________________ पञ्चम वक्षस्कार] [301 व्यन्तरेन्द्रों तथा ज्योतिष्केन्द्रों का वर्णन है। इतना अन्तर है-- उनके चार हजार सामानिक देव, चार अग्रमहिषियाँ तथा सोलह हजार अंगरक्षक देव हैं, विमान एक हजार योजन विस्तीर्ण तथा महेन्द्रध्वज एक सौ पच्चीस योजन विस्तीर्ण है / दाक्षिणात्यों की मंजुस्वरा तथा उत्तरीयों की मंजुघोषा घण्टा है। उनके पदाति-सेनाधिपति तथा विमानकारी-विमानों की विकर्वणा करने वाले प्राभियोगिक देव हैं। ज्योतिष्केन्द्रों की सुस्वरा तथा सुस्वरनिर्घोषा-चन्द्रों की सुस्वरा एवं सूर्यों की सुस्वरनि?षा नामक घण्टाएं हैं। वे मन्दर पर्वत पर समवसृत होते हैं, पर्युपासना करते हैं / अभिषेक-द्रव्य : उपस्थापन 153. तए णं से अच्चुए देविन्दे देवराया महं देवाहिवे प्राभिप्रोगे देवे सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो वेवाणुप्पिया! महत्थं, महग्धं, महारिहं, विउलं तिस्थयराभिसेअं उवट्ठवेह। तए णं ते प्राभिओगा देवा हट्टतुट्ठ जाव' पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमन्ति २त्ता वेउग्विअसमुग्घाएणं (समोहणंति) समोहणित्ता प्रसहस्सं सोवण्णिअकलसाणं एवं रुप्पमयाणं, मणिमयाणं, सुवण्णरुप्पमयाणं, सुवण्णमणिमयाणं, रुप्पमणिमयाणं, सुवण्णरुप्पमणिमयाणं, अट्ठसहस्सं - भोमिज्जाणं, अट्ठसहस्सं चन्दणकलसाणं, एवं भिंगाराणं, प्रायंसाणं, थालाणं, पाईणं, सुपइट्ठगाणं, चित्ताणं रयणकरंडगाणं, वायकरंडगाणं, पुप्फचंगेरीणं, एवं जहा सूरिआभस्स सम्वचंगेरीओ सव्वपडलगाई विसेसिअतराई भाणिअव्वाई, सोहासणछत्रचामरतेल्लसमुग्ग (कोटुसमुग्गे, पत्त-चोएमतगरमेलाय-हरिपाल-हिंगुलय-मणोसिला)सरिसवसमुग्गा, तालिअंटा अट्ठसहस्सं कडुच्छुगाणं विउध्वंति, विउवित्ता साहाविए विउविए अ कलसे जाव कडुच्छुए अगिण्हित्ता जेणेव खीरोदए समुद्दे, तेणेव आगम्म खीरोदगं गिण्हन्ति 2 ता जाई तत्थ उप्पलाई पउमाइं जाव' सहस्सपत्ताई ताई गिण्हन्ति, एवं पुक्खरोदामो, (समय-खित्ते) भरहेरवयाणं मागहाइतित्थाणं उदगं मट्टियं च गिण्हन्ति 2 ता एवं गंगाईणं महाणईणं (उदगं मट्टियं च गिण्हन्ति), चुल्लाहिमवन्ताओ सम्वतुमरे, सव्वपुप्फे, सव्वगन्धे, सवमल्ले, सम्वोसहीओ सिद्धत्थए य गिण्हन्ति 2 ता पउमद्दहानो वहोअगं उप्पलादीणि अ। एवं सव्वकुलपन्वएसु, वट्टवेअद्धसु सव्वमहद्दहेसु, सव्यवासेसु, सव्वचषकवट्टिविजएसु, वक्खारपश्वएसु, अंतरणईसु विभासिज्जा। (देवकुरुसु) उत्तरकुरुसु जाव सुदसणभद्दसालवणे सव्वतुअरे (सव्वपुप्फे सव्वगन्धे सव्वमल्ले सव्वोसहीनो) सिद्धत्थए य गिण्हन्ति, एवं गन्दणवणाम्रो सम्बतुअरे जाव' सिद्धत्थए य सरसं च गोसीसचन्दणं दिव्वं च सुमणदामं गेण्हन्ति, एवं सोमणस-पंडगवणानो म सव्वतुअरे (सव्वपुप्फे सम्वगन्धे सव्वमल्ले सम्वोसहीनो सरसं च गोसीसचन्दणं दिव्यं च) सुमणाम 1. देखें सूत्र-संख्या 44 2. देखें सूत्र संख्या 75 3. देखें सूत्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org