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________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तथा जयनाद से सुशोभित था / वह हाथो पर प्रारूह था / कोरंट पुष्पों को मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था / उत्तम, श्वेत चँवर उस पर डुलाये जा रहे थे। वह सहस्र यक्षों से संपरिवृत कुबेर सदृश वैभवशाली प्रतीत होता था।) अपनी ऋद्धि से इन्द्र जैसा ऐश्वर्यशाली, यशस्वी लगता था / मणिरत्न से फैलते हुए प्रकाश तथा चक्ररत्न द्वारा निर्देशित किये जाते मार्ग के सहारे आगे बढ़ता हुआ, अपने पीछे-पीछे चलते हए हजारों नरेशों से युक्त राजा भरत उच्च स्वर से समद्र के गर्जन की ज्यों सिंहनाद करता हग्रा, जहाँ तमिस्रा गफा का दक्षिणी द्वार था. वहाँ आया। चन्द्रमा जिस प्रकार मेघ-जनित विपूल अन्धकार में प्रविष्ट होता है, वैसे ही वह दक्षिणी द्वार से तमिस्रा गुफा में प्रविष्ट हुआ। फिर राजा भरत ने काकणी-रत्न लिया / वह रत्न चार दिशाओं तथा ऊपर नोचे छः तलयुक्त था / ऊपर, नीचे एवं तिरछे-प्रत्येक अोर वह चार चार कोटियों से युक्त था, यों बारह कोटि युक्त था। उसकी आठ कणिकाएँ थीं। अधिकरणी-स्वर्णकार लोह-निर्मित जिस पिण्डी पर सोने, चांदी आदि को पीटता है, उस पिण्डी के समान प्राकारयुक्त था / वह अष्ट सौवणिक'अष्ट स्वर्णमान-परिमाण था--तत्कालोन तोल के अनुसार आठ तोले वजन का था / वह चारअंगुल-परिमित था / विषनाशक, अनुपम, चतुरस्र-संस्थान-संस्थित, समतल तथा समुचित मानोन्मानयुक्त था, सर्वजन-प्रज्ञापक-उस समय लोक प्रचलित मानोन्मान व्यवहार का प्रामाणिक रूप में संसूचक था। जिस गुफा के अन्तर्वर्ती अन्धकार को न चन्द्रमा नष्ट कर पाता था, न सूर्य ही जिसे मिटा सकता था, न अग्नि ही उसे दूर कर सकती थी तथा न अन्य मणियाँ ही जिसे अपगत कर सकती थीं, उस अन्धकार को वह काकणी-रत्त नष्ट करता जाता था। उसकी दिव्य प्रभा बारह योजन तक विस्तृत थी / चक्रवर्ती के सैन्य-सन्निवेश में छावनी में रात में दिन जैसा प्रकाश करते रहना उस मणि-रत्न का विशेष गुण था। उत्तर भरतक्षेत्र को विजय करने हेतु उसी के प्रकाश में राजा भरत ने सैन्यसहित तमिस्रा गुफा में प्रवेश किया। राजा भरत ने काकणी रत्तं हाथ में लिए तमित्रा गुफा को पूर्व दिशावर्ती तथा पश्चिम दिशावर्ती भित्तियों पर एक एक योजन के अन्तर से पांच सौ धनुष प्रमाण विस्तीर्ण, एक योजन क्षेत्र को उद्योतित करने वाले, रथ के चक्के की परिधि की ज्यों गोल, चन्द्र-मण्डल को ज्यों भास्वर--उज्ज्वल, उनचास मण्डल प्रालिखित किये। वह तमिस्रा गुफा राजा भरत द्वारा यों एक एक योजन की दूरी पर आलिखित (पाँच सौ धनुष प्रमाण विस्तीर्ण) एक योजन तक उद्योत करने वाले उनपचास मण्डलों से शोघ्र ही दिन के समान पालोकयुक्त प्रकाशयुक्त हो गई। उन्मग्नजला, निमग्नजला महानदियाँ 71. तीसे गं तिमिसगुहाए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं उम्मग्ग-णिमग्ग-जलाओ णाम दुवे महाणईनो पण्णत्तानो, जानो णं तिमिसगुहाए पुरच्छिमिल्लानो भित्तिकउगानो पढाओ समाणोओ पच्चत्थिमेणं सिंधु महाणई समप्पैति / __ से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ उम्मग्ग-णिमग्गजलाओ महाणईओ ? 1. तत्र सुवर्ण मानमिदम्---चत्वारि मधुरतृणफलान्येक: श्वेतसर्षपः, षोडश श्वेतसर्षपा एक धान्यमाषफलम, द्वे धान्यमाषफले एका गुजा, पञ्च गुजा एकः कर्ममाषकः, षोडश कर्ममाषका एकसुवर्ण इति / चार मधुर तृणफल =एक सफेद सरसों, सोलह सफेद सरसों-एक उर्द का दाना, दो उर्द के दाने एक घुघची, पांच घंघची एक मासा, सोलह मासे-एक सूवर्ण-एक तोला।। ---श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति शान्तिचन्द्रीया वत्ति: 3 वक्षस्कारे सू. 54 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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