________________ 116] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र (उम्मुक्कमणिसुवणे ववगयमालावण्णगविलेवणे णिक्खित्तसत्थमुसले दम्भसंथारोवगए अटुमभत्तिए) कयमालगं देवं मणसि करेमाणे 2 चिट्ठइ / तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि कयमालस्स देवस्स आसणं चलइ तहेव जाव वेअद्धगिरिकुमारस्स णवरं पोइदाणं इत्थीरयणस्स तिलगचोहसं भंडालंकारं कडगाणि अ (तुडिआणि अवत्थाणि अ) गेण्हइ 2 ता ताए उक्किट्ठाए जाव सक्कारेइ सम्माणेइ 2 ता पडिविसज्जेइ (तए णं से भरहे राया पोसहसालारो पडिणिक्खमइ 2 त्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ 2 ता हाए कयबलिकम्मे मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ) भोप्रणमंडवे, तहेव महामहिमा कयमालस्स पच्चप्पिणंति / 65] अष्ट दिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न (शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकल कर आकाश में अधर अवस्थित हुआ / वह एक हजार यक्षों से संपरिवृत था। दिव्य वाद्य-ध्वनि से गगन-मण्डल को श्रापूर्ण कर रहा था / ) पश्चिम दिशा में तमिस्रा गुफा की ओर आगे बढ़ा। राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न को (आकाश में अधर अवस्थित, एक हजार यक्षों से संपरिवृत, दिव्य वाद्य-ध्वनि से गगन-मण्डल को प्रापूर्ण करते हुए) पश्चिम दिशा में तमिस्रा गुफा की अोर आगे बढ़ते हुए देखा / उसे यों देखकर राजा अपने मन में हर्षित हुआ, परितुष्ट हमा। उसने तमिस्रा गुफा से न अधिक दूर, न अधिक समीप-थोड़ी ही दूरी पर बारह योजन लम्बा और नो योजन चौड़ा (श्रेष्ठ नगर के सदृश) सैन्य-शिविर स्थापित किया। कृतमाल देव को उद्दिष्ट कर उसने तेले की तपस्या स्वीकार की। तपस्या का संकल्प कर उसने पौषध लिया, ब्रह्मचर्य स्वीकार किया। (मणि-स्वर्णमय आभूषण शरीर से उतारे। माला, वर्णक-चन्दनादि सुरभित पदार्थों के देहस्थ विलेपन आदि दूर किये / शस्त्र-कटार आदि, मूसल—दण्ड, गदा आदि हथियार एक ओर रखे / डाभ के बिछौने पर उपगत हुा / तेले की तपस्या में अभिरत) राजा भरत मन में कृतमाल देव का ध्यान करता हुआ स्थित हुआ। भरत द्वारा यों तेले की तपस्या में अभिरत हो जाने पर कृतमाल देव का आसन चलित हुअा। आगे का वर्णन-क्रम वैसा ही है, जैसा वैताढय गिरिकुमार का है / इतमाल देव ने राजा भरत को प्रोतिदान देने हेतु राजा के स्त्री-रत्न के लिए -रानी के लिए रत्न-निर्मित चौदह तिलक--ललाट-आभूषण सहित आभूषणों की पेटी, कटक (त्रुटित तथा वस्त्र आदि) लिये। उन्हें लेकर वह शीघ्र गति से राजा के पास आया। उसने राजा को ये उपहार भेंट किये / राजा ने उसका सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार-सम्मान कर फिर वहाँ से विदा किया। फिर राजा भरत (पौषधशाला से बाहर निकला / बाहर निकलकर, जहाँ स्नानघर था, वहाँ आया। वहाँ पाकर उसने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कृत्य किये। वैसा कर स्नानघर से बाहर निकला।) भोजन-मण्डप में आया। आगे का वर्णन पूर्ववत् है / कृतमाल देव को विजय करने के उपलक्ष्य में राजा के आदेश से अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित हुआ। महोत्सव के सम्पन्न होते ही प्रायोजकों ने राजा को वैसी सूचना की। निष्कुट-विजयार्थ सुषेण की तैयारी 66. तए णं से भरहे राया कयमालस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिवत्ताए समाणीए सुसेणं सेणावई सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी—गच्छाहि णं भो देवाणुप्पिा ! सिंधूए महाणईए 3. देख सूत्र सख्या 34 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org