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________________ तृतीय वक्षस्कार [137 अरविमलपडिपुण्णचंदमंडलसमाणरूवं रिदवामप्पमाणपगइवित्थडं कुमुदसंडधवलं रप्णो संचारिमं विमाणं सूरातववायबुट्टिदोसाण य खयकरं तवगुणेहि लद्ध अहयं बहुगुणदाणं उऊण विवरीअसुहकयच्छायं। छत्तरयणं पहाणं सुदुल्लहं अप्पपुण्णाणं // 1 // पमाणराईण तवगुणाण फलेगदेसभागं विमाणवासेवि दुल्लहतरं वग्धारिअमल्लदामकलावं सारयधवलन्भरययणिगरप्पगासं दिव्वं छत्तरयणं महिवइस्स धरणिअलपुण्णइंदो। तए णं से दिव्वे छत्तरयणे भरहेणं रण्णा परामुळे समाणे खिप्पामेव दुवालस जोप्रणाइं, पवित्थरइ साहिआई तिरिअं। [75] राजा भरत ने अपनी सेना पर युग, मूसल तथा मुष्टिका के प्रमाण मोटी धाराश्नों के रूप में सात दिन-रात तक बरसती हुई वर्षा को देखा / देखकर उसने चर्मरत्न का स्पर्श किया। वह चर्मरत्न श्रीवत्स-स्वस्तिकविशेष जैसा रूप लिये था। (उस पर मोतियों के, तारों के तथा अर्धचन्द्र के चित्र बने थे / वह अचल एवं अकम्प था। वह कवच की ज्यों अभेद्य था। नदियों तथा समुद्रों को पार करने का यन्त्र---अनन्य साधन था, देवी विशेषता लिये था। चमेनिमित वस्तुओं में वह सर्वोत्कृष्ट था / उस पर बोये हुए सत्तरह प्रकार के धान्य एक दिन में उत्पन्न हो सके, ऐसी विशेषता मान्यता है कि गहपतिरत्न इस चर्मरत्न पर सुर्योदय के समय धान्य बोता है, जो उगकर दिन भर में पक जाते हैं, गृहपति सायंकाल उन्हें काट लेता है।) चक्रवर्ती राजा भरत द्वारा उपर्युक्त रूप में होती हुई वर्षा को देखकर छुआ गया दिव्य चर्मरत्न कुछ अधिक बारह योजन तिर्यक् - तिरछा विस्तीर्ण हो गया- फैल गया। तत्पश्चात् राजा भरत अपनी सेना सहित उस चर्मरत्न पर आरूढ हो गया। आरूढ होकर उसने छत्ररत्न को छ मा, उठाया / वह छत्ररत्न निन्यानबे हजार स्वर्ण-निर्मित शलाकारों से-ताड़ियों परिमण्डित था। बहमुल्य था-चक्रवर्ती के योग्य था। अयोध्य था-उसे देख लेने पर प्रतिपक्षी योद्धाओं के शस्त्र उटते तक नहीं थे। वह निर्वण था--छिद्र, ग्रन्थि आदि के दोष से रहित था। सुप्रशस्त, विशिष्ट, मनोहर एवं स्वर्णमय सुदृढ दण्ड से युक्त था / उसका आकार मृदु-मुलायम चाँदी से बनी गोल कमल कणिका के सदृश था। वह बस्ति-प्रदेश में-छत्र के मध्य भागवर्ती दण्ड-प्रक्षेपस्थान में--जहाँ दण्ड आबिद्ध एवं योजित रहता है, अनेक शलाकाओं से युक्त था। अतएव वह पिंजरे जैसा प्रतीत होता था। उस पर विविध प्रकार की चित्रकारी की हुई थी। उस पर मणि, मोतो, मूगे, तपाये हुए स्वर्ण तथा रत्नों द्वारा पूर्ण कलश आदि मांगलिक-वस्तूमों के पंचरंगे उज्ज्वल प्राकार बने थे / रत्नों की किरणों के सदश रंगरचना में निपुण पुरुषों द्वारा वह सुन्दर रूप में रंगा हा था। उस पर राजलक्ष्मी का चिह्न अंकित था। अर्जन नामक पाण्डर वर्ण के स्वर्ण द्वारा उसका पृष्ठभाग आच्छादित था—उस पर सोने का कलापूर्ण काम था। उसके चार कोण परितापित स्वर्णमय पट्ट से परिवेष्टित थे। बह अत्यधिक श्री-शोभा–सुन्दरता से युक्त था / उसका रूप शरद् ऋतु के निर्मल, परिपूर्ण चन्द्रमण्डल के सदृश था। उसका स्वाभाविक विस्तार राजा भरत द्वारा तिर्यक् प्रसारित--तिरछो फैलाई गई अपनी दोनों भुजाओं के विस्तार जितना था। वह कुमुद-चन्द्रविकासी कमलों के बन सदृश धवल था। वह राजा भरत का मानो संचरणशील-जंगम विमान था। वह सूर्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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