों की स्थिति तीन पल्योपम, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति चार पल्योपम, देवियों की स्थिति दो पल्योपम तथा बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति तीन पल्योपम और देवियों की स्थिति एक पल्योपम की होती है। अग्रमहिषी परिवार प्रत्येक अग्रमहिषी-पटरानी-प्रमुख इन्द्राणी के परिवार में पांच हजार देवियाँ होती हैं। यों इन्द्र के अन्तःपुर में चालीस हजार देवियों का परिवार होता है। सेनाएँ-हाथी, घोड़े, बैल, रथ तथा पैदल-ये पाँच सेनाएँ होती हैं तथा दो सेनाएँ-गन्धर्वानीक-- गाने-बजाने वालों का दल और नाटयानीक-नाटक करने वालों का दल-आमोद-प्रमोद पूर्वक रणोत्साह बढ़ाने हेतु होती हैं। इस सूत्र में शतक्रतु तथा सहस्राक्ष आदि इन्द्र के कुछ ऐसे नाम आये हैं, जो वैदिक परंपरा में भी विशेष प्रसिद्ध हैं / जैन परंपरा के अनुसार इन नामों के कारण एवं इनकी सार्थकता इनके अर्थ में आ चुकी है। वैदिक परंपरा के अनुसार इन नामों के कारण अन्य हैं, जो इस प्रकार हैं शतक्रतु-ऋतु का अर्थ यज्ञ है / सौ यज्ञ पूर्णरूपेण संपन्न कर लेने पर इन्द्र-पद प्राप्त होता है, वैदिक परंपरा में ऐसी मान्यता है। अतः शतऋतु शब्द सौ यज्ञ पूरे कर इन्द्र-पद पाने के अर्थ में प्रचलित है। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम वक्षस्कार] [291 सहस्राक्ष-इसका शाब्दिक अर्थ हजार नेत्र वाला है। इन्द्र का यह नाम पड़ने के पीछे एक पौराणिक कथा बहुत प्रसिद्ध है / ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है-इन्द्र एक बार मन्दाकिनी के तट पर स्नान करने गया। वहाँ उसने गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या को नहाते देखा। इन्द्र की कामावेश से भ्रष्ट हो गई। उसने देव-माया से गौतम ऋषि का रूप बना लिया और अहल्या का शील-भंग किया। इसी बीच गौतम वहाँ पहुंच गये / वे इन्द्र पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए, उसे फटकारते हुए कहने लगे-तुम तो देवताओं में श्रेष्ठ समझे जाते हो, ज्ञानी कहे जाते हो। पर, वास्तव में तुम नीच, अधम, पतित और पापी हो, योनिलम्पट हो / इन्द्र की निन्दनीय योनिलम्पटता जगत् के समक्ष प्रकट रहे, इसलिए गौतम ने उसकी देह पर सहस्र योनियाँ बन जाने का शाप दे डाला / तत्काल इन्द्र की देह पर हजार योनियाँ उद्भूत हो गईं। इन्द्र घबरा गया, ऋषि के चरणों में गिर पड़ा। बहुत अनुनय-विनय करने पर ऋषि ने इन्द्र से कहा-पूरे एक वर्ष तक तुम्हें इस घृणित रूप का कष्ट झेलना ही होगा। तुम प्रतिक्षण योनि की दुर्गन्ध में रहोगे / तदनन्तर सूर्य की प्राराधना से ये सहस्र 'योनियाँ नेत्ररूप में परिणत हो जायेंगी-तुम सहस्राक्षहजार नेत्रों वाले बन जाओगे / आगे चलकर वैसा ही हुआ, एक वर्ष तक वैसा जघन्य जीवन बिताने के बाद इन्द्र सूर्य की प्राराधना से सहस्राक्ष बन गया / ' . . . . पालकदेव द्वारा विमानविकुर्वरणा ... 146. तए णं से पालयदेवे सक्केणं देविदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ जाव वेउविप्रसमुग्याएणं समोहणिता तहेव करेइ इति, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस तिदिसि तिसोवाणपडिरूवगा, वणो, तेसि गं पडिरूवगाणं पुरो पत्तेनं 2 तोरणा, वणो जाव पडिरूवा।। तस्स णं जाणविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे, से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव' दीविअचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलकसहस्सवितते प्रावड-पच्चावड-सेढि-पसेढि-सुत्थिअ-सोवत्थिन बदमाणपूसमाणव- मच्छंडग- मगरंडग-जार-मार-फुल्लावली- पउमपत्त-सागर-तरंग-वसंतलयपउमलयभत्तिचितेहि सच्छाएहि सप्पभेहिं समरोहएहि सउज्ज़ोहिं णाणाविहपञ्चवणेहि मणीहि उवसोभिए 2, तेसि गं मणीणं वण्णे गन्धे फासे अभाणिप्रवे जहा रायप्यसेणइज्जे। .. तस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए पिच्छाघरमण्ड़वे प्रणेगखम्भसयसण्णिविट्ठे, वण्णओ जाव पडिरूवे, तस्स उल्लोए पउमलयभत्तिचित्ते जाव' सव्वतवणिज्जमए जाव' (पासादीए, वरिसणिज्जे, अभिरुवे,) पडिरूवे। . . तस्स णं मण्डवस्स बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागसि महं एगा मणिपेढिया, अट्ट जोअणाई प्रायामविक्खम्भेणं, चत्तारि जोअणाई बाहल्लेणं, सब्वमणिमयी वण्णो / तीए उवरि महं एगे सोहासणे वण्णनो, तस्सुरि महंः एगे विजयदूसे सव्वरयणामए वण्णओ, तस्स मज्झदेसभाए 1. ब्रह्मवैवर्त पुराण 4-47,19-32. :: . . . 2. देखें सूत्र संख्या 44 3. देखें सूत्र संख्या 6 . . 4. देखें सूत्र संख्या 4 5. देखें सूत्र संख्या 4 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 291 बिनाप्रति एगे वइरामए अंकुसे, एत्थ णं महं एगे कुम्भिक्के मुत्तादामे, से णं अहिं तवधुच्चत्तप्पमाणमित्तेहि चउहि अद्धकुम्भिकेहि मुत्तादामेहिं सम्वनो समन्ता संपरिक्खिते, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा, सुवण्णपयरगमण्डिा , गाणामणिरयणविविहहारवहारउवसोभिप्रा, समुदया ईसि अण्णमण्णमसंपत्ता पुन्वाइएहि वाएहि मन्वं एइज्जमाणा 2 (उरालेणं, मन्नणं, मणहरेणं, कण्णमण.) निन्दहकरेणं सद्देणं ते पएसे प्रापूरेमाणा 2 (सिरीए) अईव उवसोमेमाणा 2 चिट्ठति ति। तस्स णं सीहासणस्स अवरत्तरेणं, उत्तरेणं, उत्तरपुरस्थिमेणं एत्य गं सक्कस्स चउरासीए सामाणिप्रसाहस्सोणं, चउरासोइ भद्दासणसाहस्सोमो, पुरस्थिमेणं अटुण्हं अगमहिसोणं एवं वाहिनपुरस्थिमेणं अन्भितर-परिसाए दुवालसण्हं वेवसाहस्सोणं, दाहिणेणं मज्झिमाए चउपसण्हं वेवसाहसीनं, दाहिणपच्चस्थिमेणं बाहिरपरिसाए सोलसण्हं देवसाहस्सीणं, पञ्चत्थिमेणं सत्तण्हं प्रणिआहिवईगति / तए णं तस्स सोहासणस्स चउद्दिसि चउण्हं चउरासीणं प्रायरक्सदेवसाहस्सोणं एबमाई विभासिमवं सूरिप्राभगमेणं जाव पच्चप्पिणन्ति त्ति / [146] देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा यों कहे जाने पर प्रादेश दिये जाने पर पालक नामक देव हर्षित एवं परितुष्ट होता है। वह वैक्रिय समुद्घात द्वारा यान-विमान की विकुर्वणा करता है। उसकी तीन दिशाओं में तीन-तीन सीढ़ियों की रचना करता है। उनके मागे तोरणद्वारों की रचना करता है / उनका वर्णन पूर्वानुरूप है। उस यान-विमान के भीतर बहुत समतल एवं रमणीय भूमि-भाग है। वह प्रालिंग-पुष्करमुरज या ढोलक के ऊपरी भाग-चर्मपुट तथा शंकुसदृश बड़े-बड़े कीले ठोक कर, खींचकर समान किये गये चीते आदि के चर्म जैसा समतल और सुन्दर है। वह भूमिभाग पावर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, वर्द्धमान, पुष्यमाणव, मत्स्य के अंडे, मगर के अंडे, जार, मार, पुष्पावलि, कमलपत्र, सागर-तरंग, वासन्तीलता एवं पद्मलता के चित्रांकन से युक्त, आभायुक्त, प्रभायुक्त, रश्मियुक्त, उद्योतयुक्त नानाविध पंचरंगी मणियों से सुशोभित है। जैसा कि राजप्रश्नीय सूत्र में वर्णन है', उन मणियों के अपने-अपने विशिष्ट वर्ण, गन्ध एवं स्पर्श हैं। ___ उस भूमिभाग के ठीक बीच में एक प्रेक्षागृह-मण्डप है / वह सैकड़ों खंभों पर टिका है, सुन्दर है। उसका वर्णन पूर्ववत् है। उस प्रेक्षामण्डप के ऊपर का भाग पमलता आदि के चित्रण से युक्त है, सर्वथा तपनीय-स्वर्णमय है, चित्त को प्रसन्न करने वाला है, दर्शनीय है, अभिरूप-मन को अपने में रमा लेने वाला है तथा प्रतिरूप-~-मन में बस जाने वाला है। उस मण्डप के बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग के बीचोंबीच एक मणिपीठिका है। वह आठ योजन लम्बी-चौड़ी तथा चार योजन मोटी है, सर्वथा मणिमय है / उसका वर्णन पूर्ववत् है / ___ उसके ऊपर एक विशाल सिंहासन है। उसका वर्णन भी पूर्वानुरूप है। उसके ऊपर एक सर्वरत्नमय, वृहत् विजयदुष्य--विजय-वस्त्र है। उसका वर्णन पूर्वानुगत है। उसके बीच में एक वज्ररत्नमय-हीरकमय अंकुश है। वहाँ एक कुम्भिका-प्रमाण मोतियों की बृहत् माला है। वह 1. देखिए राजप्रश्नीयसूत्र पृ. 26 (मागम प्र. स.च्यावर) Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [293 मुक्तामाला अपने से आधी ऊँची, अर्ध कुम्भिकापरिमित चार मुक्तामालाओं द्वारा चारों ओर से परिबेष्टित है। उन मालाओं में तपनीय-स्वर्ण निर्मित लंबसक-गेंद के आकार के प्राभरणविशेष--- लूबे लटकते हैं। वे सोने के पातों से मण्डित हैं। वे नानाविध मणियों एवं रत्नों से निर्मित 'हारों-अठारह लड़ के हारों, अर्धहारों-नौ लड़ के हारों से उपशोभित हैं, विभूषित हैं, एक दूसरी से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अवस्थित हैं। पूर्वीय-पुरवैया आदि वायु के झोंकों से धीरे-धीरे हिलती हुई, परस्पर टकराने से उत्पन्न (उत्तम, मनोज्ञ, मनोहर) कानों के लिए तथा मन के लिए शान्तिप्रद शब्द से प्रास-पास के प्रदेशों स्थानों को प्रापूर्ण करती हुई-भरती हुई वे अत्यन्त सुशोभित होती हैं। उस सिंहासन के पश्चिमोत्तर-वायव्य कोण में, उत्तर में एवं उत्तरपूर्व में-ईशान कोण में शक के 84000 सामानिक देवों के 84000 उत्तम आसन हैं, पूर्व में पाठ प्रधान देवियों के आठ उत्तम प्रासन हैं, दक्षिण-पूर्व में-आग्नेय कोण में प्राभ्यन्तर परिषद् के 12000 देवों के 12000, दक्षिण में मध्यम परिषद् के 14000 देवों के 14000 तथा दक्षिण-पश्चिम में-नैऋत्य कोण में बाह्म परिषद् के 16000 देवों के 16000 उत्तम आसन हैं। पश्चिम में सात अनीकाधिपतियोंसेनापति-देवों के सात उत्तम अासन हैं। उस सिंहासन की चारों दिशाओं में चौरासी चौरासी हजार आत्मरक्षक-अंगरक्षक देवों के कुल 84000 x 4 = तीन लाख छत्तीस हजार उत्तम आसन हैं / एतत्सम्बद्ध और सारा वर्णन (राजप्रश्नीयसूत्र में वणित) सूर्याभदेव के विमान के सदृश है। इन सबकी विकुर्वणा कर पालक देव शक्रेन्द्र को निवेदित करता है-विमान निर्मित होने की सूचना देता है। शक्रेन्द्र का उत्सवार्थ प्रयारण 150. तए णं से सक्के (विदे, देवराया) हट्ठहिअए दिव्वं जिणेदाभिगमणजुग्गं सव्वालंकारविभूसिनं उत्तरवेउठिय रूवं विउव्वइ 2 ता अहिं अग्गहिसीहि सपरिवाराहि, गट्टाणीएणं गन्धवाणीएण य सद्धि तं विमाणं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे 2 पुखिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरुहइ 2 ता (जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 ता) सोहासणंसि पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति, एवं चेव सामाणिआदि उत्तरेणं तिसोवाणेणं दुरूहित्ता पत्तेअं२ पुटवष्णत्थेसु भद्दासणेसु णिसीति / अवसेसा य देवा देवीओ अ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरूहित्ता तहेव (पत्तेअं 2 पुरवण्णत्थेसु भद्दासणेसु) जिसीप्रति / तए णं तस्स सक्कस्स तंसि दुरूढस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुब्वीए संपट्टिा, सयणंतरं च गं पुण्णकलसभिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा य सणरइन-पालो-दरिसणिज्जा बाउ प्रविजयदेजयन्ती असमूसिआ गगणतलमणुलिहंती पुरो प्रहाणुपुन्वीए संपस्थिमा, तयणन्तरं छत्तभिंगारं तयणंतर च गं वइरामय-वट्ट-लट्ठ-संठिन-सुसिलिट्ठ-परिघट्ट-मट्ठ-सुपइटिए विसिठे, अणेगवरपञ्चवण्णकुडभीसहस्सपरिमण्डिाभिरामे, वाउ प्रविजयवेजयन्ती-पडागा-छत्ताइच्छत्तकलिए, तुगे, गयणतलमणुलिहंतसिहरे, जोअणसहस्समूसिए, महहमहालए महिंदज्झए पुरनो अहाणुपुब्बीए संपत्थिएत्ति, तयणन्तरं च णं सरूवनेवत्थपरिअच्छिासुसज्जा, सव्वालंकारविभूसिमा पञ्च प्रणिमा पञ्च अणिआहिवाणो (अण्णे देवा य) संपद्विधा, तयणन्तरं च णं बहवे प्राभिषोगिना देवा य देवीमो अ * Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र सएहि सहि स्वेहि (सयेहि सयेहि विहवेहि सयेहि सयेहि ) णिप्रोगेहि सक्कं देविवं देवरायं पुरओ अ मग्गओ म अहापुठवीए, तयणन्तरं च णं बहवे सोहम्मकप्पवासी देवा य देवोनो अ सविडोए जाव' दुरूता समाणा मग्गो (पुरो पासो प्र) सपंटिया।। ___तए णं से सक्के तेणं पञ्चाणिअपरिक्खित्तेणं (बहरामयवट्टलटुसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्टमट्ठसुपइदिएणं, विसिट्टेणं, अणेगवरपंचषण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामेणं, वाउ अविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिएणं, तुगेणं, गयणतलमणुलिहंतसिहरेणं, जोअणसहस्समूसिएणं, महइमहालएणं) महिंदज्झएणं पुरो पकडिज्जमाणेणं, चउरासीए सामाणिअ-(साहस्तीणं अहि भग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, तिहि परिसाणं, सत्तहि प्रणियाणं, सहि प्रणियाहिवईणं, चउहिं चउरासीणं पायरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेहिं च बहूहि देवेहिं देवीहि च) परिवुडे सविड्डीए जावर रवेणं सोहम्मस्स कप्पस्स मज्झमझेणं तं दिव्वं देविति (देवजुई देवाणुभावं) उववंसेमाणे 2 जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उत्तरिल्ले निज्जाणमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जोप्रणसयसाहस्सीएहि विग्गहेहि प्रोवयमाणे 2 ताए उक्किट्ठाए जाव' देवगईए वोईवयमाणे 2 तिरियमसंखिज्जाणं दीवसमुदाणं मझमझणं जेणेव णवीसरवरे दीवे जेणेव दाहिणपुरथिमिल्ले रइकरगपधए तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता एवं जा चेव सूरियाभस्स वत्तम्वया णवरं सक्काहिगारो वत्तवो इति जाव तं दिव्वं देविति जाव' दिव्यं जाणविमाणं पडिसाहरमाणे 2 (जेणेव जम्बुद्दीवे दोवे जेणेव भरहे वासे) जेणेव भगवनो तित्थयरस्स जम्मणनगरे जेणेव भगवमो तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छति 2 ता भगवमो तित्थयरस्स अम्मणभवणं तेणं दिग्वेणं जाणविमाणेणं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेइ 2 त्ता भगवनो तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स उत्तरस्थिमे दिसौभागे चतुरंगुलमसंपत्तं धरणियले तं दिव्वं जाणविमाणं ठवेइ 2 ता अहि अग्गमहिसोहिं दोहि प्रणोएहि गन्धवाणीएण य गट्टाणीएण य सखि ताओ दिव्याओ जाणविमाणानो पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहइ, तए णं सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो चउरासीइ सामाणिसाहस्सीओ विश्वात्रो जाणविमाणाप्रो उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति, अवसेसा देवा य देवीमो अ ताओ दिव्यागो जाणविमाणामो बाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोल्हंति ति। तए णं से सक्के देविन्दे देवराया चउरासीए सामाणिअसाहस्सीएहिं जाव' सद्धि संपरिबुडे सविडीए जाव' कुंदुभिणिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेवं उवागच्छा 2 ता पालोए चेव पणामं करइ 2 ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं . 1. देखें सूत्र संख्या 52 .2. देखें सूत्र संख्या 52 3. देखें सूत्र संख्या 34 4. देखें सूत्र संख्या यही 5. देखें सूत्र संख्या यही 6. देखें सूत्र संख्या 52 . . Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार [295 करेइ 2 सा करयल जाव' एवं बयासी-णमोत्थु ते रयणकुच्छिधारए एवं जहा दिसाकुमारीमो (जगप्पईवदाईए सव्वजगमंगलस्स, चक्खुणो प्रमुत्तस्स, सव्वजगजीववच्छलस्स, हिअकारगमग्गदेसियवागिद्धिविभुप्पभुस्स, जिणस्स, णाणिस्स, नायगस्स, बुहस्स, बोहगस्स, सव्वलोगनाहस्स, निम्ममस्स, पवरकुलसमुन्भवस्स जाईए खत्तिस्स जंसि लोगुत्तमस्स जणणी) धण्णासि, पुण्णासि, तं कयस्थाऽसि, अहण्णं देवाणुप्पिए ! सक्के णाम देविन्दे, देवराया भगवनो तित्थयरस्स जम्मणमहिम करिस्सामि, तं गं तुम्नाहिं ण भाइव्वंति कटु प्रोसोणि दलयइ 2 ता तित्थयरपडिरूवगं विउठवइ, तित्थयरमाउपाए पासे ठवइ 2 ता पञ्च सक्के विउव्वइ विउवित्ता एगे सक्के भगवं तित्थयां करयलपुडेणं गिण्हइ, एगे सक्के पिट्टओ प्रायवत्तं धरेइ, दुवे सक्का उभो पासिं चामरुक्खेवं करेन्ति, एगे सक्के पुरो बज्जपाणी पकडइत्ति। तए णं से सक्के देविन्दे देवराया अण्णेहिं बहूहिं भवणवइवाणमन्तर-जोइस-बेमाणिएहि देवेहिं देवीहि अ सद्धि संपरिचुडे सविडोए जाव' पाइएणं ताए उविकटाए जाव' वीईवयमाणे जेणेव मन्दरे पव्वए, जेणेव पंडगवणे, जेणेव अभिसेअसिला, जेणेव अभिसेनसीहासणे, तेणेव उवागच्छइ 2 ता सोहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति / [150] पालक देव द्वारा दिव्य यान-विमान की रचना संपन्न कर दिये जाने का संवाद सुनकर (देवेन्द्र, देवराज) शक्र मन में हर्षित होता है। जिनेन्द्र भगवान् के सम्मुख जाने योग्य, दिव्य, सर्वालंकारविभूषित, उत्तर वैक्रिय रूप की विकुर्वणा करता है। वैसा कर वह सपरिवार आठ अग्रम हिषियों-प्रधान देवियों, नाट्यानीक-नाटय-सेना, गन्धर्वानीकगन्धर्व-सेना के साथ उस यान-विमान की अनुप्रदक्षिणा करता हुआ पूर्वदिशावर्ती त्रिसोपनक से-तीन सीढियों द्वारा विमान पर आरूढ होता है / विमानारूढ़ होकर (जहाँ सिंहासन है, वहाँ प्राता है। वहाँ प्राकर) वह पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर आसीन होता है। उसी प्रकार सामानिक देव उत्तरी त्रिसोपानक से विमान पर प्रारूढ होकर पूर्व-न्यस्त-पहले से रखे हुए उत्तम आसनों पर बैठ जाते हैं। बाकी के देव-देवियाँ दक्षिणदिग्वर्ती त्रिसोपानक से विमान पर आरूढ होकर (अपने लिए पूर्व-न्यस्त उत्तम आसनों पर) उसी तरह बैठ जाते हैं। शक्र के यों विमानारूढ होने पर आगे आठ मंगलक-मांगलिक द्रव्य प्रस्थित होते हैं / तत्पश्चात् शुभ शकुन के रूप में समायोजित, प्रयाण-प्रसंग में दर्शनीय जलपूर्ण कलश, जलपूर्ण झारी, चॅवर सहित दिव्य छत्र, दिव्य पताका, वायु द्वारा उड़ाई जाती, अत्यन्त ऊँची, मानो आकाश को छूती हुई-सी विजय-वैजयन्ती ये क्रमशः आगे प्रस्थान करते हैं। तदनन्तर छत्र, विशिष्ट वर्णकों एवं चित्रों द्वारा शोभित निर्जल मारी, फिर वज्ररत्नमय, वर्तुलाकार, लष्ट-मनोज्ञ संस्थानयुक्त, सुश्लिष्ट-मसूण-चिकना, परिघृष्ट--कठोर शाण पर तरासी हुई, रगड़ी हुई पाषाण-प्रतिमा की ज्यों स्वच्छ, स्निग्ध, मष्ट-सुकोमल शाण पर घिसी हुई 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखें सूत्र संख्या 52 3. देखे सूत्र संख्या 34 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 [जम्मूदीपप्राप्तिसूब पाषाण-प्रतिमा की तरह चिकनाई लिये हुए मृदुल, सुप्रतिष्ठित-सीधा संस्थित, विशिष्ट-प्रतिशययुक्त, अनेक उत्तम, पंचरंगी हजारों कुडभियों-छोटी पताकाओं से अलंकृत, सुन्दर, वायु द्वारा हिलती विजय-वैजयन्ती, ध्वजा, छत्र एवं अतिछत्र से सुशोभित, तुंग-उन्नत आकाश को छूते हुए से शिखर युक्त, एक हजार योजन ऊँचा, अतिमहत्-विशाल महेन्द्रध्वज यथाक्रम आगे प्रस्थान करता है। उसके बाद अपने कार्यानुरूप वेष से युक्त, सुसज्जित, सर्वविध अलंकारों से विभूषित पाँच सेनाएँ, पाँच सेनापति-देव (तथा अन्य देव) प्रस्थान करते हैं। फिर बहुत से अभियोगिक देव-देवियाँ अपने-अपने रूप, (अपने-अपने वैभव, अपने-अपने) नियोग-उपकरण सहित देवेन्द्र, देवराज शक के आगे, पीछे यथाक्रम प्रस्थान करते हैं। तत्पश्चात् सौधर्मकल्पवासी अनेक देव-देवियाँ सब प्रकार की समृद्धि के साथ विमानारूढ होते हैं, देवेन्द्र, देवराज शक के आगे पीछे तथा दोनों ओर प्रस्थान करते हैं। इस प्रकार विमानस्थ देवराज शक्र पाँच सेनाओं से परिवत (आगे प्रकृष्यमाण-निर्गम्यमान वज्ररत्नमय-हीरकमय, वर्तुलाकार-गोल, लष्ट-मनोज्ञ संस्थान युक्त, सुश्लिष्ट-मसृण, चिकने, परिघुष्ट-कठोर शाण पर तरासी हुई, रगड़ी हुई पाषाण-प्रतिमा की ज्यों स्वच्छ, स्निग्ध, मष्टसुकोमल शाण पर घिसी हुई पाषाण-प्रतिमा की ज्यों चिकनाई लिये हुए मदुल, सुप्रतिष्ठित सीधे संस्थित, विशिष्ट अतिशय युक्त, अनेक, उत्तम, पंचरंगी हजारों कुडभियों-छोटी पताकाओं से अलंकृत, सुन्दर, वायु द्वारा हिलती विजय-वैजयन्ती, ध्वजा, छत्र एवं अतिछत्र से सुशोभित, तुंगउन्नत, आकाश को छूते हुए शिखर से युक्त, एक हजार योजन ऊँचे, अति महत्-विशाल, महेन्द्रध्वज से युक्त.) चौरासी हजार सामानिक देवों (पाठ सपरिवार अग्रम हिषियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, चारों ओर चौरासी-चौरासी हजार अंगरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से देवों और देवियों) से संपरिवत, सब प्रकार की ऋद्धि-वैभव के साथ, वाद्य-निनाद के साथ सौधर्मकल्प के बीचोंबीच होता हुमा, दिव्य देव-ऋद्धि (देव-द्युति, देवानुभाव-देव-प्रभाव) उपदर्शित करता हुआ, जहाँ सौधर्मकल्प का उत्तरी निर्याण-मार्ग बाहर निकलने का रास्ता है, वहाँ प्राता है। वहाँ आकर एक-एक लाख योजन-प्रमाण विग्रहों-गन्तव्य क्षेत्रातिक्रम रूप गमनकम द्वारा चलता हुआ, उत्कृष्ट, तीव देव-गति द्वारा आगे बढ़ता तिर्यक ---तिरछे असंख्य द्वीपों एवं समुद्रों के बीच से होता हुआ, जहाँ नन्दीश्वर द्वीप है, दक्षिण-पूर्व-आग्नेय कोणवर्ती रतिकर पर्वत है, वहाँ आता है / जैसा सूर्याभदेव का वर्णन है, आगे वैसा ही शकेन्द्र का समझना चाहिए / फिर शक्रेन्द्र दिव्य देव-ऋद्धि का दिव्य यान-विमान का प्रतिसंहरण-संकोचन करता हैविस्तार को समेटता है / वैसा कर, जहाँ (जम्बूद्वीप, भरत क्षेत्र) भगवान् तीर्थंकर का जन्म-नगर, जन्म-भवन होता है, वहाँ आता है। प्राकर वह दिव्य यान-विमान द्वारा भगवान् तीर्थंकर के जन्मभवन की तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करता है। वैसा कर भगवान् तीर्थकर के जन्म-भवन के उत्तर-पूर्व में ईशान कोण में अपने दिव्य विमान को भूमितल से चार अंगुल ऊँचा ठहराता है। विमान को ठहराकर अपनी आठ अग्रमहिषियों, गन्धर्वानीक तथा नाट्यानीक नामक दो अनीकोंसेनामों के साथ उस दिव्य-यान-विमान से पूर्व दिशावर्ती तीन सीढियों द्वारा नीचे उतरता है। फिर देवेन्द्र, देवराज शक्र के चौरासी हजार सामानिक देव उत्तरदिशावर्ती तीन सीढ़ियों द्वारा उस दिव्य यान-विमान से नीचे उतरते हैं। बाकी के देव-देवियाँ दक्षिण-दिशावर्ती तीन सीढ़ियों द्वारा यानविमान से नीचे उतरते हैं। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार] [297 ___ तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र चौरासी हजार सामानिक आदि अपने सहवर्ती देव-समुदाय से संपरिक्त, सर्व ऋद्धि-वैभव-समायुक्त, नगाड़ों के गजते हुए निर्घोष के साथ, जहाँ भगवान् तीर्थंकर थे और उनकी माता थी, वहाँ आता है। आकर उन्हें देखते ही प्रणाम करता है। भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माता की तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करता है। वैसा कर, हाथ जोड़, अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक पर घुमाकर भगवान् तीर्थंकर की माता को कहता है रत्नकुक्षिधारिके-अपनी कोख में तीर्थंकर रूप रत्न को धारण करनेवाली ! जगत्प्रदीपदायिके-जगद्वर्ती जनों के सर्व-भाव-प्रकाशक तीर्थकर रूप दीपक प्रदान करने वाली ! आपको नमस्कार हो। (समस्त जगत् के लिए मंगलमय, नेत्र-स्वरूप-सकल-जगद्-भाव-दर्शक, मूर्त--- चक्षाह्य, जगत के समस्त प्राणियों के लिए वात्सल्यमय. हितप्रद सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप मार्ग उपदिष्ट करनेवाली, विभु-सर्वव्यापक-समस्त श्रोतृवन्द के हृदयों में तत्तद्भाषानुपरिणत हो अपने तात्पर्य का समावेश करने में समर्थ वाणी की ऋद्धि–वाग्वैभव से युक्त, जिन-रागद्वेष-विजेता, ज्ञानी–सातिशय ज्ञान युक्त, नायक, धर्मवरचक्रवर्ती-उत्तम धर्म-चक्र का प्रवर्तन करनेवाले, बुद्ध-ज्ञात-तत्त्व, बोधक-दूसरों को तत्त्व-बोध देने वाले, सर्व-लोक-नाथ–समस्त प्राणिवर्ग में ज्ञान-बीज का आधान एवं संरक्षण कर उनके योग-क्षेमकारी, निर्मम-ममता रहित, उत्तम कुल, क्षत्रिय जाति में उद्भूत, लोकोत्तम लोक में सर्वश्रेष्ठ तीर्थंकर भगवान् की प्राप जननी हैं / ) आप धन्य, पुण्य एवं कृतार्थ कृतकृत्य हैं / देवानुप्रिये ! मैं देवेन्द्र, देवराज शक भगवान् तीर्थंकर का जन्म-महोत्सव मनाऊँगा, अत: आप भयभीत मत होना / ' यों कहकर वह तीर्थकर की माता को अवस्वापिनी--दिव्य मायामयी निद्रा में सुला देता है / फिर वह तीर्थकरसदृश प्रतिरूपक-शिशु की विकुर्वणा करता है / उसे तीर्थकर की माता की बगल में रख देता है।' शक्र फिर पाँच शकों की विकर्वणा करता है वैक्रिय लब्धि द्वारा स्वयं पांच शकों के रूप में परिणत हो जाता है। एक शक्र भगवान् तीर्थंकर को हथेलियों के संपुट द्वारा उठाता है, एक शक्र पीछे छत्र धारण करता है, दो शक्र दोनों ओर चॅवर डुलाते हैं, एक शक हाथ में बज लिये आगे चलता है। तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र अन्य अनेक भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवदेवियों से घिरा हुआ, सब प्रकार ऋद्धि से शोभित, उत्कृष्ट, त्वरित देव-गति से चलता हुआ, जहाँ मन्दर पर्वत, पण्डक वन, अभिषेक-शिला एवं अभिषेक-सिंहासन है, वहाँ अाता है, पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर बैठता है। ईशान प्रभूति इन्द्रों का प्रागमन 151. तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविन्दे, देवराया, सूलपाणी, वसभवाहणे, सुरिन्दे, उत्तरद्धलोगाहिवई अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिवई प्ररयंवरवस्थधरे एवं जहा सक्के इमं णाणतं-महाघोसा घण्टा, लहुपरक्कमो पायत्ताणियाहिबई, पुष्फनो विमाणकारी, दक्खिणे निज्जाणमगे, उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपव्वओ मन्दरे समोसरिओ (वंदइ, णमंसइ) पज्जुवासइत्ति / एवं अवसिट्ठावि इन्दा भाणिवा जाव अच्चुरोत्ति, इमं णाणत्तं१. इसका अभिप्राय यह कि यदि कोई निकटवर्ती दुष्ट देव-देवी कुतूहलवश या दुरभिप्रायवश माता की निद्रा तोड़ दे तो माता को पुत्र-विरह का दुःख न हो। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र चउरासोइ असीइ, बावत्तरि सत्तरी अ सट्ठी / पण्णा चत्तालीसा, तीसा वीसा दस सहस्सा // एए सामाणिप्राणं, बत्तीसट्ठावीसा बारसट्ठ चउरो सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सारे / / आणय-पाणय-कप्पे चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिणि / एए विमाणाणं इमे जाणविमाणकारी देवा, तं जहा पालय 1. पुप्फे य 2. सोमणसे 3. सिरिवच्छे अ४. णंदिप्रावते 5 / कामगमे 6. पीइगमे 7. मणोरमे 8. विमल 6. सव्वओ भद्दे 10 // सोहम्मगाणं, सणंकुमारगाणं, बंभलोअगाणं, महासुक्कयाणं, पाणयगाणं इंदाणं सुघोसा घण्टा, हरिणेगमेसी पायत्ताणीआहिवई, उत्तरिल्ला णिज्जाणभूमी, दाहिणपुरथिमिल्ले रइकरगपव्वए। ईसाणगाणं, माहिदलंतगसहस्सारअच्चुअगाण य इंदाण महाघोसा घण्टा, लहुपरक्कमो पायत्ताणीग्राहिवई, दक्खिणिल्ले णिज्जाणमग्गे, उत्तरपुरथिमिल्ले रइकरगपव्वए, परिसा णं जहा जोवाभिगमे। आयरक्खा सामाणिप्रचउग्गणा सन्वेसि, जाणविमाणा सव्वेसि जोअणसयसहस्सविस्थिण्णा, उच्चत्तेणं सविमाणप्पमाणा, महिंदज्झया सन्वेसि जोअणसहस्सिया, सक्कवज्जा मन्दरे समोसरंति (वंदंति, णमंसंति,) पज्जुवासंति ति। [151] उस काल, उस समय हाथ में त्रिशूल लिये, वृषभ पर सवार, सुरेन्द्र, उत्तरार्धलोकाधिपति, अट्ठाईस लाख विमानों का स्वामी, आकाश की ज्यों निर्मल वस्त्र धारण किये देवेन्द्र, देवराज ईशान मन्दर पर्वत पर समवसृत होता है- आता है / उसका अन्य सारा वर्णन सौधर्मेन्द्र शक के सदृश है / अन्तर इतना है-उनकी घण्टा का नाम महाघोषा है। उसके पदातिसेनाधिपति का नाम लघुपराक्रम है, विमानकारी देव का नाम पुष्पक है / उसका निर्याण-निर्गमन मार्ग दक्षिणवर्ती है, उत्तरपूर्ववर्ती रतिकर पर्वत है / वह भगवान् तीर्थकर को वन्दन करता है, नमस्कार करता है, उनकी पर्युपासना करता है। अच्युतेन्द्र पर्यन्त बाकी के इन्द्र भी इसी प्रकार आते हैं, उन सबका वर्णन पूर्वानुरूप है। इतना अन्तर है सौधर्मेन्द्र शक के चौरासी हजार, ईशानेन्द्र के अस्सी हजार, सनत्कुमारेन्द्र के बहत्तर हजार, माहेन्द्र के सत्तर हजार, ब्रह्मेन्द्र के साठ हजार, लान्तकेन्द्र के पचास हजार, शुक्रेन्द्र के चालीस हजार, सहस्रारेन्द्र के तीस हजार, प्रानत-प्राणत-कल्प-द्विकेन्द्र के-इन दो कल्पों के इन्द्र के बीस हजार तथा प्रारण-अच्युत-कल्प-द्विकेन्द्र के-इन दो कल्पों के इन्द्र के दश हजार सामानिक देव हैं। सौधर्मेन्द्र के बत्तीस लाख, ईशानेन्द्र के अट्ठाईस लाख, सनत्कुमारेन्द्र के बारह लाख, ब्रह्मलोकेन्द्र के चार लाख, लान्तकेन्द्र के पचास हजार, शुक्रेन्द्र के चालीस हजार, सहस्रारेन्द्र के छह हजार, आनत-प्राणत-इन दो कल्पों के चार सौ तथा आरण-अच्युत-इन दो कल्पों के इन्द्र के तीन सौ विमान होते हैं। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार [299 पालक, पुष्पक, सौमनस, श्रीवत्स, नन्दावर्त, कामगम, प्रीतिगम, मनोरम, विमल तथा सर्वतोभद्र ये यान-विमानों की विकुर्वणा करनेवाले देवों के अनुक्रम से नाम हैं / सौधर्मेन्द्र, सनत्कुमारेन्द्र, ब्रह्मलोकेन्द्र, महाशुक्रेन्द्र तथा प्राणतेन्द्र की सुघोषा घण्टा, हरिनिगमेषी पदाति-सेनाधिपति, उत्तरवर्ती निर्याण-मार्ग, दक्षिण-पूर्ववर्ती रतिकर पर्वत है / इन चार बातों में इनकी पारस्परिक समानता है / / ईशानेन्द्र, माहेन्द्र, लान्तकेन्द्र, सहस्रारेन्द्र तथा अच्युतेन्द्र की महाघोषा घण्टा, लघुपराक्रम पदातिसेनाधिपति, दक्षिणवर्ती निर्याण-मार्ग तथा उत्तर-पूर्ववर्ती रतिकर पर्वत है। इन चार बातों में इनकी पारस्परिक समानता है। इन इन्द्रों की परिषदों के सम्बन्ध में जैसा जीवाभिगम सूत्र में बतलाया गया है, वैसा ही यहाँ समझना चाहिए।' इन्द्रों के जितने जितने सामानिक देव होते हैं, अंगरक्षक देव उनसे चार गुने होते हैं / सबके यात-विमान एक-एक लाख योजन विस्तीर्ण होते हैं तथा उनकी ऊँचाई स्व-स्व-विमान-प्रमाण होती है। सबके महेन्द्रध्वज एक-एक हजार योजन विस्तीर्ण होते हैं। शक्र के अतिरिक्त सब मन्दर पर्वत पर समवसृत होते हैं, भगवान् तीर्थंकर को बन्दन-नमन करते हैं, पर्युपासना करते हैं / चमरेन्द्र आदि का आगमन 152. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिन्दे, असुरराया चमरचञ्चाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि, चउसट्ठीए सामाणिप्रसाहस्सीहि, तायत्तीसाए तायत्तीसेहि, चाहि लोगपालेहि, पञ्चहि अग्गमहिसोहिं सपरिवाराहि, तिहि परिसाहि, सतहिं अणिएहि सहि अणियाहिवईहिं चहिं चउसट्ठीहिं आयरक्खसाहस्सोहि अण्णेहि अ जहा सक्के, णवरं इमं णाणतंदुमो पायत्ताणोआहिवई, ओघस्सरा घण्टा, विमाणं पण्णासं जोअणसहस्साई, महिन्दज्झनो पञ्चजोअणसयाई, विमाणकारी प्राभिनोगियो देवो अवसिट्टतं चेव जाव मन्दरे समोसरइ पज्जुवासइत्ति। तेणं कालेणं तेणं समएणं बली असुरिन्दे, असुरराया एवमेव णवरं सट्ठी सामाणिअसाहस्सीलो, चउग्गुणा पायरक्खा, महादुमो पायत्ताणीआहिवई, महामोहस्सरा घण्टा सेसं तं चेव परिसायो जहा जीवाभिगमे इति। तेणं कालेणं तेणं समएणं धरणे तहेव, णाणतं छ सामाणिअसाहस्सीओ छ अग्गमहिसीओ, चउग्गुणा पायरक्खा मेघस्सरा घण्टा भद्दसेणो पायत्ताणीयाहिवई, विमाणं पणवीसं जोअणसहस्साई, महिन्दझनो प्रद्धाइज्जाइं जोअणसयाई, एवमसुरिन्दवज्जिआणं भवणवासिइंदाणं, णवरं असुराणं प्रोघस्सरा घण्टा, गागाणं मेघस्सरा, सुवण्णाणं हंसस्सरा, विज्जूणं कोंचस्सरा, अग्गीणं मंजुस्सरा, दिसाणं मंजुधोसा, उदहीणं सुस्सरा, दीवाणं महुरस्सरा, वाऊणं णंदिस्सरा, थणियाणं णंदिघोसा। 1. देखिए जीवाभिगमप्रतिपत्ति Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र चउसट्ठी सट्ठी खलु छच्च, सहस्सा उ असुर-वज्जाणं / सामाणिश्रा उ एए, चउग्गुणा पायरक्खा उ॥१॥ दाहिणिल्लाणं पायत्ताणीग्राहिवई भद्दसेणो, उत्तरिल्लाणं दक्खोत्ति / वाणमन्तरजोइसिआ अव्वा एवं चेव, णवरं चत्तारि सामाणिप्रसाहस्सीओ चत्तारि अग्गहिसीओ, सोलस पायरक्खसहस्सा, विमाणा सहस्सं, महिन्दझया पणवीसं जोमण-सयं, घण्टा दाहिणाणं मंजुस्सरा, उत्तराणं मंजुघोसा, पायत्ताणीवाहिवई विमाणकारी अभिलोगा देवा। जोइसिप्राणं सुस्सरा सुस्सर-णिग्धोसानो घण्टाम्रो मन्दरे समोसरणं जाव' पज्जुवासंतित्ति / 152] उस काल, उस समय चमरचंचा राजधानी में, सुधर्मा सभा में, चमर नामक सिंहासन पर स्थित असुरेन्द्र, असुरराज चमर अपने चौसठ हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रास्त्रिश देवों. चार लोकपालों, सपरिवार पाँच अग्रमहिषियों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, चारों ओर चौसठ चौसठ हजार अंगरक्षक देवों तथा अन्य देवों से संपरिवृत होता हुआ सौधर्मेन्द्र शक्र की तरह पाता है / इतना अन्तर है-उसके पदातिसेनाधिपति का नाम द्रुम है, उसकी घण्टा प्रोधस्वरा नामक है, विमान पचास हजार योजन विस्तीर्ण है, महेन्द्रध्वज पांच सौ योजन विस्तीर्ण है, विमानकारी आभियोगिक देव है / विशेष नाम नहीं / बाकी का वर्णन पूर्वानुरूप है / वह मन्दर-पर्वत पर समवसृत होता है... पर्युपासना करता है / उस काल, उस समय असुरेन्द्र, असुरराज बलि उसी तरह मन्दर पर्वत पर समवसृत होता है। इतना अन्तर हैउसके सामानिक देव साठ हजार हैं, उनसे चार गुने प्रात्मरक्षक-अंगरक्षक देव हैं, महाद्म नामक पदाति-सेनाधिपति है, महौघस्वरा घण्टा है। शेष परिषद् आदि का वर्णन जीवाभिगम के अनुसार समझ लेना चाहिए / इसी प्रकार धरणेन्द्र के आने का प्रसंग है। इतना अन्तर है---उसके सामानिक देव छह हजार हैं, अग्रमहिषियाँ छह हैं, सामानिक देवों से चार गुने अंगरक्षक देव हैं, मेधस्वरा घण्टा है, भद्रसेन पदाति-सेनाधिपति है। उसका विमान पच्चीस हजार योजन विस्तीर्ण है। उसके महेन्द्रध्वज का विस्तार अढाई सौ योजन है / असुरेन्द्र वजित सभी भवनवासी इन्द्रों का ऐसा ही वर्णन है / इतना अन्तर है-असुरकुमारों के प्रोघस्वरा, नागकुमारों के मेघस्वरा, सुपर्णकुमारों-गरुडकुमारों के हंसस्वरा, विद्युत्कुमारों के क्रौञ्चस्वरा, अग्निकुमारों के मंजुस्वरा, दिक्कुमारों के मंजुघोषा, उदधिकुमारों के सुस्वरा, द्वीपकुमारों के मधुरस्वरा, वायुकुमारों के नन्दिस्वरा तथा स्तनितकुमारों के नन्दिघोषा नामक घण्टाएँ हैं / चमरेन्द्र के चौसठ एवं बलीन्द्र के साठ हजार सामानिक देव हैं। असुरेन्द्रों को छोड़कर धरणेन्द्र आदि अठारह भवनवासी इन्द्रों के छह-छह हजार सामानिक देव हैं / सामानिक देवों से चारचार गुने अंगरक्षक देव हैं। चमरेन्द्र को छोड़कर दाक्षिणात्य भवनपति इन्द्रों के भद्रसेन नामक पदाति-सेनाधिपति है। बलीन्द्र को छोड़कर उत्तरीय भवनपति इन्द्रों के दक्ष नामक पदाति-सेनाधिपति है। इसी प्रकार 1. देखें सूत्र संख्या 151 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार] [301 व्यन्तरेन्द्रों तथा ज्योतिष्केन्द्रों का वर्णन है। इतना अन्तर है-- उनके चार हजार सामानिक देव, चार अग्रमहिषियाँ तथा सोलह हजार अंगरक्षक देव हैं, विमान एक हजार योजन विस्तीर्ण तथा महेन्द्रध्वज एक सौ पच्चीस योजन विस्तीर्ण है / दाक्षिणात्यों की मंजुस्वरा तथा उत्तरीयों की मंजुघोषा घण्टा है। उनके पदाति-सेनाधिपति तथा विमानकारी-विमानों की विकर्वणा करने वाले प्राभियोगिक देव हैं। ज्योतिष्केन्द्रों की सुस्वरा तथा सुस्वरनिर्घोषा-चन्द्रों की सुस्वरा एवं सूर्यों की सुस्वरनि?षा नामक घण्टाएं हैं। वे मन्दर पर्वत पर समवसृत होते हैं, पर्युपासना करते हैं / अभिषेक-द्रव्य : उपस्थापन 153. तए णं से अच्चुए देविन्दे देवराया महं देवाहिवे प्राभिप्रोगे देवे सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो वेवाणुप्पिया! महत्थं, महग्धं, महारिहं, विउलं तिस्थयराभिसेअं उवट्ठवेह। तए णं ते प्राभिओगा देवा हट्टतुट्ठ जाव' पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमन्ति २त्ता वेउग्विअसमुग्घाएणं (समोहणंति) समोहणित्ता प्रसहस्सं सोवण्णिअकलसाणं एवं रुप्पमयाणं, मणिमयाणं, सुवण्णरुप्पमयाणं, सुवण्णमणिमयाणं, रुप्पमणिमयाणं, सुवण्णरुप्पमणिमयाणं, अट्ठसहस्सं - भोमिज्जाणं, अट्ठसहस्सं चन्दणकलसाणं, एवं भिंगाराणं, प्रायंसाणं, थालाणं, पाईणं, सुपइट्ठगाणं, चित्ताणं रयणकरंडगाणं, वायकरंडगाणं, पुप्फचंगेरीणं, एवं जहा सूरिआभस्स सम्वचंगेरीओ सव्वपडलगाई विसेसिअतराई भाणिअव्वाई, सोहासणछत्रचामरतेल्लसमुग्ग (कोटुसमुग्गे, पत्त-चोएमतगरमेलाय-हरिपाल-हिंगुलय-मणोसिला)सरिसवसमुग्गा, तालिअंटा अट्ठसहस्सं कडुच्छुगाणं विउध्वंति, विउवित्ता साहाविए विउविए अ कलसे जाव कडुच्छुए अगिण्हित्ता जेणेव खीरोदए समुद्दे, तेणेव आगम्म खीरोदगं गिण्हन्ति 2 ता जाई तत्थ उप्पलाई पउमाइं जाव' सहस्सपत्ताई ताई गिण्हन्ति, एवं पुक्खरोदामो, (समय-खित्ते) भरहेरवयाणं मागहाइतित्थाणं उदगं मट्टियं च गिण्हन्ति 2 ता एवं गंगाईणं महाणईणं (उदगं मट्टियं च गिण्हन्ति), चुल्लाहिमवन्ताओ सम्वतुमरे, सव्वपुप्फे, सव्वगन्धे, सवमल्ले, सम्वोसहीओ सिद्धत्थए य गिण्हन्ति 2 ता पउमद्दहानो वहोअगं उप्पलादीणि अ। एवं सव्वकुलपन्वएसु, वट्टवेअद्धसु सव्वमहद्दहेसु, सव्यवासेसु, सव्वचषकवट्टिविजएसु, वक्खारपश्वएसु, अंतरणईसु विभासिज्जा। (देवकुरुसु) उत्तरकुरुसु जाव सुदसणभद्दसालवणे सव्वतुअरे (सव्वपुप्फे सव्वगन्धे सव्वमल्ले सव्वोसहीनो) सिद्धत्थए य गिण्हन्ति, एवं गन्दणवणाम्रो सम्बतुअरे जाव' सिद्धत्थए य सरसं च गोसीसचन्दणं दिव्वं च सुमणदामं गेण्हन्ति, एवं सोमणस-पंडगवणानो म सव्वतुअरे (सव्वपुप्फे सम्वगन्धे सव्वमल्ले सम्वोसहीनो सरसं च गोसीसचन्दणं दिव्यं च) सुमणाम 1. देखें सूत्र-संख्या 44 2. देखें सूत्र संख्या 75 3. देखें सूत्र यही Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र दहरमलयसुगन्धे य गिण्हन्ति 2 त्ता एगो मिलंति 2 ता जेणेव सामी तेणेव उवागच्छन्ति 2 त्ता महत्थं (महग्धं महारिहं विउल) तित्थयराभिसेनं उववेतित्ति / [153] देवेन्द्र, देवराज, महान् देवाधिप अच्युत अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है, उनसे कहता है देवानुप्रियो ! शीघ्र ही महार्थ-जिसमें मणि, स्वर्ण, रत्न आदि का उपयोग हो, महार्घजिसमें भक्ति-स्तवनादि का एवं बहुमूल्य सामग्री का प्रयोग हो, महार्ह-विराट् उत्सवमय, विपुल-~ विशाल तीर्थंकराभिषेक उपस्थापित करो- तदनुकूल सामग्री आदि की व्यवस्था करो। यह सुनकर वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं। वे उत्तर-पूर्व दिशाभाग में कोण में जाते हैं। वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने शरीर से प्रात्मप्रदेश बाहर निकालते हैं। आत्मप्रदेश बाहर निकालकर एक हजार पाठ स्वर्ण कलश, एक हजार आठ रजतकलश-चाँदी के कलश, एक हजार आठ मणिमय कलश, एक हजार पाठ स्वर्ण-रजतमय कलश-सोने-चांदी-दोनों से बने कलश, एक हजार आठ स्वर्णमणिमय कलश-सोने और मणियों—दोनों से बने कलश. एक हजार आठ रजत-मणिमय कलश–चाँदी और मणियों से बने कलश, एक हजार आठ स्वर्ण-रजतमणिमय कलश-सोने, और चाँदी और मणियों-तीनों से बने कलश, एक हजार पाठ भौमेय-मत्तिकामय कलश, एक हजार आठ चन्दनकलशचन्दनचचित मंगलकलश, एक हजार पाठ झारियाँ, एक हजार पाठ दर्पण, एक हजार आठ थाल, एक हजार आठ पात्रियाँ-रकाबी जैसे छोटे पात्र, एक हजार आठ सुप्रतिष्ठक-प्रसाधनमंजूषा, एक हजार आठ विविध रत्नकरंडक-रत्न-मंजूषा, एक हजार आठ वातकरंडक-बाहर से चित्रित रिक्त करवे, एक हजार आठ पुष्पचंगेरी-फूलों की टोकरियाँ, राजप्रश्नीय सूत्र में सूर्याभदेव के अभिषेक-प्रसंग में विकुर्वित सर्वविध चंगेरियों, पुष्प-पटलों-फूलों के गुलदस्तों के सदृश चंगेरियाँ, पुष्प-पटल-संख्या में तत्समान, गुण में अतिविशिष्ट, एक हजार पाठ सिंहासन, एक हजार आठ छत्र, एक हजार आठ चंवर, एक हजार आठ तैल-समुद्गक-तेल के भाजन-विशेष-डिब्बे, (एक हजार आठ कोष्ठ-समुद्गक, एक हजार आठ पत्र-समुद्गक, एक हजार आठ चोय-सुगन्धित द्रव्यविशेषसमुद्गक, एक हजार आठ तगरसमुद्गक, एक हजार आठ एलासमुद्गक, एक हजार आठ हरितालसमुद्गक, एक हजार आठ हिंगुलसमुद्गक, एक हजार पाठ मैनसिलसमुद्गक,) एक हजार आठ सर्षप-सरसों के समुद्गक, एक हजार आठ तालवृन्त-पंखे तथा एक हजार आठ धूपदान-धूप के कुड़छे इनकी विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा करके स्वाभाविक एवं विकुर्वित कलशों से धूपदान पर्यन्त सब वस्तुएँ लेकर, जहाँ क्षीरोद समुद्र है, वहाँ आकर क्षीररूप उदक-जल ग्रहण करते हैं। क्षीरोदक गृहीत कर उत्पल, पद्म, सहस्रपत्र आदि लेते हैं / पुष्करोद समुद्र से जल आदि लेते हैं / समयक्षेत्र—मनुष्यक्षेत्रवर्ती पुष्करवर द्वीपार्ध के भरत, ऐरवत के मागध आदि तीर्थों का जल तथा मत्तिका लेते हैं। वैसा कर गंगा आदि महानदियों का जल एवं मृतिका ग्रहण करते हैं। फिर क्षुद्र हिमवान् पर्वत से तुबर-आमलक आदि सब कषायद्रव्य-कसैले पदार्थ, सब प्रकार के पुष्प, सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थ, सब प्रकार की मालाएँ, सब प्रकार की औषधियाँ तथा सफेद सरसों लेते हैं / उन्हें लेकर पद्मद्रह से उसका जल एवं कमल आदि ग्रहण करते हैं / . इसी प्रकार समस्त कुलपर्वतों सर्वक्षेत्रों को विभाजित करने वाले हिमवान् आदि पर्वतों, वृत्तवैताढ्य पर्वतों, पद्म आदि सब महाद्रहों, भरत आदि समस्त क्षेत्रों, कच्छ आदि सर्व चक्रवर्ति Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार] विजयों, माल्यवान, चित्रकूट आदि वक्षस्कार पर्वतों, ग्राहावती आदि अन्तर-नदियों से जल एवं मृत्तिका लेते हैं। (देवकुरु से) उत्तरकुरु से पुष्करवरद्वीपा के पूर्व भरतार्ध, पश्चिम भरतार्ध आदि स्थानों से सुदर्शन-पूर्वार्धमेरु के भद्रशाल वन पर्यन्त सभी स्थानों से समस्त कषायद्रव्य (सब प्रकार के पुष्प, सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थ, सब प्रकार की मालाएँ, सब प्रकार की औषधियाँ) एवं सफेद सरसों लेते हैं / इसी प्रकार नन्दन वन से सर्वविध कषायद्रव्य, सफेद सरसों, सरस-ताजा गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य पुष्पमाला लेते हैं। इसी भाँति सौमनस एवं पण्डक वन से सर्व-कषाय-द्रव्य (सर्व पुष्प, सर्व गन्ध, सर्व माल्य, सर्वोषधि, सरस गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य) पुष्पमाला एवं दर्दर और मलय पर्वत पर उद्भूत चन्दन की सुगन्ध से आपूर्ण सुरभिमय पदार्थ लेते हैं / ये सब वस्तुएँ लेकर एक स्थान पर मिलते हैं। मिलकर, जहाँ स्वामी-भगवान् तीर्थंकर होते हैं, वहाँ आते हैं। वहाँ आकर महार्थ (महाघ, महार्ह, विपुल) तीर्थकराभिषेकोपयोगी क्षीरोदक आदि वस्तुएँ उपस्थित करते हैं-अच्युतेन्द्र के ससुख रखते हैं। अच्युतेन्द्र द्वारा अभिषेक : देवोल्लास 154. तए णं से अच्चुए देविन्दे दहि सामाणिप्रसाहस्सोहि, तायत्तीसाए तायत्तीसरहि, चहिं लोगपालेहि, तिहिं परिसाहि, सहि अणिएहि, सहि अणिमाहिवईहि, चत्तालीसाए पायरक्खदेवसाहस्सीहि सद्धि संपरिवुडे तेहि साभाविएहि विउविएहि अ वरकमलपइट्ठाणेहि, सुरभिवरवारिपडिपुणेहि, चन्दणकयचच्चाएहि, आविद्धकण्ठेगुणेहि, पउमुष्पलपिहाणेहि, करयलसुकुमारपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्सेणं सोवणिआणं कलसाणं जाव अनुसहस्सेणं भोमेज्जाणं (अट्ठसहस्सेणं चन्दनकलसाणं) सम्वोदएहि, सव्वमट्टिआर्हि, सन्वतुअरेहि, (सब्वपुप्फेहि, सव्वगन्धेहि सव्वमलेहि) सव्वोसहिसिद्धत्थरहि, सन्विड्ढोए जाव' रवेणं महया 2 तित्थयराभिसेएणं अभिसिंचंति, तए णं सामिस्स अभिसेग्रंसि वट्टमाणंसि इंदाइआ देवा छत्तचामरधूवकडुच्छअपुष्फगन्ध (मल्लचुण्णाइ) हत्थगया हट्टतुट्ठ जाब वज्जसूलपाणी पुरओ चिट्ठति पंजलिउडा इति, एवं विजयाणुसारेण (अप्पेगइमा, देवा पंडगवणं मंचाइमंचकलिअं करेंति,) अप्पेगइगा देवा प्रासिअसंमज्जिोवलितसित्तसुइसम्मट्ठरत्यंतरावणवोहिअं करेंति, (कालागुरुपवरकुदरुक्कतुरुक्क उज्झतधूवमघमधंतगंधुद्धाभिरामं सुगंधवरगंधियं) गन्धवट्टिभूअंति, अप्पेगइमा हिरण्णवासं वासिति एवं सुवण्ण-रयण-वइर-भाभरण-पत्त-पुप्फ-फलबी-मल्ल-गन्ध-वण्ण-(वस्थ-) चुण्णवासं वासंति, अप्पेगइया हिरणविहिं भाइंति एवं (सुवणविहि, रयणविहि, वारविहि, पाभरणविहि, पत्तविहि, पुष्फविहि, फलविहि, बीअविहि, मल्लविहि, गन्धविहि, वण्णविहि,) चुण्णविहिं भाइंति, अप्पेगइया चविहं वज्ज वाएन्ति तं जहा–ततं 1, विततं 2, घणं 3, झुसिरं 4, अप्पेगइभा चउन्विहं गेग्नं गायन्ति, तं जहा--उक्खित्तं 1, पायत्तं 2, मन्दायईयं 3, रोइयावसाणं 4, अप्पेगइया चउम्विहं गट्टणच्चन्ति, तं जहा--अंचिअं, दुअं, प्रारभडं, भसोलं, अप्पेगइमा चउम्विहं अभिणयं अभिणेति, तं जहा-दिलैंति, पाडिस्सुइ, सामण्णोवणिवाइ, 1. देखें सूत्र संख्या 52 2. देखें सूत्र संख्या 44 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304] जिम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र लोगमज्भावसाणिनं, अप्पेगइया बत्तीसइविहं विष्वं णट्टविहि उवदंसेन्ति, अप्पेगइना उप्पयनिवयं, निवयउप्पयं, संकुचिअपसारिअं (रिपारिअं), भन्तसंभन्तणामं दिव्वं नट्टविहिं उवदंसन्तीति, अप्पेगइआ तंडवेंति, अप्पेगइमा लासे स्ति। अप्पेगइया पीणेन्ति, एवं बुक्कारेन्ति, अप्फोडेन्ति, वग्गन्ति, सीहणायं णदन्ति, अप्पेगइया सव्वाई करेन्ति, अप्पेगइया हयहेसि एवं हत्थिगुलुगुलाइअं, रहघणघणाइअं, अप्पेगइमा तिण्णिवि, अप्पेगइया उच्छोलन्ति, अप्पेगइमा पच्छोलन्ति, अप्पेगइमा तिवई छिदन्ति, पायदद्दरयं करेन्ति, भूमिचवेडे दलयन्ति, अप्पेगइमा महया सद्देणं राति एवं संजोगा विभासिअम्वा, अप्पेगइया हक्कारेन्ति, एवं पुक्कारेन्ति, थक्कारेन्ति, प्रोवयंति, उप्पयंति, परिवयंति, जलन्ति, तवंति, पयवंति, गज्जति, विज्जुमायंति, वासिति, अप्पेगइमा देवक्कलिमं करेंति एवं देवकहकहगं करेंति, अप्पेगइया बुदुड्डगं करेंति, अप्पेगइमा विकिप्रभूयाई रूवाई विउवित्ता पणच्चंति एवमाइ विभासेज्जा जहा विजयस्स जाव सन्धमो समन्ता प्राहावेंति परिधावेतित्ति / [154] जब अभिषेकयोग्य सब सामग्री उपस्थापित की जा चुकी, तब देवेन्द्र अच्युत अपने दश हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिश देवों, चार लोकपालों, तीन परिषदों, सात सेनाओं, सात सेनापति-देवों तथा चालीस हजार अंगरक्षक देवों से परिवत होता हुआ स्वाभाविक एवं विकुक्ति उत्तम कमलों पर रखे हुए, सुगन्धित, उत्तम जल से परिपूर्ण, चन्दन से चचित, गलवे में मोली बांधे हुए, कमलों एवं उत्पलों से ढंके हुए, सुकोमल हथेलियों पर उठाये हुए एक हजार आठ सोने के कलशों (एक हजार पाठ चाँदी के कलशों, एक हजार आठ मणियों के कलशों, एक हजार पाठ सोने एवं चांदी के मिश्रित कलशों, एक हजार आठ स्वर्ण तथा मणियों के मिश्रित कलशों, एक हजार पाठ चाँदी और मणियों के मिश्रित कलशों, एक हजार आठ सोने, चाँदी और मणियों के मिश्रित कलशों) एक हजार आठ मृत्तिकामय—मिट्टी के कलशों, (एक हजार आठ चन्दनचचित मंगलकलशों) के सब प्रकार के जलों, सब प्रकार की मृत्तिकाओं, सब प्रकार के कषाय कसैले पदार्थों, (सब प्रकार के पुष्पों, सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थों, सब प्रकार की मालाओं,) सब प्रकार की ओषधियों एवं सफेद सरसों द्वारा सब प्रकार की ऋद्धि-वैभव के साथ तुमुल वाद्यध्वनिपूर्वक भगवान् तीर्थकर का अभिषेक करता है। __ अच्युतेन्द्र द्वारा अभिषेक किये जाते समय अत्यन्त हर्षित एवं परितुष्ट अन्य इन्द्र आदि देव छत्र, चंवर, धूपपान, पुष्प, सुगन्धित पदार्थ, (मालाएँ, चूर्ण-सुगन्धित द्रव्यों का बुरादा,) वज्र, त्रिशूल हाथ में लिये, अंजलि बाँधे खड़े रहते हैं। एतत्सम्बद्ध वर्णन जीवाभिगम सूत्र में आये विजयदेव के अभिषेक के प्रकरण के सदृश है / (कतिपय देव पण्डक वन में मंच, अतिमंच-मंचों के ऊपर मंच बनाते हैं,) कतिपय देव पण्डक वन के मार्गों में, जो स्थान, स्थान से पानीत चन्दन आदि वस्तुओं के अपने बीच यत्रतत्र ढेर लगे होने से बाजार की ज्यों प्रतीत होते हैं, जल का छिड़काव करते हैं, उनका सम्मान करते हैं सफाई करते हैं, उन्हें उपलिप्त करते हैं--लीपते हैं, ठीक करते हैं / यों उसे शुचि-पवित्र–उत्तम एवं स्वच्छ बनाते हैं, (काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथा धूप की गमगमाती महक से उत्कृष्ट सौरभमय,) सुगन्धित धूममय बनाते हैं / Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार] [305 कई एक वहाँ चाँदी बरसाते हैं। कई स्वर्ण, रत्न, हीरे, गहने, पत्ते, फूल, फल, बीज, मालाएँ, गन्ध-सुगन्धित द्रव्य, वर्ण-हिंगुल आदि रंग (वस्त्र) तथा चूर्ण-सौरभमय पदार्थों का बुरादा बरसाते हैं। कई एक मांगलिक प्रतीक के रूप में अन्य देवों को रजत भेंट करते हैं, (कई एक स्वर्ण, कई एक रत्न, कई एक हीरे, कई एक आभूषण, कई एक पत्र, कई एक पुष्प, कई एक फल, कई एक बीज, कई एक मालाएँ, कई एक गन्ध, कई एक वर्ण तथा) कई एक चूर्ण भेंट करते हैं / कई एक तत्- वीणा आदि, कई एक वितत-ढोल प्रादि, कई एक धन-ताल आदि तथा कई एक शुषिर-बांसुरी प्रादि चार प्रकार के वाद्य बजाते हैं। कई एक उत्क्षिप्त-प्रथमतः समारभ्यमाण-पहले शुरू किये गये, पादात्त-पादबद्ध-छन्द के चार भागरूप पादों में बँधे हुए, मंदाय बीच-बीच में मूर्च्छना आदि के प्रयोग द्वारा धीरे-धीरे गाये जाते तथा रोचितावसान-यथोचित लक्षणयुक्त होने से अवसान पर्यन्त समुचित निर्वाहयुक्त—ये चार प्रकार के गेय-संगीतमय रचनाएँ गाते हैं। कई एक अञ्चित, द्रत, पारभट तथा भसोल नामक चार प्रकार का नृत्य करते हैं / कई दार्टान्ति तिक. सामान्यतोविनिपातिक एवं लोकमध्यावसानिक-चार प्रकार का अभिनय करते हैं। कई बत्तीस प्रकार की नाटय-विधि उपदर्शित करते हैं। कई उत्पात-निपात-आकाश में ऊँचा उछलना--नीचे गिरना-उत्पातपूर्वक निपातयुक्त, निपातोत्पात-निपातपूर्वक उत्पातयुक्त, संकुचित-प्रसारित-नृत्यक्रिया में पहले अपने आपको संकुचित करना सिकोड़ना, फिर प्रसृत करना-फैलाना, (रिमारिय-रंगमंच से नृत्य-मुद्रा में पहले निकलना, फिर वहाँ आना) तथा भ्रान्तसंभ्रान्त-जिसमें प्रदर्शित अद्भुत चरित्र देखकर परिषद्वर्ती लोग-प्रेक्षकवृन्द भ्रमयुक्त हो जाएँ, आश्चर्ययुक्त हो जाएँ, वैसी अभिनयशून्य, गात्रविक्षेपमात्र नाट्यविधि उपर्शित करते हैं। कई ताण्डव-प्रोद्धत-प्रबल नृत्य करते हैं, कई लास्य-सुकोमल नृत्य करते हैं। कई एक अपने को पीन–स्थूल बनाते हैं, प्रदर्शित करते हैं, कई एक बूत्कार प्रास्फालन करते हैं-बैठते हुए पुतों द्वारा भूमि आदि का आहनन करते हैं, कई एक वल्गन करते हैं--पहलवानों की ज्यों परस्पर बाहुओं द्वारा भिड़ जाते हैं, कई सिंहनाद करते हैं, कई पीनत्व, बूत्कार-आस्फालन, वल्गन एवं सिंहनाद क्रमश: तीनों करते हैं, कई घोड़ों की ज्यों हिनहिनाते हैं, कई हाथियों की ज्यों गुलगुलाते हैं--मन्द-मन्द चिघाड़ते हैं, कई रथों की ज्यों घनघनाते हैं, कई घोड़ों की ज्यों हिनहिनाहट, हाथियों की ज्यों गुलगुलाहट तथा रथों की ज्यों घनघनाहट क्रमशः तीनों करते हैं, कई एक आगे से मुख पर चपत लगाते हैं, कई एक पीछे से मुख पर चपत लगाते हैं, कई एक अखाड़े में पहलवान की ज्यों पैतरे बदलते हैं, कई एक पैर से भूमि का प्रास्फोटन करते हैं -जमीन पर पैर पटकते हैं, कई हाथ से भूमि का पाहनन करते हैं--जमीन पर थाप मारते हैं, कई जोर-जोर से आवाज लगाते हैं / कई इन क्रिया-कलापों को-करतवों को दो-दो के रूप में, तीन-तीन के रूप में मिलाकर प्रशित करते हैं। कई हंकार करते हैं। कई पूत्कार करते हैं / कई थक्कार करते हैं-थक-थक शब्द उच्चारित करते हैं। कई अवपतित होते हैं-नीचे गिरते हैं / कई उत्पतित होते हैं-ऊँचे उछलते हैं। कई परिपतित होते है-तिरछे गिरते हैं। कई ज्वलित होते हैं अपने को ज्वालारूप में प्रदर्शित करते हैं। कई तप्त होते हैं—मन्द अंगारों का रूप धारण करते हैं। कई प्रतप्त होते हैं--दीप्त अंगारों का रूप धारण करते हैं। कई गर्जन करते हैं। कई बिजली की ज्यों चमकते हैं। कई वर्षा के रूप के Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र परिणत होते हैं। कई वातूल की ज्यों चक्कर लगाते हैं। कई अत्यन्त प्रमोदपूर्वक कहकहाहट करते हैं / कई 'दुहु-दुहु' करते हैं-उल्लासवश वैसी ध्वनि करते हैं / कई लटकते होठ, मुंह बाये, आँखे फाड़ेऐसे विकृत--भयानक भूत-प्रेतादि जैसे रूप विकुक्ति कर बेतहाशा नाचते हैं। कई चारों ओर कभी धीरे-धीरे, कभी जोर-जोर से दौड़ लगाते हैं / जैसा विजयदेव का वर्णन है, वैसा ही यहाँ कथन करना चाहिए-समझना चाहिए / अभिषेकोपक्रम 155. तए णं से अच्चुइंदे सपरिवारे सामि तेणं महया महया अभिसेएणं अभिसिंचइ 2 त्ता करयलपरिग्गहिअं जाव' मत्थए अंजलि कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ 2 ता ताहि इटाहि जाव' जयजयसई पउंजति, पउंजित्ता जाव: पम्हलसुकुमालाए सुरभीए, गन्धकासाईए गायाई लूहेइ 2 ता एवं (लहिता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ 2 ता नासानीसासवायवोझ, चक्खुहरं, वण्णफरिसजुत्तं, हयलालापेलवाइरेगधवलं कणगखचिअंतकम्मं देवदूसजुअलं निसावेइ 2 ता) कप्परुक्खगंपिव अलंकियविभूसिअं करेइ 2 त्ता (सुमिणदामं पिणद्धावेइ) पट्टविहिं उवदंसेइ 2 त्ता अच्छेहि, सण्हेहि, रययामरहिं अच्छरसातण्डुलेहि भगवओ सामिस्स पुरो अट्ठमंगलगे आलिहइ, तं जहा दप्पण 1, भद्दासणं 2, बद्धमाण 3, वरकलस 4, मच्छ 5, सिरिवच्छा 6 / सोत्थिय 7, गन्दाबत्ता 8, लिहिमा अट्ठमंगलगा // 1 // लिहिऊण करेइ उवयारं, कि ते ? पाडल-मल्लिम-चंपगड-सोग-पुन्नाग-चूअमंजरि-णवमालिनबउल-तिलय-कणवीर कुद-कुज्जग-कोरंट-पत्त - दमणग-वरसुरभि-गन्धगन्धिप्रस्स, कयग्गहगहिअकरयलपन्भट्ठविप्पमुक्कस्स, दसद्धवण्णस्स, कुसुमणिपरस्स तत्थ चित्तं जण्णुस्सेहप्पमाणमित्तं ओहिनिकरं करेत्ता चन्दप्पभरयणवइरवेरुलिअविमलदण्डं, कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं, कालागुरुपवरकुदुरुक्कतुरुक्कधूवगंधुत्तमाणुविद्धं च धूमट्टि विणिम्मुअंतं, वेरुलिअमयं कडुच्छुओं पग्गहित्तु पयएणं धूवं दाऊण जिणरिदस्स सत्तट्ठ पयाई प्रोसरित्ता दसंगुलिअं अंजलि करिन मत्थयंमि पयो अट्ठसयविसुद्धगन्धजुत्तेहि, महावित्तेहिं अपुणरुत्तेहि, अत्थजुत्तेहि संथुणइ 2 ता वामं जाणु अंचेइ 2 ता (दाहिणं जाणु धरणिप्रलंसि निवाडेइ) करयलपरिग्गहिनं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी–णमोऽत्थु ते सिद्ध-बुद्ध-णोरय-समण-सामाहिन-समत्त-समजोगि-सल्लगत्तण-णिब्भयणोरागदोस-णिम्मम-णिस्संग-णीसल्ल-माणमूरण-गुणरयण-सीलसागर-मणंत-मप्पमेयभविअधम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी, णमोऽत्थु ते अरहोत्ति कटु एवं वन्दइ णमंसइ 2 ता गच्चासण्णे णाइद्रे सुस्सूसमाणे 1. देखें सूत्र संख्या 44 2. देखें सूत्र संख्या 68 3. देखें सूत्र संख्या 68 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार [307 जाव' पज्जुवासइ / एवं जहा अच्चुअस्स तहा जाव ईसाणस्स भाणिअन्वं, एवं भवणवइवाणमन्तरजोइसिमा य सूरपज्जवसाणा सएणं परिवारेणं पत्तेअं२ अभिसिचंति / तए णं से ईसाणे देविन्दे देवराया पञ्च ईसाणे विउव्वइ 2 ता एगे ईसाणे भगवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं गिण्हइ 2 ता सोहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे, एगे ईसाणे पिटुसो आयवत्तं धरेइ, दुवे ईसाणा उभो पासिं चामरुक्खेवं करेन्ति, एगे ईसाणे पुरनो सूलपाणी चिट्ठइ / तए णं से सक्के देविन्दे, देवराया पाभिओगे देवे सद्दावेइ 2 ता एसोवि तह चेव अभिसेआत्ति देइ तेऽवि तह चेव उवणेन्ति / तए णं से सक्के देविन्दे, देवराया भगवओ तित्थयरस्स चउद्दिसि चत्तारि धक्लवसभे विउव्वेइ / सेए संखदलविमल-निम्मलदधिधणगोखीरफेणरयणिगरप्पगासे पासाईए दरसणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे / तए णं तेसि चउण्हं धवलवसभाणं अहिं सिंगेहितो अट्ट तोअधाराओ णिग्गच्छन्ति, तए गं तारो अट्ट तोप्रधाराप्रो उद्धं वेहासं उप्पयन्ति 2 ता एगो मिलायन्ति 2 त्ता भगवनो तित्थयरस्स मुद्धाणंसि निवयंति। तए णं सक्के देविन्दे, देवराया चउरासीईए सामाणिसाहस्सीहिं एअस्सवि तहेव अभिसेग्रो भाणिअन्वो जाव णमोऽत्थु ते प्ररहओत्ति कटु वन्दह णमंसह जाव' पज्जुवासइ। [155] सपरिवार अच्युतेन्द्र विपुल, बृहत् अभिषेक-सामग्री द्वारा स्वामी का-भगवान् तीर्थकर का अभिषेक करता है / अभिषेक कर वह हाथ जोड़ता है, अंजलि बाँधे मस्तक से लगाता है, 'जय-विजय' शब्दों द्वारा भगवान् की वर्धापना करता है, इष्ट-प्रिय वाणी द्वारा 'जय-जय' शब्द उच्चारित करता है। वैसा कर वह रोएँदार, सुकोमल, सुरभित, काषायित---हरीतकी, विभीतक, आमलक आदि कसैली वनौषधियों से रंगे हुए अथवा कषाय-लाल या गेरुए रंग के वस्त्र-तौलिये द्वारा भगवान् का शरीर पोंछता है। शरीर पोंछकर वह उनके अंगों पर ताजे गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है / वैसा कर नाक से निकलने वाली हवा से भी जो उड़ने लगें, इतने बारीक और हलके, नेत्रों को आकृष्ट करने वाले, उत्तम वर्ण एवं स्पर्शयुक्त, घोड़े के मुख की लार के समान कोमल, अत्यन्त स्वच्छ, श्वेत, स्वर्णमय रों से अन्तःखचित दो दिव्य वस्त्र परिधान एवं उत्तरीय उन्हें धारण कराता है। वैसा कर वह उन्हें कल्पवृक्ष की ज्यों अलंकृत करता है। (पुष्प-माला पहनाता है), नाट्य-विधि प्रदर्शित करता है, उजले, चिकने, रजतमय, उत्तम रसपूर्ण चावलों से भगवान् के आगे पाठ-आठ मंगल-प्रतीक प्रालिखित करता है, जैसे-१. दर्पण, 2. भद्रासन, 3. वर्धमान, 4. वर कलश, 5. मत्स्य, 6. श्रीवत्स, 7. स्वस्तिक तथा 8. नन्द्यावर्त / उनका आलेखन कर वह पूजोपचार करता है। गुलाब, मल्लिका, चम्पा, अशोक, पुन्नाग, आम्र-मंजरी, नवमल्लिका, बकुल, तिलक, कनेर, कुन्द, कुब्जक, कोरण्ट, मरुक्क तथा दमनक के उत्तम सुगन्धयुक्त फूलों को कचग्रह-रति-कलह में प्रेमी द्वारा प्रेयसी के केशों को गृहीत किये जाने की ज्यों गृहीत करता है--कोमलता से हाथ में लेता है। वे सहज रूप में उसकी हथेलियों से गिरते हैं, 1. देखें सूत्र संख्या 68 2. देखें सूत्र संख्या 68 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र छूटते हैं, इतने गिरते हैं कि उन पंचरंगे पुष्पों का घुटने-घुटने जितना ऊँचा एक विचित्र ढेर लग जाता है / चन्द्रकान्त आदि रत्न, हीरे तथा नीलम से बने उज्ज्वल दंडयुक्त, स्वर्ण मणि एवं रत्नों से चित्रांकित, काले प्रगर, उत्तम कुन्दरुक्क, लोबान एवं धूप से निकलती श्रेष्ठ सुगन्ध से परिव्याप्त, धूम-श्रेणी-धूएँ की लहर छोड़ते हुए नीलम-निर्मित धूपदान को प्रगृहीत कर-पकड़ कर प्रयत्नपूर्वक--सावधानी से, अभिरुचि से धूप देता है। धूप देकर जिनवरेन्द्र के सम्मुख सात-पाठ कदम चलकर, हाथ जोड़कर अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाकर उदात्त, अनुदात्त आदि स्वरोच्चारण में जागरूक शुद्ध पाठयुक्त, अपुनरुक्त अर्थयुक्त एक सौ पाठ महावृत्तों-महाचरित्रों ... महिमामय काव्यों-- कविताओं द्वारा उनकी स्तुति करता है। वैसा कर वह अपना बायां घुटना ऊँचा उठाता है, दाहिना घटना भमितल पर रखता है, हाथ जोड़ता है, अंजलि बांधे उन्हें मस्तक से लगाता है. कहता है हे सिद्ध-मोक्षोद्यत ! बुद्ध--ज्ञात-तत्त्व ! नीरज-कर्मरजोरहित ! श्रमण--तपस्विन् ! समाहित अनाकुल-चित्त ! समाप्त-कृत-कृत्य ! समयोगिन्-कुशल-मनोवाक्काययुक्त ! शल्य-कर्तन--कर्मशल्य को विध्वस्त करने वाले ! निर्भय-भीतिरहित ! नीरागदोष-राग-द्वेषरहित ! निर्मम-. निःसंग, निर्लेप ! निःशल्य शल्यरहित ! मान-मरण-मान-मर्दन--अहंकार का नाश करने वाले ! गुण-रत्न-शील-सागर-गुणों में रत्नस्वरूप-अति उत्कृष्ट शील–ब्रह्मचर्य के सागर ! अनन्तअन्तरहित ! अप्रमेय-अपरिमित ज्ञान तथा गुणयुक्त, धर्म-साम्राज्य के भावी उत्तम चातुरन्तचक्रवर्ती-चारों गतियों-देवगति, मनुष्य गति, तिर्यञ्चगति एवं नरकगति का अन्त करने वाले धर्मचक्र के प्रवर्तक! महत–जगत्पूज्य अथवा कर्म-रिपूत्रों का नाश करने वाले ! मापको नमस्कार हो। इन शब्दों में वह भगवान् को बन्दन करता है, नमन करता है। उनके न अधिक दूर, न अधिक समीप अवस्थित होता हुआ शुश्रूषा करता है, पर्युपासना करता है। अच्यूतेन्द्र की ज्यों प्राणतेन्द्र यावत् ईशानेन्द्र द्वारा सम्पादित अभिषेक-कृत्य का भी वर्णन करना चाहिए / भवनपति, वानव्यन्तर एवं ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र, सूर्य-सभी इसी प्रकार अपने-अपने देव-परिवार सहित अभिषेक-कृत्य करते हैं / देवेन्द्र, देवराज ईशान पांच ईशानेन्द्रों को विकुर्वणा करता है--पांच ईशानेन्द्रों के रूप में परिवर्तित हो जाता है। एक ईशानेन्द्र भगवान् तीर्थकर को अपनी हथेलियों में संपुट द्वारा उठाता है / उठाकर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठता है। एक ईशानेन्द्र पीछे छत्र धारण करता है। दो ईशानेन्द्र दोनों ओर चँवर डुलाते हैं / एक ईशानेन्द्र हाथ में त्रिशूल लिये आगे खड़ा रहता है। तब देवेन्द्र देवराज शक्र अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है। बुलाकर उन्हें अच्युतेन्द्र की ज्यों अभिषेक-सामग्री लाने की आज्ञा देता है। वह अभिषेक-सामग्री लाते हैं। फिर देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान् तीर्थंकर की चारों दिशाओं में शंख के चूर्ण को ज्यों विमल-निर्मल-अत्यन्त निर्मल, गहरे जमे हुए, बँधे हुए दधि-पिण्ड, गो-दुग्ध के झाग एवं चन्द्र-ज्योत्स्ना की ज्यों सफेद, चित्त को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय–देखने योग्य, अभिरूप--मनोज्ञ-मन को अपने में रमा लेने वाले, प्रतिरूप-मन में बस जाने वाले चार धवल वृषभों-बैलों की विकुर्वणा करता है। उन चारों बैलों के पाठ सींगों में से पाठ जलधाराएँ निकलती हैं, वे जलधाराएँ ऊपर आकाश में जाती हैं। ऊपर जाकर, आपस में मिलकर वे एक हो जाती हैं। एक होकर भगवान् तीर्थकर के मस्तक पर निपतित होती हैं / अपने चौरासी हजार सामानिक आदि देव-परिवार से परिवृत देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान् Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार] तीर्थकर का अभिषेक करता है ! अर्हत् / अापको नमस्कार हो, यों कहकर वह भगवान् को वन्दन, नमन करता है, उनकी पर्युपासना करता है। यहाँ तक अभिषेक का सारा वर्णन अच्युतेन्द्र द्वारा संपादित अभिषेक अभिषेक-समापन 156. तए णं से सक्के देविदे, देवराया पंच सक्के विउब्वइ 2 ता एगे सक्के भयवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ, एगे सक्के पिटुसो आयवत्तं धरेइ, दुवे सक्का उभो पासि चामरुक्खेवं करेंति, एगे सक्के वज्जपाणी पुरओ पगड्डइ / तए णं से सक्के चउरासीईए सामाणिप्रसाहस्सोहि जाव अण्णेहि अभवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहि देवीहि अ सद्धि संपरिधुडे सव्विड्डीए जाव' गाइनरवेणं ताए उक्किदाए जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणयरे जेणेव जम्मणभवणे जेणेव तित्थयरमाया तेणेव उवागच्छइ 2 सा भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवइ 2 ता तित्थयरपडिरूवगं पडिसाहरइ 2 ता प्रोसोवणि पडिसाहरइ 2 ता एगं महं खोमजुअलं कुडलजुअलं च भगवनो तित्थयरस्स उस्सीसगमूले ठवेइ 2 ता एगं महं सिरिदामगंडं तवणिज्जलंबूसगं, सुवण्णपयरगमंडिअं, णाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोहिअसमुदयं, भगवनो तित्थयरस्स उल्लोअंसि निविखवइ तण्णं भगवं तित्थयरे प्रणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणे 2 सुहंसुहेणं अभिरममाणे चिट्ठइ। तए णं से सक्के देविदे, देवराया वेसमणं देवं सद्दावेइ 2 ता एवं वदासी-लिप्यामेव भो देवाणुप्पिना ! बत्तीसं हिरण्णकोडोश्रो, बत्तीसं सुवण्णकोडीमो, बत्तीस गंदाई, बत्तीसं भद्दाई, सुभगे, सुभगरूवजुब्वणलावण्णे म भगवनो तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहराहि 2 ता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि। तए णं से वेसमणे देवे सक्केणं (देविदेण देवरण्णा प्राणत्तियं) विणएणं वयणं पडिसुणेइ 2 ता जंभए देवे सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बत्तीसं हिरण्णकोडोश्रो (बत्तीसं सुवण्णकोडीनो, बत्तीसं गंदाइं, बत्तीसं भद्दाइं, सुभगे, सुभगरूवजुठवणलावणे अ) भगवनो तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरह साहरित्ता एप्रमाणत्तिनं पच्चप्पिणह / तए णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठ जाय खिप्पामेव बत्तीसं हिरण्णकोडीओ जाव' च भगवनो तित्थगरस्स जम्मणभवणंसि साहरंति 2 ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव (एअमरणत्तियं) पच्चप्पिणंति / तए णं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविदे, देवराया (तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता) पच्चप्पिणइ / 1. देखें सूत्र संख्या 52 2. देखें सूत्र संख्या 44 3. देखें सूत्र यहो Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310] जम्बूद्वीपप्रज्ञरितसूत्र तए णं से सक्के देविदे देवराया 3 आभिओगे देवे सहावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! भगवनो तित्थयरस्स जम्मणणयरंसि सिंघाडग जाव' महापहपहेसु महया 2 सद्देणं उग्छोसेमाणा 2 एवं वदह-'हंदि सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा य देवीमो अजेणं देवाणुप्पिा ! तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए वा असुभं मणं पधारेइ, तस्स णं प्रज्जगमंजरिया इव सयधा मुद्धाणं फुट्टउत्ति' कटु घोसेणं घोसेह 2 ता एप्रमाणत्ति पच्चप्पिणहत्ति / तए णं ते प्राभिप्रोगा देवा (सक्केणं देविदेण देवरण्णा एवं वुत्ता समाणा) एवं देवोत्ति आणाए पडिसुणंति 2 ता सक्कस्स देविदस्स, देवरपणो अंतिमानो पडिणिक्खमंत्ति 2 ता खिप्पामेव भगवनो तित्थगरस्स जम्मणणगरंसि सिंघाडग जाव' एवं बयासी हंदि सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइ (वाणमंतरजोइसमाणिया देवा य देवीप्रोप्र) जे णं देवाणुप्पिा ! तित्थयरस्स (तित्थयरमाऊए वा असुभं मणं पधारेइ, तस्स अज्जगमंजरिया इव सयधा मुद्धाणं) फुट्टिहीतित्ति कटु घोसणगं घोसंति 2 त्ता एप्रमाणत्तिनं पच्चप्पिणंति। ___तए णं ते बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिमा देवा भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करेंति 2 ता जेणेव णंदीसरदीवे, तेणेव उवागच्छति 2 ता अढाहियानो महामहिमाप्रो करेंति 2 ता जामेव दिसि पाउम्भूआ तामेव दिसि पडिगया। [156] तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र पांच शकों की विकुर्वणा करता है। एक शक भगवान् तीर्थंकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा ग्रहण करता है। एक शक्र भगवान् के पीछे उन पर छत्र धारण करता है-छत्र ताने रहता है। दो शक दोनों ओर चॅवर डुलाते हैं। एक शक्र बज्र हाथ में लिये आगे खड़ा होता है / फिर शक अपने चौरासी हजार सामानिक देवों, अन्य-भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों, देवियों से परिवृत, सब प्रकार की ऋद्धि से युक्त, वाद्य-ध्वनि के बीच उत्कृष्ट त्वरित दिव्य गति द्वारा, जहाँ भगवान् तीर्थकर का जन्म-नगर, जन्म-भवन तथा उनकी माता थी वहाँ पाता है। भगवान् तीर्थकर को उनकी माता की बगल में स्थापित करता है / वैसा कर तीर्थंकर के प्रतिरूपक को, जो माता की बगल में रखा था, प्रतिसंहत करता है- समेट लेता है। भगवान तीर्थंकर की माता की अवस्वापिनी निद्रा को, जिसमें वह सोई होती है, प्रतिसंहृत कर लेता है। वैसा कर वह भगवान् तीर्थकर के उच्छीर्षक भूल में-सिरहाने दो बड़े वस्त्र तथा दो कुण्डल रखता है। फिर वह तपनीय-स्वर्ण-निर्मित झुम्बनक-झुनझुने से युक्त, सोने के पातों से परिमण्डित-सुशोभित, नाना प्रकार की मणियों तथा रत्नों से बने तरह-तरह के हारों--अठारह लड़े हारों, अर्धहारोंनौ लड़े हारों से उपशोभित श्रीदामगण्ड-सुन्दर मालाओं को परस्पर ग्रथित कर बनाया हुआ बड़ा गोलक भगवान् के ऊपर तनी चाँदनी में लटकाता है, जिसे भगवान् तीर्थंकर निनिमेष दृष्टि सेबिना पलकें झपकाए उसे देखते हुए सुखपूर्वक अभिरमण करते हैं--क्रीडा करते हैं / 1. देखें सूत्र संख्या 67 2. देखें सुत्र संख्या 67 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम वक्षस्कार] [311 तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र वैश्रमण देव को बुलाता है। बुलाकर उसे कहता है---- देवानुप्रिय ! शीघ्र ही बत्तीस करोड़ रौप्य-मुद्राएँ, बत्तीस करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं, सुभग आकार, शोभा एवं सौन्दयंयुक्त बत्तीस वर्तुलाकार लोहासन, बत्तीस भद्रासन भगवान् तीर्थंकर के जन्म-भवन में लाओ / लाकर मुझे सूचित करो। वैश्रमण देव (देवेन्द्र देवराज) शक के आदेश को विनयपूर्वक स्वीकार करता है / स्वीकार कर वह जम्भक देवों को बुलाता है। बुलाकर उन्हें कहता है—देवानप्रियो ! शीघ्र ही बत्तीस करोड रौप्य-मुद्राएँ (बत्तीस करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ, सुभग आकार, शोभा एवं सौन्दर्ययुक्त बत्तीस वर्तुलाकार लोहासन, बत्तीस भद्रासन) भगवान् तीर्थकर के जन्म-भवन में लायो / लाकर मुझे अवगत करायो / वैश्रमण देव द्वारा यों कहे गये जृम्भक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं / वे शीघ्र ही बत्तीस करोड़ रौप्य-मुद्राएँ आदि भगवान् तीर्थकर के जन्म-भवन में ले आते हैं। लाकर वैश्रमण देव को सूचित करते हैं कि उनके आदेश के अनुसार वे कर चुके हैं / तब वैश्रमण देव जहाँ देवेन्द्र देवराज शक्र होता है, वहाँ पाता है, कृत कार्य से उन्हें अवगत कराता है। __ तत्पश्चात् देवेन्द्र, देवराज शक्र अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है और उन्हें कहता हैदेवानुप्रियो ! शीघ्र ही भगवान् तीर्थंकर के जन्म-नगर के तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों एवं विशाल मार्गों में जोर-जोर से उद्घोषित करते हुए कहो--'बहुत से भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देव-देवियो ! आप सुनें--आप में से जो कोई तीर्थंकर या उनकी माता के प्रति अपने मन में अशुभ भाव लायेगा-दुष्ट संकल्प करेगा, आर्यक--वनस्पति-विशेष-'पाजनो' की मंजरी की ज्यों उसके मस्तक के सौ टुकड़े हो जायेंगे।' यह घोषित कर अवगत कराओ कि वैसा कर चुके हैं। (देवेन्द्र देवराज शक्र द्वारा यों कहे जाने पर) वे अाभियोगिक देव 'जो आज्ञा' यों कहकर देवेन्द्र देवराज शक्र का आदेश स्वीकार करते हैं। स्वीकार कर वहाँ से प्रतिनिष्क्रान्त होते हैंचले जाते हैं। वे शीघ्र ही भगवान् तीर्थकर के जन्म-नगर में आते हैं। वहाँ तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों और विशाल मार्गों में यों बोलते हैं-घोषित करते हैं-बहुत से भवनपति (वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक) देवो! देवियो! आप में से जो कोई तीर्थंकर या उनकी माता के प्रति अपने मन में अशुभ भाव लायेगा-दुष्ट संकल्प करेगा, आर्यक-मंजरी की ज्यों उसके मस्तक के सौ टुकड़े हो जायेंगे। ऐसी घोषणा कर वे पाभियोगिक देव देवराज शक्र को, उनके आदेश का पालन किया जा चुका है, ऐसा अवगत कराते हैं / ___ तदनन्तर बहुत से भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देव भगवान् तीर्थकर का जन्मोत्सव मनाते हैं / तत्पश्चात् जहाँ नन्दीश्वर द्वीप है, वहाँ पाते हैं / वहाँ पाकर अष्टदिवसीय विराट जन्म-महोत्सव आयोजित करते हैं। बैसा करके जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में चले जाते हैं। 00 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ वक्षस्कार स्पर्श एवं जीवोत्पाद 175. जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स पदेसा लवणसमुदं पुट्ठा ? हंता पुट्ठा। ते णं भंते ! कि जंबुद्दोवे दोवे, लवणसमुद्दे ? गोयमा ! जंबुद्दोवे गं दोवे, णो खलु लवणसमुद्दे / एवं लवणसमुद्दस्स वि पएसा जंबुद्दीवे पुट्ठा भाणिअव्वा इति / जंबुद्दीवे णं भंते ! जीवा उद्दाइत्ता 2 लवणसमुई पच्चायंति ? अत्थेगइमा पच्चायंति, अत्थेगइमा नो पच्चायति / एवं लवणस्स वि जंबुद्दीवे दीवे अव्वमिति। [157] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के चरम प्रदेश लवणसमुद्र का स्पर्श करते हैं ? हाँ, गौतम ! वे लवणसमुद्र का स्पर्श करते हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीप के जो प्रदेश लवणसमुद्र का स्पर्श करते हैं, क्या वे जम्बूद्वीप (के ही प्रदेश) कहलाते हैं या (लवणसमुद्र का स्पर्श करने के कारण) लवणसमुद्र (के प्रदेश) कहलाते हैं ? गौतम ! वे जम्बूद्वीप (के ही प्रदेश) कहलाते हैं, लवणसमुद्र (के) नहीं कहलाते / इसी प्रकार लवणसमुद्र के प्रदेशों की बात है, जो जम्बूद्वीप का स्पर्श करते हैं। भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के जीव मरकर लवणसमुद्र में उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! कतिपय उत्पन्न होते हैं, कतिपय उत्पन्न नहीं होते। इसी प्रकार लवणसमुद्र के जीवों के जम्बूद्वीप में उत्पन्न होने के विषय में जानना चाहिए। जम्बूद्वीप के खण्ड, योजन, वर्ष, पर्वत, कूट, नदियाँ आदि 158. खंडा 1, जोअण 2, वासा 3, पन्वय 4, कूडा 5 य तित्थ 6, सेढीयो 7 / विजय 8, इह , सलिलाओ 10, पिंडए होइ संगहणी // 1 // जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भरहप्पमाणमेहि खंडेहि केवइ खंडगणिएणं पण्णते ? गोयमा ! णउअं खंडसयं खंडगणिएणं पण्णत्ते। जंबहीवे गं भंते ! दीवे केवइ जोअणगणिएणं पण्णते ? गोयमा ! सत्तेव य कोडिसया, पउआ छप्पण्ण सय-सहस्साई। चउणवइं च सहस्सा, सयं दिबद्धं च गणिन-पयं // 2 // Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ वक्षस्कार] [313 जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे कति वासा पण्णता ? गोयमा ! सत्त वासा, तं जहा-भरहे, एरवए, हेमवए, हिरण्णवए, हरिवासे, रम्मगवासे, महाविदेहे। जंबुद्दीवे गं भंते ! दीवे केवइया वासहरा पण्णत्ता, केवइआ मंदरा पव्वया पण्णत्ता, केवइआ चित्तकूडा, केवइया विचित्तकूडा, केवइआ जमग-पन्वया, केवइआ कंचण-पव्वया, केवइआ वक्खारा, केवइआ दीहवेअद्धा, केवहा वट्टवेअद्धा पण्णता? गोयमा ! जंबुद्दीवे छ वासहर-पव्वया, एगे मंदरे पव्वए, एगे चित्तकूडे, एगे विचित्तकूडे, दो जमग-पन्वया, दो कंचणग-पवयसया, वीसं वक्खार-पव्वया, चोत्तीसं दीहवेअद्धा, चत्तारि वट्टवेअद्धा, एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे दुणि अउणत्तरा पल्वय-सया भवंतीतिमक्खायंति। जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ वासहर-कूडा, केवइया वक्खार-कूड, केवइया वेनद्धकूडा, केवइआ मंदर-कूडा पण्णता? गोयमा ! छप्पण्णं वासहर-कूडा, छण्णउइं वक्खार-कूडा, तिण्णि छलुत्तरा वेअद्ध-कूड-सया, नव मंदर-कूडा पण्णत्ता, एवामेव सपुग्वावरेणं जंबुद्दीवे चत्तारि सत्तट्ठा कूड-सया भवन्तीतिमक्खायं / जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे कति तित्था पण्णता? गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता, तं जहा-मागहे, वरदामे, पभासे / जंबुद्दीवे दीवे एरवए वासे कति तित्था पण्णत्ता ? गोयमा ! तो तित्था पण्णता, तं जहा~मागहे, वरदामे, पभासे / एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे एगमेगे चक्कवट्टिविजए कति तित्था पण्णता? गोयमा ! तओ तित्था पणत्ता, तं जहा—मागहे, वरदामे, पभासे, एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दोघे एगे विउत्तरे तित्थ-सए भवतीतिमक्खायंति / जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ विज्जाहर-सेढीओ, केवइआ प्राभियोग-सेढीनो पण्णत्ताओ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे अट्ठसट्ठी विज्जाहर-सेढीयो, अट्ठसट्ठी आभियोग-सेढीनो पण्णत्ताओ, एवामेव सपुत्वावरेणं जंबुद्दोवे दोवे छत्तीसे सेढि-सए भवतीतिमक्खायं / जंबुद्दीवे दीवे केवइआ चक्कट्टिविजया, केवइआनो रायहाणीयो, केवइआओ तिमिसगुहायो, केवइआनो खंडप्पवायगुहाओ, केवइमा कयमालया देवा, केवइया णट्टमालया देवा, केवइया उसभकूडा पण्णता? __गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोत्तीसं चक्कवट्टि-विजया, चोत्तीसं रायहाणीओ, चोत्तीसं तिमिसगुहाओ, चोत्तीसं खंडप्पवाय-गुहागो, चोत्तीसं कयमालया देवा, चोत्तीसं णट्टमालया देवा, चोत्तीसं उसभ-कूडा पव्वया पण्णत्ता। जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे केवइया महदहा पण्णत्ता ? Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! सोलस महद्दहा पण्णत्ता। जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयानो महाणईओ वासहरप्पवहाओ, केवइयाओ महाणईओ कुडप्पवाहाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दोवे चोद्दस महाणईओ वासहरप्पवहानो, छावरि महाणईओ कुंडप्पवहारो, एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे णति महाणईनो भवंतीतिमक्खायं / जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु कइ महाणईनो पण्णताओ? गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्तानो, तं जहा-गंगा, सिंध, रत्ता, रत्तवई। तत्थ णं एगमेगा महाणई चउद्दसहि सलिला-सहस्सेहि समग्गा पुरथिम-पच्चस्थिमेणं लवणसमुद्द समप्पेइ, एवामेव सपुन्नावरेणं जंबुद्दीवे दीवे भरह-एरवएसु वासेसु छप्पण्णं सलिला-सहस्सा भवंतीतिमक्खायंति / जंबुद्दोवे गं भंते ! हेमवय-हेरण्णवएसु वासेसु कति महाणईओ पण्णत्तामो? गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा–रोहिता, रोहिअंसा, सुवण्णकूला, रुप्पकूला। तत्थ णं एगमेगा महाणई अट्ठावीसाए अट्ठावीसाए सलिला-सहस्सेहिं समग्गा पुरस्थिपच्चत्थिमेणं लवणसमुह समप्पेइ, एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे हेमवय-हेरण्णवएसु वासेसु बारसुत्तरे सलिला-सय-सहस्से भवंतीतिभक्खायं इति / जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे हरिवास-रम्मगवासेसु कइ महाणईअो पण्णत्ताओ? / गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-हरी, हरिकता, परकंता, णारिकता। तत्थ णं एगमेगा महाणई छप्पणाए 2 सलिला-सहस्सेहि समग्गा-पुरस्थिम पच्चत्थिमेणं लवणसमुद्द समप्पेइ / एवामेव सपुत्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे हरिवास-रम्मगवासेसु दो चउवोसा सलिला-सय-सहस्सा भवंतीतिमक्खायं / जंबुद्दीवे णं भंते ! महाविदेहे वासे कइ महाणईश्रो पण्णतायो ? गोयमा ! दो महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा–सोआ य सीमोआ य / तत्थ णं एगमेगा महाणई पंचहि 2 सलिला-सय-सहस्सेहि बत्तीसाए असलिला-सहस्सेहि समग्गा पुरस्थिम-पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ / एवामेव सपुब्बावरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दस सलिला-सय-सहस्सा चउसद्धि च सलिसा-सहस्सा भवन्तीतिमक्खायं / ___ जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दक्खिणेणं केवइया सलिला-सय-सहस्सा पुरस्थिमपच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समप्पति ? ___गोयमा! एगे छण्णउए सलिला-सय-सहस्से पुरथिम-पच्चत्थिमाभिमुहे लवणसमुई समतित्ति / जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं केवइया सलिला-सय-सहस्सा पुरथिमपच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समप्पंति ? __गोयमा ! एगे छण्णउए सलिला-सय-सहस्से पुरत्थिम-पच्चस्थिमाभिमुहे (लवणसमुई) समप्पेइ। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ वक्षस्कार] [315 जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे केवइआ सलिला-सय-सहस्सा पुरस्थाभिमुहा लवणसमुई समति ? गोयमा ! सत्त सलिला-सय-सहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा (लवणसमुदं) समति / जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ सलिला-सय-सहस्सा पच्चस्थिमाभिमुहा लवणसमुई समति ? गोयमा ! सत्त सलिला-सय-सहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा (लवणसमुई) समप्यति / एवामेव सपुब्वावरेणं जंबुद्दीवे दोवे चोद्दस सलिला-सय-सहस्सा छप्पण्णं च सहस्सा भवंतीतिमक्खायं इति / [158] खण्ड, योजन, वर्ष, पर्वत, कट, तीर्थ, श्रेणियां, विजय, द्रह तथा नदियां-इनका प्रस्तुत सूत्र में वर्णन है, जिनकी यह संग्राहिका गाथा है। 1. भगवन् ! (एक लाख योजन विस्तार वाले) जम्बूद्वीप के (526 योजन विस्तृत) भरतक्षेत्र के प्रमाण जितने -भरतक्षेत्र के बराबर खण्ड किये जाएं तो वे कितने होते हैं ? गौतम ! खण्डगणित के अनुसार वे एक सौ नब्बे होते हैं / 2. भगवन् ! योजनगणित के अनुसार जम्बूद्वीप का कितना प्रमाण कहा गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल-प्रमाण (7605664150) सात अरब नब्बे करोड़ छप्पन लाख चौरानवें हजार एक सौ पचास योजन कहा गया है। 3. भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने वर्ष-क्षेत्र बतलाये गये हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में सात वर्ष-क्षेत्र बतलाये गये हैं---१–भरत, २-ऐरावत, ३-हैमवत, ४-हैरण्यवत, 5- हरिवर्ष, ६–रम्यकवर्ष तथा ७-महाविदेह / 4. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत कितने वर्षधर पर्वत, कितने मन्दर पर्वत, कितने चित्रकूट पर्वत, कितने विचित्रकूट पर्वत, कितने यमक पर्वत, कितने काञ्चन पर्वत, कितने वक्षस्कार पर्वत, कितने दीर्घ वैताढ्य पर्वत तथा कितने वृत्त वैताढ्य पर्वत बतलाये गये हैं ? गौतम ! जम्बुद्वीप के अन्तर्गत छह वर्षधर पर्वत, एक मन्दर पर्वत, एक चित्रकूट पर्वत, एक विचित्रकूट पर्वत, दो यमक पर्वत, दो सौ काञ्चन पर्वत, वीस वक्षस्कार पर्वत, चौतीस दीर्घ वैताढय पर्वत तथा चार वृत्त वैताढय पर्वत बतलाये गये हैं। यों जम्बूद्वीप में पर्वतों की कुल संख्या 6+1+ 1+1+2+200+2+34+4= 266 (दो सौ उनहत्तर) है। 5. भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने वर्षधरकूट, कितने वक्षस्कारकूट, कितने वैताढयकूट तथा कितने मन्दरकूट कहे गये हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में छप्पन वर्षधरकूट, छियानवे वक्षस्कारकूट, तीन सौ छह वैताढयकूट तथा नौ मन्दरकूट बतलाये गये हैं। इस प्रकार ये सब मिलाकर कुल 56+66+306+6=467 कूट होते हैं। 6. भगवन् / जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में कितने तीर्थ बतलाये गये हैं ? गौतम जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में तीन तीर्थ बतलाये गये हैं Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र १---मागध तीर्थ, २-वरदाम तीर्थ तथा ३-प्रभास तीर्थ / भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत ऐरावत क्षेत्र में कितने तीर्थ बतलाये गये हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत ऐरावत क्षेत्र में तीन तीर्थ बतलाये गये हैं१–मागध तीर्थ, २---वरदाम तीर्थ तथा ३-प्रभास तीर्थ / भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में एक-एक चक्रवतिविजय में कितने-कितने तीर्थ बतलाये गये हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में एक-एक चक्रवतिविजय में तीन-तीन तीर्थ बतलाये गये हैं - 1. मागध तीर्थ, 2. वरदाम तीर्थ तथा 3. प्रभास तीर्थ / यों जम्बूद्वीप के चौंतीस विजयों में कुल मिलाकर 3443 - 102 (एक सौ दो) तीर्थ 7. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत विद्याधर-श्रेणियां तथा प्राभियोगिक-श्रेणियां कितनीकितनी बतलाई गई हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में अड़सठ विद्याधर-श्रेणियाँ तथा अड़सठ आभियोगिक-श्रेणियाँ बतलाई गई हैं / इस प्रकार कुल मिलाकर जम्बूद्वीप में 68+68 = 136 एक सौ छत्तीस श्रेणियाँ हैं, ऐसा कहा गया है। 8. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चक्रवति-विजय, राजधानियाँ, तिमिस गुफाएँ, खण्डप्रपात गुफाएँ, कृत्तमालक देव, नृत्तमालक देव तथा ऋषभकूट कितने-कितने बतलाये गये हैं ? / ___ गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चौतीस चक्रवतिविजय, चौतीस राजधानियाँ, चौतीस तिमिस गुफाएँ, चौतीस खण्डप्रपात गुफाएँ, चौतीस कृत्तमालक देव, चौतीस नत्तमालक देव तथा चौतीस ऋषभकूट बतलाये गये हैं। ह. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाद्रह कितने बतलाये गये हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत सोलह महाद्रह बतलाये गये हैं। 10. