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________________ हम आध्यात्मिक दृष्टि से चिन्तन करें तो यह भौगोलिक वर्णन हमें लोकबोधिभावना के मर्म को समझने में बहुत ही सहायक है, जिसे जानने पर हम उस स्थल को जान लेते हैं, जहाँ हम जन्म-जन्मान्तर से और बहुविध स्खलनों के कारण उस मुख्य केन्द्र पर अपनी पहुँच नहीं बना पा रहे हैं जो हमारा अन्तिम लक्ष्य है / हम अज्ञानवश भटक रहे हैं। यह भटकना अन्तहीन और निरुद्देश्य है, यदि प्रात्मा पुरुषार्थ करता है तो वह इस दुष्चक्र को काट सकता है / भूगोल की यह सबसे बड़ी उपयोगिता है-इसके माध्यम से प्रात्मा इस अन्तहीन व्यूह को समझ सकता है। हम जहाँ पर रहते हैं या जो हमारी अनन्तकाल से जानी-अनजानी यात्राओं का बिन्दु रहा है, उसे हम जानें कि वह कैसा है ? कितना बड़ा है ? उसमें कहाँ पर क्या-क्या है ? कितना हम अपने चर्म-चक्षत्रों से निहारते हैं ? क्या वही सत्य है या उसके अतिरिक्त भी और कुछ ज्ञेय है? इस प्रकार के अनेक प्रश्न हमारे मन और मस्तिष्क में उदबुद्ध होते हैं और वे प्रश्न ऐसा समाधान चाहते हैं जो असंदिग्ध हो, ठोस हो और सत्य पर आधत हो / प्रस्तुत प्रागम में केवल जम्बूद्वीप का ही वर्णन है। जम्बूद्वीप तो इस संसार में जितने द्वीप हैं उन सबसे छोटा द्वीप है। अन्य द्वीप इस द्वीप से कई गुना बड़े हैं। जिसमें यह आत्मा कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर मोह की पट्टी बाँधे धूम रहा है। हमारे मनीषियों ने भूगोल का जो वर्णन किया है उसका यही प्राशय है कि इस मंच पर यह जीव अनवरत अभिनय करता रहा है। अभिनय करने पर भी न उसे मंच का पता है और न नेपथ्य का ही। जब तप से, जप से अन्तर्नेत्र खुलते हैं तब उसे ज्ञान के दर्पण में सारे दृश्य स्पष्ट दिखलाई देने लगते हैं कि हम कहाँ-कहाँ भटकते रहे और जहाँ भटकते रहे उसका स्वरूप यह है। वहाँ क्या हम अकेले ही थे या अन्य भी थे? इस प्रकार के विविध प्रश्न जीवन-दर्शन के सम्बन्ध में उबुद्ध होते हैं। जन भूगोल मानचित्रों का कोई संग्रहालय नहीं है और न वह रंग-रेखाओं, कोणों-भुजाओं का ज्यामितिक दृश्य ही है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी महापुरुषों के द्वारा कथित होने से हम उसे काल्पनिक भी नहीं मान सकते। जो वस्तुस्वरूप को नहीं जानते और वस्तुस्वरूप को जानने के लिये प्रबल पुरुषार्थ भी नहीं करते, उनके लिये भले ही यह वर्णन काल्पनिक हो, किन्तु जो राग-द्वेष, माया-मोह प्रादि से परे होकर आत्मचिन्तन करते हैं, उनके लिये यह विज्ञान मोक्षप्राप्ति के लिये जीवनदर्शन है, एक रास्ता है, पगडंडी है / 234 जैन भूगोल का परिज्ञान इसलिये भावश्यक है कि आत्मा को अपनी विगतमामत/अनागत यात्रा का ज्ञान हो जाये और उसे यह भी परिज्ञान हो जाये कि इस विराट् विश्व में उसका असली स्थान कहाँ है ? उसका अपना गन्तव्य क्या है ? वस्तुत: जैन भूगोल अपने घर की स्थितिबोध का शास्त्र है। उसे भूगोल न कहकर जीवनदर्शन कहना अधिक यथार्थ है। वर्तमान में जो भूगोल पढ़ाया जाता है, वह विद्यार्थी को भौतिकता की ओर ले जाता है। वह केवल ससीम की व्याख्या करता है। बह असीम की व्याख्या करने में असमर्थ है। उसमें स्वरूपबोध का ज्ञान नहीं है जबकि महामनीषियों द्वारा प्रतिपादित भूगोल में अनन्तता रही हुई है, जो हमें बाहर से भीतर की ओर झांकने को उत्प्रेरित करती है। जो भी प्रास्तिक दर्शन हैं जिन्हें आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास है, वे यह मानते हैं कि प्रात्मा कर्म के कारण इस विराट विश्व में परिभ्रमण कर रहा है। हमारी जो यात्रा चल रही है, उसका नियामक तत्त्व कम वह हमें कभी स्वर्गलोक की यात्रा कराता है तो कभी नरकलोक को, कभी तिर्यञ्चलोक की तो कभी मानव लोक की। उस यात्रा का परिज्ञान करना या कराना ही जैन भूगोल का उद्देश्य रहा है। प्रात्मा शाश्वत है, कर्म भी शाश्वत है और धार्मिक भूगोल भी शाश्वत है। क्योंकि प्रात्मा का वह परिभ्रमण स्थान है। जो पात्मा और कर्मसिद्धान्त को नहीं जानता वह धार्मिक भूगोल को भी नहीं जान सकता / आज कहीं पर अतिवृष्टि का प्रकोप है, 234. तीर्थकर, जैन भूगोल विशेषाङ्क-डॉ. नेमीचन्द जैन इन्दौर [ 52 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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