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________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [225 प्रमाण प्रादि पूर्वणित यमिका राजधानी के सदश हैं। देव का उपपात--उत्पत्ति, अभिषेक आदि सारा वर्णन वैसा ही है। भगवन् ! उत्तरकुरु-यह नाम किस कारण पड़ा? गौतम ! उत्तरकुरु में परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्य युक्त उत्तरकुरु नामक देव निवास करता है / गौतम ! इस कारण वह उत्तरकुरु कहा जाता है / अथवा उत्तरकुरु नाम (ध्र व, नियत एवं) शाश्वत है / माल्यवान वक्षस्कार पर्वत 108. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे मालवंते णामं वक्खारपब्वए पण्णते? गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं, णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणणं, उत्तरकुराए पुरथिमेणं, कच्छस्स चक्कट्टिविजयस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे मालवंते णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते। उत्तरदाहिणायए, पाईणपडीणविच्छिण्ण, जं चेव गंधमायणस्स पमाणं विक्खम्भो अ, णवरमिमं णाणत्तं सव्ववेरुलिआमए, अवसिळें तं चेव जाव गोयमा ! नव कूडा पण्णत्ता, तं जहा सिद्धाययणकडे-- सिद्ध य मालवन्ते, उत्तरकुरु कच्छ सागरे रयए। सीओ य पुण्णभद्दे, हरिस्सहे चेव बोद्धब्वे // 1 // कहि णं भन्ते ! मालवन्ते वक्खारपवए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? गोयमा ! मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं, मालवन्तस्स कूडस्स दाहिणपच्चस्थिमेणं एस्थ णं सिद्धाययणे कूडे पण्णत्ते / पंच जोनणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, अवसिळं तं चेव जाव रायहाणी / एवं मालवन्तस्स कूडस्स, उत्तरकुरुकूडस्स, कच्छकूडस्स, एए चत्तारि कूडा दिसाहिं पमाणेहि अव्वा, कूडसरिसणामया देवा। ___ कहि णं भन्ते ! मालवन्ते सागरकूडे णामं कूडे पण्णते ? गोयमा ! कच्छकूडस्स उत्तरपुरस्थिमेणं, रययकूडस्स दक्खिणेणं एत्थ णं सागरकडे णामं कूडे पण्णते। पंच जोप्रणसयाई उद्ध उच्चत्तेणं, अवसिळं तं चेव, सुभोगा देवी, रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं, रययकूडे भोगमालिणी देवी रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं, अवसिट्ठा कूडा उत्तरवाहिणणं अव्वा एक्केणं पमाणेणं। [108] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत माल्यवान् नामक वक्षस्कारपर्वत कहाँ बतलाया गया है ? - गौतम ! मन्दरपर्वत के उत्तर-पूर्व में ईशान कोण में, नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, उत्तर करु के पूर्व में, कच्छ नामक चक्रवति-विजय के पश्चिम में महाविदेह क्षेत्र में माल्यवान् नामक वक्षस्कारपर्वत बतलाया गया है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम चौड़ा है। गन्धमादन का जैसा प्रमाण, विस्तार है. वैसा ही उसका है। इतना अन्तर है- वह सर्वथा वैदूर्य-रत्नमय है / बाकी सब वैसा ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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