________________ 114] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र शरीर से उतारे / माला, वर्णक-चन्दन आदि सुरभित पदार्थों के देहगत विलेपन प्रादि दूर किये। शस्त्र--कटार आदि, मूसल–दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे / ) यों डाभ के बिछौने पर उपगत, तेले की तपस्या में अभिरत भरत मन में सिन्धु देवी का ध्यान करता हुआ स्थित हुआ / भरत द्वारा यों किये जाने पर सिन्धु देवी का आसन चलित हुआ--उसका सिंहासन डोला / सिन्धु देवी ने जब अपना सिंहासन डोलता हुआ देखा, तो उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान द्वारा उसने भरत को देखा, तपस्यारत, ध्यानरत जाना / देवी के मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ—जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है / अतीत, प्रत्युत्पन्न, अनागत-भूत, वर्तमान तथा भविष्यवर्ती सिन्धु देवियों के लिए यह समुचित है, परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें / इसलिए मैं भी जाऊँ, राजा को उपहार भेंट करूं। यों सोचकर देवी रत्नमय एक हजार आठ कलश, विविध मणि, स्वर्ण, रत्नाञ्चित चित्रयुक्त दो स्वर्ण-निर्मित उत्तम प्रासन, कटक, टित [वस्त्र तथा अन्यान्य आभूषण लेकर तीव्र गतिपूर्वक वहाँ आई और राजा से बोली- अापने भरतक्षेत्र को विजय कर लिया है। मैं आपके देश में राज्य में निवास करने वाली आपकी आज्ञाकारिणी सेविका हूँ। देवानुप्रिय ! मेरे द्वारा प्रस्तुत रत्नमय एक हजार पाठ कलश, विविध मणि, स्वर्ण, रत्नांचित चित्रयुक्त दो स्वर्णनिर्मित उत्तम आसन, कटक (त्रुटित, वस्त्र तथा अन्यान्य प्राभूषण) ग्रहण करें / आगे का वर्णन पूर्ववत् है / (तब राजा भरत ने सिन्धु देवी द्वारा प्रस्तुत प्रीतिदान स्वीकार कर सिन्धु देवी का सत्कार किया, सम्मान किया और उसे विदा किया। बैसा कर राजा भरत पौषधशाला से बाहर निकला / जहाँ स्नानघर था, वहाँ प्राया। उसने स्नान किया, नित्य-नामत्तिक कृत्य किये / (स्नानघर से वह बाहर निकला। बाहर निकल कर) जहाँ भोजन-मण्डप था, वहाँ आया। वहाँ पाकर भोजन-मण्डप में सुखासन से बैठा, तेले का पारणा किया। (भोजन-मण्डप से वह बाहर निकला / बाहर निकलकर, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ पाया / वहाँ आकर) पूर्वाभिमुख हो उत्तम सिंहासन पर बैठा / सिंहासन पर बैठकर अपने अठारह श्रेणी-प्रश्रेणी-अधिकृत पुरुषों को बुलाया और उनसे कहा कि अष्ट दिवसीय महोत्सव का आयोजन करो / मेरे आदेशानुरूप उसे परिसम्पन्न कर मुझे सूचित करो। उन्होंने सब वैसा ही किया / वैसा कर राजा को यथावत् ज्ञापित किया। वैताढ्य-विजय 64. तए णं से दिवे चक्करयणे सिंधुए देवीए अट्टाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणोए प्राउहघरसालाओ तहेव (पडिणिक्खमइ 2 ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्वतुडिप्रसहसण्णिणादेणं पूरते चेव अंबरतलं) उत्तरपुरच्छिमं दिसि वेअद्धपव्वयाभिमुहे पयाए आवि होत्था। तए णं से भरहे राया (तं दिव्वं चक्करयणं उत्तरपुरच्छिमं दिसि वेअद्धपव्वयाभिमुहं पयातं चावि पासइ 2 त्ता) जेणेव वेश्रद्धपव्वए जेणेव वेअद्धस्स पन्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे तेणेव उवागच्छद 2 ता वेअद्धस्स पव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे दुवालसजोअणायाम णवजोप्रणविच्छिण्णं वरणगरसरिच्छं विजयखंधावारनिवेसं करेइ 2 ता जाव' वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ 2 त्ता 1. देखें सूत्र 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org