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत वर्षधर पर्वतों से कितनी महानदियां निकलती हैं और कुण्डों से कितनी महानदियाँ निकलती हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चौदह महानदियाँ वर्षधर पर्वतों से निकलती हैं तथा छियत्तर महानदियाँ कुण्डों से निकलती हैं / कुल मिलाकर जम्बूद्वीप में 14+76 = 60 नब्बै महानदियाँ हैं, ऐसा कहा गया है। 11. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र तथा ऐरावत क्षेत्र में कितनी महानदियाँ बतलाई गई हैं ? गौतम ! चार महानदियाँ बतलाई गई हैं-१. गंगा, 2. सिन्धु, 3. रक्ता तथा 4. रक्तवती / एक एक महानदी में चौदह-चौदह हजार नदियाँ मिलती हैं। उनसे आपूर्ण होकर वे पूर्वी एवं पश्चिमी लवण समुद्र में मिलती हैं / भरत क्षेत्र में गंगा महानदी पूर्वी लवण समुद्र में तथा सिन्धु Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वष्ठ वक्षस्कार] [317 महानदी पश्चिमी लवण समुद्र में मिलती है। ऐरावत क्षेत्र में रक्ता महानदी पूर्वी लवण समुद्र में तथा रक्तवती महानदी पश्चिमी लवण समुद्र में मिलती है। यों जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में कुल 14000 x 4 -- 56000 छप्पन हजार नदियाँ होती हैं। 12. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हैमवत एवं हैरण्यवत क्षेत्र में कितनी महानदियाँ बतलाई गई हैं ? गौतम ! चार महानदियाँ बतलाई गई हैं१. रोहिता, 2. रोहितांशा, 3. सुवर्णकला तथा 4. रूप्यकूला। वहाँ इनमें से प्रत्येक महानदी में अट्ठाईस-अट्ठाईस हजार नदियाँ मिलती हैं / वे उनसे आपूर्ण होकर पूर्वी एवं पश्चिमी लवण समुद्र में मिलती हैं। हैमवत में रोहिता पूर्वी लवण समुद्र में तथा रोहितांशा पश्चिमी लवण समुद्र में मिलती है / हैरण्यवत में सुवर्णकूला पूर्वी लवण समुद्र में तथा रूप्यकूला पश्चिमी लवण समुद्र में मिलती है। इस प्रकार जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हैमवत तथा हैरण्यवत क्षेत्र में कुल 28000x4112000 एक लाख बारह हजार नदियाँ हैं, ऐसा बतलाया गया है / 13. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हरिवर्ष तथा रम्यकवर्ष में कितनी महानदियां बतलाई गई हैं ? गौतम ! चार महानदियाँ बतलाई गई हैं.... 1. हरि या हरिसलिला, 2. हरिकान्ता, 3. नरकान्ता तथा 4. नारीकान्ता। वहाँ इनमें से प्रत्येक महानदी में छप्पन छप्पन हजार नदियाँ मिलती हैं। उनसे पापूर्ण होकर वे पूर्वी तथा पश्चिमी लवण समुद्र में मिल जाती हैं / हरिवर्ष में हरिसलिला पूर्वी लवण समुद्र में तथा हरिकान्ता पश्चिमी लवण समुद्र में मिलती है। रम्यकवर्ष में नरकान्ता पूर्वी लवण समुद्र में तथा नारीकान्ता पश्चिमी लवण समुद्र में मिलती है। यों जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हरिवर्ष तथा रम्यकवर्ष में कुल 56000 x 4= 224000 दो लाख चौबीस हजार नदियाँ हैं, ऐसा बतलाया गया है। 14. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में कितनी महानदियाँ बतलाई गई हैं ? गौतम ! दो महानदियाँ बतलाई गई हैं 1. शीता एवं 2. शीतोदा। __ वहाँ उनमें से प्रत्येक महानदी में पाँच लाख बत्तीस हजार नदियाँ मिलती हैं। उनसे प्रापूर्ण होकर वे पूर्वी तथा पश्चिमी लवण समुद्र में मिल जाती हैं / शीता पूर्वी लवण समुद्र में तथा शीतोदा पश्चिमी लवण समुद्र में मिलती है / Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र - इस प्रकार जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में कुल 532000x2= 1064000 दश लाख चौसठ हजार नदियाँ हैं, ऐसा बतलाया गया है / 15. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत मन्दर पर्वत के दक्षिण में कितने लाख नदियाँ पूर्वाभिमुख एवं पश्चिमाभिमुख होती हुई लवण समुद्र में मिलती हैं ? - गौतम ! 196000 एक लाख छियानवै हजार नदियाँ पूर्वाभिमुख एवं पश्चिमाभिमुख होती हुई लवण समुद्र में मिलती हैं। 16. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत मन्दर पर्वत के उत्तर में कितने लाख नदियाँ पूर्वाभिमुख एवं पश्चिमाभिमुख होती हुई लवण समुद्र में मिलती हैं ? गौतम ! 166000 एक लाख छियानवै हजार नदियाँ पूर्वाभिमुख एवं पश्चिमाभिमुख होती हुई लवण समुद्र में मिलती हैं। 17. भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत कितने लाख नदियाँ पूर्वाभिमुख होती हुई लवण समुद्र में मिलती हैं ? ___ गौतम ! 728000 सात लाख अट्ठाईस हजार नदियाँ पूर्वाभिमुख होती हुई लवण समुद्र में मिलती हैं। 18. भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने लाख नदियाँ पश्चिमाभिमुख होती हुई लवण समुद्र में मिलती हैं ? गौतम ! 728000 सात लाख अट्ठाईस हजार नदियाँ पश्चिमाभिमुख होती हुई लवण समुद्र में मिलती हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप के अन्तर्गत कुल 728000+728000 - 1456000 चौदह लाख छप्पन हजार नदियाँ हैं, ऐसा बतलाया गया है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार चन्द्रादिसंख्या 156. जम्बुद्दीवे णं भंते ! दोवे कइ चंदा पभासिसु, प्रभासंति पभासिस्संति ? कइ सूरिया तवइंसु, तवेंति, तविस्संति ? केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु, जोअंति, जोइस्संति ? केवइया महग्गहा चारं चारिसु, चरंति, चरिस्संति ? केवइयानो तारागण-कोडाकोडीयो सोभिसु, सोभंति, सोभिस्संति ? गोयमा ! दो चंदा पभासिसु 3, दो सूरिया तवइंसु 3, छप्पण्णं णक्खत्ता जोगं जोइंसु 3, छावत्तरं महम्गह-सयं चारं चरिंसु 3, / एगं च सय-सहस्सं, तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई। णव य सया पण्णासा, तारागणकोडिकोडीणं // 1 // [156] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने चन्द्रमा उद्योत करते रहे हैं, उद्योत करते हैं एवं उद्योत करते रहेंगे? कितने सूर्य तपते रहे हैं, तपते हैं और तपते रहेंगे ? कितने नक्षत्र अन्य नक्षत्रों से योग करते रहे हैं, योग करते हैं तथा योग करते रहेंगे ? कितने महाग्रह चाल चलते रहे हैं-मण्डल क्षेत्र पर परिभ्रमण करते रहे हैं, परिभ्रमण करते हैं एवं परिभ्रमण करते रहेंगे? कितने कोड़ाकोड़ तारे शोभित होते रहे हैं, शोभित होते हैं और शोभित होते रहेंगे? गौतम ! जम्बूद्वीप में दो चन्द्र उद्योत करते रहे हैं, उद्योत करते हैं तथा उद्योत करते रहेंगे। दो सूर्य तपते रहे हैं, तपते हैं और तपते रहेंगे। 56 नक्षत्र अन्य नक्षत्रों के साथ योग करते रहे हैं, योग करते हैं एवं योग करते रहेंगे। 176 महाग्रह मण्डल क्षेत्र पर परिभ्रमण करते रहे हैं, परिभ्रमण करते हैं तथा परिभ्रमण करते रहेंगे / गाथार्ण-१३३६५० कोडाकोड तारे शोभित होते रहे हैं, शोभित होते हैं और शोभित होते रहेंगे। सूर्य-मण्डल-संख्या आदि 160. कइ णं भंते ! सूरमंडला पण्णत्ता ? गोयमा ! एगे चउरासोए मंडलसए पण्णत्ते इति / जम्बुद्दीवे णं भंते ! दोवे केवइशं प्रोगाहित्ता केवइया सूरमंडला पण्णता? गोयमा! जंबुद्दीवे दोवे असीअं जोपण-सयं प्रोगाहित्ता एत्थ णं पण्णट्ठी सूरमंडला पण्णत्ता। लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं ओगाहित्ता केवइआ सूरमंडला पण्णत्ता? गोयमा ! लवणे समुदे तिणि तीसे जोअणसए प्रोगाहिता एत्थ णं एगूणवीसे सूरमंडलसए Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पण्णते। एवामैव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दोवे लवणे असमुद्दे एगे चुलसीए सूरमंडलसए भवंतीतिमक्खायं। [160] भगवन् ! सूर्य-मण्डल कितने बतलाये गये हैं ? गौतम ! 184 सूर्य-मण्डल बतलाये गये हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने क्षेत्र का अवगाहन कर आगत क्षेत्र में कितने सूर्य-मण्डल बतलाये गये हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में 180 योजन क्षेत्र का अवगाहन कर आगत क्षेत्र में 65 सूर्य-मण्डल बतलाये गये हैं। भगवन् ! लवण समुद्र में कितने क्षेत्र का अवगाहन कर कितने सूर्य-मण्डल बतलाये गये हैं ? गौतम ! लवण समुद्र में 330 योजन' क्षेत्र का अवगाहन कर आगत क्षेत्र में 116 सूर्यमण्डल बतलाये गये हैं ? इस प्रकार जम्बूद्वीप तथा लवण समुद्र दोनों के मिलाने से 184 सूर्य-मण्डल होते हैं, ऐसा बतलाया गया है। 161. सव्वम्भंतरानो णं भंते ! सूर-मंडलानो केवइयाए प्रबाहाए सव्ववाहिरए सूर-मंडले पण्णते? गोयमा ! पंच दसुत्तरे जोप्रण-सए अबाहाए सव्व-बाहिरए सूरमंडले पण्णत्ते 2 / [161] भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य-मण्डल से सर्वबाह्य सूर्य-मण्डल कितने अन्तर पर बतलाया गया है ? गौतम ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य-मण्डल से सर्व बाह्य सूर्य-मण्डल 510 योजन के अन्तर पर बतलाया गया है। 162. सूर-मंडलस्स णं भंते ! सूर-मंडलस्स य केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा! दो जोषणाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते 3 / [162] भगवन् ! एक सूर्य-मण्डल से दूसरे सूर्य-मण्डल का अबाधित- व्यवधानरहित कितना अन्तर बतलाया गया है ? गौतम ! एक सूर्य-मण्डल से दूसरे सूर्य-मण्डल का दो योजन का अव्यवहित अन्तर बतलाया गया है। 1. श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र की शान्तिचन्द्रीया वृत्ति के अनुसार यहाँ ठीक परिमाण 33016 योजन है। धत्ति में कहा गया हैगौतम ! लवणे समुद्रे त्रिंशदधिकानि श्रीणि योजनशतानि सूत्रेऽल्पत्वादविवक्षितानप्यष्ट चत्वारिणदेकषष्टिभागान् अवगाह्य..."। --श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र, शान्तिचन्द्रीया वृत्ति, पत्रांक 484 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [321 . 163. सूर-मंडले णं भंते ! केवइ आयाम-विक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं केवइयं बाहरूलेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अडयालीसं एगसटिभाए जोअणस्स आयाम-विक्खंमेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं चउधीसं एगसद्विभाए जोअणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते इति / [163] भगवन् ! सूर्य-मण्डल का अायाम-लम्बाई, विस्तार-चौड़ाई, परिक्षेप-परिधि तथा बाहल्य–मोटापन-मोटाई कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! सूर्य मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 46 योजन, परिधि उससे कुछ अधिक तीन गुणी२६२ योजन तथा मोटाई। योजन वतलाई गई है / मेरु से सूर्यमण्डल का अन्तर 164. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइपाए प्रबाहाए सव्वन्भंतरे सूर-मंडले पण्णते? ___गोयमा ! चोप्रालीसं जोमण-सहस्साई अटु य वीसे जोप्रण-सए अबाहाए सम्वन्भंतरे सूर मंडले पण्णत्ते। जंबुद्दोवे णं भंते ! दोवे मंदरस्स पध्वयस्स केवइमाए अबाहाए सम्वन्भतराणतरे सूर-मंडले पण्णते? ___गोयमा! चोप्रालीसं जोअण-सहस्साई अट्ट य बावीसे जोपण-सए अडयालीसं च एगसट्टिभागे जोग्रणस्स प्रबाहाए अभंतराणंतरे सूर-मंडले पण्णत्ते / ___ जंबुद्दीवे गं भंते ! दीवे मंदरस्स पब्वयस्स केवइआए प्रबाहाए अभंतरतच्चे सूर-मंडले पण्णते? गोयमा चोप्रालीसं जोअण-सहस्साई अटु य पणवीसे जोप्रण-सए पणतीसं च एकदि-भागे जोश्रणस्स प्रबाहाए अभंतरतच्चे सूर-मंडले पण्णत्ते इति / एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयणंतरामो मंडलानो तयणंतरं मंडलं संकममाणे 2 दो दो जोषणाई अडयालीसं च एगसट्ठिभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले प्रवाहाड्ढि अभिवद्धेमाणे 2 सव्व बाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ति। जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पध्वयस्स केवइआए अबाहाए सव्व-बाहिरे सूर-मंडले पण्णते ? गोयमा ! पणयालीसं जोअण-सहस्साई तिणि अ तोसे जोमण-सए अबाहाए सव्व-बाहिरे सूर-मंडले पण्णते। जंबद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्ययस्स केवइयाए अबाहाए सव्व-बाहिराणंतरे सूर-मंडले पण्णते? Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! पणयालीसं जोपण-सहस्साई तिणि अ सत्तावीसे जोपण-सए तेरस य एगसटि-भाए जोमणस्स प्रबाहाए बाहिराणंतरे सूर-मंडले पण्णत्ते / जंबुद्दीवे णं भंते ! दीये मंदरस्स पन्धयस्स केवइयाए अबाहाए बाहिरतच्चे सूर-मंडले पण्णत्त ? गोयमा ! पणयालीसं जोअण-सहस्साई तिण्णि प्रचउवीसे जोप्रण-सए छब्धीसं च एगसटिभाए नोअणस्स अबाहाए बाहिरतच्चे सूर-मंडले पण्णत्ते। ____ एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतरामो मंडलाओ तयाणंतरं मंडल संकममाणे संकममाणे दो दो जोअणाई अडयालीसं च एगसट्ठि-भाए जोअणस्स एगमेगे मंडले अबाहाबुडि णिबुड्ढेमाणे णिबुड्ढेमाणे सव्वन्भंतरं मंडलं उक्संकमित्ता चारं चरइ / [164] भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य-मण्डल जम्बूद्वीप-स्थित मन्दर पर्वत से कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य-मण्डल मन्दर पर्वत से 44820 योजन की दूरी पर बतलाया गया है। ___भगवन् ! जम्बूद्वीप-स्थित मन्दर पर्वत के सर्वाभ्यन्तर सूर्य-मण्डल से दूसरा सूर्य-मण्डल कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य-मण्डल से दूसरा सूर्य-मण्डल 44822 ई योजन की दूरी पर बतलाया गया है। भगवन् ! जम्बूद्वीप-स्थित मन्दर पर्वत के सर्वाभ्यन्तर सूर्य-मण्डल से तीसरा सूर्य-मण्डल कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! सर्वाभ्यन्तर सूर्य-मण्डल से तीसरा सूर्य-मण्डल 44825 // योजन की दूरी पर बतलाया गया है। यों प्रति दिन रात एक-एक मण्डल के परित्यागरूप क्रम से निष्क्रमण करता हुग्रा-लवण समुद्र की ओर जाता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डल से तदनन्तर मण्डल-पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल पर सक्रमण करता हा एक-एक मण्डल पर 16 योजन दूरी की अभिवृद्धि करता हया सर्वबाह्य मण्डल पर पहुँच कर गति करता है / भगवन् ! सर्वबाह्य सूर्य-मण्डल जम्बूद्वीप-स्थित मन्दर पर्वत से कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! सर्वबाह्य सूर्य-मण्डल जम्बूद्वीप-स्थित मन्दर पर्वत से 45330 योजन की दूरी पर बतलाया गया है। __ भगवन् ! जम्बूद्वीप-स्थित मन्दर पर्वत के सर्वबाह्य सूर्य-मण्डल से दूसरा बाह्य सूर्य-मण्डल कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! सर्वबाह्य सूर्य-मण्डल से दूसरा बाह्य सूर्य-मण्डल 4532763 योजन की दूरी पर बतलाया गया है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [323 भगवन् ! जम्बूद्वीप-स्थित मन्दर पर्वत के सर्वबाह्य सूर्य-मण्डल से तोसरा बाह्य सूर्य-मण्डल कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! सर्वबाह्य सूर्य-मण्डल से तीसरा बाह्य सूर्य-मण्डल 4532466 योजन की दूरी पर बतलाया गया है। इस प्रकार अहोरात्र मण्डल के परित्यागरूप क्रम से जम्बूद्वीप में प्रविष्ट होता हुमा सूर्य तदनन्तर मण्डल से तदनन्तर मण्डल पर संक्रमण करता हुआ-पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल पर जाता हुआ, एक-एक मण्डल पर 216 योजन की अन्त र-वृद्धि कम करता हुअा सर्वाभ्यन्तर-मण्डल पर पहुँच कर गति करता है-आगे बढ़ता है। सूर्यमण्डल का आयाम-विस्तार आदि 165. जंबुद्दीवे दीवे सव्वभंतरे णं भंते ! सूरमंडले केवइयं पायामविक्खंभेणं केवइअं परिक्खेवेणं पण्णते? गोयमा ! णवणउइं जोश्रणसहस्साई छच्च चत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं तिणि य जोपणसयसहस्साई पण्णरस य जोअणसहस्साई एगूणणउई च जोप्रणाई किचिविसेसाहिबाई परिक्खेवेणं। अन्भंतराणंतरे णं भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइग्रंपरिक्खेवेणं पण्णते ? गोयमा ! णवणउई जोअणसहस्साई छच्च पणयाले जोअणसए पणतीसं च एगसद्विभाए जोनणस्स आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोअणसयसहस्साइं पण्णरस य जोश्रण-सहस्साई एगं सत्तुत्तरं जोअणसयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते। प्रभंतरतच्चे णं भंते ! सूरमंडले केवइग्रं आयामविक्खंभेणं केवइग्रंपरिक्खेवेणं पण्णते? गोयमा! णवणउई जोप्रणसहस्साई छच्च एकावण्णे जोअणसए णव य एगसटिभाए जोपणस्स आयामविक्खंभेणं तिण्णि अ जोअणसयसहस्साई पण्णरस जोमणसहस्साई एगं च पणवीसं जोग्रणसयं परिक्खेवेणं / एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतरामो मंडलानो तयाणंतरं मंडलं उवसंकममाणे 2 पंच 2 जोपणाई पणतीसं च एगसट्ठिभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धि अभिवद्धेमाणे 2 अट्ठारस 2 जोअणाई परिरयबुद्धि अभिवद्धेमाणे 2 सम्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चारई। सव्वबाहिरए णं भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? मोयमा ! एग जोयणसयसहस्सं छच्च सट्टे जोपणसए आयामविक्खंभेणं तिणि अ -जोप्रणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई तिण्णि प्रपण्णरसुत्तरे जोअणसए परिक्खेवेणं / बाहिराणंतरे णं भंते ! सूरमंडले केवइअंपायामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं पण्णते? . Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! एगं जोअणसयसहस्सं छच्च चउपण्णे जोअणसए छन्वीसं च एगसटिभागे जोअणस्स आयामविक्खंभेणं तिणि अजोग्रणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई दोणि य सत्ताणउए जोअणसए परिक्खेवेणंति / बाहिरतच्चे गं भंते ! सूरमंडले केवइअंपायामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं पण्णते ? गोयमा ! एगं जोअणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोअणसए बावण्णं च एगसद्विभाए जोअणस्स पायामविक्खंभेणं तिणि जोअणसयसहस्साई प्रहारस य सहस्साई दोणि अ अउणासीए जोश्रणसए परिक्खेवेणं / एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयणंतरामो मंडलायो तयाणंतरं मंडलं संकममाणे 2 पंच पंच जोषणाई पणतीसं च एगसट्ठिभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुद्धि णिवुड्ढेमाणे 2 अट्ठारस 2 जोषणाई परिरयबुद्धि णिन्वुड्ढेमाणे 2 सम्वन्भतरं मंडलं उवसंक मित्ता चारं चरइ 6 / [165] भगवन् ! जम्बूद्वीप में सर्वाभ्यन्तर सूर्य-मण्डल की लम्वाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! उसकी लम्बाई-चौड़ाई 66640 योजन तथा परिधि कुछ अधिक 315089 योजन बतलाई गई है। भगवन् ! द्वितीय आभ्यन्तर सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! द्वितीय प्राभ्यन्तर सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 666453 योजन तथा परिधि 315107 योजन बतलाई गई है। भगवन् ! तृतीय आभ्यन्तर सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! तृतीय आभ्यन्तर सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 6665165 योजन तथा परिधि 315125 योजन बतलाई गई है / यों उक्त क्रम से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल पर उपसंक्रान्त होता हुया - पहुँचता हुआ--एक-एक मण्डल पर 565 योजन की विस्तार-वृद्धि करता हुआ तथा अठारह योजन की परिक्षेप-वृद्धि करता हया-परिधि बढ़ाता हुया सर्वबाह्य मण्डल पर पहँच कर पागे गति करता है। भगवन् ! सर्वबाह्य सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! सर्वबाह्य सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 100660 योजन तथा परिधि 318315 योजन बतलाई गई है। भगवन् ! द्वितीय वाह्य सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार 1325 . गौतम ! द्वितीय बाह्य सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 100654 36 योजन एवं परिधि 318267 योजन बतलाई गई है। भगवन् ! तृतीय बाह्य सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई और परिधि कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! तृतीय बाह्य सूर्य-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 100648 55 योजन तथा परिधि 318276 योजन बतलाई गई है। यों पूर्वोक्त क्रम के अनुसार प्रवेश करता हुया सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल पर जाता हुआ एक-एक मण्डल पर 535 योजन की विस्तार-वृद्धि कम करता हुआ, अठारह-अठारह योजन की परिधि-वृद्धि कम करता हुआ सर्वाभ्यन्तर-मण्डल पर पहुँच कर आगे गति करता है। मुहूर्त-गति 166. जया णं भंते ! सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइ खेतं गच्छइ ? ___ गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई दोणि अ एगावण्णे जोअणसए एगुणतीसं च सद्विभाए जोप्रणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / तया गं इहगयस्स मणूसस्स सीनालीसाए जोअणसहस्सेहि दोहि अ तेवढेहि जोपणसएहिं एगवीसाए अ जोश्रणस्स सट्ठिभाएहि सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छइ त्ति। से णिक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि सव्वभंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ति / ___ जया णं भंते ! सूरिए अब्भतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं एगमेगेणं मुहत्तेणं केवइनं खेत्तं गच्छइ ? ___ गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई दोणि अएगावणे जोअणसए सेआलीसं च सद्रिभागे जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणुसस्स सीयालीसाए जोअणसहस्सेहि एगूणासीए जोअणसए सत्तावण्णाए प्र सद्विभाएहि जोअणस्स सट्ठिभागं च एगसट्टिधा छेत्ता एगूणवीसाए चुण्णिाभागेहि सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ / से णिक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तसि अभंतरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ / जया णं भंते ! सूरिए अभंतरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवह खेत्तं गच्छ? गोयमा ! पंच पंच जोपणसहस्साई दोण्णि अ बावण्णे जोअणसए पंच य सद्विभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / तया णं इहगयस्स मणुसस्स सोनालीसाए जोअणसहस्सेहि छण्णउइए जोअनुहिं तेत्तीसाए सट्ठिभागेहिं जोअणस्स सट्ठिभागं च एगसद्विधा छेत्ता दोहि चुण्णिाभागेहि सूरिए चक्खष्फासं हव्वमागच्छति। एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराम्रो मंडलानो तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकमाणे अट्ठारस 2 सट्ठिभागे जोअणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई अभिवुड्ढेमाणे Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326) जिम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अभिवुड्ढेमाणे चुलसीई 2 सीमाई जोप्रणाई पुरिसच्छायं णिव्वड्ढेमाणे 2 सन्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ___ जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ, तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई तिणि अ पंचुत्तरे जोअणसए पण्णरस य सटिभाए जोपणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / तया णं इहगयस्स मणुसस्स एगतीसाए जोश्रणसहस्सेहिं अट्ठहि अ एगत्तीसेहिं जोअणसएहिं तोसाए प्र सट्ठिभाएहि जोअणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ त्ति एस णं पढमे छम्मासे / एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे / से सूरिए दोच्चे छम्मासे प्रयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ___ जया णं भंते ! सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई तिणि अ चउरुत्तरे जोग्रणसए सत्तावणं च सद्विभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ। तया णं इहगयस्स मणुसस्स एगत्तीसाए जोअणसहस्सेहि गवाह प्र सोलसुत्तहिं जोअणसएहिं इगुणालीसाए अ सद्विभाएहिं जोअणस्स सट्ठिभागं च एगसद्विधा छेत्ता सद्धिए चुण्णिआभागेहि सूरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छइ ति / से पविसमाणे सरिए वोच्चंसि अहोरतंसि बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। ___ जया णं भंते ! सूरिए बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइ खेत्तं गच्छइ ? __ गोयमा ! पंच पंच जोप्रणसहस्साई तिणि अचउरुत्तरे जोअणसए इगुणालीसं च सद्विभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ / तया णं इहगयस्स मणुयस्स एगाहिएहिं बत्तीसाए जोमणसहस्सेहि एगूणपण्णाए अ सद्विभाएहि जोश्रणस्स सद्विभागं च एगसद्विधा छत्ता तेवीसाए चुण्णिाभारहि सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छह ति / एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सरिए तयाणंतरानो मंडलानो तयाणंतरं मंडलं संकममाणे 2 अट्ठारस 2 सद्विभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले मुहत्तगई निवेड्डमाणे 2 सातिरेगाई पंचासीति 2 जोषणाई पुरिसच्छायं अभिवढेमाणे 2 सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ / एस णं दोच्चे छम्मासे / एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे। एस गं प्राइच्चे संवच्छरे / एस णं प्राइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते। [166] भगवन् ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर-सबसे भीतर के मण्डल का उपसंक्रमण कर चाल चलता है--गति करता है, तो वह एक-एक मुहर्त में कितने क्षेत्र को पार करता है—गमन करता है ? गौतम ! वह एक-एक मुहूर्त में 525130 योजन को पार करता है। उस समय सूर्य यहाँ भरतक्षेत्र स्थित मनुष्यों को 4726330 योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। वहां से निकलता Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार हुआ सूर्य नव संवत्सर का प्रथम अयन बनाता हुमा प्रथम अहोरात्र में सर्वाभ्यन्तर मण्डल से दूसरे मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है। भगवन् ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल से दूसरे मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है, तब वह एक-एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पार करता है ? गौतम ! तब वह प्रत्येक मुहूर्त में 525140 योजन क्षेत्र को पार करता है / तब यहाँ स्थित मनुष्यों को 471761" योजन तथा 60 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 61 भागों में से 16 भाग योजनांश की दूरी से सूर्य दृष्टिगोचर होता है। वहाँ से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य दूसरे अहोरात्र में तीसरे प्राभ्यन्तर मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है। भगवन् ! जब सूर्य तीसरे प्राभ्यन्तर मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तो वह प्रत्येक मुहूर्त में कितना क्षेत्र पार करता है-गमन करता है ? गौतम ! वह 52521 योजन प्रति मुहूर्त गमन करता है। तब यहाँ स्थित मनुष्यों को वह (सर्य) 470960 योजन तथा 60 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 61 भागों में 2 भाग योजनांश की दूरी से दृष्टिगोचर होता है / इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल को संक्रान्त करता हुआ योजन मुहूर्त-गति बढ़ाता हुआ, 84 योजन न्यून पुरुषछायापरिमित कम करता हुआ सर्वबाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है। भगवन् ! जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तब वह प्रति मुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है—गमन करता है ? गौतम ! वह प्रति मुहर्त 530515 योजन गमन करता है-इतना क्षेत्र पार करता है / तब यहाँ स्थित मनुष्यों को वह (सूर्य) 3183130 योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है / ये प्रथम छह मास हैं / यो प्रथम छह मास का पर्यवसान करता हुआ वह सूर्य दूसरे छह मास के प्रथम अहोरात्र में सर्वबाह्य मण्डल से दूसरे बाह्य मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है / भगवन् ! जब सूर्य दूसरे बाह्य मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है तो वह प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है--गमन करता है ? गौतम ! वह 530450 योजन प्रति मुहूर्त गमन करता है। तब यहाँ स्थित मनुष्यों को वह (सूर्य) 3191636 योजन तथा 60 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 61 भागों में से 60 भाग योजनांश की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। वहाँ से प्रवेश करता हुआ--जम्बूद्वीप के सम्मुख अग्रसर होता हुआ सूर्य दूसरे अहोरात्र में तृतीय बाह्य मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है। भगवन् ! जब सूर्य तृतीय बाह्य मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है, तब वह प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है—गमन करता है ? गौतम ! वह 530414 योजन प्रतिमुहूर्त गमन करता है। तब यहाँ स्थित मनुष्यों को 320014 योजन तथा 60 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 61 भागों में से 23 भाग योजनांश की दूरी से वह (सूर्य) दृष्टिगोचर होता है / Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328] [जम्बूद्वीपप्रजप्तिसूत्र यों पूर्वोक्त क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल पर संक्रमण करता हुआ, प्रतिमण्डल पर मुहूर्त-गति को 6 योजन कम करता हुआ, कुछ अधिक 85 योजन पुरुषछायापरिमित अभिवृद्धि करता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है। ये दूसरा छह मास है / इस प्रकार दूसरे छह मास का पर्यवसान होता है। यह प्रादित्य-संवत्सर है। यों आदित्य-संवत्सर का पर्यवसान बतलाया गया है। दिन-रात्रि-मान 167. जया णं भंते ! सरिए सवभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ? गोयमा ! तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अद्वारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहण्णिा दुवालसमुहुत्ता राई भवई / से णिक्खममाणे सरिए णवं संवच्छरं प्रयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अभंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ / जया णं भंते ! सूरिए अभंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ? गोयमा ! तया णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसट्ठिभागमुहत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहि अ एगसद्विभागमुहुर्तेहि अहिअत्ति / से णिक्खममाणे सरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ? गोयमा ! तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चहि एगट्ठिभागमुहुतेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवई चहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिअत्ति / एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतरानो मंडलानो तयाणंतरं मंडलं संकममाणे दो दो एगसटिभागमुहुत्तेहि मंडले दिवसखित्तस्स निव्वुद्धमाणे 2 रयणिखित्तस्स अभिवढेमाणे 2 सव्वबाहिरं मंडलं उक्संकमित्ता चारं चरइति / जया णं सरिए सम्वन्भंतराओ मंडलाओ सम्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया गं सम्वन्भंतरमंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदिप्रसएणं तिणि छाव? एगसट्ठिभागमुहुत्तसए दिवसखेत्तस्स निव्वुद्धता रणिखेत्तस्स अभिवुद्धत्ता चारं चरइ ति। जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ? गोयमा ! तया णं उत्तम कट्टपत्ता उक्कोसिमा प्रद्वारसमुहत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमहत्ते दिवसे भवड ति। एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स हम्मासस्स पज्जवसाणे से सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ / ___ जया णं भंते ! सरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं केमहालए दिवसे भवइ केमहालिया राई भवइ ? गोयमा ! अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ दोहि एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहत्ते दिवसे Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार [329 भवइ, दोहिं एगसट्ठिभागमुत्तेहि अहिए। से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ।। जया णं भंते ! सरिए बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं घरइ तया णं केमहालए दिवसे भवइ केमहालिया राई भवइ ? गोयमा ! तया णं प्रद्वारसमुहुत्ता राई भवइ चहिं एगसट्ठिभागमुहुर्तेहिं ऊणा, बुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चाहिं एगसट्ठिभागमुहत्तेहि अहिए इति / एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतरामो मंडलानो तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो एगसट्ठिभागमुहत्तेहि एगमेगे मंडले रयणिखेत्तस्स निवुद्धमाणे 2 दिवसखेत्तस्स अभियुद्धमाणे 2 सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ति। जया गं भंते ! सरिए सव्ववाहिरामो मंडलामो सम्वाभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सव्वबाहिरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदिप्रसएणं तिण्णि छावठे एगसटिभागमुहत्तसए रयणिखेत्तस्स णिवुद्धत्ता दिवसखेत्तस्स अभिवद्धत्ता चारं चरइ / एस णं दोच्चे छम्मासे / एस णं दुच्चस्स छम्मास्स पज्जवसाणे / एस णं प्राइच्चे संवच्छरे / एस णं प्राइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णते। [167] भगवन् ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तबउस समय दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! उत्तमावस्थाप्राप्त, उत्कृष्ट-अधिक से अधिक 18 मुहूर्त का दिन होता है, जघन्यकम से कम 12 मुहूर्त की रात होती है / वहाँ से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य नये संवत्सर में प्रथम अहोरात्र में दूसरे प्राभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। भगवन् ! जब सूर्य दूसरे आभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! तब ये मुहूर्तांश कम 18 मुहूर्त का दिन होता है, से मुहूर्ताश अधिक 12 मुहूर्त की रात होती है। वहाँ से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य दूसरे अहोरात्र में (दूसरे प्राभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर) गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! तब मुहूर्तांश कम 18 मुहूर्त का दिन होता है, मुहूतांश अधिक 12 मुहूर्त की रात होती है। इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ, पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ सूर्य प्रत्येक मण्डल में दिवस-क्षेत्र-दिवस-परिमाण को मुहूर्ताश कम करता हुआ तथा रात्रि-परिमाण को रे मुहूर्ताश बढ़ाता हुआ सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल से सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब सर्वाभ्यन्तर मण्डल का परित्याग कर 183 अहोरात्र में दिवस-क्षेत्र में 366 संख्या-परिमित / मुहूर्तांश कम कर तथा रात्रि-क्षेत्र में इतने ही मुहूर्तांश बढ़ाकर गति करता है / भगवन् ! जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! तब रात उत्तमावस्थाप्राप्त, उत्कृष्ट-अधिक के अधिक 18 मुहर्त की होती है, दिन जघन्य-कम से कम 12 मुहूर्त का होता है। ये प्रथम छः मास हैं / यह प्रथम छः मास का पर्यवसान है-समापन है। वहाँ से प्रवेश करता हुआ सूर्य दूसरे छः मास के प्रथम अहोरात्र में दूसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है। __ भगवन् ! जब सूर्य दूसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! तब मुहूर्तांश कम 18 मुहूर्त की रात होती है, 12 मुहूर्ताश अधिक 12 मुहूर्त का दिन होता है / वहाँ से प्रवेश करता हुआ सूर्य दूसरे अहोरात्र में तीसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है। __भगवन् ! जब सूर्य तीसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! तब मुहूर्ताश कम 18 मुहूर्त की रात होती है, हमें मुहूर्ताश अधिक 12 मुहूर्त का दिन होता है। इस प्रकार पूर्वोक्त क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ रात्रि-क्षेत्र में एक-एक मण्डल में है मुहूर्ताश कम करता हुआ तथा दिवस-क्षेत्र में मुहूर्ताश बढ़ाता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। भगवन् ! जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल से सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब वह सर्वबाह्य मण्डल का परित्याग कर 183 अहोरात्र में रात्रि-क्षेत्र में 366 संख्या-परिमित मुहूर्ताश कम कर तथा दिवस-क्षेत्र में उतने ही मुहूर्ताश अधिक कर गति करता है। ये द्वितीय छह मास हैं / यह द्वितीय छह मास का पर्यवसान है। यह आदित्य-संवत्सर है। यह आदित्य-संवत्सर का पर्यवसान बतलाया गया है। ताप-क्षेत्र 168. जया णं भंते ! सूरिए सव्वम्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं किसंठिा तावखित्तसंठिई पण्णत्ता? गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुनापुष्फसंठाणसंठिया तावखेतसंठिई पण्णत्ता / अंतो संकुइआ बाहिं वित्थडा, अंतो वट्टा बाहि विहुला, अंतो अंकमुहसंठिया बाहि सगडुद्धीमुहसंठिया, उभोपासे णं तीसे दो बाहाओ प्रवद्विप्रानो हवंति पणयालीसं 2 जोअणसहस्साई आयामेणं / दुवे अ णं तोसे बाहाम्रो प्रणवट्टियानो हवंति, तं जहा-सव्वन्भंतरिआ चेव बाहा सव्वबाहिरिपा चेव बाहा। तीसे गं Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार [331 सध्वम्भंतरिमा बाहा मंदरपब्बयंतेणं णवजोअणसहस्साई चत्तारि छलसीए जोअणसए णव य दसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं। एस णं भंते ! परिक्खेवविसेसे को पाहिएत्ति वएज्जा? गोयमा ! जे णं मंदरस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता दसहि छेत्ता दसहि भागे हीरमाणे एस परिक्खेवविसेसे पाहिएत्ति वदेज्जा। तोसे णं सव्वबाहिरिपा बाहा लवणसमुइंतेणं चउणवई जोअणसहस्साई अट्ठ य अट्ठसठे जोत्रणसए चत्तारि अ दसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं / से गं भंते ! परिक्खेवविसेसे को पाहिएत्ति बएज्जा ?. गोयमा ! जे णं जंबुद्दोवस्त परिक्खेवे, तं परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता दसहि छेत्ता वसभागे होरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे पाहिएत्ति वएज्जा इति / तया णं भंते ! तावखित्ते केवइ आयामेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठहरि जोनणसहस्साई तिणि अ तेत्तीसे जोअणसए जोअणस्स तिभागं च प्रायामेणं पण्णते। मेरुस्स मज्झयारे जाव य लवणस्य रुदछन्भागो। ताबायामो एसो सगडुद्धीसंठिो नियमा // 1 // तया णं भंते ! किसंठिया अंधकारसंठिई पण्णत्ता ? गोयमा! उद्धीमुहकलंबुआपुष्फसंठाणसंठिया अंधकारसंठिई पण्णत्ता, अंतो संकुला, बाहिं वित्थडा तं चेव (अंतो वट्टर, बाहिं विउला, अंतो अंकमुहसंठिया, बाहिं सगडुद्धीमुहसंठिया / ) तोसे णं सब्वभंतरिया बाहा मंदरपध्वयंतेणं छज्जोअणसहस्साई तिणि अचउवीसे जोअणसए छच्च वसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणंति / से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे को पाहिएत्तिवएज्जा ? गोयमा ! जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं, दोहिं गुणेत्ता दहि छेत्ता दसहि भागे होरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे पाहिएत्ति वएज्जा। तोसे णं सव्वबाहिरिमा बाहा लवणसमुहतेणं तेसट्ठी जोपणसहस्साई दोण्णि य पणयाले जोपणसए छच्च दसभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं। से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे को पाहिएत्ति वएज्जा ? गोयमा ! जे णं जम्बुद्दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहि गुणेत्ता (वसहि छेत्ता दहि भागे हीरमाणे एस णं परिक्खेवविसेसे पाहिएत्ति वएज्जा) तं चेव / तया णं भंते ! अंधयारे केवइए आयामेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठहत्तरि जोअणसहस्साइं तिणि अ तेतीसे जोअणसए तिभागं च पायामेणं पण्णत्ते। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332) [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र __ जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं किंसंठिया तावविखत्तसंठिई पण्णत्ता ? गोयमा! उद्धोमुहकलंबुनापुप्फसंठाणसंठिा पण्णत्ता / तं चेव सव्वं अव्वं णवरं णाणत्तं जं अंधयारसंठिइए पुत्ववणि पमाणं तं तावखित्तसंठिईए अव्वं, तं ताव खित्तसंठिईए पुव्ववण्णिअं पमाणं तं अंधयारसंठिईए अवंति / [168] भगवन् ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तो उसके ताप-क्षेत्र की स्थिति-सूर्य के प्रातप से परिव्याप्त आकाश-खण्ड की स्थिति-उसका संस्थान किस प्रकार का बतलाया गया है ? गौतम ! तब ताप-क्षेत्र की स्थिति ऊर्ध्वमुखी कदम्ब-पुष्प के संस्थान जैसी होती है-उसकी ज्यों संस्थित होती है। वह भीतर---मेरु पर्वत की दिशा में संकीर्ण-संकड़ी तथा बाहर-लवण समुद्र की दिशा में विस्तीर्ण-चौड़ी, भीतर से वृत्त--अर्ध वलयाकार तथा बाहर से पृथुल-पृथुलतापूर्ण विस्तृत, भीतर अंकमुख–पद्मासन में अवस्थित पुरुष के उत्संग-गोद रूप प्रासनबन्ध में मुख-अग्रभाग जैसी तथा बाहर गाड़ी की धुरी के अग्रभाग जैसी होती है। __ मेरु के दोनों ओर उसकी दो बाहाएँ---भुजाएँ-पार्श्व में अवस्थित हैं-नियत परिमाण हैं--- उनमें वृद्धि-हानि नहीं होती। उनकी-उनमें से प्रत्येक की लम्बाई 45000 योजन है। उसकी दो बाहाएँ अनवस्थित-अनियत परिमाणयुक्त हैं / वे सर्वाभ्यन्तर तथा सर्वबाह्य के रूप में अभिहित हैं। उनमें सर्वाभ्यन्तर बाहा की परिधि मेरु पर्वत के अन्त में 1486 . योजन है / भगवन् ! यह परिक्षेपविशेष-परिधि का परिमाण किस आधार पर कहा गया है ? गौतम ! जो मेरु पर्वत की परिधि है, उसे 3 से गुणित किया जाए। गुणनफल को दस का भाग दिया जाए। उसका भागफल (मेरु पर्वत की परिधि 31623 योजन x 3 = 94866 : 10 = 9486 50) इस परिधि का परिमाण है / उसकी सर्वबाह्य बाहा की परिधि लवण समुद्र के अन्त में 14868 . योजन-परिमित है। भगवन् ! इस परिधि का यह परिमाण कैसे बतलाया गया है ? गौतम ! जो जम्बूद्वीप की परिधि है, उसे 3 से गुणित किया जाए, गुणनफल को 10 से विभक्त किया जाए। वह भागफल (जम्बूद्वीप की परिधि 31622843-648684 : 10 = 64868 ) इस परिधि का परिमाण है। भगवन् ! उस समय ताप-क्षेत्र की लम्बाई कितनी होती है ? गौतम ! उस समय ताप-क्षेत्र की लम्बाई 753333 योजन होती है, ऐसा बतलाया गया है। मेरु से लेकर जम्बूद्वीप पर्यन्त 45000 योजन तथा लवण समुद्र के विस्तार 200000 योजन के : भाग 333333 योजन का जोड़ ताप-क्षेत्र की लम्बाई है। उसका संस्थान गाड़ी की धुरी के अग्रभाग जैसा होता है। भगवन् ! तब अन्धकार-स्थिति कैसा संस्थान-आकार लिये होती है ? Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार [333 गौतम ! अन्धकार-स्थिति तब ऊर्ध्वमुखी कदम्ब पुष्प का संस्थान लिये होती है, वैसे आकार की होती है / वह भीतर संकीर्ण-सँकड़ी, बाहर विस्तीर्ण-चौड़ी (भीतर से वृत्त-अर्ध वलयाकार, बाहर से पृथुलता लिये विस्तृत, भीतर से अंकमुख-पद्मासन में अवस्थित पुरुष के उत्संग-गोदरूप आसन-बन्ध के मुख-अग्रभाग की ज्यों तथा बाहर से गाड़ी की धुरी के अग्नभाग की ज्यों होती है / उसकी सर्वाम्यन्तर बाहा की परिधि मेरु पर्वत के अन्त में 63246 योजन-प्रमाण है / भगवन् ! यह परिधि का परिमाण कैसे है ? गौतम ! जो मेरु पर्वत की परिधि है, उसे दो से गुणित किया जाए, गुणनफल को दस से विभक्त किया जाए, उसका भागफल (मेरु-परिधि 31623 योजन 42-63246 -1063246) इस परिधि का परिमाण है। उसकी सर्वबाह्य बाहा की परिधि लवण-समुद्र के अन्त में 632453. योजन-परिमित है। भगवन् यह परिधि-परिमाण किस प्रकार है ? गौतम ! जो जम्बूद्वीप की परिधि है, उसे दो से गुणित किया जाए, गुणनफल को दस से विभक्त किया जाए, उसका भागफल (जम्बूद्वीप की परिधि 316228 योजन x 2=632456 : 10=632456 योजन) इस परिधि का परिमाण है। भगवन् ! तब अन्धकार क्षेत्र का आयाम लम्बाई कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! उसको लम्बाई 78333 3 योजन बतलाई गई है। भगवन् ! जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है तो ताप-क्षेत्र का संस्थान कैसा बतलाया गया है ? गौतम ! ऊर्ध्वमुखी कदम्ब-पुष्प संस्थान जैसा उसका संस्थान बतलाया गया है / अन्य वर्णन पूर्वानुरूप है। इतना अन्तर है-पूर्वानुपूर्वी के अनुसार जो अन्धकार-संस्थिति का प्रमाण है, वह इस पश्चानुपूर्वी के अनुसार ताप-संस्थिति का जानना चाहिए। सर्वाभ्यन्तर मण्डल के सन्दर्भ में जो ताप-क्षेत्र-संस्थिति का प्रमाण है, वह अन्धकार-संस्थिति में समझ लेना चाहिए। सूर्य-परिदर्शन 169. जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिमा उग्गमणमुहत्तंसि दूरे अ मूले अ दीसंति, मझतिअमुहुत्तंसि मूले अदूरे अ दोसंति, प्रत्थमणमुहत्तंसि दूरे अ मूले अ दीसंति ? हंता गोयमा ! तं चेव (मूले अ दूरे अ दीसंति / ) जम्बुद्दीने णं भंते ! सूरिमा उग्गमणमुहुत्तंसि अ मज्झतिन-मुहत्तंसि अ प्रत्थमणमुहुत्तसि अ सम्वत्थ समा उच्चतेणं? हंता तं चेव (सम्वत्थ समा) उच्चतेणं। जइ णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि प्र मज्झतिअ-मुहत्तंसि अप्रत्थमणमुहत्तंसि प्र सव्वत्थ समा उच्चतेणं, कम्हा णं भंते ! Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जम्बुद्दीवे दोवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि दूरे अमूले अ दोसंति, मतिभ-मुहत्तंसि मूले प्रदूरे अ दीसंति, अत्थमणमुहत्तंसि दूरे अमूले अ दीसंति ? ___गोयमा ! लेसा-पडिधाएणं उग्गमणमुहत्तंसि दूरे अमूले अ दोसंति इति / लेसाहितावेणं मज्झतिअ-मुहत्तंसि मूले अदूरे अ दीसंति / लेसा-पडिघाएणं अस्थमणमुहत्तंसि दूरे अमूले प्रदीसंति / एवं खलु गोयमा ! तं चेव (दूरे अमूले अ) दीसंति / [169] ! क्या जम्बूद्वीप में सूर्य (दो) उद्गमन-मुहूर्त में-उदयकाल में स्थानापेक्षया दूर होते हुए भी द्रष्टा की प्रतीति की अपेक्षा से मूल-प्रासन्न या समीप दिखाई देते हैं ? मध्याह्न-काल में स्थानापेक्षया समीप होते हुए भी क्या वे दूर दिखाई देते हैं ? अस्तमन-वेला में-अस्त होने के समय क्या वे दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं ? हाँ गौतम ! वे वैसे ही (निकट एवं दूर) दिखाई देते हैं / भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्य उदयकाल, मध्याह्न-काल तथा अस्तमन-काल में क्या सर्वत्र एक सरीखी ऊँचाई लिये होते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है / वे सर्वत्र एक सरीखी ऊँचाई लिये होते हैं। भगवन् ! यदि जम्बूद्वीप में सूर्य उदय-काल, मध्याह्न-काल तथा अस्तमन-काल में सर्वत्र एक-सरीखी ऊँचाई लिये होते हैं तो उदय-काल में वे दूर होते हुए भी निकट क्यों दिखाई देते हैं, मध्याह्न-काल में निकट होते हुए भी दूर क्यों दिखाई देते हैं तथा अस्तमन-काल में दूर होते हुए भी निकट क्यों दिखाई देते हैं ? गौतम ! लेश्या के प्रतिघात से---सूर्य मण्डलगत तेज के प्रतिघात से - अत्यधिक दूर होने के कारण उदयस्थान से आगे प्रसृत न हो पाने से, यों तेज या ताप के प्रतिहत होने के कारण सुखदृश्यसुखपूर्वक देखे जा सकने योग्य होने के कारण दूर होते हुए भी सूर्य उदय-काल में निकट दिखाई मध्याह्नकाल में लेश्या के अभिताप से--सूर्यमण्डलगत तेज के अभिताप से प्रताप सेविशिष्ट ताप से निकट होते हुए भी सूर्य के तीव्र तेज की दुर्दश्यता के कारण-कष्टपूर्वक देखे जा सकने योग्य होने के कारण दूर दिखाई देते हैं। अस्तमन-काल में लेश्या के प्रतिघात के कारण उदय-काल की ज्यों दूर होते हुए भी सूर्य निकट दिखाई पड़ते हैं। गौतम दूर तथा निकट दिखाई पड़ने के यही कारण हैं। क्षेत्रगमन 170. जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिआ कि तीअं खेत्तं गच्छंति, पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छन्ति, प्रणामयं खेत्तं गच्छन्ति ? गोयमा ! णो तीअं खेत्तं गच्छन्ति, पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छन्ति, णो अणागयं खेत्तं गच्छन्ति त्ति। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार [335 तं भंते ! कि पुट्ठ गच्छन्ति (णो अपुढे गच्छन्ति, तं भंते ! कि ओगाढं गच्छन्ति प्रणोगाढं गच्छन्ति ? गोयमा ! ओगाढं गच्छन्ति, णो प्रणोगाढं गच्छन्ति / तं भंते ! कि अणंतरोगाढं गच्छन्ति, परंपरोगाढं गच्छन्ति ? गोयमा ! अणंतरोगाढं गच्छन्ति णो परंपरोगाढं गच्छन्ति / तं भंते ! कि अणु गच्छन्ति बायरं गच्छन्ति ? गोयमा ! अणु पि गच्छन्ति बायरंपि गच्छन्ति, तं भंते ! कि उद्धं गच्छन्ति अहे गच्छन्ति तिरियं गच्छन्ति ? गोयमा ! उद्धंपि गच्छन्ति, तिरिश्रपि गच्छन्ति, अहेवि गच्छन्ति / तं भंते ! कि प्राइं गच्छन्ति, मज्झ गच्छन्ति, पज्जवसाणे गच्छन्ति ? गोयमा ! प्राइंपि गच्छन्ति मज्झवि गच्छन्ति पज्जवसाणेवि गच्छन्ति / तं भंते ! कि सविसयं गच्छन्ति, अविसयं गच्छन्ति ? गोयमा ! सविसयं गच्छन्ति, णो अविसयं गच्छन्ति / तं भंते ! कि प्राणुपुग्वि गच्छन्ति प्रणाणुपुचि गच्छन्ति ? गोयमा ! आणुपुष्वि गच्छन्ति णो अणाणुपुब्धि गच्छन्ति, तं भंते ! कि एगदिसि गच्छन्ति छद्दिसि गच्छन्ति ? गोयमा ! ) नियमा छदिसति, एवं प्रोभासेंति, तं भंते ! कि पुढे ओभासेंति ? एवं आहारपयाई णेप्रवाई पुट्ठोगाढमणंतरअणुमहादिविसयाणपुष्वी प्रजाव णिअमा छदिसि, एवं उज्जोर्वेति, तति, पभाति 11 / [170] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप में सूर्य प्रतीत-गतिविषयीकृत-पहले चले हुए धोत्र काअपने तेज से व्याप्त क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं अथवा प्रत्युत्पन्न-वर्तमान क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं या अनागत-भविष्यवर्ती-जिसमें गति की जाएगी उस-क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं ? ___ गौतम ! वे अतीत क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करते, वे वर्तमान क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं। वे अनागत क्षेत्र का भी अतिक्रमण नहीं करते / भगवन् ! क्या वे गम्यमान क्षेत्र का स्पर्श करते हुए अतिक्रमण करते हैं या अस्पर्श पूर्वकस्पर्श नहीं करते हुए--अतिक्रमण करते हैं ? (गौतम ! वे गम्यमान क्षेत्र का स्पर्श करते हुए अतिक्रमण करते हैं, स्पर्श नहीं करते हुए अतिक्रमण नहीं करते। भगवन् ! क्या वे गम्यमान क्षेत्र को अवगाढ कर अधिष्ठित कर अतिक्रमण करते हैं या अनवगाढ कर--अनाश्रित कर अतिक्रमण करते हैं ? गौतम ! वे गम्यमान क्षेत्र को अवगाढ कर अतिक्रमण करते हैं, अनवगाढ कर अतिक्रमण नहीं करते। भगवन् ! क्या वे गम्यमान क्षेत्र का अनन्तरावगाढ–अव्यवधानाश्रित–व्यवधानरहितअव्यवहित रूप में अतिक्रमण करते हैं या परम्परावगाढ–व्यवधानयुक्त-व्यवहित रूप में अतिक्रमण करते हैं ? गौतम ! वे उस क्षेत्र का अव्यवहित रूप में अवगाहन करके अतिक्रमण करते हैं, व्यवहित रूप में अवगाहन करके अतिक्रमण नहीं करते। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र भगवन् ! क्या वे अणुरूप-सूक्ष्म अनन्तरावगाढ क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं या बादररूपस्थूल अनन्तरावगाढ क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं ? . गौतम ! वे अणुरूप --सूक्ष्म अनन्तरावगाढ क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं तथा बादररूपस्थूल अनन्तरावगाढ क्षेत्र का भी अतिक्रमण करते हैं / भगवन् ! क्या वे अणुबादररूप ऊर्ध्व क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं या अध:क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं या तिर्यक् क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं ? गौतम ! वे अणु बादररूप ऊर्ध्व क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं, अधःक्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं और तिर्यक् क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं-तीनों क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं। भगवन् ! क्या वे साठ मुहूर्त प्रमाण मण्डलसंक्रमणकाल के आदि में गमन करते हैं या मध्य में गमन करते हैं या अन्त में गमन करते हैं ? गौतम ! वे आदि में भी गमन करते हैं, मध्य में भी गमन करते हैं तथा अन्त में भी गमन करते हैं। भगवन् ! क्या वे स्वविषय में अपने उचित स्पष्ट-अवगाढ-अनन्तरावगाढ रूप क्षेत्र में गमन करते हैं या अविषय में-अनुचित विषय में अस्पृष्ट-अनवगाढ-परम्परावगाढ क्षेत्र में गमन करते हैं ? गौतम ! वे स्पृष्ट-अवगाढ-अनन्तरावगाढ रूप उचित क्षेत्र में गमन करते हैं, अस्पृष्ट-अनवगाढ-परम्परावगाढ रूप अनुचित क्षेत्र में गमन नहीं करते / भगवन् ! क्या वे अानुपूर्वीपूर्वक-क्रमशः आसन्न क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं या अनानुपूर्वीपूर्वक-क्रमश: अनासन्न क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं ? गौतम ! वे प्रानुपूर्वीपूर्वक-क्रमशः अासन्न क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं, अनानुपूर्वीपूर्वकक्रमशः अनासन्न क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करते। भगवन् ! क्या वे एक दिशा का-एक दिशाविषयक क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं या छह दिशानों का-छह दिशाविषयक क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं ? गौतम ! वे नियमतः छह दिशाविषयक क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं। इस प्रकार वे अवभासित होते हैं-ईषत्-थोड़ा-किञ्चित् प्रकाश करते हैं, जिसमें स्थूलतर वस्तुएं दीख पाती हैं। भगवन् ! क्या वे सूर्य उस क्षेत्र रूप वस्तु को स्पर्श कर प्रकाशित करते हैं या उसका स्पर्श किये बिना ही प्रकाशित करते हैं ? प्रस्तुत प्रसंग चौथे उपांग प्रज्ञापनासूत्र के 28 वें आहारपद से स्पृष्टसूत्र, अवगाढसूत्र, अनन्तरसूत्र, अणु-बादर-सूत्र, ऊर्ध्व-अधःप्रभृतिसूत्र, प्रादि-मध्यावसानसूत्र, विषयसूत्र, प्रानुपूर्वीसूत्र, षड्दिश् सूत्र आदि के रूप में विस्तार से ज्ञातव्य है। ___ इस प्रकार दोनों सूर्य छहों दिशाओं में उद्योत करते हैं, तपते हैं, प्रभासित होते हैं--प्रकाश करते हैं। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सफाम वक्षस्कार] [337 171. जम्बुद्दीवे णं भंते ! दोघे सूरित्राणं कि तोते खित्ते किरिया कज्जइ, पडुप्पण्णे किरिमा कम्जइ, अणागए किरिआ कज्जइ ? गोयमा ! णो तीए खित्ते किरिश्रा कज्जइ, पडुप्पण्णे कज्जइ, णो प्रणागए। सा भंते ! कि पुट्ठा कज्जइ० ? गोयमा ! पुट्ठा, णो प्रणापुट्ठा कज्जइ। (.."सा णं भंते ! कि प्राइं किज्जइ, मज्झे किज्जइ, पज्जवसाणे किज्जइ ? गोयमा ! आइंपि किज्जइ मज्झवि किज्जइ पज्जवसाणेवि किज्जइ त्ति) णिअया छद्दिसि / / [171] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्यों द्वारा अवभासन आदि क्रिया क्या अतीत क्षेत्र में की जाती है या प्रत्युत्पन्न-वर्तमान क्षेत्र में की जाती है अथवा अनागत क्षेत्र में की जाती है ? गौतम ! अवभासन आदि क्रिया अतीत क्षेत्र में नहीं की जाती, प्रत्युत्पन्न-वर्तमान क्षेत्र में की जाती है / अनागत क्षेत्र में भी क्रिया नहीं की जाती। __ भगवन् ! क्या सूर्य अपने तेज द्वारा क्षेत्र-स्पर्शन पूर्वक-क्षेत्र का स्पर्श करते हुए अवभासन आदि क्रिया करते हैं या स्पर्श नहीं करते हुए अवभासन आदि क्रिया करते हैं ? (गौतम ! वे क्षेत्र-स्पर्शनपूर्वक अवभासन आदि क्रिया करते हैं क्षेत्र का स्पर्श नहीं करते हुए अवभासन आदि क्रिया नहीं करते / ___भगवन् ! वह अवभासन आदि क्रिया साठ मुहूर्तप्रमाण मण्डलसंक्रमणकाल के आदि में की जाती है या मध्य में की जाती है या अन्त में की जाती है ? ___गौतम ! वह आदि में भी की जाती है, मध्य में भी की जाती है और अन्त में भी की जाती है।) वह नियमतः छहों दिशाओं में की जाती है। ऊर्ध्वादि ताप 172. जम्बुद्दोवे गं भंते ! दीये सरिआ केवइ खेत्तं उद्धं तवयन्ति अहे तिरिसंच? गोयमा ! एगं जोअणसयं उद्ध तवयन्ति, अट्ठारससयजोनणाई अहे तवयन्ति, सीयालीसं जोश्रणसहस्साई दोणि अ तेवढे जोअणसए एगवीसं च सद्विभाए जोअणस्स तिरिनं तवयन्तित्ति 13 / [172] भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्य कितने क्षेत्र को ऊर्ध्वभाग में अपने तेज से तपाते हैंव्याप्त करते हैं ? अधोभाग में नीचे के भाग में तथा तिर्यक भाग में तपाते हैं ? गौतम ! ऊर्ध्वभाग में 100 योजन क्षेत्र को, अधोभाग में 1800 योजन क्षेत्र को तथा तिर्यक् भाग में 4726330 योजन क्षेत्र को अपने तेज से तपाते हैं व्याप्त करते हैं। ऊवोपन्नादि 173. अंतो णं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिमसूरिअगहगणणक्खत्ततारारूवा णं भन्ते ! देवा किं उद्घोषवण्णगा कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, चारदिईआ, गइरइआ, गइसमावण्णगा ? Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338] जिम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! अंतो णं माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चन्दिमसूरिप्र-(गहगणणक्खत्त)-ताराहवे ते नं देवा णो उद्धोववण्णगा णो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, जो चारदुिईमा, गइरइआ गइसमावण्णगा। ___ उद्धीमुहकलंबुनापुटफसंठाणसंठिएहि, जोअणसाहस्सिएहि तावखेहि साहस्सिाहि वेउरिवप्राहिं वाहिरहिं परिसाहिं महयाहयणगीयवाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडुप्पवाइमरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुजमाणा महया उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं अच्छं पव्वयरायं पयाहिणावत्तमण्डलचारं मेरु अणुपरिप्रति 14 / / [173] भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वतवर्ती चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र एवं तारे—ये ज्योतिष्क देव क्या ऊवोपपन्न हैं—सौधर्म आदि बारह कल्पों से ऊपर ग्रे वेयक तथा अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हैं- क्या कल्पातीत हैं ? क्या वे कल्पोपपन्न हैं-ज्योष्तिक देव-सम्बद्ध विमानों में उत्पन्न हैं ? क्या वे चारोपपन्न हैं-मण्डल गतिपूर्वक परिभ्रमण से युक्त हैं ? क्या वे चारस्थितिक गत्यभावयुक्त हैं—परिभ्रमणरहित हैं ? क्या वे गतिरतिक हैं—गति में रति-आसक्ति या प्रीति लिये हैं ? क्या गति समापन्न हैंगतियुक्त हैं ? गौतम ! मानुषोत्तर पर्वतवर्ती चन्द्र, सूर्य, (ग्रह, नक्षत्र) तारे-ज्योतिष्क देव ऊोपपन्न नहीं हैं, कल्पोपपन्न नहीं हैं / वे विमानोत्पन्न हैं, चारोपपन्न हैं, चारस्थितिक नहीं हैं, गतिरतिक हैं, गतिसमापन्न हैं। ऊर्ध्वमुखी कदम्ब पुष्प के आकार में संस्थित सहस्रों योजनपर्यन्त चन्द्रसूर्यापेक्षया तापक्षेत्र युक्त, वैक्रियलब्धियुक्त-नाना प्रकार के विकुर्वितरूप धारण करने में सक्षम, नाटय, गीत, वादन आदि में निपुणता के कारण आभियोगिक कर्म करने में तत्पर, सहस्रों बाह्य परिषदों से संपरिक्त वे ज्योतिष्क देव नाटय-गीत-वादन रूप त्रिविध संगीतोपक्रम में जोर जोर से बजाये जाते तन्त्री-तल-तालश्रुटित-घन-मृदंग-इन वाद्यों से उत्पन्न मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोग भोगते हुए, उच्च स्वर से सिंहनाद करते हुए, मुंह पर हाथ लगाकर जोर से पूत्कार करते हुए सीटी की ज्यों ध्वनि करते हुए, कलकल शब्द करते हुए अच्छ-जाम्बूनद जातीय स्वर्णयुक्त तथा रत्नबहुल होने से अतीव निर्मल, उज्ज्वल मेरु पर्वत की प्रदक्षिणावर्त मण्डल गति द्वारा प्रदक्षिणा करते रहते हैं। विवेचन--मानुषोत्तर पर्वत-मनुष्यों की उत्पत्ति, स्थिति तथा मरण आदि मानुषोत्तर पर्वत से पहले पहले होते हैं, आगे नहीं होते, इसलिए उसे मानुषोत्तर कहा जाता है। विद्या आदि विशिष्ट शक्ति के अभाव में मनुष्य उसे लांघ नहीं सकते, इसलिए भी वह मानुषोत्तर कहा जाता है। प्रदक्षिणावर्त मण्डल ___ सब दिशाओं तथा विदिशानों में परिभ्रमण करते हुए चन्द्र आदि के जिस मण्डलपरिभ्रमण रूप आवर्तन में मेरु दक्षिण में रहता है, वह प्रदक्षिणावर्त मण्डल कहा जाता है / इन्द्रच्यवन : अन्तरिम व्यवस्था 174. तेसि णं भंते ! देवाणं जाहे इंदे चुए भवइ, से कहमियाणि पकरेंति ? Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [339 गोयमा! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिमा देवा तं ठाणं उपसंपज्जित्ता णं विहरंति जाव तत्थ अण्णे इंवे उववण्णे भवह। इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइअं कालं उववाएणं विरहिए ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं छम्मासे उववाएणं विरहिए। बहिना णं भंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चंदिम-(सूरिअ-गहगण-णक्खत्त-) तारारूवातं चेव अव्वं णाणत्तं विमाणोववष्णगा णो चारोववष्णगा, चारठिईआ णो गइरइया णो गइसमावण्णगा। पक्किट्ठग-संठाण-संठिएहि जोअण-सय-साहस्सिएहिं तावखित्तेहि सय-साहस्सिआहि वेउन्विआहिं बाहिराहि परिसाहि महया हयणट्ट (गोमवाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडुप्पवाइअरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई) भुजमाणा सुहलेसा मंदलेसा मंदातवलेसा चित्तंतरलेसा अण्णोण्णसमोगाढाहि लेसाहि कूडाविव ठाणठिा सम्वनो समन्ता ते पएसे प्रोभासंति उज्जोति पभा तित्ति। तेसि णं भंते ! देवाणं जाहे इंदे चुए से कहमियाणि पकरेन्ति (गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिआ देवा तं ठाणं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति जाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ / इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइअं कालं उववाएणं विरहिए ? गोयमा !) जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा इति / [174] भगवन् ! उन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र जब च्युत (मृत) हो जाता है, तब इन्द्रविरहकाल में देव कसा करते हैं-किस प्रकार काम चलाते हैं ? गौतम ! जब तक दूसरा इन्द्र उत्पन्न नहीं होता, तब तक चार या पांच सामानिक देव मिल कर इन्द्र-स्थान का परिपालन करते हैं-स्थानापन्न के रूप में कार्य-संचालन करते हैं। भगवन् ! इन्द्र का स्थान कितने समय तक नये इन्द्र की उत्पत्ति से विरहित रहता है ? गौतम ! वह कम से कम एक समय तथा अधिक से अधिक छह मास तक इन्द्रोत्पत्ति से विरहित रहता है। भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वत के बहिर्वर्ती चन्द्र (सूर्य, ग्रह, नक्षत्र एवं) तारे रूप ज्योतिष्क देवों का वर्णन पूर्वानुरूप जानना चाहिए / इतना अन्तर है-वे विमानोत्पन्न हैं, किन्तु चारोपपन्न नहीं है / वे चारस्थितिक हैं, गतिरतिक नहीं हैं, गति-समापन्न नहीं हैं। पकी ईंट के आकार में संस्थित, चन्द्रसूर्यापेक्षया लाखों योजन विस्तीर्ण तापक्षेत्रयुक्त, नानाविध विकवित रूप धारण करने में सक्षम, लाखों बाह्य परिषदों से संपरिक्त ज्योतिष्क देव (नाटयगीत-वादन रूप त्रिविध संगीतोपक्रम में जोर जोर से बजाये जाते (तन्त्री-तल-ताल-श्रुटित-घन-मृदंग इन) वाद्यों से उत्पन्न मधुर ध्वनि के आनन्द के साथ दिव्य भोग भोगने में अनुरत, सुखलेश्यायुक्त-' शीतकाल की सी कड़ी शीतलता से रहित, प्रियकर, सुहावनी शीतलता से युक्त, मन्दलेश्यायुक्त 1. चन्द्रों के लिए। 2. सूर्यों के लिए। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र ग्रीष्मकाल की तीव्र उष्णता से रहित, मन्द आतप रूप लेश्या से युक्त, विचित्र-विविधलेश्यायुक्त, परस्पर अपनी अपनी लेश्याओं द्वारा अवगाढ-मिलित, पर्वत की चोटियों की ज्यों अपने अपने स्थान में स्थित, सब ओर के अपने प्रत्यासन्न-समीपवर्ती प्रदेशों को अवभासित करते हैं-आलोकित करते हैं, उद्योतित करते हैं, प्रभासित करते हैं। भगवन् ! जब मानुषोत्तर पर्वत के बहिर्वर्ती इन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र च्युत होता है तो वे अपने यहाँ कैसी व्यवस्था करते हैं ? गौतम ! जब तक नया इन्द्र उत्पन्न नहीं होता तब तक चार या पांच सामानिक देव परस्पर एकमत होकर, मिलकर इन्द्र-स्थान का परिपालन करते हैं-स्थानापन्न के रूप में कार्य-संचालन करते हैं--व्यवस्था करते हैं / भगवन् ! इन्द्र-स्थान कितने समय तक इन्द्रोत्पत्ति से विरहित रहता है ? गौतम ! वह कम से कम एक समय पर्यन्त तथा अधिक से अधिक छः मास पर्यन्त इन्द्रोत्पत्ति से विरहित रहता है / चन्द्र-मण्डल : संख्या : अबाधा आदि 175. कइ णं भंते ! चंद-मण्डला पण्णता? गोयमा ! पण्णरस चंद-मण्डला पण्णत्ता। जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवअइं प्रोगाहित्ता केवइया चन्द-मण्डला पण्णत्ता? गोयमा ! जम्बुद्दीवे 2 असीयं जोप्रण-सयं प्रोगाहित्ता पंच चन्द-मण्डला पण्णत्ता। लवणे णं भंते पुच्छा ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तिणि तोसे जोमण-सए ओगाहित्ता एत्थ पं दस चन्द-मण्डला पण्णत्ता। एवामेव सपुब्वावरेणं जम्बुद्दीवे दोवे लवणे य समुद्दे पण्णरस चन्द-मण्डला भवन्तीतिमक्खायं / [175] भगवन् ! चन्द्र-मण्डल कितने बतलाये गये हैं ? गौतम ! चन्द्र-मण्डल 15 बतलाये गये हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने क्षेत्र का अवगाहन कर कितने चन्द्र-मण्डल हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में 180 योजन क्षेत्र का अवगाहन कर पांच चन्द्र-मण्डल हैं, ऐसा बतलाया गया है। भगवन् ! लवण समुद्र में कितने क्षेत्र का अवगाहन कर कितने चन्द्र-मण्डल हैं ? गौतम ! लवण समुद्र में 330 योजन क्षेत्र का अवगाहन कर दस चन्द्र-मण्डल हैं। यों जम्बूद्वीप तथा लवण समुद्र के चन्द्र-मण्डलों को मिलाने से कुल 15 चन्द्र-मप्डल होते हैं। ऐसा बतलाया गया है। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [341 सप्तम वक्षस्कार 176. सव्वम्भंतरानो णं भंते ! चंद-मण्डलाओ णं केवइयाए अबाहाए सव्व-बाहिरए चंदमंडले पण्णते? गोयमा ! पंचदसुत्तरे जोअण-सए अबाहाए सम्व-बाहिरए चंद-मंडले पण्णत्ते। [176] भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल से सर्वबाह्य चन्द्र-मण्डल अबाधित रूप में कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! सर्वाभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल से सर्वबाह्य चन्द्र-मण्डल अबाधित रूप में 510 योजन की दूरी पर बतलाया गया है। 177. चंद-मंडलस्स णं भंते ! चंद-मंडलस्स केवइआए प्रबाहाए अंतरे पण्णते? गोयमा ! पणतीसं 2 जोषणाई तीसं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए चंद-मंडलस्स चंद-मंडलस्स अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। [177] भगवन् ! एक चन्द्र-मण्डल का दूसरे चन्द्र-मण्डल से कितना अन्तर है-कितनी दूरी है ? गौतम! एक चन्द्र-मण्डल का दूसरे चन्द्र-मण्डल से 3530 योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजत के एक भाग के सात भागों में चार भाग योजनांश परिमित अन्तर है। 178. चंद-मंडले णं भंते ! केवहां आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं केवइयं बाहल्लेणं पण्णते? __ गोयमा ! छप्पण्णं एगसद्विभाए जोअणस्स पायाम-विक्खम्भेणं, तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवेणं, अट्ठावीसं च एगसट्ठिभाए जोत्रणस्स बाहल्लेणं / ___ [178] भगवन् ! चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई, परिधि तथा ऊँचाई कितनी बतलाई गई है? गौतम ! चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 6 योजन, परिधि उससे कुछ अधिक तीन गुनी तथा ऊँचाई 3 योजन बतलाई गई है। 176. जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्य केवइपाए प्रबाहाए सव्वन्भंसरए चन्द-मण्डले पण्णते ? गोयमा! चोप्रालीसं जोपण-सहस्साइं अट्ठ य वीसे जोअण-सए अबाहाए सव्वम्भन्तरे चन्दमण्डले पण्णते। नम्बुद्दीवे 2 मन्दरस्स पव्ययस्स केवइपाए अबाहाए अभंतराणन्तरे चन्द-मण्डले पण्णत्ते? __ गोयमा! चोआलीसं जोअण-सहस्साइं अट्ठ य छप्पणे जोपण-सए पणवीसं च एगसट्ठिभाए जोमणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए अबाहाए अभंतराणन्तरे चन्द-मण्डले पण्णते। For Private & Personal use only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342] जिम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र जम्बुद्दोवे दीवे मन्दरस्स पध्वयस्स केवइमाए प्रवाहाए अभंतरतच्चे मण्डले पण्णते? गोयमा ! चोप्रालीसं जोअण-सहस्साइं अट्ठ य वाणउए जोपण-सए एगायण्णं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता एगं चुण्णिाभागं प्रवाहाए अभंतरतच्चे मण्डले पण्णत्ते। एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चंदे तयाणन्तरामो मण्डलानो तयाणन्तरं मण्डलं संकममाणे 2 छत्तीसं छत्तीसं जोअणाई पणवीसं च एगसट्ठिभाए जोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए एगमेगे मण्डले अबाहाए बुद्धि अभिवद्धमाणे 2 सम्वबाहिरं मण्डलं उथसंकमित्ता चारं चरइ। जम्बुद्दीवे दोवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइमाए अबाहाए सब्वबाहिरे चंद-मण्डले पण्णते? पणयालीसं जोअण-सहस्साई तिण्णि अ तीसे जोमण-सए प्रबाहाए सव्वबाहिरए चंद-मण्डले पण्णत्ते। जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए बाहिराणन्तरे चंद-मण्डले पण्णते ? गोयमा ! पणयालीस जोपण-सहस्साई दोणि अ तेणउए जोअण-सए पणतीसं च एगसहिभाए जोअणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता तिणि चुण्णिाभाए प्रबाहाए बाहिराणन्तरे चंदमण्डले पण्णत्ते। जम्बुद्दीवे दीवे मन्दरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए बाहिरतच्चे चंदमण्डले पण्णते? गोयमा ! पणयालीसं जोप्रण-सहस्साई दोण्णि प्रसत्तावण्णे जोपण-सए णव य एगसद्विभाए नोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता छ चुण्णिाभाए अबाहाए बाहिरतच्चे चंदमण्डले पणत्ते। एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चंदे तयाणन्तराओ मण्डलामो तयाणन्तरं मण्डलं संकममाणे 2 छत्तीसं 2 जोअणाई पणवीसं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता चत्तारि चुण्णिाभाए एगमेगे मण्डले अबाहाए वुद्धि णिवुद्धमाणे 2 सव्वन्भंतरं मण्डलं उपसंकमित्ता चारं [179] भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वाभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वाभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल 44820 योजन की दूरी पर बतलाया गया है। भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से दूसरा प्राभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से दूसरा आभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल 448561 योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 7 भागों में से 4 भाग योजनांश की दूरी पर बतलाया गया है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [343 भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से तीसरा प्राभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से तीसरा आभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल 4489211 योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 7 भागों में से 1 भाग योजनांश की दूरी पर बतलाया गया है। इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ चन्द्र पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ एक-एक मण्डल पर 361 योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजन के 7 भागों में से 4 भाग योजनांश की अभिवृद्धि करता हुआ सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है / भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वबाह्य चन्द्र-मण्डल कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वबाह्य चन्द्र-मण्डल 45330 योजन की दूरी पर बतलाया गया है। भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से दूसरा बाह्य चन्द्र-मण्डल कितनी दूरी पर बलताया गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से दूसरा बाह्य चन्द्र-मण्डल 4526315 योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 7 भागों में से 3 भाग योजनांश की दूरी पर बतलाया गया है। भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से तीसरा बाह्य चन्द्र-मण्डल कितनी दूरी पर बतालाया गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से तीसरा बाह्य चन्द्र-मण्डल 452571 योजन तथा 61 भागों से विभक्त एक योजन के एक भाग के 7 भागों में से 6 भाग योजनांश की दूरी पर बतलाया गया है। इस क्रम से प्रवेश करता हुआ चन्द्र पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ एकएक मण्डल पर 3635 योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 7 भागों में से 4 भाग योजनांश की वृद्धि में कमी करता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। चन्द्र-मण्डलों का विस्तार 180. सव्वम्भंतरे णं भन्ते ! चंदमंडले केवइअं पायामविक्खम्भेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! णवणउई जोअणसहस्साई छच्चचत्ताले जोपणसए पायामविक्खम्भेणं, तिणि प्र जोअणसयसहस्साइं पण्णरस जोनणसहस्साई अउणाणति च जोषणाई किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णते। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अम्भन्तराणंतरे सा चेव पुच्छा। गोयमा! णवणउई जोपणसहस्साई सत्त य बारसुत्तरे जोअणसए एगावणं च एगसटिभागे जोअणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छत्ता एगं चुण्णिाभागं पायामविक्खम्भेणं, तिणि अ जोअणसयसहस्साई पन्नरसहस्साई तिणि अ एगणवीसे जोअणसए किचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं / अब्भन्तरतच्चे णं (चन्दमण्डले केवइअंपायामविक्खम्भेणं केवइ परिक्खेवेणं) पण्णते। गोयमा ! णवणउई जोप्रणसहस्साई सत्त य पञ्चासोए जोअणसए इगतालीसं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता दोणि प्र चुण्णिाभाए आयामविक्खम्भेणं, तिणि अ जोअणसयसहस्साई पण्णरस जोअणसहस्साई पंच य इगुणापण्णे जोअणसए किचिविसेसाहिए परिक्खेवेणंति। एवं खलु एएणं उवाएगं णिक्खममाणे चंदे (तयाणन्तरामो मंडलामो तयाणंतरं मंडलं) संकममाणे 2 बावरि 2 जोअणाई एगावण्णं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता एगं च चुण्णिाभागं एगमेगे मंडले विक्खम्भवुद्धि अभिवद्धेमाणे 2 दो दो तीसाइं जोअणसयाई परिरयबुद्धि अभिवद्धमाणे 2 सव्वबाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ / सव्वबाहिरए णं भन्ते ! चन्दमण्डले केवइ प्रायामविवखम्भेणं, केवइअंपरिक्खेवेणं पण्णते ? गोयमा ! एगं जोनणसयसहस्सं छच्च सट्टे जोअणसए आयामविक्खम्भेणं, तिणि प्र जोपणसयसहस्साई अट्ठारस सहस्साई तिणि प्र पण्णरसुत्तरे जोपणसए परिक्खेवेणं / बाहिराणन्तरे णं पुच्छा ? गोयमा ! एगं जोअणसयसहस्सं पञ्च सत्तासीए जोप्रणसए णव य एगसट्ठिभाए जोप्रणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता छ चुण्णिाभाए आयामविक्खम्भेणं, तिण्णि प्रजोअणसयसहस्साई अट्ठारस सहस्साई पंचासीइं च जोषणाई परिक्खेवेणं। बाहिरतच्चे णं भन्ते ! चन्दमण्डले केवइ आयामविक्खम्भेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते? गोयमा? एगं जोअणसयसहस्सं पंच य चउदसुत्तरे जोपणसए एगूणवीसं च एगसट्ठिभाए जोअणस्स एगसट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता पंच चुण्णिाभाए पायामविक्खम्भेणं, तिण्णि अ जोमणसयसहस्साई सत्तरस सहस्साइं अट्ठ य पणपण्णे जोअणसए परिक्खेवेणं / एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चन्दे जाव' संकममाणे 2 बावरि 2 जोषणाई एगावणं च एगसद्विभाए जोमणस्स एगसद्विभागं च सत्तहा छेत्ता एगं चुण्णिाभागं एगमेगे मण्डले विक्खम्भबुद्धि णिन्वुद्धमाणे 2 दो दो तीसाइं जोअणसयाई परिरयवृद्धि णिबुद्धमाणे 2 सम्वन्भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। 1. देखें सूत्र यही। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [345 [180] भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! सर्वाभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल को लम्बाई-चौड़ाई 66640 योजन तथा उसको परिधि कुछ अधिक 315086 योजन बतलाई गई है। भगवन् ! द्वितीय आभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल' को लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गौतम ! द्वितीय आभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 6971240 योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 7 भागों में से 1 भाग योजनांश तथा उसको परिधि कुछ अधिक 315316 योजन बतलाई गई है। भगवन् ! तृतीय पाभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गौतम ! तृतीय प्राभ्यन्तर चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 667851, योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 7 भाग में से 2 भाग योजनांश एवं उसको परिधि कुछ अधिक 315546 योजन बतलाई गई है। ___ इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ चन्द्र (एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर संक्रमण करता हुआ) प्रत्येक मण्डल पर 7210 योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 7 भागों में से 1 भाग योजनांश विस्तारवृद्धि करता हुअा तथा 230 योजन परिधिवृद्धि करता हुअा सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। भगवन् ! सर्वबाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! सर्वबाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 100660 योजन तथा उसकी परिधि 318315 योजन बतलाई गई है। __ भगवन् ! द्वितीय बाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गई है? गौतम ! द्वितीय बाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 10058761 योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 7 भागों में से 6 भाग योजनांश तथा उसकी परिधि 3. योजन बतलाई गई है। भगवन् ! तृतीय बाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! तृतीय बाह्य चन्द्र-मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई 10051416 योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 7 भागों में से 5 भाग योजनांश तथा उसको परिधि 317855 योजन बतलाई गई है। इस क्रम से प्रवेश करता हग्रा चन्द्र पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता ह प्रत्येक मण्डल पर 7210 योजन तथा 61 भागों में विभक्त एक योजन के एक भाग के 7 भागों में Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्मूदीपप्रज्ञप्तिसून से 1 भाग योजनांश विस्तारवृद्धि कम करता हुआ तथा 230 योजन परिधिवृद्धि कम करता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। चन्द्र मुहूर्तगति 181. जया णं भन्ते ! चन्दे सम्वन्भन्तरमण्डलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं एगमेगेणं मुहत्तेणं केवइ खेत्तं गच्छइ ? गोयमा! पंच जोश्रणसहस्साइं तेवतरि च जोणाई सत्तरि च चोप्राले भागसए गच्छइ, मण्डलं तेरसहि सहस्सेहि सत्तहि अ पणवीसेहि सरहिं छेत्ता इति / तया णं इहगयस्स (मणूसस्स सोप्रालीसाए जोअणसहस्सेहि दोहि अ तेवढेहि जोअणएहिं एगवीसाए असटिभाएहि जोअणस्स चन्दे चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ। जया भन्ते ! चन्दे अन्भन्तराणन्तरं मण्डलं उबसंकमित्ता चारं चरइ (तया णं एगमेगेणं मुहत्तेणं) केवइग्रं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा! पंच जोश्रणसहस्साई सत्तरि च जोषणाई छत्तीसं च चोप्रत्तरे भागसए गच्छइ मण्डलं तेरसहिं सहस्से हिं (सत्तहि अपणवीसेहिं सहि) छेत्ता। जया णं भन्ते ! चन्दे अभंतरतच्चं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहत्तणं केवइअं खेत्तं गच्छइ? गोयमा ! पंच जोअणसहस्साईप्रसीइंच जोअणाई तेरस य भागसहस्साई तिष्णि प्र एगणवीसे भागसए गच्छइ, मण्डलं तेरसहि (सहस्सेहि सत्तहि अ पणवीसेहिं सहि) छत्ता इति / एवं खलु एएणं उवाएणं णिवखममाणे चन्दे तयाणन्तरानो (मण्डलामो तयाणन्तरं मण्डलं) संकममाणे 2 तिष्णि 2 जोअणाई छण्णउई च पंचावण्णे भागसए एगमेगे मण्डले मुहत्तगई अभिवढेमाणे 2 सन्चबाहिरं मण्डलं उक्संकमित्ता चारं चरइ। जया णं भन्ते ! चन्दे सम्बबाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहत्तेणं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा! पंच जोअणसहस्साई एगं च पणवीसं जोश्रणसयं अउणरि च गउए भागसए गच्छइ मण्डलं तेरसहि भागसहस्सेहिं सत्तहि प्र (पणवीसेहिं सएहिं) छेत्ता इति / तया णं इहगयस्स मणूसस्स एक्कतीसाए जोप्रणसहस्सेहि अहि अ एगत्तीसेहि जोअणसएहि चन्दे चक्खुप्फासं हव्वामागच्छइ। जया णं भन्ते ! बाहिराणन्तरं पुच्छा ? गोयमा! पंच जोग्रणसहस्साई एक्कं च एकवीसं जोअणसयं एषकारस य सट्टे भागसहस्से गच्छइ मण्डलं तेरसहिं जाव' छेत्ता। 1. देखें सूत्र यही। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] 1347 जया गं भन्ते ! बाहिरतच्चं पुच्छा ? गोयमा ! पंच जोअणसहस्साई एगं च अट्ठारसुत्तरं जोपणसयं चोद्दस य पंचत्तुरे भागसए गच्छह मण्डलं तेरसहि सहस्सेहि सहि पणवीसेहि सएहि छेत्ता। एवं खलु एएणं उवाएणं (णिक्खममाणे चन्वे तयाणन्तरामो मण्डलाओ तयाणन्तरं मण्डलं) संक्रममाणे 2 तिग्णि 2 जोषणाई छण्णउति च पंचावण्णे भागसए एगमेगे मण्डले मुहुत्तगई णिवुद्धमाणे 2 सम्वन्भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ / [181] भगवन् ! जब चन्द्र सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब वह प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है ? गौतम ! वह प्रतिमुहूर्त 5073 / 4 योजन क्षेत्र पार करता है / तब वह (चन्द्र) यहाँ-भरतार्ध क्षेत्र में स्थित मनुष्यों को 4726330 योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। भगवन् ! जब चन्द्र दूसरे प्राभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब (प्रतिमुहूर्त) कितना क्षेत्र पार करता है ? गौतम ! तब वह प्रतिमुहूर्त 50773 योजन क्षेत्र पार करता है / भगवन् ! जब चन्द्र तीसरे प्राभ्यन्तर मण्डल का असंक्रमण कर गति करता है, तब वह प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है ? गौतम ! तब वह प्रतिमुहूर्त 5080133% योजन क्षेत्र पार करता है / इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ चन्द्र (पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ) प्रत्येक मण्डल पर 3615, मुहूर्त-गति बढ़ाता हुअा सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। भगवन् ! जब चन्द्र सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब वह प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है ? गौतम ! वह 51251 योजन क्षेत्र पार करता है। तब यहां स्थित मनुष्यों को वह (चन्द्र) 31831 योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। भगवन् ! जब चन्द्र दूसरे बाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब वह प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है ? गौतम! वह प्रतिमुहूर्त 51213 योजन क्षेत्र पार करता है / भगवन् ! जब चन्द्र तीसरे बाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करता है ? गौतम ! तब वह प्रतिमुहूर्त 511815 योजन क्षेत्र पार करता है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र इस क्रम से (निष्क्रमण करता हुआ, पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल पर) संत्रमण करता हुआ चन्द्र एक-एक मण्डल पर 3 ग्रोजन मुहूर्त-गति कम करता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। नक्षत्र-मण्डलादि 182. कइणं भन्ते ! जवखत्तमण्डला पण्णत्ता? गोयमा ! अढ णक्खत्तमण्डला पण्णत्ता। जम्बुद्दीवे दोवे केवइयं प्रोगाहित्ता केवइआ णवखत्तमण्डला पणत्ता? गोयमा ! जम्बुद्दीवे दीवे असीअं जोअगसयं प्रोगाहेत्ता एस्थ णं दो गवखत्तमण्डला पणत्ता। लवणे णं समुद्दे केवइअं प्रोगाहेत्ता केवइया गवखत्तमण्डला पण्णत्ता? / गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तिष्णि तोसे जोअणसए प्रोगाहित्ता एत्थ णं छ णवखत्तमण्डला पण्णत्ता। एवामेव सपुध्वावरेणं जम्बुद्दीवे दोवे लवणसमुद्दे अट्ठ णवखत्तमण्डला भवंतीतिमक्खायमिति / सबभंतराओ णं भन्ते ! गवखत्तमण्डलाओ केतइमाए प्रवाहाए सवबाहिरए गयखत्तमण्डले पण्णते? गोयमा ! पंचदसुत्तरे जोश्रणसए अबाहाए सध्वबाहिरए णवखत्तमण्डले पण्णत्ते इति / णक्खत्तमण्डलस्स णं भन्ते ! णवखत्तमण्डलस्स य एस णं केवइयाए प्रबाहाए अंतरे पप्णत्ते ? गोयमा ! दो जोअणाई णवखत्तमण्डलस्स य णवखत्तमण्डलस्स य प्रबाहाए अंतरे पण्णत्ते। णक्खत्तमण्डले णं भन्ते ! केवइ आयामविषखम्भेणं केवइग्रं परिवखेवणं केवइनं बाहल्लेणं पण्णते ? गोयमा ! गाउअं आयामविवखम्भेणं, तंतिगुणं सविसेसं परिषखेवेणं, अद्धगाउअंबाहल्लेणं पष्णत्ते / जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे मन्दरस्स पब्वयस्स केवइयाए अबाहाए सम्वन्भंतरे णवखत्तमण्डले पण्णते ? गोयमा ! चोयालीसं जोअणसहस्साई अट्ठ य वीसे जोअणसए अबाहाए सव्वभंतरे णवखत्तमण्डले पण्णत्ते इति / जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे मन्द रस्स पब्वयस्स केवइयाए अबाहाए सब्बबाहिरए णवखत्तमण्डले पण्णते? गोयमा ! पणयालीसं जोअणसहस्साई तिष्णि अ तीसे जोअणसए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमण्डले पण्णत्ते इति / सम्वभंतरे णक्खत्तमण्डले केवइअंपायामविवखम्भेणं, केवइअं परिवखेवेणं पण्णते ? गोयमा ! णवणति जोत्रणसहस्साई छच्चचत्ताले जोअणसए पायामविवखम्भेणं, तिष्णि अ जोअणसयसहस्साइं पण्णरस सहस्साई एगूणणति च जोप्रणाइं किंचिविसेसाहिए परिवखेवेणं पणत्ते। