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________________ समुच्चय,५3 आदिपुराण५४ में पृथ्वी का आकार झल्लरी (झालर या चूड़ी) के आकार के समान गोल बताया गया है। प्रशमरतिप्रकरण५५ प्रादि में पृथ्वी का प्राकार स्थाली के सदश भी बताया गया है / पृथ्वी की परिधि भी वृत्ताकार है, इसलिए जीवाजीवाभिगम में परिवेष्टित करने वाले घनोदधि प्रभृति वायुमों को वलयाकार माना है।५६ तिलोयपत्ति ग्रन्थ में पृथ्वी (जम्बूद्वीप) की उपमा खड़े हुए मृदंग के ऊर्ध्व भाग (सपाट गोल) से दी गई है।५७ दिगम्बर परम्परा के जम्बूद्दीवपण्णत्ति५६ ग्रंथ में जम्बूद्वीप के आकार का वर्णन करते हुए उसे सूर्य मण्डल की तरह वृत्त बताया है। उपयक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैन साहित्य में पृथ्वी नारंगी के समान गोल न होकर चपटी प्रतिपादित है / जैन परम्परा ने ही नहीं वायुपुराण, पद्मपुराण, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, भागवतपुराण प्रभृति पुराण भी पृथ्वी को समतल प्राकार, पुष्कर पत्र समाकार चित्रित किया है। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से पृथ्वी नारंगी की तरह गोल है। भारतीय मनीषियों द्वारा निरूपित पृथ्वी का आकार और वैज्ञानिकसम्मत पृथ्वी के प्राकार में अन्तर है। इस अन्तर को मिटाने के लिए अनेक मनीषीगण प्रयत्न कर रहे हैं। यह प्रयत्न दो प्रकार से चल रहा है। कुछ चिन्तकों का यह अभिमत है कि प्राचीन वाङ्मय में आये हुए इन शब्दों को व्याख्या इस प्रकार की जाये जिससे आधुनिक विज्ञान के हम सन्निकट हो सकें तो दूसरे मनीषियों का अभिमत है कि विज्ञान का जो मत है वह सदोष है, निर्बल है। प्राचीन महामनीषियों का कथन ही पूर्ण सही है। प्रथम वर्ग के चिन्तकों का कथन है कि पृथ्वी के लिये आगम-साहित्य में झल्लरी या स्थाली की उपमा दी गई है / वर्तमान में हमने झल्लरी शब्द को झालर मानकर और स्थाली शब्द को थाली मानकर पृथ्वी को वृत्त अथवा चपटी माना है। झल्लरी का एक अर्थ झांझ नामक वाद्य भी है और स्थाली का अर्थ भोजन पकाने वाली हँडिया भी है। पर आधुनिक युग में यह अर्थ प्रचलित नहीं है / यदि हम झांझ और हंडिया अर्थ मान लें तो पृथ्वी का प्राकार गोल सिद्ध हो जाता है।५६ जो आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से भी संगत है। स्थानांगसूत्र में झल्लरी शब्द झांझ नामक वाद्य के अर्थ में व्यवहृत हुअा है। दूसरी मान्यता वाले चिन्तकों का अभिमत है कि विज्ञान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सतत अनुसन्धान और गवेषणा होती रहती है। विज्ञान ने जो पहले सिद्धान्त संस्थापित किये थे आज वे सिद्धान्त नवीन प्रयोगों और अनुसन्धानों से खण्डित हो चुके हैं। कुछ अाधुनिक वैज्ञानिकों ने 'पृथ्वी गोल है' इस मान्यता का खण्डन किया है। लंदन में 'फ्लेट अर्थ सोसायटी' नामक संस्था इस सम्बन्ध में जागरूकता से इस तथ्य को कि पृथ्वी 53. अाराधनासमुच्चय-५८ 54. प्रादिपुराण-४|४१ 55. स्थालमिव तिर्यग्लोकम् / प्रशमरति, 211 56. घनोदहिवलए-वटै वलयागारसंठाणसंठिए / -जीवाजीवाभिमम 3 / 1176 57. मज्झिमलोयायारो उभिय-मुरप्रद्धसारिच्छो। --तिलोयपण्णत्ति 1 / 137 58. जम्बुद्दीवपण्णत्ति 1020 59. तुलसीप्रज्ञा, लाडनूं, अप्रेल-जून 1975, पृ. 106, ले. युवाचार्य महाप्रज्ञजी 60. मज्झिम पुण झल्लरी। -स्थानांग 7 / 42 61. Research Article-A criticism upon modern views of our earth by Sri Gyan Chand Jain (Appeared in Pt. Sri Kailash Chandra Shastri Felicitation Volume PP. 446-450) [24] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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