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________________ तृतीय वक्षस्कार] [131 वरकणगसुफुल्लथासगविचित्तरयणरज्जुपासं कंचणमणिकणगपयरगणाणाविहघंटिआजालमुत्तिआजालएहि परिमंडियेणं पट्ठण सोभमाणेण सोभमाणं कक्केयणइंदनीलमरगयमसारगल्लमुहमंडणरइअं आविद्वमाणिक्कसुत्तविभूसियं कणगामयपउमसुकयतिलकं देवमइविकप्पि सुररिंदवाहणजोग्गावयं सुरूवं दूइज्जमाणपंचचारुचामरामेलगं धरेंतं अणभवाहं अभेलणयणं कोकासिअबहलपत्तलच्छं सयावरणनवकणगतविमतवणिज्जतालुजोहासयं सिरियाभिसे अघोणं पोक्खरपत्तमिव सलिलबिदुजुअं अचंचलं चंचलसरीरं चोक्खचरगपरिव्वायगोविव हिलीयमाणं 2 खुरचलणचच्चपुडेहि धरणिप्रलं अभिहणमाणं 2 दो वि अचलणे जमगसमग मुहाओ विणिग्गमंतं व सिग्घयाए मुलाणतंतुउदगमवि हिस्साए पक्कमतं जाइकुलरूवपच्चयपसत्थ-वारसावत्तगविसुद्धलवखणं सुकुलप्पसूअं मेहाविभद्दयविणीअं अणुप्रतणुअसुकुमाललोमनिद्धछवि सुजायअमरमणपवणगरुलजइणचवलसिग्धगामि इसिमिव खंतिखमए सुसोसमिव पच्चक्खया विणीयं उदगहुतवहपासाणपंसुकद्दम ससक्करसवालुइल्लतडकडगविसमपन्भारगिरिदरीसु लंघणपिल्लणणित्थारणासमत्थं अचंडपाडियं दंडपाति अणसुपाति अकालताल च कालहेसि जिअनिदं गवेसगं जिअपरिसहं जच्चजातीअं मलिहाणि सुगपत्तसुवण्णकोमलं मणाभिराम कमलामेलं णामेणं आसरयणं सेणावई कमेण समभिरूढे कुवलयदलसामलं च रयणिकरमंडल निभं सत्तुजणविणासणं कणगरयणदंडं गवमालिप्रपुप्फसुरहिधि जाणामणिलयभत्तिचित्तं च पहोतमिसिमिसिंततिक्खधारं दिव्वं खग्गरयणं लोके अणोवमाणं तं च पुणो वंसरुखसिंगदिदंतकालायसविपुललोहदंडकवरवइरभेदकं जाव-सव्वत्थ अप्पडिहयं किं पुण देहेसु जंगमाणं-- पण्णासंगुलदीहो सोलस से अंगुलाई विच्छिण्णो। अद्धगुलसोणीको जेट्टपमाणो असी भषियो॥१॥ असिरयणं णरवइस्स हत्थानो तं गहिऊण जेणेव पावाडचिलाया तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता आवाडचिलाएहि सद्धि संपलग्गो प्रावि होत्था। तए णं से सुसेणे सेणावई ते प्रावाडचिलाए हयमहिअपवरवीरघाइअ जाव' दिसो दिसि पडिसेहेइ / 73] सेनापति सुषेण ने राजा भरत के (लोहे के कवच धारण किये हुए, प्रत्यंचा चढ़ा धनुष हाथ में लिये हुए, गले पर ग्रे वेयक धारण किये हुए, वीरतासूचक चिह्नरूप वस्त्र-विशेष मस्तक पर बाँधे हुए, प्रायुध-प्रहरण लिये हुए) सैन्य के अग्रभाग के अनेक योद्धानों को आपात किरातों द्वारा हत, मथित (घातित, विपातित) देखा / (उनकी ध्वजाएँ, पताकाएँ नष्ट-विनष्ट देखीं।) सैनिकों को बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाकर एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर भागते देखा / यह देखकर सेनापति सुषेण तत्काल अत्यन्त क्रुद्ध, रुष्ट, विकराल एवं कुपित हुना। वह मिसमिसाहट करता हा-तेज सांस छोड़ता हुआ कमलामेल नामक अश्वरत्न पर—अति उत्तम घोड़े पर आरूढ हुआ। वह घोड़ा अस्सी अंगुल ऊँचा था, निन्यानवै अंगुल मध्य परिधियुक्त था, एक सौ आठ अंगुल लम्बा था। उसका मस्तक बत्तीस अंगुल-प्रमाण था। उसके कान चार अंगुल प्रमाण थे। उसकी बाहा-मस्तक के नीचे का और घुटनों के ऊपर का भाग-प्राक्चरण-भाग बीस अंगुल-प्रमाण था। उसके घुटने चार 1. देखें सूत्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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