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________________ 302] [जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र दहरमलयसुगन्धे य गिण्हन्ति 2 त्ता एगो मिलंति 2 ता जेणेव सामी तेणेव उवागच्छन्ति 2 त्ता महत्थं (महग्धं महारिहं विउल) तित्थयराभिसेनं उववेतित्ति / [153] देवेन्द्र, देवराज, महान् देवाधिप अच्युत अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है, उनसे कहता है देवानुप्रियो ! शीघ्र ही महार्थ-जिसमें मणि, स्वर्ण, रत्न आदि का उपयोग हो, महार्घजिसमें भक्ति-स्तवनादि का एवं बहुमूल्य सामग्री का प्रयोग हो, महार्ह-विराट् उत्सवमय, विपुल-~ विशाल तीर्थंकराभिषेक उपस्थापित करो- तदनुकूल सामग्री आदि की व्यवस्था करो। यह सुनकर वे आभियोगिक देव हर्षित एवं परितुष्ट होते हैं। वे उत्तर-पूर्व दिशाभाग में कोण में जाते हैं। वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने शरीर से प्रात्मप्रदेश बाहर निकालते हैं। आत्मप्रदेश बाहर निकालकर एक हजार पाठ स्वर्ण कलश, एक हजार आठ रजतकलश-चाँदी के कलश, एक हजार आठ मणिमय कलश, एक हजार पाठ स्वर्ण-रजतमय कलश-सोने-चांदी-दोनों से बने कलश, एक हजार आठ स्वर्णमणिमय कलश-सोने और मणियों—दोनों से बने कलश. एक हजार आठ रजत-मणिमय कलश–चाँदी और मणियों से बने कलश, एक हजार आठ स्वर्ण-रजतमणिमय कलश-सोने, और चाँदी और मणियों-तीनों से बने कलश, एक हजार पाठ भौमेय-मत्तिकामय कलश, एक हजार आठ चन्दनकलशचन्दनचचित मंगलकलश, एक हजार पाठ झारियाँ, एक हजार पाठ दर्पण, एक हजार आठ थाल, एक हजार आठ पात्रियाँ-रकाबी जैसे छोटे पात्र, एक हजार आठ सुप्रतिष्ठक-प्रसाधनमंजूषा, एक हजार आठ विविध रत्नकरंडक-रत्न-मंजूषा, एक हजार आठ वातकरंडक-बाहर से चित्रित रिक्त करवे, एक हजार आठ पुष्पचंगेरी-फूलों की टोकरियाँ, राजप्रश्नीय सूत्र में सूर्याभदेव के अभिषेक-प्रसंग में विकुर्वित सर्वविध चंगेरियों, पुष्प-पटलों-फूलों के गुलदस्तों के सदृश चंगेरियाँ, पुष्प-पटल-संख्या में तत्समान, गुण में अतिविशिष्ट, एक हजार पाठ सिंहासन, एक हजार आठ छत्र, एक हजार आठ चंवर, एक हजार आठ तैल-समुद्गक-तेल के भाजन-विशेष-डिब्बे, (एक हजार आठ कोष्ठ-समुद्गक, एक हजार आठ पत्र-समुद्गक, एक हजार आठ चोय-सुगन्धित द्रव्यविशेषसमुद्गक, एक हजार आठ तगरसमुद्गक, एक हजार आठ एलासमुद्गक, एक हजार आठ हरितालसमुद्गक, एक हजार आठ हिंगुलसमुद्गक, एक हजार पाठ मैनसिलसमुद्गक,) एक हजार आठ सर्षप-सरसों के समुद्गक, एक हजार आठ तालवृन्त-पंखे तथा एक हजार आठ धूपदान-धूप के कुड़छे इनकी विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा करके स्वाभाविक एवं विकुर्वित कलशों से धूपदान पर्यन्त सब वस्तुएँ लेकर, जहाँ क्षीरोद समुद्र है, वहाँ आकर क्षीररूप उदक-जल ग्रहण करते हैं। क्षीरोदक गृहीत कर उत्पल, पद्म, सहस्रपत्र आदि लेते हैं / पुष्करोद समुद्र से जल आदि लेते हैं / समयक्षेत्र—मनुष्यक्षेत्रवर्ती पुष्करवर द्वीपार्ध के भरत, ऐरवत के मागध आदि तीर्थों का जल तथा मत्तिका लेते हैं। वैसा कर गंगा आदि महानदियों का जल एवं मृतिका ग्रहण करते हैं। फिर क्षुद्र हिमवान् पर्वत से तुबर-आमलक आदि सब कषायद्रव्य-कसैले पदार्थ, सब प्रकार के पुष्प, सब प्रकार के सुगन्धित पदार्थ, सब प्रकार की मालाएँ, सब प्रकार की औषधियाँ तथा सफेद सरसों लेते हैं / उन्हें लेकर पद्मद्रह से उसका जल एवं कमल आदि ग्रहण करते हैं / . इसी प्रकार समस्त कुलपर्वतों सर्वक्षेत्रों को विभाजित करने वाले हिमवान् आदि पर्वतों, वृत्तवैताढ्य पर्वतों, पद्म आदि सब महाद्रहों, भरत आदि समस्त क्षेत्रों, कच्छ आदि सर्व चक्रवर्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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