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________________ चतुर्थ वक्षस्कार [181 उसकी बाहा-भुजा सदृश प्रदेश पूर्व-पश्चिम 5350 " योजन लम्बा है। उसकी जीवाधनुष की प्रत्यंचा सदृश प्रदेश पूर्व-पश्चिम लम्बा है / वह (अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है), अपने पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है / वह (जीवा) 24632 योजन एवं आधे योजन से कुछ कम लम्बी है। दक्षिण में उसका धनु पृष्ठ भाग परिधि की अपेक्षा से 25230 योजन बतलाया गया है। वह रुचक-संस्थान-संस्थित है- रुचक संज्ञक आभूषण-विशेष का आकार लिये हुए है, सर्वथा स्वर्णमय है। वह स्वच्छ, सुकोमल तथा सुन्दर है / वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं एवं दो वनखंडों से घिरा हुआ है / उनका वर्णन पूर्वानुरूप चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर बहुत समतल और रमणीय भूमिभाग है / वह आलिंगपुष्कर-मुरज या ढोलक के ऊपरी चर्मपुट के सदृश समतल है / वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव तथा देवियाँ विहार करते हैं। पद्महद 60. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए इत्थ णं इक्के महं पउमद्दहे णामं दहे पण्णत्ते। पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिण-वित्थिण्णे, इक्कं जोग्रण-सहस्सं पायामेणं, पंच जोअणसयाई विक्खंभेणं, दस जोअणाई उध्वेहेणं, अच्छे, सण्हे, रययामयकले (लण्हे, घट्ट, मट्ट, जीरये, णिप्पंके, णिक्कंकडच्छाए, सप्पभे, सस्सिरीए, सउज्जोए,) पासाईए, (दरिसणिज्जे, अभिरूवे,) पडिरूवेत्ति। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवप्रो समंता संपरिक्खित्ते / वेइआ-वणसंडवण्णो भाणिप्रव्वोत्ति। तस्स णं पउमद्दहस्स चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता। वण्णावासो भाणिग्रव्वोत्ति / तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेअं 2 तोरणा पण्णत्ता। ते णं तोरणा जाणामणिमया। तस्स गं पउमद्दहस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थं महं एगे पउमे पण्णते, जोअणं पायाम-विक्खंभेणं, प्रद्धजोअणं वाहल्लेणं, दस जोप्रणाई उम्वेहेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ। साइरेगाई दसजोषणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ता। से णं एगाए जगईए सम्वनो समंता संपरिक्खित्तो जम्बुद्दीवजगइप्पमाणा, गवक्खकडएवि तह चेव पमाणेणंति / तस्स णं पउमस्स अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-बहरामया मूला, रिटामए कंदे, वेरुलिग्रामए णाले, वेरुलिआमया बाहिरपत्ता, जम्बूणयामया अभिंतरपत्ता, तवणिज्जमया केसरा, णाणामणिमया पोक्खरस्थिभाया, कणगामई कण्णिगा। सा गं अद्धजोयणं पायामविक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, सव्वकणगामई, अच्छा। तीसे णं कणियाए उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा। तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए, एस्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते, कोसं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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