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________________ 136] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तुम्हारे कुलदेव मेघमुख नागकुमार तुम्हारे समक्ष प्रकट हुए हैं। देवानुप्रियो ! तुम क्या चाहते हों ? हम तुम्हारे लिए क्या करें ? मेघमुख नागकुमार देवों का यह कथन सुनकर आपात किरात अपने चित्त में हर्षित, परितुष्ट तथा आनन्दित हुए, उठे / उठकर जहाँ मेघमुख नागकुमार देव थे, वहाँ आये / वहाँ आकर हाथ जोड़े, अंजलि-बाँधे उन्हें मस्तक से लगाया। ऐसा कर मेघमुख नागकुमार देवों को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया-उनका जयनाद, विजयनाद किया और बोले-देवानुप्रियो ! अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु का प्रार्थी--चाहने वाला, दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला (पुण्य चतुर्दशीहीन --असंपूर्ण थी, घटिकाओं में अमावस्या आ गई, उस अशुभ दिन में जन्मा हुआ) अभागा, लज्जा, शोभा से परिवजित कोई एक पुरुष है, जो बलपूर्वक जल्दी-जल्दी हमारे देश पर चढ़ा पा रहा है। देवानुप्रियो ! आप उसे वहाँ से इस प्रकार फेंक दीजिए हटा दीजिए, जिससे वह हमारे देश पर बलपूर्वक आक्रमण नहीं कर सके, आगे नहीं बढ़ सके / तब मेघमुख नागकुमार देवों ने आपात किरातों से कहा--देवानुप्रियो ! तुम्हारे देश पर आक्रमण करने वाला महाऋद्धिशाली, परम द्युतिमान्, परम सौख्ययुक्त, चातुरत्न चक्रवर्ती भरत नामक राजा है / उसे न कोई देव-वैमानिक देवता, न कोई किंपुरुष, न कोई महोरग तथा न कोई गन्धर्व ही रोक सकता है, न बाधा उत्पन्न कर सकता है। न उसे शस्त्र-प्रयोग द्वारा, न अग्नि-प्रयोग द्वारा तथा न मन्त्र-प्रयोग द्वारा ही उपद्रत किया जा सकता है, रोका जा सकता है / फिर भी हम तुम्हारा अभीष्ट साधने हेतु राजा भरत के लिए उपसर्ग-विघ्न उत्पन्न करेंगे / ऐसा कहकर वे आपात किरातों के पास से चले गये / उन्होंने वैक्रिय समुद्घात द्वारा आत्मप्रदेशों को देह से बाहर निकाला। आत्मप्रदेश बाहर निकाल कर उन द्वारा गृहीत पुद्गलों के सहारे बादलों की विकुर्वणा की / वैसा कर जहाँ राजा भरत की छावनी थी, वहाँ आये / बादल शीघ्र ही धीमे-धीमे गरजने लगे। बिजलियाँ चमकने लगीं / वे शीघ्र ही पानी बरसाने लगे / सात दिन-रात तक युग, मूसल एवं मुष्टिका के सदृश मोटी धाराओं से पानी बरसता रहा। छत्ररत्न का प्रयोग 75. तए णं से भरहे राया उपि विजयक्खंधावारस्स जुगमुसलमुट्ठिप्पमाणमेत्ताहिं धाराहि प्रोघमेषं सत्तरत्तं वासं वासमाणं पासइ 2 त्ता चम्मरयणं परामुसइ, तए णं तं सिरिवच्छसरिसरूवं वेढो भाणिअव्वो (मुत्ततारद्धचंदचित्तं अयलमकंपं अभेज्जकवयं जंतं सलिलासु सागरेसु अ उत्तरणं दिव्वं चम्मरयणं सणसत्तरसाई सम्वधण्णाई जत्य रोहंति एगदिवसेण वाविनाई, वासं णाऊण चक्कट्टिणा परामुट्ठ दिव्वे चम्मरयणे) दुवासलजोत्रणाई तिरिअं पवित्थरइ, तत्थ साहिआई, तए णं से भरहे राया सखंधावारबले चम्मरयणं दुरूहइ 2 ता दिव्वं छत्तरयणं परामुसइ, तए णं णवणउइसहस्सकंचणसलागपरिमंडिअं महरिहं अउज्झ णिवणसुपसत्थविसिट्टलटकंचणसुपुट्ठदंडं मिउराययवट्टलटुअरविंदकण्णिप्रसमाणरूवं वत्थिपएसे अ पंजरविराइ विविहभत्तिचित्तं मणिमुत्तपवालतत्ततवणिज्जपंचवण्णिअधोरयणस्वरइयं रयणमरोईसमोप्पणाकप्पकारमणुरंजिएल्लियं रायलििचधं अज्जुणसुवण्णपंडुरपच्चत्थअपट्ठदेसभागं तहेव तवणिज्जपट्टधम्मतपरिगयं अहिश्रसस्सिरीअं सारयरयणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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