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________________ 184] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र धनुष ऊँचे हैं, अढ़ाई सौ धनुष चौड़े हैं तथा उनके प्रवेशमार्ग भी उतने ही चौड़े हैं। उन पर उत्तम स्वर्णमय छोटे-छोटे शिखर-कंगूरे बने हैं / वे पुष्पमालाओं से सजे हैं, जो पूर्व वर्णनानुरूप हैं। उस भवन का भीतरी भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय है। वह ढोलक पर मढ़े चमड़े की ज्यों समतल है। उसके ठीक बीच में एक विशाल मणिपीठिका बतलाई गई है। वह मणिपीठिका पाँच सौ धनुष लम्बी-चौड़ी तथा अढाई सौ धनुष मोटी है, सर्वथा स्वर्णमय है, स्वच्छ है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल शय्या है। उसका वर्णन पूर्ववत् है। ___ वह पद्म दूसरे एक सौ आठ पद्मों से, जो ऊँचाई में, प्रमाण में-विस्तार में उससे आधे हैं, सब ओर से घिरा हआ है / वे पद्म प्राधा योजन लम्बे-चौड़े, एक कोश मोटे, दश योजन जलगतपानी में गहरे तथा एक कोश जल से ऊपर ऊँचे उठे हुए हैं। यों जल के भीतर से लेकर ऊँचाई तक वे दश योजन से कुछ अधिक है। उन पद्मों का विशेष वर्णन इस प्रकार है-उनके मूल वज्ररत्नमय, (उनके कन्द रिष्टरत्नमय, नाल वैडूर्यरत्नमय, बाह्य पत्र वैडूर्यरत्नमय, आभ्यन्तर पत्र जम्बूनद संज्ञक स्वर्णमय, किजल्क तपनीय-स्वर्णमय, पुष्करास्थि भाग नाना मणिमय) तथा कणिका कनकमय है / वह कणिका एक कोश लम्बी, प्राधा कोश मोटी, सर्वथा स्वर्णमय तथा स्वच्छ है / उस कणिका के ऊपर एक बहुत समतल, रमणीय भूमिभाग है, जो नाना प्रकार की मणियों से सुशोभित उस मूल पद्म के उत्तर-पश्चिम में-वायव्यकोण में, उत्तर में तथा उत्तर-पूर्व में-ईशानकोण में श्री देवी के सामानिक देवों के चार हजार पद्म हैं। उस (मूल पद्म) के पूर्व में श्री देवी की चार महत्तरिकाओं के चार पद्म हैं। उसके दक्षिण-पूर्व में-आग्नेयकोण में श्री देवी की आभ्यन्तर परिषद् के पाठ हजार देवों के आठ हजार पद्म हैं। दक्षिण में श्री देवी की मध्यम परिषद् के दश हजार देवों के दश हजार पद्म हैं। दक्षिण-पश्चिम में नैऋत्यकोण में श्री देवी की बाह्य परिषद् के बारह हजार देवों के बारह हजार पद्म हैं / पश्चिम में सात अनीकाधिपति-सेनापति देवों के सात पद्म हैं / उस पद्म की चारों दिशाओं में सब ओर श्री देवी के सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों के सोलह हजार पद्म हैं / वह मूल पद्माभ्यन्तर, मध्यम तथा बाह्य तीन पद्म-परिक्षेपों कमल रूप परिवेष्टनों द्वारा प्राचीरों द्वारा सब अोर से घिरा हुआ है। आभ्यन्तर पद्म-परिक्षेप में बत्तीस लाख पद्म हैं, मध्यम पद्म-परिक्षेप में चालीस लाख पद्म हैं, तथा बाह्य पद्मपरिक्षेप में अड़तालीस लाख पद्म हैं / इस प्रकार तीनों पद्म-परिक्षेपों में एक करोड़ बीस लाख पद्म हैं / भगवन् ! यह द्रह पद्मद्रह किस कारण कहलाता है ? गौतम ! पद्मद्रह में स्थान-स्थान पर बहुत से उत्पल, (कुमुद, नलिन, सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र) शतसहस्रपत्र प्रभृति अनेकविध पद्म हैं। वे पद्म–कमल पद्मद्रह के सदृश प्राकारयुक्त, वर्णयुक्त एवं आभायुक्त हैं। इस कारण वह पद्मद्रह कहा जाता है। वहाँ परम ऋद्धिशालिनी पल्योपम-स्थितियुक्त श्री नामक देवी निवास करती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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