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________________ तृतीय वक्षस्कार] [133 से चलने में समर्थ था / वह उन प्रशस्त बारह भावों से युक्त था, जिनसे उसके उत्तम जाति–मातृपक्ष, कुल-पितृ-पक्ष तथा रूप-आकार-संस्थान का प्रत्यय-विश्वास होता था, परिचय मिलता था। वह अश्वशास्त्रोक्त उत्तम कुल क्षत्रियाश्व जातीय पितृ-प्रसूत था। वह मेधावी-अपने मालिक के पैरों के संकेत, नाम-विशेष आदि द्वारा अाहान आदि का प्राशय समझने की विशिष्ट बद्धियक्त था वह भद्र एवं विनीत था, उसके रोम अति सूक्ष्म, सुकोमल एवं स्निग्ध-चिकने थे, जिनसे वह छविमान् था / वह अपनी गति से देवता, मन, वायु तथा गरुड़ की गति को जीतने वाला था। वह बहुत चपल और द्रुतगामी था / वह क्षमा में ऋषितुल्य था-वह न किसी को लात मारता था, न किसी को मुह से काटता था तथा न किसी को अपनी पूंछ से ही चोट लगाता था। वह सुशिष्य की ज्यों प्रत्यक्षतः विनीत था। वह उदक-पानो, हुतवह अग्नि, पाषाण-पत्थर, पांसु-मिट्टी, कर्दम--- कीचड़, छोटे-छोटे कंकड़ों से युक्त स्थान, रेतीले स्थान, नदियों के तट, पहाड़ों की तलहटियाँ, ऊँचेनीचे पठार, पर्वतीय गुफाएँ-इन सब को अनायास लांघने में, अपने सवार के संकेत के अनुरूप चलकर इन्हें पार करने में समर्थ था। वह प्रबल योद्धाओं द्वारा युद्ध में पातित-गिराये गये—फेंके गये दण्ड की ज्यों शत्रु की छावनी पर अकित रूप में आक्रमण करने की विशेषता से युक्त था / मार्ग में चलने से होने वाली थकावट के बावजूद उसकी आँखों से कभी आँसू नहीं गिरते थे / उसका तालु कालेपन से रहित था। वह समुचित समय पर ही हिनहिनाहट करता था। वह जितनिद्र -निद्रा को जीतने वाला था। मूत्र, पुरीष-लीद आदि का उत्सर्ग उचित स्थान खोजकर करता था / वह सर्दी, गर्मी आदि के कष्टों में भी अखिन्न रहता था। उसका मातृपक्ष निर्दोष था / उसका नाक मोगरे के फूल के सदृश शुभ्र था। उसका वर्ण तोते के पंख के समान सुन्दर था। देह कोमल थी। वह वास्तव में मनोहर था। . ऐसे अश्वरत्न पर आरूढ सेनापति सुषेण ने राजा के हाथ से असिरत्न-उत्तम तलवार ली। वह तलवार नील कमल की तरह श्यामल थी। घुमाये जाने पर चन्द्रमण्डल के सदृश दिखाई देती थी। वह शत्रुओं का विनाश करने वाली थी। उसकी मूठ स्वर्ण तथा रत्न से निर्मित थी / उसमें से नवमालिका के पुष्प जैसी सुगन्ध आती थी। उस पर विविध प्रकार की मणियों से निर्मित बेल आदि के चित्र थे। उसकी धार शाण पर चढ़ी होने के कारण बड़ी चमकीली और तीक्ष्ण भी / लोक में वह अनुपम थी। वह बाँस, वृक्ष, भैसे आदि के सींग, हाथी आदि के दाँत, लोह, लोहमय भारी दण्ड, उत्कृष्ट वज्र - हीरक जातीय उपकरण आदि का भेदन करने में समर्थ थी। अधिक क्या कहा जाए, वह सर्वत्र अप्रतिहत–प्रतिघात रहित थी-बिना किसी रुकावट के दुर्भद्य वस्तुओं के भेदन में भी समर्थ थी। फिर पशु, मनुष्य आदि जंगम प्राणियों के देह-भेदन की तो बात ही क्या ! वह तलवार पचास अंगुल लम्बी थी, सोलह अंगुल चौड़ी थी। उसकी मोटाई अर्ध-अंगुल-प्रमाण थी / यह उत्तम तलवार का लक्षण है। राजा के हाथ से उस उत्तम तलवार को लेकर सेनापति सुषेण, जहाँ आपात किरात थे, वहाँ आया / वहाँ आकर वह उनसे भिड़ गया--उन पर टूट पड़ा। उसने आपात किरातों में से अनेक प्रबल योद्धाओं को मार डाला, मथ डाला तथा घायल कर डाला / वे आपात किरात एक दिशा से दूसरी दिशा में भाग छूटे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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