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________________ चपटी है, उजागर करने का प्रयास कर रही है, तो भारत में श्री अभयसागर जी महाराज व प्रायिका ज्ञानमती जी दत्तचित्त होकर उसे चपटी सिद्ध करने में संलग्न हैं। उन्होंने अनेक पुस्तकें भी इस सम्बन्ध में प्रकाशित की हैं / अतः जिज्ञासु वर्ग उनके अध्ययन से बहुत कुछ नये तथ्य ज्ञात कर सकेगा। द्वितीय वक्षस्कार : एक चिन्तन द्वितीय वक्षस्कार में मणधर गौतम की जिज्ञासा पर भगवान महावीर ने कहा कि भरत क्षेत्र में काल दो प्रकार का है और वह अवसर्पिणी और उत्सपिणी नाम से विश्रत है। दोनों का कालमान बीस कोडाकोडी सागरोपम है / सागर या सागरोपम मानव को ज्ञात समस्त संख्याओं से अधिक काल वाले कालखण्ड का उपमा द्वारा प्रशित परिमाण है। वैदिक दष्टि से चार अरब बत्तीस करोड़ वर्षों का एक कल्प होता है / इस कल्प में एक हजार चतुर्युग होते हैं। पुराणों में इतना काल ब्रह्मा के एक दिन या रात्रि के बराबर माना है / जैन दृष्टि से प्रवसर्पिणी और उत्सपिणी के छह-छह उपविभाग होते हैं। वे इस प्रकार हैं अवसर्पिणी क्रम काल विस्तार 1. सुषमा-सुषमा चार कोटाकोटि सागर 2. सुषमा तीन कोटाकोटि सागर 3. सुषमा-दुःषमा दो कोटाकोटि सागर 4. दुःषमा-सुषमा एक कोटाकोटि सागर में 42000 वर्ष न्यून दुःषमा 21000 बर्ष 6. दुःषमा-दुःषमा 21000 वर्ष - उत्सर्पिणी काल विस्तार दुःषमा-दुःषमा 21000 वर्ष 2. दुःषमा 21000 वर्ष 3. दुःषमा सुषमा एक कोटाकोटि सागर में 42000 वर्ष न्यून 4. सुषमा-दुःषमा दो कोटाकोटि सागर 5. सुषमा तीन कोटाकोटि सागर 6. सुषमा-सुषमा चार कोटाकोटि सागर अवसपिणी और उत्सर्पिणी नामक इन दोनों का काल बीस कोडाकोडी सागरोपम है। यह भरतक्षेत्र और ऐरावतक्षेत्र में रहट-घट न्याय 2 से अथवा शुक्ल-कृष्ण पक्ष के समान एकान्तर क्रम से सदा चलता रहता है / आगमकार ने प्रवसर्पिणी काल के सुषमा-सुषमा नामक प्रथम आरे का विस्तार से निरूपण किया है। उस काल में मानव का जीवन अत्यन्त सुखी था। उस पर प्रकृति देवी की अपार कृपा थी। उसकी इच्छाएं स्वल्प थीं और वे स्वल्प इच्छाएं कल्पवृक्षों के माध्यम से पूर्ण हो जाती थीं। चारों ओर सुख का सागर ठाठे मार रहा था। वे मानव पूर्ण स्वस्थ मोर प्रसन्न थे। उस युग में पृथ्वी सर्वरसा थी। 62. अवसप्पणि उस्सप्पणि कालच्चिय रहटघटियणाए। ' होति प्रण ताणता भरहेरावद खिदिम्मि पुढं / / -तिलोयपण्णति 411614 63. यथा शुक्लं च कृष्णं च पक्षद्वयमनन्तरम् / उत्सपिण्यवपिण्योरेवं क्रम समुद्भवः / / ---पद्मपुराण 3173 [25] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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