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________________ 130] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र उन्मनस्क-उदास हो गये। राज्य-भ्रंश, धनापहार आदि की चिन्ता से उत्पन्न शोकरूपी मागर में डब गये अत्यन्त विषादयुक्त हो गये। अपनी हथेली पर मह रखे वे प्रार्तध्यान में ग्रस्त हो भूमि की ओर दृष्टि डाले सोच-विचार में पड़ गये। तब राजा भरत (जो हजारों राजाओं से युक्त था, समुद्र के गर्जन की ज्यों उच्च स्वर से सिंहनाद करता हुग्रा) चक्ररत्न द्वारा निर्देशित किये जाते मार्ग के सहारे तमिस्रा गुफा के उत्तरी द्वार से इस प्रकार निकला, जैरो बादलों के प्रचुर अन्धकार को चीरकर चन्द्रमा निकलता है / आपात किरातों ने राजा भरत की सेना के अग्रभाग को जब आगे बढ़ते हुए देखा तो वे तत्काल अत्यन्त क्रुद्ध, मष्ट, विकराल तथा कुपित होते हुए, मिसमिसाहट करते हुए तेज सांस छोड़ते हुए आपस में कहने लगे--देवानुप्रियो ! अप्रार्थित-जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाला, दुःखद अन्त एवं अशुभ लक्षण वाला, पुण्य चतुर्दशी जिस दिन हीन असम्पूर्ण थी- घटिकाओं में अमावस्था प्रा गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मा हुआ, अभागा, लज्जा. शोभा से परिजित वह कौन है, जो हमारे देश पर बलपूर्वक जल्दी-जल्दी चढ़ा पा रहा है। देवानुप्रियो ! हम उसकी सेना को तितर-बितर कर दें, जिससे वह हमारे देश पर बलपूर्वक आक्रमण न कर सके / इस प्रकार उन्होंने आपस में विचार कर अपने कर्तव्य का अाक्रान्ता का मुकाबला करने का निश्चय किया। वैसा निश्चय कर उन्होंने लोहे के कवच धारण किये, वे युद्धार्थ तत्पर हुए, अपने धनुषों पर प्रत्यचा चढ़ा कर उन्हें हाथ में लिया, गले पर ग्रे वेयक---ग्रीवा की रक्षा करने वाले संग्रामोचित उपकरण विशेष बाँधे-धारण किये, विशिष्ट बीरता सूचक चिह्न के रूप में उज्ज्वल वस्त्र-विशेष मस्तक पर बाँधे / विविध प्रकार के प्रायुध-क्षेप्य----फेंके जाने वाले बाण आदि अस्त्र तथा प्रहरण'-अक्षेप्य–नहीं फेंके जाने वाले, हाथ द्वारा चलाये जाने वाले तलवार आदि शस्त्र धारण किये। ये, जहाँ राजा भरत की सेना का अग्रभाग था--सेना की अगली टुकड़ी थी, वहाँ पहुँचे / वहाँ पहुँचकर वे उससे भिड़ गये। उन पापात किरातों ने राजा भरत की सेना के अग्रभाग के कतिपय विशिष्ट योद्धाओं को मार डाला, मथ डाला, घायल कर डाला, गिरा डाला। उनकी गरुड आदि के चिह्नों से युक्त ध्वजाएँ, पताकाएँ नष्ट कर डालीं। राजा भरत की सेना के अग्रभाग के सैनिक बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाकर इधर-उधर भाग छूटे। आपात किरातों का पलायन 73. तए णं से सेणाबलस्स णेला वेढो (सण्णद्धबद्धवम्मियकवअं उप्पोलिअसरासणपट्टि पिणद्धगेविज बद्ध-आविद्धविमलवचिंधपट्ट गहिसाउहप्पहरणं) भरहस्स रण्णो अग्गाणीअं आवाडचिलाएहिं हय-महिय-पवर-वीर-(घाइअविवडिअचिधद्धयपडागं किच्छप्पाणोवगयं): दिसोदिसं पडिसेहिअं पासइ 2 ता प्रासुरुत्ते रुठे चंडिक्किए कुविए मिसिमिसेमाणे कमलामेलं पासरयणं दुरूहइ 2 ता तए णं तं असीइमंगुलमूसिणं णवणउइमंगुलपरिणाहं अट्ठसयमंगुलमायतं बत्तीसमंगुलमूसिअसिरं चउरंगुलकन्नागं वीसइअंगुलबाहागं चउरंगुलजाणूकं सोलसअंगुलजंघागं चउरंगुलमूसिनखुरं मुत्तोलीसंवत्तवलिनमज्झ ईसि अंगुलपणयपढें संणयपटु संगयपटुं सुजायपट्ठ पसत्थपटुं विसिटुपट्ठ एणीजाणुण्णयवित्थयथद्धपटुं वित्तलयकसणिवायग्रंकेल्लणपहार परिवज्जिअंगं तवणिज्जथासगाहिलाणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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