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________________ तृतीय वक्षस्कार] [109 भवन निर्माणोचित भूमि में उत्पन्न गर्भवती–फलाभिमुख बेलों, कन्या - निष्फल अथवा दूरफल बेलों, वृक्षों एवं उन पर छाई हुई बेलों के गुणों तथा दोषों को समझने में सक्षम था। गुणाढच था-प्रज्ञा, हस्तलाघव आदि गुणों से युक्त था / सान्तन, स्वस्तिक आदि सोलह प्रकार के भवनों के निर्माण में कुशल था / शिल्पशास्त्र में प्रसिद्ध चौसठ प्रकार के घरों की रचना में चतुर था / नन्द्यावर्त, वर्धमान, स्वस्तिक, रुचक तथा सर्वतोभद्र आदि विशेष प्रकार के गृहों, ध्वजाओं, इन्द्रादि देवप्रतिमाओं, धान्य के कोठों की रचना में, भवन-निर्माणार्थ अपेक्षित काठ के उपयोग में, दुर्ग प्रादि निर्माण के अन्तर्गत जनावास हेतु अपेक्षित पर्वतीय गृह, सरोवर, यान-वाहन, तदुपयोगी स्थान-इन सबके संचयन और सन्निर्माण में समर्थ था / वह शिल्पकार अनेकानेक गुणयुक्त था। राजा भरत को अपने पूर्वाचरित तप तथा संयम के फलस्वरूप प्राप्त उस शिल्पी ने कहा-स्वामी ! मैं आपके लिए क्या निर्माण करू ? राजा के वचन के अनुरूप उसने देवकर्मविधि से--चिन्तनमात्र से रचना कर देने की अपनी असाधारण, दिव्य क्षमता द्वारा मुहूर्त मात्र में अविलम्ब सैन्यशिविर तथा सुन्दर आवास-भवन की रचना कर दी / वैसा कर उसने फिर उत्तम पौषधशाला का निर्माण किया। तत्पश्चात् वह जहाँ राजा भरत था, वहाँ पाया। आकर शीघ्र ही राजा को निवेदित किया कि आपके आदेशानुरूप निर्माण कार्य सम्पन्न कर दिया है / इससे आगे का वर्णन पूर्ववत् है। -जैसे राजा स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, चातुर्घट अश्वरथ था, पाया / 61. उवागच्छित्ता तते णं तं धरणितलगमणलहुं ततो बहुलक्खणपसत्थं हिमवंतकंदरंतरणिवायसंवद्धिचित्ततिणिसदलिअं जंबूणयसुकयकूबरं कणयदंडियारं पुलयरिंदणीलसासगपवालफलिहवररयणलेठ्ठमणिविदुमविभूसिधे अडयालीसाररइयतवणिज्जपट्टसंगहिअजुत्ततुबं पसिनपसिननिम्मिअनवपट्टपुट्टपरिणिट्ठिअं विसिट्ठलट्ठणवलोहबद्धकम्मं हरिपहरणरयणसरिसचक्कं कक्केयणइंदणीलसासगसुसमाहिअबद्धजालकडगं पसत्थ विच्छिण्णसमधुरं पुरवरं च गुत्तं सुकिरणतवणिज्जजुत्तकलिग्रं कंकटयणिजुत्तकप्पणं पहरणाणुजायं खेडगकणगधणमंडलग्गवरसत्तिकोंततोमरसरसयबत्तीसतोणपरिमंडिअ कणगरयणचित्तं जुत्तं हलीमुहबलागगयदंतचंदमोत्तियतणसोल्लिकुदकुडयवरसिंदुवारकंदलवरफेणणिगरहारकासप्पगासधवलेहिं अमरमणपवणजइणचवलसिग्धगामीहि चहि चामराकणगविभूसियहिं तुरगेहिं सच्छत्तं सज्झयं सघंटे सपडागं सुकयसंधिकम्मं सुसमाहिनसमरकणगगंभीरतुल्लघोसं बरकुप्परं सुचक्कं वरनेमीमंडलं वरधारातोंडं वरवइरबद्धतुबं वरकंचणभूसिवरायरिअणिम्मिअ वरतुरगसंपउत्तं वरसारहिसुसंपग्गहिरं वरपुरिसे वरमहारहं दुरूढे आरूढे, पवररयणपरिमंडिअंकणखिखिणीजालसोभिअं अउज्झं सोप्रामणिकणगतविश्नपंकयजासुअणजलणजलिअसुश्रतोंडरागं गुजद्धबंधुजीवगरहिंगुलणिगरसिंदूररुइलकुकुमपारेवयचलणणयणकोइलदसणावरणरइतातिरेगरत्तासोगकणगकेसुअगयतालुसुरिंदगोवगसमप्पभप्पगासं बिबफलसिलपवालद्धितसूरसरिसं सवोउअसुरहिकुसुमबासत्तमल्लदामं ऊसिअसेअझयं महामेहरसिअगंभीरणिधोसं सत्तुहिप्रयकपणं पभाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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