________________ 112] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र में प्रवेश किया। आगे की घटना पूर्वानुसार है / वरदाम तीर्थकुमार की तरह प्रभास तीर्थकुमार ने राजा को प्रीतिदान के रूप में भेंट करने हेतु रत्नों की माला, मुकुट, दिव्य मुक्ता-राशि, स्वर्ण-राशि, कटक, त्रुटित, वस्त्र, अन्यान्य आभूषण, राजा भरत के नाम से अंकित बाण तथा प्रभासतीर्थ का जल दिया-राजा को उपहृत किया और कहा कि मैं आप द्वारा विजित देश का वासी हूँ, पश्चिम दिशा का अन्तपाल हूँ। आगे का प्रसंग पूर्ववत् है / पहले की ज्यों राजा की आज्ञा से इस विजय के उपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित हुआ, सम्पन्न हुआ / सिन्धुदेवी-साधन 63. तए णं से दिव्वे चक्करयणे पभासतित्थकुमारस्स देवस्स अट्टाहिनाए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए अाउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता (अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिअसहसण्णिणादेणं) पूरते चेव अंबरतलं सिंधूए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरच्छिमं दिसि सिंधुदेवीभवणाभिमुहे पयाते यावि होत्था। तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं सिंधए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरथिम सिंधुदेवीभवणाभिमुहं पयातं पासइ 2 ता हट्टतुट्ठचित्त तहेव जाव' जेणेव सिंधए देवीए भवणं तेणेव उवागच्छइ 2 ता सिंधूए देवीए भवणस्स अदूरसामते दुवालसजोप्रणायामं णवजोअणवित्थिष्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारणिवेसं करेइ (करेत्ता बड्डइरयणं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी-- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! ममं आवासं पोसहसालं च करेहि, करेत्ता ममेअमाणत्तिअं पच्चप्पिणाहि / तए णं से वड्डइरयणे भरहेणं रण्णा एवं बुत्ते समाणे हद्वतुट्ठचित्तमाणदिए पोइमणे जाव अंजलि कटु एवं सामी तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ 2 ता भरहस्स रण्णो आवसहं पोसहसालं च करेइ 2 ता एप्रमाणत्तिनं खिप्पामेव पच्चप्पिणति / ___तए णं से भरहे राया चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरहइ 2 ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता पोसहसालं अणुपविसइ 2 ता पोसहसाल पमज्जइ 2 ता दम्भसंथारगं संथरइ 2 ता दब्भसंथारगं दुरूहइ 2 ता) सिंधुदेवीए अट्ठमभत्तं पगिण्हइ 2 ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी (उम्मुक्कमणिसुवण्णे ववगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्थमुसले) दब्भसंथारोवगए अट्ठमभत्तिए सिंधुदेवि मणसि करेमाणे चिट्ठइ / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि सिंधूए देवीए आसणं चलइ / तए णं सा सिंधुदेवी आसणं चलिअं पासइ 2 ता प्रोहिं पउंजइ 2 ता भरहं रायं ओहिणा प्राभोएइ 2 ता इमे एआरूवे अब्भत्थिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था—उप्पण्णे खलु भो जंबुद्दीवे दीवे भरहे वासे भरहे णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी, तं जोअमेअं तोअपच्चुप्पण्णमणागयाणं सिंधूणं देवीणं भरहाणं राईणं उवत्थाणिों करेत्तए / तं गच्छामि णं अहंपि भरहस्स रण्णो उवत्थाणिनं करेमित्ति कटु कुभट्ठसहस्सं रयणचित्तं जाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताणि अ दुवे कणगभद्दासणाणि य कडगाणि अ तुडिआणि प्र (वत्थाणि अ) प्राभरणाणि अ 1. देखें सूत्र संख्या 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org