________________ तृतीय वक्षस्कार / [113 गेण्हइ 2 ता ताए उक्किट्ठाए जाव' एवं वयासी अभिजिए णं देवाणुप्पिएहि केवलकप्पे भरहे वासे, अहणं देवाणुप्पिप्राणं विसयवासिणी, अहण्णं देवाणुप्पियाणं आणतिकिकरी तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! मम इमं एआरूवं पीइदाणंति कट्ट कुभट्टसहस्सं रयणचित्तं जाणामणिकणगकडगाणि अ (तुडिअाणि अ वत्थाणि अाभरणाणि अ) सो चेव गमो (तए णं से भरहे राया सिंधूए देवीए इमेयारूवं पोइदाणं पडिच्छइ 2 ता सिंधु देवि सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता) पडिविसज्जेइ / तए णं से भरहे राया पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ 2 ता हाए कयबलिकम्मे (मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ 2 ता) जेणेव भोषणमंडवे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता भोअणमंडवंसि सुहासणवरगए अट्टमभत्तं परियादियइ 2 ता (भोप्रणमंडवानो पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव बाहिरिमा उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता) सोहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीआइ 2 ता अट्ठारस सेणिप्पसेणीयो सद्दावेइ 2 त्ता जाव' अट्टाहिआए महामहिमाए तमाणत्तिअं पच्चप्पिणंति / [63] प्रभास तीर्थकुमार को विजित कर लेने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के परिसम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला / (आकाश में अधर अवस्थित हुया / वह एक हजार यक्षों से संपरिवृत था। दिव्य वाद्यों की ध्वनि से गगन-मंडल को आपूरित करते हुए) उसने सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की अोर प्रयाण किया। राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को जब सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर जाते हुए देखा तो वह मन में बहुत हर्षित हुअा, परितुष्ट हुअा। जहाँ सिन्धु देवी का भवन था, उधर आया। आकर, सिन्धु देवी के भवन के न अधिक दूर और न अधिक समीप --थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा, श्रेष्ठ नगर के सदृश सैन्य-शिविर स्थापित किया। (वैसा कर वर्धकिरत्न को अपने निपुण शिल्पकार को बुलाया / बुलाकर उससे कहा- देवानुप्रिय ! मेरे लिए प्रावास-स्थान तथा पौषधशाला का शीघ्र निर्माण करो। निर्माण कार्य सुसम्पन्न कर मुझे ज्ञापित करो। राजा भरत ने जब उस शिल्पकार को ऐसा कहा तो वह अपने मन में हर्षित, परितुष्ट तथा प्रसन्न हुआ। हाथ जोड़कर 'स्वामी ! अापकी जो आज्ञा' ऐसा कहते हुए उसने विनयपूर्वक राजा का आदेश स्वीकार किया। राजा के लिए उसने आवास-स्थान तथा पौषधशाला का निर्माण किया। निर्माण-कार्य समाप्त कर शीघ्र ही राजा को ज्ञापित किया। तदनन्तर राजा भरत अपने चातुर्घण्ट अश्वरथ से नीचे उतरा। नीचे उतर कर जहाँ पौषधशाला थी, वहाँ आया / पौषधशाला में प्रविष्ट हुआ। उसका प्रमार्जन किया—सफाई की। प्रमार्जन कर डाभ का बिछौना बिछाया। बिछौना बिछाकर उस पर बैठा। बैठकर) उसने सिन्धु देवी को उद्दिष्ट कर---तत्साधना हेतु तीन दिनों का उपवास-तेले की तपस्या स्वीकार की। तपस्या का संकल्प कर उसने पौषधशाला में पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। (मणिस्वर्णमय आभूषण 1. देखें मूत्र 34 2. देखें मूत्र 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org