________________ श्रीमद्भागवत में उपर्युक्त सात नाम वे ही हैं, पाठवें नाम से प्रागे के नाम पृथक् हैं / वे नाम इस प्रकार हैं.----८. सावणि 9. दक्षसावणि 10. ब्रह्मसावणि 11. धर्मसावणि 12. रुद्रसावणि 13. देवसावर्णि 14. इन्द्रसावणि / मनु को मानव जाति का पिता व पथ-प्रदर्शक व्यक्ति माना है। पुराणों के अनुसार मनु को मानव जाति का गुरु तथा प्रत्येक मन्वन्तर में स्थित कहा है। वह जाति के कर्तव्य का ज्ञाता था। वह मननशील और मेधावी व्यक्ति रहा है। वह व्यक्ति विशेष का नाम नहीं, किन्तु उपाधिवाचक है। यों मनु शब्द का प्रयोग ऋग्वेद,९० अथर्ववेद, तैत्तिरीयसंहिता,९२ शतपथब्राह्मण, 3 जैमिनीय उपनिषद् 94 में हुया है, वहां मनु को ऐतिहासिक व्यक्ति माना गया है। भगवद्गीता में भी मनूनों का उल्लेख है। चतुर्दश मनुप्रों का कालप्रमाण सहस्र युग माना गया है / कुलकरों के समय हकार, मकार और धिक्कार ये तीन नीतियाँ प्रचलित हुई। ज्यों-ज्यों काल व्यतीत होता चला गया त्यों-त्यों मानक के अन्तर्मानस में परिवर्तन होता गया और अधिकाधिक कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई। भगवान् ऋषभदेव जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भगवान ऋषभदेव को पन्द्रहवाँ कुलकर माना है तो साथ ही उन्हें प्रथम तीर्थङ्कर, प्रथम राजा, प्रथम केवली, प्रथम धर्मचक्रवर्ती आदि भी लिखा है। भगवान ऋषभदेव का जाज्वल्यवान व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यन्त प्रेरणादायी है। वे ऐसे विशिष्ट महापुरुष हैं, जिनके चरणों में जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों भारतीय धाराओं ने अपनी अनन्त आस्था के सुमन समर्पित किये हैं। स्वयं मूल प्रागमकार ने उनकी जीवनगाथा बहुत ही संक्षेप में दी है। वे बीस लाख पूर्व तक कुमार अवस्था में रहे / तिरेसठ लाख पूर्व तक उन्होंने राज्य का संचालन किया / एक लाख पूर्व तक उन्होंने संयम-साधना कर तीर्थर जीवन व्यतीत किया। उन्होंने महस्थाश्रम में प्रजा के हित के लिये कलाओं का निर्माण किया। बहत्तर कलाएं पुरुषों के लिये तथा चौंसठ कलाएं स्त्रियों के लिये प्रतिपादित की। साथ ही सौ शिल्प भी बताये। आदिपुराण ग्रन्थ में दिगम्बर प्राचार्य जिनसेन ने ऋषभदेव के समय प्रचलित छह आजीविकाओं का उल्लेख किया है--१. असि-सैनिकवत्ति, 89. श्रीमद्भागवत, 8 / 5 अ 90, ऋग्वेद, 1 / 80, 16, 8 / 63, 1, 10, 100 / 5 91. अथर्ववेद, 14 / 2, 41 92. तैत्तिरीयसंहिता, 1 / 5, 1, 3, 7 / 5, 15, 3, 6, 7, 1, 3,3, 2,1, 5 / 4,10,5,6 / 6, 6,1; का. सं. 815 93. शतपथब्राह्मण, 1 / 1,4 / 14 94. जैमिनीय उपनिषद्, 3 / 15, 2 95. भगवद्गीता, 10 / 6 / 96. (क) भागवत स्क. 8, प्र. 14 (ख) हिन्दी विश्वकोष, 16 वां भाग, पृ. 64-655 97. कल्पसूत्र 195 98. प्रादिपुराण 1 / 178 [30] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org