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________________ तृतीय वक्षस्कार] [161 अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जन-१. कुंभकार, 2. पटेल-ग्रामप्रधान, 3. स्वर्णकार, 4. सूपकार, 5. गन्धर्व--संगीतकार-गायक, 6. काश्यपक-नापित, 7. मालाकार-माली, 8. कक्षकर, 9. ताम्बूलिक--ताम्बुल लगाने वाले तमोली-ये नौ नारुक तथा 1. चर्मकार-चमार-जूते बनाने वाले, 2. यन्त्रपीलक-तेली, 3. ग्रन्थिक, 4. छिपक-छोपे, 5. कांस्यक-कसेरे, 6. सीवक–दर्जी, 7. गोपाल--ग्वाले, 8. भिल्ल-भील तथा 6. धीवर.-ये नौ कारुक-इस प्रकार कूल अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि जन चले। __उनके पीछे क्रमशः चौरासी लाख घोड़े, चौरासी लाख हाथी, छियानवै करोड़ मनुष्य--पदाति जन चले / तत्पश्चात् अनेक राजा-माण्डलिक नरपति, ईश्वर - ऐश्वर्यशाली या प्रभावशाली पुरुष, तलवर--राजसम्मानित विशिष्ट नागरिक, सार्थवाह आदि यथाक्रम चले / तत्पश्चात् असिग्राह-तलवारधारी, लष्टिग्राह-लट्टीधारी, कुन्तग्राह-भालाधारी, चापग्राह-धनुर्धारी, चमरग्राह-चवर लिये हुए, पाशग्राह-उद्धत घोड़ों तथा बैलों को नियन्त्रित करने हेतु चाबुक आदि लिये हुए अथवा पासे आदि द्यूत-सामग्री लिये हुए, फलकग्राह-काष्ठपट्ट लिये हुए, परशुग्राह–कुल्हाड़े लिये हुए, पुस्तकग्राह-पुस्तकधारी-ग्रन्थ लिये हुए अथवा हिसाब-किताब रखने के बही-खाते आदि लिये हुए, वीणाग्राह-वीणा लिये हुए, कूप्यग्राह-पक्व तैलपात्र लिये हुए, हड़प्फग्राह--द्रम्म अादि सिक्कों के पात्र अथवा ताम्बूल हेतु पान के मसाले, सुपारी आदि के पात्र लिये हुए पुरुष तथा दीपिकाग्राह-मशालची अपने-अपने कार्यों के अनुसार रूप, वेश, चि था वस्त्र प्रादि धारण किये हुए यथाक्रम चले / उनके बाद बहुत से दण्डी–दण्ड धारण करने वाले, मुण्डी-सिर मुंडे, शिखण्डी-शिखाधारी, जटी---जटाधारी, पिच्छी--मयूरपिच्छ-मोरपंख आदि धारण किये हुए, हासकारक-हासपरिहास करने वाले विदूषक-मसखरे, खेड्डकारक-बूतविशेष में निपुण, द्रवकारक—क्रीडा करने वाले-खेल-तमाशे करने वाले, चाटुकारक-खुशामदी-खुशामदयुक्त प्रिय वचन बोलने वाले, कान्दपिक-कामुक या शगारिक चेष्टाएँ करने वाले, कौत्कुचिक--भांड आदि तथा मौखरिक-- मुखर, वाचाल मनुष्य गाते हुए, खेल करते हुए, (तालियाँ बजाते हुए) नाचते हुए, हँसते हुए, पासे आदि द्वारा द्यूत आदि खेलने का उपक्रम करते हुए, क्रीडा करते हुए, दूसरों को गीत आदि सिखाते हुए, सुनाते हुए, कल्याणकारी वाक्य बोलते हुए, तरह-तरह की आवाजें करते हुए, अपने मनोज वेष आदि द्वारा शोभित होते हुए, दूसरों को शोभित करते हुए-प्रसन्न करते हुए, राजा भरत को देखते हुए, उनका जयनाद करते हुए यथाक्रम चलते गये। यह प्रसंग विस्तार से औपपातिक सूत्र के अनुसार संग्राह्य है। राजा भरत के आगे-मागे बड़े-बड़े कद्दावर घोड़े, घुड़सवार [गजारूढ़ राजा के] दोनों ओर हाथी, हाथियों पर सवार पुरुष चलते थे / उसके पीछे रथ-समुदाय यथावत् रूप में चलता था। __तब नरेन्द्र, भरतक्षेत्र का अधिपति राजा भरत, जिसका वक्षःस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था, अमरपति---देवराज इन्द्र के तुल्य जिसकी समृद्धि सुप्रशस्त थी, जिससे उसको कीति विश्रुत थी, समुद्र के गर्जन की ज्यों अत्यधिक उच्च स्वर से सिंहनाद करता हुआ, सब प्रकार की ऋद्धि तथा द्युति से समन्वित, भेरी-नगाड़े, झालर, मृदंग आदि अन्य वाद्यों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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