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________________ 132] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अंगुल-प्रमाण थे। उसकी जंधा-धुटनों से लेकर खुरों तक का भाग-पिण्डली सोलह अंगुलप्रमाण थी। उसके खुर चार अंगुल ऊँचे थे। उसकी देह का मध्य भाग मुक्तोली-ऊपर नीचे से सैकड़ी, बीच से कुछ विशाल कोष्ठिका कोठी के सदृश गोल तथा वलित था। उसकी पीठ की यह विशेषता थी, जब सवार उस पर बैठता, तब वह कुछ कम एक अंगुल झुक जाती थी। उसकी पीठ क्रमशः देहानुरूप अभिनत थी, देह-प्रमाण के अनुरूप थी-संगत थी, सुजात--जन्मजात दोषरहित थी, प्रशस्त थी, शालिहोत्रशास्त्र निरूपित लक्षणों के अनुरूप थी, विशिष्ट थी / वह हरिणी के जानु -घुटनों की ज्यों उन्नत थी, दोनों पाव-भागों में विस्तृत तथा चरम भाग में स्तब्ध सुदढ़ थी / उसका शरीर वेत्रबेंत, लता-बाँस की पतली छड़ी, कशा-चमड़े के चाबुक आदि के प्रहारों से परिजित था—धुड़सवार के मनोनुकूल चलते रहने के कारण उसे बेंत, छड़ी, चाबुक आदि से तजित करना, ताडित करना सर्वथा अनपेक्षित था। उसकी लगाम स्वर्ण में जड़े दर्पण जैसा आकार लिये अश्वोचित स्वर्णाभरणों से युक्त थी। काठी बाँधने हेतु प्रयोजनीय रस्सी, जो पेट से लेकर पीठ तक दोनों पावों में बाँधी जाती है, उत्तम स्वर्ण घटित सुन्दर पुष्पों तथा दर्पणों से समायुक्त थी, विविध-रत्नमय थी / उसकी पीठ, स्वर्णयुक्त मणि-रचित तथा केवल स्वर्ण-निमित पत्रकसंज्ञक प्राभूषण जिनके बीच-बीच में जड़े थे, ऐसी नाना प्रकार की घंटियों और मोतियों की लड़ियों से परिमंडित थी—सुशोभित थी, जिससे वह अश्व बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था / मुखालंकरण हेतु कर्केतन मणि, इन्द्रनील मणि, मरकत मणि आदि रत्नों द्वारा रचित एवं माणिक के साथ प्राविद्ध-पिरोये गये सूत्रक से---घोड़ों के मुख पर लगाये जाने वाले आभूषण-विशेष से वह विभूषित था / स्वर्णमय कमल के तिलक से उसका मुख सुसज्ज था। वह अश्व देवमति से-दैवी कौशल से विकल्पित-विरचित था। वह देवराज इन्द्र की सवारी के उच्चैःश्रवा नामक अश्व के समान गतिशील तथा सुन्दर रूप युक्त था। अपने मस्तक, गले, ललाट, मौलि एवं दोनों कानों के मूल में विनिवेशित पाँच चँवरों को–कलंगियों को समवेत रूप में वह धारण किये था। वह अनभ्रचारी था-इन्द्र का घोड़ा उच्चैःश्रवा जहाँ अभ्रचारी-आकाशगामी होता है, वहाँ वह भूतलगामी था। उसकी अन्यान्य विशेषताएँ उच्चैःश्रवा जैसी ही थीं। उसकी आँखें दोष आदि के कारण संकुचित नहीं थीं, विकसित थीं, दृढ़ थीं, रोमयुक्त थीं—पलकयुक्त थीं। डांस, मच्छर आदि से रक्षा हेतु उस पर लगाये गये प्रच्छादनपट में झूल में स्वर्ण के तार गुंथे थे। उसका ताल तथा जिह्वा तपाये हुए स्वर्ण की ज्यों लाल थे / उसकी नासिका पर लक्ष्मी के अभिषेक का चिह्न था। जलगत कमल-पत्र जैसे वायु द्वारा पाहत पानी की बूंदों से युक्त होकर सुन्दर प्रतीत होता है, उसी प्रकार वह अश्व अपने शरीर के पानी-पाभा या लावण्य से बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। वह अचंचल था अपने स्वामी का कार्य करने में सुस्थिर था / उसके शरीर में चंचलतास्फति थी। जैसे स्नान आदि द्वारा शुद्ध हुआ भिक्षाचर संन्यासी अशुचि पदार्थ के संसर्ग की आशंका से अपने आपको कुत्सित स्थानों से दूर रखता है, उसी तरह वह अश्व अपवित्र स्थानों को-ऊबड़खाबड़ स्थानों को छोड़ता हुआ उत्तम एवं सुगम मार्ग द्वारा चलने की वृत्ति वाला था। वह अपने खुरों की टापों से भूमितल को अभिहत करता हुआ चलता था। अपने प्रारोहक द्वारा नचाये जाने पर वह अपने आगे के दोनों पैर एक साथ इस प्रकार ऊपर उठाता था, जिससे ऐसा प्रतीत होता, मानो उसके दोनों पैर एक ही साथ उसके मुख से निकल रहे हों। उसकी गति इतनी लाघवयुक्त स्फूर्तियुक्त थी कि कमलनालयुक्त जल में भी वह चलने में सक्षम था जैसे जल में चलने वाले अन्य प्राणियों के पैर कमलनालयुक्त जल में उलझ जाते हैं, उसके वैसा नहीं था--वह जल में भी स्थल की ज्यों शीघ्रता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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