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________________ प्रथम वक्षस्कार] इसमें स्थाणुओं की-मुखे ठूठों की, काँटों की-बेर, बबूल आदि काँटेदार वृक्षों की, ऊँची-नीची भूमि की, दुर्गम स्थानों को, पर्वतों की, प्रपातों की गिरने के स्थानों की-ऐसे स्थानों की जहाँ से मरणेच्छु व्यक्ति झम्पापात करते हैं, अवझरों को जल-प्रपातों को, निझरों की, गड्ढों की, गुफाओं की, नदियों को, द्रहों की, वृक्षों की, गुच्छों की, गुल्मों की, लताओं की, विस्तीर्ण बेलों की, * वनों की, वनैले हिंसक पशुओं को, तृणों को, तस्करों को-चोरों को, डिम्वों की -स्वदेशोत्थ विप्लवों की, डमरों की--पर-शत्रुराजकृत उपद्रवों की, दुभिक्ष को, दुष्काल को-धान्य आदि की महंगाई की, पाखण्ड की--विविध मत दो जनों द्वारा उत्थापित मिथ्यावादों की, कृपणों की, याचकों की, ईति की फसलों को नष्ट करने वाले चूहों, टिड्डियों आदि की, मारी की, मारक रोगों की, कुवृष्टि की-- किसानों द्वारा अवाञ्छित --हानिप्रद वर्षा की, अनावृष्टि को, प्रजोत्पीडक राजानों को, रोगों की, संक्लेशों की, क्षणक्षणवर्ती संक्षोभों को-चैतसिक अनवस्थितता की बहुलता है—अधिकता हैअधिकांशतः ऐसी स्थितियाँ हैं / वह भरतक्षेत्र पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है / उत्तर में पर्यक-संस्थानसंस्थित है—पलंग के आकार जैसा है, दक्षिण में धनुपृष्ठ-संस्थान-संस्थित है-प्रत्यंचा चढ़ाये धनुष के पिछले भाग जैसा है / यह तीन अोर से लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है / गंगा महानदी, सिन्धु महानदी तथा वैताढ्य पर्वत से इस भरत क्षेत्र के छह विभाग हो गये हैं, जो छह खंड कहलाते हैं। इस जम्बूद्वीप के 160 भाग करने पर भरत क्षेत्र उसका एक भाग होता है अर्थात् यह जम्बूद्वीप का 190 वां हिस्सा है / इस प्रकार यह 526 योजन चौड़ा है। भरत क्षेत्र के ठीक बीच में वैताढ्य नामक पर्वत बतलाया गया है, जो भरतक्षेत्र को दो भागों में विभक्त करता हुआ स्थित है / वे दो भाग दक्षिणार्ध भरत तथा उत्तरार्ध भरत हैं। जम्बूद्वीप में दक्षिणार्ध भरत का स्थान : स्वरूप 11. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दोवे दाहिणी भरहे णाम वासे पण्णत्ते ? गोयमा ! वेअड्डस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, दाहिणलवणसमुहस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणद्धभरहे णामं वासे पण्णत्ते-पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणविस्थिण्णे, अद्धचंदसंठाणसंठिए, तिहा लवणसमुदं पुछे, गंगासिंह महाणईहि तिभागपविभत्ते। दोणि अटुतोसे जोअणसए तिणि अ एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं / तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा लवणसमुई पुट्ठा, पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा / णव जोयणसहस्साई सत्त य अडयाले जोयणसए दुवालस य एगणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं, तीसे धणुपुछे दाहिणेणं णव जोयणसहस्साई सत्तछावठे जोयणसए इक्कं च एगूणवीसइभागे जोयणस्स किचिविसेसाहि परिक्खेवेणं पण्णत्ते। दाहिणद्धभरहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णते ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव' णाणाविहपञ्चवहि मणीहि तर्णेहि उवसोभिए, तं जहा-कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहि चेव / 1. देखें मूत्र संख्या 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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