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________________ चतुर्थ वक्षस्कार] 265 णामं वासहरपब्धए पण्णत्ते / पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणयित्थिपणे, णिसहवत्तव्यया णीलवन्तस्स भाणिवा, णवरं जीवा दाहिणेणं, धणु उत्तरेणं / एत्थ णं केसरिद्दहो, दाहिणेणं सोपा महाणई पवढा समाणी उत्तरकुरु एज्जमाणी 2 जमगपव्वए णीलवन्तउत्तरकुरुचन्देरावतमालवन्तहहे अ दुहा विभयमाणी 2 चउरासीए सलिलासहस्सेहिं प्रापूरेमाणी 2 भद्दसालवणं एज्जमाणी 2 मन्दरं पव्वयं दोहिं जोमणेहि असंपत्ता पुरत्थाभिमुही पावत्ता समाणी अहे मालवन्तवक्खारपव्वयं दालयित्ता मन्दरस्स पब्वयस्स पुरथिमेणं पुश्वविदेहवासं दुहा विभयमाणी 2 एगमेगानो चक्कवट्टिविजयाप्रो प्रहावीसाए 2 सलिलासहस्सेहि प्रापूरमाणो 2 पञ्चहि सलिलासयसहस्सेहि बत्तीसाए अ सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे विजयस्स दारस्स जगई दालइत्ता पुरथिमेणं लवणसमुई समप्पेइ, अवसिढें तं चेवत्ति। एवं णारिकतावि उत्तराभिमुही णेप्रवा, गवरमिमं णाणत्तं गन्धावइवट्टवेअद्धपव्ययं जोअणणं असंपत्ता पच्चत्थाभिमुही प्रावत्ता समाणो अवसिटें तं चेव पवहे अ मुहे अ जहा हरिकन्तसलिला इति / णीलवन्ते णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कडा पण्णत्ता? गोयमा ! नव क डा पण्णत्ता, तं जहा सिद्धाययणकूडे० / सिद्ध 1, णीले 2, पुम्वविदेहे 3, सोमाय 4, कित्ति 5, णारी अ६। अवरविदेहे 7, रम्मग-क डे 8, उवदंसणे व // 1 // सब्वे एए कडा पञ्चसइया रायहाणी उ उत्तरेणं / से केणठेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ–णोलवन्ते वासहरपब्वए 2 ? गोयमा ! णीले गोलोभासे गोलवन्ते अ इत्य देवे महिड्डीए जाव' परिवसइ सम्ववेलिप्रामए णोलवन्ते जाव णिच्चेति / [136] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत नीलवान् नामक वर्षधर पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! महाविदेह क्षेत्र के उत्तर में, रम्यक क्षेत्र के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत नीलवान् नामक वर्षधर पर्वत बतलाया गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा और उत्तर-दक्षिण चौड़ा है। जैसा निषध पर्वत का वर्णन है, वैसा ही नीलवान् वर्षधर पर्वत का वर्णन है। इतना अन्तर है-दक्षिण में इसकी जीवा है, उत्तर में धनुपृष्ठभाग है। उसमें केसरी नामक द्रह है। दक्षिण में उससे शीता महानदी निकलती है। वह उत्तरकुरु में बहती है / प्रागे यमक पर्वत तथा नीलवान्, उत्तरकुरु, चन्द्र, ऐरावत एवं माल्यवान् द्रह को दो भागों में बाँटती हुई आगे बढ़ती है। उसमें 84000 नदियां मिलती हैं। उनसे आपूर्ण होकर वह भद्रशाल वन में बहती है। जब मन्दर पर्वत दो योजन दूर रहता है, तब वह पूर्व की ओर 1. देखें सूत्र संख्या 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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