SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 164] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र देहदीप्ति, उत्तम सौभाग्य आदि गुणों के कारण ये स्वामी हमें सदा प्राप्त रहें, बार-बार ऐसी अभिलाषा करते थे। ___ नर-नारियों द्वारा अपने हजारों हाथों से उपस्थापित अंजलिमाला-प्रणामांजलियों को अपना दाहिना हाथ ऊँचा उठाकर बार-बार स्वीकार करता हुआ, घरों की हजारों पंक्तियों को लांघता हुआ, वीणा, ढोल, तुरही आदि वाद्यों की मधुर, मनोहर, सुन्दर ध्वनि में तन्म होता हुआ, उसका आनन्द लेता हुया, जहाँ अपना घर था, अपने सर्वोत्तम प्रासाद का द्वार था, वहाँ पाया। वहाँ आकर प्राभिषेक्य हस्तिरत्न को ठहराया, उससे नीचे उतरा। नीचे उतरकर सोलह हजार देवों का सत्कार किया, सम्मान किया / उन्हें सत्कृत-सम्मानित कर बत्तीस हजार राजाओं का सत्कार किया, सम्मान किया। उन्हें सत्कृत-सम्मानित कर सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न तथा पुरोहितरत्न का सत्कार किया, सम्मान किया। उनका सत्कार-सम्मान कर तीन सौ साठ पाचकों का सत्कार-सम्मान किया, अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि-जनों का सत्कार-सम्मान किया / माण्डलिक राजानों, ऐश्वर्यशाली, प्रभावशाली पुरुषों तथा सार्थवाहों आदि का सत्कार-सम्मान किया। उन्हें सत्कृत-सम्मानित कर सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न, बत्तीस हजार ऋत-कल्याणिकाओं तथा बत्तीस हजार जनपद-कल्याणिकाओं, बत्तीस बत्तीस अभिनेतव्य विधिक्रमों से परिबद्ध बत्तीस हजार नाटकों से-नाटक-मण्डलियों से संपरिवृत राजा भरत कुबेर की ज्यों कैलास पर्वत के शिखर के तुल्य अपने उत्तम प्रासाद में गया। राजा ने अपने मित्रों--- सुहृज्जनों, निजक-माता, भाई, बहिन आदि स्वजन-पारिवारिक जनों तथा श्वसुर, साले आदि सम्बन्धियों से कुशल-समाचार पूछे / वैसा कर वह जहाँ स्नानघर था, वहाँ गया / स्नान आदि संपन्न कर स्नानघर से बाहर निकला, जहाँ भोजन-मण्डप था, पाया। भोजनमण्डप में आकर सुखासन से अथवा शुभ-उत्तम आसन पर बैठा, तेले की तपस्या का पारणा किया / पारणा कर अपने महल में गया / वहाँ मृदंग बज रहे थे / बत्तीस-बत्तीस अभिनेतव्य विधिक्रम से नाटक चल रहे थे, नृत्य हो रहे थे। यों नाटककार, नृत्यकार, संगीतकार राजा का मनोरंजन कर रहे थे, गीतों द्वारा राजा का कीर्ति-स्तवन कर रहे थे। राजा उनका प्रानन्द लेता हुमा सांसारिक सुख का भोग करने लगा। राज्याभिषेक 84. तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ रज्जधुरं चितेमाणस्स इमेआरूवे (अब्भथिए चितिए पस्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था) अभिजिए णं मए णिप्रगबलवीरिअरिसक्कारपरक्कमेण चुल्लहिमवंतगिरिसागरमेराए केवलकप्पे भरहे वासे, तं सेयं खलु मे अप्पाणं महया रायाभिसेएणं अभिसेएणं अभिसिंचावित्तएत्ति कटु एवं संपेहेति 2 ता कल्लं पाउप्पभाए (रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अह पंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगास-किसुय-सुयमुह-गुजद्धरागसरिसे कमलागर-संड-बोहए उठ्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा) जलंते जेणेव मज्जणघरे जाव पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे णिसोअति, णिसोइत्ता सोलस देवसहस्से बत्तीसं रायवरसहस्से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy