________________ 108] {जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जैसा यशस्वी-ऐश्वर्यशाली प्रतीत होता था। वह ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्वट, मडम्ब (द्रोणमुख, पट्टन, आश्रम तथा संबाध). इनसे सुशोभित भूमण्डल की विजय करता हुआ-वहाँ के शासकों को जीतता हुअा, उत्तम, श्रेष्ठ रत्नों को भेंट के रूप में स्वीकार करता हुया, दिव्य चक्ररत्न का अनुगमन करता हुअा-उसके पीछे पीछे चलता हुआ, एक-एक योजन पर पड़ाव डालता हुआ जहाँ वरदामतीर्थ था, वहाँ आया। पाकर वरदामतीर्थ से न अधिक दूर, न अधिक समीप कुछ ही दूरी पर बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौड़ा, विशिष्ट नगर के सदृश अपना संन्य-शिविर लगाया। उसने वर्द्धकि-रत्न को बुलाया / उससे कहा-देवानुप्रिय ! शीघ्र ही मेरे लिए प्रावासस्थान तथा पौषधशाला का निर्माण करो। मेरे आदेशानुरूप कार्य सम्पन्न कर मुझे सूचित करो / 60. तए णं से प्रासमदोणमुहगामपट्टणपुरवरखंधावारगिहावणविभागकुसले एगासीतिपदेसु सम्वेसु चेव वत्थूसु गगुणजाणए पंडिए विहिण्णू पणयालीसाए देवयाणं वत्थुपरिच्छाए गेमिपासेसु भत्तसालासु कोट्टणिसु अ वासघरेसु अ विभागकुसले छज्जे वेज्झे प्रदाणकम्मे पहाणबुद्धी जलयाणं भूमियाणं य भायणे जलथलगुहासु जंतेसु परिहासु अ कालनाणे तहेव सद्दे वत्थुप्पएसे पहाणे गम्भिणिकण्णरुवखवल्लिवेढिप्रगुणदोसविआणए गुणड्ड सोलसपासायकरणकुसले चउसाहि-विकप्यवित्थियमई गंदावते य वद्धमाणे सोस्थिअरुप्रग तह सवओभद्दसण्णिवेसे अ बहुविसेसे उइंडिअदेवकोढदारुगिरिखायवाहणविभागकुसले इह तस्स बहुगुणद्ध, थवईरयणे परिदचंदस्स / तव-संजम-निविठे, किं करवाणी तुवट्ठाई // 1 // सो देवकम्मविहिणा, खंधावार परिद-वयणेणं / पावसहभवणकलिअं, करेइ सव्वं मुहुत्तेणं // 2 // करेत्ता पवरपोसहघरं करेइ 2 ता जेणेव भरहे राया (तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता) एतमाणत्तिनं खिप्पामेव पच्चप्पिणइ, सेसं तहेव जाव' मज्जणघरानो पडिणिक्खमइ 2 ता जेणेव बाहिरिआ उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ / [60] वह शिल्पी (वर्द्धकि रत्न) पाश्रम, द्रोणमुख, ग्राम, पट्टन, नगर, सैन्य शिविर, गह, आपण–पण्यस्थान इत्यादि की समुचित संरचना में कुशल था / इक्यासी प्रकार के वास्तु-क्षेत्र का अच्छा जानकार था। उनके यथाविधि चयन और अंकन में निष्णात था, विधिज्ञ था। शिल्पशास्त्रनिरूपित पैतालीस देवताओं के समुचित स्थान-सन्निवेश के विधिक्रम का विशेषज्ञ था। विविध परम्परानुगत भवनों, भोजनशालाओं, दुर्ग-भित्तियों, वासगृहों-शयनगृहों के यथोचित रूप में निर्माण करने में निपुण था / काठ आदि के छेदन-वेधन में, गैरिक लगे धागे से रेखाएँ अंकित कर नाप-जोख में कुशल था। जलगत तथा स्थलगत सुरंगों के, घटिकायन्त्र आदि के निर्माण में, परिखाओं-खाइयों के खनन में शुभ समय के, इनके निर्माण के प्रशस्त एवं अप्रशस्त रूप के परिज्ञान में प्रवीण था। शब्दशास्त्र में---शुद्ध नामादि चयन, अंकन, लेखन आदि में अपेक्षित व्याकरणज्ञान में, वास्तुप्रदेश में विविध दिशाओं में निर्मेय भवन के देवपूजागृह, भोजनगृह, विश्रामगृह आदि के संयोजन में सुयोग्य था। --- . - - - - ------ 1. देखें सूत्र संख्या 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org