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [349 .. सव्वबाहिरए णं भंते ! नवखत्तमण्डले केवइअं प्रायामविक्खम्भेणं केवइ परिक्खेवेणं पण्णते? गोयमा ! एगं जोमणसयसहस्सं छच्च सट्टे जोग्रणसए आयामविक्खम्भेणं तिणि प्रजोत्रणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साइंतिप्णि अपण्णरसुत्तरे जोप्रणसए परिक्खेवेणं / जया णं भन्ते ! णक्खत्ते सव्वन्भंतरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहत्तेणं केवइ खेत्तं गच्छइ? गोयमा ! पंच जोअणसहस्साई दोणि य पाणठे जोअगसए अट्ठारस य भागसहस्से दोष्णि प्रतेवढे भागसए गच्छइ मण्डलं एक्कवीसाए भागसहस्सेहि गवाह अ सट्ठेहि सएहि छेत्ता। जया णं भन्ते ! णखत्ते सच्चबाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइ खेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंच जोअणसहस्साई तिणि अएगूणवीसे जोत्रणसए सोलस य भागसहस्सेहिं तिणि प्र पण्णठे भागसए गच्छइ, मण्डलं एगवीसाए भागसहस्सेहिं गवहि अ सङ्केहि सरहिं छेत्ता। एते गं भन्ते ! अट्ट णवखतमण्डला कतिहि चंदमण्डलेहि समोअरंति ? गोयमा ! अहिं चंदमण्डलेहि समोअरंति, तंजहा–पढमे चंदमण्डले, ततिए, छठे, सत्तमे, प्रढमे, दसमे, इक्कारसमे, पण्ण रसमे चंदमण्डले। एगमेगेणं भन्ते ! मुत्तेणं केवइबाई भागसयाई गच्छइ ? गोयमा! जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स 2 मण्डलपरिक्खेवरस सत्तरस अट्ठसठे भागसए गच्छइ, मण्डलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउइए असएहिं छत्ता इति / एगमेगेणं भन्ते ! मुहुत्तेणं सूरिए केवइयाई भागसयाइं गच्छइ ? गोयमा ! जं जं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तस्स 2 मण्डलपरिक्खेवस्स अट्ठारसतीसे भागसए गच्छइ, मण्डलं सयसहस्से हिं अट्ठाणउत्तीए असएहि छेत्ता। एगमेगेणं भन्ते ! मुहुत्तेणं णक्खत्ते केवइप्राइं भागसयाई गच्छइ? गोयमा! जं जं मण्डलं उबसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स तस्स मण्डलपरिक्खेवस्स अट्ठारस पणतीसे भागसए गच्छइ मण्डलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउईए असएहि छेत्ता / [182] भगवन् ! नक्षत्रमण्डल कितने बतलाये गये हैं ? गौतम ! नक्षत्रमण्डल पाठ' बतलाये गये हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीप में कियत्प्रमाण क्षेत्र का अवगाहन कर कितने नक्षत्रमण्डल हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में 180 योजन क्षेत्र का अवगाहन कर दो नक्षत्रमण्डल हैं। 1. नक्षत्र 28 हैं। प्रत्येक का एक एक मण्डल होने से नक्षत्रमण्डल भी 28 कहे जाने चाहिए, किन्तु यहाँ पाठ नक्षत्रमण्डल के रूप में कथन उनके सचरण के आधार पर है, जो उनके प्रतिनियत मण्डलों के माध्यम से पाठ ही मण्डलों में सन्निविष्ट होता है। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35.] (जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र भगवन् ! लवणसमुद्र में कितने क्षेत्र का अवगाहन कर कितने नक्षत्रमण्डल हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र में 330 योजन क्षेत्र का अवगाहन कर छह नक्षत्रमण्डल हैं / यों जम्बूद्वीप तथा लवण समुद्र के नक्षत्रमण्डलों को मिलाने से पाठ नक्षत्रमण्डल होते हैं / भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल से सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल कितनी अव्यबहित दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल से सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल 510 योजन की अव्यवहित दूरी पर बतलाया गया है। भगवन् ! एक नक्षत्रमण्डल से दूसरे नक्षत्रमण्डल का अन्तर-दूरी अव्यवहित रूप में कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! एक नक्षत्रमण्डल से दूसरे नक्षत्रमण्डल की दुरी अव्यवहित रूप में दो योजन बतलाई गई है। भगवन् ! नक्षत्रमण्डल की लम्बाई-चोड़ाई, परिधि तथा ऊँचाई कितनो बतलाई गई है ? गौतम ! नक्षत्रमण्डल की लम्बाई-चौड़ाई दो कोस, उसकी परिधि लम्बाई-चौड़ाई से कुछ अधिक तीन गुनी तथा ऊँचाई एक कोस बतलाई गई है। भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल अव्यवहित रूप में कितनी दूरी पर बतलाया गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल अव्यवहित रूप में 44820 योजन की दूरी पर बतलाया गया है। भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल अव्यवहित रूप में कितनी दूरी पर बतलाया गया है? गौतम ! जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल अव्यवहित रूप में 45330 योजन को दूरी पर बतलाया गया है / भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल को लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्रमण्डल को लम्बाई-चौड़ाई 99640 योजन तथा परिधि कुछ अधिक 315086 योजन बतलाई गई है। भगवन् ! सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल को लम्बाई-चौड़ाई तथा परिधि कितनी बतलाई गई है ? गौतम ! सर्वबाह्य नक्षत्रमण्डल को लम्बाई-चौड़ाई 100660 योजन तथा 318315 योजन बतलाई गई है। भगवन् ! जब नक्षत्र सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करते हैं तो एक मुहूर्त में कितना क्षेत्र पार करते हैं ? गौतम ! वे 5265371 योजन क्षेत्र पार करते हैं / भगवन् ! जब नक्षत्र सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करते हैं तो वे प्रतिमुहूर्त कितना क्षेत्र पार करते हैं ? गौतम ! वे प्रतिमुहूर्त 531914 योजन क्षेत्र पार करते हैं / Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [351 भगवन् ! वे आठ नक्षत्रमण्डल कितने चन्द्रमण्डलों में समवसृत-अन्तर्भूत होते हैं ? गौतम ! वे पहले, तीसरे, छठे, सातवें, आठवें, दसवें, ग्यारहवें तथा पन्द्रहवें चन्द्र-मण्डल मेंयों आठ चन्द्र-मण्डलों में समवसृत होते हैं। भगवन् ! चन्द्रमा एक मुहूर्त में मण्डल-परिधि का कितना भाग अतिक्रान्त करता है ? गौतम ! चन्द्रमा जिस जिस मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, उस उस मण्डल की परिधि का - भाग अतिक्रान्त करता है। भगवन् ! सूर्य प्रतिमुहूर्त मण्डल-परिधि का कितना भाग अतिक्रान्त करता है ? गौतम ! सूर्य जिस जिस मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, उस उस मण्डल की परिधि के 41 - भाग अतिक्रान्त करता है। भगवन् ! नक्षत्र प्रतिमुहूर्त मण्डल-परिधि का कितना भाग अतिक्रान्त करते हैं ? गौतम ! नक्षत्र जिस जिस मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करते हैं, उस उस मण्डल की परिधि का 85. भाग अतिक्रान्त करते हैं। सूर्यादि-उद्गम 183. जम्बद्दीवे गं भंते ! दीवे सरिआ उदीणपाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिणमागच्छंति 1, पाईणदाहिणमुग्गच्छ दाहिणपडोणमागच्छंति 2, दाहिणपडोणमुग्गच्छ पडीणउदीणमागच्छंति 3, पडीणउदोणमुग्गच्छ उदोण-पाईणमागच्छंति 4 ? हंता गोयमा ! जहा पंचमसए पढमे उद्देसे वऽस्थि प्रोसप्पिणी प्रवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो! इच्चेसा जम्बुदीवपण्णत्ती सूरपण्णत्ती वत्थुसमासेणं सम्मता भवई / जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे चंदिमा उदीणपाईणमुग्गच्छ पाईणदाहिणमागच्छंति जहा सूरबत्तव्वया जहा पंचमसयस्स दसमे उद्देसे जाव 'प्रवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो!' इच्चेसा नम्बुद्दीवपण्णत्ती वत्थुसमासेण समत्ता भवइ। [183] भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य उदीचीन-प्राचीन-उत्तर-पूर्व-ईशान कोण में उदित होकर क्या प्राचीन-दक्षिण-पूर्व-दक्षिण-आग्नेय कोण में आते हैं. अस्त होते हैं, क्या प्राग्नेय कोण में उदित होकरदक्षिण-प्रतीचीन-दक्षिण-पश्चिम-नैऋत्य कोण में आते हैं, अस्त होते हैं, क्या नैऋत्य कोण में उदित होकर प्रतीचीन-उदीचीन पश्चिमोत्तर-वायव्य कोण में पाते हैं, अस्त होते हैं, क्या वायव्य कोण में उदित होकर उदीचीन-प्राचीन-उत्तरपूर्व-ईशान कोण में आते हैं, अस्त होते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही होता है। भगवतीसूत्र के पंचम शतक के प्रथम उद्देशक में 'णेव अस्थि मोस प्पिणी, अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते' पर्यन्त जो वर्णन आया है, उसे इस सन्दर्भ में समझ लेना चाहिए। आयुष्मन् श्रमण गौतम ! जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपांग के अन्तर्गत प्रस्तुत सूर्य सम्बन्धी वर्णन यहाँ संक्षेप में समाप्त होता है। भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो चन्द्रमा उदीचीन-प्राचीन-उत्तर-पूर्व-ईशान कोण में उदित Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूब होकर प्राचीन-दक्षिण-पूर्व-दक्षिण-आग्नेय कोण में आते हैं, अस्त होते हैं.-इत्यादि वर्णन भगवतीसूत्र के पंचम शतक के दशम उद्देशक के 'अवट्ठिए णं तत्थ काले पण ते' तक से जान लेना चाहिए / आयुष्मन् गौतम ! जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपांग के अन्तर्गत प्रस्तुत चन्द्र सम्बन्धी वर्णन यहाँ संक्षेप में समाप्त होता है। संवत्सर-भेद 184. कति णं भन्ते ! संवच्छरा पग्णत्ता ? गोयमा! पंच संवृच्छरा पण्णत्ता, तं जहाणखत्तसंवच्छरे, जुगसंवच्छरे, पमाणसंवच्छरे, लक्खणसंवच्छरे, सणिच्छरसंवच्छरे / गक्खत्तसंवच्छरे णं भंते ! कइविहे पण्णते? गोयमा ! दुवालसविहे पण्णत्ते, तं जहा-सावणे, भद्दवए, प्रासोए (कत्तिए, मियंसिरे, पोसे, माहे, फग्गुणे, चइत्ते, वेसाहे, जेठे,) प्रासाढे। जं वा विहप्फई महग्गहे दुवालसेहिं संवच्छरेहि सव्वणक्खत्तमंडलं समाणेइ, सेत्तं णक्खत्तसंवच्छरे / जुगसंवच्छरे णं भन्ते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णते, तं जहा-चंदे, चंदे, अभिवद्धिए, चंदे, अभिवद्धिए चेवेति / पढमस्स णं भन्ते चन्द-संवच्छरस्स कइ पचा पण्णता ? गोयमा ! चोवीसं पवा पण्णत्ता। बितिअस्स णं भन्ते ! चंद-संवच्छरस्स कइ पव्वा पण्णत्ता? गोयमा ! चउव्वीसं पव्वा पण्णत्ता। एवं पुच्छा ततिप्रस्स। गोयमा! छन्वीसं पवा पण्णत्ता। चउत्थस्स चन्द-संवच्छरस्स चोव्वीसं पवा, पंचमस्स णं अहिवद्धिप्रस्स छन्वीसं पव्वा य पण्णत्ता। एवामेव सपुवावरेणं पंचम-संवच्छरिए जुए एगे चउवोसे पव्वसए पण्णत्ते / सेत्तं जुगसंवच्छरे। पमाणसंवच्छरे णं भन्ते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा–णक्खत्ते, चन्दे, उऊ, प्राइच्चे, अभिवद्धिए, सेत्तं पमाणसंवच्छरे इति / लक्खणसंवच्छरे णं भन्ते ! कतिविहे पणते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा समयं नक्खत्ता जोगं, जोअंति समयं उउं परिणामंति / णच्चुण्ह गाइसोप्रो, बहुदो होइ णक्खत्ते // 1 // Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार [353 ससि समग-पुण्णमासि, जोएंति विसमचारि-णखत्ता। कडुनो बहूदनो आ, तमाहु संवच्छरं चन्दं // 2 // विसमं पवालिणो, परिणमन्ति अणुऊसु दिति पुष्फफलं। वासं न सम्म वासइ, तमाहु संवच्छरं कम्मं // 3 // पुढवि-दगाणं च रसं, पुप्फ-फलाणं च देइ प्राइच्चो। अप्पेण वि वासेणं, सम्म निष्फज्जए सस्सं // 4 // प्राइच्च-तेम-तविमा, खणलवदिवसा उऊ परिणमन्ति। पूरेइ प्र णिण्णथले, तमाहु अभिवद्धिरं जाण // 5 // सणिच्छर-संवच्छरे णं भन्ते कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठाविसइ विहे पण्णत्ते, तं जहा--- अभिई सवणे घणिट्ठा, सयभिसया दो प्र होंति भद्दवया। रेवइ अस्सिणि भरणी, कत्तिअ तह रोहिणी चेव // 1 // . (मिगसिरं, अद्दा, पुण्णयसू. पुस्सो, असिलेसा, मघा, पुध्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता, साती, विसाहा, अणुराहा, जेट्ठा, मूलो, पुवायासाढा) उत्तराश्रो आसाढायो / जंवा सणिच्चरे महग्गहे तीसाए संवच्छरेहि सव्वं णक्खत्तमण्डलं समाणेइ सेत्तं सणिच्छर-संवच्छरे॥ [184] भगवन् ! संवत्सर कितने बतलाये गये हैं ? गौतम ! संवत्सर पांच बतलाये गये हैं-- 1. नक्षत्र-संवत्सर, 2. युग-संवत्सर, 3. प्रमाणसंवत्सर, 4. लक्षण-संवत्सर तथा 5. शनैश्चर-संवत्सर / भगवन् ! नक्षत्र-संवत्सर कितने प्रकार का बतलाया गया है ? गौतम ! नक्षत्र-संवत्सर बारह प्रकार का बतलाया गया है—श्रावण, भाद्रपद, आसोज, (कार्तिक, मिगसर, पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, जेठ तथा) आषाढ / अथवा बृहस्पति महाग्रह बारह वर्षों की अवधि में जो सर्व नक्षत्रमण्डल का परिसमापन करता है-उन्हें पार कर जाता है, वह कालविशेष भी नक्षत्र-संवत्सर कहा जाता है। भगवन! यग-संवत्सर कितने प्रकार का बतलाया गया है? गौतम ! युग-संवत्सर पांच प्रकार का बतलाया गया है-१. चन्द्र-संवत्सर, 2. चन्द्र-संवत्सर, 3. अभिर्वाद्धत-संवत्सर, 4. चन्द्र-संवत्सर तथा 5. अभिवद्धित-संवत्सर। भगवन् ! प्रथम चन्द्र-संवत्सर के कितने पर्व-पक्ष बतलाये गये हैं ? गौतम ! प्रथम चन्द्र-संवत्सर के चौबीस पर्व बतलाये गये हैं। भगवन् ! द्वितीय चन्द्र-संवत्सर के कितने पर्व बतलाये गये हैं ? गौतम ! द्वितीय चन्द्र-संवत्सर के चौबीस पर्व बसलाये गये हैं / भगवा Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र भगवन् ! तृतीय अभिवद्धित-संवत्सर के कितने पर्व बतलाये गये हैं ? गौतम ! तृतीय अभिवद्धित-संवत्सर के छब्बीस' पर्व बतलाये गये हैं। चौथे चन्द्र-संवत्सर के चौबीस तथा पांचवें अभिवद्धित-संवत्सर के छब्बीस पर्व बतलाये गये हैं। पांच भेदों में विभक्त युग-संवत्सर के, सारे पर्व जोड़ने पर 124 होते हैं / भगवन ! प्रमाण-संवत्सर कितने प्रकार का बतलाया गया है ? गौतम ! प्रमाण-संवत्सर पाँच प्रकार का बतलाया गया है-१. नक्षत्र-संवत्सर, 2. चन्द्रसंवत्सर, 3. ऋतु-संवत्सर, 4. प्रादित्य-संवत्सर तथा 5. अभिवद्धित-संवत्सर / भगवन् ! लक्षण-संवत्सर कितने प्रकार का बतलाया गया है ? गौतम ! लक्षण-संवत्सर पांच प्रकार का बतलाया गया है-- 1. समक संवत्सर--जिसमें कृत्तिका प्रादि नक्षत्र समरूप में-जो नक्षत्र जिन तिथियों में . स्वभावतः होते हैं, तदनुरूप कार्तिकी पूर्णिमा आदि तिथियों से-मासान्तिक तिथियों से योग-संबन्ध करते हैं, जिसमें ऋतुएँ समरूप में-न अधिक उष्ण, न अधिक शीतल रूप में परिणत होती हैं, जो प्रचुर जलयुक्त–वर्षायुक्त होता है, वह समक-संवत्सर कहा जाता है। 2. चन्द्र-संवत्सर-जब चन्द्र के साथ पूर्णमासी में विषम-विसदृश--मासविसदृशनामोपेत नक्षत्र का योग होता है, जो कटुक होता है—गर्मी, सर्दी, बीमारी आदि की बहुलता के कारण कटुककष्टकर होता है, विपुल वर्षायुक्त होता है, वह चन्द्र-संवत्सर कहा जाता है। 3. कर्म-संवत्सर-जिसमें विषम काल में जो वनस्पतिअंकुरण का समय नहीं है, वैसे कालमें वनस्पति अंकुरित होती है, अन्-ऋतु में--जिस ऋतु में पुष्प एवं फल नहीं फूलते, नहीं फलते, उसमें पुष्प एवं फल आते हैं, जिसमें सम्यक् यथोचित, वर्षा नहीं होती, उसे कर्म-संवत्सर कहा जाता है। 4. प्रादित्य-संवत्सर--जिसमें सूर्य पृथ्वी, जल, पुष्प एवं फल-इन सबको रस प्रदान करता है, जिसमें थोड़ी वर्षा से ही धान्य सम्यक् रूप में निष्पन्न होता है-पर्याप्त मात्रा में निपजता हैअच्छी फसल होती है, वह प्रादित्य-संवत्सर कहा जाता है। 5. अभिवद्धित-संवत्सर-जिसमें क्षण, लव, दिन, ऋतु, सूर्य के तेज से तप्त-तपे रहते हैं, जिसमें निम्न स्थल-नीचे के स्थान जल-पूरित रहते हैं, उसे अभिवद्धित संवत्सर समझे / भगवन् ! शनैश्चर संवत्सर कितने प्रकार का बतलाया गया है ? गौतम ! शनैश्चर-संवत्सर अट्ठाईस प्रकार का बतलाया गया है 1. अभिजित्, 2. श्रवण, 3. धनिष्ठा, 4. शतभिषक्, 5. पूर्वा भाद्रपद, 6. उत्तरा भाद्रपद, 7. रेवती, 8. अश्विनी, 6. भरिणी, 10. कृत्तिका, 11. रोहिणी, (12. मृगशिर, 13. पार्दा, 14. पूनर्वसु, 15. पुष्य,१६. प्रश्लेषा, 17. मघा, 18. पूर्वा फाल्गुनी, 19. उत्तरा फाल्गुनी, 20. हस्त, 21. चित्रा, 22. स्वाति, 23. विशाखा, 24. अनुराधा, 25. ज्येष्ठा, 26. मूल, 27. पूर्वाषाढा तथा 28. उत्तराषाढा। अथवा शनैश्चर महाग्रह तीस संवत्सरों में समस्त नक्षत्र-मण्डल का समापन करता है उन्हें पार कर जाता है, वह काल शनैश्चर-संवत्सर कहा जाता है। 1. अधिक मास होने के कारण दो पर्व–पक्ष अधिक होते हैं / Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [355 मास, पक्ष आदि 185. एगमेगस्स णं भन्ते संवच्छरस्स कइ मासा पण्णत्ता ? गोयमा! दुवालस मासा पण्णत्ता। तेसि णं दुविहा णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-लोइया लोउत्तरिया य / तत्थ लोइया गामा इमे, तं जहा-सावणे, भद्दवए (प्रासोए, कत्तिए, मियसिरे, पोसे, माहे, फग्गुणे, चइत्ते, वेसाहे, जे?) आसाढे / लोउत्तरिया णामा इमे, तं जहा अभिणदिए पइ8 अ, विजए पीइवद्धणे। सेअंसे य सिवे चेव, सिसिरे अ सहेमवं // 1 // णवमें वसंतमासे, दसमे कुमुमसंभवे / एक्कारसे निदाहे अ, वणविरोहे अ बारसमे // 2 // एगमेगस्स णं भन्ते ! मासस्स कति पक्खा पण्णत्ता ? गोयमा ! दो पक्खा पण्णत्ता, तं जहा–बहुल-पक्खे असुक्क-पक्खे प्र। एगमेगस्स गं भन्ते ! पक्खस्स कइ दिवसा पण्णता? गोयमा ! पण्णरस दिवसा पण्णत्ता, तं जहा-पडिवादिवसे वितिप्रादिवसे (ततिआदिवसे, चउत्थोदिवसे, पंचमोदिवसे, छट्ठीदिवसे, सत्तमीदिवसे, अट्ठमोदिवसे, गवमोदिवसे, दसमीदिवसे, एगारसीदिवसे बारसीदिवसे तेरसोदिवसे, चउद्दसीदिवसे) पण्णरसोदिवसे / एतेसि णं भंते ! पण्णरसण्हं दिवसाणं कह णामधेज्जा पण्णत्ता ? गोयमा ! पण्णरस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा पुन्वंगे सिद्धमणोरमे अ तत्तो भणोरहे चेव / जसभद्दे अ जसघरे छ8 सव्वकामसमिद्धे अ॥१॥ इंदमुद्धाभिसित्ते अ सोमणस-धणंजए अबोद्धव्वे / प्रत्थसिद्ध अभिजाए अच्चसणे सयंजए चेव // 2 // अग्गिवेसे उसमे दिवसाणं होंति णामधेज्जा। एतेसि णं भंते ! पण्णरसण्हं दिवसाणं कति तिही पण्णत्ता ? गोयमा ! पण्णरस तिही पण्णत्ता, तं जहा गंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पंचमी। पुणरवि-शंदे भद्दे जए तुच्छे पुणे पक्खस्स दसमी / पुणरवि–णंदे भद्दे जए तुच्छे पुण्णे पक्खस्स पग्णरसी, एवं ते तिगुणा तिहोओ सव्वेसि दिवसाणंति। एगमेगस्स णं भंते ! पक्खस्स कइ राईनो पण्णत्ताणो ? गोयमा! पण्णरस राईपो पण्णत्तानो, तं जहा-पडिवाराई, (वितिआराई, ततिआराई, चउत्थोराई, पंचमीराई, छट्ठीराई, सत्तमीराई, अट्ठमीराई, णवमीराई, दसमीराई, एगारसोराई, बारसी-राई, तेरसी-राई, चउद्दसी-राई) पण्णरसी-राई। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र एनासि णं भंते पण्णरसण्हं राईणं कह णामधेज्जा पण्णता? गोयमा ! पण्णरस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-~~ उत्तमा य सुणक्खत्ता, एलावच्चा जसोहरा। सोमणसा चेव तहा, सिरिसंभूआ य बोद्धन्वा // 1 // विजया य वेजयन्ति, जयन्ति अपराजिता य इच्छा य / समाहारा चेव तहा, तेत्रा य तहा अईतेआ॥२॥ देवाणंदा णिरई, रयणीणं णामधिज्जाई। एयासि णं भंते ! पण्णरसण्हं राईणं कइ तिही पण्णत्ता ? गोयमा ! पण्णरस तिही पण्णता, तं जहा- उग्गवई, भोगवई, जसवई, सम्वसिद्धा, सुहणामा, पुणरवि-उग्गवई भोगवई जसवई सम्वसिद्धा सुहणामा; पुणरवि उग्गवई भोगवई जसवई सव्वसिद्धा सुहणामा। एवं तिगुणा एते तिहीनो सन्वेसि राईणं / एगमेगस्स णं भंते ! अहोरत्तस्स कइ मुहुत्ता पण्णत्ता ? गोयमा ! तीसं मुहुत्ता पण्णत्ता, तं जहा रुद्दे सेए मित्ते, वाउ सुवीए तहेव अभिचंदे / माहिंद-बलब-बंभे, बहुसच्चे चेव ईसाणे // 1 // तटू प्रभाविअप्पा, बेसमणे वारणे अपाणंदे / विजए अ वीससेणे, पायावच्चे उवसमे // 2 // गंधव्व-अग्गिधेसे, सयवसहे प्रायवे य अममे प्र। अणवं भोमे वसहे सव्व? रक्खसे चेव // 3 // [185] भगवन् ! प्रत्येक संवत्सर के कितने महीने बतलाये गये हैं ? गौतम ! प्रत्येक संवत्सर के बारह महीने बतलाये गये हैं। उनके लौकिक एवं लोकोत्तर दो प्रकार के नाम कहे गये हैं। लौकिक नाम इस प्रकार हैं-१. श्रावण, 2. भाद्रपद, (3. आसोज, 4. कार्तिक, 5. मिगसर, 6. पौष, 7. माघ, 8. फाल्गुन, 9. चैत्र 10. वैशाख, 11. जेठ तथा) 12. आषाढ / लोकोत्तर नाम इस प्रकार हैं-१. अभिनन्दित, 2. प्रतिष्ठित, 3. विजय, 4. प्रीतिवर्द्धन, 5. श्रेयान्, 6. शिव, 7. शिशिर, 8. हिमवान्, 9. वसन्तमास, 10. कुसुमसम्भव, 11. निदाघ तथा 12. वनविरोह / भगवन् ! प्रत्येक महीने के कितने पक्ष बतलाये गये हैं ? गौतम ! प्रत्येक महीने के दो पक्ष बतलाये गये हैं- 1. कृष्ण तथा 2. शुक्ल / भगवन् ! प्रत्येक पक्ष के कितने दिन बतलाये गये हैं ? गौतम ! प्रत्येक पक्ष के पन्द्रह दिन बतलाये गये हैं, जैसे--१. प्रतिपदा-दिवस, 2. द्वितीयादिवस, 3. तृतीया-दिवस, 4. चतुर्थी-दिवस. 5. पंचमी-दिवस, 6. षष्ठी-दिवस, 7. सप्तमी-दिवस, Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार 357 8. अष्टमी-दिवस, 9. नवमी-दिवस, 10. दशमी-दिवस, 11. एकादशी-दिवस, 12. द्वादशी-दिवस, 13. त्रयोदशी-दिवस, 14. चतुर्दशी-दिवस, 15. पंचदशी-दिवस-अमावस्या या पूर्णमासी का दिन / भगवन् ! इन पन्द्रह दिनों के कितने नाम बतलाये गये हैं ? गौतम ! पन्द्रह दिनों के पन्द्रह नाम बतलाये गये हैं, जैसे-१. पूर्वाङ्ग, 2. सिद्धमनोरम, 3. मनोहर, 4. यशोभद्र, 5. यशोधर, 6. सर्वकाम-समृद्ध, 7. इन्द्रमूर्द्धाभिषिक्त, 8. सौमनस, 6. धन जय, 10. अर्थसिद्ध, 11. अभिजात, 12. अत्यशन, 13. शतञ्जय, 14. अग्निवेश्म तथा 15. उपशम / भगवन् ! इन पन्द्रह दिनों की कितनी तिथियाँ बतलाई गई हैं ? गौतम ! इनकी पन्द्रह तिथियाँ बतलाई गई हैं, जैसे--१. नन्दा, 2. भद्रा, 3. जया, 4. तुच्छारिक्ता, 5. पूर्णा-पञ्चमी / फिर 6. नन्दा, 7. भद्रा, 8. जया, 6. तुच्छा, 10. पूर्णा- दशमी / फिर 11. नन्दा, 12. भद्रा, 13. जया, 14. तुच्छा, 15. पूर्णा–पञ्चदशी। यों तीन आवृत्तियों में ये पन्द्रह तिथियाँ होती हैं / भगवन् ! प्रत्येक पक्ष में कितनी रातें बतलाई गई हैं ? गौतम ! प्रत्येक पक्ष में पन्द्रह रातें बतलाई गई हैं, जैसे 1. प्रतिपदारात्रि-एकम की रात, 2. द्वितीयारात्रि, 3. तृतीयारात्रि, 4. चतुर्थीरात्रि, 5. पंचमीरात्रि, 6. षष्ठीरात्रि, 7. सप्तमीरात्रि, 8. अष्टमीरात्रि, 9. नवमीरात्रि, 10. दशमीरात्रि, 11. एकादशीरात्रि, 12. द्वादशीरात्रि, 13. त्रयोदशीरात्रि, 14. चतुर्दशी रात्रि-चौदस की रात तथा 15. पञ्चदशी-अमावस या पूनम की रात / भगवन् ! इन पन्द्रह रातों के कितने नाम बतलाये गये हैं ? गौतम ! इनके पन्द्रह नाम बतलाये गये हैं, जैसे-१. उत्तमा, 2. सुनक्षत्रा, 3. एलापत्या, 4. यशोधरा, 5. सौमनसा, 6. श्रीसम्भूता, 7. विजया, 8. वैजयन्ती, 6. जयन्ती, 10. अपराजिता, 11. इच्छा, 12. समाहारा, 13. तेजा, 14. अतितेजा तथा 15. देवानन्दा या निरति / भगवन् ! इन पन्द्रह रातों की कितनी तिथियां बतलाई गई हैं ? गौतम ! इनकी पन्द्रह तिथियाँ बतलाई गई हैं, जैसे-- 1. उग्रवती, 2. भोगवती, 3. यशोमती, 4. सर्वसिद्धा, 5. शुभनामा, फिर 6. उग्रवती, 7. भोगवती, 8. यशोमती, 9. सर्वसिद्धा, 10. शुभनामा, फिर 11. उग्रवती, 12. भोगवती, 13. यशोमती, 14. सर्वसिद्धा, 15. शुभनामा / इस प्रकार तीन आवृत्तियों में सब रातों की तिथियाँ पाती हैं। भगवन् ! प्रत्येक अहोरात्र के कितने मुहूर्त बतलाये गये हैं ? गौतम ! तीस मुहूर्त बतलाये गये हैं, जैसे --- 1. रुद्र, 2. श्रेयान, 3. मित्र, 4. वायु, 5. सुपीत, 6. अभिचन्द्र, 7. माहेन्द्र, 8. बलवान्, 9. ब्रह्म, 10. बहुसत्य, 11. ऐशान, 12. त्वष्टा, 13. भावितात्मा, 14. वैश्रमण, 15. वारुण, 16. आनन्द, 17. विजय, 18. विश्वसेन, 16. प्राजापत्य, 20. उपशम, 21. गन्धर्व, 22. अग्निवेश्म, Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358] जिम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 23. शतवृषभ, 24. प्रातपवान्, 25. अमम, 26. ऋणवान्, 27. भौम, 28. वृषभ, 29. सर्वार्थ तथा 30, राक्षस / करणाधिकार 186. कति णं भंते ! करणा पण्णत्ता? गोयमा ! एक्कारस करणा पण्णता, तं जहा-बवं, बालवं, कोलवं, थोविलोअणं, गराइ, यणिज्जं, विट्ठी, सउणी, चउप्पयं, नागं, कित्थुग्छ / एतेसि णं भंते ! एक्कारसण्हं करणाणं कति करणा चरा, कति करणा थिरा पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्त करणा चरा, चत्तारि करणा थिरा पण्णत्ता / तं जहा-बवं, बालवं, कोलवं, थोविलोअणं, गरादि, वणिज, विट्ठी, एते णं सत्त करणा चरा, चत्तारि करणा थिरा पण्णत्ता तंजहासउणी, चउप्पयं, णागं, कित्थुग्धं, एते णं चत्तारि करणा थिरा पण्णत्ता। एते णं भंते ! चरा थिरा वा कया भवन्ति ? गोयमा ! सुक्कपक्खस्स पडिवाए राम्रो बवे करणे भवइ, बितियाए दिवा बालवे करणे भवइ, रामो कोलवे करणे भवइ, ततिाए दिवा थोविलोअणं करणं भवइ, राम्रो गराइ करणं भवइ, चउत्थीए दिवा वणिज राम्रो विट्ठी, पंचमीए दिवा बवं राओ बालवं, छट्टीए दिवा कोलवं राओ थीविलोअणं, सत्तमीए दिवा गराइ राम्रो वणिज्ज, अट्ठमीए दिवा विट्ठी राप्रो बवं, नवमीए दिवा बालवं राश्रो कोलवं, दसमीए दिवा थोविलोअणं रालो गराई, एक्कारसीए दिवा वणिज्ज राम्रो विट्ठी, बारसीए दिवा बवं राओ बालवं, तेरसीए दिवा कोलवं रामो थोविलोअणं, चउद्दसीए दिवा गरादि करणं राओ वणिज्जं, पुणिमाए दिवा विट्ठीकरणं राम्रो बवं करणं भवइ / बहलपक्खस्स पडिवाए दिवा बालवं राम्रो कोलवं, बितिभाए दिवा थोविलोअणं रामो गरादि, ततिमाए दिवा वणिज्ज राम्रो विट्ठी, चउत्थीए दिवा बवं राम्रो बालवं, पंचमीए दिवा कोलवं राम्रो थीविलोअणं, छट्ठीए दिवा गराई राम्रो वणिज्ज, सत्तमीए दिवा विट्ठी राम्रो बवं, अट्ठमीए दिवा बालवं रामो कोलवं, णवमीए दिवा थोविलोअणं राम्रो गराई, दसमीए दिवा वणिज्ज राम्रो विट्ठी, एक्कारसीए दिवा बवं राओ बालवं, बारसीए दिवा कोलवं राम्रो थीविलोअणं, तेरसीए दिवा गराई राम्रो वणिज्ज, चउद्दसीए दिवा विट्ठी राओ सउणी, अमावासाए दिवा चउप्पयं रानो णागं। सुक्कपक्खस्स पाडिवए दिवा कित्थुग्धं करणं भवइ / [186] भगवन् ! करण कितने बतलाये गये हैं ? गौतम ! ग्यारह करण बतलाये गये हैं, जैसे--१. बव, 2. बालव, 3. कौलव, 4. स्त्रीविलोचन-तैतिल, 5. गरादि-गर, 6. वणिज, 7. विष्टि, 8. शकुनि, 6. चतुष्पद, 10. नाग तथा 11. किंस्तुघ्न / भगवन् ! इन ग्यारह करणों में कितने करण चर तथा कितने स्थिर बतलाये गये हैं ? गौतम ! इनमें सात करण चर तथा चार करण स्थिर बतलाये गये हैं। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [359 बव, बालव, कौलव, स्त्रीविलोचन, गरादि, वणिज तथा विष्टि—ये सात करण चर बतलाये गये हैं एवं शकुनि, चतुष्पद, नाग और किस्तुघ्न-ये चार करण स्थिर बतलाये गये हैं। भगवन ! ये चर तथा स्थिर करण कब होते हैं ? गौतम ! शुक्ल पक्ष की एकम की रात में, एकम के दिन में बवकरण होता है। दूज को दिन में बालवकरण होता है, रात में कौलवकरण होता है / तीज को दिन में स्त्री विलोचनकरण होता है, रात में गरादिकरण होता है / चौथ को दिन में वणिजकरण होता है, रात में विष्टिकरण होता है / पाँचम को दिन में बवकरण होता है, रात में बालवकरण होता है / छठ को दिन में कौलवकरण होता है, रात में स्त्रीविलोचनकरण होता है। सातम को दिन में गरादिकरण होता है, रात में वणिजकरण होता है / आठम को दिन में विष्टिकरण होता है, रात में बवकरण होता है। नवम को दिन में बालवकरण होता है, रात में कौलवकरण होता है। दसम को दिन में स्त्रीविलोचन करण होता है, रात में गरादि करण होता है / ग्यारस को दिन में वणिजकरण होता है, रात में विष्टिकरण होता है। बारस को दिन में बवकरण होता है, रात में बालवकरण होता है / तेरस को दिन में कौलवकरण होता है, रात में स्त्रीविलोचन करण होता है। चौदस को दिन में गरादिकरण होता है, रात में वणिजकरण होता है। पूनम को दिन में विष्टिकरण होता है, रात में बवकरण होता है। __कृष्ण पक्ष की एकम को दिन में बालवकरण होता है, रात में कौलवकरण होता है / दूज को दिन में स्त्रीविलोचनकरण होता है, रात में गरादिकरण होता है। तीज को दिन में वणिजकरण होता है, रात में विष्टिकरण होता है। चौथ को दिन में बक्करण होता है, रात में बालव करण होता है। पांचम को दिन में कौलवकरण होता है, रात में स्त्रीविलोचनकरण होता है। छठ को दिन में गरादिकरण होता है, रात में वणिज करण होता है / सातम को दिन में विष्टिकरण होता है, रात को बवकरण होता है / पाठम को दिन में बालवकरण होता है, रात में कौलवकरण होता है। नवम को दिन में स्त्रीविलोचनकरण होता है, रात में गरादिकरण होता है। दसम को दिन को में वणिजकरण होता है, रात में विष्टिकरण होता है / ग्यारस को दिन में बवकरण होता है, रात में बालवकरण होता है / बारस को दिन में कौलवकरण होता है, रात में स्त्रीविलोचनकरण होता है। तेरस को दिन में गरादिकरण होता है, रात में वणिजकरण होता है। चौदस को दिन में विष्टिकरण होता है, रात में शकुनिकरण होता है। अमावस को दिन में चतुष्पदकरण होता है, रात में नागकरण होता है। शुक्ल पक्ष की एकम को दिन में किस्तुतकरण होता है। संवत्सर, अयन, ऋतु आदि 187. किमाइआ णं भंते ! संवच्छरा, किमाइमा अयणा, किमाइमा उऊ, किमाइमा मासा, किमाइआ पक्खा, किमाइमा अहोरत्ता, किमाइमा मुहुत्ता, किमाइश्रा करणा, किमाइआ गवखत्ता पण्णता ? गोयमा ! चंदाइया संवच्छरा, दक्खिणाइया अयणा, पाउसाइमा उऊ, सावणाइमा मासा, बहुलाइआ पक्खा, दिवसाइमा अहोरत्ता, रोहाइमा मुहुत्ता, बालवाइआ करणा, अभिजिनाइमा णक्खत्ता पण्णत्ता समणाउसो! इति / Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पंचसंवच्छरिए णं भंते ! जुगे केवइया अयणा, केवइआ उऊ, एवं मासा, पक्खा, अहोरत्ता, केवइया मुहत्ता पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचसंवच्छरिए णं जुगे दस अयणा, तीसं उऊ, सट्ठी मासा, एगे वीसुत्तरे पक्खसए, अट्ठारसतीसा अहोरत्तसया, चउप्पण्णं मुहत्तसहस्सा णव सया पण्णत्ता। नक्षत्र [187] भगवन् ! संवत्सरों में ग्रादि--प्रथम संवत्सर कौनसा' है ? अयनों में प्रथम अयन कौनसा है ? ऋतुओं में प्रथम ऋतु कौनसी है ? महीनों में प्रथम महीना कौनसा है ? पक्षों में प्रथम पक्ष कौनसा है ? अहोरात्र-दिवस-रात में आदि-प्रथम कौन है ? मुहूर्तों में प्रथम मुहूर्त कौनसा है ? करणों में प्रथम करण कौनसा है ? नक्षत्रों में प्रथम नक्षत्र कौनसा है ? / आयुष्मन् श्रमण गौतम ! संवत्सरों में आदि-प्रथम चन्द्र-संवत्सर है। अयनों में प्रथम दक्षिणायन है / ऋतुओं में प्रथम प्रावृट-आषाढ-श्रावणरूप पावस ऋतु है / महीनों में प्रथम श्रावण है / पक्षों में प्रथम कृष्ण पक्ष है / अहोरात्र में-दिवस-रात में प्रथम दिवस है / मुहूर्तों में प्रथम रुद्र मुहूर्त है / करणों में प्रथम बालवकरण है / नक्षत्रों में प्रथम अभिजित् नक्षत्र है। ऐसा बतलाया गया है। भगवन् ! पञ्च संवत्सरिक युग में अयन, ऋतु, मास, पक्ष, अहोरात्र तथा मुहूर्त कितने कितने बतलाये गये हैं ? गौतम ! पञ्च संवत्सरिक युग में अयन 10, ऋतुएँ 30, मास 60, पक्ष 120, अहोरात्र 1830 तथा मुहूर्त 54900 बतलाये गये हैं। 188. जोगो 1 देव य 2 तारग्ग 3 गोत्त 4 संठाण 5 चंद-रवि-जोगा 6 / कुल 7 पुण्णिम अवमंसा य 8 सण्णिवाए 6 प्रणेता य 10 // 1 // कति गं भंते ! णक्खत्ता पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठावीसं णक्खत्ता पण्णत्ता, तं जहा-अभिई 1 सवणो 2 धणिट्ठा 3 सयभिसया 4 पुश्वभद्दवया 5 उत्तरभद्दवया 6 रेवई 7 अस्सिणी 8 भरणी 6 कत्तिमा 10 रोहिणी 11 मिसिर 12 प्रद्दा 13 पुणन्वसू 14 पूसो 15 अस्सेसा 16 मघा 17 पुष्वफग्गुणी 18 उत्तरफग्गुणी 16 हत्थो 20 चित्ता 21 साई 22 विसाहा 23 अणुराहा 24 जिट्ठा 25 मूलं 26 पुव्वासाढा 27 उत्तरासाढा 28 इति। [188] योग-प्रदाईस नक्षत्रों में कौनसा नक्षत्र चन्द्रमा के साथ दक्षिणयोगी है, कौनसा नक्षत्र उत्तरयोगी है इत्यादि दिशायोग, देवता--नक्षत्रदेवता, तारान-नक्षत्रों का तारा-परिमाण, गोत्र-नक्षत्रों के गोत्र, संस्थान--नक्षत्रों के आकार, चन्द्र-रवि-योग-नक्षत्रों का चन्द्रमा और सूर्य के साथ योग, कुल-कुलसंज्ञक नक्षत्र, उपलक्षण से उपकुलसंज्ञक तथा कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र, 1. ज्ञातव्य है कि यह प्रश्नोत्तरक्रम चन्द्रादि संवत्सरापेक्षा से है। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] पूर्णिमा-अमावस्या-कितनी पूर्णिमाएँ-कितनी अमावस्याएँ, सन्निपात-पूर्णिमाओं तथा अमावस्याओं की अपेक्षा से नक्षत्रों का सम्बन्ध तथा नेता-मास का परिसमापक नक्षत्रगण-ये यहाँ विवक्षित हैं। भगवन् ! नक्षत्र कितने बतलाये गये हैं ? गौतम ! नक्षत्र अट्ठाईस बतलाये गये हैं, जैसे--१. अभिजित्, 2. श्रवण, 3. धनिष्ठा, 4. शतभिषक्, 5. पूर्वभाद्रपदा, 6. उत्तरभाद्रपदा, 7. रेवती, 8. अश्विनी, 9. भरणी, 10. कृत्तिका, 11. रोहिणी, 12. मृगशिर, 13. आर्द्रा, 14. पुनर्वसु, 15. पुष्य, 16. अश्लेषा, 17. मघा, 18. पूर्वाफाल्गुनी, 19. उत्तराफाल्गुनी, 20. हस्त, 21. चित्रा, 22. स्वाति, 23. विशाखा, 24. अनुराधा, 25. ज्येष्ठा, 26. मूल, 27. पूर्वाषाढा तथा 28. उत्तराषाढा / नक्षत्रयोग 189. एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ता जे णं सया चन्दस्स दाहिणणं जोगं जोएंति ? कयरे णक्खता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जो जोएंति ? कयरे गक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणणवि उत्तरेणवि पमइंपि जोगं जोएंति ? कयरे गक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणणंपि उत्तरेणवि पमपि जोनं जोएंति ? कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स पमई जो जोएंति ? गोयमा ! एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणणं जो जोएंति ते णं छ, तं जहा मियसिरं 1 अद्द 2 पुस्सो 3 ऽसिलेस 4 हत्थो 5 तहेव मूलो अ६ / बाहिरो बाहिरमंडलस्स छप्पेते गक्खत्ता // 1 // तस्थ णं जे ते णवत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति ते णं बारस, तं जहाअभिई, सवणो, गिट्ठा, सयभिसया, पुठवभवया, उत्तरभद्दवया, रेवई, अस्सिणी, भरणी, पुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी साई। तत्थ णं जे ते नक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणोवि उत्तरमोवि पमईपि जोगं जोएंति ते णं सत्त, तं जहा—कत्तिा , रोहिणी, पुणव्वस, मघा, चित्ता, विसाहा, अणुराहा / तत्थ गं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणओवि पमपि जोगं जोएंति, तानो णं दुवे प्रासाढाओ। सव्वबाहिरए मंडले जोगं जोमंसु वा 3 / तत्थ गं जे से णक्खत्ते जे गं सया चंदस्स यमदं जोएइ, सा णं एगा जेट्ठा इति / [186] भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में कितने नक्षत्र ऐसे हैं, जो सदा चन्द्र के दक्षिण में-- दक्षिण दिशा में अवस्थित होते हुए योग करते हैं. चन्द्रमा के साथ सम्बन्ध करते हैं ? कितने नक्षत्र ऐसे हैं, जो सदा चन्द्रमा के उत्तर में अवस्थित होते हुए योग करते हैं ? कितने नक्षत्र ऐसे हैं, जो चन्द्रमा के दक्षिण में भी, उत्तर में भी, नक्षत्र-विमानों को चीरकर भी योग करते हैं ? Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र कितने नक्षत्र ऐसे हैं, जो चन्द्रमा के दक्षिण में भी नक्षत्र-विमानों को चीरकर भी योग करते हैं ? कितने नक्षत्र ऐसे हैं, जो सदा नक्षत्र-विमानों को चीरकर चन्द्रमा से योग करते हैं ? गौतम ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में जो नक्षत्र सदा चन्द्र के दक्षिण में अवस्थित होते हुए योग करते हैं, वे छह हैं-१. मृगशिर, 2. प्रार्द्रा, 3. पुष्य, 4. अश्लेषा, 5. हस्त तथा 6. मूल / ये छहों नक्षत्र चन्द्रसम्बन्धी पन्द्रह मण्डलों के बाहर से ही योग करते हैं। अट्ठाईस नक्षत्रों में जो नक्षत्र सदा चन्द्रमा के उत्तर में अवस्थित होते हुए योग करते हैं, वे बारह हैं-~ 1. अभिजित्, 2. श्रवण, 3. धनिष्ठा, 4. शतभिषक्, 5. पूर्वभाद्रपदा, 6. उत्तरभाद्रपदा, 7. रेवती, 8. अश्विनी, 6. भरणी, 10. पूर्वाफाल्गुनी 11. उत्तराफाल्गुनी तथा 12. स्वाति / अट्ठाईस नक्षत्रों में जो नक्षत्र सदा चन्द्रमा के दक्षिण में भी, उत्तर में भी, नक्षत्र-विमानों को चीरकर भी योग करते हैं, वे सात हैं 1. कृत्तिका, 2. रोहिणी, 3. पुनर्वसु, 4. मघा, 5. चित्रा, 6. विशाखा तथा 7. अनुराधा / अट्ठाईस नक्षत्रों में जो नक्षत्र सदा चन्द्रमा के दक्षिण में भी, नक्षत्र-विमानों को चीरकर भी योग करते हैं, वे दो हैं 1. पूर्वाषाढा तथा 2. उत्तराषाढा / ये दोनों नक्षत्र सदा सर्वबाह्य मण्डल में अवस्थित होते हुए चन्द्रमा के साथ योग करते हैं। अट्ठाईस नक्षत्रों में जो सदा नक्षत्र-विमानों को चीरकर चन्द्रमा के साथ योग करता है, ऐसा एक ज्येष्ठा नक्षत्र है। - नक्षत्रदेवता 160. एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते किदेवयाए पण्णते? गोयमा ! बम्हदेवया पण्णत्ते, सवणे णक्खत्ते विण्हुदेवयाए पण्णत्ते, धणिट्ठा वसुदेवया पण्णता, एए णं कमेणं अव्वा अणुपरिवाडी इमानो देवयानो-बम्हा विष्णु, वसू, वरुणे, अय, अभिवद्धी, पूसे, पासे, जमे, अग्गी, पयावई, सोमे, रुद्दे, अदिती, वहस्सई, सप्पे, पिउ, भगे, अज्जम, सवित्रा, तद्वा, वाउ, इंदग्गी, मित्तो, इंदे, निरई, पाउ, विस्सा य, एवं णक्खत्ताणं एमा परिवाडी अब्बा जाव उत्तरासाढा किदेवया पण्णत्ता ? गोयमा ! विस्सदेवया पण्णत्ता। [160] भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् आदि नक्षत्रों के कौन कौन देवता बतलाये गये हैं ? गौतम ! अभिजित् नक्षत्र का देवता ब्रह्मा बतलाया गया है। श्रवण नक्षत्र का देवता विष्णु बतलाया गया है / धनिष्ठा का देवता वसु बतलाया गया है। