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________________ 110] লক্ষ্মীসলিম अ सस्सिरीणामेणं पुहविविजयलंभंति विस्सुतं लोगविस्सुतजसोऽहयं चाउग्धंट प्रासरहं पोसहिए णरवई दुरूढे। ___ तए णं से भरहे राया चाउग्घंटं पासरहं दुरुढे समाणे सेसं तहेव दाहिणाभिमुहे वरदामतित्थेणं लवणसमुदं प्रोगाहइ जाव से रहवरस्स कुप्परा उल्ला जाव पीइदाणं से, णवरि चूडामणि च दिव्धं उरत्थगेविज्जगं सोणिअसुत्तगं कडगाणि अ तुडिआणि अ (वत्थाणि अ प्राभरणाणि अ) दाहिणिल्ले अंतबाले जाव' अट्ठाहिअं महामहिमं करेइ 2 ता एप्रमाणत्ति पच्चप्पिणंति / ___ तए णं से दिव्वे चक्करयणे वरदामतित्थकुमारस्स देवस्स अट्टाहिआए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ 2 ता अंतलिक्खपडिवण्णे (जक्खसहस्ससंपरिबुडे दिव्वतुडिअसहसणिणादेणं) पूरते चेव अंबरतलं उत्तरपच्चत्थिमं दिसि पभासतित्थाभिमुहे पयाते यावि होत्था। [61] वह रथ पृथ्वी पर शीघ्र गति से चलने वाला था। अनेक उत्तम लक्षण युक्त था। हिमालय पर्वत की वायुरहित कन्दराओं में संधित विविध प्रकार के तिनिश नामक रथनिर्माणोपयोगी वृक्षों के काठ से वह बना था / उसका जुमा जम्बूनद नामक स्वर्ण से निर्मित था। उसके बारे स्वर्णमयी ताड़ियों के बने थे / वह पुलक, वरेन्द्र, नील, सासक, प्रवाल, स्फटिक, लेष्टु, चन्द्रकांत, विद्रम संज्ञक रत्नों एवं मणियों से विभूषित था। प्रत्येक दिशा में बारह बारह के क्रम से उसके अड़तालीस पारे थे। उसके दोनों तुम्ब स्वर्णमय पट्टों से संगृहीत थे-दृढीकृत थे, उपयुक्त रूप में बंधे थे---न बहुत छोटे थे, न बहुत बड़े थे / उसका पृष्ठ-पूठी विशेष रूप से घिसी हुई, बंधी हुई, सटी हुई, नई पट्टियों से सनिष्पन्न थी। अत्यन्त मनोज्ञ, नतन लोहे की सांकल तथा चमडे के रस्से से उसके अवयव बंधे थे। उसके दोनों पहिए वासुदेव के शस्त्ररत्न–चक्र के सदृश--गोलाकार थे। उसकी जाली चन्द्रकांत, इन्द्रनील तथा शस्यक नामक रत्नों से सुरचित और सुसज्जित थी। उसकी धुरा प्रशस्त, विस्तीर्ण तथा एकसमान थी। श्रेष्ठ नगर की ज्यों वह गुप्त-सुरक्षित-सुदृढ था। उसके घोड़ों के गले में डाली जाने वाली रस्सी कमनीय किरणयुक्त अत्यन्त द्युतियुक्त, लालिमामय स्वर्ण से बनी थी। उसमें स्थान-स्थान पर कवच प्रस्थापित थे। वह (रथ) प्रहरणों-अस्त्र-शस्त्रों से परिपूरित था / ढालों, कणकों विशेष प्रकार के बाणों, धनुषों, मण्डलानों-विशेष प्रकार की तलवारों, त्रिशूलों, भालों, तोमरों तथा सैकड़ों बाणों से युक्त बत्तीस तूणीरों से वह परिमंडित था / उस पर स्वर्ण एवं रत्नों द्वारा चित्र बने थे। उसमें हलीमुख, बगुले, हाथीदांत, चन्द्र, मुक्ता, मल्लिका, कुन्द, कुटज-निर्गुण्डी तथा कन्दल के पुष्प, सुन्दर फेन-राशि, मोतियों के हार और काश के सदृश धवल-श्वेत, अपनी गति द्वारा मन एवं वायु की गति को जीतने वाले, चपल, शीघ्रगामी, चवरों और स्वर्णमय आभूषणों से विभूषित चार घोड़े जुते थे। उस पर छत्र बना था। ध्वजाएँ. घण्टियां तथा पताकाएँ लगी थी। उसका सन्धि-योजन—जोड़ों का मेल सुन्दर रूप में निष्पादित था / यथोचित रूप में सुनियोजित-सुस्थापित समर-कणक—युद्ध में प्रयोजनीय वाद्य-विशेष के गम्भीर घोष जैसा उसका घोष था—उस से वैसी आवाज निकलती थी / उसके कूर्पर-पिजनक-अवयव विशेष उत्तम थे। वह सुन्दर चक्रयुक्त तथा उत्कृष्ट नेमिमंडल युक्त था। उसके जुए के दोनों किनारे बड़े सुन्दर थे। उसके दोनों तुम्ब श्रेष्ठ वज्र 1. देखें सूत्र संख्या 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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