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________________ 278] [नम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र दिक्कुमारिकाओं द्वारा विकुर्वित फूलों के बादल जोर-जोर से गरजते हैं, उसी प्रकार, जल में उत्पन्न होने वाले कमल आदि, भूमि पर उत्पन्न होने वाले बेला, गुलाब आदि देदीप्यमान, पंचरंगे, बृत्तसहित फूलों की इतनी विपुल वृष्टि करते हैं कि उनका घुटने-घुटने तक ऊँचा ढेर हो जाता है। फिर वे काले अगर, उत्तम कुन्दरुक, लोबान तथा धूप की गमगमाती महक से वहां के वातावरण को बड़ा मनोज्ञ, उत्कृष्ट-सुरभिमय बना देती हैं। सुगंधित धुएँ की प्रचुरता से वहाँ गोल-गोल धूममय छल्ले से बनने लगते हैं। यों वे दिक्कुमारिकाएँ उस भूभाग को सुरवर–देवोत्तम देवराज इन्द्र के अभिगमन योग्य बना देती हैं। ऐसा कर वे भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी मां के पास आती हैं। वहाँ आकर (भगवान् तीर्थकर तथा उनकी मां से न अधिक दूर, न अधिक समीप) भागान, परिगान करती हैं। रुचकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव 147. तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरस्थिमरुप्रगवत्थव्यायो अढ दिसाकुमारीमहत्तरियानो सएहि 2 कूडेहि तहेव जाव' विहरंति, तं जहा णंदुत्तरा य 1, गन्दा 2, प्राणन्दा 3, गंदिवद्धणा 4 / विजया य 5, वेजयन्ती 6, जयन्ती 7, अपराजिना 8 // 1 // सेसं तं चेव (सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं क्यासी-मोत्थु ते रयणकुच्छिधारिए ! जगप्पईवदाईए ! सव्वजगमंगलस्स, चक्खुणो प्र मुत्तस्स, सम्वजगजीववच्छलस्स, हिसकारगमगदेसियवागिद्धिविभुप्पभुस्स, जिणस्स, गाणिस्स, नायगस्स, बुहस्स, बोहगस्स, सम्वलोगनाहस्स, निम्ममस्स, पवरकुलसमुम्भवस्स जाईए खत्तिस्स जंसि लोगुत्तमस्स जणणी ! धण्णासि तं पुण्णासि कयथासि मम्हे गं देवाणुप्पिए ! पुरस्थिमरुअगवत्थव्वाप्रो अटु दिसाकुमारीमहत्तरिमानो भगवनो तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो) तुम्भाहिं " भाइअव्वंति कटु भगवो तित्थगरस्स तित्थयरमायाए अपुरस्थिमेणं प्रायंसहत्थगयानो पागायमाणीनो परिगायमाणीनो चिट्ठन्ति / तेणं कालेणं तेणं समएणं दाहिणरुअगवत्थव्यानो अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरित्रानो तहेव जाव' विहरंति, तं जहा समाहारा 1, सुप्पइण्णा 2, सुप्पबुद्धा 3, जसोहरा 4 / लच्छिमई 5, सेसवई 6, चित्तगुत्ता 7, वसुधरा // 1 // तल्लेव जाव' तुम्भाहि न भाइअव्वंति कटु भगवनो तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए प्र दाहिणणं भिगारहत्थगयानो पागायमाणीनो, परिगायमाणीसो चिट्ठन्ति। 1. देखें सूत्र संख्या 146 2. देखें सूत्र संख्या 146 3. देखें सूत्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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