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार . पहले नक्षत्र से अट्ठावीसवें नक्षत्र तक के देवता यथाक्रम इस प्रकार हैं: 1. ब्रह्मा, 2. विष्णु, 3. वसु, 4. वरुण, 5. अज, 6. अभिवृद्धि, 7. पूषा, 8. अश्व, 6. यम, 10. अग्नि, 11. प्रजापति, 12. सोम, 13. रुद्र, 14. अदिति, 15. बृहस्पति, 16. सर्प, 17. पितृ 15. भग, 16. अर्यमा, 20. सविता, 21. त्वष्टा, 22 वायु, 23. इन्द्राग्नी, 24. मित्र, 25. इन्द्र, 26. नैऋत, 27. आप तथा 28. तेरह विश्वेदेव / उत्तराषाढा-अन्तिम नक्षत्र तक यह क्रम गृहीत है। अन्त में जब प्रश्न होगा-उत्तराषाढा के कौन देवता हैं तो उसका उत्तर है-गौतम ! विश्वेदेवा उसके देवता बतलाये गये हैं। नक्षत्र-तारे 161. एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिईणक्खत्ते कतितारे पण्णते? गोयमा ! तितारे पण्णत्ते / एवं अन्वा जस्स जइयाओ तारामो, इमं च तं तारग्गं तिगतिगपंचगसयदुग-दुगबत्तीसगतिगं तह तिगं च / छप्पंचगतिगएक्कगपंचगतिग-छक्कगं चेव // 1 // सत्तगद्गदुग-पंचग-एक्केक्कग-पंच-चउतिगं चेव / एक्कारसग-चउक्कं चउक्कगं चेव तारग्गं // 2 // [191] भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र के कितने तारे बतलाये गये हैं ? गौतम ! अभिजित् नक्षत्र के तीन तारे बतलाये गये हैं। जिन नक्षत्रों के जितने जितने तारे हैं, वे प्रथम से अन्तिम तक इस प्रकार हैं 1. अभिजित् नक्षत्र के तीन तारे, 2. श्रवण नक्षत्र के तीन तारे, 3. धनिष्ठा नक्षत्र के पांच तारे, 4. शतभिषा नक्षत्र के सौ तारे, 5. पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र के दो तारे, 6. उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र के दो तारे, 7. रेवती नक्षत्र के बत्तीस तारे, 8. अश्विनी नक्षत्र के तीन तारे, 6. भरणी नक्षत्र के तीन तारे, 10. कृत्तिका नक्षत्र के छः तारे, 11. रोहिणी नक्षत्र के पांच तारे, 12. मृगशिर नक्षत्र के तीन तारे, 13. आर्द्रा नक्षत्र का एक तारा, 14. पुनर्वसु नक्षत्र के पांच तारे, 15. पुष्य नक्षत्र के तीन तारे, 16. अश्लेषा नक्षत्र के छः तारे, 17. मघा नक्षत्र के सात तारे, 18. पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे, 16. उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे, 20. हस्त नक्षत्र के पांच तारे, 21. चित्रा नक्षत्र का एक तारा, 22. स्वाति नक्षत्र का एक तारा, 23. विशाखा नक्षत्र के पांच तारे, 24. अनुराधा नक्षत्र के चार तारे, 25. ज्येष्ठा नक्षत्र के तीन तारे, 26. मूल नक्षत्र के ग्यारह तारे, 27. पूर्वाषाढा नक्षत्र के चार तारे तथा 28. उत्तराषाढा नक्षत्र के चार तारे हैं। नक्षत्रों के गोत्र एवं संस्थान 192. एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते किंगोत्ते पण्णत्ते ? गोयमा ! मोग्गलायणसगोत्ते, गाहा मोग्गल्लायण 1 संखायणे 2 तह अग्गभाव 3 कण्णिल्ले 4 / तत्तो प्र जाउकण्णे 5 घणंजए 6 चेव बोद्धव्वे // 1 // Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पुस्सायणे 7 अ अस्सायणे 8 अ भग्गवेसे 6 अ अग्गिवेसे 10 अ। गोअम 11 भारहाए 12 लोहिच्चे 13 चेव वासि॰ 14 // 2 // प्रोमज्जायण 15 मंडव्वायणे 16 अपिंगायणे 17 प्र गोवल्ले 18 / कासव 19 कोसिय 20 दबभा 21 य चामरच्छाया 22 सुगा 23 य // 3 // गोवल्लायण 24 तेगिच्छायणे 25 अकच्चायणे 26 हवइ मूले। ततो अ बज्झिमायण 27 वग्यावच्चे अ गोत्ताई 28 // 4 // एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! गोसीसावलिसंठिए पण्णत्ते, गाहा गोसीसावलि 1 काहार 2 सउणि 3 पुष्फोवयार 4 वावी य 5-6 / गावा 7 प्रासक्खंधग 8 भग 6 छुरघरए 10 असगडुद्धी 11 // 1 // मिगसीसावलि 12 रुहिरबिंदु 13 तुल्ल 14 वद्धमाणग 15 पडागा 16 / पागारे 17 पलिअंके 18-19 हत्थे 20 मुहफुल्लए 21 चेव // 2 // खोलग 22 दामणि 23 एगावली 24 अ गयदंत 25 बिच्छअअले य 26 / गयविक्कमे 27 अ तत्तो सीहनिसीही प्र२८ संठाणा // 3 // [162] भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र का क्या गोत्र बतलाया गया है ? गौतम ! अभिजित् नक्षत्र का मौद्गलायन गोत्र बतलाया गया है। गाथार्थ--प्रथम से अन्तिम नक्षत्र तक सब नक्षत्रों के गोत्र इस प्रकार हैं-१. अभिजित नक्षत्र का मौदगलायन, 2. श्रवण नक्षत्र का सांख्यायन, 3. धनिष्ठा नक्षत्र का अग्रभाव, 4. शतभिषक नक्षत्र का कण्णिलायन, 5. पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र का जातुकर्ण, 6. उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र का धनञ्जय, 7. रेवती नक्षत्र का पुष्यायन, 8. अश्विनी नक्षत्र का अश्वायन, 8. भरणी नक्षत्र का भार्गवेश, 10. कृत्तिका नक्षत्र का अग्निवेश्य, 11. रोहिणी नक्षत्र का गौतम, 12. मृगशिर नक्षत्र का भारद्वाज, 13. आर्द्रा नक्षत्र का लोहित्यायन, 14. पुनर्वसु नक्षत्र का वासिष्ठ, 15. पुष्य नक्षत्र का अवमज्जायन, 16 अश्लेषा नक्षत्र का माण्डव्यायन, 17. मघा नक्षत्र का पिङ्गायन, 18. पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र का गोवल्लायन, 16. उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र का काश्यप, 20. हस्त नक्षत्र का कौशिक, 21. चित्रा नक्षत्र का दार्भायन, 22. स्वाति नक्षत्र का चामरच्छायन, 23. विशाखा नक्षत्र का शुङ्गायन, 24. अनुराधा नक्षत्र का गोलव्यायन, 25. ज्येष्ठा नक्षत्र का चिकित्सायन, 26. मूल नक्षत्र का कात्यायन,२७. पूर्वाषाढा नक्षत्र का बाभ्रव्यायन तथा 28. उत्तराषाढा नक्षत्र का व्याघ्रापत्य गोत्र बतलाया गया है। भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र का कैसा संस्थान---आकार है ? गौतम ! अभिजित् नक्षत्र का संस्थान गोशीर्षावलि-गाय के मस्तक के पुद्गलों की दीर्घरूप-लम्बी श्रेणी जैसा है। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] गाथार्थ-प्रथम से अन्तिम तक सब नक्षत्रों के संस्थान इस प्रकार हैं 1. अभिजित नक्षत्र का गोशीर्षावलि के सदश, 2. श्रवण नक्षत्र का कासार-तालाब के समान. 3. धनिष्ठा नक्षत्र का पक्षी के कलेवर के सदृश, 4. शतभिषा नक्षत्र का पुष्प-राशि के समान, 5. पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र का अर्धवापी-आधी बावड़ी के तुल्य, 6. उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र का भी अर्धवापी के सदृश, 7. रेवती नक्षत्र का नौका के सदृश, 8. अश्विनी नक्षत्र का अश्व के-घोड़े केस्कन्ध के समान, 9. भरणी नक्षत्र का भग के समान, 10. कृत्तिका नक्षत्र का क्षुरगृह-नाई की पेटी के समान, 11. रोहिणी नक्षत्र का गाड़ी की धुरी के समान, 12. मृगशिर नक्षत्र का मृग के मस्तक के समान, 13. आर्द्रा नक्षत्र का रुधिर की बूंद के समान, 14. पुनर्वसु नक्षत्र का तराजू के सदृश, 15. पुष्य नक्षत्र का सुप्रतिष्ठित वर्द्धमानक-एक विशेष आकार-प्रकार की सुनिमित तश्तरी के समान, 16. अश्लेषा नक्षत्र का ध्वजा के सदृश, 17. मघा नक्षत्र का प्राकार---प्राचीर या परकोटे के सदश, 18. पूर्वफाल्गुनी नक्षत्र का प्राधे पलंग के समान. 16. उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र का भी प्राधे पलंग के सदृश, 20. हस्त नक्षत्र का हाथ के समान, 21. चित्रा नक्षत्र का मुख पर सुशोभित पीली जही के पूष्प के सदश, 22, स्वाति नक्षत्र का कीलक के तल्य, 23. विशाखा नक्षत्र का दामनिपशुत्रों को बाँधने की रस्सी के सदृश, 24. अनुराधा नक्षत्र का एकावली-इकलड़े हार के समान, 25. ज्येष्ठा नक्षत्र का हाथी-दांत के समान, 26. मूल नक्षत्र का बिच्छू की पूछ के सदृश, 27. पूर्वाषाढा नक्षत्र का हाथी के पैर के सदृश तथा 28. उत्तराषाढा नक्षत्र का बैठे हुए सिंह के सदृश संस्थान-आकार बतलाया गया है। नक्षत्रचन्द्रसूर्ययोग काल 163. एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते कतिमुहुत्ते चन्देण सद्धि जोगं जोएई ? गोयमा ! णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तद्विभाए मुहुत्तस्स चन्देण सद्धि जोगं जोएइ / एवं इमाहि गाहाहि अणगन्तब्वं अभिइस्स चन्द-जोगो, सत्तहि खंडिओ अहोरत्तो। ते हुंति णवमुहुत्ता, सत्तावीसं फलामो अ॥१॥ सयभिसया भगणीओ, अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य / एते छण्णक्खता, पण्णरस-मुहत्त-संजोगा // 2 // तिण्णेव उत्तराई, पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य / एए छण्णक्खत्ता, पणयाल-मुहुत्त-संजोगा // 3 // अवसेसा णक्खत्ता, पण्णरस वि हुँति तीसइमुहुत्ता। चन्दमि एस जोगो, णक्खत्ताणं मुणेनवो // 4 // एतेसि गं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते कतिग्रहोरत्ते सरेण सद्धि जोगं जोए। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएइ, एवं इमाहि गाहाहिं अब्वं अभिई छच्च मुहुत्ते, चत्तारि अ केवले अहोरत्ते। सूरेण समं गच्छइ, एत्तो सेसाण वोच्छामि // 1 // सयभिसया भरणीप्रो, अहा, अस्सेस साइ जेट्ठा य / वच्चंति मुहुत्ते, इक्कवीस छच्चेवऽहोरते // 2 // तिण्णेव उत्तराई, पुणन्वसू रोहिणी विसाहा य / वच्चंति मुहुत्ते, तिणि चेव वीसं अहोरत्ते // 3 // अवसेसा णक्खत्ता, पण्णरस वि सूरसहगया जंति / बारस चेव मुहुत्ते, तेरस य समे अहोरत्ते // 4 // [193] भगवन् ! अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र कितने मुहूर्त पर्यन्त चन्द्रमा के साथ योगयुक्त रहता है ? गौतम ! अभिजित् नक्षत्र चन्द्रमा के साथ 637 मुहूर्त पर्यन्त योगयुक्त रहता है। इन निम्नांकित गाथाओं द्वारा नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग ज्ञातव्य है गाथार्थ-~अभिजित् नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ एक अहोरात्र में--३० मुहूर्त में उनके 3 भाग परिमित योग रहता है / इससे अभिजित् चन्द्रयोग काल 343 = 617 मुहूर्त फलित होता है। शतभिषक्, भरणी, पार्दा, अश्लेषा, स्वाति एवं ज्येष्ठा-इन छह नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ 15 मुहूर्त पर्यन्त योग रहता है। तीनों उत्तरा-उत्तरफाल्गुनी, उत्तराषाढा तथा उत्तरभाद्रपदा, पुनर्वसु, रोहिणी तथा विशाखा-इन छह नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ 45 मुहूर्त योग रहता है। बाकी पन्द्रह नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ 30 मुहर्त पर्यन्त योग रहता है। यह नक्षत्र-चन्द्र-योग-क्रम है / / भगवन् ! इन अट्ठाईस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र सूर्य के साथ कितने अहोरात्र पर्यन्त योगयुक्त रहता है ? गौतम ! अभिजित् नक्षत्र सूर्य के साथ 4 अहोरात्र एवं 6 मुहूर्त पर्यन्त योगयुक्त रहता है / इन निम्नांकित गाथाओं द्वारा नक्षत्र-सूर्ययोग ज्ञातव्य है / गाथार्थ---अभिजित् नक्षत्र का सूर्य के साथ 4 अहोरात्र तथा 6 मुहूर्त पर्यन्त योग रहता है / शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति तथा ज्येष्ठा--इन नक्षत्रों का सूर्य के साथ 6 अहोरात्र तथा 21 मुहूर्त पर्यन्त योग रहता है। तीनों उत्तरा-उत्तरफाल्गुनी, उत्तराषाढा तथा उत्तरभाद्रपदा, पुनर्वसु, रोहिणी एवं विशाखा-इन नक्षत्रों का सूर्य के साथ 20 अहोरात्र और 3 मुहूर्त पर्यन्त योग रहता है। . बाकी के पन्द्रह नक्षत्रों का सूर्य के साथ 13 अहोरात्र तथा 12 मुहूर्त पर्यन्त योग रहता है। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [667 कुल-उपकुल-कुलोपकुल : पूर्णिमा, अमावस्या 164. कति णं भंते ! कुला, कति उवकुला, कति कुलोवकुला पण्णत्ता ? गोयमा ! बारस कुला, बारस उवकुला, चत्तारि कुलोवकुला पण्णत्ता। बारस कुला, तं जहा-णिट्ठाकुलं 1, उत्तरभद्दबयाकुलं 2, अस्सिणीकुलं 3, कत्तिआकुलं 4, मिगसिरकुलं 5, पुस्सोकुलं 6, मघाकुलं 7, उत्तरफग्गुणोकुलं 8, चित्ताकुलं 6, विसाहाकुलं 10, मूलोकलं 11, उत्तरासाढाकुलं 12 / मासाणं परिणामा होति कुला उपकुला उ हेद्विमगा। होंति पुण कुलोवकुला अभीभिसय अद्द अणुराहा // 1 // बारस उबकुला तं जहा-सवणो-उवकुलं, पुन्वभवया-उवकुलं, रेवई-उवकुलं, भरणी-उवकुलं. रोहिणी-उधकुलं, पुणव्वसू-उधकुलं, अस्सेसा-उवकुलं, पुवफग्गुणी-उपकुलं, हत्थो-उवकुलं, साई-उवकुलं, जेट्ठा-उवकुलं, पुष्वासाढा-उवकुलं / चत्तारि कुलोवकुला, तं जहा-अभिई कुलोवकुला, सभिसया कुलोवकुला, अद्दा कुलोवकुला, अणुराहा कुलोवकुला। कति णं भन्ते ! पुणिमात्रो, कति अमावासाश्रो पण्णतामो? गोयमा ! बारस पुण्णिमानो, बारस अमावासानो पण्णताओ, तं जहा-साविट्ठी, पोट्ठवई, आसोई, कत्तिगी, मांगसिरी, पोसी, माही, फग्गुणी, चेत्ती, वइसाही, जेट्ठामूली, आसाढी / साविदिण्णि भन्ते ! पुण्णिमासि कति णक्खत्ता जोगं जोएंति ? गोयमा! तिणि णक्खत्ता जोगं जोएंति, तं जहा–अभिई, सवणो, धणिट्ठा 3 / पोवईणि भन्ते ! पुण्णिमं कइ णक्खत्ता जोगं जोएंति ? गोयमा ! तिणि पक्खत्ता जोएंति, तं जहा-सयभिसया पुस्वभद्दवया उत्तरभद्दवया / अस्सोइण्णि भन्ते ! पुण्णिम कति णक्खत्ता जोगं जोएंति ? गोयमा ! दो जोएंति, तं जहा- रेवई अस्सिणी अ, कत्तिइण्णं दो-भरणी कत्तिआ य, मग्गसिरिणं दो-रोहिणी मग्गसिरं च, पोसि तिण्णि-अद्दा, पुणव्वसू, पुस्सो, माघिण्णं दो-अस्सेसा मघा य, फग्गुणि णं दो-पुब्वाफग्गुणी य, उत्तराफग्गुणी य, चेत्तिण्णं दो-हत्थो चित्ता य, विसाहिणं दो- साई विसाहा य, जेट्टामूलिण्णं तिपिण-अनुराहा, जेट्ठा, मूलो, प्रासाढिण्णं दो-पुटवासाढा, उत्तरासाढा। साविटिण्णं भन्ते ! पुण्णिमं किं कुल जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? गोयमा ! कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ / कुलं जोएमाणे धणिट्ठा णक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे सवणे णक्खत्ते जोएइ, कुलोवकुलं जोएमाणे अभिई गक्खत्ते जोएइ / Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र साविट्टीग्णं पुण्णिमासि णं कुलं वा जोएइ (उवकुलं वा जोएइ) कुलोवकुलं का जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी पुणिमा जुत्तत्ति वत्तव्यं सिआ। पोटवदिण्णं भंते ! पुणिमं कि कुलं जोएइ 3 पुच्छा ? गोयमा ! कुलं वा उवकुलं वा कुलोवकुलं वा जोएइ, कुलं जोएमाणे उत्तरभद्दवया णक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे पुब्वभद्दवया णक्खत्ते जोएइ, कुलोवकुलं जोएमाणे सयभिसया गक्खत्ते जोएइ / पोटुवइण्णं पुणिमं कुलं वा जोएइ (उचकुलं वा जोएइ), कुलोवकुलं वा जोएइ / कुलेण वा जुत्ता (उवकुलेण वा जुत्ता), कुलोवकुलेण वा जुत्ता पोटुवई पुण्णमासी जुत्तत्ति वत्तव्ययं सिया। अस्सोइण्णं भन्ते ! पुच्छा ? गोयमा ! कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, णो लम्भइ कुलोवकुलं, कुलं जोएमाणे अस्सिणीणक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे रेवइणक्खत्ते जोएइ, अस्सोइण्णं पुणिमं कुलं या जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता अस्सोई पुण्णिमा जुत्तत्ति वत्तब्धं सिया।। कत्तिइण्णं भन्ते ! पुण्णिमं कि कुलं 3 पुच्छा? गोयमा ! कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, णो कुलोवकुलं जोएइ, कुलं जोएमाणे कत्तिाणक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे भरणीणक्खत्ते जोएइ। कत्तिइण्णं (युण्णिमं कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ / कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता कत्तिगी पुणिमा जुत्तत्ति) बत्तन्वं सिमा। मगसिरिष्णं भंते ! पुणिमं किं कुलं तं चेव दो जोएइ, गो भवइ कुलोवकुलं / कुलं जोएमाणे मग्गसिर-णक्खत्ते जोएइ उवकुलं जोएमाणे रोहिणी णखत्ते जोएइ / मगसिरणं पुण्णिमं जाव' वत्तव्वं सिया इति / एवं सेसिप्रायोऽवि जाव प्रासादि / पोसि, जेट्टामूलि च कुलं वा उवकुलं वा कुलोवकुलं वा, सेसिआणं कुलं वा उबकुलं वा, कुलोवकुलं ण भण्णइ / साविट्टिण्णं भंते ! अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? गोयमा ! दो गक्खत्ता जोएंति, तं जहा–अस्सेसा य महा य / पोट्ठवइण्णं भंते ! अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? गोयमा ! दो पुव्वा फग्गुणी उत्तरा फग्गुणी, अस्सोइण्णं भन्ते ! दो-हत्थे चित्ता य, कत्तिइण्णं दो-साई विसाहा य, मग्गसिरिणं तिष्णि-अणुराहा, जेट्ठा, मूलो अ, पोसिण्णि दो-पुश्वासाढा, उत्तरासाढा, माहिण्णि तिपिण-अभिई, सवणो, धणिट्ठा, फग्गुणि तिषिण---सयभिसया, पुषभद्दवया, उत्तरभद्दवया, चेत्तिण्णं दो-रेवई अस्सिणी प्र, वइसाहिण्णं दो-भरणी, कत्तिआ य, जेट्ठामूलिण्णं दो-रोहिणी-मग्गसिरं च, प्रासाढिण्णं तिण्णि-अद्दा, पुणव्वसू, पुस्सो इति / साविट्टिण्णं भंते ! अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? 1. देखें सूत्र यही (कत्तिगी पुण्णिमा के स्थान पर मांगसिरी पूण्णिमा) Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] गोयमा! कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, णो लम्भइ कुलोवकुलं / कुलं जोएमाणे महाणक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे अस्सेसाणक्खत्ते जोएइ। साविट्टिण्णं प्रमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता उवकुलेण वा जुत्ता साविट्ठी अमावासा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिमा / पोटुवईण्णं भंते ! अमावासं तं चेव दो जोएइ कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलं जोएमाणे उत्तरा-फग्गुणी-णक्खत्ते जोएइ, उवकुलं जोएमाणे पुश्वा-फग्गुणी, पोटुवईण्णं अमावासं (कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता पोटुवई अमावासा) वत्तव्वं सिआ। मग्गसिरिणं तं चैव कुलं मूले णक्खत्ते जोएइ उवकुले जेट्टा, कुलोवकुले अणुराहा जाव' जुत्तत्तिवत्तव्वं सिया। एवं माहीए फग्गुणीए प्रासाढीए कुलं वा उपकुलं वा कुलोवकुलं वा, अबसेसिवाणं कुलं वा उवकुलं वा जोएइ / जया णं भंते ! साविट्ठी पुण्णिमा भवइ तया णं माही अमावासा भवइ ? जया णं भंते ! माही पुणिमा भवइ तथा णं साविट्ठी अमावासा भवइ ? हंता गोयमा ! जया णं साविट्ठी तं चेव वत्तव्वं / जया गं भन्ते ! पोटुबई पुण्णिमा भवइ तया णं फग्गुणी अमावासा भवइ, जया णं फग्गुणी पुणिमा भवइ तया णं पोट्ठवई अमावासा भवइ ? हंता गोयमा ! तं चेव, एवं एतेणं अभिलावेणं इमाओ पुण्णिमायो अमावासाप्रो अन्वानीप्रस्सिणी पुण्णिमा चेत्ती अमावासा, कत्तिगी पुण्णिमा वइसाही अमावासा, मग्गसिरी पुण्णिमा जेठामूलो अमावासा, पोसी पुण्णिमा आसाढी अमावासा। [194] भगवन् ! कुल, उपकुल तथा कुलोपकुल कितने बतलाये गये हैं ? गौतम ! कुल बारह, उपकुल बारह तथा कुलोपकुल चार बतलाये गये हैं। बारह कुल-१. धनिष्ठा कुल, 2. उत्तरभाद्रपदा कुल, 3. अश्विनी कूल, 4. कृत्तिका कल. 5. मृगशिर कूल, 6. पूष्य कूल, 7. मघा कुल, 8. उत्तरफाल्गुनी कुल, 9. चित्रा कुल, 10. विशाखा कुल, 11. मूल कुल तथा 12. उत्तराषाढा कुल / जिन नक्षत्रों द्वारा महीनों की परिसमाप्ति होती है, वे माससदृश नाम वाले नक्षत्र कुल कहे जाते हैं / जो कुलों के अधस्तन होते हैं, कुलों के समीप होते हैं, वे उपकुल कहे जाते हैं / वे भी माससमापक होते हैं / जो कुलों तथा उपकुलों के अधस्तन होते हैं, वे कुलोपकुल कहे जाते हैं। बारह उपकुल–१. श्रवण उपकुल, 2. पूर्वभाद्रपदा उपकुल, 3. रेवती उपकुल, 4. भरणी उपकुल, 5. रोहिणी उपकुल, 6. पुनर्वसु उपकुल, 7. अश्लेषा उपकुल, 8. पूर्वफाल्गुनी उपकुल, 6. हस्त उपकुल, 10. स्वाति उपकुल, 11. ज्येष्ठा उपकुल तथा 12. पूर्वाषाढा उपकुल / 1. देखें सूत्र यही (पोट्ठवई अमावासा के स्थान पर मग्गसिरी अमावासा) Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र चार कुलोपकुल-१. अभिजित् कुलोपकुल, 2. शतभिषक् कुलोपकुल, 3. आर्द्रा कुलोपकुल तथा 4. अनुराधा कुलोपकुल। भगवन् ! पूर्णिमाएँ तथा अमावस्याएँ कितनी बतलाई गई हैं 2 गौतम ! गारह पुणिमाएँ तथा बारह अमावस्याएँ बतलाई गई हैं, जैसे 1. श्राविष्ठी-श्रावणी, 2. प्रौष्ठपदी-भाद्रपदी, 3. आश्वयुजी-आसोजी, 4. कार्तिकी, 5. मार्गशीर्षी, 6. पौषी, 7. माघी, 8. फाल्गुनी, 6. चैत्री, 10. वैशाखी, 11 ज्येष्ठामूली तथा 12. आषाढी। भगवन् ! श्रावणी पूर्णमासी के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है ? - गौतम ! श्रावणी पूर्णमासी के साथ अभिजित्, श्रवण तथा धनिष्ठा-इन तीन नक्षत्रों का योग होता है। भगवन् ! भाद्रपदी पूर्णिमा के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है ? गौतम ! भाद्रपदी पूर्णिमा के साथ शतभिषक्, पूर्वभाद्रपदा तथा उत्तरभाद्रपदा-इन तीन नक्षत्रों का योग होता है। भगवन् ! आसौजी पूर्णिमा के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है ? गौतम ! आसौजी पूर्णिमा के साथ रेवती तथा अश्विनी--इन दो नक्षत्रों का योग होता है / कार्तिक पूर्णिमा के साथ भरणी तथा कृत्तिका-इन दो नक्षत्रों का, मार्गशीर्षी पूर्णिमा के साथ रोहिणी तथा मृगशिर-दो नक्षत्रों का, पौषी पूर्णिमा के साथ आर्द्रा, पुनर्वसु तथा पुष्य-इन तीन नक्षत्रों का, माघी पूर्णिमा के साथ अश्लेषा और मघा-दो नक्षत्रों का, फाल्गुनी पूर्णिमा के साथ पूर्वाफाल्गुनी तथा उत्तराफाल्गुनी-दो नक्षत्रों का, चैत्री पूर्णिमा के साथ हस्त एवं चित्र-दो नक्षत्रों का, वैशाखी पूर्णिमा के साथ स्वाति और विशाखा-दो नक्षत्रों का, ज्येष्ठामूली पूर्णिमा के साथ अनुराधा, ज्येष्ठा एवं मूल-इन तीन नक्षत्रों का तथा आषाढी पूर्णिमा के साथ पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा-दो नक्षत्रों का योग होता है। __ भगवन् ! श्रावणी पूर्णिमा के साथ क्या कुल का-कुलसंज्ञक नक्षत्रों का योग होता है ? क्या उपकुल का-उपकुलसंज्ञक नक्षत्रों का योग होता है ? क्या कुलोपकुल का-कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्रों का योग होता? गौतम ! कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है और कुलोपकुल का योग होता है। कुलयोग के अन्तर्गत धनिष्ठा नक्षत्र का योग होता है, उपकुलयोग के अन्तर्गत श्रवण नक्षत्र का योग होता है तथा कुलोपकुलयोग के अन्तर्गत अभिजित् नक्षत्र का योग होता है। उपसंहार-रूप में विवक्षित है--श्रावणी पूर्णमासी के साथ कुल, (उपकुल) तथा कुलोपकुल का योग होता है यों श्रावणी पूर्णमासी कुलयोगयुक्त, उपकुलयोगयुक्त तथा कुलोपकुलयोगयुक्त होती है। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार [371 - भगवन् ! भाद्रपदी पूर्णिमा के साथ क्या कुल का योग होता है ? क्या उपकुल का योग होता है ? क्या कुलोपकुल का योग होता है ? गौतम ! कुल, उपकुल तथा कुलोपकुल–तीनों का योग होता है। कुलयोग के अन्तर्गत उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र का योग होता है। उपकुलयोग के अन्तर्गत पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र का योग होता है / कुलोपकुलयोग के अन्तर्गत शतभिषा नक्षत्र का योग होता है। उपसंहार-रूप में विवक्षित है-भाद्रपदी पूर्णिमा के साथ कुल का योग होता है / (उपकुल का योग होता है), कुलोषकुल का योग होता है / यों भाद्रपदी पूर्णिमा कुलयोगयुक्त उपकुलयोगयुक्त तथा कुलोपकुलयोगयुक्त होती है / भगवन् ! आसौजी पूर्णिमा के साथ क्या कुल का योग होता है ? उपकुल का योग होता है ? कुलोपकुल का योग होता है ? ___ गौतम ! कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग नहीं होता। कुलयोग के अन्तर्गत अश्विनी नक्षत्र का योग होता है, उपकुलयोग के अन्तर्गत रेवती नक्षत्र का योग होता है। ___ उपसंहार-रूप में विवक्षित है—आसौजी पूर्णिमा के साथ कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है। यों अासौजी पूर्णिमा कुलयोगयुक्त, उपकुलयोगयुक्त होती है। __ भगवन् ! कार्तिकी पूर्णिमा के साथ क्या कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग होता है ? __ गौतम ! कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग नहीं होता। कुलयोग के अन्तर्गन्त कृत्तिका नक्षत्र का योग होता है, उपकुलयोग के अन्तर्गत भरणी नक्षत्र का योग होता है। उपसंहार कार्तिका पूर्णिमा के साथ कुल का एवं उपकुल का योग होता है / यों वह कुलयोगयुक्त तथा उपकुलयोगयुक्त होती है। ___ भगवन् ! मार्गशीर्षी पूर्णिमा के साथ क्या कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग होता है ? गौतम ! दो का कुल का एवं उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग नहीं होता। कुलयोग के अन्तर्गत मृगशिर नक्षत्र का योग होता है, उपकुलयोग के अन्तर्गत रोहिणी नक्षत्र का योग होता है। मार्गशीर्षी पूर्णिमा के सम्बन्ध में आगे वक्तव्यता पूर्वानुरूप है। आषाढी पूर्णिमा तक का वर्णन वैसा ही है। इतना अन्तर है-पोषी तथा ज्येष्ठामूली पूर्णिमा के साथ कुल, उपकुल तथा कुलोपकुल का योग होता है। बाकी की पूर्णिमाओं के साथ कुल एवं उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग नहीं होता। भगवन् ! श्रावणी अमावस्या के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है ? गौतम ! श्रावणी अमावस्या के साथ अश्लेषा तथा मघा-इन दो नक्षत्रों का योग होता है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372] (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र भगवन् ! भाद्रपदी अमास्या के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है ? गौतम ! भाद्रपदी अमावस्या के साथ पूर्वाफाल्गुनी तथा उत्तराफाल्गुनी--इन दो नक्षत्रों का योग होता है। भगवन् ! आसौजी अमावस्या के साथ कितने नक्षत्रों का योग होता है ? गौतम ! प्रासौजी अमावस्या के साथ हस्त एवं चित्रा—इन दो नक्षत्रों का, कार्तिकी अमावस्या के साथ स्वाति और विशाखा-दो नक्षत्रों का, मार्गशीर्षी अमावस्या के साथ अनुराधा, ज्येष्ठा तथा मूल-इन तीन नक्षत्रों का, पौषी अमावस्या के साथ पूर्वाषाढा तथा उत्तराषाढा-इन दो नक्षत्रों का, माधी अमावस्या के साथ अभिजित्, श्रवण और धनिष्ठा-इन तीन नक्षत्रों का, फाल्गुनी अमावस्या के साथ शतभिषक, पूर्वभाद्रपदा एवं उत्तरभाद्रपदा-इन तीन नक्षत्रों का, चैत्री अमावस्या के साथ रेवती और अश्विनी-इन दो नक्षत्रों का, वैशाखी अमावस्या के साथ भरणी तथा कृत्तिकाइन दो नक्षत्रों का, ज्येष्ठामूला अमावस्या के साथ रोहिणी एवं मृगशिर-इन दो नक्षत्रों का और आषाढी अमावस्या को साथ पार्दा, पूनर्वसू तथा पुष्य- इन तीन नक्षत्रों का योग होता है। . भगवन् ! श्रावणी अमावस्या के साथ क्या कुल का योग होता है ? क्या उपकुल का योग होता है? क्या कुलोपकुल का योग होता है ? ___गौतम ! श्रावणी अमावस्या के साथ कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है, कुलोपकुल का योग नहीं होता। कुलयोग के अन्तर्गत मघा नक्षत्र का योग होता है, उपकुलयोग के अन्तर्गत अश्लेषा नक्षत्र का योग होता है / उपसंहार-रूप में विवक्षित है-श्रावणी अमावस्या के साथ कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है / यों वह कुलयोगयुक्त एवं उपकुलयोगयुक्त होती है। भगवन् ! क्या भाद्रपदी अमास्या के साथ कुल, उपकुल और कुलोपकुल का योग होता है ? गौतम ! भाद्रपदी अमावस्या के साथ कुल एवं उपकुल-इन दो का योग होता है / कुलयोग के अन्तर्गत उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग होता है। उपकुलयोग के अन्तर्गत पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का योग होता है / (उपसंहार-रूप में विवक्षित है-भाद्रपदी अमावस्या के साथ कुल का योग होता है, उपकुल का योग होता है / यों वह कुलयोगयुक्त होती है, उपकुलयोगयुक्त होती है।) मार्गशीर्षी अमावस्या के साथ कलयोग के अन्तर्गत मूल नक्षत्र का योग होता है, उपकुलयोग के अन्तर्गत ज्येष्ठा नक्षत्र का योग होता है तथा कुलोपकुलयोग के अन्तर्गत अनुराधा नक्षत्र का योग होता है। आगे की वक्तव्यता पूर्वानुरूप है। माघी, फाल्गुनी तथा आषाढी अमावस्या के साथ कुल, उपकुल एवं कलोपकल का योग होता है, बाकी की अमावस्याओं के साथ कुल एवं उपकुल का योग होता है / भगवन् ! क्या जब श्रवण नक्षत्र से युक्त पूणिमा होती है, तब क्या तत्पूर्ववर्तिनी अमावस्या मघा नक्षत्रयुक्त होती है ? भगवन् ! जब पूर्णिमा मघा नक्षत्रयुक्त होती है तब क्या तत्पश्चाद्भाविनी अमावस्या श्रवण नक्षत्र युक्त होती है ? Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] - गौतम ! ऐसा ही होता है / जब पूर्णिमा श्रवण नक्षत्रयुक्त होती है तो उससे पूर्व अमावस्या मघा नक्षत्रयुक्त होती है। जब पूर्णिमा मघा नक्षत्रयुक्त होती है तो उसके पश्चात् पानेवाली अमावस्या श्रवण नक्षत्रयुक्त होती है। भगवन् ! जब पूर्णिमा उत्तरभाद्रपदा नक्षत्रयुक्त होती है, तब क्या तत्पश्चाद्भाविनी अमावस्या उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र युक्त होती है ? __ जब पूर्णिमा उत्तरफाल्गुनी नक्षत्रयुक्त होती है, तब क्या अमावस्या उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र युक्त होती है ? 'हाँ, गौतम ! ऐसा ही होता है। ___इस अभिलाप-कथन-पद्धति के अनुरूप पूर्णिमानों तथा अमावस्याओं की संगति निम्नांकित रूप में जाननी चाहिए जब पणिमा अश्विनी नक्षत्रयक्त होती है, तब पश्चादतिनी अमावस्या चित्रा नक्षत्रयक्त होती है / जब पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र युक्त होती है, तो अमावस्या अश्विनी नक्षत्रयुक्त होती है। जब पूर्णिमा कृत्तिका नक्षत्रयुक्त होती है, तब अमावस्या विशाखा नक्षत्र युक्त होती है। जब पूर्णिमा विशाखा नक्षत्रयुक्त होती है / तब अमावस्या कृत्तिका नक्षत्रयुक्त होती है। जब पूर्णिमा मृगशिर नक्षत्र युक्त होती है, तब अमावस्या ज्येष्ठामूल नक्षत्रयुक्त होती है। जब पूर्णिमा ज्येष्ठामूल नक्षत्रयुक्त होती है, तो अमावस्या मृगशिर नक्षत्रयुक्त होती है / जब पूर्णिमा पुष्य नक्षत्रयुक्त होती है, तब अमावस्या पूर्वाषाढा नक्षत्रयुक्त होती है / जब पूर्णिमा पूर्वाषाढा नक्षत्रयुक्त होती है, तो अमावस्या पुष्य नक्षत्रयुक्त होती है। मास-समापक नक्षत्र 165. वासाणं पढमं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! चत्तारि णक्खत्ता ऐति, तं जहा- उत्तरासाढा, अभिई, सवणो, धणिट्ठा। उत्तरासाठा चउद्दस अहोरते णेइ, अभिई सत्त अहोरत्ते णेई, सवणो अट्टाहोरत्ते णेइ, धणिट्ठा एग अहोरत्तं णेइ / तंसि च णं मासंसि चउरंगुलपोरसीए छायाए सूरिए अणुपरिट्टइ / तस्स मासस्स चरिमदिवसे दो पदा चत्तारि अ अंगुला पोरिसी भवइ। वासाणं भन्ते ! वोच्चं मासं कह णक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! चत्तारि--धणिट्ठा, सयभिसया, पुटवभद्दवया, उत्तराभद्दवया / पणिट्ठा णं चउद्दस अहोरत्ते णेइ, सयभिसया सत्त अहोरते णेइ, पुवामद्दवया अट्ठ अहोरते मेड़, उत्तराभद्दवया एग। तंसि च णं मासंसि अटुंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरियट्टइ / तस्स मासस्सः चरिमे दिवसे दो पया अट्ठ य अंगुला पोरिसी भवइ / वासापं भन्ते! तइ मासं कह णक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! तिणि णक्खत्ता ऐति तं जहा-उत्तरभद्दवया, रेवई, अस्सिणी। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र उत्तरभद्दवया चउद्दस राइदिए णेइ, रेवई पण्णरस, अस्सिणी एग। तंसि च णं मासंसि दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरिप्रट्टइ / तस्स गं मासस्स चरिमे दिवसे लेहद्वाइं तिणि पयाई पोरिसी भवइ / वासाणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति णक्खत्ता णति ? गोयमा ! तिणि अस्सिणी, भरणी कत्तिप्रा। अस्सिणी चउद्दस, भरणी पन्नरस, कत्तिआ एग। तंसि च णं मासंसि सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिभट्टइ। तस्स णं मासस्स चरमे दिवसे तिणि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ / हेमन्ताणं भन्ते ! पढमं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! तिण्णि-कत्तिश्रा, रोहिणी मिगसिरं / कत्तिमा चउद्दस, रोहिणी पण्णरस, मिगसिरं एग अहोरत्तं णेइ / तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिपट्टइ। तस्स गं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिणि पयाई अट्ठ य अंगुलाई पोरिसी भवइ। हेमन्ताणं भन्ते ! दोच्चं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! चत्तारि गक्खत्ता ऐति, तं जहा-मिसिरं, प्रद्दा, पुणव्वसू, पुस्सो। मिअसिरं चउद्दस राइंदिप्राई इ, अद्दा अट्ट णेइ, पुणब्वसू सत्त राइंदिग्राइं, पुस्सो एग राइंदिरं है। तया णं चउव्वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिप्रट्टइ। तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च गं दिवसंसि लेहट्ठाई चत्तारि पयाई पोरिसी भव। हेमन्ताणं भन्ते ! तच्चं मासं कति णक्खत्ता गति ? गोयमा ! तिण्णि---पुस्सो, असिलेसा, महा। पुस्सो चोद्दस राइंदिप्राई णेइ, असिलेसा पण्णरस, महा एक्कं / तया णं वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिघट्टइ / तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिण्णि पयाई अळंगुलाई पोरिसी भव। हेमन्ताणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति णक्खत्ता णेति ? गोयमा ! तिण्णि गक्खत्ता, तं जहा–महा, पुवाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी। महा चउद्दस राइविप्राइं इ, पुवाफग्गुणो पग्णरस राइंदिलाई गइ, उत्तराफरगुणी एग राइंदिअंणेइ। - तया णं सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरिट्टइ। तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि तिण्णि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी भवइ / Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [375 गिम्हाणं भन्ते ! पढम मासं कति णक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! तिणि णक्खत्ताणेति-उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता। उत्तराफगुणी चउद्दस राइंदिआई णेइ, हत्थो पण्णरस राइंदिप्राइं इ, चित्ता एगं राइंदिनं णेई। तया णं दुवालसंगुलपोरिसीए छायाए सरिए अणुपरिघट्टइ। तस्स गं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाई तिण्णि पयाई पोरिसी भव। गिम्हाणं भन्ते ! दोच्चं मासं कति णक्खत्ता णेति ? गोयमा ! तिणि णक्खत्ता णेति, तं जहा—चित्ता, साई, विसाहा। चित्ता चउद्दस राइंदिप्राइं गेइ, साई पाणरस राइंदिपाई णेइ, विसाहा एग राइंदिरं जेई / तया णं अलैंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिट्टइ। तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाई अलैंगुलाई पोरिसी भव। गिम्हाणं भन्ते ! तच्चं मासं कति णक्खत्ता णेति ? गोयमा ! चत्तारि पक्वत्ता णेति तं जहा-विसाहाऽणुराहा, जेट्ठा, मूलो। विसाहा चउद्दस राइंदिग्राइं णेह, अणुराहा अट्ट राइंदिप्राइं णेइ, जेट्ठा सत्त राइंदियाई इ, मूलो एक्क राइंदि। तया णं चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरिपट्टइ / तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि दो पयाई चत्तारि अ अंगुलाई पोरिसी भवइ / गिम्हाणं भन्ते ! चउत्थं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? गोयमा ! ति णि णक्खत्ता ऐति, तं जहा-मूलो, पुवासाढा, उत्तरासाढा। मूलो चउद्दस राइविप्राइं इ, पुव्वासाढा पण्णरस राइंदिप्राइं इ, उत्तरासाढा एगं राइंदिनं इ, तया णं वट्टाए समचउरंससंठाणसंठिाए णग्गोहपरिमण्डलाए सकायमणुरंगिमाए छायाए सूरिए अणुपरिपट्टइ। तस्स णं मासस्स जे से चरिमे दिवसे तंसि च णं दिवसंसि लेहट्ठाई दो पयाई पोरिसी भवइ / एतेसि णं पुग्यवाणियाणं पयाणं इमा संगहणी तं जहा जोगो देवयतारग्गगोत्तसंठाण-चन्दरविजोगो / कुलपुण्णिमअवमंसा गेला छाया य बोद्धध्वा // 1 // [165] भगवन् ! चातुर्मासिक वर्षाकाल के प्रथम-श्रावण मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! उसे चार नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं१. उत्तराषाढा, 2. अभिजित्, 3. श्रवण तथा 4. धनिष्ठा / उत्तराषाढा नक्षत्र श्रावण मास के 14 अहोरात्र~-दिनरात परिसमाप्त करता है, अभिजित् नक्षत्र 7 अहोरात्र परिसमाप्त करता है, श्रवण नक्षत्र 8 अहोरात्र परिसमाप्त करता है तथा धनिष्ठा नक्षत्र 1 अहोरात्र परिसमाप्त करता है / ( 14+7++1=30 दिनरात-१ मास ) उस मास में सूर्य चार अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण परिभ्रमण करता है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र उस मास के अन्तिम दिन चार अंगुल अधिक दो पद पुरुषछायाप्रमाण पौरुषी होती है, अर्थात् सूरज के ताप में इतनी छाया पड़ती है--पौरुषी या प्रहर-प्रमाण दिन चढ़ता है / भगवन् ! वर्षाकाल के दूसरे–भाद्रपद मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! उसे चार नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-१. धनिष्ठा, 2. शतभिषक, 3. पूर्वभाद्रपदा तथा 4. उत्तरभाद्रपदा / धनिष्ठा नक्षत्र 14 अहोरात्र परिसमाप्त करता है, शतभिषक् नक्षत्र 7 अहोरात्र परिसमाप्त करता है, पूर्वभाद्रपदा नक्षत्र 8 अहोरात्र परिसमाप्त करता है तथा उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र 1 अहोरात्र परिसमाप्त करता है। (14+7+8+1=30 दिनरात-१ मास) उस महीने में सूर्य पाठ अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है / उस महीने के अन्तिम दिन आठ अंगुल अधिक दो पद पुरुषछायाप्रमाण पौरुषी होती है / भगवन् ! वर्षाकाल के तीसरे आश्विन-आसौज मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते - गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-१. उत्तरभाद्रपदा, 2. रेवती तथा 3. अश्विनी। उत्तरभाद्रपदा नक्षत्र 14 रातदिन परिसमाप्त करता है, रेवती नक्षत्र 15 रातदिन परिसमाप्त करता है तथा अश्विनी नक्षत्र एक रातदिन परिसमाप्त करता है। (14+1+1= 30 रातदिन=१ मास) उस मास में सूर्य 12 अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस मास के अन्तिम दिन परिपूर्ण तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है / भगवन् ! वर्षाकाल के चौथे-कार्तिक मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं.---१. अश्विनी, 2. भरणी तथा 3. कृत्तिका। अश्विनी नक्षत्र 14 रातदिन परिसमाप्त करता है, भरणी नक्षत्र 15 रातदिन परिसमाप्त करता है तथा कृत्तिका नक्षत्र 1 रातदिन परिसमाप्त करता है / (14+15+1-30 रातदिन= १मास) उस महीने में सूर्य 16 अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अंतिम दिन 4 अंगुल अधिक तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है / चातुर्मासिक हेमन्तकाल के प्रथम-मार्गशीर्ष मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-१. कृतिका, 2. रोहिणी तथा 3. मृगशिर / कृत्तिका नक्षत्र 14 अहोरात्र, रोहिणी नक्षत्र 15 अहोरात्र तथा मृगशिर नक्षत्र 1 अहोरात्र परिसमाप्त करता है / (14+1+1=30 दिनरात= 1 मास) उस महीने में सूर्य 20 अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अन्तिम दिन 8 अंगुल अधिक तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार [377 भगवन् ! हेमन्तकाल के दूसरे—पौष मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! उसे चार नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-१. मृगशिर, 2. आर्द्रा, 3. पुनर्वसु तथा 4. पुष्य / मृगशिर नक्षत्र 14 रातदिन परिसमाप्त करता है, प्रार्द्रा नक्षत्र 8 रातदिन परिसमाप्त करता है, पुनर्वसु नक्षत्र 7 रातदिन परिसमाप्त करता है तथा पुष्य नक्षत्र 1 रातदिन परिसमाप्त करता है। (१४+८+७+१=३०रातदिन- 1 मास) तब सूर्य 24 अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अन्तिम दिन परिपूर्ण चार पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। भगवन् ! हेमन्तकाल के तीसरे-माघ मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-१. पुष्य, 2. अश्लेषा तथा 3. मघा। पुष्य नक्षत्र 14 रातदिन परिसमाप्त करता है, अश्लेषा नक्षत्र 15 रातदिन परिसमाप्त करता है तथा मघा नक्षत्र 1 रातदिन परिसमाप्त करता है। (14+1+1=30 रातदिन = 1 मास) तब सूर्य 20 अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है / उस महीने के अंतिम दिन पाठ अंगुल अधिक तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। भगवन् ! हेमन्तकाल के चौथे—फाल्गुन मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-१. मघा, 2. पूर्वाफाल्गुनी तथा 3. उत्तराफाल्गुनी / मघा नक्षत्र 14 रातदिन, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र 15 रातदिन तथा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र 1 रातदिन परिसमाप्त करता है / (14+1+1=30 रातदिन = 1 मास) तब सूर्य सोलह अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अन्तिम दिन चार अंगुल अधिक तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। भगवन् ! चातुर्मासिक ग्रीष्मकाल के प्रथम-चैत्र मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-१. उत्तराफाल्गुनी, 2. हस्त तथा 3. चित्रा। