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________________ तृतीय वक्षस्कार] [115 पोसहसालाए (पोसहिए बंभयारी उम्मुक्कमणिसुवणे वगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्थमुसले दम्भसंथारोवगए) अट्ठमभत्तिए वेअद्धगिरिकुमारं देवं मणसि करेमाणे 2 चिटुइ / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि वेअद्धगिरिकुमारस्स देवस्स पासणं चलइ, एवं सिंधुगमो अव्वो, पीइदाणं आभिसेक्कं रयणालंकारं कडगाणि अतुडिआणि अ वत्थाणि अाभरणाणि अ गेण्हइ 2 त्ता ताए उक्किट्ठाए जाव' अट्टाहिरं (महामहिमं करेइ 2 त्ता एमाणत्तिअं) पच्चप्पिणंति / 164] सिन्धुदेवी के विजयोपलक्ष्य में अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न पूर्ववत् शस्त्रागार से बाहर निकला / (वाहर निकल कर आकाश में अधर अवस्थित हुआ। वह एक हजार यक्षों से संपरिवत था। दिव्य वाद्यध्वनि से गगन-मण्डल को आपूर्ण कर रहा था।) उसने उत्तर-पूर्व दिशा में-ईशानकोण में वैताढय पर्वत की ओर प्रयाण किया। राजा भरत (उस दिव्य चक्ररत्न को उत्तर-पूर्व दिशा में वैताढय पर्वत की ओर जाता हुआ देखकर) जहाँ वैताढय पर्वत था, उसके दाहिनी ओर की तलहटी थी, वहाँ आया / वहाँ बारह योजन लम्बा तथा नौ योजन चौड़ा सैन्य-शिविर स्थापित किया। वैताढयकुमार देव को उद्दिष्ट कर उसे साधने हेतु तोन दिनों का उपवास-तेले की तपस्या स्वीकार की। पौषधशाला में (पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया / मणि-स्वर्णमय प्राभूषण शरीर से उतारे / माला, वर्णक - चन्दनादि सुरभित पदार्थों के देहगत विलेपन आदि दूर किये / शस्त्र--कटार आदि, मूसल-दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे। वह डाभ के बिछौने पर संस्थित हुआ।) तेले की तपस्या में स्थित मन में वैताढय गिरिकुमार का ध्यान करता हुआ अवस्थित हुआ / भरत द्वारा यों तेले की तपस्या में निरत होने पर वैताढय गिरिकुमार का आसन डोला। आगे का प्रसंग सिन्धु देवी के प्रसंग जैसा समझना चाहिए। वैताढय गिरिकुमार ने राजा भरत को प्रीतिदान भेंट करने हेतु राजा द्वारा धारण करने योग्य रत्नालंकार -रत्नाञ्चित मुकुट, कटक, त्रुटित, वस्त्र तथा अन्यान्य आभूषण लिये। तीव्र गति से वह राजा के पास आया। आगे का वर्णन सिन्धु देवी के वर्णन जैसा है। राजा की प्राज्ञा से अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित कर आयोजकों ने राजा को सूचित किया। तमिस्रा-विजय 65. तए णं से दिव्वे चक्करयणे अट्ठाहियाए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए (पाउहघरसालानो पडिणिक्खमइ 2 ता अंतलिक्खपडिवण्णे जक्खसहस्ससंपरिवुडे दिव्बतुडिअसहसणिणादेणं पूरते चेव अंबरतलं) पच्चस्थिमं दिसि तिमिसगुहाभिमुहे पयाए आवि होत्था / तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं (अंतलिक्खपडिवणं जक्खसहस्ससंपरिवुडं दिवं तुडिअसद्दसणिणादेणं पूरतं चेव अंबरतलं) पच्चत्थिमं दिसि तिमिसगुहाभिमुहं पयातं पासइ 2 ता हतचित्त जावर तिमिसगुहाए अदूरसामंते दुवालसजोप्रणायाम णवजोग्रणविच्छिण्णं (वरणगरसरिच्छे विजयखंधावारनिवेसं करेइ 2 ता) कयमालस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ 2 त्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी 1. देखें सूत्र 34 2. देखें सूत्र 48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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