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________________ पञ्चम बलस्कार] [277 मासं वासंति) कालागुरु पवर-(कुदरुक्कतुरुक्कडझंत धूवमधमधन्तगंधुद्ध प्राभिरामं सुगंधवरगन्धि गंधवट्टिमूनं दिव्व) सुरवराभिगमणजोग्गं करेंति 2 ता जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य, तेणेव उवागच्छन्ति 2 ता (भगवनो तित्थयरस्स तित्थयरमायाए य अदूरसामते) मागायमाणीम्रो, परिगायमाणीश्रो चिट्ठति / [146] उस काल, उस समय मेघंकरा, मेघवती, सुमेधा, मेघमालिनी, सुवत्सा, वत्समिश्रा, वारिषेणा तथा बलाहका नामक, ऊर्ध्व लोकवास्तव्या-ऊर्ध्व लोक में निवास करनेवाली, महिमामयी आठ दिक्कुमारिकाओं के, जो अपने कूटों पर, अपने भवनों में, अपने उत्तम प्रासादों में अपने चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार महत्तरिकाओं, सात सेनाओं, सात सेनापति देवों, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों, अन्य अनेक भवनपति एवं वानव्यन्तर देव-देवियों से संपरिवृत, नृत्य, गीत एवं तुमुल वाद्य-ध्वनि के बीच विपुल सुखोपभोग में अभिरत होती हैं, प्रासन चलित होते हैं / एतत्सम्बद्ध शेष वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए / वे दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थंकर की माता से कहती हैं-देवानुप्रिये ! हम ऊर्ध्वलोकवासिनी विशिष्ट दिक्कुमारिकाएँ भगवान् तीर्थकर का जन्म-महोत्सव मनायेंगी / अतः आप भयभीत मत होना / यों कहकर वे उत्तर-पूर्व दिशा-भाग में-ईशान कोण में चली जाती हैं / (वहाँ जाकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा अपने आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालती हैं, पुनः वैसा करती हैं, वैसा कर) वे आकाश में बादलों की विकुर्वणा करती हैं, (जैसे कोई क्रिया-कुशल कर्मकर उदकवारक--मृत्तिकामय जल-भाजन विशेष, उदक-कुभ-जलघट-पानी का घड़ा, उदक-स्थालककांसी आदि से बना जल-पात्र, जल का कलश या भारी लेकर राजप्रासाद के प्रांगण आदि को धीरेधीरे सिक्त कर देता है-वहाँ पानी का छिड़काव कर देता है, उसी प्रकार, उन ऊर्ध्व लोकवास्तव्या, महिमामयी पाठ दिक्कुमारिकाओं ने आकाश में जो बादल विकूलित किये, वे (बादल) शीघ्र ही जोर-जोर से गरजते हैं, उनमें बिजलियां चमकती हैं तथा वे भगवान् महावीर के जन्म-भवन के चोरों ओर योजन-परिमित परिमंडल पर न अधिक पानी गिराते हुए, न बहुत कम पानी गिराकर मिट्टी को असिक्त, शुष्क रखते हुए मन्द गति से, धूल, मिट्टी जम जाए, इतने से धीमे वेग से उत्तम स्पर्शयुक्त, दिव्यसुगन्धयुक्त झिरमिर-झिरमिर जल बरसाते हैं। उससे रज-धूल-निहत हो जाती है-फिर उठती नहीं, जम जाती है, नष्ट हो जाती है -सर्वथा अदृश्य हो जाती है, भ्रष्ट हो जाती हैं-वर्षा के साथ चलती हवा से उड़कर दूर चली जाती है, प्रशान्त हो जाती है-सर्वथा असत्-अविद्यमान की ज्यों हो जाती है, उपशान्त हो जाती है। ऐसा कर वे बादल शीघ्र ही प्रत्युपशान्त-उपरत हो जाते हैं। फिर वे ऊर्ध्वलोकवास्तव्या आठ दिक्कुमारिकाएँ पुष्पों के बादलों की विकुर्वणा करती हैं। (जैसे कोई क्रिया-निष्णात माली का लडका एक बड़ी पूष्प-छाधिका--फलों की बडी टोकरी, पुष्प-पटलक-फूल रखने का पात्र-विशेष या पुष्प-चंगेरी-फूलों की डलिया लेकर राजमहल के प्रांगन आदि में कवग्रह-रति-कलह में प्रेमी द्वारा मुदुतापूर्वक पकड़े जाते प्रेयसी के केशों की ज्यों पंचरंगे फूलों को पकड़-पकड़ कर ले-लेकर सहज रूप में उन्हें छोड़ता जाता है, बिखेरता जाता है, पुष्पोपचार से, फूलों की सज्जा से उसे कलित-सुन्दर बना देता है,) ऊर्ध्वलोकवास्तव्या आठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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