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________________ दाहिणभरहे णं भंते ! वासे मणयाणं केरिसए प्रायारभावपडोयारे पणते ? गोयमा ! ते णं मणुप्रा बहुसंधयणा, बहुसंठाणा, बहुउच्चत्तपज्जवा, बहुअाउपज्जवा, बहूई वासाई पाउं पातेति, पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी, अप्पेगझ्या तिरियगामी, अप्पेगइया मणुयगामी, अप्पेगइया देवगामी, अप्पेगइया सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिन्यायंति सव्वदुवखाणमंतं करेंति / [11] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दक्षिणार्ध भरत नामक क्षेत्र कहाँ कहा गया है ? गौतम ! वैताढ्य पर्वत के दक्षिण में, दक्षिण-लवणसमुद्र के उत्तर में, पूर्व-लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिम-लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बू नामक द्वीप के अन्तर्गत दक्षिणार्ध भरत नामक क्षेत्र कहा गया है। वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है / यह अर्द्ध-चन्द्र-संस्थान-संस्थित है-- आकार में अर्द्ध चन्द्र के सदृश है / वह तीन ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है / गंगा महानदी और सिन्धु महानदी से वह तीन भागों में विभक्त हो गया है / वह 238 योजन चौड़ा है। उसकी जीवा-धनुष की प्रत्यंचा जैसी सीधी सर्वान्तिम-प्रदेश-पंक्ति उत्तर में पूर्व-पश्चिम लम्बी है / वह दो ओर से लवण-समुद्र का स्पर्श किये हुए है / अपनी पश्चिमी कोटि से-किनारे से वह पश्चिम-लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है तथा पूर्वी कोटि से पूर्व-लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है / दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र की जीवा 674814 योजन लम्बी है / उसका धनुष्य-पृष्ठ-पीठिका–दक्षिणार्ध भरत के जीवोपमित भाग का पृष्ठ भाग--पीछे का हिस्सा दक्षिण में 976659 योजन से कुछ अधिक है। यह परिधि की अपेक्षा से वर्णन है। भगवन् ! दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र का प्राकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उसका प्रति समतल रमणीय भूमिभाग है। वह मुरज के ऊपरी भाग आदि की ज्यों समतल है / वह अनेकविध कृत्रिम, अकृत्रिम पंचरंगी मणियों तथा तृणों से सुशोभित है। भगवन् ! दक्षिणार्ध भरत में मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! दक्षिणार्ध भरत में मनुष्यों का संहनन, संस्थान, ऊँचाई, आयुष्य बहुत प्रकार का है। वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हैं ! आयुष्य भोगकर उनमें से कई नरकगति में, कई तिर्यञ्चगति में, कई मनुष्यगति में तथा कई देवगति में जाते हैं, कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होते हैं एवं समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। विवेचन-दसवें सूत्र में भरत क्षेत्र की स्थाणु-बहुलता, कंटक-बहुलता, विषमता आदि का जो उल्लेख हुअा है, वह समग्र क्षेत्र के सामान्य वर्णन की दृष्टि से है। यहाँ रमणीय भूमिभाग का जो वर्णन है, वह स्थान-विशेष की दृष्टि से है / शुभाशुभात्मकतामूलक द्विविध स्थितियों को विद्यमानता से एक ही क्षेत्र में स्थान-भेद से द्विविधता हो सकती है, जो विसंगत नहीं है। अप्रिय और अमनोज्ञ स्थानों के अतिरिक्त पुण्यशाली जनों के पुण्यभोगोपयोगी प्रिय और मनोज्ञ स्थानों का अस्तित्व संभावित ही है। प्रस्तुत सूत्र में दक्षिणार्ध भरत के मनुष्यों के नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, देवगति तथा मोक्ष-प्राप्ति का जो वर्णन हुआ है, वह नानाविध जीवों को लेकर पारक-विशेष की अपेक्षा से है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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