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________________ तृतीय वक्षस्कार] [135 तए णं ते मेहमुहा णागकुमारा देवा ते आवाडचिलाए एवं क्यासी-एस णं भो देवाणुप्पिया ! भरहे णामं राया चाउरंतचक्कवट्टी महिड्डीए महज्जुईए जाव' महासोक्खे, णो खलु एस सक्को केणइ देवेण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किं पुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा सत्थप्पोगेण वा अग्गि पोगेण वा मंतप्पनोगेण वा उद्दवित्तए पडिसेहित्तए वा, तहाबि अणं तुम्भं पियट्टयाए भरहस्स रण्णो उक्सग्गं करेमोत्ति कटु तेसि पावाडचिलायाणं प्रतिप्रायो प्रवक्कमन्ति 2 त्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति 2 ता महाणी विउव्वंति 2 ता जेणेव भरहस्स रण्णो विजयक्खंधावारणिवेसे तेणेव उवागच्छंति 2 ता उपि विजयक्खंधावारणिवेसस्स खिप्पामेव पततुतणायंति खिप्पामेव विज्जुयायन्ति 2 ता खिप्पामेव जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणमेत्ताहि धाराहि प्रोघमेधं सत्तरत्तं वासं वासिउं पवत्ता यावि होत्था। [74] सेनापति सुषेण द्वारा मारे जाने पर, मथित किये जाने पर, घायल किये जाने पर मैदान छोड़कर भागे हुए आपात किरात बड़े भीत-भयाकुल, त्रस्त--त्रासयुक्त, व्यथित- व्यथायुक्तपीडायुक्त, उद्विग्न---उद्वेगयुक्त होकर घबरा गये। युद्ध में टिक पाने की शक्ति उनमें नहीं रही / वे अपने को निर्बल, निर्वीर्य तथा पौरुष-पराक्रम रहित अनुभव करने लगे। शत्रु-सेना का सामना करना शक्य नहीं है, यह सोचकर वे वहाँ से अनेक योजन दूर भाग गये। यों दूर जाकर वे एक स्थान पर आपस में मिले, जहाँ सिन्धु महानदी थी, वहाँ पाये / वहाँ आकर बाल के संस्तारक-बिछौने तैयार किये। बाल के संस्तारकों पर वे स्थित हुए। वैसा कर उन्होंने तेले की तपस्या स्वीकार की। वे अपने मुख ऊँचे किये, निर्वस्त्र हो घोर आतापना सहते हुए मेघमुख नामक नागकुमारों का, जो उनके कूल-देवता थे, मन में ध्यान करते हए तेले की तपस्या में अभिरत हो गए / जब तेले की तपस्या परिपूर्ण-प्राय थी, तब मेघमुख नागकुमार देवों के प्रासन चलित हुए। मेघमुख नागकुमार देवों ने अपने आसन चलित देखे तो उन्होंने अपने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान द्वारा उन्होंने आपात किरातों को देखा। उन्हें देखकर वे परस्पर यों कहने लगे--- देवानुप्रियो ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में सिन्धु महानदी पर बालू के संस्तारकों पर अवस्थित हो आपात किरात अपने मुख ऊँचे किये हुए तथा निर्वस्त्र हो आतापना सहते हुए तेले की तपस्या में संलग्न हैं। वे हमारा-मेघमुख नागकुमार देवों का, जो उनके कुल-देवता हैं, ध्यान करते हुए विद्यमान हैं / देवानुप्रियो ! यह उचित है कि हम उन आपात किरातों के समक्ष प्रकट हों। ___इस प्रकार परस्पर विचार कर उन्होंने वैसा करने का निश्चय किया / वे उत्कृष्ट, तीव्र गति से चलते हुए, जहाँ जम्बूद्वीप था, उत्तरार्ध भरतक्षेत्र था एवं सिन्धु महानदी थी, आपात किरात थे, वहाँ पाये। उन्होंने छोटी-छोटी घण्टियों सहित पँचरंगे उत्तम वस्त्र पहन रखे थे / आकाश में अधर अवस्थित होते हुए वे आपात किरातों से बोले --आपात किरातो ! देवानुप्रियो ! तुम बालू के संस्तारकों पर अवस्थित हो, निर्वस्त्र हो पातापना सहते हुए, तेले ही तपस्या में अभिरत होते हुए हमारा-मेघमुख नागकुमार देवों का, जो तुम्हारे कुल देवता हैं, ध्यान कर रहे हो / यह देखकर हम 1. देखें सूत्र संख्या 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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