________________ द्वितीय वक्षस्कार] स्थल, वैभार प्रादि क्रीडापर्वत, गोपाल, चित्रकूट आदि गिरि, डूगर-पथरीले टोले, उन्नत स्थल-ऊँचे बे, भ्राष्ट-धलवजित भमि-पठार, इन सब को तहस-नहस कर डालेंगे। गंगा और सिन्धु महानदी के अतिरिक्त जल के स्रोतों, झरनों, विषमगर्त-ऊबड़-खाबड़ खड्डों, निम्न-उन्नतनीचे-ऊँचे जलीय स्थानों को समान कर देंगे --उनका नाम-निशान मिटा देंगे। __ भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र की भूमि का प्राकार-स्वरूप कैसा होगा? गौतम! भूमि अंगारभूत ज्वालाहीन वह्निपिण्डरूप, मुर्मरभूत--तुषाग्निसदृश विरलअग्निकणमय, क्षारिकभूत-भस्म रूप, तप्तकदेल्लुकभूत--तपे हुए कटाहं सदृश, सर्वत्र एक जैसी तप्त, ज्वालामय होगी। उसमें धूलि, रेणु-वालुका, पंक-कीचड़, प्रतनु-पतले कीचड़, चलते समय जिसमें पैर डूब जाए, ऐसे प्रचुर कीचड़ की बहुलता होगी। पृथ्वी पर चलने-फिरने वाले प्राणियों का उस पर चलना बड़ा कठिन होगा। भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र में मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा होगा? गौतम ! उस समय मनुष्यों का रूप, वर्ण-रंग, गंध, रस तथा स्पर्श अनिष्ट अच्छा नहीं लगने वाला, अकान्त-..-कमनीयता रहित, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ-मन को नहीं भाने वाला तथा अमनोऽम-अमनोगम्य मन को नहीं रुचने वाला होगा। उनका स्वर हीन, दीन, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोगम्य और अमनोज्ञ होगा / उनका वचन, जन्म अनादेय अशोभन होगा। वे निर्लज्जलज्जा-रहित, कूट-भ्रांतिजनक द्रव्य, कपट-छल, दूसरों को ठगने हेतु वेषान्तरकरण आदि, कलहझगड़ा, बन्ध-रज्जु प्रादि द्वारा बन्धन तथा वैर-शत्रुभाव में निरत होंगे। मर्यादाएँ लांघने, तोड़ने में प्रधान, अकार्य करने में सदा उद्यत एवं गुरुजन के प्राज्ञा-पालन और विनय से रहित होंगे / वे विकलरूप-असंपूर्ण देहांगयुक्त–काने, लंगड़े, चतुरंगुलिक आदि, आजन्म संस्कारशून्यता के कारण बढ़े हुए नख, केश तथा दाढ़ी-मूछ युक्त, काले, कठोर स्पर्शयुक्त, गहरी रेखाओं या सलवटों के कारण फूटे हुए से मस्तक युक्त, धुएँ के से वर्ण वाले तथा सफेद केशों से युक्त, अत्यधिक स्नायुओं-नाड़ियों से संपिनद्ध----परिबद्ध या छाये हुए होने से दुर्दर्शनीय रूपयुक्त, देह में पास-पास पड़ी झुरियों की तरंगों से परिव्याप्त अंग युक्त, जरा-जर्जर बूढ़ों के सदृश, प्रविरल-दूर-दूर प्ररूढ तथा परिशटित-परिपतित दन्तश्रेणी युक्त, घड़े के विकृत मुख सदृश मुखयुक्त अथवा भद्दे रूप में उभरे हुए मुख तथा घांटी युक्त, असमान नेत्रयुक्त, वक्र-टेढ़ी नासिकायुक्त झुरियों से विकृत--वीभत्स, भीषण मुखयुक्त, दाद, खाज, सेहरा आदि से विकृत, कठोर चर्मयुक्त, चित्रल-कर्बुर चितकबरे अवयवमय देहयुक्त, पाँव एवं खसरसंज्ञक चर्म रोग से पीड़ित, कठोर, तीक्ष्ण नखों से खाज करने के कारण विकृत-व्रणमय या खरोंची हुई देहयुक्त, टोलगति-ऊँट आदि के समान चालयुक्त या टोलाकृति-अप्रशान्त प्राकारयुक्त, विषमसन्धि-बन्धनयुक्त, अयथावस्थित अस्थियुक्त, पौष्टिक भोजन रहित, शक्तिहीन, कुत्सित संहनन, कुत्सित परिमाण, कुत्सित संस्थान एवं कुत्सित रूप युक्त, कुत्सित पाश्रय, कुत्सित आसन, कुत्सित शय्या तथा कुत्सित भोजनसेवी, अशुचि--अपवित्र अथवा अश्रुति--श्रुत-शास्त्र ज्ञान-वजित, अनेक व्याधियों से पीडित, स्खलित-विहल गतियुक्त लड़खड़ा कर चलने वाले, उत्साह-रहित. सत्त्वहीन, निश्चेष्ट, नष्टतेज-तेजोविहीन, निरन्तर शीत, उष्ण, तीक्ष्ण, कठोर वायु से व्याप्त शरीरयुक्त, मलिन धूलि से आवृत देहयुक्त, बहुत क्रोधी, अहंकारी, मायावी, लोभी तथा मोहमय, अशुभ कार्यों के परिणाम स्वरूप अत्यधिक दुःखी, प्रायः धर्मसंज्ञा-धार्मिक श्रद्धा तथा सम्यक्त्व से परिभ्रष्ट होंगे। उत्कृष्टतः उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org