________________ लिखी गई है। 232 उस चणि के लेखक कौन थे और उसका प्रकाशन कहाँ से हमा, यह मुझे ज्ञात नहीं हो सका है / प्राचार्य मलयगिरि ने भी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति पर एक टीका लिखी थी, वह भी अप्राप्य है / 233 संवत् 1639 में हीरविजयसरि ने इस पर टीका लिखी, उसके पश्चात वि. संवत 1645 में पुण्यसागर ने तथा वि. संवत् 1660 में शान्तिचन्द्रगणी ने प्रमेयरत्नमंजषा नामक टीकाग्रन्थ लिखा। यह टीकाग्रन्ध सन् 1885 में धनपतसिंह कलकत्ता तथा सन् 1920 में देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड, बम्बई से प्रकाशित हुआ। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का हिन्दी अनुवाद विक्रम संवत् 2446 में हैदराबाद से प्रकाशित हुआ था। जिसके अनुवादक प्राचार्य अमोलकऋषि जी म. थे। प्राचार्य घासीलाल जी म. ने भी सरल संस्कृत में टीका लिखी और हिन्दी तथा गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित हुया है। प्रस्तुत संस्करण चिरकाल से प्रस्तुत आगम पर विशुद्ध अनुवाद की अपेक्षा थी। परम प्रसन्नता है कि स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकरमुनि जी महाराज ने पागम प्रकाशन योजना प्रस्तुत की और पागम प्रकाशन समिति ब्यावर ने यह उत्तरदायित्व ग्रहण किया। अनेक मनोषी प्रवरों के सहयोग से स्वल्पावधि में अनेक आगमों का शानदार प्रकाशन हुआ। पर परिताप है कि यूवाचार्य श्रीमधुकर मुनि जी का आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। उनके स्वर्गवास से प्रस्तुत योजना में महान् विक्षेप उपस्थित हुआ है। सम्पादकमण्डल और प्रकाशनसमिति ने यह निर्णय लिया कि युवाचार्यश्री की प्रस्तुत कल्पना को हम मनीषियों के सहयोग से मूर्त रूप देंगे। युवाचार्यश्री के जीवनकाल में ही जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुवाद, विवेचन और सम्पादकत्व का उत्तरदायित्व भारतीय तत्त्वविद्या के गम्भीर अध्येता, भाषाशास्त्री, डा. श्री छगनलाल जी शास्त्री को युवाचार्यश्री के द्वारा सौंपा गया था। डा. छगनलाल जी शास्त्री जिस कार्य को हाथ में लेते हैं, उस कार्य को वे बहुत ही तन्मयता के साथ सम्पन्न करते हैं / विषय की तलछट तक पहुँचकर विषय को बहुत ही सुन्दर, सरस शब्दावली में प्रस्तुत करना उनका अपना स्वभाव है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आगम का मूल पाठ शुद्ध है और अनुवाद इतना सुन्दर हुमा है कि पढ़ते-पढ़ते पाठक को सहज ही हृदयंगम हो जाता है। अनुवाद की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह प्रवाहपूर्ण है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का अनुवाद करना कोई सरल कार्य नहीं किन्तु डा. शास्त्री जी ने इतना बढ़िया अनुवाद कर विज्ञों को यह बता दिया है कि एकनिष्ठा के साथ किये गये कार्य में सफलता देवी स्वयं चरण चमती है। डा. शास्त्रीजी ने विवेचन बहुत ही कम स्थलों पर किया है। लगता है, उनका दार्शनिक मानस प्रागैतिहासिक भूगोल के वर्णन में न रमा। क्योंकि प्रस्तुत प्रागम में जो वर्णन है, वह श्रद्धायुग का वर्णन है / आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से प्राचीन भूगोल को सिद्ध करना जरा टेढ़ी खीर है। क्योंकि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जिन क्षेत्रों का वर्णन आया है, जिन पर्वतों और नदियों का उल्लेख हुआ है, वे वर्तमान में कहाँ है ? उनकी अवस्थिति कहाँ है ? आदि कह पाना सम्भव नहीं है / सम्भव है इसी दृष्टि से शास्त्रीजी ने अपनी लेखनी इस पर नहीं चलाई है। श्वेताम्बर परम्परा अनुसार जम्बूद्वीप, मेरु पर्वत, सूर्य, चन्द्र आदि के सम्बन्ध में आगमतत्त्वदिवाकर, स्नेहमूर्ति श्री अभयसागर जी महाराज दत्तचित्त होकर लगे हुए हैं / उन्होंने इस सम्बन्ध में काफी चिन्तन किया है और अनेक विचारकों से भी इस सम्बन्ध में लिखवाने का प्रयास किया है। इसी तरह दिगम्बर परम्परा में भी प्रायिका ज्ञानमती जी प्रयास कर रही हैं। 232. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग III. पृष्ठ 289 233. वही, भाग III. पृष्ठ 417 [ 51] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org