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________________ तृतीय वक्षस्कार [125 गरसीहे परवई गरिदे परवसहे मरुअरायवसम अम्भहिसरायतेअलच्छीए दिपमाण पसस्थमंगलसहि संथुब्वमाणे जयसद्दकयालोए हस्पिखंधपरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेअवरचामराहि उद्ध ब्वमाणीहि 2 जक्खसहस्ससंपरिखुडे वेसमणे चेव धणवई) अमरवइसण्णिभाए इद्धीए पहिअकित्ती मणिरयणक उज्जोए चक्करयणदेसिअभग्गे अणेगरायसहस्साणुप्रायमग्गे महयाउक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं सहरसभूपिव करेमाणे 2 जेणव तिमिसगुहाए दाहिणिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ 2 ता तिमिसगुहं दाहिणिल्लेणं दुधारेणं अईइ ससिस्व मेहंधयारनिवहं / तए गं से भरहे राया छत्तल दुवालसंसि अट्टकमि अहिगरणिसंठिअं अट्ठसोवण्णिअं कागणिरयणं परामुसइत्ति / तए गं तं चउरंगुलप्पमामि अट्टसुवण्णं च विसहरणं अउलं चउरंससंठाणसंठि समतलं माणुम्माणजोगा जतो लोगे चरंति सव्वजजपण्णवगा, ण इव चंदो ण इव तत्थ सूरे ण इव अग्गी ण इव तत्थ मणिणो तिमिरं णासेंति अंधयारे जत्थ तयं दिव्वं भावजुत्तं दुवालसजोषणाई तस्स लेसाउ विवद्धति तिमिरणिगरपडिसेहिप्रायो, रति च सव्वकालं खंधावारे करेइ पालो दिवसभूनं जस्स पभावेण चक्कवट्टी, तिमिसगुहं अतीति सेण्णसहिए अभिजेतु बितिप्रमद्धभरहं रायवरे कागणि गहाय तिमिसगुहाए पुरच्छिमिल्लपच्चशिभिल्लेसु कडएसु जोअणंतरिआई पंचधणुसयविक्खंभाई जोप्रणुज्जोअकराई चक्कणेमीसंठिआई चंदडलपडिणिकासाई एगणपण्णं मंडलाइं आलिहमाणे 2 अणुप्पविसइ / तए णं सा तिमिसगुहा भरण रण्णा तेहिं जोणतरिएहि (पंचधणुसयविक्खंभेहि) जोअणुज्जोअकरेहि एगणपण्णाए मंडलेहिं आलिहिज्जमाहि 2 खिप्पामेव पालोगभूआ उज्जोअभूआ दिवसभूया जाया यावि होत्था / [70] तत्पश्चात् राजा भरत ने मणिरल का स्पर्श किया। वह मणिरत्न विशिष्ट आकारयुक्त, सुन्दरतायुक्त था, चार अंगुल प्रमाण था, अमूल्य था-कोई उसका मूल्य प्रांक नहीं सकता था। वह तिखूटा था, ऊपर नीचे षट्कोणयुक्त था, अनुपम द्युतियुक्त था, दिव्य था, मणिरत्नों में सर्वोत्कृष्ट था, वैडूर्यमणि की जाति का था, सब लोगों का मन हरने वाला था सबको प्रिय था, जिसे मस्तक पर धारण करने से किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं रह जाता था जो सर्व-कष्ट-निवारक था, सर्वकाल प्रारोग्यप्रद था। उसके प्रभाव से तिर्यञ्च -पशु पक्षी, देव तथा मनुष्य कृत उपसर्ग-विघ्न कभी भी दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते थे। उस उत्तम मणि को धारण करने वाले मनुष्य का संग्राम में किसी भी शस्त्र द्वारा वध किया जाना शक्य नहीं था। उसके प्रभाव से यौवन सदा स्थिर रहता था, बाल तथा नाखून नहीं बढ़ते थे। उसे धारण करने से मनुष्य सब प्रकार के भयों से विमुक्त हो जाता था। राजा भरत ने इन अनुपम विशेषताओं से युक्त मणिरत्न को गृहीत कर गजराज के मस्तक के दाहिने भाग पर निक्षिप्त किया--बांधा।। भरतक्षेत्र के अधिपति राजा भरत का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था। (उसका मुख कुण्डलों से द्युतिमय था, मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था / वह नरसिंह मनुष्यों में सिंह सदृश शौर्यशाली, मनुष्यों का स्वामी, मनुष्यों का इन्द्र-परम ऐश्वर्यशाली अधिनायक, मनुष्यों में वृषभ के समान स्वीकृत कार्यभार का निर्वाहक, व्यन्तर आदि देवों के राजाओं के बीच विद्यमान प्रमुख सौधर्मेन्द्र के सदृश प्रभावशील, राजोचित तेजोमयी लक्ष्मी से उद्दीप्त, मंगलसूचक शब्दों से संस्तुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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