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________________ तृतीय वक्षस्कार] [111 रत्न से हीरों द्वारा बने थे / वह श्रेष्ठ स्वर्ण से-स्वर्णाभरणों से सुशोभित था / वह सुयोग्य शिल्पकारों द्वारा निर्मित था। उसमें उत्तम घोड़े जोते जाते थे। सुयोग्य सारथि द्वारा वह संप्रगृहीतस्वायत्त--सुनियोजित था / वह उत्तमोत्तम रत्नों से परिमंडित था / अपने में लगी हुई छोटी-छोटी सोने की घण्टियों से वह शोभित था। वह अयोध्य-अपराभवनीय था--कोई भी उसका पराभव करने में सक्षम नहीं था। उसका रंग विद्युत, परितप्त स्वर्ण, कमल, जपा-कुसुम, दीप्त अग्नि तथा तोते की चोंच जैसा था। उसकी प्रभा धुंघची के अर्ध भाग----रक्त वर्णमय भाग, बन्धुजीवक पुष्प, सम्मदित हिंगुल-राशि, सिन्दूर, रुचिकर— श्रेष्ठ केसर, कबूतर के पैर, कोयल की आंखें, अधरोष्ठ, , मनोहर रक्ताशोक तरु, स्वर्ण, पलाशपुष्प, हाथी के तालु, इन्द्रगोपक-वर्षा में उत्पन्न होने वाले लाल रंग के छोटे-छोटे जन्तुविशेष जैसी थी। उसकी कांति बिम्बफल, शिलाप्रवाल एवं उदीयमान सूर्य के सदृश थो / सब ऋतुओं में विकसित होने वाले पुष्पों की मालाएँ उस पर लगी थीं। उस पर उन्नत श्वेत ध्वजा फहरा रही थी। उसका घोष महामेघ के गर्जन के सदश अत्यन्त गम्भीर था, शत्रु के हृदय को कंपा देने वाला था / लोकविश्रत यशस्वी राजा भरत प्रातःकाल पौषध पारित अवयवों से युक्त चातुर्घण्ट' 'पृथ्वीविजयलाभ' नामक अश्वरथ पर प्रारुढ हुआ / आगे का भाग पूर्ववत है।"राजा भरत ने पूर्व दिशा की ओर बढ़ते हुए वरदाम तीर्थ होते हुए अपने रथ के पहिये भीगें, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र में प्रवेश किया / आगे का प्रसंग वरदाम तीर्थकुमार के साथ वैसा ही बना, जैसा मागध तीर्थकुमार के साथ बना था। वरदाम तीर्थकुमार ने राजा भरत को दिव्य-उत्कृष्ट, सर्व विषापहारी चूडामणि-शिरोभूषण, वक्षःस्थल पर धारण करने का आभूषण, गले में धारण करने का अलंकार, कमर में पहनने की मेखला, कटक, त्रुटित (वस्त्र तथा अन्यान्य आभूषण) भेंट किये और उसने कहा कि मैं आपका दक्षिणदिशा का अन्तपाल-उपद्रवनिवारक, सीमारक्षक हूँ। इस विजय के उपलक्ष्य में राजा की आज्ञा के अनुसार अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित हुआ। उसकी सम्पन्नता पर आयोजक पुरुषों ने राजा को सब जानकारी दी। बरदाम तीर्थकुमार को विजय कर लेने के उपलक्ष्य में समायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के परिसम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर वह आकाश में अधर अवस्थित हुा / वह एक हजार यक्षों से परिवत था। दिव्य वाद्यों के शब्द से गगनमण्डल को आपूरित करते हुए उसने उत्तर-पश्चिम दिशा में प्रभास तीर्थ की ओर होते हुए प्रयाण किया। प्रभासतीर्थविजय 62. तए णं से भरहे राया तं दिवं चक्करयणं जाव उत्तरपच्चस्थिमं दिसि तहेव जाव पच्चस्थिमदिसाभिमुहे पभासतित्थेणं लवणसमुदं ओगाहेइ 2 ता जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला जाव पोइदाणं से णवरं मालं मडि मुत्ताजालं हेमजालं कडगाणि प्रतुडिपाणि अ आभरणाणि अ सरं च णामाहयंकं पभासतित्थोदगं च गिण्हइ 2 ता जाव पच्चत्थिमेणं पभासतित्थमेराए अहणं देवाणुप्पियाणं विसयवासी जाव पच्चथिमिल्ले अंतवाले, सेसं तहेव जाव अट्टाहिआ निव्वत्ता। [62] राजा भरत ने उस दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करते हुए,उत्तर-पश्चिम दिशा होते हुए, पश्चिम में, प्रभास तीर्थ की ओर जाते हुए, अपने रथ के पहिये भीगें, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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