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________________ 162] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र ध्वनि के साथ सहस्रों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडम्ब (द्रोण मुख, प्राश्रम, संवाध) से युक्त मेदिनी को जीतता हुआ उत्तम, श्रेष्ठ रत्न भेंट के रूप में प्राप्त करता हुआ, दिव्य चक्ररत्न का अनुसरण करता हुआ, एक-एक योजन के अन्तर पर पड़ाव डालता हुअा, रुकता हुआ, जहाँ विनीता राजधानी थी, वहाँ अाया। राजधानी से न अधिक दूर न अधिक समीप-थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा (उत्तम नगर के सदृश) सैन्य-शिविर स्थापित किया / अपने उत्तम शिल्पकार को बुलाया। यहाँ की वक्तव्यता पूर्वानुसार संग्राह्य है / विनीता राजधानी को उद्दिष्ट करतदधिष्ठायक देव को साधने हेतु राजा ने तेले की तपस्या स्वीकार की। (तपस्या स्वीकार कर पौषधशाला में पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया, मणि-स्वर्णमय आभूषण शरीर से उतार दिये / माला, वर्णक-चन्दन प्रादि सुगन्धित पदार्थों के देहगत विलेपन दूर किये / शस्त्र-कटार आदि, मुसल-दण्ड, गदा प्रादि हथियार एक ओर रखे / ) डाभ के बिछौने पर अवस्थित राजा भरत तेले की तपस्या में प्रतिजागरित सावधानतापूर्वक संलग्न रहा / तेले की तपस्या के पूर्ण हो जाने पर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकलकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, प्राभिषेक्य हस्ति रत्न को तैयार करने, स्नानघर में प्रविष्ट होने, स्नान करने आदि का वर्णन पूर्ववत् संग्राह्य है। सभी नित्य-नैमित्तिक अावश्यक कार्यों से निवृत्त होकर राजा भरत अंजनगिरि के शिखर के के समान उन्नत गजपति पर आरूढ हुआ। यहाँ से आगे का वर्णन विनीता राजधानी से विजय हेतु अभियान करने के वर्णन जैसा है। केवल इतना अन्तर है कि विनीता राजधानी में प्रवेश करने के अवसर पर नौ महानिधियों ने तथा चार सेनाओं ने राजधानी में प्रवेश नहीं किया। उनके अतिरिक्त सबने उसी प्रकार विनीता में प्रवेश किया, जिस प्रकार विजयाभियान के अवसर पर विनीता से निकले थे। राजा भरत ने तुमुल वाद्य-ध्वनि के साथ विनीता राजधानी के बीचों-बीच चलते हुए जहाँ अपना पैतृक घर था, जगति निवास-गृहों में सर्वोत्कृष्ट प्रासाद का बाहरी द्वार था, उधर चलने का विचार किया, चला। जब राजा भरत इस प्रकार विनीता राजधानी के बीच से निकल रहा था, उस समय कतिपय . जन विनीता राजधानी के बाहर-भीतर पानी का छिड़काव कर रहे थे, गोबर आदि का लेप कर रहे थे, मंचातिमंच-सीढ़ियों से समायुक्त प्रेक्षागहों की रचना कर रहे थे, तरह-तरह के रंगों के वस्त्रों से बनी, ऊँची, सिंह, चक्र आदि के चिह्नों से युक्त ध्वजारों एवं पताकाओं से नगरी के स्थानों को सजा रहे थे। अनेक व्यक्ति नगरी की दीवारों को लीप रहे थे, पोत रहे थे। अनेक व्यक्ति काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान आदि तथा धूप की गमगमाती महक से नगरी के वातावरण को उत्कृष्ट सुरभिमय बना रहे थे, जिससे सुगन्धित धूएँ की प्रचुरता के कारण गोलगोल धूममय छल्ले बनते दिखाई दे रहे थे। कतिपय देवता उस समय चाँदी की वर्षा कर रहे थे। कई देवता स्वर्ण, रत्न, हीरों एवं आभूषणों की वर्षा कर रहे थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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