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________________ 2. मसि-लिपिविद्या, 3. कृषि-खेती का काम, 4. विद्या-अध्यापन या शास्त्रोपदेश का कार्य, 5. वाणिज्यभ्यापार-व्यवसाय, 6. शिल्प-कलाकौशल / - उस समय के मानवों को 'षट्कर्मजीवानाम्' कहा गया है। महापुराण के अनुसार भाजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिये ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन तीन वर्षों की स्थापना की। ००आवश्यकनियुक्ति,.०१ प्रावश्यकणि,१०२ विषष्टिशलाकापुरुषचरित'.3 के अनुसार ब्राह्मणवर्ण की स्थापना ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत ने की। ऋग्वेदसंहिता'०४ में वर्गों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है। वहां पर ब्राह्मण को मुख, क्षत्रिय को बाहु, वैश्य को उर और शूद्र को पैर बताया है। यह लाक्षणिक वर्णन समाजरूप विराट शरीर के रूप में चित्रित किया गया है। श्रीमद्भागवत' 05 प्रादि में भी इस सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत प्रागम में जब भगवान् ऋषभदेव प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं, तब वे चार मुष्ठि लोच करते हैं, जबकि अन्य सभी तीर्थंकरों के वर्णन में पंचमूष्ठि लोच का उल्लेख है। टीकाकार ने विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जिस समय भगवान् ऋषभदेव लोच कर रहे थे, उस समय स्वर्ण के समान चमचमाती हुई केशरामि को निहार कर इन्द्र ने भगवान ऋषभदेव से प्रार्थना की, जिससे भगवान ऋषभदेव ने इन्द्र की प्रार्थना से एक मुष्ठि केश इसी तरह रहने दिये / 10 // केश रखने से वे केशी या केसरियाजी के नाम से विश्रुत हुए। पद्मपुराण 100. हरिवंशपुराण'०८ में ऋष मदेव की जटाओं का उल्लेख है। ऋग्वेद' में ऋषभ की स्तुति केशी के रूप में की गई। वहां बताया है कि केशी अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है और केशी विश्व के समस्त तत्त्वों का दर्शन कराता है और वह प्रकाशमान ज्ञानज्योति है। भगवान् ऋषभदेव ने चार हजार उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय वंश के व्यक्तियों के साथ दीक्षा ग्रहण की। पर उन चार हजार व्यक्तियों को दीक्षा स्वयं भगवान् ने दी, ऐसा उल्लेख नहीं है। प्रावस्यकनियुक्तिकार'१०. ने इस सम्बन्ध में यह स्पष्ट किया है कि उन चार हजार व्यक्तियों ने भगवान ऋषभदेव का अनुसरण किया। भगवान् को देखादेखी उन चार हजार व्यक्तियों ने स्वयं केशलुञ्चन आदि क्रियाएं की थीं। प्रस्तुत प्रागम में यह भी उल्लेख नहीं है कि भगवान ऋषभदेव ने दीक्षा के पश्चात् कब प्राहार ग्रहण किया ? समवायांग में 99. आदिपुराण 39 / 143 100. महापुराण 183 / 16 / 362 101. आवश्यकनियुक्ति पृ. 2351 102. आवश्यकचूणि 212-214 103. त्रिषष्टी. 1 / 6 104, ऋग्वेदसंहिता 10190, 11,12 105. श्रीमद्भागवत 11317113, द्वितीय भाग पृ. 809 106. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 2, सूत्र 30 107. पद्मपुराण 3 / 285 106. हरिवंशपुराण 9 / 204 109. ऋग्वेद 101136 / 1 110. आवश्यकनियुक्ति गाथा 337 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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