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________________ 104 [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र [58] तत्पश्चात् राजा भरत चातुर्घट–चार घंटे वाले अश्वरथ पर सवार हुा / वह घोड़े, हाथी, रथ तथा पदातियों से युक्त चातुरंगिणी सेना से घिरा था। बड़े-बड़े योद्धाओं का समूह उसके साथ चल रहा था / हजारों मुकुटधारी श्रेष्ठ राजा उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। चक्ररत्न द्वारा दिखाये गये मार्ग पर वह आगे बढ़ रहा था। उस द्वारा किये गये सिंहनाद के कलकल शब्द से ऐसा भान होता था कि मानो वायु द्वारा प्रक्षुभित महासागर गर्जन कर रहा हो। उसने पूर्व दिशा की ओर आगे बढ़ते हुए, मागध तीर्थ होते हुए अपने रथ के पहिये भीगे, उतनी गहराई तक लवणसमुद्र में प्रवेश किया। फिर राजा भरत ने घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया और अपना धनुष उठाया। वह धनुष अचिरोद्गत बालचन्द्र--शुक्लपक्ष की द्वितीया के चन्द्र जैसा एव इन्द्रधनुष जैसा था / उत्कृष्ट, गर्वोद्धत भैसे के सुदृढ, सघन सींगों की ज्यों निविड-निश्छिद्र-पुद्गलनिष्पन्न था। उस धनुष का पृष्ठ भाग उत्तम नाग, महिषशृग, श्रेष्ठ कोकिल, भ्रमरसमुदाय तथा नील के सदृश उज्ज्वल काली कांति से युक्त, तेज से जाज्वल्यमान एवं निर्मल था / निपुण शिल्पी द्वारा चमकाये गये, देदीप्यमान मणियों और रत्नों की घंटियों के समूह से वह परिवेष्टित था। बिजली की तरह जगमगाती किरणों से युक्त, स्वर्ण से परिबद्ध तथा चिह्नित था। दर्दर एवं मलय पर्वत के शिखर पर रहने वाले सिंह के अयाल तथा चँवरी गाय की पूछ के बालों के उस पर सुन्दर, अर्ध चन्द्राकार बन्ध लगे थे। काले, हरे, लाल, पीले तथा सफेद स्नायुनों नाडी-तन्तुओं से उसकी प्रत्यञ्चा बंधी थी। शत्रुओं के जीवन का विनाश करने में वह सक्षम था। उसकी प्रत्यञ्चा चंचल थी। राजा ने वह धनुष उठाया। उस पर बाण चढ़ाया / बाण की दोनों कोटियां उत्तम वज्र श्रेष्ठ हीरों से बनी थीं। उसका मुख-सिरा वज्र की भांति अभेद्य था। उसका पूख-पीछे का भाग-स्वर्ण में जड़ी हई चन्द्रकांत आदि मणियों तथा रत्नों से सुसज्ज था / उस पर अनेक मणियों और रत्नों द्वारा सुन्दर रूप में राजा भरत का नाम अंकित था। भरत ने वैशाख-धनुष चढ़ाने के समय प्रयुक्त किये जाने वाले विशेष पादन्यास में स्थित होकर उस उत्कृष्ट बाण को कान तक खींचा और वह यों बोला __ मेरे द्वारा प्रयुक्त बाण के बहिर्भाग में तथा आभ्यन्तर भाग में अधिष्ठित नागकुमार, असुर कुमार, सुपर्ण कुमार आदि देवो ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप सुनें--स्वीकार करें। यों कहकर राजा भरत ने बाण छोड़ा / मल्ल जब अखाड़े में उतरता है, तब जैसे वह कमर बांधे होता है, उसी प्रकार भरत युद्धोचित वस्त्र-बन्ध द्वारा अपनी कमर बांधे था / उसका कौशेय-- पहना हुआ वस्त्र-विशेष हवा से हिलता हुआ बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था। विचित्र, उत्तम धनुष धारण किये वह साक्षात् इन्द्र की ज्यों सुशोभित हो रहा था, विद्युत की तरह देदीप्यमान था / पञ्चमी के चन्द्र सदृश शोभित वह महाधनुष राजा के विजयोद्यत बायें हाथ में चमक रहा था। राजा भरत द्वारा छोड़े जाते ही वह बाण तुरन्त बारह योजन तक जाकर मागध तीर्थ के अधिपति-अधिष्ठातृ देव के भवन में गिरा / मागध तीर्थाधिपति देव ने ज्योंही बाण को अपने भवन में गिरा हुआ देखा तो वह तत्क्षण क्रोध से लाल हो गया, रोषयुक्त हो गया, कोपाविष्ट हो गया, प्रचण्ड–विकराल हो गया, क्रोधाग्नि से उद्दीप्त हो गया / कोपाधिक्य से उसके ललाट पर तीन रेखाएं उभर आईं। उसकी भृकुटि तन गई / वह बोला--- 'अप्रार्थित—जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाला, दुःखद अन्त तथा अशुभ लक्षण वाला, पुण्य चतुर्दशी जिस दिन हीन-असम्पूर्ण थी-घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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