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________________ पञ्चम वक्षस्कार] विजयों, माल्यवान, चित्रकूट आदि वक्षस्कार पर्वतों, ग्राहावती आदि अन्तर-नदियों से जल एवं मृत्तिका लेते हैं। (देवकुरु से) उत्तरकुरु से पुष्करवरद्वीपा के पूर्व भरतार्ध, पश्चिम भरतार्ध आदि स्थानों से सुदर्शन-पूर्वार्धमेरु के भद्रशाल वन पर्यन्त सभी स्थानों से समस्त कषायद्रव्य (सब प्रकार के पुष्प, सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थ, सब प्रकार की मालाएँ, सब प्रकार की औषधियाँ) एवं सफेद सरसों लेते हैं / इसी प्रकार नन्दन वन से सर्वविध कषायद्रव्य, सफेद सरसों, सरस-ताजा गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य पुष्पमाला लेते हैं। इसी भाँति सौमनस एवं पण्डक वन से सर्व-कषाय-द्रव्य (सर्व पुष्प, सर्व गन्ध, सर्व माल्य, सर्वोषधि, सरस गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य) पुष्पमाला एवं दर्दर और मलय पर्वत पर उद्भूत चन्दन की सुगन्ध से आपूर्ण सुरभिमय पदार्थ लेते हैं / ये सब वस्तुएँ लेकर एक स्थान पर मिलते हैं। मिलकर, जहाँ स्वामी-भगवान् तीर्थंकर होते हैं, वहाँ आते हैं। वहाँ आकर महार्थ (महाघ, महार्ह, विपुल) तीर्थकराभिषेकोपयोगी क्षीरोदक आदि वस्तुएँ उपस्थित करते हैं-अच्युतेन्द्र के ससुख रखते हैं। अच्युतेन्द्र द्वारा अभिषेक : देवोल्लास 154. तए णं से अच्चुए देविन्दे दहि सामाणिप्रसाहस्सोहि, तायत्तीसाए तायत्तीसरहि, चहिं लोगपालेहि, तिहिं परिसाहि, सहि अणिएहि, सहि अणिमाहिवईहि, चत्तालीसाए पायरक्खदेवसाहस्सीहि सद्धि संपरिवुडे तेहि साभाविएहि विउविएहि अ वरकमलपइट्ठाणेहि, सुरभिवरवारिपडिपुणेहि, चन्दणकयचच्चाएहि, आविद्धकण्ठेगुणेहि, पउमुष्पलपिहाणेहि, करयलसुकुमारपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्सेणं सोवणिआणं कलसाणं जाव अनुसहस्सेणं भोमेज्जाणं (अट्ठसहस्सेणं चन्दनकलसाणं) सम्वोदएहि, सव्वमट्टिआर्हि, सन्वतुअरेहि, (सब्वपुप्फेहि, सव्वगन्धेहि सव्वमलेहि) सव्वोसहिसिद्धत्थरहि, सन्विड्ढोए जाव' रवेणं महया 2 तित्थयराभिसेएणं अभिसिंचंति, तए णं सामिस्स अभिसेग्रंसि वट्टमाणंसि इंदाइआ देवा छत्तचामरधूवकडुच्छअपुष्फगन्ध (मल्लचुण्णाइ) हत्थगया हट्टतुट्ठ जाब वज्जसूलपाणी पुरओ चिट्ठति पंजलिउडा इति, एवं विजयाणुसारेण (अप्पेगइमा, देवा पंडगवणं मंचाइमंचकलिअं करेंति,) अप्पेगइगा देवा प्रासिअसंमज्जिोवलितसित्तसुइसम्मट्ठरत्यंतरावणवोहिअं करेंति, (कालागुरुपवरकुदरुक्कतुरुक्क उज्झतधूवमघमधंतगंधुद्धाभिरामं सुगंधवरगंधियं) गन्धवट्टिभूअंति, अप्पेगइमा हिरण्णवासं वासिति एवं सुवण्ण-रयण-वइर-भाभरण-पत्त-पुप्फ-फलबी-मल्ल-गन्ध-वण्ण-(वस्थ-) चुण्णवासं वासंति, अप्पेगइया हिरणविहिं भाइंति एवं (सुवणविहि, रयणविहि, वारविहि, पाभरणविहि, पत्तविहि, पुष्फविहि, फलविहि, बीअविहि, मल्लविहि, गन्धविहि, वण्णविहि,) चुण्णविहिं भाइंति, अप्पेगइया चविहं वज्ज वाएन्ति तं जहा–ततं 1, विततं 2, घणं 3, झुसिरं 4, अप्पेगइभा चउन्विहं गेग्नं गायन्ति, तं जहा--उक्खित्तं 1, पायत्तं 2, मन्दायईयं 3, रोइयावसाणं 4, अप्पेगइया चउम्विहं गट्टणच्चन्ति, तं जहा--अंचिअं, दुअं, प्रारभडं, भसोलं, अप्पेगइमा चउम्विहं अभिणयं अभिणेति, तं जहा-दिलैंति, पाडिस्सुइ, सामण्णोवणिवाइ, 1. देखें सूत्र संख्या 52 2. देखें सूत्र संख्या 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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