________________ तृतीय वक्षस्कार] [107 विस्थिण्णं वरणगरसरिच्छं) विजयखंधावारणिवेसं करेइ 2 ता बद्धइरयणं सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिना! मम पावसहं पोसहसालं च करेहि, ममेप्रमाणत्ति पच्चप्पिणाहि। [59] राजा भरत ने दिव्य चक्ररत्न को दक्षिण-पश्चिम दिशा में वरदामतीर्थ की ओर जाते हुए देखा / देखकर वह बहुत हषित तथा परितुष्ट हुआ। उसने कौटम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर कहा—देवानुप्रियो ! घोड़े, हाथी रथ तथा श्रेष्ठ योद्धाओं—पदातियों से परिगठित चातुरंगिणी सेना को तैयार करो, आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र ही सुसज्ज करो। यों कहकर राजा स्नानघर में प्रविष्ट हुआ / धवल महामेघ से निकलते हुए चन्द्रमा की ज्यों सुन्दर प्रतीत होता वह . राजा स्नानादि सम्पन्न कर स्नानघर से बाहर निकला। (स्नानघर से बाहर निकलकर घोड़े, हाथी, रथ, अन्यान्य उत्तम वाहन तथा योद्धाओं के विस्तार से युक्त सेना से सुशोभित वह राजा, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला-बाहरी सभाभवन था, ग्राभिषेक्य हस्तिरत्न था, वहाँ अाया, अं , अंजनगिरि के शिखर के समान उस विशाल गजपति पर वह नरपति प्रारूढ हुआ। भरतक्षेत्र के अधिपति नरेन्द्र भरत का वक्षस्थल हारों से व्याप्त, सुशोभित एवं प्रीतिकर था। उसका मुख कुण्डलों से द्युतिमय था / मस्तक मुकुट से देदीप्यमान था / नरसिंह-मनुष्यों में सिंह सदृश शौर्यशाली, मनुष्यों के स्वामी, मनुष्यों के इन्द्र-परम ऐश्वर्यशाली अधिनायक, मनुष्यों में वृषभ के समान स्वीकृत कार्यभार के निर्वाहक, व्यन्तर आदि देवों के राजाओं के बीच विद्यमान प्रमुख सौधमेन्द्र के सदृश प्रभावापन्न, राजोचित तेजोमयी लक्ष्मी से देदीप्यमान वह राजा मंगलसूचक शब्दों से संस्तुत तथा जयनाद से सुशोभित था। कोरंटपुष्पों की मालाओं से युक्त छत्र उस पर तना था / ) उत्तम, श्वेत चँवर उस पर डुलाये जा रहे थे। जिन्होंने अपने-अपने हाथों में उत्तम ढालें ले रखी थीं, श्रेष्ठ कमरबन्धों से अपनी कमर बांध रखी थीं, उत्तम कवच धारण कर रखे थे, ऐसे हजारों योद्धाओं से वह विजय-अभियान परिगत था। उन्नत, उत्तम मुकूट, कुण्डल, पताका-छोटी-छोटी झण्डियां, ध्वजा-बड़े बड़े झण्डे तथा वैजयन्ती---दोनों तरफ दो दो पताकाएं जोड़कर बनाये गये झण्डे, चँवर, सघनता से प्रसत अन्धकार से प्राच्छन्न था। असि-तलवार विशेष. क्षेपणी-गोफिया खड्ग-सामान्य तलवार, चाप–धनुष, नाराच-सम्पूर्णत: लोह-निर्मित बाण, कणक-बाण विशेष, कल्पनी—कृपाण, शूल, लकुट–लट्ठी, भिन्दिपाल-वल्लम या भाले, बांस के बने धनुष, तूणीरतरकश, शर—सामान्य बाण आदि शस्त्रों से, जो कृष्ण, नील, रक्त, पीत तथा श्वेत रंग के सैकड़ों चिह्नों से युक्त थे, व्याप्त था। भुजाओं को ठोकते हुए, सिंहनाद करते हुए योद्धा राजा भरत के साथसाथ चल रहे थे / घोड़े हर्ष से हिनहिना रहे थे, हाथी, चिघाड़ रहे थे, सैकड़ों हजारों-लाखों रथों के चलने को ध्वनि, घोड़ों को ताड़ने हेतु प्रयुक्त चाबुकों की आवाज, भम्भा--- ढोल, कौरम्भ-बड़े ढोल, क्वणिता-वीणा, खरमुखी—काली, मुकुन्द-मृदंग, शंखिका-छोटे शंख, परिली तथा बच्चकघास के तिनकों से निर्मित वाद्य-विशेष, परिवादिनी–सप्त तन्तुमयी वीणा, दंस-अलगोजा, वेणुबांसुरी, विपञ्ची-विशेष प्रकार की वीणा, महती कच्छपी—कछए के आकार की बड़ी वीणा, रिगीसिगिका सारंगी, करताल, कांस्यताल, परस्पर हस्त-ताडन आदि से उत्पन्न विपुल ध्वनि-प्रतिध्वनि से मानो सारा जगत् आपूर्ण हो रहा था। इन सबके बीच राजा भरत अपनी चातुरंगिणी सेना तथा विभिन्न वाहनों से युक्त, सहस्र यक्षों से संपरिवृत कुबेर सदृश वैभवशाली तथा अपनी ऋद्धि से इन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org