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________________ तृतीय वक्षस्कार ... जब राजा भरत विनीता राजधानी के बीच से निकल रहा था तो नगरी के सिंघाटकतिकोने स्थानों, (तिराहों, चौराहों, चत्वरों-जहाँ चार से अधिक रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थानों, बाजारों,) महापथों-बड़ी-बड़ी सड़कों पर बहुत से अभ्यर्थी-धन के अभिलाषी, कामार्थी-सुख या मनोज्ञ शब्द, सुन्दर रूप के अभिलाषी, भोगार्थी-सुखप्रद गन्ध, रस एवं स्पर्श के अभिलाषी, लाभार्थी मात्र भोजन के अभिलाषी, ऋद्धय षिक-गोधन आदि ऋद्धि के अभिलाषी, किल्विषिकभांड आदि, कापालिक-खप्पर धारण करने वाले भिक्षु, करबाधित-करपीडित-राज्य के कर आदि से कष्ट पाने वाले, शांखिक-शंख बजाने वाले, चाक्रिक-चक्रधारी, लांगलिक--हल चलाने वाले कृषक, मुखमांगलिक-मुंह से मंगलमय शुभ वचन बोलने वाले या खुशामदी, पुष्यमानवमागध-भाट, चारण आदि स्तुतिगायक, वर्धमानक---औरों के कन्धों पर स्थित पुरुष, लंख–बांस के सिरे पर खेल दिखाने वाले नट, मंख-चित्रपट दिखाकर आजीविका चलाने वाले, उदार-- उत्तम, इष्ट-वाञ्छित, कान्त--कमनीय, प्रिय-प्रीतिकर, मनोज्ञ—मनोनुकूल, मनाम-चित्त को प्रसन्न करने वाली, शिव-कल्याणमयी, धन्य-प्रशंसायुक्त, मंगल-मंगलयुक्त, सश्रीक-शोभायुक्त-लालित्ययुक्त, हृदयगमनीय-हृदयंगम होने वाली हृदय में स्थान प्राप्त करने वाली, हृदय-प्रह्लादनीय हृदय को आह्लादित करने वाली वाणी से एवं मांगलिक शब्दों से राजा का अनवरत लगातार अभिनन्दन करते हुए, अभिस्तवन करते हुए प्रशस्ति करते हुए इस प्रकार बोले---जन-जन को आनन्द देने वाले राजन् ! आपकी जय हो, अापकी विजय हो। जन-जन के लिए कल्याणस्वरूप राजन् ! आप सदा जयशील हों। अापका कल्याण हो / जिन्हें नहीं जीता है, उन पर आप विजय प्राप्त करें। जिनको जीत लिया है, उनका पालन करें, उनके बीच निवास करें / देवों में इन्द्र की तरह, तारों में चन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह तथा नागों में धरणेन्द्र की तरह लाखों पूर्व, करोड़ों पूर्व, कोडाकोडी पूर्व पर्यन्त उत्तर दिशा में लघु हिमवान् पर्वत तथा अन्य तीन दिशाओं में समुद्रों द्वारा मर्यादित सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के ग्राम, प्राकर-नमक आदि के उत्पत्ति-स्थान, नगर-जिनमें व हीं लगता हो, ऐसे शहर, खेट-धूल के परकोटों से युक्त गाँव, कर्बट - अति साधारण कस्बे, मडम्ब-आसपास गाँव रहित बस्ती, द्रोणमुख-जल-मार्ग तथा स्थल-मार्ग से युक्त स्थान, पत्तन- बन्दरगाह अथवा बड़े नगर, पाश्रम-तापसों के आवास, सन्निवेश-झोपड़ियों से युक्त बस्ती अथवा सार्थवाह तथा सेना आदि के ठहरने के स्थान-इन सबका-~-इन सब में बसने वाले प्रजाजनों का सम्यक-भलीभाँति पालन कर यश अर्जित करते हुए, इन सबका आधिपत्य, पौरोवृत्य-अग्रसरता या आगेवानी, स्वामित्व, भतत्व-प्रभुत्व, महत्तरत्व अधिनायकत्व, आज्ञश्वरत्व-सेनापत्य-जिसे आज्ञा देने सर्वाधिकार होता है, ऐसा सैनापत्य-सेनापतित्व-इन सबका सर्वाधिकृत रूप में सर्वथा निर्वाह करते हए निधि, निरन्तर अविच्छिन्न रूप में नृत्य, गीत, वाद्य, वीणा, करताल, तूर्य-तुरही एवं घनमृदंग-बादल जैसी आवाज करने वाले मृदंग आदि के निपुणतापूर्ण प्रयोग द्वारा निकलती सुन्दर ध्वनियों से प्रानन्दित होते हुए, विपुल-प्रचुर-अत्यधिक भोग भोगते हुए सुखी रहें, यों कहकर उन्होंने जयघोष किया। राजा भरत का सहस्रों नर-नारी अपने नेत्रों से बार-बार दर्शन कर रहे थे / सहस्रों नर-नारी अपने वचनों द्वारा बार-बार उसका अभिस्तवन-गुणसंकीर्तन कर रहे थे / सहस्रों नर-नारी हृदय से उसका बार-बार अभिनन्दन कर रहे थे। सहस्रों नर-नारी अपने शुभ मनोरथ--हम इनकी सन्निधि में रह पाएं, इत्यादि उत्सुकतापूर्ण मनःकामनाएँ लिये हुए थे। सहस्रों नर-नारी उसकी कान्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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