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र 14 रातदिन परिसमाप्त करता है, हस्त नक्षत्र 15 रातदिन परिसमाप्त करता है तथा चित्रा नक्षत्र 1 रातदिन परिसमाप्त करता है। (14+1+1=30 रातदिन =1 मास) तब सूर्य 12 अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है / उस महीने के अन्तिम दिन परिपूर्ण तीन पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है। भगवन् ! ग्रीष्मकाल के दूसरे-वैशाख मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं-१. चित्रा, 2. स्वाति तथा 3. विशाखा। चित्रा नक्षत्र 14 रातदिन परिसमाप्त करता है, स्वाति नक्षत्र 15 रातदिन परिसमाप्त करता है तथा विशाखा नक्षत्र 1 रातदिन परिसमाप्त करता है। (14+1+1=30 रातदिन - 1 मास) Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378] {जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तब सूर्य आठ अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। - उस महीने के अन्तिम दिन आठ अंगुल अधिक दो पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है / भगवन् ! ग्रीष्मकाल के तीसरे-ज्येष्ठ मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! उसे चार नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं---१. विशाखा, 2. अनुराधा, 3. ज्येष्ठा तथा 4. मूल / विशाखा नक्षत्र 14 रातदिन परिसमाप्त करता है, अनुराधा नक्षत्र 8 रातदिन परिसमाप्त करता है, ज्येष्ठा नक्षत्र 7 रातदिन परिसमाप्त करता है तथा मूल नक्षत्र 1 रातदिन परिसमाप्त करता है / (14+8+7+1=30 रातदिन = 1 मास) तब सूर्य चार अंगुल अधिक पुरुषछायाप्रमाण अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अन्तिम दिन चार अंगुल अधिक दो पद पुरुषछायाप्रमाण पोरसी होती है / भगवन् ! ग्रीष्मकाल के चौथे-आषाढ मास को कितने नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं ? गौतम ! उसे तीन नक्षत्र परिसमाप्त करते हैं- 1. मूल, 2. पूर्वाषाढा तथा 3. उत्तराषाढा / मूल नक्षत्र 14 रातदिन परिसमाप्त करता है, पूर्वाषाढा नक्षत्र 15 रातदिन परिसमाप्त करता है तथा उत्तराषाढा नक्षत्र 1 रातदिन परिसमाप्त करता है / (14+1+1=30 रातदिन = 1 मास) सूर्य तब वृत्त-वर्तुल-गोलाकार, समचौरस संस्थानयुक्त, न्यग्रोधपरिमण्डल-बरगद के वृक्ष की ज्यों ऊपर से संपूर्णत: विस्तीर्ण, नीचे से संकीर्ण, प्रकाश्य वस्तु के कलेवर के सदृश आकृतिमय छाया से युक्त अनुपर्यटन करता है। उस महीने के अन्तिम दिन परिपूर्ण दो पद पुरुषछायायुक्त पोरसी होती है / इन पूर्ववणित पदों की संग्राहिका गाथा इस प्रकार है___ योग, देवता, तारे, गोत्र, संस्थान, चन्द्र-सूर्य-योग, कुल, पूर्णिमा, अमावस्या, छाया-इनका वर्णन, जो उपर्युक्त है, समझ लेना चाहिए। अणुत्वादि-परिवार 196. हिट्टि ससि-परिवारो, मन्दरऽबाधा तहेव लोगते / धरणितलाओ अबाधा, अंतो बाहिं च उद्धमुहे // 1 // संठाणं च पमाणं, वहंति सोहगई इद्धिमन्ताय। तारंतरऽग्गम हिसी, तुडिस पहु ठिई प्रअप्पबहू // 2 // अस्थि णं भन्ते ! चंदिम-सूरिमाणं हिदि पि तारारूवा अणुपि तुल्लावि, समेवि तारारूवा अणुपि तुल्लावि, उपिपि तारारूवा अणुपि तुल्लावि ? . हंता गोयमा ! तं चेव उच्चारेप्रध्वं / से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ-अस्थि णं० जहा जहा णं तेसि देवाणं तव-नियम-बंभचेराणि ऊसिमाई भवंति तहा तहा णं तेसि णं देवाणं एवं पण्णायए, तं जहा–अणुत्ते वा तुल्लत्ते वा, जहा जहा Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [379 गंतेसि देवाणं तव-नियम-बंभचेराणि णो ऊसिपाई भवंति तहा तहा णं तेसि देवाणं एवं (णो) पण्णायए, तं जहा-अणुते वा तुल्लत्ते वा। [196] सोलह द्वार पहला द्वार-- इसमें चन्द्र तथा सूर्य के अधस्तनप्रदेशवर्ती, समपंक्तिवर्ती तथा उपरितनप्रदेशवर्ती तारकमण्डल के-तारा विमानों के अधिष्ठातृ-देवों का वर्णन है / दूसरा द्वार–इसमें चन्द्र-परिवार का वर्णन है। तीसरा द्वार- इसमें मेरु से ज्योतिश्चक्र के अन्तर -दूरी का वर्णन है। चौथा द्वार—इसमें लोकान्त से ज्योतिश्चक्र के अन्तर का वर्णन है। पांचवाँ द्वार-इसमें भूतल से ज्योतिश्चक्र के अन्तर का वर्णन है। छठा द्वार-क्या नक्षत्र अपने चार क्षेत्र के भीतर चलते हैं, बाहर चलते हैं या ऊपर चलते हैं ? इस सम्बन्ध में इस द्वार में वर्णन है। सातवाँ द्वार-इसमें ज्योतिष्क देवों के विमानों के संस्थान-ग्राकार का वर्णन है। पाठवाँ द्वार- इसमें ज्योतिष्क देवों की संख्या का वर्णन है। नौवां द्वार–इसमें चन्द्र ग्रादि देवों के विमानों को कितने देव वहन करते हैं, इस सम्बन्ध में वर्णन है। दसवाँ द्वार-कौन कौन देव शीघ्रगतियुक्त हैं, कौन मन्दगतियुक्त हैं, इस सम्बन्ध में इसमें वर्णन है। ग्यारहवाँ द्वार-कौन देव अल्प ऋद्धिवैभवयुक्त हैं, कौन विपुल वैभवयुक्त हैं, इस सम्बन्ध में इसमें वर्णन है। बारहवाँ द्वार-इसमें ताराओं के पारस्परिक अन्तर-दूरी का वर्णन है। तेरहवां द्वार-इसमें चन्द्र आदि देवों की अग्रमहिषियों-प्रधान देवियों का वर्णन है। चौदहवाँ द्वार—इसमें प्राभ्यन्तर परिषत् एवं देवियों के साथ भोग-सामर्थ्य आदि का वर्णन है। पन्द्रहवाँ द्वार–इसमें ज्योतिष्क देवों के आयुष्य का वर्णन है। सोलहवाँ द्वार-इसमें ज्योतिष्क देवों के अल्पबहुत्व का वर्णन है। भगवन ! क्षेत्र को अपेक्षा से चन्द्र तथा सूर्य के अधस्तन प्रदेशवर्ती तारा विमानों के अधिष्ठातृ देवों में से कतिपय क्या द्युति, वैभव आदि की दृष्टि से चन्द्र एवं सूर्य से अणु-हीन हैं ? क्या कतिपय उनके समान हैं ? क्षेत्र की अपेक्षा से चन्द्र आदि के विमानों के समश्रेणीवर्ती ताराविमानों के अधिष्ठातृ देवों में से कतिपय क्या द्युति, वैभव आदि में उनसे न्यून हैं ? क्या कतिपय उनके समान हैं ? क्षेत्र की अपेक्षा से चन्द्र आदि के विमानों के उपरितनप्रदेशवर्ती ताराविमानों के अधिष्ठातृ देवों में से कतिपय क्या द्युति, वैभव आदि में उनसे अणु-न्यून हैं ? क्या कतिपय उनके समान हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही हैं / चन्द्र आदि के अधस्तन प्रदेशवर्ती, समश्रेणीवर्ती तथा उपरितनप्रदेशवर्ती ताराविमानों के अधिष्ठातृ देवों में कतिपय ऐसे हैं जो चन्द्र आदि से युति, वैभव आदि में हीन या न्यून हैं, कतिपय ऐसे हैं जो उनके समान हैं। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र भगवन् ! ऐसा किस कारण से है ? गौतम ! पूर्व भव में उन ताराविमानों के अधिष्ठातृ देवों का अनशन आदि तप आचरण, शौच आदि नियमानुपालन तथा ब्रह्मचर्य-सेवन जैसा-जैसा उच्च या अनुच्च होता है, तदनुरूप उस तारतम्य के अनुसार उनमें द्युति, वैभव आदि की दृष्टि से चन्द्र आदि से हीनता-न्यूनता या तुल्यता होती है। पूर्व भव में उन देवों का तप आचरण नियमानुपालन, ब्रह्मचर्य-सेवन जैसे-जैसे उच्च या अनुच्च नहीं होता, तदनुसार उनमें द्युति, वैभव आदि की दृष्टि से चन्द्र आदि से न हीनता होती है, न तुल्यता होती है। 167. एगमेगस्स णं भन्ते ! चन्दस्स केवइया महग्गहा परिवारो, केवइमा णवखत्ता परिवारो, केवइमा तारागणकोडाकोडीनो पण्णतायो ? गोयमा ! अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो, अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो, छावटि-सहस्साई णव सया पण्णत्तरा तारागणकोडाकोडोप्रो पण्णत्तानो। [167] भगवन् ! एक एक चन्द्र का महाग्रह-परिवार कितना है, नक्षत्र-परिवार कितना है तथा तारागण-परिवार कितना कोडाकोड़ी है ? गौतम ! प्रत्येक चन्द्र का परिवार 88 महाग्रह हैं, 28 नक्षत्र हैं तथा 66675 कोडाकोड़ी तारागण हैं, ऐसा बतलाया गया है। गति-क्रम 198. मन्दरस्स गं भन्ते ! पब्वयस्स केवइयाए अबाहाए जोइसं चार चरइ / गोयमा ! इक्कारसहि इक्कवीसेहि जोपण-सएहि अवाहाए जोइसं चार चरइ / लोगंतानो णं भन्ते ! केवइयाए अबाहाए जोइसे पण्णत्ते ? गोयमा ! एक्कारस एक्कारसेहिं जोत्रण-सएहि प्रबाहाए जोइसे पण्णत्ते। धरणितलानो णं भन्ते' ! सहि णउएहि जोअण-सएहि जोइसे चारं चरइत्ति, एवं सूरविमाणे अहिं सहि, चंद-विमाणे अहि असोएहि, उरिल्ले तारारूवे नहिं जोपण-सहिं चारं चरह। जोइसस्स णं भन्ते ! हेटिल्लाओ तलाओ केवइयाए अवाहाए सूर-विमाणे चारं चरइ ? गोयमा ! दहि जोप्रणेहि अबाहाए चारं चरइ, एवं चन्द विमाणे गउईए जोधणेहिं चारं चरइ, उरिल्ले तारारूवे दसुत्तरे जोअण-सए चारं चरइ, सूर-विमाणाप्रो चन्द-विमाणे असीईए जोप्रणेहिं चारं चरइ, सूर-विमाणाप्रो जोत्रण-सए उवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ, चन्द-विमाणाम्रो वीसाए जोनहि उबरिल्ले णं तारारूवे चारं चरइ / 1. यहां इतना योजनीय है-'उद्धं उप्पइत्ता केवइमाए अबाहाए हिटिल्ले जोइसे चारं चरह ?' Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [381 [198] भगवन् ! ज्योतिष्क देव मेरु पर्वत से कितने अन्तर पर गति करते हैं ? गौतम ! ज्योतिष्क देव मेरु पर्वत से 1121 योजन की दूरी पर गति करते हैं-गतिशील रहते हैं। भगवन् ज्योतिश्चक्र-तारापटल लोकान्त से लोक के अन्त से, अलोक से पूर्व कितने अन्तर पर स्थिर-स्थित बतलाया गया है ? गौतम ! वहाँ से ज्योतिश्चक्र 1111 योजन के अन्तर पर स्थित बतलाया गया है। भगवन् ! अधस्तन-नीचे का ज्योतिश्चक्र धरणितल से---समतल भूमि से कितनी ऊँचाई पर गति करता है ? गौतम ! अधस्तन ज्योतिश्चक्र धरणितल से 760 योजन की ऊँचाई पर गति करता है। इसी प्रकार सूर्यविमान धरणितल से 800 योजन की ऊँचाई पर, चन्द्रविमान 880 योजन की ऊंचाई पर तथा उपरितन-ऊपर के तारारूप-नक्षत्र-ग्रह-प्रकीर्ण तारे 900 योजन की ऊँचाई पर गति करते हैं। भगवन् ! ज्योतिश्चक्र के अधस्तनतल से सूर्यविमान कितने अन्तर पर, कितनी ऊंचाई पर गमन करता है ? गौतम ! वह 10 योजन के अन्तर पर, ऊँचाई पर गति करता है। चन्द्र-विमान 60 योजन के अन्तर पर, ऊँचाई पर गति करता है। उपरितन-ऊपर के तारारूप-प्रकीर्ण तारे 110 योजन के अन्तर पर, ऊँचाई पर गति करते हैं। सूर्य के विमान से चन्द्रमा का विमान 80 योजन के अन्तर पर, ऊँचाई पर गति करता है। उपरितन तारारूप ज्योतिश्चक्र सूर्यविमान से 100 योजन के अन्तर पर, ऊँचाई पर गति करता है। वह चन्द्रविमान से 20 योजन दूरी पर, ऊँचाई पर गति करता है / 166. जम्बद्दीवे णं दीवे अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कयरे णक्खत्ते सव्वम्भंरिल्लं चारं चरइ ? कयरे णक्खते सम्वबाहिरं चारं चरइ ? कयरे सव्वहिटिल्लं चारं चरइ, कयरे सव्वउवरिल्लं चारं चरह? गोयमा ! अभिई णक्खत्ते सम्वन्तरं चार चरइ, मूलो सब्वबाहिरं चारं चरइ, भरणी सव्वहि ढिल्लगं, साई सन्चु वरिल्लगं चारं चरइ। चन्द विमाणे णं भन्ते ! किसंठिए पण्णते? गोयमा ! अद्धक विट्ठसंठाणसंठिए, सवफालिग्रामए अन्भुग्गयमूसिए, एवं सव्वाई णेप्रवाई। चन्द विमाणे गं भन्ते ! केवइयं पायाम-विक्खभेणं, केवइयं बाहल्लेणं पण्णते? गोयमा ! छप्पण्णं खलु भाए विच्छिण्णं चन्दमंडलं होइ। अट्ठावीसं भाए बाहल्लं तस्स बोद्धव्यं // 1 // Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अडयालीसं भाए विच्यिण्णं सूरमंडलं होइ। चउवीसं खलु भाए बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं // 2 // दो कोसे अगहाणं णक्खत्ताणं तु हवह तस्सद्धं / तस्सद्ध ताराणं तस्सद्ध चेव बाहल्लं // 3 // [199] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत अट्ठाईस नक्षत्रों में कौनसा नक्षत्र सर्व मण्डलों के भीतर-भीतर के मण्डल से होता हुआ गति करता है ? कौनसा नक्षत्र समस्त मण्डलों के बाहर होता हुमा गति करता है ? कौनसा नक्षत्र सब मण्डलों के नीचे होता हुआ गति करता है ? कौनसा नक्षत्र सब मण्डलों के ऊपर होता हुआ गति करता है ? गौतम ! अभिजित् नक्षत्र सर्वाभ्यन्तर-मण्डल में से होता हुआ गति करता है। मूल नक्षत्र सब मण्डलों के बाहर होता हुआ गति करता है / भरणी नक्षत्र सब मण्डलों के नीचे होता हुआ गति करता है। स्वाति नक्षत्र सब मण्डलों के ऊपर होता हुआ गति करता है / भगवन् ! चन्द्रविमान का संस्थान -आकार कैसा बतलाया गया है ? गौतम ! चन्द्रविमान ऊपर की ओर मुंह कर रखे हए आधे कपित्थ के फल के आकार का बतलाया गया है। वह संपूर्णतः स्फटिकमय है / अति उन्नत है, इत्यादि / सूर्य आदि सर्व ज्योतिष्क देवों के विमान इसी प्रकार के समझने चाहिए। भगवन् ! चन्द्रविमान कितना लम्बा-चौड़ा तथा ऊँचा बतलाया गया है ? गौतम ! चन्द्रविमान योजन चौड़ा, वृत्ताकार होने से उतना ही लम्बा' तथा 6 योजन ऊँचा है। सूर्यविमान है योजन चौड़ा, उतना ही लम्बा तथा इ योजन ऊँचा है। ग्रहों, नक्षत्रों तथा ताराओं के विमान क्रमशः 2 कोश, 1 कोश तथा. कोश विस्तीर्ण हैं / ग्रह आदि के विमानों की ऊँचाई उनके विस्तार से आधी होती है, तदनुसार ग्रहविमानों की ऊँचाई 2 कोश से आधी 1 कोश, नक्षत्रविमानों की ऊँचाई 1 कोश से आधी 3 कोश तथा ताराविमानों की ऊँचाई : कोश से आधी कोश है / ' विमान-वाहक देव 200. चन्दविमाणे णं भन्ते ! कति देवसाहस्सीनो परिवहति ? __ गोयमा ! सोलस देवसाहस्सीनो परिवहंतित्ति / चन्दविमाणस्स णं पुरस्थिमे णं सेनाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतल विमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरयणिगरप्पगासाणं थिरलट्ठपउद्धवट्टपीवरसुसिलिट्ठविसिद्धतिक्खदाढाविडंबिअमुहाणं रत्तुष्पलपत्तमज्यसूमालतालुजीहाणं महुगुलिपिंगलक्खाणं पोवरवरोरुपडिपुण्णविउलखंधाणं मिउविसयसुहमलक्खणपसत्थवरवण्णकेसरसडोवसोहिसाणं ऊसिनसुनमियसुजायअप्फोडिनलंगूलाणं वइरामयणक्खाणं वइरामयदाढाणं वइरामयदन्ताणं तवणिज्जजीहाणं 1. वृत्ताकार वस्तु का प्रायाम-विस्तार समान होता है। 2. यह उस्कृष्टस्थितिक वर्णन है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार तवणिज्जतालुप्राणं तवणिज्जजोत्तगसुजाइमाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं अमिश्रगईणं अमिनबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमाणं महया अष्फोडिअसीहणायबोलकलकलरवेणंमहरेणं मणहरेणं पूरता अंबरं, दिसाम्रो अ सोभयंता, चत्तारि देवसाहस्सीयो सीहरूवधारी पुरथिमिल्लं बाहं वहंति। चंदविमाणस्स णं दाहिणणं सेनाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमल निम्मलदधिधणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासाणं वइरामयकु भजुअलसुट्टिअपोवरवरवहरसोंढवट्टिअदित्तसुरत्तपउमप्पगासाणं अन्भुण्णयमुहाणं तवणिज्जविसालकणगचंचलचलंत विमलुज्जलाणं महुवण्णभिसंतणिद्धपत्तलनिम्मलतिवण्णमणिरयणलोप्रणाणं अभुग्गयमउलमल्लिाधवलसरिससंठिमणिव्यणदढकसिणफालिश्रामयसुजायदन्तमुसलोवसोभिप्राणं कंचणकोसीपविट्ठदन्तग्गविमलमणिरयणरुहलपेरंतचित्तरूवगविराइनाणं तवणिज्जविसालतिलगप्पमुहारिमण्डिाणं नानामणिरयणमुद्धगेविज्जबद्धगलयवरभूसणाणं वेरुलिनविचित्तदण्डनिम्मलवइरामयतिक्खलट्ठअंकुस'भजुअलयंतरोडिआणं तवणिज्जसुबद्धकच्छदप्पिप्रबलुद्धराणं विमलघणमण्डलवइरामयलालाललियतालणाणं णाणामणिरयणघण्टपासगरजतामयबलज्जुलंबिप्रघंटाजुअलमहरसरमणहराणं अल्लोणपमाणजुत्तवट्टिअसुजायलक्खणपसस्थरमणिज्जवालगतपरिपुंछणाणं उवचिअपडिपुण्णकुम्मचलणलहुविक्कमाणं अंकमयणक्खाणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुआणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं पोइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं अमिश्रगईणं अमिप्रबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमाणं महयागंभीरगुलगुलाइतरवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेता अंबरं दिसामोअ सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ गयरूवधारीणं देवाणं दक्खिणिल्लं बाहं परिवहंतित्ति। चन्द विमाणस्स णं पच्चस्थिमेणं सेवाणं सुभगाणं सुप्पभाणं चलचवलककुहसालोणं घणनिचिअसुबद्धलक्खणुण्णयई सिप्राणयवसयोटाणं चंकमिश्नललिअपुलिनचलचवलगव्यिनगईणं. सनतपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं पीवरवदिप्रसुसंठिपकडीणं ओलंबपलबलक्खणपमाणजुत्तरमणिज्जवालगण्डाणं समखुरवालिधाणाणं समलिहिअसिंगतिक्खग्गसंगयाणं तणुसुहुमसुजायणिद्धलोमच्छविधराणं उचिप्रमंसलविसालपडिपुण्णखंधपएससुदराणं वेरुलिअभिसंतकडक्खसुनिरिक्खणाणं जुत्तपमाणपहाणलक्खणपसत्थरमणिज्जगग्गरगल्लसोभियाणं घरघरगसुसद्दबद्धकंठपरिमण्डिाणं गाणामणिकणगरयणघण्टिावेगच्छिगसुकयमालिपाणं वरघण्टागलयमालुज्जलसिरिधराणं पउमुप्पलसगलसुरभिमालाविभूसिवाणं वहरखुराणं विविहविक्खुराणं फालिआमयदन्ताणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुप्राणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइआणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं अमिप्रगईणं अभिप्रबलवीरिअपुरिसक्कारपरक्कमाणं महयागज्जिअगंभीररवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेता अंबरं दिसाम्रो प्र सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीनो वसहरूवधारीणं देवाणं पच्चस्थिमिल्लं बाहं परिवहंतित्ति। चन्द विमाणस्स णं उत्तरेणं सेवाणं सुभगाणं सुप्पभाणं तरमल्लिहायणाणं हरिमेलमउलमल्लिअच्छाणं चंचुच्चिअललिपपुलिअचलचवलचंचलगईणं लंघणवग्गणधावणधोरणतिवइजइणसिक्खिागईणं ललंतलामगललायवरभूसणाणं सन्नयपासाणं संगयपासाणं सुजायपासाणं पोवरवट्टिप्रसुसंठिपकडीणं ओलम्बपलंबलक्षणपमाणजुत्तरमणिज्जवालपुच्छाणं तणुसुहमसुजायणिद्धलोमच्छविहराणं मिउविसय Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र सुहमलक्खणपसस्थविच्छिण्णकेसरवालिहराणं ललंतथासगललाउबरभूसणाणं मुहमण्डगनोचूलगचामरथासगपरिमण्डिनकडीणं तवणिज्जखुराणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुप्राणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइआणं कामगमाणं (पोइगमाणं मणोगमाणं) मणोरमाणं अमिप्रगईणं अमिअबलबीरिअपुरिसक्कारपरक्कमाणं महयाहयहेसिनकिलकिलाइअरवेणं मणहरेणं पूरता अंबरं दिसानो असोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीनो हयरूवधारीणं देवाणं उत्तरिल्लं बाहं परिवहंतित्ति / गाहा सोलसदेवसहस्सा, हवंति चंदेसु चेव सूरेसु / अद्वैव सहस्साई, एक्केक्कमी गहविमाणे // 1 // चत्तारि सहस्साई, गक्खत्तंमि अहवंति इक्किक्के / दो चेव सहस्साई, तारारूवेक्कमेक्कमि // 2 // एवं सूरविमाणाणं (गह विमाणाणं गक्वत्तविमाणाणं) तारास्वविमाणाणं गवरं एस देवसंघाएति। [200] भगवन् ! चन्द्रविमान को कितने हजार देव परिवहन करते हैं ? गौतम ! सोलह हजार देव परिवहन करते हैं। चन्द्रविमान के पूर्व में श्वेत–सफेद वर्ण युक्त, सुभग-सौभाग्ययुक्त, जन-जन को प्रिय लगने वाले, सुप्रभ–सुष्ठु प्रभायुक्त, शंख के मध्यभाग, जमे हुए ठोस अत्यन्त निर्मल दही, गाय के दूध के झाग तथा रजतनिकर-रजत-राशि या चाँदी के ढेर के सदृश विमल, उज्ज्वल दीप्तियुक्त, स्थिरसुदृढ़, लष्ट कान्त, प्रकोष्ठक कलाइयों से युक्त, वृत्त-गोल, पीवर-पुष्ट, सुश्लिष्ट-परस्पर मिले हुए, विशिष्ट, तीक्ष्ण-तेज-तीखी दंष्ट्राओं-डाढों से प्रकटित मुखयुक्त, रक्तोत्पल-लाल कमल के सदृश मृदु सुकुमाल-अत्यन्त कोमल तालु-जिह्वायुक्त, घनीभूत-अत्यन्त गाढ़े या जमे हुए शहद की गुटिका-गोली सदृश पिंगल वर्ण के लालिमा-मिश्रित भूरे रंग के नेत्रयुक्त, पीवर-उपचित-मांसल, उत्तम जंघायुक्त, परिपूर्ण, विपुल-विस्तीर्ण-चौड़े कन्धों से युक्त, मृदु-मुलायम, विशद-उज्ज्वल, सूक्ष्म, प्रशस्त लक्षणयुक्त, उत्तम वर्णमय, कन्धों पर उगे अयालों से शोभित उच्छित-ऊपर किये हुए, सुनमित-ऊपर से सुन्दर रूप में झुके हुए, सुजात-~सहज रूप में सुन्दर, प्रास्फोटित—कभी-कभी भूमि पर फटकारी गई पूंछ से युक्त, वज्रमय नखयुक्त, वज्रमय दंष्ट्रायुक्त, वज्रमय दाँतों वाले, अग्नि में तपाये हुए स्वर्णमय जिह्वा तथा तालु से युक्त, तपनीय स्वर्णनिर्मित योक्त्रक-रज्जू द्वारा विमान के साथ सुयोजित-भलीभाँति जुड़े हुए, कामगम- स्वेच्छापूर्वक गमन करने वाले, प्रीतिगम-उल्लास के साथ चलने वाले, मनोगम-मन की गति की ज्यों सत्वर गमनशील, मनोरम- मन को प्रिय लगनेवाले, अमितगति—अत्यधिक तेज गतियुक्त, अपरिमित बल, वीर्य, पुरुषार्थ तथा पराक्रम से युक्त, उच्च गम्भीर स्वर से सिंहनाद करते हुए, अपनी मधुर, मनोहर ध्वनि द्वारा गगन-मण्डल को आपूर्ण करते हुए, दिशात्रों को सुशोभित करते हुए चार हजार सिंहरूपधारी देव विमान के पूर्वी पार्व को परिवहन किये चलते हैं / चन्द्रविमान के दक्षिण में सफेद वर्णयुक्त, सौभाग्ययुक्त-जन-जन को प्रिय लगनेवाले, सुष्ठ प्रभायुक्त, शंख के मध्य भाग, जमे हुए ठोस अत्यन्त निर्मल दही, गोदुग्ध के झाग तथा रजतराशि की Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [385 ज्यों विमल, उज्ज्वल दीप्तियुक्त, वज्रमय कुंभस्थल से युक्त, सुस्थित--सुन्दर संस्थानयुक्त, पीवरपरिपुष्ट, उत्तम, होरों की ज्यों देदीप्यमान, वृत्त-गोल सूड, उस पर उभरे हुए दीप्त, रक्त-कमल से प्रतीत होते बिन्दुओं से सुशोभित, उन्नत मुखयुक्त, तपनीय-स्वर्ण सदृश, विशाल, चंचल-सहज चपलतामय, इधर-उधर डोलते, निर्मल, उज्ज्वल कानों से युक्त, मधुवर्ण-शहद सदृश वर्णमय, भासमानदेदीप्यमान, स्निग्ध-चिकने, सुकोमल पलकयुक्त, निर्मल, त्रिवर्ण-लाल, पीले तथा सफेद रत्नों जैसे लोचनयुक्त, अभ्युद्गत–अति उन्नत, मल्लिका–चमेली के पुष्प की कली के समान धवल, सदृशसंस्थित- सम संस्थानमय, निर्वण-व्रणजित, घाव से रहित, दृढ़, संपूर्णत: स्फटिकमय, सुज जन्मजात दोषरहित, मूसलवत्, पर्यन्त भागों पर उज्ज्वल मणिरत्न-निष्पन्न रुचिर चित्रांकनमय स्वर्णनिर्मित कोशिकाओं में-खोलों में सन्निबेशित अग्रभागयुक्त दाँतों से सुशोभित, तपनीय स्वर्ण-सदृश, विशाल-बड़े-बड़े तिलक प्रादि पुष्पों से परिमण्डित, विविध मणिरत्न-सज्जित मूर्धायुक्त, गले में प्रस्थापित श्रेष्ठ भूषणों से विभूषित, कुंभस्थल द्विभाग-स्थित नीलमनिर्मित विचित्र दण्डान्वित, निर्मल वज्रमय, तीक्ष्ण, कान्त अंकुशयुक्त, तपनीय-स्वर्ण-निर्मित, सुबद्ध- सुन्दर रूप में बंधी कक्षा हृदयरज्जू-छाती पर, पेट पर बाँधी जाने वाली रस्सी से युक्त, दर्प से—गर्व से उद्धत, उत्कट बलयुक्त, निर्मल, सघन मण्डलयुक्त, हीरकमय अंकुश द्वारा दी जाती ताड़ना से उत्पन्न ललित-श्रुतिसुखद शब्दयुक्त, विविध मणियों एवं रत्नों से सज्जित, दोनों ओर विद्यमान छोटी छोटी घण्टियों से समायुक्त, रजतनिर्मित, तिरछी बँधी रस्सी से लटकते घण्टायुगल—दो घण्टाओं के मधुर स्वर से मनोहर प्रतीत होते, सुन्दर, समुचित प्रमाणोपेत, वर्तुलाकार, सुनिष्पन्न, उत्तम लक्षणमय प्रशस्त, रमणीय बालों से शोभित पंछ वाले, उपचित---मांसल, परिपूर्ण-पूर्ण अवयवमय, कच्छप की ज्यों उन्नत चरणों द्वारा लाघव पूर्वक-द्रतगति से कदम रखते, अंकरत्नमय नखों वाले, तपनीय-स्वर्णमय जिह्वा तथा तालुयुक्त, तपनीय-स्वर्ण-निर्मित रस्सी द्वारा विमान के साथ सुन्दर रूप में जुड़े हुए, यथेच्छ गमन करने वाले, उल्लास के साथ चलने वाले, मन की गति की ज्यों सत्वर गमनशील, मन को रमणीय लगने वाले, अत्यधिक तेज गतियुक्त, अपरिमित बल, वीर्य, पुरुषार्थ एवं पराक्रमयुक्त, उच्च, गम्भीर स्वर से गर्जना करते हुए, अपनी मधुर, मनोहर ध्वनि द्वारा आकाश को प्रापूर्ण करते हुए, दिशाओं को सुशोभित करते हुए चार हजार गजरूपधारी देव विमान के दक्षिणी पार्श्व को परिवहन करते हैं। चन्द्र-विमान के पश्चिम में सफेद वर्णयुक्त, सौभाग्ययुक्त-जन-जन-प्रिय, सुन्दर प्रभायुक्त, चलचपल-इधर-उधर हिलते रहने के कारण अति चपल ककुद्-थूही से शोभित, धन-लोहमयी गदा की ज्यों निचित--ठोस, सुगठित, सुबद्ध-शिथिलतारहित, प्रशस्तलक्षणयुक्त, किञ्चित् झुके हुए चक्रीमत-कुटिल गमन, टेढो चाल, ललित-सविलास गति--सून्दर, शानदार चाल पुलित गति-आकाश को लांघ जाने जैसी उछाल पूर्ण चाल इत्यादि अत्यन्त चपल-स्वरापूर्ण, गर्वपूर्ण गति से शोभित, सन्नत-पार्श्वनीचे की ओर सम्यक् रूप में नत हुए--झुके हुए देह के पाव-भागों से युक्त, संगत-पार्श्व-देह-प्रमाण के अनुरूप पार्श्वभागयुक्त, सुजात-पार्श्व-सुनिष्पन्न-सहजतया सुगठित पार्श्वयुक्त, पीवर-परिपुष्ट, वर्तित-गोल, सुसंस्थित–सुन्दर आकारमय कमर वाले, अवलम्बप्रालम्ब-लटकते हुए लम्बे, उत्तम लक्षणमय, प्रमाणयुक्त-समुचित प्रमाणोपेत, रमणीय, चामर-पूछ के सघन, धवल केशों से शोभित, परस्पर समान खुरों से युक्त, सुन्दर पूछ युक्त, समलिखित समानरूप में उत्कीर्ण किये गये से-कोरे गये से, तीक्ष्ण अग्रभाग मय, संगत-यथोचित मानोपेत सींगों से युक्त, तनुसूक्ष्म-प्रत्यन्त सूक्ष्म, सुनिष्पन्न, स्निग्ध-चिकने, मुलायम, लोम-देह के बालों की छवि से Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र शोभा से युक्त, उपचित-पुष्ट, मांसल, विशाल, परिपूर्ण स्कन्ध-प्रदेश---कन्धों से सुन्दर प्रतीयमान, नीलम की ज्यों भासमान कटाक्ष --अर्धप्रेक्षित-आधी निगाह या तिरछी निगाह युक्त नेत्रों से शोभित, युक्तप्रमाण-यथोचित प्रमाणोपेत, विशिष्ट, प्रशस्त, रमणीय, गग्गरक नामक परिधान-विशेषविशिष्ट वस्त्र से विभूषित, हिलने-डुलने से बजने जैसी ध्वनि से समवेत (गले में धारण किये) घरघरक संज्ञक आभरण-विशेष से परिमण्डित-सुशोभित गले से युक्त, वक्षःस्थल पर वैकक्षिक-तिर्यक् या तिरछे रूप में प्रस्थापित, विविध प्रकार की मणियों, रत्नों तथा स्वर्ण द्वारा निर्मित घण्टियों की श्रेणियों-कतारों से सुशोभित, वरघण्टा-उपर्युक्त घण्टियों से विशिष्टतर घण्टाों की माला से उज्जवल श्री–शोभा धारण किये हुए, पद्म- सूर्यविकासी कमल, उत्पल-चन्द्रविकासी कमल तथा अखण्डित, सुरभित पुष्पों की मालाओं से विभूषित, वज्रमय खरयुक्त, मणि-स्वर्ण आदि द्वारा विविध प्रकार से सुसज्ज, उक्त खुरों से ऊर्ध्ववर्ती विखुर युक्त, स्फटिकमय दाँत युक्त, तपनीय स्वर्णमय जिह्वायुक्त, तालुयुक्त, तपनीय स्वर्ण-निर्मित योत्रक-रस्सी द्वारा विमान में सुयोजित, यथेच्छ गमनशील, प्रीति या चैतसिक उल्लास के साथ चलनेवाले, मन की गति की ज्यों सत्वर गमन करने वाले, मन को प्रिय लगनेवाले, अत्यधिक तेजगति युक्त, उच्च, गंभीर स्वर से गर्जना करते हुए, अपनी मधुर मनोहर ध्वनि द्वारा अाकाश को आपूर्ण करते हुए, दिशाओं को सुशोभित करते हुए चार हजार वृषभरूपधारी देव विमान के पश्चिमी पार्श्व का परिवहन करते हैं / चन्द्र-विमान के उत्तर में श्वेतवर्णयुक्त, सौभाग्ययुक्त-जन-जन को प्रिय लगनेवाले, सुन्दर प्रभा युक्त, वेग एवं बल से आपूर्ण संवत्सर-समय-युवावस्था से युक्त, हरिमेलक तथा मल्लिकाचमेली की कलियों जैसी आँखों से युक्त, चंचुरित-कुटिल गमन--तिरछी चाल या तोते की चोंच की ज्यों वक्रता के साथ अपने पैर का उच्चताकरण-ऊर्वीकरण, ललित-विलासपर्ण गति, पूलित-एक विशिष्ट गति, चल-वायु के तुल्य अतीव चपल गतियुक्त, लंघन-गर्त आदि का अतिक्रमण-खड्ड आदि फांद जाना, वल्गन--उत्कूर्दन ऊँचा कूदना, उछलना, धावन-शीघ्रतापूर्वक सीधा दौड़ना, धोरण-गति-चातुर्य-चतुराई से दौड़ना, त्रिपदी-भूमि पर तीन पैर रखना, जयिनी-गमनानन्तर जयवती-विजयशीला, जविनी-वेगवती-इन गतिक्रमों में शिक्षित, अभ्यस्त, गले में प्रस्थापित हिलते हुए रम्य, उत्तम आभूषणों से युक्त, नीचे की ओर सम्यक्तया नत हुए–झुके हुए देह के पार्श्वभागों से युक्त, देह के अनुरूप प्रमाणोपेत पार्श्वभागयुक्त, सहजतया सुनिष्पन्न-सुगठित पार्श्वभागयुक्त, परिपुष्ट, गोल तथा सुन्दर संस्थानमय कमरयुक्त, लटकते हुए, लम्बे, उत्तम लक्षणमय, समुचित प्रमाणोपेत, रमणीय चामर-पूछ के बालों से युक्त, अत्यन्त सूक्ष्म, सुनिष्पन्न, स्निग्ध-चिकने, मुलायम देह के रोमों की छवि से युक्त, मृदु-कोमल, विशद उज्ज्वल अथवा प्रत्येक रोम-कूप में एक-एक होने से परस्पर असम्मिलित नहीं मिले हुए, पृथक्-पृथक् परिदृश्यमान, सूक्ष्म, उत्तम लक्षणयुक्त, विस्तीर्ण, केसरपालि -स्कन्धकेशश्रेणी-कन्धों पर उगे बालों की पंक्तियों से सुशोभित, ललाट पर धारण कराये हुए दर्पणाकार आभूषणों से युक्त, मुखमण्डक-मुखाभरण, अवचूल-लटकते लूबे, चंवर एवं दर्पण के आकार के विशिष्ट आभूषणों से शोभित, परिमण्डित–सुसज्जित कटि-कमर युक्त, तपनीय---- स्वर्णमय खुर, जिह्वा तथा तालुयुक्त, तपनीय-स्वर्णनिर्मित रस्सी द्वारा विमान से सुयोजित—सुन्दररूप में जुड़े हुए, इच्छानुरूप गतियुक्त (प्रीति तथा उल्लास पूर्वक चलनेवाले, मन के वेग की ज्यों चलने वाले), मन को रमणीय प्रतीत होने वाले, अत्यधिक तेज गतियुक्त, अपरिमित बल, वीर्य, पुरुषार्थ तथा पराक्रमयुक्त, उच्च स्वर से हिनहिनाहट करते हुए, अपनी मनोहर ध्वनि द्वारा गगन-मण्डल को आपूर्ण Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] करते हुए, दिशाओं को सुशोभित करते हुए चार हजार अश्वरूपधारी देव विमान के उत्तरी पार्श्व को परिवहन करते हैं। चार-चार हजार सिंहरूपधारी देव, चार-चार हजार गजरूपधारी देव, चार-चार हजार रूपधारा देव तथा चार-चार हजार अश्वरूपधारी देव-कूल सोलह-सोलह हजार देव चन्द्र और सूर्य विमानों का परिवहन करते हैं। ___ ग्रहों के विमानों का दो-दो हजार सिंहरूपधारी देव, दो-दो हजार गजरूपधारी देव, दो-दो हजार वृषभरूपधारी देव और दो-दो हजार अश्वरूपधारी देव-कुल आठ-आठ हजार देव परिवहन करते हैं। नक्षत्रों के विमानों का एक-एक हजार सिंहरूपधारी देव, एक-एक हजार गजरूपधारी देव, एक-एक हजार वृषभरूपधारी देव एवं एक-एक हजार अश्वरूपधारी देव-कुल चार-चार हजार देव परिवहन करते हैं। तारों के विमानों का पांच-पाँच सौ सिंहरूपधारी देव, पाँच-पाँच सौ गजरूपधारी देव, पाँचपाँच सौ वृषभरूपधारी देव तथा पांच-पाँच सौ अश्वरूपधारी देव-कुल दो-दो हजार देव परिवहन करते हैं। __ उपर्युक्त चन्द्र-विमानों के वर्णन के अनुरूप सूर्य-विमान (ग्रह-विमानों, नक्षत्र-विमानों) और तारा-विमानों का वर्णन है / केवल देव-समूह में परिवाहक देवों की संख्या में अंतर है। विवेचन-चन्द्र प्रादि देवों के विमान किसी अवलम्बन के बिना स्वयं गतिशील होते हैं। किसी द्वारा परिवहन कर उन्हें चलाया जाना अपेक्षित नहीं है / देवों द्वारा सिंहरूप, गजरूप, वृषभरूप तथा अश्वरूप में उनका परिवहन किये जाने का जो यहाँ उल्लेख है, उस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है-प्राभियोगिक देव तथाविध पाभियोग्य नामकर्म के उदय से अपने समजातीय या हीनजातीय देवों के समक्ष अपना वैशिष्ट्य, सामर्थ्य, अतिशय ख्यापित करने हेतु सिंहरूप में, गजरूप में, वृषभरूप में तथा अश्वरूप में विमानों का परिवहन करते हैं। यों वे चन्द्र, सूर्य आदि विशिष्ट, प्रभावक देवों के विमानों को लिये चलना प्रदर्शित कर अपने अहं की तुष्टि मानते हैं। ज्योतिष्क देवों की गति : ऋद्धि 201. एतेसि णं भन्ते ! चंदिम-सूरि-गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं कयरे सबसिग्घगई कयरे सव्वसिग्घतराए चेव ? गोयमा ! चंदेहितो सूरा सम्वसिग्घगई, सूरेहितो गहा सिग्घगई, गहेहितो णक्खत्ता सिग्घगई, . णक्खत्तेहितो ताराख्वा सिग्धगई, सव्वप्पगई चंदा, सव्वसिग्घगई तारारूवा इति / [201] भगवन् ! इन चन्द्रों, सूर्यो, ग्रहों, नक्षत्रों तथा तारों में कौन सर्वशीघ्रगति हैंचन्द्र आदि सर्व ज्योतिष्क देवों की अपेक्षा शीघ्र गतियुक्त हैं ? कौन सर्वशीघ्रतर गतियुक्त हैं ? गौतम ! चन्द्रों की अपेक्षा सूर्य शीघ्रगतियुक्त हैं, सूर्यों की अपेक्षा ग्रह शीघ्रगतियुक्त हैं, ग्रहों की अपेक्षा नक्षत्र शीघ्रगतियुक्त हैं तथा नक्षत्रों की अपेक्षा तारे शीघ्र गतियुक्त हैं। इनमें चन्द्र सबसे अल्प या मन्द गतियुक्त हैं तथा तारे सबसे अधिक शीघ्र गतियुक्त हैं। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र 202. एतेसि णं भन्ते ! चंदिम-सूरिन-गह-णक्खत्त-तारारूवाणं कयरे सम्वमहिड्डिा कयरे सम्वप्पिजिना ? गोयमा ! तारास्वेहितो णक्खत्ता महिड्डिया, णक्खहितो गहा महिडिया, गहेहितो सूरिया महिड्डिया, सूरेहितो चंदा महिड्डिआ। सम्वपिडिमा तारारूवा सव्वमहिड्डिया चंदा। [202] गौतम ! इन चन्द्रों, सूर्यो, ग्रहों, नक्षत्रों तथा तारों में कौन सर्वमहद्धिक हैं सबसे अधिक ऋद्धिशाली हैं ? कौन सबसे अल्प-कम ऋद्धिशाली हैं ? गौतम ! तारों से नक्षत्र अधिक ऋद्धिशाली हैं, नक्षत्रों से ग्रह अधिक ऋद्धिशाली हैं, ग्रहों से सूर्य अधिक ऋद्धिशाली हैं तथा सूर्यों से चन्द्र अधिक ऋद्धिशाली है। तारे सबसे कम ऋद्धिशाली तथा चन्द्र सबसे अधिक ऋद्धिशाली हैं। एक तारे से दूसरे तारे का अन्तर 203. जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे ताराए अ ताराए अ केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे-वाघाइए अनिवाघाइए / निवाघाइए जहण्णणं पंचधणुसयाई उक्कोसेणं दो गाऊपाई। वाघाइए जहण्णणं दोणि छावळे जोप्रणसए, उक्कोसेणं बारस जोअणसहस्साई दोणि अ बायाले जोअणसए तारारूवस्स 2 प्रबाहाए अंतरे पण्णत्ते / [203] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत एक तारे से दूसरे तारे का कितना अन्तर-फासला बतलाया गया है ? गौतम ! अन्तर दो प्रकार का है—१. व्याघातिक--जहाँ बीच में पर्वत आदि के रूप में व्याधात हो / 2. नियघातिक-जहाँ बीच में कोई व्याघात न हो। एक तारे से दूसरे तारे का निर्व्याघातिक अन्तर जघन्य 500 धनुष तथा उत्कृष्ट 2 गव्यूत बतलाया गया है। एक तारे से दूसरे तारे का व्याघातिक अन्तर जघन्य 266 योजन तथा उत्कृष्ट 12242 योजन बतलाया गया है। ज्योतिष्क देवों की अग्रमहिषियाँ 204. चन्दस्स णं भंते ! जोइसिदस्स मोइसरणो कइ अगमहिसीनो पण्णतामो? गोयमा ! चत्तारि अम्गमहिसीनो पण्णत्तानो तंजहा–चन्दप्पभा, दोसिणाभा, अच्चिमालो, पभंकरा / तो णं एगमेगाए देवीए चत्तारि 2 देवीसहस्साई परिवारो पण्णत्तो / पभू णं ताओ एगमेगा देवी अन्न देवीसहस्सं विउवित्तए, एवामेव सपुग्यवरेणं सोलस देवीसहस्सा, सेतं तुडिए। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [389 पह णं भंते ! चंदे जोइसिदे जोइसराया चंदवडेंसए विमाणे चन्दाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए तुडिएणं सद्धि महयाहयणट्टगोमवाइन जाव' दिव्वाइं भोगभोगाइं भुजमाणे विहरित्तए ? गोयमा ! णो इणठे समठे। से केणठेणं जाव विहरित्तए ? गोयमा ! चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो चंदवडेंसए विमाणे चंदाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेइप्रखंभे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहूईश्रो जिणसकहाओ सन्निखित्तानो चिट्ठति ताओ णं चंदस्स अण्णेसि च बहूणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाप्रो पज्जुवासणिज्जानो, से तेणठेणं गोयमा ! णो पभुत्ति, पमू णं चंदे सभाए सुहम्माए चहिं सामाणिअसाहस्सोहिं एवं जाव' दिव्वाइं भोगभोगाइं भुजमाणे विहरित्तए केवलं परिभारिखीए, णो चेव णं मेहुणवत्तिनं / विजया 1, वेजयंती 2, जयंती 3, अपराजिना ४-सवेहि गहाईणं एमआयो अग्गमहिसोओ, छावत्तरस्सवि गहसयस्स एपात्रो अग्गमहिसोप्रो वत्तवओ, इमाहि गाहाहिति इंगालए विश्रालए लोहिअंके सणिच्छरे चेव / पाहुणिए पाहुणिए कणगसणामा य पंचेव // 1 // सोमे सहिए पासणे य कज्जोवए अ कम्बुरए / प्रयकरए दुंदुभए संखसनामेवि तिणेव // 2 // एवं भाणियव्वं जाव भावकेउस्स अग्गमाहिसीनो त्ति / 1. देखें सूत्र संख्या 142 2. देखें सूत्र संख्या 142 3. देखें सूत्र संख्या 89 4. तिण्णेव कंसनामा णीले रुप्पि प्रहति चत्तारि / भावतिलपुप्फवण्णे दग दगवण्णे य कायबधे य // 3 // इंदग्विधूमकेऊ हरिपिंगलए बुहे अ सुक्के अ। वहस्सइराहु अगत्थी माणवगे कामफासे अ॥४॥ धरए पमहे वियडे विसंधि कप्पे तहा पयल्ले य / जडियालए य अरुणे अम्गिलकाले महाकाले // 5 // सोत्थिन सोवत्थिपए वद्धमाणग तहा पलंबे अ। णिच्चालोए णिच्चुज्जोए सयंपभे चेव प्रोभासे // 6 // सेयंकर-खेमंकर-प्राभंकर-पभंकरे अ गायब्वो। परए विरए प्र तहा असोग तह बीतसोगे य // 7 // विमल-वितत्थ-विवत्थे विसास तह साल सुव्वए चेव / अनियट्टी एगजडी म होइ विजडी य बोधब्वे // 8 // कर-करिना राय-अगल बोधब्बे पुप्फ भावकेऊय / अट्ठासीई गहा खलु णायव्वा प्राणपृठवीए // 9 // - श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र, शान्तिचन्द्रीया वृत्ति, पत्रांक 534-35 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र [204] भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के इन्द्र, ज्योतिष्क देवों के राजा चन्द्र के कितनी अग्रमहिषियों-प्रधान देवियाँ बतलाई गई हैं ? गौतम ! चार अग्रमहिषियाँ बतलाई गई हैं--१. चन्द्रप्रभा, 2. ज्योत्स्नाभा, 3. अचिमाली तथा 4. प्रभंकरा। __ उनमें से एक-एक अग्रमहिषी का चार-चार हजार देवी-परिवार बतलाया गया है। एक-एक अग्रमहिषी अन्य सहस्र देवियों की विकुर्वणा करने में समर्थ होती है / यों विकुर्वणा द्वारा सोलह हजार देवियाँ निष्पन्न होती हैं / वह ज्योतिष्कराज चन्द्र का अन्तःपुर है। भगवन् ! क्या ज्योतिष्केन्द्र, ज्योतिष्कराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में चन्द्रा राजधानी में सुधर्मा सभा में अपने अन्तःपुर के साथ—देवियों के साथ नाट्य, गीत, वाद्य आदि का आनन्द लेता हुप्रा दिव्य भोग भोगने में समर्थ होता है ? गौतम ! ऐसा नहीं होता-ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र सुधर्मा सभा में अपने अन्तःपुर के साथ दिव्य भोग नहीं भोगता। भगवन् ! वह दिव्य भोग क्यों-किस कारण नहीं भोगता? गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र, ज्योतिष्कराज चन्द्र के चन्द्रावतंसक विमान में चन्द्रा राजधानी में सुधर्मा सभा में माणवक नामक चैत्यस्तंभ है। उस पर वज्रमय-हीरक-निमित गोलाकार सम्पुटरूप पात्रों में बहुत सी जिन-सक्थियाँ-जिनेन्द्रों की अस्थियाँ स्थापित हैं। वे चन्द्र तथा अन्य बहुत से देवों एवं देवियों के लिए अर्चनीय-पूजनीय तथा पर्युपासनीय हैं / इसलिए उनके प्रति बहुमान के कारण आशातना के भय से अपने चार हजार सामानिक देवों से संपरिक्त चन्द्र सुधर्मा सभा में अपने अन्त:पूर के साथ दिव्य भोग नहीं भोगता। वह वहाँ केवल अपनी परिवार-ऋद्धि-यह मेरा अन्तःपुर है, परिचर है, मैं इनका स्वामी हूं--यों अपने वैभव तथा प्रभुत्व की सुखानुभूति कर सकता है, मैथुनसेवन नहीं करता। - सब ग्रहों आदि' की 1. विजया, 2. वैजयन्ती, 3. जयन्ती तथा 4. अपराजिता नामक चारचार अग्रमहिषियाँ हैं / यो 176 ग्रहों की इन्हीं नामों की अग्रमहिषियाँ हैं / गाथाएँ-ग्रह 1. अङ्गारक, 2. विकालक, 3. लोहिताङ्क, 4. शनैश्चर, 5. प्राधुनिक, 6. प्राधुनिक, ७.कण, 8. कणक, 6. कणकणक, 10. कणवितानक, 11. कणसन्तानक, 12. सोम, 13. सहित, 14. आश्वासन, 15. कार्योपग, 16. कुर्बुरक, 17. अजकरक, 18. दुन्दुभक, 16. शंख, 20. शंखनाभ, 21. शंखवर्णाभ-यों भावकेतु पर्यन्त ग्रहों का उच्चारण करना चाहिए। उन सबकी अग्रमाहिषियाँ उपर्युक्त नामों की हैं। 1. यहाँ नक्षत्रों एवं तारों का भी ग्रहण है। 2. 22. कंस, 23. कंसनाभ, 24. कंसवर्णाभ, 25. नील, 26. नीलावभास, 27. रुप्पी, 28. रुध्यवभास, 29. भस्म, 30. भस्मराशि, 31. तिल, 32. तिलपुष्पवर्ण, 33, दक, 34. दकवर्ण, 35. काय, 36. वन्ध्य, 37. इन्द्राग्नि, 38. धूमकेतु, 39. हरि, 40. पिङ्गलक, 41. बुध, 42. शुक्र, 43. वृहस्पति, 44. राहु, Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [391 देवों को काल-स्थिति 205. चंदविमाणे णं भंते ! देवाणं केवइ कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिनोवमं वाससयसहस्समभहिअं। चंदविमाणे णं देवीणं जहण्णेणं चउभागपलिग्रोवम उक्कोसेण अद्धपलियोवमं पण्णासाए वाससहस्से हिमन्भहि। सूरविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं पलिप्रोवमं वाससहस्समम्भहियं / सूरविमाणे देवीणं जहण्णणं चउब्भागपलिग्रोवम उक्कोसेणं प्रद्धपलिओमं पंचहि वाससवएहि प्रभाहियं / गहबिमाणे देवाणं जहण्णेणं चउम्भागपलिग्रोवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं / गहविमाणे देवाणं जहण्णेणं चउभागपलिप्रोवमं उक्कोसेणं अद्धपलिनोवमं / णक्खत्तविमाणे देवाणं जहण्णणं चउम्भागपलिश्रोवम उक्कोसेणं प्रद्धपलिनोवमं / णक्खत्तविमाणे देवीणं जहण्णेणं चउम्भागपलिश्रोवम उक्कोसेणं साहिअं चउम्भागपलिओवमं / ताराविमाणे देवाणं जहणणं अट्ठभागपलिप्रोवम उक्कोसेणं चउभागपलिओवमं / ताराविमाणे देवीणं जहणणं अट्ठभागपलिग्रोवमं उक्कोसेणं साइरेगं अट्ठभागपलिओवमं / [205] भगवन् ! चन्द्र-विमान में देवों की स्थिति कितने काल की होती है ? गौतम ! चन्द्र-विमान में देवों की स्थिति जघन्य-कमसे कम : पल्योपम तथा उत्कृष्टअधिक से अधिक एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम होती है। चन्द्र-विमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट पचास हजार वर्ष अधिक अर्ध पल्योपम होती है / सूर्य-विमान में देवों की स्थिति जघन्य : पल्योपम तथा उत्कृष्ट एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम होती है। सूर्य-विमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट पाँच सौ वर्ष अधिक अर्ध पल्योपम होती है। ग्रह-विमान में देवों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट एक पल्योपम होती है / ग्रहविमान में देवियों की स्थिति जघन्य र पल्योपम तथा उत्कृष्ट अर्ध पत्योपम होती है। नक्षत्र-विमान में देवों की स्थिति जघन्य : पल्योपम तथा उत्कृष्ट अर्ध पल्योपम होती है। नक्षत्र-विमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक : पल्योपम होती है / 45. अगस्ति, 46. माणवक, 47. कामस्पर्श, 48. धुरक, 49. प्रमुख, 50. विकट, 51. विसन्धिकल्प, 52. तथाप्रकल्प, 53. जटाल, 54. अरुण, 55. अग्नि, 56. काल, 57. महाकाल, 58, स्वस्तिक, 59. सौवस्तिक 60. वर्धमानक, 61. तथाप्रलम्ब, 62. नित्यालोक, 63. नित्योद्योत, 64. स्वयंप्रभ, 65. अवभास, 66. श्रेयस्कर, 67. क्षेमकर, 68. आभङ्कर, 69. प्रभङ्कर, 70. बोद्धव्यअरजा, 71. विरजा, 72. तथाअशोक, 73. तथावीतशोक, 74. विमल, 75. वितत, 76. विवस्त्र, 77. विशाल, 78. शाल, 79. सुनत, 80, अनिवृत्ति, 81. एकजटी, 82. द्विजटी, 83. बोद्धव्यकर, 84. करिक, 85. राजा, 86. अर्गल, 87. बोद्धव्य पुष्पकेतु, 88, भावकेतु / द्विगुणित करने पर ये 176 होते हैं। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसु S 392] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तारा-विमान में देवों की स्थिति जघन्यपल्योपम तथा उत्कृष्ट पल्योषम होती है / ताराविमान में देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक है पल्योपम होती है / नक्षत्रों के अधिष्ठातृ-देवता 206. बह्मा विण्हू अ वसू, वरुणे अय वुड्डी पूस पास जमे / अग्गि पयावइ सोमे, सद्दे अदिती वहस्सई सप्पे // 1 // पिउ भगअज्जमसविश्रा, तट्ठा बाऊ तहेव इंदग्गी। मित्ते इंदे निरुई, पाऊ विस्सा य बोद्धम्वे // 2 // [206] नक्षत्रों के अधिदेवता अधिष्ठातृ-देवता इस प्रकार हैं नक्षत्र अधिदेवता अभिजित् ब्रह्मा श्रवण विष्णु धनिष्ठा शतभिषक वरुण पूर्वभाद्रपदा अज उत्तरभाद्रपदा वृद्धि (अभिवृद्धि) रेवती पूषा अश्विनी अश्व भरणी यम कृत्तिका अग्नि रोहिणी प्रजापति मृगशिर सोम आर्द्रा रुद्र पुनर्वसु अदिति पुष्य अश्लेषा सर्प मघा पिता पूर्व फाल्गुनी भग उत्तरफाल्गुनी अर्यमा हस्त सविता चित्रा त्वष्टा स्वाति वायु विशाखा इन्द्राग्नी अनुराधा मित्र ; as in Mor Moror Movor x si w g is w बृहस्पति oon is in x Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [393 25. नक्षत्र अधिदेवता ज्येष्ठा इन्द्र 26. मूल निऋति 27. पूर्वाषाढा श्राप 28. उत्तराषाढा विश्वे (विश्वेदेव) अल्प, बहु, तुल्य 207. एतेसि णं भन्ते ! चंदिमसूरिप्रगहणक्खत्तताराख्वाणं कयरे कयरे हितो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! चंदिमसूरिया दुवे तुल्ला सम्वत्थोवा, णक्खत्ता संखेज्जगुणा, गहा संखेज्जगुणा, तारारूवा संखेज्जगुणा इति / [207] भगवन् ! चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तथा तारामों में कौन किनसे अल्प-कम, कौन किनसे बहुत, कौन किनके तुल्य-समान तथा कौन किनसे विशेषाधिक हैं ? गौतम ! चन्द्र और सूर्य तुल्य–समान हैं। वे सबसे स्तोक-कम हैं। उनकी अपेक्षा नक्षत्र संख्येय गुने--२८ गुने अधिक हैं। नक्षत्रों की अपेक्षा ग्रह संख्येय गुने कुछ अधिक तीन गुने'-८८ गुने अधिक हैं / ग्रहों को अपेक्षा तारे संख्येय गुने–६६६७५ कोडाकोड ' गुने अधिक हैं / तीर्थकरादि-संख्या 206. जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दो जहणपए वा उक्कोसपए वा केवइया तित्थयरा सम्वग्गेणं पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णपए चत्तारि उक्कोसपए चोत्तोसं तित्थयरा सव्वग्गेणं पण्णत्ता। जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे केवइया जहण्णपए वा उक्कोसपए वा चक्कवट्टी सव्वग्गेणं पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णपदे चत्तारि उक्कोसपदे तीसं चक्कवट्टी सव्वग्गेणं पण्णता इति, बलदेवा तत्तिमा चेव जत्तिमा चक्कवट्टी, वासुदेवावि तत्तिया चेवत्ति / जम्बूद्दीवे दोवे केवइया निहिरयणा सव्वग्गेणं पण्णता? गोयमा ! तिणि छलुत्तरा णिहिरयणसया सव्वग्गेणं पण्णता, जम्बुद्दोवे दीवे केवइया णिहिरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! जहण्णपए छत्तीसं उक्कोसपए दोणि सत्तरा णिहिरयणसया परिभोगत्ताए हब्वमा. गच्छंति। जम्बहीवे णं भन्ते ! दीवे केवइया पंचिदिअरयणसया सव्वग्गेणं पण्णता? 1. श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र, शान्ति चन्द्रीया वृत्ति, पत्रांक 536 2. जम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिमूत्र हिन्दी अनुवाद, श्री अमोलक ऋषि, पृष्ठ 617 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! दो दसुत्तरा पंचिदिप्ररयणसया सव्वग्गेणं पण्णत्ता / जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे जहण्णपदे वा उक्कोसपदे वा केवइमा पंचिदिनरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! जहण्णपए अट्ठावीसं उक्कोसपए दोष्णि दसुत्तरा पंचिदिनरयणसया परिभोगत्ताए ध्वमागच्छति। जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे केवइया एगिदिनरयणसया सत्वग्गेणं पण्णता? गोयमा! दो दसुत्तरा एगिदिअरयणसया सब्वग्गेणं पण्णत्ता। जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दोवे केवइया एगिदिनरयणसया परिभोगत्ताए हस्वमागच्छन्ति ? गोयमा ! जहण्णपए अट्ठावीसं उक्कोसपए दोण्णि दसुत्तरा एगिदिश्ररयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छन्ति / [208] भगवन् ! जम्बूद्वीप में जघन्य-कम से कम तथा उत्कृष्ट-अधिक से अधिक समग्रतया कितने तीर्थंकर होते हैं ? गौतम ! कम से कम चार तथा अधिक से अधिक चौतीस तीर्थकर होते हैं। भगवन ! जम्बद्वीप में कम से कम तथा अधिक से अधिक कितने चक्रवर्ती होते हैं? गौतम ! कम से कम चार तथा अधिक से अधिक तीस चक्रवर्ती होते हैं। जितने चक्रवर्ती होते हैं, उतने ही बलदेव होते हैं, वासुदेव भी उतने ही होते हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीप में निधि-रत्न-उत्कृष्ट निधान कितने होते हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में निधि-रत्न 306 होते हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने सौ निधि-रत्न यथाशीघ्र परिभोग-उपयोग में आते हैं ? गौतम ! कम से कम 36 तथा अधिक से अधिक 270 निधि-रत्न यथाशीघ्र परिभोगउपयोग में आते हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने सौ पञ्चेन्द्रिय-रत्न होते हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में पञ्चेन्द्रिय-रत्न 210 होते हैं / भगवन् ! जम्बूद्वीप में कम से कम और अधिक से अधिक कितने पञ्चेन्द्रिय-रत्न यथागोघ्र परिभोग-उपयोग में आते हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में कम से कम 28 और अधिक से अधिक 210 पञ्चेन्द्रिय-रत्न यथाशीघ्र परिभोग-उपयोग में आते हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने सौ एकेन्द्रिय रत्न होते हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में 210 एकेन्द्रिय-रत्न होते हैं। भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने सौ एकेन्द्रिय-रत्न यथाशीघ्र परिभोग--उपयोग में आते हैं ? गीतम ! कम से कम 28 तथा अधिक से अधिक 210 एकेन्द्रिय-रत्न यथाशीघ्र परिभोगउपयोग में आते हैं। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार विवेचन--ज्ञाप्य है कि यहाँ निधि-रत्नों, पञ्चेन्द्रिय-रत्नों तथा एकेन्द्रिय-रत्नों का वर्णन चक्रवतियों की अपेक्षा से है। जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र के बत्तीस विजयों में बत्तीस तथा भरतक्षेत्र और ऐरवत क्षेत्र में एक-एक तीर्थकर जब होते हैं तब तीर्थकरों की उत्कृष्ट संख्या 34 होती है / जब जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में शोता महानदी के दक्षिण और उत्तर भाग में एक-एक और शीतोदा महानदो के दक्षिण और उत्तर भाग में एक-एक चक्रवर्ती होता है, तब जघन्य चार चक्रवर्ती होते हैं। जब महाविदेह के 32 विजयों में से अट्ठाईस विजयों में 28 चक्रवर्ती और भरत में एक एवं ऐरवत में एक चक्रवर्ती होता है तब समग्र जम्बूद्वीप में उनकी उत्कृष्ट संख्या तीस होती है / स्मरण रहे कि जिस समय 28 चक्रवर्ती 28 विजयों में होते हैं उस समय शेष चार विजयों में चार वासुदेव होते हैं और जहाँ वासुदेव होते हैं वहाँ चक्रवर्ती नहीं होते / अतएव चक्रवतियों की उत्कृष्ट संख्या जम्बूद्वीप में तीस ही बतलाई गई है। चक्रवर्तियों की जघन्य संख्या की संगति तीर्थंकरों की संख्या के समान जान लेना चाहिए / जब चक्रवतियों को उत्कृष्ट संख्या तीस होती है तब वासुदेवों की जघन्य संख्या चार होतो है और जब वासुदेवों की उत्कृष्ट संख्या 30 होती है तब चक्रवर्ती की संख्या 4 होती है / बलदेवों की संख्या की संगति वासुदेवों के समान जान लेना चाहिए क्योंकि ये दोनों सहचर होते हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती के नौ-नौ निधान होते हैं। उनके उपयोग में आने की जघन्य और उत्कृष्ट संख्या चक्रवर्तियों की जघन्य और उत्कृष्ट संख्या पर प्राधत है। निधानों और रत्नों की संख्या के सम्बन्ध में भी यही जानना चाहिए / प्रत्येक चक्रवर्ती के नौ निधान होते हैं। नौ को चौतीस से गुणित करने पर 306 संख्या पाती है। किन्तु उनमें से चक्रवतियों के उपयोग में आने वाले निधान जघन्य छत्तीस और अधिक से अधिक 270 हैं। चक्रवर्ती के सात पंचेन्द्रियरत्न इस प्रकार हैं-१. सेनापति, 2. गाथापति, 3. वर्द्धकी, 4. पुरोहित, 5. गज, 6. अश्व, 7. स्त्रीरत्न / एकेन्द्रिय रत्न-१. चक्ररत्न, 2. छत्ररत्न, 3. चर्मरत्न, 4. दण्डरत्न, 5. असिरत्न, 6. मणिरत्न, 7. काकणीरत्न / जम्बूद्वीप का विस्तार 206. जम्बुद्दोवे णं भन्ते ! दोवे केवइयं पायाम-विक्खंभेणं, केवइ परिक्खेवेणं, केवइअं उन्वेहेणं, केवइयं उद्ध उच्चत्तेणं, केवइ सध्वग्गेणं पण्णते? / __ गोयमा ! जम्बुद्दोवे दोवे एगं जोअण-सयसहस्सं पायाम-विक्खंभेणं, तिणि जोयण-सयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणि अ सत्तावोसे जोग्रणसए तिण्णि अ कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तेरस अंगुलाई श्रद्ध'गुलं च किंचि विसेसाहिअं परिक्खेवेणं पण्णत्ते। एगं जोअण-सहस्सं उव्वेहेणं, णवणउति जोअण-सहस्साइं साइरेगाई उद्धं उच्चत्तेणं, साइरेगं जोश्रण-सय-सहस्सं सध्वग्गेणं पण्णत्ते / 206] भगवन् ! जम्बूद्वीप की लम्बाई-चौड़ाई, परिधि, भूमिगत गहराई, ऊँचाई तथा भूमिगत गहराई और ऊँचाई-दोनों समग्रतया कितनी बतलाई गई है ? ___ गौतम ! जम्बूद्वीप की लम्बाई-चौड़ाई 1,00,000 योजन तथा परिधि 3,16,227 योजन 3 कोश 128 धनुष कछ अधिक 136 अंगूल बतलाई गई है। इसकी भूमिगत गहराई 1000 योजन, ऊँचाई कुछ अधिक 66,000 योजन तथा भूमिगत गहराई और ऊँचाई दोनों मिलाकर कुछ अधिक 1,00,000 योजन है। जम्बूद्वीप : शाश्वत : अशाश्वत 210. जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे कि सासए असासए ? गोयमा ! सिम सासए, सिम्र प्रसासए। से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ–सिन सासए, सिप असासए ? गोयमा! दबट्टयाए सासए, वष्ण-पज्जवेहि, गंध-पज्जवेहि, रस-पज्जवेहि फास-पज्जवेहि असासए। से तेणठेणं गोयमा! एवं वच्चइ सिअ सासए, सिन असासए / जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे कालो केवचिरं होइ ? गोयमा ! ण कयावि णासि, ण कयावि णस्थि, ण कयावि ण भविस्सइ / भुवि च, भवइ अ, भविस्सइ प्र / धुवे, णिपए, सासए, अन्वए, अवट्टिए, णिच्चे जम्बुद्दीवे दीवे पण्णत्ते। [210] भगवन् ! जम्बूद्वीप शाश्वत है या अशाश्वत है ? गौतम ! स्यात्---कथंचित् शाश्वत है, स्यात्-कथंचित् अशाश्वत है / भगवन् ! वह स्यात् शाश्वत है, स्यात् अशाश्वत है- ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! द्रव्य रूप से-द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से वह शाश्वत है, वर्णपर्याय, रसपर्याय एवं स्पर्शपर्याय की दृष्टि से-पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से वह अशाश्वत है। गौतम ! इसी कारण कहा जाता है-वह स्यात् शाश्वत है, स्यात् प्रशाश्वत है। भगवन् ! जम्बूद्वीप काल की दृष्टि से कब तक रहता है ? गौतम ! यह कभी-भूतकाल में नहीं था, कभी-वर्तमान काल में नहीं है, कभी-भविष्यकाल में नहीं होगा-ऐसी बात नहीं है / यह भूतकाल में था, वर्तमान काल में है और भविष्यकाल में रहेगा। जम्बूद्वीप ध्र व, नियत, शाश्वत, अव्यय, अवस्थित तथा नित्य कहा गया है। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम वक्षस्कार] [397 जम्बूद्वीप का स्वरूप 211. जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे कि पुढदि-परिणामे, पाउ-परिणामे, जीव-परिणामे, पोग्गल-परिणामे ? गोयमा ! पुढवि-परिणामेवि, पाउ-परिणामेवि, जीव-परिणामेवि, पोग्गल-परिणामेवि / जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे सव्व-पाणा, सव्व-जीवा, सव्व-भूना, सव्व-सत्ता, पुढविकाइप्रत्ताए, प्राउकाइप्रत्ताए, तेउकाइअत्ताए, वाउकाइअत्ताए, वणस्सइकाइप्रत्ताए उववण्णपुवा ? हंता गोयमा ! असई अहवा अणंतखुत्तो। [211] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप पृथ्वी-परिणाम-पृथ्वीपिण्डमय है, क्या अप-परिणामजलपिण्डमय है, क्या जीव-परिणाम-जीवमय है, क्या पुद्गलपरिणाम-पुद्गल-स्कन्धमय है ? ___ गौतम ! पर्वतादियुक्त होने से पृथ्वीपिण्डमय भी है, नदी, झील आदि युक्त होने से जलपिण्डमय भी है, वनस्पति आदि युक्त होने से जीवमय भी है, मूर्त होने से पुद्गलपिण्डमय भी है / भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप में सर्वप्राण-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीव, सर्वजीवपञ्चेन्द्रिय जीव, सर्वभूत-वृक्ष (वनस्पति जीव), सर्वसत्त्व-पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु के जीवये सब पृथ्वीकायिक के रूप में, अकायिक के रूप में, तेजस्कायिक के रूप में, वायुकायिक के रूप में तथा वनस्पतिकायिक के रूप में पूर्वकाल में उत्पन्न हुए हैं ? हाँ, गौतम ! बे असंकृत–अनेक बार अथवा अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं। जम्बूद्वीप : नाम का कारण 212. से केणठेणं भन्ते ! एवं वुश्चइ जम्बुद्दीवे दोवे ? गोयमा ! जम्बद्दीवे णं दीवे तत्थ 2 देसे तहि 2 बहवे जम्बू-रुवखा, जम्बू-बणा, जम्बू-वणसंडा, णिच्चं कुसुमित्रा (णिचं माइमा, णिच्चं लवइआ, णिच्चं थवइया, णिच्चं गुलइया, णिचं गोच्छिमा, णिच्चं जलिया, णिच्चं जुलिया, णिच्च विणमिया, णिचं पणमिश्रा, णिच्चं कुसुमित्र-माइअलवइअ-थवइअ-गुलइअ-गोच्छिन-जमलिअ-जुलिअ-विणमिअ-पणमिअ-सुविभत्त-) पिडिम-मंजरि-वडेंसगधरा सिरीए अईव उवसोभेमाणा चिट्ठति / , जम्बूए सुदंसणाए अणाढिए णामं देवे महिडिए जाव' पलियोवदिइए परिवसइ / से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जम्बुद्दीवे दीवे इति / [212] भगवन् ! जम्बूद्वीप 'जम्बूद्वीप' क्यों कहलाता है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत से जम्बू वृक्ष हैं, जम्बू वृक्षों से प्रापूर्ण वन हैं, वन-खण्ड हैं-जहाँ प्रमुखतया जम्बू वृक्ष हैं, कुछ और भी तरु मिले-जुले हैं / वहाँ वनों तथा वन-खण्डों में वृक्ष सदा-सब ऋतुओं में फूलों से लदे रहते हैं। (वे मंजरियों, पत्तों, फूलों के 1. देखें सूत्र-संख्या 14 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गुच्छों, गुल्मों-लता-कुंजों तथा पत्तों के गुच्छों से युक्त रहते हैं। कई ऐसे हैं, जो सदा समश्रेणिक रूप में-एक पंक्ति में स्थित हैं। कई ऐसे हैं, जो सदा युगल रूप में-दो-दो की जोड़ो के रूप में विद्यमान हैं। कई ऐसे हैं, जो पूष्पों एवं फलों के भार से नित्य विनमित-बहत झके हए हैं. प्रणमित-विशेष रूप से अभिनमित-नमे हुए हैं। कई ऐसे हैं, जो ये सभी विशेषताएँ लिये हैं / ) वे अपनो सुन्दर लुम्बियों तथा मजरियों के रूप में मानो शिरोभूषण-कलंगियाँ धारण किये रहते हैं। वे अपनी श्री-कान्ति द्वारा अत्यन्त शोभित होते हुए स्थित हैं / जम्बू सुदर्शना पर परम ऋद्धिशाली, पल्योपम-आयुष्ययुक्त अनाहत नामक देव निवास करता है। गौतम ! इसी कारण वह (द्वीप) जम्बूद्वीप कहा जाता है। उपसंहार : समापन 213. तए णं समणे भगवं महावीरे मिहिलाए गयरोए माणिभद्दे चेइए बहूणं समणाणं, बहूर्ण समणोणं, बहूणं सावयाणं, बहूर्ण सावियाणं, बहूणं देवाणं, बहूणं देवोणं मझगए एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ जम्बूदोवपण्णत्तो णामत्ति प्रज्जो ! अज्झयणे अठं च हेउं च पसिणं च कारणं च वागरणं च भुज्जो 2 उबदंसेइ ति बेमि / ॥जंबुद्दीवपण्णत्तो समत्ता // [213] सुधर्मा स्वामी ने अपने अन्तेवासी जम्बू को सम्बोधित कर कहा-~-आर्य जम्बू ! मिथिला नगरी के अन्तर्गत मणिभद्र चैत्य में बहुत-से श्रमणों, बहत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों, बहुत-सो श्राविकाओं, बहुत-से देवों, बहुत-सी देवियों को परिषद् के बीच श्रमण भगवान् महावीर ने शस्त्रपरिज्ञादि को ज्यों श्रुतस्कन्धादि के अन्तर्गत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति नामक स्वतन्त्र अध्ययन का पाख्यान किया-वाच्यमात्र-कथन पूर्वक वर्णन किया, भाषण किया-विशेष-वचन-कथन पूर्वक प्रतिपादन क्रिया व्यक्त पर्याय-वचन द्वारा निरूपण किया, प्ररूपण किया-उपपत्ति या युक्तिपूर्वक व्याख्यात किया। विस्मरणशील श्रोतवन्द पर अनुग्रह कर अर्थ-अभिप्राय, तात्पर्य, हेतु-निमित्त, प्रश्न-शिष्य द्वारा जिज्ञासित, पृष्ट अर्थ के प्रतिपादन, कारण तथा व्याकरण-अपृष्टोत्तर-नहीं पूछे गये विषय में उत्तर, स्पष्टीकरण द्वारा प्रस्तुत शास्त्र का बार बार उपदेश किया-विवेचन किया। // सप्तम वक्षस्कार समाप्त / / // जम्बूद्दीपप्रज्ञप्ति समाप्त / Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट -1 गाथाओं के अक्षरानक्रमी संकेत 8 एए णवणिहिरयणा 264 एए सामाणियाणं 382 एएसि पल्लाण 221 एग च सय-सहस्स 154 298 319 श्रो अउणासीइ सहस्सा अच्छे अ सूरिसावत्ते अडयालीसं भाए अणिग्राहिवाण पच्चत्थिमेण अभिइस्स चन्द-जोगो अभिई छच्च मुहुत्ते अभिई सवणे धणिट्ठा अभिणदिए पइट्ट अ अलंबुसा मिस्सकेसी अवसेसा णवखत्ता, पण्णरस वि हुंति अवसेसा णक्खत्ता. पण्णरस वि सूरसहगया अहमंसि पढमराया अयं बहुगुणदाणं 146 प्रोमज्जायण मंडव्वायणे 353 प्रोसप्पिणी इमीसे 355 279 365 काले कालण्णाण 153 खीलग दामणि एगावली 137 खुज्जा चिलाइ वामणि खेमा खेमपुरा चेव खंडा जोग्रण वासा inorm w अ प्राइच्च-ते-तविया आसपुरा सीहपुरा इ 153 इलादेवी सुरादेवी इह तस्स बहुगुणद्ध इंगालए विद्यालए इंदमुद्धाभिसित्ते WWW0 arrurt MAK 248 गणिअस्स य उत्पत्ती गोवल्लायण तेगिच्छायणे 279 गोसीसावलि काहार 108 गंधव्व-अग्गिवेसे 389 355 चउरासीइ असीइ चउसट्टी सट्ठी खलु चक्कट्ठपइट्टाणा 215 चत्तारि सहस्साई च 298 उत्तमा य सुणक्खत्ता उववानो संकप्पो 384 Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 252 140 219 221 215 248 102 298 392 353 355 364 153 392 पउमुत्तरे णीलवन्ते पढमणरीसर ईसर छप्पणं खलु भाए 381 पढमित्थ नीलवन्तो पणवीसट्ठारस बारसेव पण्णासंगुल दीहो जावइयंमि पमाणमि पम्हे सुपम्हे महापम्हे जोगो देव य तारग्ग परिगरणिगरि मझो जोहाण य उप्पत्ती 154 पलिग्रोवमट्टिईया पालय पुप्फे य सोमणसे णट्टविही णाडगविही 154 पिउ भगअज्जमसवित्रा णवमे वसंतमासे पुढवि-दगाणं च रसं ण वि से खुहाण विलिअं पुवंगे सिद्धमणोरमे सप्पमि णिवेसा पुस्सायणे अ अस्सायणे णंदुत्तरा य णन्दा 278 ब बह्मा विण्हू अ वसू त? अभाविअप्पा तिगतिगपंचगसयदुग तिणि सहस्सा सत्त य 27 भिंगा भिंगप्पभा चेव तिण्णेव उत्तराई, पुण्णवसू रोहिणी विसाहा य / / भोगंकरा भोगवई एए छण्णक्खत्ता म तिण्णेव उत्तराई, पुण्णवसू रोहिणी विसाहा य / वच्चंति मुहुत्ते 366 मज्झ वेअड्ढस्स उ तिसु तणुअंतिसु तंबं 148 मन्दर मेरु मणोरम तेल्ले कोट्ठसमुग्गे 94 मासाणं परिणामा तं चंचलायमाणं 102 मिगसोसावलि रुहिरबिंदु मियसिरं अद्द पुस्सो मूलंमि जोअणसयं दक्णिखपुरथिमे मूलंमि तिणि सोले दप्पण भद्दासणं 306 मेरुस्स मज्झयारे दो कोसे अ गहाणं 382 मोहंकरा मेहवई मोगल्लायण संखायणे नेसप्पे पंडुअए mm xur 221 272 22 264 221 الله الم 331 276 363 प 1. रयणाइं सब्बरयणे 221 2. रुद्दे सेए मित्त 153 356 पउमा पउमप्पभा चेव Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [401 ल 153 353 94 245 228 265 153 249 परिशिष्ट-१ : गाथाओं के अक्षरानुक्रमी संकेत] सव्वा आभरणविही ससि समग-पुण्णमासि लासिय-लउसिय-दमिली सागरगिरिमेरागं लोहस्स य उप्पत्ती 153 सिद्ध अविज्जुणामे व सिद्ध कच्छे खंडग सिद्धणीले पुष्वविदेहे वच्छे सुवच्छे महावच्छे 240 सिद्ध य मालवन्ते वत्थाण य उप्पत्ती सिद्ध रुप्पी रम्मग वप्पे सुवप्पे महावप्पे सिद्ध सोमणसे वि अ वसुहर गुणहर जयहर 140 सुदंसणा अमोहा य विजया य वेजयन्ति 356 सुभद्दा य विसाला य विजया वेजयन्ती 249 सुसीमा कुण्डला चेव विसमं पवालिणो 353 सो देवकम्मविहिणा वेरुलियमणिकवाडा 154 सोमे सहिए पासणे सोलसदेवसहस्सा संठाणं च पमाणं मत्तगदुगदुग-पंचग सत्त पाणूइं से थोवे 27 सत्तेव य कोडिसया 312 हट्ठस्स अणवगल्लस्स सत्थेण सुतिक्खेण वि हयवइ गयवइ गरवइ समयं नक्खत्ता जोगं 352 हिदि ससि-परिवारो समाहारा सुपइण्णा 278 हंदि सुणतु भवंतो, बाहिरो सयभिसया भरणीओ 365 हंदि सुणंतु भवतो, अभितरओ Nory ram rm 27 140 378 102 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ स्थलानुक्रम 273 207 219 227 221 w 221 240 95 अनोज्झा (राजधानी) अठावयपव्वय अणाढिा (राजधानी) अपराइमा (राजधानी) अपराजिय (द्वार) अभियोगसेढी अभिसेअपेढ अभिसेअमंडव अभिसेअसभा अरजा (राजधानी) अलकापुरी अवज्झा (राजधानी) अवरविदेह अवरविदेहकूड अस्सपुरा (राजधानी) असोगवण असोगा (राजधानी) आउधरसाला प्रागर आणंदकूड प्रादंसघर आराम पावत्त (विजयक्षेत्र) प्रावत्तकड आसम प्रासीविस (वक्षस्कार पर्वत) इलादेवीकड ईसाण (सिंहासन) ईसाणकप्प ईसाणवडेंसय 248 उज्जाण 68 उत्तरकुरा 222 उत्तरकुरु (द्रह) 248 उत्तरकुरुकूड उत्तरडभरह 15 उत्तरड्डभरहकूड 166 उत्तरद्धकच्छ उप्पलगूम्मा (पुष्करिणी) 215 उप्पला (पुष्करिणी) 248 उप्पलुज्जला (पुष्करिणी) 87 उम्मग्गजला (नदी) 248 उम्मत्तजला (नदी) 207 उवट्ठाणसाला 205 उवदंसण (कूट) 248 उवयारियालयण 213 उववायसभा 248 उसभकड उसहकड 43 एगसेल (वक्षस्कार पर्वत) 209 एगसेलकूड 176 एरवयकूड 273 एरावय (क्षेत्र, द्रह) 235 प्रोम्मिमालिणी (नदी) 236 प्रोवाय 43 प्रोसही (राजधानी) 248 अंकावई (राजधानी) 190 अंकावई (वक्षस्कार पर्वत) अंगलोय 68 अंजण (वक्षस्कार पर्वत) 68 अंजणग पव्वय 265 213 215 25 146 237 90 रसरम GG KKwGWANY 238 240 248 240 - 72 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [403 186 190 185 209 266 248 209 248 248 243 परिशिष्ट-२ : स्थलानुक्रम] अंजणा (पुष्करिणी) अंजणागिरी (दिशाहस्तिकूट) अंजणाप्पभा (पुष्करिणी) अंतोवाहिणी (नदी) अलंकारिअसभा कच्छ (कट, क्षेत्र) कच्छगावती (विजय) कच्छवइकूड कज्जलप्पभा (पुष्करिणी) कणगकड कब्बड कित्ति (कट) कुण्डला (राजधानी) कुमुद (विजय, दिशाहस्तिकूट) कुमुदप्पभा (पुष्करिणी) कुमुदा (पुष्करिणी) कूडसामलि (पीठ) केसरिद्दह कंचण (कूट) खग्गपुरा (राजधानी) खग्गी (राजधानी) खीरोदगसम्मुद्द खीरोदा (नदी) खेड खेमपुरा (राजधानी) खेमा (राजधानी) खंडप्पवायगुहा खंडप्पवायगृहाकूड खंधावार गगणवल्लभ (नगर) गाम गाहावइकुण्ड गाहावइदीव गाहावई महाणई गंगप्पवाय (कुंड) गंगाकुंड 244 221 गंगादीव 252 गंगादेवीकड 251 गंगावत्तकूड 248 गंगामहाणई 215 ___ गंधमायणकूड 225 गंधमायण (वक्षस्कार पर्वत) 335 गंधाबाई (वैताढय पर्वत) 234 गंधिल (विजय) 221 गंधिलावई (नगरी) 245 गंधिलावई (विजय) 43 गंधिलावईकूड 265 गंभीरमालिणी (नदी) 240 चक्कपुरा (राजधानी) 248 चमरचंचा (राजधानी) 221 चित्तकूड (पर्वत) 221 चुल्लहिमवंत (पर्वत) चुल्लहिमवंतकूड 265 चुल्लहिमवंता (राजधानी) 242 248 चेइअथूम 230 चोप्फाला चंद (वक्षस्कार पर्वत) 248 चंदद्दह 43 चंदगवण 233 जगई 229 जमग (पर्वत) जमिगा (राजधानी) 17 जम्बूपेढ जयंत जयन्ती (राजधानी) जवणदीव 233 जंबुद्दीव 233 णगर 233 णयर 185 णरकन्ता (कूट) 25 णरकन्ता (नदी) 191 213 215 WKW 213 220 248 119 267 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 248 देवकुरा 235 देवकुरु (क्षेत्र) 236 देवकुरु (द्रह) 221 देवकुरु (कूट) देवकुल देवच्छंदय WWWoo 207 204 245 248 248 265 दोणमुह 204 243 181 404] णलिण (वक्षस्कार पर्वत) णलिणकूड (वक्षस्कार पर्वत) णलिणकड लिणा (पुष्करिणी) णलिणावई (विजय) णाग (वक्षस्कार पर्वत) णारिकन्ता (महानदी) णारी (कूट) णिगम णिमग्गजला (नदी) णिसढद्दह णिसह (द्रह) णिसह (वर्षधर पर्वत) णिसहकूड णील (कूट) णीलवंत (दिशाहस्तिकूट) णीलवन्तपव्वय णंदणवण णंदणवणकड णंदीसरदीव पहाणपीढ ण्हाणमंडव तत्तजला (नदी) तमिसगुहा तिउड (वक्षस्कार पर्वत) तिगिच्छिकूड तिगिछिद्दह तिमिमगुहाकूड तिमिसगुहा दहावईकुण्ड दहावती (ई) महाणई दहिमुहगपव्वय दाहिणलभरह दाहिणड्डभरहकूड दाहिणद्धकच्छ देव (वक्षस्कार पर्वत) धिईकूड 43 निसढ (द्रह) 151 नीलवन्तद्दह नंदीसरवर (द्वीप) 244 पउमद्दह पउमप्पभा (पुष्करिणी) पउमवरवेइया पउमा (पुष्करिणी) पउमुत्तर (दिशाहस्तिकूट) पट्टण पभासतित्थ पभं (हं) करा (राजधानी) पहाणकोस पासायडिंसए पम्ह (विजय) पम्हकूड (वक्षस्कार पर्वत, कूट) 240 पम्हगावई विजय 270 पम्हावई (राजधानी) पम्हावई (वक्षस्कार पर्वत) पलास (दिशाहस्तिकूट) पव 115 पवाय 235 पुक्खलविजय 235 पुक्खलावईकूड 73 पुक्खलावई (विजय) 8 पुक्खलावत्तकूड 17 पुक्खलावत्तविजय 227 पुण्डरीम (द्रह) 248 पुण्णभद्दकूड .9 X movo 240 215 WWW.GNck W00 6 WWW 40 G 248 234 248 240 248 17 MMADWAP MK6NK GGMG नीsiMusi Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [405 248 207 و ا م ا م له ا مي کي و ر परिशिष्ट-२ : स्थलानुक्रम पुव्वविदेह (क्षेत्र) पुन्वविदेहकूड पुम्वविदेहवास पेपिच्छाघरमंडव पोक्खलावती (विजय) पोसहसाला पंकावईकुंड पंडगवण पंडुकंबलसिला पंडुसिला पुडरोगिणी फलिहकड फेणमालिणी (नदी) बलकूड बलायालो बुद्धि (कूट) भद्दसालवण भरह भरहकड भिगनिभा (पुष्करिणी) भिंगा (पुष्करिणी) भिंग्गप्पभा (पुष्करिणी) भोयणमंडव मज्जणघर मडंब मणिकंचण (कट) मणिपेदिया मणिभद्दकड मत्तजला (नदी) महाकच्छ (विजय) महाकच्छकूड महापउमद्दह महापम्ह (विजय) महापुण्डरीअ (द्रह) महापुरा (राजधानी) महावच्छ (विजय) मंदरकूड 207 महावप्प (विजय) 205 महाविदेह (क्षेत्र) 265 महामिवन्त (पर्वत) 214 महाहिमवन्तकूड 237 मागहतित्थ 98 माणवगचेइअखंभ 236 माणिभद्द (चैत्य) 250 माणुसुत्तर (पर्वत) 260 मायजण (वक्षस्कारपर्वत, कूट) 260 मालवन्त (द्रह) 238 मालवन्तपरिआय (वृत्तवैताढ्य पर्वत) 209 मिहिला (नगरी) 248 मुहमंडव 256 मंगलावइ (विजयक्षेत्र, कट) 119 मंगलावत्त (विजय, कुट) 267 मंजूसा (राजधानी) 250 मंदरचूलिया मंदरपन्वय 251 रत्तकवलसिला 221 रत्तवई (महानदी) 221 रत्तवईकूड 146 रत्तसिला रत्ता (महानदी) 43 रत्ताकूड 267 रमणिज्ज (विजय) 21 रम्म (विजय) रम्मग (विजय) 240 रम्मग (कूट) रम्मय (ग) (क्षेत्र) 234 रयणसंचया (राजधानी) 197 रयय (कूट) 248 रायंगण 267 रायंतेउर 248 रिट्ठपुरा (राजधानी) 240 रिट्ठा (राजधानी) 60MM WHEWWGow 000000 9urry WWW GWGW 240 240 225 273 270 238 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406] [जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्र 248 17 114 248 62 213 268 245 225 256 265 रुअगकूड 205 वीयसोगा (राजधानी) रुप्पकूला (कूट, नदी) 267 वेअड्डकूड रुप्पि (पर्वत) 266 वेअङ्कपब्वय रुप्पी (कूट) 267 वेअद्धपव्वय रोप्रणागिरी (दिशाहस्तिकूट) 252 वेजयंत रोहिअकूड वेजयन्ती (राजधानी) रोहिअदीव 197 वेरुलिनकूड रोहिअप्पवायड 197 वेसमणकड रोहियामहाणई 194 सगडमुह (उद्यान) रोहिअंसकूड सत्तिवण्णवण रोहिअंसा (द्वीप, महानदी) 187 सद्दावई (वृत्तवैताढय) रोहिअंसापवायकुण्ड सयज्जलकूड लच्छीकड 270 सागर (कूट) लवणसमुद्द सागरचित्तकूड लोहियक्खकूड सिद्ध (कूट) वइरकड़ सिद्धत्थवण (उद्यान) वग्ग (विजय) सिद्धाययण वच्छ (विजय) 240 सिद्धाययणकड वच्छगावई (विजय) सिरिकूड वच्छावई (विजय) सिरिकता (पुष्करिणी) बडिस (दिशाहस्तिकूट) सिरिचंदा (पुष्करिणी) 252 वणसंड सिरिनिलया (पुष्करिणी) वप्प (विजय) सिरिमहिमा (पुष्करिणी) वप्पावई (विजय) वरदामतित्थ सिहरी (वर्षधरपर्वत) ववसायसभा 215 सिंधु (महानदी) वसिट्ठ (कूट) 242 सिंधुमावत्तणकूड विअडावई (वृत्तवैताढय पर्वत) 201 सिंधुकुड विचित्तकूड (पर्वत) 243 सिंधुद्दीव विजय (द्वार) 7 सिंधुदेवीकूड विजयपुरा (राजधानी) 248 सिंधुप्पवायकुड विजया (राजधानी) 248 सीसोपा (नदी) विज्जल 48 सीमा (महानदी) विज्जुप्पह (भ) (वक्षस्कारपर्वत,:द्रह, कूट) 243 सीमा (कूट) विणीमा 56 सीआमुहवण विमल (कूट) 242 सीओअदीव 240 190 240 200 6 248 सिहरिकड 270 269 186 25 186 190 own KANG Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट--२: स्थलानुक्रम] [407 241 250 245 248 43 सीओअप्पवायकुण्ड सीप्रोग्राकूड सीअोपा महाणई सीहपुरा (राजधानी) सुकच्छ (विजयक्षेत्र) सुकच्छकूड सुपम्ह (विजय) सुभा (राजधानी) सुलस (द्रह) सुरदेवीकड सुरादेवीकड सुवग्गू (विजय) सुवच्छ (विजय) सुवण्णकूला (महानदी) सुवण्णकूलाकूड सुवप्प (विजय) सुसीमा (राजधानी) सुहत्थी (दिशाहस्तिकूट) सुहम्मा (सभा) सुहावह (वक्ष. पर्वत) सूर (द्रह, वक्षस्कार पर्वत) 204 सोमणस (वक्षस्कारपर्वत) 205 सोमणसवण 204 सोवत्थिअकड 248 संख (विजय) 233 संणिवेस 232 संबाह 248 हरिकूड 240 हरि महाणई 244 हरिकंतकूड 190 हरिकंतदीव 270 हरिकंतप्पवायकुंड 248 हरिकता महाणई 240 हरिवास (क्षेत्र) 269 हरिवासकूड हरिस्सह (कूट) 248 हिमवयकूड 240 हिरिकूड हेमवन (क्षेत्र) 214 हेमवयकूड 248 हेरण्णवय (कूट) 244, 248 हेरण्णवयवास 43 205 201 200 198 198 198 195 200 270 200 253 267 267 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट--३ व्यक्तिनामानुक्रम 149 210 54 ૭ર 232 278 अग्गि अच्चिमाली अच्चुए अज्जम प्रणाढिय अणिदिया अदिति अपराजिया (देवी) अभिचंद (कुलकर) अय अलंबुसा आऊ प्राणदा आवाड (किरात जातिविशेष) पास इलादेवी 143 388 الله जयंती c6 الله 392 गंगादेवी 388 गंधमायण चक्खुमं (कुलकर) 392 चमर 222 चित्तकूड (देव) 272 चित्तगुत्ता 392 चुल्लहिमवंत (देवविशेष) 278 चुल्लहिमवंतगिरिकुमार चंदप्पभा 392 चंदाभ (कुलकर) 279 जम 392 जमग 278 जयंती 128 393 जसमं (कुलकर) 279 जसोहरा जियसत्तू 392 णट्टमालए णमि णवमिया 54 णाभी 25 णिसह (देव) 62 णीलवंत (देव) 279 णंदा 229 गंदियावत्त 12 दिवद्धणा 298 णंदुत्तरा 54 तट्टा 54 तोयधारा 5 दाहिणद्धभरह (देवविशेष) 278 الله لنا इंदग्गी इंदभूई ईसाण (इन्द्र) उसभ (ऋषभ-कुलकर, आदि जिन) उसभ (देवविशेष) उसभसेण (मुनि) एगणासा कच्छ (देव) कयमालए (देवविशेष) कामगम खेमंकर खेमंधर गोयम 12 148 229 54 205 219 278 298 278 278 292 272 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [409 276 134 276 278 276 279 54 वचन 392 278 392 392 382 276 279 279 25 278 272 परिशिष्ट-३ : व्यक्तिनामानुक्रम] दोसिणाभा धारिणी (रानी) निरुई पउमावई पडिस्सुई (कुलकर) पभंकरा पयावई पसेणई (कुलकर) पालय (देव) पीइगम पिउ पुण्डरीपा पुप्फ (देव) पुप्फमाला पुहवी पूस बम्हा बलाहगा वंभी (आर्या) भग (देवताविशेष) भद्दा भरह (भरत चक्रवर्ती) भरह (देवविशेष) भोगमालिनी भोगवई भोगंकरा मणोरम मरुदेव (कुलकर) मरुदेवा (नाभि पत्नी) महाविदेह (देव) महावीर महाहिमवंत (देव) मागधतित्थकुमार मालवंत (देव) मित्र मिस्सकेसी 388 मेहमालिनी मेहमुह 392 मेहंकरा लिच्छिमई वच्छमित्ता 388 वरुण 392 वरुण 54 वसुंधरा 291 बसू 298 वहस्सइ 392 वाऊ 279 वारिसेणा 298 वारुणी विचित्ता 279 विजय (देवविशेष) 392 विजया 392 विज्जाहर 276 विणमि (विद्याधर राजा) 62 विण्हू 392 विमल (देव) 379 विमलवाहण (कुलकर) 87 विस्सा 179 वुड्डी 272 वेजयन्ती 272 वेयड्डगिरिकुमार (देवविशेष) 272 वेसमण 298 सक्क (शकेन्द्र) सप्प 55 समाहारा 207 सव्वग्रोभद्द (देव) 4 सव्वप्पभा 200 सविया सामी (स्वामी----महावीर) 296 सिरिवच्छ 392 सिरी 279 सीमा 148 392 298 393 398 278 GcM 392 278 298 279 392 298 279 279 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जम्बूदीपप्रज्ञप्तिमूत्र 62 278 15 278 ل 410] सीमकर (कुलकर) सीमंधर (कुलकर) सुप्पइण्णा (देवी) सुप्पबुद्धा सुभद्दा (श्राविका) सुभद्दा (विद्याधर कन्या) सुभोगा सुमई (कुलकर) सुमेहा सुरादेवी सुवच्छा सूरियाभ सेज्जंस सुसेण 278 सेवई सोम सोमणस सिंधुदेवी 272 सुंदरी (प्रायिका) 54 हरिणेगमेसी 276 हरिवास (देव) 298 112 285 200 279 हासा 276 292 हिरी हेमवए (देव) 279 195 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० प्राचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वजित है। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी बेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है / जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी प्रागमों में अनध्यायकाल वणित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिखिते असज्झाए पण्णते, तं जहा--उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, विज्जुते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्धाते / दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा-अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो पोरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहि महापाडिवएहि सज्झायं करित्तए, तं जहाप्रासाढपाडिवए. इंदमहपाडिवए, कत्तिप्रपाडिवए सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा—पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढरत्ते / कप्पइ निम्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउकालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुन्वण्हे अवरण्हे, पोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस प्रौदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तोस अनध्याय माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेआकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 2. विग्वाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 3. गजित-बादलों के गर्जन पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / 4. विद्युत-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412] [अनध्यायकाल गर्जन और विद्युत् प्राय: ऋतु-स्वभाव से ही होता है / अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्धात–बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। 6. यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है / अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धूमिका-कृष्ण-कातिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है / इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है / वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध मिहिका कहलाती है / जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है / . 10. रज-उद्घात–वायु के कारण प्राकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है / जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13 हड्डी, मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ, तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार आस-पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तोन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। 14. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15. श्मशान–श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है / 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य पाठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमश: पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल] [413 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए / 16. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-पाषाढ-पूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 26-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पोछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। OD Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों को शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी महता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर श्री श० जडावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री होरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरड़िया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास चंदजी झामड. मदरान्तकम 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास / 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K.G.F.) जाड़न 15. श्री प्रार. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर डिया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपूर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास 16. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 9. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [415 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 1. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पालो 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजो लूणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजो बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढा, डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 26. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपूर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरीलालजी मुलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 16. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपडा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी W/o श्री ताराचन्दजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजो कोठारी, ब्यावर 36. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 26. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास 30. श्री ताराचदजी केवलचदजा कणावट, जाधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री प्रासूमल एण्ड कं०, जोधपुर सहयोगी सदस्य 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर 33. श्रीमती सुगनीबाई W/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़ता सिटी सांड, जोधपुर 2. श्रीमती छगनीवाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री धेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा xury Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 ] [सदस्य-नामावली 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 66. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा,भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्तमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सरजकरणजी सराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर . 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, , श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलाराम 46. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेट्टपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 76. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मूणोत, टंगला 51. श्री प्रासकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी 83. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा। 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरडिया,भैरू दा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 56. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 86. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 10. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 61. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 12. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 63. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 64. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी राजनांदगाँव 65. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूगरमलजी कांकरिया, 16. श्री अखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 67. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [417 सदस्य-नामावली] 18. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 16. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 119. श्री भीकमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास संघ 104. श्री अमरचंदजी छाजेड, पादू बडी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया. थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास धूलिया 108. श्री दुले राजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 106. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, 110. श्री जीवराजजी भवरलालजी, चोरडिया सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री माँगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाब 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरड़िया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 126. श्री मोतीलालजी पासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 00 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोहाटी ज्यावर मद्रास ब्यावर जोधपुर मद्रास दुर्ग मद्रास 111nllu ब्यावर पाली व्यावर श्री पागम प्रकाशन समिति, ब्यावर कार्यकारिणी समिति 1. श्रीमान सेठ कंवरलालजी वैताला अध्यक्ष 2. श्रीमान सेठ रतनचन्दजी मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष 3. श्रीमान सेठ खींवसजजी चोरडिया उपाध्यक्ष 4. श्रीमान् धनराजजी विनायकिया उपाध्यक्ष 5. श्रीमान् हुक्मीचन्दजी पारख उपाध्यक्ष 6. श्रीमान् पारसमलजी चोरड़िया उपाध्यक्ष 7. श्रीमान् जसराजजी पारख उपाध्यक्ष 8. श्रीमान् जी. सायरमलजी चोरडिया महामंत्री 9. श्रीमान् चांदमलजी विनायकिया मन्त्री 10. श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा मन्त्री 11. श्रीमान् अमरचन्दजी मोदी सहमंत्री 12. श्रीमान् जंवरीलालजी शीशोदिया कोषाध्यक्ष 13. श्रीमान् अमरचन्दजी बोथरा कोषाध्यक्ष 14. श्रीमान् बादलचन्दजी मेहता सदस्य 15. श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरड़िया सदस्य 16. श्रीमान् एस. बादलचन्दजी चोरडिया सदस्य 17. श्रीमान् मोहनसिंहजी लोढा सदस्य 18. श्रीमान् मांगीलालजी सुराणा सदस्य 19. श्रीमान् भवरलालजी श्रीश्रीमाल 20. श्रीमान् चाँदमलजी चोपड़ा सदस्य 21. श्रीमान् गुमानमलजी चोरड़िया सदस्य 22. श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा सदस्य 23. श्रीमान् प्रासूलालजी बोहरा सदस्य 24. श्रीमान् सुमेरमलजी मेड़तिया सदस्य 25. श्रीमान् जालमसिंहजी मेड़तवाल परामर्शदाता 26. श्रीमान् जतनराजजी मेहता परामर्शदाता ब्यावर मद्रास इन्दौर मद्रास मद्रास व्यावर सिकन्दराबाद सदस्य ब्यावर मद्रास नागौर महामन्दिर जोधपुर ब्यावर मेड़तासिटी Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रकाशन समिति द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम 250 E 824 ग्रन्थांक नाम पृष्ठ अनुवादक-सम्पादक 1. आचारांगसूत्र [प्र. भाग] 426 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 2. आचारांगसूत्र [द्वि. भाग] 508 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 3. उपासकदशांगसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री 4. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र 640 पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल 5. अन्तकृद्दशांगसूत्र 248 साध्वी दिव्यप्रभा 6. अनुत्तरोपपातिकसूत्र 120 साध्वी मुक्तिप्रभा 7. स्थानांगसूत्र पं० हीरालाल शास्त्री 8. समवायांगसूत्र पं० हीरालाल शास्त्री 9. सूत्रकृतांगसूत्र [प्र. भाग] 562 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 10. सूत्रकृतांगसूत्र [द्वि. भाग] 280 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 11. विपाकसूत्र 208 अतु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 12. नन्दीसूत्र 252 अनु. साध्वी उमरावकुंवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. 13. औपपातिकसूत्र 242 डॉ. छगनलाल शास्त्री 14. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र. भाग] 568 अमरमुनि 15. राजप्रश्नीयसूत्र 284 वाणीभूषण रतनमुनि 16. प्रज्ञापनासूत्र [प्र. भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि 17. प्रश्नव्याकरणसूत्र अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 18. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [द्वि. भाग] 666 / अमरमुनि 19. उत्तराध्ययनसूत्र 842 राजेन्द्रमुनि शास्त्री 20. प्रज्ञापनासूत्र [द्वि. भाग] 542 जनभूषण ज्ञानमुनि 21. निरयावलिकासूत्र 176 देवकुमार जैन / 22. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र तृ. भाग] 836 अमरमुनि 23. दशवकालिकसूत्र 532 महासती पुष्पवती 24. आवश्यकसूत्र 188 महासती सुप्रभा एम. ए., शास्त्री 25. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चतुर्थ भाग] 908 अमरमुनि 26. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री 27. प्रज्ञापनासूत्र [तृ. भाग] 368 जैनभूषण ज्ञानमुनि शीघ्र छपकर तैयार होने वाले सूत्रअनुयोगद्वारसूत्र आदि KEEEEEEEEEEEE 478