________________ तृतीय वक्षस्कार] [105 अशुभ दिन में जन्मा हुआ, लज्जा तथा श्री-शोभा से परिवजित वह कौन अभागा है, जिसने उत्कृष्ट देवानुभाव से लब्ध प्राप्त स्वायत्त मेरी ऐसी दिव्य देवऋद्धि, देवधुति पर प्रहार करते हुए मौत से न डरते हुए मेरे भवन में बाण गिराया है ?' यों कहकर वह अपने सिंहासन से उठा और जहाँ वह नामांकित बाण पड़ा था, वहाँ पाया / पाकर उस बाण को उठाया, नामांकन देखा / देखकर उसके मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हा---'जम्बूद्वीप के अन्तर्वर्ती भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है / अतः अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-भूत, वर्तमान एवं भविष्यवर्ती मागधतीर्थ के अधिष्ठातृ देवकुमारों के लिए यह उचित है, परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें / इसलिए मैं भी जाऊँ, राजा को उपहार भेंट करू।' यों विचार कर उसने हार, मुकुट, कुण्डल, कटक –कंकण-कड़े, त्रुटित--- भुजबन्ध, वस्त्र, अन्यान्य विविध अलंकार, भरत के नाम से अंकित बाण और मागध तीर्थ का जल लिया। इन्हें लेकर वह उत्कृष्ट, त्वरित वेगयुक्त, सिंह की गति की ज्यों प्रबल, शीघ्रतायक्त, तीव्रतायक्त, दिव्य देवगति से चलता हुआ जहाँ राजा भरत था, वहाँ पाया / वहाँ पाकर छोटी-छोटी घंटियों से युक्त पंचरंगे उत्तम वस्त्र पहने हुए, अाकाश में संस्थित होते हुए उसने अपने जुड़े हुए दोनों हाथों से मस्तक को छूकर अंजलिपूर्वक राजा भरत को 'जय, विजय' शब्दों द्वारा वर्धापित किया उसे बधाई दी और कहा—'आपने पूर्व दिशा में मागध तीर्थ पर्यन्त समस्त भरतक्षेत्र भली-भांति जीत लिया है। मैं आप द्वारा जीते हुए देश का निवासी हूँ, आपका अनुज्ञावर्ती सेवक हूँ, आपका पूर्व दिशा का अन्तपाल हूँ-उपद्रव-निवारक हूँ। अतः आप मेरे द्वारा प्रस्तुत यह प्रीतिदान–परितोष एवं हर्षपूर्वक उपहृत भेंट स्वीकार करें।' यों कह कर उसने हार, मुकुट, कुण्डल, कटक (त्रुटित, वस्त्र, आभूषण, भरत के नाम से अंकित बाण) और मागध तीर्थ का जल भेंट किया / राजा भरत ने मागध तीर्थकुमार द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत प्रीतिदान स्वीकार किया। स्वीकार कर मागध तीर्थकुमार देव का सत्कार किया, सम्मान किया / सत्कार सम्मान कर उसे विदा किया। फिर राजा भरत ने अपना रथ वापस मोड़ा / रथ मोड़कर वह मागध तीर्थ से होता हुआ लवणसमुद्र से वापस लौटा / जहाँ उसका सैन्य-शिविर—छावनी भी, तद्गत बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ पाया। वहाँ आकर घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया, रथ से नीचे उतरा, जहाँ स्नानघर था, गया। स्नानघर में प्रविष्ट हुअा। उज्ज्वल महामेघ से निकलते हुए चन्द्रसदृश प्रियदर्शन—सुन्दर दिखाई देने वाला राजा स्नानादि सम्पन्न कर स्नानघर से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहाँ भोजनमण्डप था वहाँ पाया। भोजनमण्डप में प्राकर सुखासन से बैठा, तेले का पारणा किया। तेले का पारणा कर वह भोजनमण्डप से बाहर निकला, जहाँ बाह्य उपस्थानशाला थी, सिंहासन था, वहाँ आया / आकर पूर्व की ओर मुह किये सिंहासन पर ग्रासीन हुआ / सिंहासनासीन होकर उसने अठारह श्रेणीप्रश्रेणी-अधिकृत पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उन्हें कहा--'देवानुप्रियो ! मागधतीर्थकुमार देव को विजित कर लेने के उपलक्ष में अष्ट दिवसीय महोत्सव आयोजित करो। उस बीच कोई भी क्रय-विक्रय सम्बन्धी शुल्क, सम्पत्ति पर प्रति वर्ष लिया जाने वाला राज्य-कर आदि न लिये जाएं, यह उद्घोषित करो। राजा भरत द्वारा यों आज्ञप्त होकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक वैसा ही किया। वैसा कर वे राजा के पास आये और उसे यथावत् निवेदित किया। तत्पश्चात् राजा भरत का दिव्य चक्ररत्न मागवतीर्थकुमार देव के विजय के उपलक्ष में प्रायोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर शस्त्रागार से प्रतिनिष्क्रान्त हुआ- बाहर निकला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org