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________________ प्रथम वक्षस्कार] - तत्थ णं जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं, अट्ठसयं चंदणकलसाणं, एवं भिंगाराणं, आयंसगाणं, थालाणं, पाईणं, सुपट्ठगाणं, मणोगुलिआणं, वातकरगाणं, चित्ताणं रयणकरंडगाणं, हयकंठाणं जाव उसभकंठाणं, पुप्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं, पुप्फपडलगाणं जाव लोमहत्थपडलगाणं) धूवकडुच्छुगा। [16] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत पर सिद्धायतनकूट कहाँ है ? गौतम ! पूर्व लवण समुद्र के पश्चिम में, दक्षिणार्ध भरतकट के पूर्व में, जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में वैताढ्य पर्वत पर सिद्धायतन कूट नामक कूट है / वह छह योजन एक कोस ऊँचा, मूल में छह योजन एक कोस चौड़ा, मध्य में कुछ कम पाँच योजन चौड़ा तथा ऊपर कुछ अधिक तीन योजन चौड़ा है / मूल में उसकी परिधि कुछ कम बाईस योजन की, मध्य में कुछ कम पन्द्रह योजन की तथा ऊपर कुछ अधिक नौ योजन की है / वह मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त-संकुचित या संकड़ा तथा ऊपर पतला है। वह गोपुच्छ-संस्थान-संस्थित है-गाय के पूछ के आकार जैसा है / वह सर्व-रत्नमय, स्वच्छ, सुकोमल तथा सुन्दर है। वह एक पद्मवरवेदिका एव एक वनखंड से सब ओर से परिवेष्टित है / दोनों का परिमाण पूर्ववत् है / सिद्धायतन कट के ऊपर अति समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। वह मृदंग के ऊपरी भाग जैसा समतल है / वहाँ वानव्यन्तर देव और देवियां विहार करते हैं। उस अति समतल, रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक बड़ा सिद्धायतन है / वह एक कोस लम्बा, प्राधा कोस चौड़ा और कुछ कम एक कोस ऊँचा है / वह अभ्युन्नत-ऊँची, सुकृत सुरचित वेदिकाओं, तोरणों तथा सुन्दर पुत्तलिकाओं से सुशोभित है / उसके उज्ज्वल स्तम्भ चिकने, विशिष्ट, सुन्दर प्राकार युक्त उत्तम वैडूर्य मणियों से निर्मित हैं। उसका भूमिभाग विविध प्रकार की मणियों और रत्नों से खचित है, उज्ज्वल है, अत्यन्त समतल तथा सुविभक्त है / उसमें ईहामृग-भेड़िया, वृषभ-बैल, तुरग-घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, कस्तूरी-मृग, शरभ-अष्टापद, चँवर, हाथी, वनलता, (नागलता, अशोकलता, चंपकलता, आम्रलता, वासन्तिकलता, अतिमुक्तकलता, कुदलता, श्यामलता) तथा पद्मलता के चित्र अंकित हैं / उसकी स्तूपिका-शिरोभाग स्वर्ण, मणि और रत्नों से निर्मित है / जैसा कि अन्यत्र वर्णन है, वह सिद्धायतन अनेक प्रकार की पंचरंगी मणियों से विभूषित है / उसके शिखरों पर अनेक प्रकार की पंचरंगी ध्वजाएँ तथा घंटे लगे हैं। वह सफेद रंग का है। वह इतना चमकीला है कि उससे किरणें प्रस्फुटित होती हैं। (वहाँ की भूमि गोबर आदि से लिपी है। उसकी दीवारें खड़िया, कलई आदि से पुती हैं / उसकी दीवारों पर गोशीर्ष चन्दन तथा सरस-आर्द्र लाल चन्दन के पांचों अंगुलियों और हथेली सहित हाथ की छापें लगी हैं। वहाँ चन्दन-कलश-चन्दन से चचित मंगल-घट रखे हैं। उसका प्रत्येक द्वार-भाग चन्दन-कलशों और तोरणों से सजा है / जमीन से ऊपर तक के भाग को छूती हुई बड़ी-बड़ी, गोल तथा लम्बी अनेक पुष्पमालाएँ वहाँ लटकती हैं / पाँचों रंगों के सरस-ताजे फूलों के ढेर के ढेर बहाँ चढ़ाये हुए हैं, जिनसे वह बड़ा सुन्दर प्रतीत होता है। काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथा धूप की गमगमाती महक से वहाँ का वातावरण बड़ा मनोज्ञ है, उत्कृष्ट सौरभमय है। सुगन्धित धुएँ की प्रचुरता से वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले से बन रहे हैं।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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