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________________ चतुर्थ वक्षस्कार [165 अथवा गौतम ! पद्मद्रह नाम शाश्वत कहा गया है। वह कभी नष्ट नहीं होता। विवेचन–तीनों परिक्षेपों के पद्म 12000000 हैं। उनके अतिरिक्त श्री देवी के निवास का एक पद्म, श्री देवी के प्रावास-पद्म के चारों ओर 108 पद्म, श्री देवी के चार हजार सामानिक देवों के 4000 पद्म, चार महत्तरिकाओं के 4 पद्म, पाभ्यन्तर परिषद् के पाठ हजार देवों के 8000 पद्म, मध्यम परिषद् के दश हजार देवों के 10000 पद्म, बाह्य परिषद् के बारह हजार देवों के 12000 पद्म, सात सेनापतिदेवों के 7 पद्म तथा सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों के 16000 पद्म-कुल पद्मों की संख्या 12000000+1+108+4000+4+ 8000+10000+ 12000+7+16000 = 12050120 एक करोड़ बीस लाख पचास हजार एक सौ बीस है / गंगा, सिन्धु, रोहितांशा 61. तस्स णं पउमद्दहस्स पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं गंगा महाणई पवढा समाणी पुरत्थाभिमुही पञ्च जोअणसयाई पव्वएणं गंता गंगावत्तकूडे आवत्ता समाणी पञ्च तेवीसे जोअणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभाए जोमणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवत्तएणं मुत्तावलोहारसंठिएणं साइरेगजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ।। गंगा महाणई जो पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिभिया पण्णत्ता / सा गं जिभिआ अद्धजोअणं आयामेणं, छ सकोसाइं जोअणाई विक्खंभेणं, अद्धकोसं बाहल्लेणं, मगर मुहविउटुसंठाणसंठिआ, सन्ववइरामई, अच्छा, सण्हा। गंगा महाणई जत्थ पवडइ, एत्थ णं महं एगे गंगप्पवाए कुडे णाम कुडे पण्णत्ते, सढि जोमणाई प्रायामविक्खंभेणं, णउअं जोअणसयं किंचिविसेसाहिग्रं परिक्खेवेणं, दस जोषणाई उन्वेहेणं, अच्छे, सण्हे, रययामयकूले, समतोरे, वइरामयपासाणे, वइरतले, सुवण्णसुब्भरययामयवालुपाए, वेरुलिअमणिफालिअपडलपच्चोअडे, सुहोसारे, सुहोत्तारे, णाणामणितित्थसुबद्ध, वट्टे, अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसोअलजले, संछण्णपत्तभिसमुणाले, बहुउप्पल-कुमुअ-णलिग-सुभग-सोगंधिअ-पोंडरीअमहापोंडरोअ-सयपत्त-सहस्सपत्त-सयसहस्सपत्त-पप्फुल्लकेसरोवचिए, छप्पय-महुयरपरिभुज्जमाणकमले, अच्छ-विमल-पत्थसलिले, पुण्णे, पडिहत्थभवन-मच्छ-कच्छभ-अगसउणगणमिहुणपविभरियसदुन्नइपमहरसरणाइए पासाईए / से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसण्डेणं सव्वनो समंता संपरिक्खिते / बेइआवणसंडगाणं पउमाणं वण्णो भाणिअव्वो। तस्स णं गंगप्पवायकुडस्स तिदिसि तो तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तंजहा--पुरस्थिमेणं दाहिणणं पच्चत्थिमेणं / तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहावइरामया जेम्मा, रिटामया यइट्ठाणा, वेरुलिआमया खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलया, लोहिक्खमईओ सूईयो, वयरामया संघो, णाणामणिमया आलंबणा आलंबणबाहाओत्ति।। तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेअं पत्तेअं तोरणा पणत्ता। ते णं तोरणा णाणामणिमया णाणामणिमएसु खंभेसु उवणि विट्ठसंनिविट्ठा, विविहमुत्तं तरोवइया, विविहताराहवोवचिआ, ईहामिअ-उसह-तुरग-णर-मगर-विहग-वालग-किण्णर-रुरु-सरभ-चमर-कुजर-वणलय. पउमलय-भत्तिचित्ता, खंभुग्गयवहरवेइग्रापरिगयाभिरामा, विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्ताविक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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