________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [183 गोयमा ! पउमद्दहे णं तत्थ 2 देसे तहि 2 बहवे उप्पलाई, (कुमुयाई, नलिणाई, सोगन्धियाई, पुंडरीयाई, सयपत्ताई, सहस्सपत्ताई,) सयसहस्सपत्ताई पउमद्दहप्पभाई पउमद्दहवण्णाभाई सिरी अ इत्थ देवी महिड्डिा जाव' पलिओवमट्टिईमा परिवसइ, से एएणट्ठणं (एवं बुच्चइ पउमद्दहे इति) अदुत्तरं च णं गोयमा ! पउमद्दहस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते ण कयाइ णासि न० / [90] उस अति समतल तथा रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में पद्मद्रह नामक एक विशाल द्रह बतलाया गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। उसकी लम्बाई एक हजार योजन तथा चौड़ाई पाँच सौ योजन है। उसकी गहराई दश योजन है। वह स्वच्छ, सुकोमल, रजतमय, तटयुक्त, (चिकना, घुटा हुआ-सा, तरासा हुआ-सा, रजरहित, मैलरहित, कर्दमरहित, कंकड़रहित, प्रभायुक्त, श्रीयुक्त शोभायुक्त, उद्योतयुक्त) सुन्दर, (दर्शनीय, अभिरूप—मन को अपने में रमा लेने वाला एवं) प्रतिरूप—मन में बस जानेवाला है। __वह द्रह एक पद्मवरवेदिका द्वारा तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से परिवेष्टित है। वेदिका एवं वनखण्ड पूर्व वणित के अनुरूप हैं। उस पद्मद्रह की चारों दिशाओं में तीन-तीन सीढ़ियाँ बनी हुई हैं / वे पूर्व वर्णनानुरूप हैं / उन तीन-तीन सीढ़ियों में से प्रत्येक के आगे तोरणद्वार बने हैं। वे नाना प्रकार की मणियों से सुसज्जित उस पद्मद्रह के बीचोंबीच एक विशाल पद्म है। वह एक योजन लम्बा और एक योजन चौड़ा है / आधा योजन मोटा है। दश योजन जल के भीतर गहरा है। दो कोश जल से ऊँचा उठा हुआ है। इस प्रकार उसका कुल विस्तार दश योजन से कुछ अधिक है। वह एक जगती-प्राकार द्वारा सब ओर से घिरा है। उस प्राकार का प्रमाण जम्बूद्वीप के प्राकार के तुल्य है / उसका गवाक्षसमूह झरोखे भी प्रमाण में जम्बूद्वीप के गवाक्षों के सदृश हैं। उस पद्म का वर्णन इस प्रकार है–उसके मूल वज्ररत्नमय हीरकमय हैं / उसका कन्दमूल-नाल की मध्यवर्ती ग्रन्थि रिष्टरत्नमय है। उसका नाल वैडूर्यरत्नमय है। उसके बाह्य पत्रबाहरी पत्ते वैडूर्य रत्न नीलम घटित हैं। उसके प्राभ्यन्तर पत्र-भीतरी पत्ते जम्बूनद-कुछ-कुछ लालिमान्वित रंगयुक्त या पीतवर्णयुक्त स्वर्णमय हैं। उसके केसर-किञ्जल्क तपनीय रक्त या लाल स्वर्णमय हैं। उसके पुष्करास्थिभाग-कमलबीज विभाग विविध मणिमय हैं। उसकी कणिकाबीजकोश कनकमय स्वर्णमय है। वह कणिका आधा योजन लम्बी-चौड़ी है, सर्वथा स्वर्णमय है, स्वच्छ-उज्ज्वल है। उस कणिका के ऊपर अत्यन्त समतल एवं सुन्दर भूमिभाग है / वह ढोलक पर मढ़े हुए चर्मपुट की ज्यों समतल है। उस अत्यन्त समतल तथा रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल भवन बतलाया गया है। वह एक कोश लम्बा, प्राधा कोश चौड़ा तथा कुछ कम एक कोश ऊँचा है, सैकड़ों खंभों से युक्त है, सुन्दर एवं दर्शनीय है / उस भवन के तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं / वे द्वार पाँच सौ 1. देखें स्त्र संख्या 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org