________________ जिम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जम्बुद्दीवे दोवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि दूरे अमूले अ दोसंति, मतिभ-मुहत्तंसि मूले प्रदूरे अ दीसंति, अत्थमणमुहत्तंसि दूरे अमूले अ दीसंति ? ___गोयमा ! लेसा-पडिधाएणं उग्गमणमुहत्तंसि दूरे अमूले अ दोसंति इति / लेसाहितावेणं मज्झतिअ-मुहत्तंसि मूले अदूरे अ दीसंति / लेसा-पडिघाएणं अस्थमणमुहत्तंसि दूरे अमूले प्रदीसंति / एवं खलु गोयमा ! तं चेव (दूरे अमूले अ) दीसंति / [169] ! क्या जम्बूद्वीप में सूर्य (दो) उद्गमन-मुहूर्त में-उदयकाल में स्थानापेक्षया दूर होते हुए भी द्रष्टा की प्रतीति की अपेक्षा से मूल-प्रासन्न या समीप दिखाई देते हैं ? मध्याह्न-काल में स्थानापेक्षया समीप होते हुए भी क्या वे दूर दिखाई देते हैं ? अस्तमन-वेला में-अस्त होने के समय क्या वे दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं ? हाँ गौतम ! वे वैसे ही (निकट एवं दूर) दिखाई देते हैं / भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्य उदयकाल, मध्याह्न-काल तथा अस्तमन-काल में क्या सर्वत्र एक सरीखी ऊँचाई लिये होते हैं ? हाँ, गौतम ! ऐसा ही है / वे सर्वत्र एक सरीखी ऊँचाई लिये होते हैं। भगवन् ! यदि जम्बूद्वीप में सूर्य उदय-काल, मध्याह्न-काल तथा अस्तमन-काल में सर्वत्र एक-सरीखी ऊँचाई लिये होते हैं तो उदय-काल में वे दूर होते हुए भी निकट क्यों दिखाई देते हैं, मध्याह्न-काल में निकट होते हुए भी दूर क्यों दिखाई देते हैं तथा अस्तमन-काल में दूर होते हुए भी निकट क्यों दिखाई देते हैं ? गौतम ! लेश्या के प्रतिघात से---सूर्य मण्डलगत तेज के प्रतिघात से - अत्यधिक दूर होने के कारण उदयस्थान से आगे प्रसृत न हो पाने से, यों तेज या ताप के प्रतिहत होने के कारण सुखदृश्यसुखपूर्वक देखे जा सकने योग्य होने के कारण दूर होते हुए भी सूर्य उदय-काल में निकट दिखाई मध्याह्नकाल में लेश्या के अभिताप से--सूर्यमण्डलगत तेज के अभिताप से प्रताप सेविशिष्ट ताप से निकट होते हुए भी सूर्य के तीव्र तेज की दुर्दश्यता के कारण-कष्टपूर्वक देखे जा सकने योग्य होने के कारण दूर दिखाई देते हैं। अस्तमन-काल में लेश्या के प्रतिघात के कारण उदय-काल की ज्यों दूर होते हुए भी सूर्य निकट दिखाई पड़ते हैं। गौतम दूर तथा निकट दिखाई पड़ने के यही कारण हैं। क्षेत्रगमन 170. जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिआ कि तीअं खेत्तं गच्छंति, पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छन्ति, प्रणामयं खेत्तं गच्छन्ति ? गोयमा ! णो तीअं खेत्तं गच्छन्ति, पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छन्ति, णो अणागयं खेत्तं गच्छन्ति त्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org